परमेश्वर कबीर जी से काल ब्रह्म का विवाद करना (Kaal Brahm arguing with God Kabir)

हे धर्मदास! काल ब्रह्म आहार करने के लिए तप्तशिला की ओर चला। तब मैंने उन सर्व प्राणियों से कहा देखिए वह आ रहा है काल ब्रह्म साकार है, जिसे आप निराकार कहा करते। तेजोमय शरीर छोटा माथा लम्बे दांत डरावनी सूरत है। हे प्राणियों! अब आप जाओ। इतना कहते ही सर्व प्राणी जो तप्तशिला पर उपस्थित थे आकाश में उड़ गए तथा धर्मराज के दरबार में आ गए। वहाँ से कर्माधार से स्वर्ग-नरक या किसी प्राणी के शरीर में भेज दिया जाता है।

हे धर्मदास! जब काल ब्रह्म (ज्योति निरंजन) तप्त शिला के निकट आया। उस समय उसको मेरा स्वरूप मेरे उस पुत्र योगसन्तायन उर्फ योगजीत का दिखाई दिया जिस रूप में मैंने काल ब्रह्म को सतलोक से निष्काशित किया था तथा मुझे योगजीत जान कर क्रोधित होकर बोला हे योगजीत यहाँ मेरे लोक में मेरी आज्ञा के बिना किसलिए आया। आज मैं तुझे मारूंगा, तेरी जीवन लीला समाप्त करूंगा। तुने मुझे सत्यलोक से धक्के मार कर निकाला था। मैंने तेरे से बहुत विनय की थी सत्यलोक से न निकालने की परन्तु तूने एक नहीं सुनी थी। क्या आप पिता जी का (सत्यपुरूष का) कोई संदेश-आदेश लेकर आए हो वह मुझे बताइए तत्पश्चात् युद्ध के लिए तैयार हो जाइए। (मैंने जान लिया था धर्मदास कि यह मुझे योगजीत समझ रहा है इसलिए मैंने योगजीत की भूमिका करते हुए ये शब्द कहे) मैंने कहा हे काल निरंजन! मुझे पिता जी अर्थात् सत्यपुरूष ने भेजा है। तेरे लोक में सर्व आत्माऐं महाकष्ट उठा रही हैं। उनकी पुकार परमेश्वर ने सुन ली है। अब मैं तेरे नीचे के ब्रह्मण्डों में जाऊंगा। तेरे द्वारा बताए गए लोक वेद (व्यर्थ ज्ञान) का पर्दा फाश करूंगा तथा तत्वज्ञान द्वारा सर्व प्राणियों को पूर्ण परमात्मा का ज्ञान कराके सत्य साधना प्राप्त कराऊंगा। जिससे सर्व प्राणी मानव शरीर धारी सत्य साधना करके अपने पूर्व वाले स्थान सत्यलोक में चले जाऐंगे।

हे धर्मदास! मेरी बातें सुन कर काल ब्रह्म अत्यन्त क्रोधित हो गया तथा मुझे समाप्त् करने के उद्देश्य से मेरे ऊपर आक्रमण किया। मैंने सतनाम का सुमरण किया जिसके प्रभाव से काल ब्रह्म नीचे पाताल लोक में गिर गया। भयभीत होकर कांपने लगा उसकी स्थिति ऐसी हो गई जैसे पक्षी के पंख कट जाते हैं वह एक स्थान पर गिरा फड़फड़ाता है परन्तु उड़ नहीं पाता। मैं भी उसके साथ पाताल लोक में पहुँच गया। काल ब्रह्म ने जान लिया कि योगजीत के पास शक्तिशाली सिद्धि है ये मेरे से मारा नहीं जा सकता। तब उस (काल ब्रह्म) ने अपना स्वार्थ सिद्ध करने की अन्य युक्ति सोची। उसने कहा हे योगजीत आप मेरे बड़े भाई हो मैं आप का छोटा भाई हूँ। छोटे तो उत्पात ही किया करते हैं परन्तु बड़ों का बडप्पन क्षमा करने में ही होता है। मुझे क्षमा करो यह कहते हुए काल ब्रह्म घिसड़ता हुआ मेरे अति निकट आया तथा मेरे चरण पकड़ कर गिड़गड़ाने लगा। मैं उसको लेकर फिर इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में तप्त शिला के पास ले आया। मैंने कहा हे काल निरंजन ! मैंने तुझे क्षमा कर दिया मेरे पैर छोड़ मैंने नीचे के लोकों में जाना है तथा सर्व आत्माओं को तेरे जाल से मुक्त कराना है।

काल ब्रह्म (ज्योति निरंजन) ने कहा हे बड़े भाई! मैं आप को पिता तुल्य मानता हूँ। आप मुझे कुछ वरदान दो जिस कारण से मेरे लोक की कुछ त्रुटियाँ दूर हो जाऐं। आप फिर भले ही नीचे के लोकों में चले जाना। मैंने कहा मांग क्या मांगता है। ब्रह्म काल ने कहा आप वचन बद्ध हो जाऐं तब मांगूगा। मैंने कहा मैं वचन बद्ध होता हूँ मांग क्या मांगता है ?

काल ब्रह्म ने कहा

  1. तीन युगों (सत्ययुग, त्रेता, द्वापर युगों) में थोड़े जीव ले जाना। चैथे युग कलयुग में आप अधिक जीव मुक्त कराना। पिता जी ने मुझे शाप दे रखा है, एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों को नित्य खाने का यदि आप सर्व जीवों को एक ही युग में ले जाओगे तो मैं भूखा मर जाऊंगा।
  2. मैं आप का रूप धारण कर सकूं।
  3. जो आत्मा आप के ज्ञान को समझ कर आप के भक्तिमार्ग को ग्रहण करके आजीवन साधना करेगा। वह आप के लोक में जाये। जिस आत्मा का नाम खण्ड हो जाए अर्थात वह आपके भक्तिमार्ग को त्याग कर मेरी भक्ति करने लगे तथा आप के मार्ग को स्वीकार ही नहीं करे वे सर्व प्राणी मेरे लोक में ही रहें।
  4. त्रेता युग में मेरे अंश विष्णु अवतार रामचन्द्र की समुद्र पर पुल बनाने में सहायता करना
  5. द्वापर में मेरा अंश कृष्ण रूप में जाएगा। वह एक जगन्नाथ नाम से मन्दिर बनवाना चाहेगा समुन्द्र उसे तोड़ेगा। आप उस मंदिर कि समुद्र से रक्षा करना। उपरोक्त वर मुझे प्रदान करके आप नीचे जाईए तथा पिता जी की आज्ञा का पालन किजिए। मैंने काल ब्रह्म से कहा हे ज्योति निरंजन! जो उपरोक्त वर आपने मांगे वे सर्व मैंने आपको दे दिये। (तथा अस्तु)

हे धर्मदास ! उस स्वार्थी ने तुरन्त मेरे पैर छोड़ दिए तथा कहा हे जोगजीत! आप किस नाम जाप से भक्ति कराओगे? वह मुझे बता दो ताकि मैं उन आत्माओं को सत्यलोक जाने दूँ जिनके पास आप का मन्त्रा जाप होगा। मैं उनको छोड़ दूंगा। हे धर्मदास ! काल ने मेरे से छल करना चाहा कि सत्यनाम व सारनाम को जानकर वह अपने दूतों (संदेश वाहक गुरूओं) को बता देता। उनके द्वारा बताए गए इस सारनाम का साधक को कोई लाभ नहीं मिलता तथा जब मैं या मेरा अंश यही मन्त्रा जाप देते तो सर्व प्राणी कहते यह तो हमारे गुरूदेव ने जाप मन्त्रा दे रखा है तुम क्या नया बता रहे हो। हे धर्मदास ! यह महा धोखा हो जाता। इसलिए मैंने काल ब्रह्म से कहा कि मैं तेरी चाल को समझ गया हूँ। मैं तुझे वह सारनाम व सारज्ञान (तत्वज्ञान) नहीं बताऊंगा। जिस प्राणी के पास हमारे द्वारा बताया सारनाम होगा उसके निकट तू नहीं जा सकेगा उसे तू नहीं रोक सकेगा वह तेरे शीश पर पैर रखकर उस सारनाम की भक्ति की शक्ति से सत्यलोक चला जाएगा।

हे धर्मदास! तब काल ब्रह्म ने हंसते हुए कहा हे सहज दास! (हे धर्मदास काल ब्रह्म को मैं भिन्न-2 रूप अपने पुत्रों के दिखा रहा था वह कभी मुझे योगजीत समझ रहा था कभी उसे लगता था शायद यह सहज दास है कभी लगता था यह ज्ञानी है ये सर्व नाम उन 16 पुत्रों के हैं जो सत्यलोक सृष्टि की आदि में अपनी वचन शक्ति से उत्पन्न किए थे। कृप्या पढ़ें सृष्टी रचना में) आप जाओ नीचे संसार में मैंने सर्व जीवों को लोकवेद पर आधारित कर रखा है। मैंने अपने ऋषियों व महर्षियों को शास्त्रों (वेदों) के विपरीत ज्ञान प्रदान कर रखा है वे कहते हैं कि हम वेदों अनुसार ज्ञान बता रहे हैं परन्तु उनका लोकवेद शास्त्रों के ज्ञान के विपरीत है। उन ऋषियों को महाज्ञानी मानकर अन्य प्रजा उन्हीं के ज्ञान पर अति दृढ़ होकर लगी है। वे कहते है कि पूर्ण परमात्मा की भक्ति करो। वही मोक्ष दायक है परन्तु साधना विधि मेरे (काल ब्रह्म) जाल में फंसे रहने की ही बताते हैं जिस कारण से सर्व साधक व ऋषि जन मेरे ही फंदे में उलझे रहते हैं। कलयुग में कई धर्म बनवा दूंगा वे आपस में लड़ते मरते रहेगें। अन्य किसी भी सन्त या गुरू के ज्ञान को स्वीकार नहीं करेंगे। कलयुग में उत भूत की पूजा, भैंरौ, काली आदि की पूजा देवी व अन्य देवों की पूजा तथा तीर्थ, व्रत आदि करने में ही सर्व प्रजा अपना मोक्ष समझेगी। मन्दिर पूजा, समाध पूजा, मूर्ति पूजा या मृत्यु को प्राप्त हुए गुरूओं के धामों की पूजा तथा पितर पूजा (श्राद्ध-पिण्ड दान करना) पर ही सर्व साधक दृढ़ता से लगा दूंगा। श्री विष्णु अवतार राम व कृष्ण व श्री शिव जी को पूर्ण परमात्मा मान कर उन्हीं तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव जी) की पूजा में ही अपना कल्याण मानेगें। इन तीनों में से विशेष कर विष्णु व शिव को सर्वेश्वर, महेश्वर, अजर, अमर इनके कोई माता पिता नहीं हैं। ये ही पूजा के योग्य हैं। इन से भिन्न कोई देव पूज्य नहीं हैं, सर्व हिन्दू समाज को कलयुग में ऐसे ज्ञान पर आश्रित कर दिया जाएगा।

जिस समय आप या आप का कोई संदेश वाहक कलयुग में सारज्ञान अर्थात् तत्वज्ञान प्रदान करना चाहेगा वह उपरोक्त साधनाओं को व्यर्थ बताएगा तथा विष्णु व शिव से ऊपर कोई अन्य परमेश्वर का ज्ञान बताएगा तो आप या आप के अंश (सन्त) की बातों को कोई नहीं सुनेगा। इसके विपरीत निन्दा के पात्र कहलाओगे तथा आप से झगड़ा भी मेरे सन्त (दूत) करेगें तथा प्रजा को आप के विरूद्ध करके आपका शत्रु बना देगें। आप मेरे द्वारा रचे चक्रव्यूह को तोड़ नहीं पाओगे। खाली हाथ लौट जाओगें। और सुन सहज दास! तुम एक पंथ चलाओगे परमेश्वर के नाम से मैं तुम्हारे पंथ जैसे बारह पंथ नकली परमेश्वर के चलाऊंगा। उन बारह पंथों में मेरे द्वारा भेजे गए दूतों से जो नाम उपदेश लेगा वे महिमा तो आप के ज्ञान अनुसार (कबीर सागर व अन्य सन्त द्वारा बोली मिलती जुलती वाणी अनुसार) बताऐंगे परन्तु नाम गलत प्रदान करेंगे। जिस से वे मेरे ही जाल में रह जाएगें। इस प्रकार मैं सर्व जीवों को भ्रमित करके मुक्त नहीं होने दूँगा। उपरोक्त उल्लेख निम्न वाणियों का सारांश है।

।।कबीर वचन।।

चैपाई=धर्मदास जो पूछो मोहि, युग-2 कथा कहो मंै तोहि।
जबही पुरुष आज्ञा कीन्हा, जीवन काज पृथ्वी पग दीन्हा।।
करि प्रणाम तबही पगुधारा, पहुंचे जाय धर्म दरबारा।
प्रथम चले जीव के काजा, पुरुष प्रताप शीश पर छाजा।।
आवत मिले धर्म अन्याई, तिन पुनि हम से रार बढ़ाई।
मो कुँ देख धर्म ठीग आवा, महा क्रोध बोले अतुरावा।।

।। काल ब्रह्म वचन ।।

योग जीत इहवां कस आवो, सो तुम हमसो वचन सुनाओ।
कै तुम हमको मारन आओ, पुरुष वचन सो मोहि सुनाओ।।

।। कबीर वचन ।।

तासो कहयो सुनो धर्मराई, जीव काज संसार सिंधाई।
जीवन कह तुम बहुत भुलावा, बार-बार जीवन सतावा।।
पुरुष भेद तुम गुप्त राखा, अपनी महिमा प्रकट भाखा।
तपत शिला पर जीव जरावहु, जारि वारि निजस्वाद करावहु।।
तुम अस कष्ट जीवन कहै दीन्हा, ताते पुरुष मोहि आज्ञा दीन्हा।
जीव चिताय लोक ले जाऊँ, काल कष्ट से जीव बचाऊँ।।
ताते हम संसार ही जायब, दे प्रवाना लोक पठायब।
यह सुनी काल भयंकर भयऊ, हम कह त्रास दिखान लयऊ।।

।। धर्मराय (काल ब्रह्म) वचन ।।

सत्तर-2 युग हम सेवा कीन्ही, राज बड़ाई पुरुष मोहि दीन्ही।
फिर चैसठ युग सेवा ठयऊ, अष्ट खंड पुरुष महि दयऊ।।
तब तुम मारि निकारे मोहि, जोगजीत नहीं छोडु तोहि।

।। सतगुरू कबीर वचन ।।

_तब हम कहयो सुनो धर्मराया, हम तुम्हरे डर नहीं डराया।
हम कंह तेज पुरुष बल आही, अरे काल तव डर मोहि नाहि।।
पुरुष प्रताप सुमिरा तिहि बारा, शब्द अंगते कालहि सारा।
ततक्षण दृष्टि ताहि पर हेरा, श्याम ललाट भयो तिहि केरा।।
पंख घात जस होय पखेरु, ऐसे काल महि पर हेरु।
करे क्रोध कछु नाहीं बसाई, तब पुनि परेऊ चरणन तर आई।।+

।। निरंजन (काल ब्रह्म) वचन ।।

कह निरंजन सुनो ज्ञानी, करो विनती तोहि सो।
जान बंधु विरोध किन्हो, घाट भई अब मोहि सो।।
पुरुष सम अब तोहि जानो, नहीं दूजी भावना।
तुम बड़े सर्वज्ञ साहिब, क्षमा छत्र तनावना।।
तुम हुँ करो बखसीश, पुरुष दीन्ह जस राज हम।
षोढ़स में तुम ईश, ज्ञानी पुरुष सो एक सम।।

।। चैपाई ।।

धर्मराय अस विनती ठानी, मैं सेवक द्वितिय नहीं जानी।
दयावंत तुम साहिब दाता, एतिक कृपा करो हे ताता।
पुरुष शाप मो कंह अस दीन्हा, लख जीव नित ग्रासन कीनहा।।
जो जीव सकल लोक तुम आवे, तो कैसे क्षुद्या मोरि बुतावे।
ज्ञानी विनती एक हमारा, सो न करहुँ जिहि मोर बिगाड़ा।।
पुरुष दीन्ह जस मो कहँ राजू, तुम भी देहु तो होय काजु।
अब हम वचन तुम्हारा मानी, लीजो हंसा हम सो ज्ञानी।।
विनती एक करो तो सो ताता, वचन बंध मानो हमरी बाता।
सतयुग त्रेता द्वापर माही, तीनों युग जीव थोड़े जाही।।
चैथा युग जब कलियुग आवै, तब-त्व शरण जीव बहु जावै।
ऐसा वचन हरि मोहि दीजै, तब संसार गमन तुम कीजै।।

।।कबीर वचन।।

विनती तोर लीन्ह मैं जानी, मोकह ठगे काल अभिमानी।
जस विनती तू मो संग कीन्ही, सो अब बकस तोहि मैं दीन्ही।।
चैथा युग जब कलियुग आवै, तब हम अपना अंश पठावैं।
जिहि परवाना देह है, सत्यशब्द दे हाथ।
सो जीव यम नहिं पाय है, सदा ताहि हम साथ।।

।।निरंजन (काल) वचन।।

संधि छाप मोहि दीजे ज्ञानी, जस देहो हंस हि सहिदानी।।
जो जीव मोकहु संधि बतावे, ताके निकट काल नहीं आवै।।
नाम निशानी मो कह दीजे, हे साहिब यह दाया कीजै।।

।।सतगुरु कबीर वचन।।

जो तोहि देहुं संधि लखाई, जीवन काज होई हो दुख दाई।
तव परपंच ज्ञान हम पावा, काल चलै नहीं तुम्हारा दावा।
धर्मराय तोहि प्रकट भाखा, गुप्त अंक बीड़ा हम राखा।
जो कोई लैह नाम हमारा, ताहि छोड़ तुम होहु नियारा।
जो तुम हंस ही रोको जाई, तो तुम काल रहन नहीं पाई।।

।।धर्मराय (काल ब्रह्म) वचन।।

हे साहिब तुम पंथ चलाओ, जीव उबार लोक ले जाऊँ।
पंथ एक तुम आप चलओ, जीवन लै सतलोक पठाओ।।
द्वादस पंथ करो मैं साजा, नाम तुम्हारा ले करो अवाजा।
द्वादस यम संसार पठहो, नाम तुम्हारे पंथ चलैहो।।
प्रथम दूत मम प्रगटे जाई, पीछे अंश तुम्हारा आई।।
यही विधि जीवनको भ्रमाऊं, पुरुष नाम जीवन समझाऊं।।
द्वादस पंथ नाम जो लैहे, सो हमरे मुख आन समै है।।
कहा तुम्हारा जीव नहीं माने, हमारी ओर होय बाद बखानै।।
और अनेक पंथ चलाऊं, वासे भ्रमित ज्ञान फैलाऊं।।
मैं दृढ़ फंदा रची बनाई, जामें जीव रहे उरझाई।।
देवल देव पाषान पूजाई, तीर्थ व्रत जप-तप मन लाई।।
यज्ञ होम अरू नेम अचारा, और अनेक फंद में डारा।।
जो ज्ञानी जेहो संसारा, जीव न मानै कहा तुम्हारा।।

(सतगुरु कबीर वचन)

ज्ञानी कहे सुनो अन्याई, काटों फंद जीव ले जाई।।
जेतिक फंद तुम रचे विचारी, तत्व ज्ञान तै सबै बिंडारी।।
जौन जीव हम शब्द दृढावै, फंद तुम्हारा सकल मुकावै।।
निश्चय कर प्रवाना पाई, पुरुष नाम तिहि देऊं चिन्हाई।।
ताके निकट काल नहीं आवै, संधि देखी ताकहं सिर नावै।।

।।छन्द।।

जो मेटि डारों तोहि को, अब पलटि कला दिखलाऊँ।
लै जीव बंद छोड़ाय यम सो, अमर लोक सिधावऊँ।।
यह सोच चित्त कीन्हेऊं, पुरुष वचन अस नाही।
सत्य शब्द दृढ़ जो गहे, ले पहुचाऊँ ताहि।।

।।धर्मराय (काल ब्रह्म) वचन।।

कह धर्मराय जाओ संसारा, आनहु जीव नाम आधारा।
जो हंसा तुमरो गुण गाई, ताहि निकट तो हम नहीं आई।
जो कोई जै है शरण तुम्हारा, हम सिर पग दै होवे पारा।
हमतो तुम संग किन्ही ढिठाई, पिता जान कीन्ही लरिकाई। कोटिन अवगुन बालक करई, पिता एक हृदय नहीं धरई।
जो पितु बालक देही निकारी, तब को रक्षा करै हमारी।

।।ज्ञानी वचन (कबीर वचन)।।

धर्मराय उठ शीश निवायो, तब हम संसार सिधायो।
जब हम देखा धर्म सकाना, तब तहवां से कीन्ह पयाना।
कह कबीर सुनि धर्मनिनागर, तब मैं चली आयऊ भौसागर।
आये चतुरानन के पासा, तासो कीन्हा शब्द प्रकाशा।
वाको मैं अपना नाम जनाया, अग्नि ऋषि नाम बताया।
ब्रह्मा चित्त दै सुनवे लीन्हा, पूछो बहुत पुरुष का चिन्हा।
ब्रह्मा मोहे सतगुरू कह टेरा, अग्नि ज्ञान अद्वित है तेरा।
प्रथम मन्त्रा ब्रह्मा लीन्हा, तब वहां ते गवन मैं किन्हा।
तब ही निरंजन कीन्ही उपाई, ज्येष्ठ पुत्र ब्रह्मा मोर जाई।
निरंजन मन घट आन विराजै, ब्रह्मा बुद्धि फेरि उपराजै।।

हे धर्मदास! काल ब्रह्म की उपरोक्त बातें सुनकर मैंने कहा हे ज्योतिनिरंजन! तू महा पापी है जो भोली आत्माओं के साथ महाधोखा कर रहा है। मैं तेरे सर्व दाव व्यर्थ कर दूंगा। मैं कलयुग में जब प्रकट होऊंगा तब ज्ञान तो प्रचार करके आऊंगा परन्तु सारनाम व सारज्ञान को गुप्त रखुंगा। वह सारज्ञान व सारनाम मेरे द्वारा दिए ज्ञान (पांचवें वेद) में ही होगा परन्तु वे बारह पंथ (जो कबीर नाम के पंथ कहलाऐगें वा तेरे द्वारा प्रेरित अन्य पंथ) उस ज्ञान को तथा सार नाम को नहीं समझ पाऐंगे। बारहवें पंथ में (गरीबदास पंथ में) मेरी महिमा की वाणी प्रकट होगी परन्तु बारहवें पंथ (गरीबदास पंथ) सहित सर्व पंथों के अनुयाईयों के पास सारज्ञान व सारनाम नहीं होगा। जिस कारण से वे उन बारह पंथों के अनुयाई असंख्य जन्मों तक भी सत्यलोक नहीं जा सकेंगे। क्योंकि वे अभिमानी होंगे। मेरे द्वारा भेजे वंश (अंश) की बातें नहीं मानेंगे। फिर बारहवें पंथ (गरीबदास पंथ) में आगे चलकर हम ही आऐंगे। वह तेरहवां अंश मेरा होगा तब सर्व पंथों को समाप्त करके एक पंथ चलाएगा।

विशेष विचार:- बारह पंथों के नाम- कबीर परमेश्वर जी के पंथ में काल द्वारा कबीर नाम से चलाए बारह पंथों का उल्लेख पुस्तक=कबीर सागर अध्याय=कबीर चरित्र बोध (बोध सागर) पृष्ठ संख्या 1870 से

(1) नारायण दास पंथ (2) यागौदास (जागू) पंथ (3) सूरत गोपाल पंथ (4) मूल निरंजन पंथ (5) टकसार पंथ (6) भगवान दास (ब्रह्म) पंथ (7) सत्यनामी पंथ (8) कमालीय (कमाल का) पंथ (9) राम कबीर पंथ (10) प्रेम धाम (परम धाम) की वाणी पंथ (11) जीवा पंथ (12) गरीबदास पंथ।

अन्य प्रमाण पुस्तक ‘‘कबीर सागर’’ अध्याय - कबीर बानी पृष्ठ - 136-137 पर द्वादश पंथ चलो सो भेद

द्वादश पंथ काल फुरमाना। भुले जीव न जाय ठिकाना।
ताते आगम कहि हम राखा। वंश हमार चूरामणि शाखा।।
प्रथम जगमें जागू भ्रमावै। बिना भेद ओ ग्रन्थ चुरावै।।
दुसरि सुरति गोपालहि होई। अक्षर जो जोग दृढ़ावे सोई।।
तिसरा मूल निरंजन बानी। लोकवेद की निर्णय ठानी।।
चैथे पंथ टकसार भेद लै आवै। नीर पवन को सन्धि बतावै।
सो ब्रह्म अभिमानी जानी। सो बहुत जीवन की करी है हानी।।
पांचै पंथ बीज को लेखा। लोक प्रलोक कहें हममें देखा।।
पांच तत्व का मर्म दृढ़ावै। सो बीजक शुक्ल ले आवै।।
छठवां पंथ सत्यनामि प्रकाशा। घटके माहीं मार्ग निवासा।।
सातवां जीव पंथले बोले बानी। भयो प्रतीत मर्म नहिं जानी।।
आठवे राम कबीर कहावै। सतगुरु भ्रमलै जीव दृढावै।।
नौमे ज्ञानकी काल दिखावै। भई प्रतीत जीव सुख पावै।।
दसवें भेद परमधाम की बानी। साख हमारी निर्णय ठानी।।
साखी भाव प्रेम उपजावै। ब्रह्मज्ञान की राह चलावै।।
तिनमें वंश अंश अधिकारा। तिनमेंसो शब्द होय निरधारा।।
सम्वत् सत्रासै पचहतर होई, ता दिन प्रेम प्रकटै जग सोई।
साखी हमारी ले जीव समझावै, असंख्य जन्म ठोर नही पावै।
बारहवें पथ प्रकट ह्नै बानी, शब्द हमारे की निर्णय ठानी।।
अस्थिर घर का मरम न पावैं, ये बारा पंथ हमही को ध्यावैं।
बारहवें पथ हम ही चलि आवैं, सब पंथ मेटि एक ही पंथ चलावैं।

तेरहवें वंश (अंश) द्वारा सर्व पंथों को मिटा कर एक पंथ चलाने का प्रमाण:-

पुस्तक - कबीर सागर - अध्याय - कबीर बानी पृष्ठ - 134

बारहवें वंश प्रकट होय उजियारा, तेरहवें वंश मिटे सकल अंधियारा इसी अध्याय में पृष्ठ 136 पर भी प्रमाण है:-

‘‘द्वादश पंथ काल फरमाना, भूले जीव न जाऐं ठिकाना’’

कबीर सागर - अध्याय - कबीर बानी (बोध सागर) में पृष्ठ 136-137 पर प्रमाणः-

धर्म दास मेरी लाख दोहाई, मूल (सार) शब्द बाहर न जाई।।
सार शब्द बाहर जो परही, बिचली पीढ़ी हंस नहीं तरही।
तेतीस अर्ब ज्ञान हम भाखा, मूल ज्ञान गुप्त हम राखा।
मूल ज्ञान तब तक छुपाई, जब लग द्वादश पंथ मिट जाई।।

पुस्तक - कबीर सागर - अध्याय जीव धर्म बोध (बोध सागर) पृष्ठ 1937 पर प्रमाण:-

धर्मदास तोहि लाख दोहाई। सार शब्द बाहर नहिं जाई।।
सार शब्द बाहर जो परि है। बिचलै पीढी हंस नहीं तरि है।।
युगन-युगन तुम सेवा किन्ही। ता पीछे हम इहां पग दीनी।।
कोटिन जन्म भक्ति जब कीन्हा। सार शब्द तब ही पै चीन्हा।।
अंकूरी जीव होय जो कोई। सार शब्द अधिकारी सोई।।
सत्यकबीर प्रमाण बखाना। ऐसो कठिन है पद निर्वाना।।

विशेषः- कबीर सागर पुस्तक के अध्याय ‘‘कबीर बानी’’ पृष्ठ 134 पर तो प्रथम पंथ का संचालक ‘‘नारायण दास’’ (धर्मदास जी का बड़ा पुत्र लिखा है। इसी अध्याय में पृष्ठ 136 पर प्रथम पंथ का संचालक ‘‘चूरामणी’’ लिखा है। जो धर्मदास जी को छोटा पुत्र कबीर परमेश्वर जी की कृपा से उत्पन्न हुआ था।) वास्तव में बारह पंथों में प्रथम पंथ का संचालक ‘‘चूरामणी’’ ही है क्योंकि नारायण दास ने तो परमेश्वर कबीर जी की बात को स्वीकार ही नहीं किया था तथा चूरामणी से द्वेष रखता था। ‘‘चूरामणी ’’ बान्धव गढ़ त्याग कर ‘‘कुदरमाल’’ नामक स्थान पर चला गया था। उसके कुछ दिन पश्चात् बान्धव गढ़ शहर पूरा नष्ट हो गया था। इसलिए पृष्ठ 134 (कबीर सागर=अध्याय= कबीर बानी) पर लिखा नारायण दास नाम ठीक नहीं है वहां पर ‘‘चूरामणी’’ होना उचित है। क्योंकि कबीर सागर अध्याय‘‘ कबीर बानी’’पृष्ठ 1870 पर लिखे बारह पंथों के विवरण में चूरामणी मिलाकर बारह पंथ बनते हैं। यह फेरबदल दामाखेड़ा वालों ने करने की चेष्टा की है। परन्तु सच्चाई को मिटा नहीं पाए। कबीर सागर ‘‘कबीर बानी’’ नामक अध्याय (बोध सागर) पृष्ठ नं. 134 से 138 पर लिखे विवरण का भावार्थ है:-

पृष्ठ नं. 134 पर बारह वंशों (अंसों) के बाद तेरहवें वंश (अंस) में सब अज्ञान अंधेरा मिट जाएगा। बारह वंश काल के वश होकर अपनी-2 चतुरता दिखाएगें। पृष्ठ नं. 136-137 पर ‘‘बारह पंथों’’ का विवरण किया है तथा लिखा है कि संवत् 1775 में प्रभु का प्रेम प्रकट होगा तथा हमारी बानी प्रकट होवेगी। (संत गरीबदास जी महाराज छुड़ानी व हरियाणा वाले का जन्म 1774 में हुआ है उनको प्रभु कबीर 1784 में मिले थे। यहाँ पर इसी का वर्णन है तथा सम्वत् 1775 के स्थान पर 1774 होना चाहिए, गलती से 1775 लिखा है)। भावार्थ है कि बारहवां पंथ जो गरीबदास जी का चलेगा यह पंथ हमारी (कबीर जी की) साखी लेकर जीव को समझाएगें। परन्तु वास्तविक मन्त्रा तथा सार ज्ञान से अपरिचित होने के कारण उन बारह पंथों के साधक असंख्य जन्म सतलोक नहीं जा सकेंगे। उपरोक्त बारह पंथ हमको ही प्रमाण करके भक्ति करेगें परन्तु स्थाई स्थान (सतलोक) अर्थात् मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकेंगे। बारहवें पंथ (गरीबदास वाले पंथ) में आगे चलकर हम (कबीर जी) स्वयं ही आऐगें तथा सब बारह पंथों को मिटा एक ही पंथ चलाऐगें। उस समय तक सार ज्ञान तथा सारशब्द छुपा कर रखना है। यही प्रमाण सन्त गरीबदास जी महाराज ने अपनी अमृतवाणी ‘‘असुर निकंन्दन रमैणी’’ में किया है कि ‘‘सतगुरू दिल्ली मण्डल आयसी, सूती धरती सूम जगायसी’’ पुराना रोहतक जिला दिल्ली मण्डल कहलाता है। जो पहले अग्रेंजों के शासन काल में केन्द्र के आधीन था।

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