धर्मदास जी की अन्य संतों से ज्ञान चर्चा
प्रश्न 41:- (धर्मदास जी का) धर्मदास जी ने मन में विचार किया कि यह कैसे हो सकता है कि हिन्दू धर्म के किसी सन्त, गुरु, महर्षि को सत्य अध्यात्म ज्ञान नहीं? यह कहकर धर्मदास जी के मन में आया कि किसी महामण्डलेश्वर से ज्ञान सुनना चाहिए। एक रमते फकीर के पास क्या मिलेगा? यह बात मन में सोच ही रहा था कि परमेश्वर जिन्दा जी ने धर्मदास जी के मन का दोष जानकर कहा कि आप अपने महामण्डलेश्वरों से ज्ञान प्राप्त करलो। यह कहकर परमेश्वर तीसरी बार अन्तध्र्यान हो गए। धर्मदास जी ठगे से रह गए और अपने मन के दोष को जिन्दा महात्मा के मुखकमल से सुनकर बहुत शर्मसार हुए। जब प्रभु अन्तध्र्यान हो गए तो बहुत व्याकुल हो गया। परन्तु धर्मदास जी को आशा थी कि हमारे महामण्डलेश्वरों के पास तत्वज्ञान अवश्य मिलेगा। यदि जिन्दा बाबा (मुसलमान) के ज्ञान को तत्वज्ञान मानकर साधना स्वीकार करना तो ऐसा लग रहा है जैसे धर्म परिवर्तन करना हो। यह समाज में निन्दा का कारण बनेगा। इसलिए अपने हिन्दू महात्माओं से तत्वज्ञान जानकर श्रेष्ठ शास्त्रानुकूल भक्ति करनी ही उचित रहेगी। इस बार धर्मदास जी को जिन्दा बाबा का अचानक चला जाना खटका नहीं क्योंकि उसकी गलतफहमी थी कि हिन्दू इतना बड़ा तथा पुरातन धर्म है, क्या कोई भी तत्वदर्शी सन्त नहीं मिलेगा? धर्मदास जी एक वैष्णव महामण्डलेश्वर श्री ज्ञानानंद जी वैष्णव के आश्रम में गया। उस समय श्री ज्ञानानन्द जी का बहुत बोलबाला था। वह स्वामी रामानन्द जी काशी वाले का शिष्य था। परन्तु उस समय स्वामी रामानन्द जी तो परमेश्वर कबीर जी का शिष्य/गुरु बन चुका था। वह अपने ज्ञान को अज्ञान मान चुका था। स्वामी रामानन्द जी ने अपने सर्वऋषि शिष्यों से बोल दिया था कि मेरे द्वारा बताया ज्ञान व्यर्थ है और यह साधना शास्त्रविरुद्ध है। आप सब परमेश्वर कबीर जी से दीक्षा ले लें। परन्तु जाति का अभिमान, शिष्यों में प्रतिष्ठा, ज्ञान के स्थान पर अज्ञान का भण्डार जीव को सत्य स्वीकार करने नहीं देता।
कबीर, राज तजना सहज है, सहज त्रिया का नेह।
मान बड़ाई ईष्र्या, दुर्लभ तजना येह।।
धर्मदास जी ने श्री ज्ञानानंद जी से प्रश्न किया है कि स्वामी जी क्या भगवान विष्णु से भी ऊपर कोई प्रभु है। श्री ज्ञानानन्द जी ने उत्तर दिया कि श्री विष्णु स्वयं परम ब्रह्म परमात्मा है। इनसे ऊपर कौन हो सकता है? श्री कृष्ण जी भी श्री विष्णु जी स्वयं ही थे। उन्होंने ही श्रीमद्भगवत गीता का ज्ञान दिया। आप को किसने भ्रमित कर दिया? धर्मदास जी ने पूछा कि गीता अध्याय 8 श्लोक 1 में अर्जुन ने पूछा कि तत् ब्रह्म क्या है? गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में भगवान ने कहा है कि वह ‘‘परम अक्षर ब्रह्म’’ है। यह तो भगवान कृष्ण से अन्य प्रभु हुआ। ज्ञानानन्द स्वामी बोला, लगता है कि तेरे को उस काशी वाले जुलाहे का जादू चढ़ा हुआ है। चल-चल अपना काम कर। भगवान कृष्ण से अन्य कोई प्रभु नहीं है। धर्मदास जी को पता चल गया कि इसके पास वह ज्ञान नहीं है जो जिन्दा बाबा ने प्रमाणों सहित बताया है। धर्मदास निराश होकर वहाँ से चल दिया। धर्मदास जी को यह नहीं पता था कि काशी वाला जुलाहा वह बाबा जिन्दा ही है। फिर धर्मदास को पता चला कि एक मोहनगिरी नाम के महामण्डलेश्वर हैं, उनके पास जाकर भगवान की चर्चा करनी शुरु की। पहले एक रुपया दक्षिणा चढ़ाई जिस कारण से मोहनगिरी ने उनको निकट बैठाया और बताया कि भगवान शिव सर्व सृष्टि के रचने वाले हैं। इनसे बढ़कर संसार में कोई प्रभु नहीं है। ‘‘ओम् नमः शिवाय’’ मन्त्र का जाप करो। धर्मदास जी प्रणाम करके चल पड़े। सोचा इनका कितना अच्छा नाम है, ज्ञान धेल्ले (एक पैसे) का नहीं। धर्मदास जी से किसी ने बताया कि एक बहुत बड़ा तपस्वी है। कई वर्षों से खड़ा तप कर रहा है। धर्मदास जी वहाँ गए, वह नाथ पंथ से जुड़ा था। भगवान शिव को समर्थ परमात्मा बताता था। तप करके हठयोग से परमात्मा की प्राप्ति मान रहा था। धर्मदास जी ने विवेक किया कि यदि इतनी घोर कठिन तपस्या से परमात्मा मिलेगा तो हमारे वश से बाहर की बात है। वहाँ से भी आगे चला। पता चला कि एक बहुत बड़ा विद्वान महात्मा काशी विद्यापीठ से पढ़कर आया है। वेदों का पूर्ण विद्वान है। धर्मदास जी ने उस महात्मा से पूछा परमात्मा कैसा है? उत्तर मिला-निराकार है। उस निराकार परमात्मा का कोई नाम है? धर्मदास ने पूछा।
उत्तर विद्वान का:- उसका नाम ब्रह्म है। क्या परमात्मा को देखा जा सकता है, धर्मदास जी ने प्रश्न किया? उत्तर मिला परमात्मा निराकार है, उसको कैसे देख सकते हैं। केवल परमात्मा का प्रकाश देखा जा सकता है।
प्रश्नः- क्या श्री कृष्ण या विष्णु परमात्मा हैं? उत्तर था कि ये तो सर्गुण देवता हैं, परमात्मा निर्गुण है।
गीता और वेद के ज्ञान में क्या अन्तर है? धर्मदास ने प्रश्न किया। ब्राह्मण का उत्तर था कि गीता चारों वेदों का सारांश है। धर्मदास जी ने पूछा कि भक्ति मन्त्र कौन सा है? उत्तर ब्राह्मण का था कि गायत्री मन्त्र का जाप करो = ओम् भूर्भवस्वः तत् सवितुः वरेणियम भृगोदेवस्य धीमहि, धीयो यो नः प्रचोदयात्’’ धर्मदास जी को जिन्दा बाबा ने बताया था कि इस मन्त्र से मोक्ष सम्भव नहीं। धर्मदास जी फिर आगे चला तो पता चला कि सन्त गुफा में रहता है। कई-कई दिन तक गुफा से नहीं निकलता है। उसके पास जाकर प्रश्न किया कि भगवान कैसे मिलता है? उत्तर मिला कि इन्द्रियों पर संयम रखो, इसी से परमात्मा मिल जाता है। नाम जाप से कुछ नहीं होता। खाण्ड (चीनी) कहने से मुँह मीठा नहीं होता। धर्मदास जी को सन्तोष नहीं हुआ। सब सन्तों से ज्ञान चर्चा करके धर्मदास जी को बहुत पश्चाताप् हुआ कि मेरे को उस जिन्दा बाबा पर विश्वास नहीं हुआ कि उसने कहा था किसी भी सन्त महामण्डलेश्वर के पास यथार्थ अध्यात्म ज्ञान नहीं है। किसी भी सन्त महात्मा का ज्ञान प्रमाणित नहीं है। कोई शास्त्र का आधार नहीं है, तब धर्मदास रोने लगा। अपनी अज्ञानता पर पश्चाताप करने लगा कि मैं कैसा कलमुँहा हूँ अर्थात् बुरी किस्मत वाला हूँ। मुझे उस परमात्मास्वरुप जिन्दा महात्मा पर विश्वास नहीं आया। अब वह अन्तर्यामी मुझे नहीं मिलेगा क्योंकि मैंने कई बार उनका अपमान कर दिया। अब क्या करुँ, न जीने को मन करता है, आत्महत्या पाप है। बुरी तरह रोने लगा। पछाड़ खाकर अचेत हो गया।
उत्तर:- परमात्मा जिन्दा महात्मा के रुप में एक वृक्ष के नीचे बैठ गए। धर्मदास जी सचेत हुआ और हृदय से पुकार की कि हे जिन्दा! एक बार दर्शन दे दो। मैं टूट चुका हूँ। किसी के पास ज्ञान नहीं है। आप की सर्व बातें सत्य हैं। परमात्मा एक बार मुझ अज्ञानी महामूर्ख को क्षमा करो परमेश्वर। आप जिन्दा नहीं परमात्मा हो। आप महाविद्वान हो। आपके ज्ञान का कोई सामना करने वाला नहीं है। मैं जिन्दगी में कभी आप पर अविश्वास नहीं करुँगा। ऐसे विचार कर आगे चला तो देखा एक वृक्ष के नीचे एक साधु बैठा है, कुछ व्यक्ति उसके पास बैठे हैं। धर्मदास जी ने सोचा कि मैं तो उन महामण्डलेश्वरों से मिलकर आया हूँ। जिनके पास कई सैंकड़ों भक्त दर्शनार्थ बैठे रहते हैं। इस छोटे साधु से क्या मिलना? परन्तु अपने आप मन में आया कि कुछ देर विश्राम करना है, यहीं कर लेता हूँ। फिर सोचा कि प्रश्न करता हूँ। पूछाः- हे महात्मा! जी परमात्मा कैसा है? साधु ने उत्तर दिया कि मैं ही परमात्मा हूँ। धर्मदास जी चुप हो गए, सोचा यह तो मजाक कर रहा है। यह तो सन्त भी नहीं है। धीरे-धीरे सर्व व्यक्ति चले गए। जब धर्मदास जी चलने लगे परमात्मा बोले कि हे महात्मा! क्या आपके मण्डलेश्वरों ने नहीं बताया कि परमात्मा कैसा है? धर्मदास जी ने आश्चर्य से देखा कि इस साधु को कैसे पता कि मैं कहाँ-कहाँ भटका हूँ? उसी समय परमात्मा ने वही जिन्दा बाबा वाला रुप बना लिया। धर्मदास जी चरणों में गिरकर बिलख-बिलखकर रोने लगा तथा कहा कि हे भगवन! किसी के पास ज्ञान नहीं है। मुझ पापी अवगुण हारे को क्षमा करो महाराज! मैंने बड़ी भारी भूल की है। आपने सृष्टि रचना का ज्ञान जो बताया है, उसके सामने सर्व सन्त का ज्ञान ऐसा है जैसे सूरज के सामने दीपक, सब ऊवा-बाई बकते हैं। परमेश्वर ने धर्मदास जी से कहा कि आपने जिन वेदों के पूर्ण विद्वान से प्रश्न किया था कि ‘‘परमात्मा कैसा है? उत्तर मिला कि परमात्मा निराकार है। आपने प्रश्न किया था कि क्या परमात्मा देखा जा सकता है? उस अज्ञानी का उत्तर था कि ‘‘जब परमात्मा निराकार है तो उसे देखने का प्रश्न ही नहीं है। परमात्मा का प्रकाश देखा जा सकता है।‘‘
विचार करो धर्मदास! यह विचार तो ऐसे व्यक्ति के हैं जैसे किसी नेत्रहीन से कोई प्रश्न करे कि सूर्य कैसा है? उत्तर मिला कि सूर्य निराकार है। फिर प्रश्न किया कि क्या सूर्य को देखा जा सकता है? उत्तर मिले कि सूर्य को नहीं देखा जा सकता, सूर्य का प्रकाश देखा जाता है। उस नेत्रहीन से पूछें कि सूर्य बिना प्रकाश किसका देखा जा सकता है? इसी प्रकार अध्यात्म ज्ञान नेत्रहीन अर्थात् पूर्ण अज्ञानी सन्त ऐसी व्याख्या किया करते हैं कि परमात्मा तो निराकार है, उसका प्रकाश कैसे देखा जा सकता है? परमात्मा का ही तो प्रकाश होगा। धर्मदास जी ने कहा कि हे महात्मा जी! यह विचार तो मेरे दिमाग में भी नहीं आया। आप जी के दिव्य तर्क से मेरी आँखें खुल गई। जितने भी महामण्डलेश्वर मिले हैं, वे सर्व महाअज्ञानी मिले हंै। हे जिन्दा महात्मा जी! यदि मैं आपके ज्ञान को सुनने के पश्चात् यदि इन मूर्खों से नहीं मिलता तो मेरा भ्रम निवारण कभी नहीं होता, चाहे आप जी कितने ही प्रमाण दिखाते और बताते।
प्रश्न 42 (धर्मदास):- हे जिन्दा! आप नाराज न होना। मेरे मन में एक शंका है कि क्या भगवान विष्णु जी की भक्ति अच्छी नहीं?
उत्तर (जिन्दा महात्मा जी का):- हे धर्मदास! श्रीमद् भगवत् गीता अध्याय 2 श्लोक 46 में प्रमाण है कि गीता ज्ञान दाता ने कहा हे अर्जुन! बहुत बड़े जलाश्य (झील) की प्राप्ति के पश्चात् छोटे जलाश्य में व्यक्ति का कितना प्रयोजन रह जाता है। इसी प्रकार पूर्ण ज्ञान और पूर्ण परमात्मा की भक्ति विधि व होने वाले लाभ का ज्ञान होने के पश्चात् अन्य ज्ञानों तथा छोटे भगवानों में उतनी ही आस्था रह जाती है जितनी बड़े जलाश्य की प्राप्ति के पश्चात् छोटे जलाश्य में रह जाती है। छोटे जलाश्य का जल अच्छा है, परन्तु पर्याप्त नहीं है। यदि एक वर्ष वर्षा न हो तो छोटे जलाश्य का जल सूख जाता है तथा उस पर आश्रित व्यक्ति भी जल के अभाव से कष्ट उठाते हैं, त्राहि-त्राहि मच जाती है। परन्तु बड़े जलाश्य (झील) का जल यदि 10 वर्ष भी वर्षा न हो तो भी समाप्त नहीं होता। जिस व्यक्ति को वह बड़ा जलाश्य मिल जाएगा तो वह तुरन्त छोटे जलाश्य (जोहड़ = तालाब) को छोड़कर बड़े जलाश्य के किनारे जा बसेगा। जिस समय गीता ज्ञान सुनाया गया, उस समय सर्व व्यक्ति तालाबों के जल पर ही आश्रित थे। इसलिए यह उदाहरण दिया था, इसी प्रकार श्री विष्णु सतगुण की भक्ति भले ही आप अच्छी मानते हैं, परन्तु पूर्ण मोक्षदायक नहीं है। श्री विष्णु जी भी नाशवान हैं। इनका भी जन्म-मृत्यु होता है। फिर साधक अमर कैसे हो सकता है? इसलिए पूर्ण मोक्ष अर्थात् अमर होने के लिए अमर परमात्मा की ही भक्ति करनी पड़ेगी।
प्रश्न 43:- हे जिन्दा महात्मा जी! मैंने आप के ऊपर अविश्वास किया। मैं महापापी हूँ, मुझे क्षमा करना।
उत्तर (जिन्दा बाबा जी का):- हे धर्मदास! मैंने ही आप के मन में यह प्रेरणा की थी। यदि आप उन अपने धर्मगुरुओं की तलाशी न लेते तो आप कभी मेरी बातों पर विश्वास नहीं करते। रह-रहकर तेरे मन को यही बात कचोटती रहती कि ऐसा नहीं हो सकता कि हिन्दू धर्म के किसी महर्षि मण्डलेश्वर व सन्त-महन्त को तत्वज्ञान नहीं। अब आप मेरी बातों पर विश्वास करोगे। विचार करो धर्मदास! जब गीता ज्ञान दाता गीता अध्याय 4 श्लोक 32 व 34 में कहता है कि जो ज्ञान परम अक्षर ब्रह्म (परमेश्वर) अपने मुख से सुनाता है, वह तत्वज्ञान है। (गीता अध्याय 4 श्लोक 32) उस ज्ञान को तू तत्वदर्शी सन्तों के पास जाकर समझ। (गीता अध्याय 4 श्लोक 34) इससे सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञान देने वाले परमात्मा को ही तत्वज्ञान नहीं तो गीता पाठकों व इन प्रभु के उपासकांे को ज्ञान कैसे हो सकता है?
गीता अध्याय 2 श्लोक 53 में कहा कि हे अर्जुन! भिन्न-भिन्न प्रकार से भ्रमित करने वाले वचनों से हटकर तेरी बुद्धि एक तत्वज्ञान पर स्थिर हो जाएगी, तब तो तू योग (भक्ति) को प्राप्त होगा। भावार्थ है कि तब तू भक्त बनेगा। इसलिए मैंने धर्मदास तेरे को उन सन्तों-मण्डलेश्वरों के पास जाने के लिए प्रेरित किया था। अब तू योग को प्राप्त होगा। भक्त बन सकेगा।
प्रश्न 44 (धर्मदास जी का):- क्या पूर्ण मोक्ष के लिए भगवान विष्णु जी तथा भगवान शंकर जी की पूजा को छोड़ना पड़ेगा?
उत्तर (जिन्दा बाबा जी का):- इन प्रभुओं को नहीं छोड़ना, इनकी पूजा छोड़नी होगी।
प्रश्न 45 (धर्मदास जी का):- हे जिन्दा! मैं समझा नहीं। इन विष्णु और शंकर प्रभुओं को नहीं छोड़ना और पूजा छोड़नी पड़ेगी। मेरी संकीर्ण बुद्धि है। मैं महाअज्ञानी प्राणी हूँ। कृप्या विस्तार से बताने की कृपा करें।
उत्तर:- (जिन्दा महात्मा जी का): हे धर्मदास जी! आप इनकी साधना शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण कर रहे हो। जिससे आपजी को लाभ नहीं मिल रहा। इन देवताओं से लाभ लेने के साधना के मन्त्र मेरे पास हैं। जैसे भैंसा है, उसको भैंसा-भैंसा करते रहो, वह आपकी ओर नहीं देखेगा। उसका एक विशेष मन्त्र हुर्र-हुर्र है। उसको सुनते ही वह तुरंत प्रभावित होता है और आवाज लगाने वाले की ओर खींचा चला आता है। इसी प्रकार इन सर्व आदरणीय देवताओं के निज मन्त्र हैं। जिनसे वे पूर्ण लाभ तथा तुरंत लाभ देते हैं। प्रिय पाठको! वही मन्त्र मेरे पास (संत रामपाल दास) के पास हैं जो परमेश्वर जी ने गुरू जी के माध्यम से मुझे दिए हैं, आओ और प्राप्त करो।
जैसा कि आपको बताया था (प्रश्न नं. 36 के उत्तर में वर्णन किया था) कि यह संसार एक वृक्ष जानो। परम अक्षर पुरुष इसकी जड़ें मानो, अक्षर पुरुष तना जानो, क्षर पुरुष मोटी डार तथा तीनों देवता (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिवजी) इस संसार रुपी वृक्ष की शाखाऐं जानों और पात रुप संसार।
यदि आप कहीं से आम का पौधा लेकर आए हो तो गढ्ढ़ा खोदकर उसकी जड़ों को उस गढ्ढ़े में मिट्टी में दबाओगे और जड़ों की सिंचाई करोगे। तब वह आम का पेड़ बनेगा और उस वृक्ष की शाखाओं को फल लगेंगे। इसलिए वृक्ष की शाखाओं को तोड़ा नहीं जा सकता। परन्तु इनको जड़ के स्थान पर गढ्ढ़े में मिट्टी में दबाकर इनकी सिंचाई नहीं की जाती। ठीक इसी प्रकार संसार रुपी वृक्ष की जड़ अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म को इष्ट रुप में प्रतिष्ठित करके पूजा करने से शास्त्रानुकूल साधना होती है जो परम लाभ देने वाली होती है। इस प्रकार किए गए भक्ति कर्मों का फल यही तीनों देवता (संसार वृक्ष की शाखाऐं) ही कर्मानुसार प्रदान करते हंै। इसलिए इनकी पूजा छोड़नी होती है। लेकिन इनको छोड़ा (तोड़ा) नहीं जा सकता। यही प्रमाण श्रीमद्भगवत् गीता अध्याय 3 श्लोक 8 से 15 तक में भी है। कहा है कि:-
हे अर्जुन! तू शास्त्रविहित कर्म कर अर्थात् शास्त्रों में जैसे भक्ति करने को कहा है, वैसा भक्ति कार्य कर। यदि घर त्यागकर जंगलों में चला गया अर्थात् तू कर्म सन्यासी हो गया या एक स्थान पर बैठकर हठपूर्वक साधना करने लगेगा तो तेरा शरीर पोषण का निर्वाह भी नहीं होगा। इसलिए कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करते-करते भक्ति कर्म करना श्रेष्ठ है। (गीता अध्याय 3 श्लोक 8)
जो साधक शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण करते हैं अर्थात् शास्त्रानुकूल भक्ति कर्मों के अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ मनुष्य समुदाय कर्मों के बन्धन में बंधकर जन्म-मरण के चक्र में सदा रहता है। इसलिए हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! शास्त्रविरुद्ध भक्ति कर्म जो कर रहा है, उससे आसक्ति रहित होकर शास्त्रानुकूल भक्ति कर्म कर। (गीता अध्याय 3 श्लोक 9)
संसार की रचना करके प्रजापति (कुल के मालिक) ने सर्व प्रथम मनुष्यों की रचना करके साथ-साथ यज्ञों अर्थात् धार्मिक अनुष्ठानों की जानकारी का ज्ञान देते हुए इनसे कहा था कि तुम लोग इस तरह बताए शास्त्रानुकूल कर्मों द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ। इस प्रकार शास्त्रानुकूल की गई भक्ति तुम लोगों को इच्छित भोग प्राप्त कराने वाली हो। (गीता अध्याय 3 श्लोक 10)
इस प्रकार शास्त्रानुकूल भक्ति द्वारा अर्थात् संसार रुपी वृक्ष की जड़ों (मूल अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म) की सिंचाई अर्थात् पूजा करके देवताओं अर्थात् संसार रुपी वृक्ष की तीनों गुण रुपी शाखाओं (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिवजी) को उन्नत करो। वे देवता (संसार वृक्ष की शाखा तीनों देवता) आपको कर्मानुसार फल देकर उन्नत करें। इस प्रकार एक-दूसरे से उन्नत करके परम कल्याण अर्थात् पूर्णमोक्ष को प्राप्त हो जाओगे (गीता अध्याय 3 श्लोक 11)
शास्त्रविधि अनुसार किए गए भक्ति कर्मों अर्थात् यज्ञों द्वारा बढ़ाए हुए देवता अर्थात् संसार रुपी वृक्ष की जड़ अर्थात् मूल मालिक (परम अक्षर ब्रह्म) को इष्ट रुप में प्रतिष्ठित करके भक्ति कर्म से बढ़ी हुई शाखाएं (तीनों देवता) तुम लोगों को बिना माँगे ही कर्मानुसार इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे। जैसे आम के पौधे की जड़ की सिंचाई करने से पेड़ बनकर शाखाएं उन्नत हो गई। फिर उन शाखाओं को अपने आप फल लगेंगे। झड़-झड़कर गिरेंगे, व्यक्ति को जो कर्मानुसार धन प्राप्त होता है, वह उपरोक्त विधि से होता है। यदि कोई व्यक्ति उन देवताओं (शाखाओं) द्वारा दिए धन में से पुनः दान-पुण्य नहीं करता अर्थात् जो पुनः शास्त्रानुकूल साधना नहीं करता, केवल अपना ही पेट भरता है, स्वयं ही भोगता रहता है। वह तो परमात्मा का चोर ही है। (गीता अध्याय 3 श्लोक 12)
शास्त्रानुकूल भक्ति की विधि में सर्वप्रथम परमात्मा को भोग लगाया जाता है। भण्डारा करना होता है। पहले परम अक्षर ब्रह्म को इष्ट रुप में पूजकर भोग लगाकर शेष भोजन को भक्तों में बाँटा जाता है। उस बचे हुए अन्न को सत्संग में उपस्थित अच्छी आत्माएं ही खाती हैं क्योंकि पुण्यात्माएं ही परमात्मा के लिए समय निकालकर धार्मिक अनुष्ठानों में शामिल होते हैं। इसलिए कहा है कि उस यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले सन्तजन सब पापों से मुक्त हो जाते हैं।ं जो पापी लोग होते हैं, जो तत्वदर्शी सन्त के सत्संग में नहीं जाते, उनको ज्ञान नहीं होता। वे पापात्मा अपना शरीर पोषण करने के लिए ही भोजन पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं क्योंकि भोजन खाने से पहले हम भक्त-सन्त सब परम अक्षर ब्रह्म को भोग लगाते हैं। जिस से सारा भोजन पवित्रा प्रसाद बन जाता है, जो ऐसा नहीं करते, वे परमात्मा के चोर हैं। भगवान को भोग न लगा हुआ भोजन पाप का भोजन होता है। इसलिए कहा है जो धर्म-कर्म शास्त्रानुकूल नहीं करते, वे पाप के भागी होते हैं। (गीता अध्याय 3 श्लोक 13)
सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं। अन्न वर्षा से होता है। वर्षा यज्ञ अर्थात् शास्त्रानुकूल धार्मिक अनुष्ठान से होती है। यज्ञ अर्थात् धार्मिक अनुष्ठान शास्त्रानुकूल कर्मों से होते हैं। (गीता अध्याय 3 श्लोक 14)
कर्म तो ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरुष से उत्पन्न हुए हैं क्योंकि जहाँ सर्व प्राणी सनातन परम धाम में रहते थे। वहाँ पर बिना कर्म किए सर्व सुख व पदार्थ उपलब्ध थे। यहाँ के सर्व प्राणी अपनी गलती से क्षर पुरुष के साथ आ गए। अब सबको कर्म का फल ही प्राप्त होता है। कर्म करके ही निर्वाह होता है। इसलिए कहा है कि कर्म को ब्रह्म (क्षर पुरुष) से उत्पन्न जान और ब्रह्म को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न जान। (अधिक जानकारी के लिए पढ़ें सृष्टि रचना इसी पुस्तक के पृष्ठ नं. 120 पर।)
(नोट: इस श्लोक में ‘‘अक्षर’’ शब्द का अर्थ अविनाशी परमात्मा ठीक है। परन्तु जहाँ क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष तथा परम अक्षर पुरुष का वर्णन है, वहाँ अक्षर पुरुष व क्षर पुरुष दोनों नाशवान कहे हैं। वहाँ पर अक्षर का अर्थ वही ठीक है। गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 में वर्णन है, यहाँ ‘अक्षर’ का अर्थ अविनाशी परमात्मा है क्योंकि सृष्टि रचना से स्पष्ट होता है कि ब्रह्म की उत्पत्ति सत्यपुरुष (अविनाशी परमात्मा) ने की थी।) इससे सिद्ध हुआ कि (सर्वगतम् ब्रह्म) अर्थात् जिस परमात्मा की पहुँच सर्व ब्रह्माण्डों में है, जो सर्व का मालिक है, वह परमात्मा सदा ही यज्ञों अर्थात् धार्मिक अनुष्ठानों में प्रतिष्ठित है। भावार्थ है कि परम अक्षर ब्रह्म को इष्टदेव रुप में प्रतिष्ठित करके धार्मिक अनुष्ठान अर्थात् यज्ञ करने से शास्त्रविधि अनुसार कर्म करने से साधक को भक्ति लाभ मिलता है, जिससे मोक्ष प्राप्त होता है। देखें संसार रुपी पौधे का चित्र इसी पुस्तक के पृष्ठ 79 पर।
देखें यह चित्र पृष्ठ 78 पर, इसमें पौधे की शाखाओं को गढ्ढे़ में जमीन में लगाकर दिखाया गया है कि जो तीनों देवों (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव) में से किसी की भी पूजा करता है, वह शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण कर रहा है जो गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में अनुचित तथा व्यर्थ बताया है। जिसने सर्वगतम् ब्रह्म अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म की पूजा नहीं की, उसको इष्ट रुप में नहीं पूजा, जिस कारण से उस साधक की साधना व्यर्थ है। शाखाओं को सींचने से पौधा नष्ट हो जाता है। अन्य देवताओं की पूजा करना गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15, 20-23 तथा गीता अध्याय 9 श्लोक 23-24 में मना किया हुआ है। (पढ़ें प्रश्न 17 का उत्तर)
‘‘देखें यह चित्र’’ इसी पुस्तक के पृष्ठ 79 पर सीधा लगाया गया पौधा जो शास्त्रविधि अनुसार साधना है, यही मोक्षदायक है। यही प्रमाण गीता ग्रन्थ में है। इसलिए हे धर्मदास! श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शिवजी को नहीं छोड़ना है। इनकी पूजा इष्ट रुप में करते हो, वह छोड़नी है। तभी भक्त का पूर्ण मोक्ष सम्भव है।
प्रश्न 46:- (धर्मदास जी का): हे जिन्दा! आप जी ने तीनों देवताओं (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिवजी) की भक्ति करने वालों की दशा तो श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15, 20 से 23 तथा अध्याय 9 श्लोक 23-24 में प्रत्यक्ष प्रमाणित कर दिया कि तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव) की भक्ति करने वाले राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूर्ख मुझ (गीता ज्ञान दाता ब्रह्म) को भी नहीं भजते। अन्य देवताओं की भक्ति पूजा करने वालों का सुख समय (स्वर्ग समय) क्षणिक होता है। स्वर्ग की प्राप्ति करके शीघ्र ही पृथ्वी पर जन्म धारण करते हैं। हे महात्मा जी! कृपया कोई संसार में हुए बर्ताव से ऐसा प्रकरण सुनाइए जिससे आप जी की बताई बातों की सत्यता का प्रमाण मिले। तीनों देवताओं के पुजारी ऐसा बर्ताव करते हैं।