परमात्मा के लिए कुछ भी असंभव नहीं है

एक नगर के बाहर जंगल में दो महात्मा साधना कर रहे थे। एक चालीस वर्ष से घर त्यागकर साधना कर रहा था। दूसरा अभी दो वर्ष से साधना करने लगा था। परमात्मा के दरबार से एक देवदूत प्रतिदिन कुछ समय उन दोनों साधकों के पास व्यतीत करता था। दोनों साधकों के आश्रम गाँव के पूर्व तथा पश्चिम में थे। बड़े का स्थान पश्चिम में तथा छोटे का स्थान गाँव के पूर्व में जंगल में था।

देवदूत प्रतिदिन एक-एक घण्टा दोनों के पास बैठता, परमात्मा की चर्चा चलती। दोनों साधकों का अच्छा समय व्यतीत होता। एक दिन देवदूत ने भगवान विष्णु जी से कहा कि भगवान! कपिला नगरी के बाहर आपके दो परम भक्त रहते हैं। श्री विष्णु जी ने कहा कि एक परम भक्त हे, दूसरा तो बनावटी भक्त है। देवदूत ने विचार किया कि जो चालीस वर्ष से साधनारत है, वह पक्का भक्त होगा क्योंकि लंबी-लंबी दाढ़ी, सिर पर बड़ी जटा (केश) है और समय भी चालीस वर्ष बहुत होता है। देवदूत बोला कि हे प्रभु! जो चालीस वर्ष से आपकी भक्ति कर रहा है, वह होगा परम भक्त। प्रभु ने कहा, नहीं। दूसरा जो दो वर्ष से साधना में लगा है। प्रभु ने कहा कि देवदूत! मेरी बात पर विश्वास नहीं हुआ। देवदूत बोला, प्रभु ऐसा नहीं है। परंतु मेरी तुच्छ बुद्धि यही मान रही है कि बड़ी आयु वाला भी अच्छा भक्त है।

श्री विष्णु जी ने कहा कि कल आप देर से पृथ्वी पर जाना। दोनों ही देर से आने का कारण पूछेंगे तो आप बताना कि आज प्रभु जी ने हाथी को सूई के नाके से निकालना था। वह लीला देखकर आया हूँ। इसलिए आने में देरी हो गई। जो उत्तर मिले, उससे आपको भी पता लग जाएगा कि परम भक्त कौन है? पहले प्रतिदिन देवदूत सुबह आठ बजे के आसपास बड़े के पास जाता था और 10 बजे के आसपास छोटी आयु वाले के पास जाता था। अगले दिन बड़ी आयु वाले के पास दिन के 12 बजे पहुँचा। देर से आने का कारण पूछा तो देवदूत ने बताया कि आज 11:30 बजे दिन के परमात्मा ने लीला करनी थी, वह देखकर आया हूँ। चालीस वर्ष वाले ने पूछा कि क्या लीला की प्रभु ने? बताईएगा। देवदूत ने कहा कि श्री विष्णु जी ने कमाल कर दिया, हाथी को सूई के नाके (छिद्र) में से निकाल दिया। यह सुनकर भक्त बोला कि देवदूत! ऐसी झूठ बोल जो सुने उसे विश्वास हो। यह कैसे हो सकता है कि हाथी सूई के नाके में से निकल जाए। मेरे सामने निकालकर दिखाओ। देवदूत समझ गया कि भगवान सत्य ही कह रहे थे। यह तो पशु है, भक्त नहीं जिसे परमात्मा पर ही विश्वास नहीं कि वह सक्षम है। जो कार्य मानव नहीं कर सकता, परमात्मा कर सकता है। उसकी भक्ति व्यर्थ तथा बनावटी है। देवदूत नमस्ते करके चल पड़ा और छोटे भक्त के पास आया। भक्त ने देरी से आने का कारण पूछा तो देवदूत ने संकोच के साथ बताया कि कहीं यह कोई गलत भाषा न बोल दे। कहा कि भक्त क्या बताऊँ? परमात्मा ने तो अचरज कर दिया। कमाल कर दिया। देखकर आँखें फटी की फटी रह गई। परमात्मा ने हाथी को सूई के नाके (धागा डालने वाले छिद्र) के अंदर से निकाल दिया। यह सुनकर भक्त बोला कि देवदूत जी! इसमें आश्चर्य की कौन-सी बात है? परमात्मा निकाल दे पूरी पृथ्वी को सूई के नाके में से, हाथी तो बात ही क्या है? देवदूत ने भक्त को सीने से लगाया और कहा कि धन्य हैं आपके माता-पिता जिनसे जन्म हुआ। कुर्बान हूँ आपके परमात्मा पर अटल विश्वास पर।

पाठकजनो! यह तो एक उदाहरण है। वास्तव में भक्त को परमात्मा पर पूर्ण विश्वास होना चाहिए कि परमात्मा जो चाहे सो कर सकता है। यदि कोई कहे कि परमात्मा यह नहीं कर सकता, वह नहीं कर सकता तो उसको भक्ति अधिकार ही नहीं है। क्यों अपना समय भक्ति का नाटक करके व्यर्थ करे? परमात्मा पर पूर्ण विश्वास करके भक्ति राह पर चलेगा तो मंजिल पर पहुँचेगा।

3. ‘‘परमात्मा जो करता है, अच्छा ही करता है’’

दीक्षा लेने के उपरांत भक्त के ऊपर भक्ति की राह में कितना ही कष्ट आए, मन में यही आए कि परमात्मा जो करता है, भक्त के भले में ही करता है। कथा:- एक राजा तथा महामंत्री गुरू के शिष्य थे। महामंत्री जी को पूर्ण विश्वास था, परंतु राजा को सत्संग सुनने का समय कम मिलता था। जिस कारण से वह परमात्मा के विधान से पूर्ण परिचित नहीं था, परंतु भक्ति श्रद्धा से करता था। महामंत्रीको राजा हमेशा अपने साथ रखता था। उसकी सबसे अधिक इज्जत करता था। एक मंत्री को महामंत्री से इसी बात पर ईष्र्या थी। वह महामंत्री को राजा की नजरों में गिराने के लिए राजा को महामंत्री के विषय में निंदा करता था। एक मंत्री चाहता था कि राजा मुझे महामंत्री बना दे। उसके लिए बार-बार कहता था कि राजन! यह महामंत्री विश्वास पात्र नहीं है। यह आपको कभी भी धोखा दे सकता है। एक दिन राजा तथा महामंत्री तथा वह चापलूस मंत्री व अन्य मंत्रीगण किसी अन्य शहर में जाने की तैयारी में महल के अंदर हाॅल में खड़े थे। राजा अपनी तलवार को निकालकर उसकी धार (तीखापन) चैक करने लगा और अन्य मंत्रियों से बातें भी कर रहा था। जिस कारण से राजा के हाथ की एक अंगुली कटकर गिर गई। चापलूस बोला कि हे राजा! यह क्या हो गया? हमारे राजा कितने संुदर थे। आज हमारा दुर्भाग्य का दिन है, हाय! यह क्या हो गया? प्रजा का कौन-सा भार अपने ऊपर ले लिया? महामंत्री बोला, अच्छा हुआ। परमात्मा जो करता है, अच्छा ही करता है। राजा दर्द से व्याकुल था तथा ऊपर से ये शब्द सुने तो महामंत्री के प्रति गुस्सा आया और सैनिकों से कहा कि इसे जेल में डाल दो। ऐसा ही किया गया। चापलूस चुगलखोर को महामंत्री नियुक्त कर लिया। अंगुली का उपचार कराया। छः महीने में अंगुली का घाव भरकर ठीक हो गया। कोई दर्द नहीं रहा। अब राजा के दांये हाथ में तीन अंगुली और एक अंगूठा बचा था। राजा अपने नए महामंत्री से अति प्रसन्न था क्योंकि उसका दाँव लग गया था। वह राजा से कहता था कि हे राजन! मैंने तो आप जी को बहुत बार कहा था कि यह आपको धोखा देगा। उस दिन आपने अपने कानों सुन लिया कि वह बोला अंगुली कट गई तो अच्छा हुआ। वह तो आप जी के मरने में खुश था। कभी आपको मरवा देता। राजा उस चापलूस की प्रत्येक बात को सत्य मानने लगा था। एक दिन राजा उस नए महामंत्री के साथ जंगल में शिकार खेलने गया। दोनों जंगल में गहरे चले गए। आगे कुछ भील लोग थे। उन्होंने उन दोनों को पकड़ लिया और अपने पुरोहित के पास ले गए। उस दिन जंगली लोगों का कोई त्यौहार था। एक व्यक्ति को काटकर देवी की भेंट चढ़ाना था। उनके हाथ दो लग गए। पुरोहित ने कहा कि दो ले आए हो तो दोनों की ही बलि चढ़ा देते हैं। देवी और अधिक प्रसन्न होगी। परंतु पहले इनकी जाँच करो कि कोई अंग-भंग न हो यानि काना-कोतरा, हाथ या अंगुली कटी न हो। जाँच की तो पता चला कि एक व्यक्ति के हाथ की एक अंगुली कटी है। पुरोहित ने कहा कि इसे छोड़ दो, दूसरा ठीक है तो इसकी गर्दन काट दो। उसी समय राजा को छोड़ दिया और चापलूस महामंत्री की गर्दन राजा के सामने ही काट दी और देवी को भेंट कर दी। राजा चल पड़ा और अपने महल में आया। सीधा जेल पर गया और महामंत्री को रिहा किया। राजा ने महामंत्री जी को सीने से लगाया और कहा कि जब मेरी हाथ की अंगुली कटी थी और आपने कहा था कि अच्छा हुआ। भगवान जो करता है, अच्छा ही करता है, वह सही बात है। यदि उस दिन मेरी अंगुली नहीं कटी होती तो आज मेरी जान जाती। भगवान ने अच्छा किया। राजा ने फिर कहा कि मेरे लिए तो अच्छा हुआ, परंतु आपको छः महीने जेल व्यर्थ में बिना दोष के काटनी पड़ी। आपके लिए क्या अच्छा हुआ? महामंत्री बोला कि आज मैं जेल में न होता तो आपके साथ जाता। वहाँ मेरी गर्दन कटनी थी। मेरी मौत होनी थी। छः महीने की कैद से मेरी जान बच गई। मेरे लिए यह अच्छा हुआ।

इस प्रकार भक्त को परमात्मा पर विश्वास करके अपने जीवन के सफर पर चलना है।

‘‘एक लेवा एक देवा दूतं। कोई किसी का पिता न पूतं।’’

एक किसान के घर एक पुत्र उत्पन्न हुआ। पुत्र आठ वर्ष का हुआ तो पत्नी की मृत्यु हो गई। किसान के पास 16 एकड़ जमीन थी। कुछ वर्ष पश्चात् किसान ने दूसरी शादी की। उस पत्नी से भी एक पुत्र उत्पन्न हुआ। कुछ वर्ष पश्चात् उस पत्नी की भी मृत्यु हो गई। किसान का प्रथम पत्नी वाला पुत्र 16 वर्ष का हुआ। उसका विवाह कर दिया। किसान की भी मृत्यु हो गई। छोटा लड़का 10.12 वर्ष की आयु में रोगी हो गया। कुछ दिन उपचार कराया, फिर बड़े भाई (मौसी का बेटा) ने तथा उसकी पत्नी ने विचार किया कि उपचार पर क्यों खर्च किया? यदि मर गया तो इसके हिस्से के आठ एकड़ जमीन अपने पास रह जाएगी। यह विचार करके पड़ोस के गाँव से जो वैद्य उपचार के लिए आता था, उससे कहा कि इस लड़के को औषधि में विष मिलाकर दे दो। हम आपको धन दे देंगे। पाँच सौ रूपये के लालच में वैद्य ने उस लड़के को औषधि में विष खिलाकर मार दिया। गाँव वालों को बताया गया कि रोग के कारण मृत्यु हो गई। किसी को शंका नहीं हुई। बच्चे की मृत्यु रोग के कारण हुई मान ली।

उस मौसी के बेटे की मृत्यु के एक वर्ष पश्चात् बड़े भाई को पुत्र प्राप्त हुआ। खुशी का ठिकाना नहीं रहा। बच्चे के जन्म की खुशी में जीमनवार (लंगर) किया। पूरे गाँव में मिठाई बाँटी गई। उसके पश्चात् कोई संतान नहीं हुई। इकलौते पुत्र को प्रेम से पाला। अच्छा घी-दूध, दही खिला-पिलाकर हष्ट-पुष्ट कर दिया। सोलह वर्ष की आयु में विवाह कर दिया। उस समय बाल विवाह को गर्व की बात माना जाता था। वह लड़का रोगी हो गया। वैद्य पर वैद्य बुलाए। मंहगे से मंहगी औषधि खिलाई, परंतु व्यर्थ रहा। उस समय एक महीने में एक-एक हजार की औषधि खिलाई गई। हीरा तथा मोती भस्म भी औषधि में मिलाकर लड़के को खिलाया गया। जिस कारण से आठ एकड़ जमीन भी बेचनी पड़ी, परंतु रोग घटने की बजाय बढ़ता ही चला गया और अंतिम दिन आ गया। लड़के का पिता चिंतित अवस्था में पुत्र के पास बैठा था। उसी समय लड़का बोला, भाई साहब! एक काम कर। पिता ने कहा कि बेटा! मैं तेरा पिता हूँ। लड़का बोला कि मैं तेरा वह भाई हूँ जिसको आपने विष देकर मरवाया था। मैं ही अपना बदला लेने आपके पुत्र रूप में जन्मा हूँ। उस लड़के की माता जी भी वहीं विराजमान थी। लड़का बोला कि आठ एकड़ जमीन मेरे हिस्से की थी, वह मैंने वसूल कर ली है। अब केवल कफन तथा लकड़ियों का हिसाब शेष है, उसकी तैयारी करो। यह बात सुनकर पिता उर्फ भाई का मुख फटा का फटा रह गया। अपने किए पर दोनों (पति-पत्नी) ने पश्चाताप किया। परमात्मा का विधान अटल है। बड़े भाई ने पुत्र रूप में जन्मे छोटे भाई से प्रश्न किया कि हमने लालच में आकर जो पाप किया, हमें तो परमात्मा ने फल दे दिया। जिस उद्देश्य के लिए आपकी जान ली थी, वह आठ एकड़ जमीन गई तथा अन्य संतान है नहीं। यह शेष जमीन कोई और ही लेगा। हमारा तो नाश हुआ सो हुआ, यह तो होना ही चाहिए था। परमात्मा ने न्याय किया, परंतु जो लड़की आपकी पत्नी रूप में आई है, इसने कौन-सा अपराध किया है? जिस कारण से यह सती प्रथा के तहत आपके साथ जिंदा जलाई जाएगी। इसके साथ भगवान ने अन्याय किया है। छोटा भाई उर्फ पुत्र बोला कि मेरी मृत्यु के दो वर्ष पश्चात् वह वैद्य मर गया था जिसने मुझे पाँच सौ रूपये के लालच में विष देकर मारा था। यह पत्नी वही वैद्य (डाॅक्टर) वाली आत्मा है। इसको वह फल मिलेगा, जिंदा जलाई जाएगी। उस समय सती प्रथा जोरों पर थी। पति की मृत्यु के पश्चात् पत्नी को जिंदा उसी चिता में जलाया जाता।

प्रिय पाठको! विचार करो, परमात्मा की दृष्टि से कुछ नहीं छुपा है। जैसा करेगा, वैसा भरना पड़ेगा। प्रत्येक परिवार इसी प्रकार संस्कार के कारण एक-दूसरे से जुड़ा है। कोई पूर्व जन्म का कर्ज उतारने के लिए जन्मा है, कोई पूर्व जन्म का कर्ज लेने जन्मा है। उदाहरण के लिए:-

पिता ने लड़के को पढ़ाया। शादी से दो दिन पहले दुर्घटनाग्रस्त होकर मर गया। वह अपना कर्ज पिता से लेने आया था। बेटा जवान हुआ। कार्य करके निर्वाह करने लगा। पिता रोगी हो गया, लाखों रूपये लगे, व्यर्थ रहे, मर गया। यह पिता पिछले जन्म का कर्ज लेने आया था। कुछ देने आया था। लड़की का विवाह किया, दो वर्ष पश्चात् लड़की मर गई। बहुत दहेज दिया था। वह दामाद पूर्व जन्म के ऋण के बदले में लड़की भी ले गया और धन भी। वर्तमान में जो किसी के साथ धोखा करके धन हड़प लेते हैं, वह धन अगले जन्म में दामाद बनकर वसूलेगा। परमात्मा का अटल विधान है। बुद्धिमान को संकेत ही पर्याप्त है। उपरोक्त केवल कथा नहीं है, यह हकीकत है। कोई यह कहता है कि यह तो डराने के लिए कथा बनाई। किसने देखा है क्या होगा? जैसे चोर को भद्रपुरूष समझाते हैं कि भाई! चोरी मत किया कर। जब पकड़ा जाएगा तो पहले तो जनता पिटाई करेगी, फिर पुलिस पीटेगी और जेल में भी कष्ट उठाना पड़ेगा। यदि कोई कहे कि यह तो चोर को डराने के लिए कहा है। किसने देखा है कि आगे क्या होता है? विचार करें कि चोर को सच्चाई से अवगत करवाकर डराया है और सच्चाई भी है। यदि चोर सच्चाई से डरकर चोरी करना त्याग देगा तो उसकी भलाई है। यदि कहेगा कि किसने देखा है, आगे क्या होता है? उसके साथ वह सब गुजरेगी जो पहले बताई गई थी। इसी प्रकार जो उपरोक्त कथा को केवल समझाने-डराने के लिए ही मानेगा तो दुर्भाग्य होगा। इसको इतनी ही सत्य समझना, जैसे चोर को सतर्क किया है।

लेखक ने यह कथा सन् 1978 में एक पशुओं के डाॅक्टर से सुनी थी जो किसान के दो पुत्रों वाली कथा ऊपर बताई है। वह इस कथा को अपने पास बैठने वाले को अवश्य सुनाता था, परंतु अमल कतई नहीं करता था। दस रूपये की दवाई देकर चार क्पेजपससमक ॅंजमत के इन्जैक्शन लगाकर 200-300 रूपये वसूलता था। फिर शाम को मिलता तो अपने कारनामे भी बताता था कि यदि कम रूपये लूंगा तो भैंस वाला यह समझेगा कि अच्छी दवाई नहीं दी। भैंस को स्वस्थ तो दस रूपये की दवाई से ही हो जाना था। विचार करें कि ऐसे व्यक्तियों की कथनी और करनी में अंतर है तो उनके द्वारा सुनाई इन कथाओं का अन्य पर कैसे प्रभाव होगा? संत गरीबदास जी ने कहा है कि ये बातें कहन-सुनन की नहीं हैं, कर पाड़ने की हैं यानि इन पर अमल करना चाहिए। परमात्मा के विधान को समझकर निर्मल जीवन यापन करो। जीवन की राह को कांटों रहित बनाऐं।

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