श्री जगन्नाथ के मन्दिर में छुआछात प्रारम्भ से ही नहीं है
कुछ दिन पश्चात जिस पांडे ने प्रभु कबीर जी को शुद्र रूप में धक्का मारा था उसको कुष्ठ रोग हो गया। सर्व औषधी करने पर भी स्वस्थ नहीं हुआ। कुष्ठ रोग का कष्ट अधिक से अधिक बढ़ता ही चला गया। सर्व उपासनायें भी की, श्री जगन्नाथ जी से रो-रोकर संकट निवार्ण के लिए प्रार्थना की, परन्तु सर्व निष्फल रही। स्वपन में श्री कृष्ण जी ने दर्शन दिए तथा कहा पांडे उस संत के चरण धोकर चरणामृत पान कर जिसको तुने मन्दिर के मुख्य द्वार पर धक्का मारा था। तब उसके आशीर्वाद से तेरा कुष्ठ रोग ठीक हो सकता है। यदि उसने तुझे हृदय से क्षमा किया तो, अन्यथा नहीं। मरता पुरी में श्री जगन्नाथ जी का मंदिर अर्थात् धाम कैसे बना?
वह मुख्य पांडा सवेरे उठा। कई सहयोगी पांडों को साथ लेकर उस स्थान पर गया जहाँ पर प्रभु कबीर शूद्र रूप में विराजमान थे। ज्यों ही पांडा प्रभु के निकट आया तो परमेश्वर उठ कर चल पड़े तथा कहा हे पांडा मैं तो अछूत हूँ मेरे से दूर रहना, कहीं आप अपवित्र न हो जायें। पांडा निकट पहुँचा, परमेश्वर और आगे चल पड़े। तब पांडा फूट-फूट कर रोने लगा तथा कहा परवरदीगार मेरा दोष क्षमा कर दो। तब दयालु प्रभु रूक गए। पांडे ने आदर के साथ एक स्वच्छ वस्त्रा जमीन पर बिछा कर प्रभु को बैठने की प्रार्थना की। प्रभु उस वस्त्रा पर बैठ गए। तब उस पांडे ने स्वयं चरण धोए तथा चरणामृत को पात्र में वापिस डाल लिया। प्रभु कबीर जी ने कहा पांडे चालीस दिन तक इसे पीना भी तथा स्नान करने वाले जल में कुछ डाल कर स्नान करते रहना। चालीसवें दिन तेरा कुष्ठ रोग समाप्त होगा तथा कहा कि भविष्य में भी इस जगन्नाथ जी के मन्दिर में किसी ने छूआछात किया तो उसको भी दण्ड मिलेगा। सर्व उपस्थित व्यक्तियों ने वचन किए कि आज के बाद इस पवित्र स्थान पर कोई छुआ-छात नहीं की जायेगी।
विचार करें:- हिन्दुस्तान का एक ही मन्दिर ऐसा है जिसमें प्रारम्भ से ही छूआ-छात नहीं रही है।
मुझ दास को भी उस स्थान को देखने का अवसर प्राप्त हुआ। कई सेवकों के साथ उस स्थल को देखने के लिए गया था कि कुछ प्रमाण प्राप्त करूं। वहाँ पर सर्व प्रमाण आज भी साक्षी मिले। जिस पत्थर (चैरा) पर बैठ कर कबीर परमेश्वर जी ने मन्दिर को बचाने के लिए समुद्र को रोका था वह आज भी विद्यमान है। उसके ऊपर एक यादगार रूप में गुम्बज बना रखा है। वहाँ पर बहुत पुरातन महन्त(रखवाला) परम्परा से एक आश्रम भी विद्यमान है। वहाँ पर लगभग 70 वर्षीय वृद्ध महन्त जी से उपरोक्त मन्दिर की समुद्र से रक्षा की जानकारी चाही तो उसने भी यही बताया तथा कहा कि मेरे पूर्वज कई पीढ़ी से यहाँ पर महन्त (रखवाले) रहे हैं। यहाँ पर ही श्री धर्मदास साहेब व उनकी पत्नी भक्तमति आमनी देवी ने शरीर त्यागा था। दोनों की समाधियाँ भी साथ-साथ बनी दिखाई।
फिर हम श्री जगन्नाथ जी के मन्दिर में गए। वहाँ पर मूर्ति पूजा आज भी नहीं है। परन्तु प्रदर्शनी अवश्य लगा रखी है।
जो तीन मूर्तियाँ भगवान श्री कृष्ण जी तथा श्री बलराम जी व बहन सुभद्रा जी की मन्दिर के अन्दर स्थापित हैं उनके दोनों हाथों के पंजे नहीं हैं, दोनों हाथ टूंडे हैं। उन मूर्तियों की भी पूजा नहीं होती, केवल दर्शनार्थ रखी हैं। वहाँ पर एक गाईड पांडे से पूछा कि सुना है कि यह मन्दिर पाँच बार समुद्र ने तोड़ा था पुनर बनवाया था। समुद्र ने क्यों तोड़ा? फिर किसने समुद्र को रोका। पांडे ने कहा इतना तो मुझे पता नहीं। यह सर्व कृपा जगन्नाथ जी की थी, उन्होंने ही समुद्र को रोका था, सुना तो है कि समुद्र ने तीन बार मन्दिर को तोड़ा था। मैंने फिर प्रश्न किया कि प्रथम बार ही क्यों न समुद्र रोका प्रभु ने। पांडे ने उत्तर दिया कि लीला है जगन्नाथ की।
मैंने फिर पूछा कि इस मन्दिर में छूआछात है या नहीं? उसने कहा जब से मन्दिर बना है यहाँ कोई छूआछात नहीं है। मन्दिर में शुद्र तथा पांडा एक थाली या पतल में खाना खा सकते हैं कोई मना नहीं करता। मैंने प्रश्न किया पांडे जी अन्य हिन्दु मन्दिरों में तो पहले बहुत छुआछात थी, इसमें क्यों नहीं? प्रभु तो वही है। पांडे का उतर था लीला है जगन्नाथ की।
अब पुण्यात्माऐं विचार करें कि सत को कितना दबाया गया है, एक लीला जगन्नाथ की कह कर। पवित्र यादगारें आदरणीय हैं, परन्तु आत्म कल्याण तो केवल पवित्र गीता जी व पवित्र वेदों में वर्णित तथा परमेश्वर कबीर जी द्वारा दिए तत्वज्ञान के अनुसार भक्ति साधना करने मात्र से ही सम्भव है, अन्यथा शास्त्रा विरुद्ध होने से मानव जीवन व्यर्थ हो जाएगा। प्रमाण गीता अध्याय 16 मंत्र 23.24 श्री जगन्नाथ के मन्दिर में प्रभु के आदेशानुसार पवित्र गीता जी के ज्ञान की महिमा का गुणगान होना ही श्रेयस्कर है तथा जैसा श्रीमद्भगवत गीता जी में भक्ति विधि है उसी प्रकार साधना करने मात्र से ही आत्म कल्याण संभव है, अन्यथा जगन्नाथ जी के दर्शन मात्र या खिचड़ी प्रसाद खाने मात्र से कोई लाभ नहीं, क्योंकि यह क्रिया श्री गीता जी में वर्णित न होने से शास्त्रा विरुद्ध हुई, जो अध्याय 16 मंत्र 23-24 में प्रमाण है।