आध्यात्मिक रहस्य (Spiritual Secret)
प्रश्न:- जादू क्या है?
जादूगर आकाश में स्वयं उड़ जाता है। अन्य को भी हवा में पृथ्वी से कुछ ऊपर स्थिर कर देता है। खाली टोकरे (पिटारे) से कबूतर निकाल देता है। कार को हवा में चला देता है। दरिया के जल पर पृथ्वी की तरह चलकर पार कर देता है आदि-आदि।
जैसे जादूगर पी.सी. सरकार:- यह भारत का जादूगर है जो महिला को हवा में उड़ा देता है। हवा में रोक देता है। एक डायनोमो जादूगर दूसरे देश का है:- इसके विषय में लिखा है कि यह इंग्लैंड देश का निवासी है। यह चलते-चलते गायब हो जाता है। कभी उड़ने लगता है। लंदन की थेम्स नदी को पैदल चलकर पार कर देता है। उड़कर डबल डैकर यानि दो मंजिली बस के ऊपर चढ़ जाता है। चुटकियों में बर्फ को पानी और पानी को बर्फ बना देता है।
सुहानी शाह:- यह जादूगरनी अनेकों आश्चर्यजनक करतब दिखाती है। यह गाड़ियों को हवा में उड़ा देती है। स्टेज पर खड़ी-खड़ी गाड़ी को चला देती है यानि स्टार्ट कर देती है। गाड़ी को भगा देती है। अन्य बहुत से जादूगर देखे हैं जो गाँव में अपनी कला का प्रदर्शन करते रहे हैं। जैसे मुख में बेर फल के समान कंचे (अन्टे) की गोलियाँ डालते हैं। कुछ ही क्षण में आकाश की ओर मुख करके कुछ मंत्र बुदबुदाते हैं और बड़े-बड़े चिकने पत्थर के पुराने समय के बाट (पत्थर के गोल डले) निकालते हैं जो वजन में लगभग 300-400 ग्राम के होते हैं और बहुत कठोर होते हैं। इस प्रकार की अनहोनी जो एक व्यक्ति करता है। यह कोई आध्यात्मिक शक्ति है या हाथ की सफाई या नजरबंद करने की कला का भ्रम है?
उत्तर:- जादू - जादू अध्यात्म का विकृत (बिगड़ा) रूप है। जादू में सफलता उन्हीं को मिलती है जो पूर्व जन्म में परमात्मा की उपासना करते थे। सत्य साधना न मिलने के कारण उनमें सिद्धियाँ आ जाती हैं। उन सिद्धियों से वे भ्रमित साधक उस पूर्व जीवन में भी सिद्धियों के बल से विख्यात हो जाते हैं। जिस कारण उनकी कुछ सिद्धियाँ उस पूर्व जन्म में प्रदर्शन करने से नष्ट हो जाती है। शेष अगले जन्म में जादूगर बनकर नष्ट कर देते हैं। पुनः पशु-पक्षियों के जीवन प्राप्त करते हैं।
उदाहरण के लिए सत्य कथा:- एक सिद्ध महात्मा के आश्रम में उसके कुछ शिष्य रहते थे। सबको सिद्ध जी ने तप साधना तथा कुछ शास्त्रविरूद्ध मंत्र जाप करने को बताया था जिनसे सिद्धियाँ प्राप्त करना उद्देश्य बताया था। यही जीवन की उपलब्धि बताई थी। उस सिद्ध के देहांत के पश्चात् उनका एक शिष्य उस डेरे का महंत बना दिया गया। जो बड़े सिद्ध के शिष्य थे, वे आश्रम त्यागकर भिन्न-भिन्न दिशाओं में अपनी साधना करने व उद्देश्य पूर्ति के लिए चले गए। उनमें दो घनिष्ठ मित्र थे। वे भी साधना करने के लिए एकांत में तथा अकेला रहने के उद्देश्य से अलग-अलग हो गए। एक का नाम गुलाब नाथ तथा दूसरे का नाम भानी नाथ था। गुलाब नाथ को कबीर परमेश्वर जी के अनुयाई संत का सत्संग सुनने को मिल गया। जिससे उसको अपनी साधना तथा उद्देश्य व्यर्थ लगा तथा परमेश्वर कबीर जी के ज्ञान को समझकर गुलाब नाथ जी ने कबीर पंथ में उस कबीर पंथी संत से दीक्षा ले ली तथा पूर्व के गुरू जी को तथा उनके बताए उद्देश्य तथा साधना को त्याग दिया। सत्य साधना करके सत्यलोक जाने तथा पुनः जन्म न प्राप्त करने के उद्देश्य से समर्पित होकर साधना करने लगा। उसकी निष्ठा देखकर कबीर पंथ संत उदय दास ने गुलाब नाथ का नाम गुलाब दास रख दिया तथा अपना उतराधिकारी बना दिया। कुछ समय के पश्चात् संत उदय दास जी का देहांत हो गया। गुलाब दास दीक्षा देने लगा। लगभग 12 वर्ष के पश्चात् एक दरिया के किनारे किसी धार्मिक धनी व्यक्ति ने धर्म यज्ञ का आयोजन किया। उसमें आसपास के सर्व संत-महात्माओं को आमंत्रित किया। संत गुलाब दास जी भी अपने कुछ शिष्यों के साथ उस संत समागम में गए। दैवयोग से उनका मित्र तथा पूर्व सिद्ध का शिष्य गुरूभाई भी आया हुआ था। दोनों का अचानक आमना-सामना हो गया। आपस में बाहें भरकर मिले। कुशलमंगल पूछा। फिर अपनी-अपनी आध्यात्मिक उपलब्धि बताने लगे। भानी नाथ जी ने अपने मित्र गुलाब दास जी से प्रश्न किया कि आपको क्या उपलब्धि हुई?
गुलाब दास ने उत्तर दिया कि मुझको सब कुछ मिल गया। परमेश्वर को प्राप्त करने तथा जन्म-मरण से छुटकारा प्राप्त करने का मार्ग मिल गया। भानी नाथ ने पूछा कि कोई सिद्धि दिखाओ जो आपको प्राप्त हुई हो। गुलाब दास ने कहा कि मुझे सिद्धि की आवश्यकता ही नहीं रही। भानी नाथ ने कहा कि मैं दिखाऊँ मुझे कितनी बड़ी सिद्धि प्राप्त हुई है। यह कहकर भानी नाथ उठा और दरिया के जल पर ऐसे चल पड़ा जैसे पृथ्वी पर चलते हैं। दरिया के दूसरे किनारे पर जाकर वापिस आया और अपनी उपलब्धि को दिखाकर गर्व प्रदर्शित करते हुए बोला कि देखा 12 वर्ष की तपस्या का कमाल। गुलाब दास ने कहा कि हे मित्र! इस दरिया को पार करने का किराया नाविक एक आन्ना (पहले सोलह आन्नों का एक रूपया होता था) लेता है और वापिस आने का भी एक आन्ना किराया लेता है यानि दो आन्नों का खर्च होता है। आप जी ने बारह वर्षों में दो आन्नों की आध्यात्मिक कमाई की है। इससे जनता तो प्रशंसक हो सकती है, परंतु न जन्म-मरण छूटै, न ही मुक्ति हो सकती है। फिर इस व्यर्थ साधना रूपी डले ढ़ोने की क्या आवश्यकता है? जन्म नष्ट हो जाएगा। यह बात सुनकर भानी नाथ बहुत प्रभावित हुआ तथा गुलाब दास से सत्य ज्ञान समझा तथा उसका शिष्य बनकर भानी नाथ फिर भानी दास होकर सत्य साधना करने लगा। मानव जीवन सफल किया। यदि भानी नाथ जी को सत्य साधना नहीं मिलती तो जन्म-मरण चक्र बना रहता। अगले जन्म में जब भी मानव जीवन मिलता तो जादूगर बनकर शेष सिद्धियाँ समाप्त कर देता और पशु-पक्षियों आदि-आदि के शरीरों में कष्ट उठाता रहता। यह है जादूगर की कहानी। एक सिद्ध महात्मा ने गेहूँ की 80 बोरी आकाश मार्ग से उड़ाकर अपने मित्र सिद्ध के डेरे में भेज दी थी। वहाँ पर भोजन-भण्डारे का आयोजन था।
एक सिद्ध महात्मा अपनी सिद्धि का प्रभाव जमाने के लिए अन्य प्रसिद्ध सिद्ध के डेरे में गाँव-रामथली (जिला-अम्बाला, हरियाणा प्रान्त) गया। उस सिद्ध ने कई गायें रखी थी। जिस समय वह सिद्ध अपनी सिद्धि का प्रभाव दिखाने उस दूसरे सिद्ध के डेरे के निकट पहुँचा तो डेरे वाले सिद्ध ने देखा कि एक सिद्ध अपनी सिद्धि से एक सिंह (शेर) के ऊपर बैठकर डेरे की ओर चला आ रहा है। उस समय डेरे वाला सिद्ध डेरे की 3 फुट ऊँची चार दीवारी (boundary wall) पर बैठा दाॅतुन कर रहा था। उसने अपने डेरे की ओर सिंह (lion) पर बैठे सिद्ध को आते देखकर समझते देर न लगी कि उसका उद्देश्य क्या है? आने वाले सिद्ध बाबा को सिंह पर बैठा देखकर गाँव-रामथली (जिला-अम्बाला) के व्यक्ति भी उसके पीछे-पीछे चल लिए। जिस समय वह सिंह वाला सिद्ध डेरे से लगभग 60 फुट दूर रह गया तो डेरे वाले सिद्ध ने कहा कि हे चार दीवारी! चल सिद्ध का स्वागत करते हैं। ये दूर से चलकर आए हैं। उसी समय जिस दीवार पर डेरे वाला सिद्ध बैठा था, वह साठ (60) फुट आने वाले सिद्ध की ओर चलकर रूक गई। डेरे वाले सिद्ध ने नीचे उतरकर स्वागत किया। सिंह वाले सिद्ध ने कहा कि मेरे सिंह को कहाँ रखोगे? डेरे वाले ने कहा कि मेरी गायों वाले बाड़े (कांटेदार सूखी झाड़ियों से बने घेरे को बाड़ा कहते हैं) में छोड़ दो। सिंह को गायों के बीच छोड़ दिया। वह शेर चुपचाप गऊओं के बीच खड़ा हो गया। सिंह वाले सिद्ध की हार हुई और डेरे वाले सिद्ध की और महिमा हो गई। मोक्ष दोनों का नहीं। अगले मनुष्य जन्म में शेष सिद्धियाँ जादूगर बनकर प्रसिद्धि प्राप्त करते हैं। फिर 84 लाख जीवों के जन्म-मरण के चक्र में फँस जाते हैं। ऐसे सिद्ध पुरूष जब कभी मानव शरीर प्राप्त करते हैं तो बची हुई सिद्धि-शक्ति से जादूगर प्रसिद्ध हो जाते हैं। जादूगर ऐसे प्राणी होते हैं।
प्रश्नः- मैं तो योगी उसी को मानता हूँ जो आसन करता है तथा कराता (सिखाता) है तथा किसी आसन विशेष पर आरूढ़ होकर तपस्या भक्ति करता है ?
उत्तरः- योगी वह भी कहलाता है परन्तु वह योगी तो एक मात्र प्राकृृतिक चिकित्सक (वैद्य) है। यह अष्टांग योग प्रभु साधना में इसलिए सहयोगी माना गया है कि इससे शरीर स्वस्थ रहता है। स्वस्थ शरीर से भक्ति अच्छी होती है। परन्तु आध्यात्मिक मार्ग में उस योगी की भूमिका नहीं मानी जाती क्योंकि परमात्मा की सत्य साधना (योग) से साधक का असाध्य रोग भी ठीक हो जाता है। जिससे साधक की श्रद्धा अधिक बढ़ जाती है वह अधिक श्रद्धा से साधना (योग) करके परमात्मा प्राप्ति कर जाता है। एक अष्टांग योगी (आसन व क्रिया करने वाला) दुर्घटना की चपेट में आ गया दोनों टाँगें टूट गई। उनमें स्टील (इस्पात) की राड़ें (छड़ियाँ) डाली गई। वह आजीवन अष्टांग योग नहीं कर सका। किसी एक स्थान पर आसन पर बैठकर भी वह दुर्घनाग्रस्त व्यक्ति भक्ति भी नहीं कर सकता। आपके अनुसार तो वह भक्ति से वंचित रह जाएगा। शास्त्रानुकूल साधक का ऐसी घटनाओं से परमात्मा बचाव करता है।
श्री मद्भगवत् गीता अध्याय 3 श्लोक 4 से 8 में कहा है कि जो मूर्ख व्यक्ति हठ योग कर (एक स्थान पर किसी आसन पर आरूढ़ होकर) भक्ति करता है। वह पाखण्ड करता है क्योंकि वह केवल कर्म इन्द्रियों को हठ पूर्वक रोक कर स्थित है परन्तु ज्ञान इन्द्रियों द्वारा बाह्यय वस्तुओं के चिन्तन में लगा है। यदि अर्जुन तू एक स्थान पर किसी आसन पर आरूढ़ होकर बैठा रहेगा तो तेरा निर्वाह कैसे होगा? इसलिए संसारिक कर्म करता हुआ, परमात्मा को भी याद कर। गीता अध्याय 8 श्लोक 7 तथा 13 में तो यहाँ तक कहा है कि मेरा एक ॐ (ओं) अक्षर है समरण करने का उसका अन्तिम स्वांस तक समरण करने से मेरे वाली गति प्राप्त होती हैं इसलिए अर्जुन तू युद्ध भी कर तथा मेरा स्मरण भी कर।
विचार करें:- युद्ध से कठिन कार्य कुछ नहीं होता उसमें भी प्रभु का समरण करने को कहा है। इससे सिद्ध हुआ कि परमात्मा की भक्ति कार्य करते-करते करनी है। जो सर्व सद्ग्रन्थों में प्रमाण है। यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 15 में कहा है ! ओम् (ॐ) मन्त्र का समरण काम करते-करते कर, विशेष कसक के साथ समरण कर मानव जीवन का मूल कर्तव्य समझ कर समरण कर जिससे मृृत्यु के पश्चात् तेरा लिंग शरीर अमर हो जाएगा। जब तक स्थूल शरीर है अर्थात् जीवित है तब तक समरण करने से लाभ प्राप्त होता है। इससे सिद्ध हुआ कि एक स्थान पर आसन लगाकर साधना करना शास्त्रविरूद्ध है। पाठकों के मन में यह भी प्रश्न उठेगा कि गीता ज्ञान दाता ने, गीता अध्याय 6 श्लोक 10 से 15 में यह भी कहा है कि एकांत स्थान में एक आसन पर बैठकर नाक के अगले भाग को देखें ऐसे साधना करें। इस प्रश्न का उत्तर पवित्र गीता जी से मिलता है। गीता ज्ञान दाता (काल रूपी ब्रह्म) ने गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में कहा है कि तत्वज्ञान (पूर्ण मोक्ष मार्ग की भक्तिविधि के ज्ञान) को समझने के लिए तत्वदर्शी संतों से विनम्र भाव से पूछो फिर जैसा मार्गदर्शन वे करें। उस प्रकार साधना कर। तत्वदर्शी संत की पहचान गीता अध्याय 15 श्लोक 1 व 4 में बताई है। इस प्रकार गीता ज्ञान दाता प्रभु ने अपने आप को दोष मुक्त कर रखा है तथा अपने गीता ज्ञान में स्थान-2 पर कहा है कि यह मेरा मत (विचार) है। वास्तविक भक्ति विधि तो तत्वदर्शी सन्त ही बताएगा। इस (गीता अध्याय 6 श्लोक 10 से 15 वाले) ज्ञान का गीता अध्याय 3 श्लोक 4 से 8 में तथा अध्याय 6 के 16 में ही खण्डन किया है। पूर्ण परमात्मा द्वारा मिलने वाला पूर्ण मोक्ष (न एकांतम्) न तो एक स्थान पर विशेष आसन पर बैठने से सिद्ध होता है। न अधिक खाने वाले का न बिल्कुल न खाने वाले का (व्रत/उपवास रखने वाले का) न अधिक जागने वाले (हठयोग करने वाले) का न अधिक सोने वाले का सिद्ध होता है अर्थात् उपरोक्त क्रिया करने वाले की भक्ति व्यर्थ है। क्योंकि गीता अध्याय 6 श्लोक 10 से 15 में तो गीता ज्ञान दाता ने अपनी भक्ति साधना विधि बताई है। जिससे होने वाली मुक्ति (गति) को गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में अश्रेष्ठ बताया है। जिस कारण से गीता अध्याय 4 श्लोक 5 में कहा है कि अर्जुन तेरे तथा मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं। अर्थात् हम (मैं तथा मेरे साधक तथा तू) पूर्ण मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते। इसलिए गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 18 श्लोक 62, अध्याय 15 श्लोक 4 में किसी अन्य परमात्मा की साधना करने को कहा है तथा उस परमात्मा की भक्तिविधि कोई तत्वदर्शी (पूर्ण) सन्त बताएगा। (इसलिए पाठक जन भ्रमित न होकर तत्वज्ञान को समझें।)
श्री विष्णु पुराण के जिस विवरण के विषय में आपने कहा है उसका निष्कर्ष यह है कि ‘‘श्री पराशर जी ने अपने शिष्य श्री मैत्रोय जी को बताया है कि जो श्राद्ध कर्म (पितर पूजा) आदि के विषय में आपने मुझ से पूछा है यही प्रश्न राजा सगर ने भृगु वंशी ऋषि और्व जी से पूछा था। जो और्व ऋषि ने राजा सगर से श्राद्ध कर्म (पितर पूजा) के विषय में बताया था वह मैं आप को सुनाता हूँ ध्यान पूर्वक सुन! पाठक जन कृृपया पूर्ण वार्ता श्री विष्णु पुराण तृतीय अंश के अध्याय 13 से 16 पृृष्ठ 203 से 215 तक पढ़ें। यहां पर पुस्तक विस्तार को ध्यान रखते हुए, संक्षिप्त व सांकेतिक विवरण विवेचन के साथ लिखा जाता है। सर्वप्रथम तो श्री विष्णु पुराण के वक्ता महर्षि पाराशर जी को तत्वज्ञान रूपी तुला में तोलते हैं। निर्णय करते हैं कि पाराशर जी कितने विद्वान थे।
श्री पराशर महर्षि जी ने श्री विष्णु पुराण द्वितीय अंश के अध्याय 7 श्लोक 5 में पृृष्ठ संख्या 126-127 पर ग्रहों की जानकारी दी है। जिसमें पृृथ्वी के निकटतम् सूर्य को बताया जिसकी पृृथ्वी से दूरी एक लाख योजन अर्थात् तेरह लाख किलो मीटर बताई इसके पश्चात् बताया है कि चन्द्रमा सूर्य ये भी एक लाख योजन दूर है। जिसकी पृथ्वी से दूरी 2 लाख योजन (26 लाख किलो मीटर) बताई है।
विचार करें वर्तमान में (सन् 2006 तक की खोज से) स्पष्ट हो चुका है कि चन्द्रमा पृथ्वी के निकटतम् है जिसकी पृथिवी से दूरी सूर्य की तुलना में कई गुणा कम है।
दूसरा प्रमाण:- श्री विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय 5 पृृष्ठ 17 पर दिन-रात कैसे बने हैं। इसकी जानकारी ये है।
श्री पारासर जी ने कहा कि प्रजापति ब्रह्मा जी सृृष्टि-रचना की इच्छा से युक्तचित हुए तो तमोगुण की वृृद्धि हुई। सब से पहले असुर उत्पन्न हुए। ब्रह्मा ने उस शरीर को त्याग दिया वह छोड़ा हुआ शरीर रात्रि हुआ। दूसरा शरीर धारण किया उस शरीर से देव उत्पन्न हुए। प्रजापति ब्रह्मा ने वह शरीर भी त्याग दिया। वह त्यागा हुआ शरीर दिन हुआ। पाठक जन कृृप्या विचार करें क्या ये विचार एक विद्वान के हैं।
श्री विष्णु पुराण के वक्ता का सामान्य ज्ञान भी ठीक नहीं है तो उसके द्वारा बताया गया अध्यात्मिक ज्ञान कैसे ठीक हो सकता है। श्री पराशर जी ने फिर ग्रहों की अन्य व्याख्या की है:- श्री विष्णु पुराण के वक्ता श्री पराशर जी ने श्री विष्णु पुराण (गीता प्रैस गोरखपुर से ही प्रकाशित) के द्वितीय अंश के अध्याय 8 के श्लोक 1 से 7 में पृृष्ठ 129 पर सुर्य (जो अग्नि पिण्ड आकाश में तप रहा है) के रथ के विषय में कहा है
‘‘सूर्य के रथ का विस्तार नो हजार योजन है। इसके जूआ और रथ के बीच की दूरी 18 हजार योजन है। इसका धुरा डेढ़ करोड़ सात लाख योजन है। अर्थात् एक करोड़ 57 लाख योजन लम्बा है। जिसमें उसका पहिया लगा है आदि-2 बहुत कुछ लिखा है।
कृृपया पाठक जन विचार करें क्या यह ज्ञान किसी विद्वान पुरूष का हो सकता है। श्री विष्णु पुराण में इसी अग्नि पिण्ड सूर्य के विषय में पृृष्ठ 166 से 167 पर तृृतीय अंश के अध्याय 2 के श्लोक 1 से 13 में श्री पाराशर ऋषि ने कहा है कि
‘‘सूर्य का विवाह विश्वकर्मा की बेटी संज्ञा से हुआ उससे दो पुत्र मनु व यम तथा एक कन्या यमी उत्पन्न हुई। सूर्य की पत्नी संज्ञा अपने पति के तेज से दुःखी होकर तपस्या करने के लिए वन में चली गई। वहां घोड़ी का रूप बना कर तपस्या करने लगी अपने स्थान पर अपनी हमशक्ल अन्य स्त्री प्रकट की उसका नाम छाया रखा तथा उससे संज्ञा ने कहा तू मेरे पति की पत्नी बनकर रह। यह भेद किसी को मत बताना। मेरा पति तुझे संज्ञा ही समझेगा। छाया ने कहा जो आपकी आज्ञा। सूर्य ने छाया को संज्ञा जानकर दो संतान उत्पन्न की, एक लड़का तथा एक लड़की।
एक दिन भेद खुलने पर सूर्य अपने श्वशुर विश्वकर्मा के पास गए तथा विश्वकर्मा से कहा आप मेरा तेज छांट दो इस तेज के डर से आपकी बेटी संज्ञा वन में चली गई है। श्री विश्वकर्मा जी ने सूर्य को भ्रमीयन्त्र (सान) पर चढ़ा कर उसका तेज छांटा (काट दिया) वह कचरा (खराद से छटा हुआ कट पीस) धरती पर गिरा जिससे श्री विश्वकर्मा ने भगवान विष्णु का ‘‘चक्र’’ भगवान शिव का त्रिशुल तथा कुबेर का विमान आदि-2 बनाए। तत् पश्चात सूर्य घोड़ा बन कर संज्ञा के पास वन में गया। संज्ञा से घोड़ी रूप में ही संभोग करके तीन पुत्र उत्पन्न किए। दो घोड़ी के मुख से उत्पन्न हुए उनको अश्वनी कुमार कहा जाता है। जिनके नाम है (1) नासत्य (2) दस्र ये दोनों अश्वनी कुमार देवताओं के वैद्य बने तथा तीसरा पुत्र रेतःस्त्राव उत्पन्न हुआ जहां पर सूर्य का वीर्य उस समय गिरा था। जब वह घोड़ी रूप धारी संज्ञा के मुख की ओर ही घोड़ा रूप में संभोग करने की कोशिश कर रहा था। वहां गिरे वीर्य से रेतःस्त्राव पुत्र जमीन पर ही उत्पन्न हो गया। वह घोड़ा पर बैठा हुआ हाथ में धनुष आदि लिए हुए उत्पन्न हुआ था जिस स्थान पर इस आग के गोले (अग्नि पिण्ड) सूर्य ने घोड़े का रूप धारण करके घोड़ी रूप नारी संज्ञा से संभोग किया था। जहां दो पुत्र अश्विनी कुमार (नासत्य तथा दस्र) उत्पन्न किए थे। उस तीर्थ का नाम अश्व तीर्थ, भानु तीर्थ और पंचवटी आश्रम के नाम से विख्यात हुआ सूर्य की दोनों कन्याएं दो नदीयों अरूणा, वरूणा नाम से अपने पिता से मिलने आई थी उन दोनों का जहां गंगा नदी में संगम हुआ है वह बहुत उत्तम तीर्थ उन तीर्थों में स्नान करने से व दान करने से अक्षय धन देने वाला है। उस तीर्थ का समरण, कीर्तन, श्रवण (सुनने) करने से सर्व पापों का नाश होकर मनुष्य सुखी हो जाता है।
(उपरोक्त विवरण मार्कण्डेय पुराण गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित पृृष्ठ 172 से 175 अध्याय वैवस्वत मन्वन्तर की कथा तथा सावर्णिक मन्वन्तर का संक्षिप्त परिचय से तथा ब्रह्म पुराण अध्याय ‘‘जन स्थान, अश्व तीर्थ, भानु तीर्थ और अरूणा वरूणा संगम की महिमा से तथा विष्णु पुराण के तृृतीय अंश के अध्याय 2 श्लोक 1 से 13 पृष्ठ 166.167 से लिया गया है) इसी विष्णु पुराण द्वितीय अंश के अध्याय 8 श्लोक 41 से 52 तक तथा पृष्ठ 132 पर कहा है कि सूर्य कभी दिन में तेज गति से चलता है कभी रात्री में मंद गति से चलता है इस प्रकार अपना एक दिन रात का चक्र मण्डलाकार में घूम कर पूरा करता है। {पुराण वक्ता का भाव है कि सूर्य के पृृथ्वी के चारों ओर चक्र लगाने से दिन रात बनते हैं जब कि वर्तमान में (सन् 2006 तक की खोज में)स्पष्ट हो चुका है कि पृथ्वी स्वयं घूमती है जिस कारण से दिन-रात बनते हैं तथा पृृथ्वी एक वर्ष में (364 ( दिन में) सूर्य के चारों ओर भी घूमती है जिस कारण से दिन-रात छोटे बड़े बनते हैं।}
पुराण के वक्ता ने यह भी लिखा है कि शाम के समय (संध्या समय) मन्देहा नामक भयंकर राक्षक गण सूर्य को खाना चाहते है। संध्या काल में उनका सूर्य से भयंकर युद्ध होता है।
निष्कर्ष:- उपरोक्त पुराण के लेख से पुराण के वक्ता श्री पाराशर ऋषि के आध्यात्मिक व सामान्य ज्ञान का पता चलता है कि वह विद्वान नहीं था। फिर उस महापुरूष द्वारा बताया श्राद्ध कर्म जिसे आप करते हैं। वह कैसे श्रेष्ठ माना जाए। जबकि पवित्र वेदों व पवित्र गीता जी आदि प्रभुदत्त सद्ग्रन्थों में श्राद्ध कर्म व देवताओं की पूजा को मूर्खों की साधना लिखा है। पूर्वोंक्त लेख में रूची ऋषि के प्रकरण में आपने पढ़ा जिसमें वेदों के ज्ञाता रूची ऋषि जी अपने पितरो को वेदों के प्रमाण दे कर कह रहा है कि श्राद्ध कर्म, देवताओं की पूजा, भूत (प्रेत) पूजा को वेदों में मूर्खों की साधना कहा है। फिर आप मुझे किसलिए शास्त्रविरूद्ध साधना करने की प्रेरणा दे रहे हो। श्री रूची ऋषि जी व चारों पितर भी, इसी बात का समर्थन कर रहे हैं कि यह तो सत्य है कि वेदों में श्राद्ध कर्म, देवताओं की पूजा, प्रेत (भूत) पूजा का निषेध है। मूर्खों की पूजा कहा है। इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। इसके पश्चात् पितरों ने अपने भोले-भाले वंशज रूची ऋषि को शास्त्रविधि अनुसार साधना त्यागने तथा शास्त्रविधि विरूद्ध मनमाना आचरण (पूजा) करने के लिए विवश कर दिया जिस कारण से श्री रूचि ऋषि भी शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण (पूजा) करके मानव जीवन को व्यर्थ करके पितर जूनी (योनि) को प्राप्त हुआ। श्री मद्भगवत् गीता जी (जो चारों वेदों का सारांश है।) के अध्याय 16 श्लोक 23-24 में कहा है कि जो साधक शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण (पूजा) करता है। उस को न तो सिद्धि प्राप्त होती है, न उसकी परमगति (मोक्ष) होती है न कोई सुख ही प्राप्त होता है अर्थात् उस शास्त्रविरूद्ध साधना करने वाले योगी (भक्त) का जीवन नष्ट हो जाता है। यह प्रमाण गीता अध्याय 16 श्लोक 23 में है। श्लोक 24 में लिखा है कि जो साधना ग्रहण करनी चाहिए तथा जो त्यागनी चाहिए उसके लिए तुझे शास्त्र (चारों वेद) ही प्रमाण है। अन्य किसी के लोक वेद (दन्त कथा) का अवलम्बन नहीं करना चाहिए।
प्रश्न:- पुराणों की रचना किस कारण हुई? वेदों को छोड़ कर श्रद्धालु पुराणों पर ही किस कारण से आसक्त हो गए?
उत्तर:- पवित्र श्री मद्भगवत् गीता जी चारों वेदों का सारांश है। गीता के अध्याय 4 श्लोक 34 में तथा यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 10 व 13 में लिखा है कि गीता व वेद ज्ञान दाता प्रभु कह रहा है कि पूर्ण परमात्मा को कोई उत्पन्न होने वाला अर्थात् जन्म लेने वाला कहता है, तो कोई उत्पन्न न होने वाला कहता है परन्तु उस परमात्मा के तत्वज्ञान को तत्वदर्शी (धीराणाम्) सन्तजन ही बताऐंगे। उनसे विनम्रता से पूछो। ऋषियों ने वेदों को पढ़ा उनके अनुसार तथा काल प्रेरणा से हठयोग से तप आदि साधनाऐं की। जिससे परमात्मा प्राप्ति नहीं हुई। उस साधना से सिद्धीयाँ प्राप्त करके चमत्कार करने लगे, आशीर्वाद देने लगे। साधारण व्यक्तियों को अत्यंत लाभ होने लगे जिस कारण से साधारण जनता उन ऋषियों की प्रत्येक बात पर अटूट विश्वास करने लगी। ऋषियों के शरणागत व्यक्ति ऋषियों के प्रवचन सुनते ऋषि जी कहते कि परमात्मा की भक्ति करनी चाहिए नहीं तो मानव जन्म व्यर्थ है। अनुयाई कहते थे कि हे गुरुवर! आप जैसी कठिन साधना हम नहीं कर सकते। वे ऋषि जन अपने अनुयाईयों को कोई भी साधना करने को कह देते थे। अनुयाई अपने गुरूदेव ऋषि द्वारा बताई शास्त्रविरूद्ध साधना करने लगे। जिस उद्देश्य से साधना करते जैसे पुत्र प्राप्ति, पुत्र विवाह, धन वृृद्धि, कष्ट निवारण आदि। उनमें से कुछेक को यह लाभ उन ऋषियों के आशीर्वाद से तथा अपने पूर्व जन्म के पुण्यों से प्राप्त हो जाता। परन्तु अनुयाईयों की शास्त्रविरूद्ध साधना जो उनके गुरू ऋषि ने बताई थी उस से कोई लाभ नहीं होता था। श्रद्धालु मानते थे कि हम जो भक्ति कर रहे हैं इसी से हमें लाभ हो रहा है। जिस कारण से उन ऋषियों के अनुयाई शास्त्रविरूद्ध साधना पर आरूढ़ होते चले गये। इसके पीछे काल भगवान (काल रूपी ब्रह्म, जो ब्रह्मा, विष्णु, शिव का पिता है) की चाल है। वह चाहता है कि सर्व प्राणी शास्त्रविरूद्ध साधना करके मेरे (काल के) जाल में फंसे रहें। यदि कोई ज्ञानी व्यक्ति परमात्मा को वेदों के अपने आधार से समझ कर कि केवल एक पूर्ण परमात्मा की भक्ति करने से मोक्ष होता है। वह वेदों के अनुसार साधना करके भी काल जाल से नहीं निकल सकता। क्योंकि वेदों में भक्ति विधि केवल ब्रह्म तक की है। पूर्ण मोक्ष तो परम अक्षर ब्रह्म की उपासना से ही सम्भव है। उसको तत्वदर्शी सन्त बताता है। वह तत्व दृृष्टा सन्त उन ऋषियों को नहीं मिला। उन ऋषियों के अनुयाई अपने गुरूदेव जी के बताए अनुसार किसी भी मन्त्र का जाप करते, या किसी दरिया (नदी) में स्नान करने या कोई पत्थर का या मिट्टी का लींग बनाकर उसकी पूजा करते उनको उस ऋषि की भक्ति कमाई से आशीर्वाद द्वारा तथा अपनी पूर्व जन्म की भक्ति से वांच्छित लाभ मिल जाता। क्योंकि सत्ययुग में बहुत ही पुण्यकर्मी मानव जन्म लेते हैं। उनके पूर्व जन्म के शुभकर्म अत्यधिक होते हैं। अधिकतर उनकी मनोकामना पूर्ती पूर्व जन्म के पुण्यों से ही होती है। वे श्रद्धालु उस शास्त्र विरूद्ध साधना को सत्य जानकर करते थे तो वे समझते थे कि जो साधना (नाम जाप, मूर्ति पूजा या नदी स्नान) की है उसी से मेरी मनोकामना पूर्ण हुई है। वास्तव में वह लाभ उन साधकों को पूर्व जन्म के शुभ कर्मों से प्राप्त होता था। कुछ उस ऋषि गुरु के आशीर्वाद से प्राप्त होता था। उस ऋषि गुरु की भक्ति कम हो जाती थी। जैसे कोई धनी व्यक्ति अपने प्रशंसकों को अपने पास से धन दे देता है तो उसका धन क्षय हो जाता है। उसी से उसके साथियों को आर्थिक लाभ हो जाता है यदि वह धनी व्यक्ति अपना कारोबार न करके केवल धन बांटता रहता है तो वह निर्धन हो जाता है। इसी प्रकार ऋषिजन कुछ दिन जंगल में जाकर सिद्धियाँ प्राप्ति की साधना करके आते। पश्चात् उसी को अपने अनुयाईयों में बांट देते। अन्त में भक्तिहीन होकर पितर योनि को प्राप्त हो जाते थे। ऋषियों के ऋषि शिष्य अपने गुरू जी ऋषि से कहते हैं हे गुरूवर ! आपने जो मन्त्र जाप (ओम् गुरू, ओम् नमोंः भगवते् वासुदेवायः, ओम् ऐ नमः् आदि) अमूक व्यक्ति को जाप करने को दिया तथा नदी में स्नान करने की विधि बताई थी तथा मूर्ति पूजन, लींग पूजना का विधान बताया था जिससे उस व्यक्ति को मन वांछित फल प्राप्त हुआ। यह सर्व मन्त्र व विधि वेदों में कहीं नहीं लिखी है। इनको करना तो शास्त्रविरूद्ध साधना है। जो हानीकारक बताई है। आप यह शास्त्रविरूद्ध साधना किस लिए बताते हो? इस शास्त्रविधि विरूद्ध साधना से लाभ भी उनको हो रहा है। जबकि वेदों व गीता में लिखा है कि शास्त्रविधि को त्याग कर जो साधक मनमाना आचरण (पूजा) करता है उसको कोई लाभ नहीं होता। न तो उससे सिद्धी की प्राप्ति होती है। न कोई सुख होता है, न उसकी परम गति होती है (गीता अध्याय 16 श्लोक 23 में भी प्रमाण है)। आपके द्वारा बताई विधि से लाभ मिलता है तो क्या वेदों व गीता में लिखा विवरण ठीक नहीं है। ऋषि जी उत्तर देते थे:- यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 10 व 13 में (तथा गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में) लिखा है कि जिस तत्वज्ञान को वेद भी नहीं जानते उसको तत्वदर्शी सन्त जन (ऋषिजन) जानते हैं। वह तत्वज्ञान हमारे पास है। उसी के आधार से हम यह साधना बताते हैं। इस कारण वे ऋषियों के शिष्य ऋषिजन भी अपने गुरूदेव के अज्ञान को तत्वज्ञान जानकर शास्त्रविधि त्यागकर मनमुखी जाप करने लगे। जब किसी को लाभ नहीं होता तो वे अज्ञानी ऋषि गुरूजन अपने ऋषि शिष्यों को कठिन हठ योग करने को कहने लगे। किसी को जल में खड़ा होकर, किसी को शिर्षासन पर (ऊपर पैर करके सिर जमीन पर रख कर), किसी को पदमासन पर बैठकर साधना करने को कहने लगे। जिस कारण से उन शिष्य ऋषियों में कुछ अपने पूर्व जन्म के शुभ कर्मों से तथा सिद्धियाँ वर्तमान के हठयोग तप से तथा कुछ गुरूजी की कमाई से आर्शीवाद द्वारा(यदि उस ऋषि की शेष हो तो) सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती। उसके पश्चात् वो शिष्य स्वयं गुरू बनकर अपने अनुयाईयों को अन्य मनमुखी साधना बताने लगे। जिसकारण से सर्व भक्त समाज शास्त्रविधि त्याग कर मनमाना आचरण (पूजा) करने लगा है।
प्रमाण:- (1) श्री देवी पुराण छठा स्कन्ध अध्याय 10 पृृष्ठ 414 पर महर्षि व्यास जी राजा जनमेजय को ज्ञान सुना रहे हैं:- कहा
हे राजन् ! यह निश्चय है कि सतयुग में ब्राह्मण वेद के पूर्ण विद्वान थे।। वे भगवती जगदम्बा की निरन्तर आराधना करते थे। भगवती के दर्शन करने के लिए वे सदा ललायित रहते थे। गायत्री के ध्यान, प्राणायाम् और जप में वे अपना सारा समय व्यतीत करते थे। माया बीज का जाप करना उनका प्रधान कार्य था। प्रत्येक गाँव में शक्ति (दुर्गा) का मन्दिर स्थापित हो यह उन सतयुग के ब्राह्मणों की हार्दिक इच्छा रहती थी। तत्वज्ञान के पारगामी उन ब्राह्मणों द्वारा जो भी कर्म होता था। उस में सत्य, दया और शौच ये तीन गुण निहित रहते थे। (लेख समाप्त)
सार विचार:- उपरोक्त उल्लेख श्री देवी पुराण से है। इसमें कहा है कि सतयुग के ब्राह्मण वेद के पूर्ण विद्वान होते थे अर्थात् तत्वदर्शी होते थे। पूजा देवी की करते थे। गाँव-गाँव दुर्गा के मन्दिर बनवाना चाहते थे।
अन्य प्रमाण:- (2) श्री देवी पुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 4 पृष्ठ 28-29 पर श्री ब्रह्मा जी के पूछने पर श्री श्री विष्णु जी ने कहा
मैं श्री भगवती शक्ति के सदा आधीन रहता हूँ उसी के आधीन होकर मैं शेष शय्या पर सोता हूँ उत्पत्ति समय जागता हूँ। मैं निरन्तर उसी भगवती शक्ति (दुर्गा) का ध्यान करता हूँ मेरे विचार में इस शक्ति से बढकर कोई देवता नहीं है। मैं अधिकतर समय तप करने तथा राक्षसों का संहार करने में ही व्यतीत करता हूँ।
विशेष विचार:- विचार करने योग्य बात है कि वेदों में कहीं पर भी दुर्गा (प्रकृृति) की पूजा करने का प्रावधान नहीं है। केवल ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरूष की साधना ॐ नाम के जाप द्वारा करने का उल्लेख है। पूर्ण ब्रह्म अर्थात् परम अक्षर पुरूष की पूजा से पूर्ण मोक्ष होता है। उसका ओम्-तत्-सत् मन्त्र जाप हैं जिस में तत् तथा सत् मन्त्र सांकेतिक हैं। जिनके विषय में तत्वदर्शी सन्त बताएगा। यह उल्लेख वेदों तथा श्री मद्भगवत् गीता में है। ब्रह्म साधना का ॐ (ओं) मन्त्र है। परन्तु यह भी पूर्ण मोक्ष दायक नहीं है। इस प्रकार वेद ज्ञान हीनों को तत्वदर्शी कहा जाता था। तथा उनके द्वारा बताया भक्ति मार्ग सर्व श्रद्धालुओं ने ग्रहण कर लिया। जो व्यर्थ है। जबकि श्री देवी जी (दुर्गा जी) ने (श्री देवी पुराण के सातवें स्कन्ध के अध्याय 36 पृृष्ठ 562 से 563 तक में) कहा है कि
‘‘उस ब्रह्म का क्या स्वरूप है ?- यह बतलाया जाता है। जो प्रकाश स्वरूप, सबके अत्यन्त समीप में स्थित महान् पद अर्थात् परम प्राप्य है। वह समस्त पूजा के ज्ञान से परे है- अर्थात् किसी कि बुद्धि में आने वाला नहीं है। यह तुम जानो। जो प्रकाश स्वरूप है, जो सुक्ष्म से भी अत्यन्त सुक्ष्म है। जिसमें सम्पूर्ण लोक और उन लोकों में निवास करने वाले प्राणी स्थित हैं। यह वह ‘‘अक्षर ब्रह्म’’ है। वह परम सत्य और अमृत-अविनाशी तत्व है। तुम उस वेधने योग्य लक्ष्य का तुम वेधन करो-मन लगाकर उसमें तन्मय हो जाओ। उस एक परमात्मा को ही जानों दूसरी बातें छोड़ दो। वह परमात्मा सर्व प्राणियों के हृदय में अन्तर्यामी रूप से वर्तमान रहता है। इस विश्वात्मा अर्थात् ब्रह्म का ॐ नाम के जाप के साथ ध्यान करो। इस से अज्ञानमय अन्धकार से सर्वथा परे और संसार समुन्द्र से उस पार जो ब्रह्म है। उसको पा जाओगे। वह सबका आत्मा ब्रह्म-ब्रह्मलोक रूप दिव्य आकाश में स्थित है। उसे धीर पुरूष अर्थात् तत्वदर्शी सन्त (धीर-बु़िद्धमान पुरूष) अपने विज्ञान (तत्वज्ञान) के द्वारा उस अविनाशी ब्रह्म को देख लेते हैं। उस पुरूषोतम् को देख लेने पर इस जीव की अविद्या नष्ट हो जाती है। वह निर्मल और निष्कलंक ब्रह्म प्रकाशमय पर दिव्य परम धाम में विराजित है। यह सम्पूर्ण विश्व सर्व श्रेष्ठ ब्रह्म ही है। जो श्रेष्ठ पुरूष इस प्रकार अनुभव करते हैं वे ही कृतार्थ हैं। वे ब्रह्म को प्राप्त पुरूष नित्य प्रसन्नचित रहते हैं। (लेख समाप्त्)
सार विचार:- पूर्वोक्त उल्लेख में श्री देवी पुराण के छठे स्कन्ध के अध्याय 10 पृृष्ठ 414 पर व्यास जी ने बताया है कि सतयुग के ब्राह्मण वेद के महाविद्वान अर्थात् तत्वदर्शी थे। वे देवी की अराधना करते थे। उपरोक्त उल्लेख में इसी श्री देवी पुराण में श्री देवी जी कह रहीं हैं कि उस ब्रह्म की उपासना करो उसका ॐ मन्त्र जाप करने का है। अन्य सर्व बातें त्याग दो। वह ब्रह्म, ब्रह्मलोक में है। उसी पूजा से संसार समुद्र से उस पार जो ब्रह्म है उसको पा जाओगे। वह निर्मल और निष्कलंक ब्रह्म दिव्य धाम में विराजित है। श्री विष्णु भगवान तो (श्री देवी पुराण प्रथम स्कन्ध अ. 4 पृृष्ठ 28-29) कह रहे हैं कि देवी दुर्गा से बढ़कर कोई भगवान नहीं है। मैं इसी की पूजा करता हूँ अन्य ऋषि जन भी देवी दुर्गा को ही प्रभु मानकर पूजा करते थे। उसके मन्दिर भी बनाए जाते थे। जबकि देवी दुर्गा (प्रकृृति) कह रही है कि कोई अन्य पूर्ण परमात्मा है उसकी पूजा करनी चाहिए। इससे सिद्ध हुआ कि न तो श्री विष्णु जी को वेदों का ज्ञान है न अन्य ऋषियों को वेदों का ज्ञान था। केवल लोक वेद (सुना सुनाया क्षेत्रीय ज्ञान) ही सुनते सुनाते थे। श्री देवी यह भी कह रही है कि सर्व संसार ही ब्रह्म है। यह ज्ञान विचलित करने वाला है। इस से ऊपर का वेद ज्ञान है जो श्री देवी (दुर्गा) ने बताया है। ब्रह्म काल तथा दुर्गा (प्रकृति देवी) जी दोनों यथार्थ ज्ञान के साथ-2 भ्रमित ज्ञान भी प्रदान करते हैं। कारण यह है कि ये नहीं चाहते की काल ब्रह्म के अन्तर्गत प्राणियों को तत्वज्ञान हो जाए। इसलिए भ्रमित ज्ञान देकर ऋषि, महर्षि तथा देव व ब्राह्मण व श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री शिव जी भी तत्वज्ञान से परिचित नहीं है। इसी कारण से सर्व का जन्म-मरण का चक्र चलता रहता है। पूर्ण परमात्मा स्वयं इस ब्रह्म काल के लोक में प्रकट होकर तत्वदर्शी सन्त की भूमिका करके तत्वज्ञान प्रदान करते हैं।
उदाहरण:- संक्षिप्त ब्रह्म पुराण (गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित) के अध्याय ‘‘अहिल्या संगम तीर्थ का महात्यम्’’ पृष्ठ 158-159 श्री ब्रह्मा जी ने कहा:-
मैंने एक सुन्दर कन्या की उत्पत्ति की युवा होने पर उसकी शादी करने का विचार आया। उस लड़की को पत्नी रूप में प्राप्त करने के लिए इन्द्र, वरूण, आदि कई देवता आए। मेरे से उस कन्या को पत्नी रूप में देने की प्रार्थना करने लगे। मैं उस कन्या का विवाह गौतम ऋषि से करना चाहता था। अधिक देवगण होने के कारण मैंने एक शर्त रखी की जो पृथ्वी की प्रदीक्षणा देकर (पृथ्वी का चक्कर लगाकर) सर्वप्रथम आएगा उसी के साथ अहिल्या नामक कन्या का विवाह किया जाएगा। सर्व देव चले गए। गौतम ऋषि ने एक गाय देखी जो बच्चे को जन्म दे रही थी। आधा बच्चा बाहर था आधा अन्दर। गौतम ऋषि ने उस सुरभी की पृथ्वी भाव से परीकृमा की। इसके साथ ही गौतम ऋषि ने शिव लींग की भी प्रदक्षिणा की और सर्वप्रथम लौट कर मेरे पास (ब्रह्मा के पास) आ गया। मैं (ब्रह्मा) भी उस कन्या अहिल्या का विवाह गौतम से करना चाहता था। गौतम ने मुझसे कहा ‘‘ कमलासन ! विश्वात्मन् आप को बारम्बार नमस्कार है। ब्रह्मन् ! मैने सारी वसुधा की प्रदक्षिणा कर ली ! (ब्रह्मा जी ने कहा है) मैंने ध्यान द्वारा देखा सब बातें जान कर गौतम से कहा ब्रह्मर्षे ! तुम्हीं को यह सुन्दर कन्या दी जाती है। वास्तव में तुमने पृथ्वी की प्रदक्षिणा कर ली है। जो वेदों के लिए भी दुर्बाध है (अर्थात् जिस बात का ज्ञान वेदों में भी नहीं है) उस धर्म का स्वरूप तुम जानते हो। जो गाय आधा प्रसव कर चुकी हो वह सात द्वीपों वाली पृथ्वी के तुल्य है। उसकी प्रदक्षिणा की जाए तो समूची पृथ्वी की परिक्रमा हो जाती है। शिव लिंग की प्रदक्षिणा का भी यही फल है’’
विचार करें:- श्री ब्रह्मा जी को काल सृृष्टि में वेदों का उत्कृृष्ट विद्वान माना जाता हैं उसके द्वारा कहे वचन वेद वचन माने जाते हैं। ब्रह्मा जी को वेदों का बिल्कुल ज्ञान नहीं है। इसी का प्रमाण उनके द्वारा बताए उपरोक्त ज्ञान से मिलता है। गौतम के मन में प्रेरणा काल ब्रह्म ने की तथा फिर ब्रह्म ने अपनी मनोकामना पूर्ति के लिए उस शास्त्रविरूद्ध साधना की पुष्टि अपने पुत्र रजगुण ब्रह्मा में प्रेतवत् प्रवेश होकर कर दी की गाय की प्रदक्षिणा और शिव लींग की प्रदक्षिणा का फल पूरी पृथ्वी की परिक्रमा का ही फल होता है। श्री ब्रह्मा जी के मुख से निकले वचनों को सर्व देवताओं तथा ऋषियों को स्वीकार करना पड़ता है। इस प्रकार इन पुराणों की रचना हुई। जो बाद में महर्षि वेद व्यास (कृष्ण द्वैपायान) ने लीपी बद्ध किया।
विष्णु पुराण के प्रथम अंश के अध्याय 15 श्लोक 11 से 51 पृष्ठ 63 से 66 पर लिखा है ‘‘पूर्व समय में वेद वेताओं (तत्वदर्शी सन्तों में) श्रैष्ठ एक कण्डु नामक मुनिश्वर थे। उसने गोमती नदी पर घोर तप किया। फिर एक प्रम्लोचा अप्सरा ने उनका तप खण्ड किया उसके साथ नौ सौ वर्ष विलास किया फिर वह चली गई।
विचार करे:- पवित्र गीता जी जो वेदों का सारांश है, उसके अध्याय 16 व 17 तथा अध्याय 3 में प्रमाण है। हठ योग द्वारा घोर तप करना व्यर्थ है जैसे गीता अध्याय 3 श्लोक 4 से 8 में कहा है कि जो व्यक्ति एक स्थान पर बैठकर तप को तपता है वह शास्त्रविरूद्ध साधक है। गीता अध्याय 17 श्लोक 5 तथा 6 में घोर तप करना मना है। श्री गौतम ऋषि, कण्डू आदि ऋषियों ने जो वेद विरूद्ध वचन कहे उनके कारण अन्य अनुयाईयों को उन ऋषियों की भक्ति कमाई से लाभ हुआ। जिस कारण से उन तत्वज्ञान हीन ऋषियों को तत्वेता (तत्वज्ञान को जानने वाला) कहा जाने लगा। जबकि पवित्र श्रीमदभगवत् गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में वर्णित तत्वदर्शी सन्त की पहचान गीता अध्याय 15 में 1 से 4, 16 से 17 श्लोकों में बताई है कि जो सन्त या ऋषि उल्टे लटके संसार रूपी वृक्ष का विस्तृृत विवरण बताए वह (वेदवित्) वेद के तात्पर्य को जानने वाला अर्थात् तत्वदर्शी सन्त है। जैसे ऊपर को जड़ (मूल) तो परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् पूर्ण ब्रह्म जानों। जमीन से बाहर जो वृृक्ष का हिस्सा तुरन्त दिखाई देता है। वह तना अक्षर पुरूष अर्थात् परब्रह्म जानों। उस तने की एक मोटी डार को क्षर पुरूष अर्थात् ब्रह्म जानों तथा उस मोटी डार की तीन शाखाओं को रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तथा तमगुण शिव जी जानों, उन शाखाओं पर लगे पतों को अन्य संसारी प्राणी जानो। यह उपरोक्त ज्ञान स्वयं पूर्ण परमात्मा ही बताता है। वह स्वयं कुछ दिन इस काल के लोक में अतिथी की तरह रहता है। अपने तत्वज्ञान को लोकोक्तियों, दोहों व साखीयों तथा कविताओं (शब्दों-भजनों) के द्वारा उच्चारण करता है। उसी पूर्ण परमात्मा ने कलयुग में अवतरित हो कर सन् 1398 से सन् 1518 तक 120 वर्ष काशी में जुलाहे की भूमिका करके अपने तत्वज्ञान को बताया।
कबीर, अक्षर पुरूष एक पेड़ है निरंजन वाकी डार।
तीनों देवा शाखा है ये पात रूप संसार।।
यही तत्वदर्शी संत का प्रमाण ऋग्वेद मण्डल 9 सुक्त 96 मन्त्र 16 से 20 में है। (कृृप्या पढें इसी पुस्तक में पृृष्ठ 78 से 82 तक) जिस तत्वज्ञान का (संसार रूपी वृक्ष का प्रत्येक अंग का) ज्ञान किसी ऋषि व संत को नहीं था। वह स्वयं परमात्मा कबीर बन्दी छोड़ ने जी ने बताया था। जो वर्तमान में मुझ दास (रामपाल दास) द्वारा उजागर किया गया है। वह तत्वज्ञान वर्तमान में मुझ दास के अतिरिक्त किसी के पास नहीं है।
दूसरा कारण पुराण रचना का:- श्री ब्रह्मा जी सर्वप्रथम उत्पन्न हुए थे। जिस कारण से उनके वंशजों ने श्री ब्रह्मा जी को सर्वज्ञ मानकर संसार रचना का कारण व सर्व की रचना करने वाले परमेश्वर के विषय में जानना चाहा। देवी पुराण तीसरे स्कंद अध्याय 3 से 6 में श्री ब्रह्मा जी स्वयं कह रहे हैं कि जब मैं सचेत हुआ तो अपने आप को कमल के फूल पर बैठा पाया। मुझे नहीं पता इस अगाध जल में कहां से उत्पन्न हो गया। मुझे उत्पन्न करने वाला कौन प्रभु है?’’। इससे सिद्ध हुआ कि श्री ब्रह्मा जी सर्वज्ञ नहीं हैं। उनके द्वारा बताया सृष्टि रचना का ज्ञान भी सत्य नहीं हो सकता। हाँ अपने जन्म के पश्चात् का वर्णन पुराणों में घटनाक्रम का ज्ञान ठीक है परन्तु जो भक्तिसाधना की विधि व परमेश्वर परिचय यदि वेदों से नहीं मिलता है वह असत्य है। श्री शिव पुराण, श्री विष्णु पुराण, श्री ब्रह्म पुराण तथा श्री देवी पुराण आदि इन पुराणों का ज्ञान दाता श्री ब्रह्मा जी भगवान हैं। श्री देवी पुराण के तीसरे स्कन्ध (गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित है जिसके अनुवादकर्ता श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार तथा चिमन लाल गोस्वामी) में ब्रह्माण्ड की रचना का ज्ञान देते समय श्री ब्रह्मा जी ने अपने पुत्र नारद से कहा बेटा नारद जब मेरी उत्पति हुई तो मैं कमल के फूल पर बैठा हुआ था। मुझे नहीं पता कि मेरा उत्पति कर्ता कौन है? इस अगाध जल में मैं कैसे उत्पन्न हो गया - - - - - - - - - - - - -’’
श्री ब्रह्मा जी द्वारा दिया गया पुराणों का ज्ञान अधूरा है। सम्पूर्ण ज्ञान नहीं है क्योंकि श्री ब्रह्मा जी ने ब्रह्माण्ड की रचना का ज्ञान भी देने का प्रयत्न किया है। जो संस्य युक्त तथा सुना सुनाया है जो तोड़-मरोड़ कर बताया है क्योंकि श्री ब्रह्माजी को पूर्ण परमात्मा अग्नि ऋषि के नाम से प्रकट होकर मिले थे तथा पांचवें शवस्म (सुक्ष्म) वेद से सृृष्टि रचना का ज्ञान व काल का जाल समझाया था। श्री ब्रह्मा जी ने उस ऋषि से उपदेश ग्रहण किया। परन्तु बाद में काल रूपी ब्रह्म ने श्री ब्रह्मा जी की बुद्धि बदल दी, अन्दर से प्रेरणा की कोई पांचवां वेद नहीं है केवल चार ही वेद हैं। इन्हीं का ज्ञान श्रेष्ठ है अन्य किसी की बात पर विश्वास नहीं करना चाहिए। तू जगत का ज्ञान दाता है तुझे किसी से ज्ञान ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं है।
इस कारण से श्री ब्रह्मा जी ने परमेश्वर से सुने ज्ञान को सत्य न मानकर अपनी बुद्धि द्वारा काल रूपी ब्रह्म की गुप्त प्रेरणा से उसे तोड़-मरोड़ कर अपने वंशजों को बताया जो पुराणों में लिपीबद्ध है। श्री ब्रह्म जी ने अपने जन्म के पश्चात् ही सत्य घटनाओं का सत्य विवरण बताया है। जो पूर्वोक्त पुराणों में लिखा है।
जिन्दा वेशधारी परमेश्वर ने कहा हे धर्मदास! आप जो यह तीर्थ यात्रा करते हो इसका गीता जी में कोई विवरण नहीं हैं।