दो शब्द

संत तथा भक्त समाज से लेखक का करबद्ध निवेदन है कि कृपया आप शास्त्रविहीत साधना करो यानि जो वेदों व श्रीमद्भगवत गीता में साधना करने को कहा है, वही करें। जो मना किया है, वह न करो। वेद पाँच हैं:-

  1. सूक्ष्मवेद
  2. ऋग्वेद
  3. यजुर्वेद
  4. सामवेद
  5. अथर्ववेद

श्रीमद्भगवत गीता, यह सर्व वेदों का सार है। इसमें कुछ वर्णन संजय का व धृतराष्ट्र का है, कुछ काल ब्रह्म का है। शेष वेदों वाला ज्ञान है।

शास्त्रों की स्थिति

पाँचों वेदों का ज्ञान उस परमेश्वर जी ने दिया है जिसको श्रीमद्भगवत गीता के अध्याय 8 श्लोक 3 में ‘‘परम अक्षर ब्रह्म’’ कहा है तथा गीता अध्याय 2 श्लोक 17 में कहा है कि ‘‘अविनाशी तो उसको जान जिससे यह सम्पूर्ण जगत व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है।

गीता अध्याय 18 श्लोक 46 में जिस के विषय में कहा है कि ’’जिस परमेश्वर से सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है तथा जिससे यह समस्त जगत व्याप्त है, उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्म करते-करते भक्ति करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।‘‘

जिसके विषय में गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में यह कहा है कि:-

उत्तमः पुरूषः तु अन्यः, परमात्मा इति उदाहृतः।
यः लोकत्रयम् आविश्य बिभर्ति, अव्ययः ईश्वरः।।

अर्थात् इस श्लोक में कहा है कि जो इसी अध्याय 15 के श्लोक 16 में क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष कहे हैं जो नाशवान हैं, उत्तम पुरूष यानि पुरूषोत्तम (श्रेष्ठ प्रभु) तो उपरोक्त श्लोक 16 में कहे क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष से अन्य ही है। वही परमात्मा कहा गया है जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है। वह ही अविनाशी परमेश्वर है। (गीता अध्याय 15 श्लोक 17)

जिसके विषय में गीता अध्याय 18 श्लोक 61, 62 तथा 66 में इस प्रकार कहा है:-

गीता अध्याय 18 श्लोक 61:- हे अर्जुन! शरीर रूप यंत्र में आरूढ़ हुए सब प्राणियों को परमेश्वर अपनी माया (शक्ति) से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण करवाता हुआ सब प्राणियों के हृदय में स्थित है।

गीता अध्याय 18 श्लोक 62:- हे भारत! तू सर्वभाव से उस (उपरोक्त) परमेश्वर की शरण में जा। उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शान्ति को तथा सनातन परम धाम को प्राप्त होगा। उपरोक्त प्रकरण में स्पष्ट है कि सर्व सृष्टि का उत्पत्तिकर्ता, सबका धारण-षणकर्ता परमात्मा कहा जाने वाला वास्तव में अविनाशी व पुरूषोत्तम तो गीता ज्ञान देने वाले से अन्य है।

गीता अध्याय 18 श्लोक 66:- इस श्लोक में भी गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य परमेश्वर की शरण में जाने को कहा है कि मेरे स्तर की सब धार्मिक कर्मों की कमाई (भक्ति धन) मुझमें छोड़कर उस उपरोक्त एक सर्व समर्थ परमेश्वर की शरण में जा। मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूँगा। तू शोक मत कर।

पाठकजन इसी पुस्तक ’कबीर बड़ा या कृष्ण‘ में अध्याय नं. 3 सृष्टि रचना में पढ़ेंगे तो पता चलेगा कि सृष्टि का उत्पत्तिकर्ता गीता ज्ञान देने वाले से अन्य है। उस परम अक्षर ब्रह्म (सतपुरूष) ने पाँचों वेदों वाला ज्ञान (जो एक ही ज्ञान था।) गीता ज्ञान दाता यानि काल ब्रह्म की आत्मा में डाला था। कुछ समय पश्चात् वह सम्पूर्ण वेद ज्ञान काल ब्रह्म के श्वांसों के साथ बाहर निकला। काल ब्रह्म ने पढ़ा तो इसको भय हो गया कि यदि मेरे इक्कीस ब्रह्मंडों में रहने वाले मानव को यह पता लग गया कि मैं काल हूँ तथा मेरे से अन्य परमेश्वर है। वह जहाँ रहता है, वहाँ कोई कष्ट किसी प्रकार का किसी को नहीं है, तो सब प्राणी मेरे लोक से चले जाएँगे। इसलिए इसने उस वेद से यथार्थ भक्ति मंत्र छोड़ दिए। कुछ ज्ञान भी छोड़ दिया। शेष अधूरा ज्ञान अपने पुत्र रजगुण ब्रह्मा को दे दिया। ब्रह्मा जी ने उसी अधूरे वेद ज्ञान को अपनी संतान ऋषियों को दिया। ऋषि कृष्ण द्वैपायन जी ने उस वेद ज्ञान को चार भागों में बाँटा जो ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद कहे गए। वेदों को चार भागों में बाँटने के कारण वह ऋषि वेद व्यास कहलाए। इन्हीं चारों वेदों के ज्ञान को संक्षिप्त में श्रीमद्भगवत गीता में बताया है।

सूक्ष्मवेद:-

यह सम्पूर्ण अध्यात्म वेद यानि सम्पूर्ण ज्ञान है। प्राणियों को यथार्थ ज्ञान स्वयं परम अक्षर ब्रह्म पृथ्वी पर प्रकट होकर बताता है। भक्ति के यथार्थ नामों का आविष्कार करता है। अपने मुख से वाणी बोलता है जो सूक्ष्मवेद कहा जाता है। सूक्ष्मवेद के आधार से भक्ति करके साधक परमशान्ति को तथा सनातन परम धाम को प्राप्त हो सकता है। सूक्ष्मवेद का ज्ञान किसी भी धर्मगुरू को, ऋषियों-महर्षियों को, संतों को नहीं है। सूक्ष्मवेद का ज्ञान नहीं मिला तो उनका किसी का भी कल्याण नहीं हुआ। यह स्वसिद्ध है। सूक्ष्मवेद का ज्ञान मेरे को (लेखक को) है। वर्तमान में भी मेरे अतिरिक्त विश्व में किसी के पास नहीं है। इसलिए मेरे से यह ज्ञान प्राप्त करके भक्ति नहीं करोगे तो जरा, जन्म-मरण से छुटकारा नहीं हो सकता।

अब पुराणों की जानकारी देता हूँ:-

सब पुराण व उपनिषद उन ऋषियों द्वारा रचित हैं जिनको सूक्ष्मवेद का ज्ञान नहीं था। इसी कारण से पुराणों व उपनिषदों का ज्ञान वेद के तुल्य नहीं है। प्रमाण:- पुराणों में प्रमाण है कि सब देवता व ऋषि घोर तप किया करते थे। ऋषिजन श्री विष्णु (सतगुण) तथा शिव जी (तमगुण) तथा श्री ब्रह्मा (रजगुण) व देवी की पूजा किया करते। वे मृत्युभोज, श्राद्ध किया करते जो भूत पूजा, पित्तर पूजा है। मंदिरों की स्थापना करवाया करते थे तथा मूर्ति, पत्थर या पीतल की बनवाकर उसकी पूजा किया करते, जिन क्रियाओं व तप को करने से गीता में मना किया है। (विस्तारपूर्वक जानकारी इसी पुस्तक में लिखी है।) वेद व गीता का ज्ञान परमेश्वर जी का बताया हुआ है तथा पुराणों व उपनिषदों का ज्ञान ऋषियों तथा ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव का बताया ज्ञान है। जो ज्ञान वेदों व गीता से मेल नहीं करता, वह साधना त्याग देनी चाहिए। भक्ति केवल वेदों तथा गीता में बताए अनुसार करनी होगी। तब मानव जीवन सफल होगा। वह मोक्ष मिलेगा जिसके विषय में गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि ‘‘सूक्ष्म वेद का ज्ञान होने के पश्चात् परमेश्वर के उस परम पद की खोज करनी चाहिए, जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर संसार में कभी नहीं आता।‘‘ गीता ज्ञान देने वाले ने यह भी कहा है कि उसकी भक्ति करो, जिससे गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में बताई परमशांति प्राप्त होगी यानि जन्म-मरण सदा के लिए समाप्त हो जाएगा तथा सनातन परम धाम (सतलोक) प्राप्त होगा। यह शास्त्रों की स्थिति बताई है। गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में कहा है कि:-

गीता अध्याय 16 श्लोक 23:- जो साधक शास्त्रविधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है तो उसको न सिद्धि प्राप्त होती है यानि उसका कोई कार्य सिद्ध नहीं होता, न सुख प्राप्त होता है तथा न गति (मोक्ष) प्राप्त होती है अर्थात् सब व्यर्थ साधना है।

गीता अध्याय 16 श्लोक 24:- इससे तेरे लिए हे अर्जुन! कर्तव्य यानि कौन-से भक्ति कर्म करने चाहिएँ तथा अकर्तव्य यानि कौन-से भक्ति कर्म नहीं करने चाहिएँ, के लिए शास्त्र ही प्रमाण है। तू शास्त्रों में वर्णित साधना करने योग्य है यानि शास्त्र विहित साधना कर।

ऋषिजन चारों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद) वाले अधूरे ज्ञान को यथार्थ सम्पूर्ण अध्यात्म ज्ञान मानकर भक्ति करने लगे थे। ओम् (ॐ) नाम का जाप करते थे जो काल ब्रह्म का जाप है जिसने गीता व चारों वेदों का ज्ञान दिया है। गीता अध्याय 8 श्लोक 13 तथा यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 15 में इस काल ब्रह्म ने अपनी पूजा का एक अक्षर ‘‘ओं’’ (ओम्-ॐ) बताया है। इसी काल ब्रह्म ने गीता अध्याय 7 श्लोक 24-25 में बताया है कि मेरा अविनाशी अटल विद्यान है कि मैं अपने वास्तविक रूप में किसी के समक्ष प्रकट नहीं होता। अपनी योग माया (भक्ति की सिद्धि-शक्ति) से छुपा रहता हूँ। गीता अध्याय 11 श्लोक 48 में स्पष्ट किया है कि मेरी प्राप्ति वेदों में वर्णित साधना से यानि ॐ (ओम्) नाम के जाप से, यज्ञों से, किसी जप से तथा किसी प्रकार के तप से संभव नहीं है। मेरे इस विराट रूप के दर्शन भी तेरे को मैंने अनुग्रह करके कराए हैं। इससे सिद्ध हुआ कि वेदों में वर्णित विधि से साधना करने से उपाश्य ईष्ट देव की प्राप्ति नहीं है। अन्य लाभ है। ओम् (ॐ) के जाप से ब्रह्मलोक प्राप्ति है। यह काल ब्रह्म का जाप मंत्र है। यज्ञों से स्वर्ग प्राप्ति है तथा तप से राज्य प्राप्ति होती है। परमात्मा प्राप्ति नहीं है। यह ज्योति निरंजन यानि वेदों और गीता के ज्ञान दाता काल ब्रह्म का अटल विद्यान है। इसने यह प्रतिज्ञा क्यों कर रखी है? इसे विस्तारपूर्वक इसी पुस्तक के तीसरे अध्याय ‘‘सृष्टि रचना’’ में पढ़ें।

ऋषियों ने ओं (ॐ) नाम का जाप किया, साथ में हठ योग किया, हजारों वर्ष साधनारत रहे, परंतु परमात्मा नहीं मिला। कुछ प्रकाश देखा जिससे परमात्मा निराकार मान लिया। काल ब्रह्म ने किसी ऋषि को समाधि काल में अपने पुत्र ब्रह्मा के रूप में दर्शन दिए। उस ऋषि ने सबको बताया कि यह ब्रह्मा जी ही परमात्मा है। मेरे को समाधि दशा में दर्शन हुए हैं। ये अपने को छुपाए हुए है। इस प्रकार कई ऋषियों को श्री ब्रह्मा (रजगुण) रूप में काल ब्रह्म ने दर्शन दिए तो सब ऋषियों ने एक स्वर में ब्रह्मा जी (रजगुण) के पास जाकर कहा कि आप अपने को छुपाए हुए हैं। आप ही विश्व के उत्पत्ति व पालनकर्ता हैं। जिस कारण से ब्रह्मा जी (रजगुण) को भ्रम हो गया कि जब इतने सारे ऋषि साधक कह रहे हैं तो फिर मैं ही पूर्ण परमात्मा जगत का कर्ता हूँ। कुछ ऋषियों को साधना काल में समाधि दशा में अपने दूसरे पुत्र श्री विष्णु जी (सतगुण) के रूप में काल ब्रह्म ने दर्शन दिए। जिस कारण से श्री विष्णु जी (सतगुण) को भ्रम हो गया कि फिर तो मैं ही जगत का उत्पत्तिकर्ता परमेश्वर हूँ। ब्रह्मा भी मेरे नाभि कमल से उत्पन्न हुआ है।

इसी भ्रम के कारण अहंकारवश एक दिन श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी के पास गए। विष्णु जी अपने पारखदों के साथ शेष शय्या पर लेटे थे। ब्रह्मा जी के आने पर उनका आव-भगत नहीं किया। जिस कारण से ब्रह्मा जी को क्रोध आया और विष्णु जी से बोला कि मैं सबका उत्पत्तिकर्ता हूँ। यह विष्णु अहंकारवश मेरा सम्मान नहीं कर रहा। इसे सबक सिखाना चाहिए। यह विचार करके ब्रह्मा जी ने कहा कि हे पुत्र विष्णु! देख तेरा बाप आया है। तू अहंकार में है। अपने पिता का आदर नहीं कर रहा है। मैं सर्व सृष्टि का उत्पत्तिकर्ता हूँ। तू मेरे द्वारा उत्पन्न है। तेरा अहंकार ठीक करना पड़ेगा। ब्रह्मा जी के वचन सुनकर श्री विष्णु जी ने क्रोध को प्रकट न करके कहा कि आ पुत्र ब्रह्मा! तू मेरी नाभि से उत्पन्न हुआ है। इसलिए मेरा पुत्र हुआ। मैं सारी सृष्टि का उत्पत्तिकर्ता व पालनकर्ता परमेश्वर हूँ। तूने अभिमानवश मुझे अपना पुत्र कहा है, यह बहुत ही गलत है, मैं तेरा पिता हूँ। अब तेरे अभिमान को तोड़ना पड़ेगा। दोनों ने युद्ध करना प्रारंभ कर दिया। उसी समय काल ब्रह्म ने उन दोनों (ब्रह्मा व विष्णु) के मध्य में तेजोमय स्तंभ खड़ा कर दिया। उन्होंने युद्ध बंद कर दिया। फिर काल ब्रह्म अपने तीसरे पुत्र शिव (तमगुण) के रूप में प्रकट हुआ। अपने साथ अपनी पत्नी अष्टांगी देवी (दुर्गा देवी) को पार्वती रूप में लाया। तब उनसे कहा कि पुत्रो! तुमने अपने को जगत कर्ता माना, यह बहुत ही अद्भुत हुआ। तुम ईश नहीं हो, तुम दोनों को तथा शिव को मैंने तुम्हारे तप के प्रतिफल में एक-एक कृत दिया है।

विचार करें:- ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव ईश यानि परमात्मा नहीं हैं। इनका पिता काल ब्रह्म है। माता देवी दुर्गा है। सबको धोखे में रखे हुए हैं। काल ब्रह्म इस प्रकार सबको भ्रमित करके रखता है। अपने जाल में फँसाए हुए है। यह प्रकरण श्री शिव पुराण के विद्येश्वर संहिता में लिखा है। आज तक श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री शिव को भी नहीं पता कि हमारा पिता कौन है? माता का पता है। देवी दुर्गा जी हैं। जो ब्रह्मा, विष्णु को युद्ध में मिला, उस समय शिव-पार्वती के रूप में मिला। जिस कारण से उन दोनों ने समझा कि शिव (तमगुण) हैं। इसने हमारा युद्ध समाप्त करवाने के लिए लीला की है। वास्तव में वह काल ब्रह्म था।

(पाठकजन विस्तृत वर्णन इसी पुस्तक में पढ़ेंगे।)

जैसा कि पूर्व में बताया है कि ऋषिजन ॐ (ओं) नाम का जाप करते थे तथा समाधि लगाते थे। जैसे कुछेक ऋषियों को ब्रह्मा जी (रजगुण) के रूप में दर्शन दिए, कुछेक को विष्णु जी (सतगुण) के रूप में दर्शन दिए। इसी प्रकार कुछ साधक ऋषियों को शिव जी (तमगुण) के रूप में दर्शन दिए। उन्होंने शिव जी से कहा कि आप सृष्टि के कर्ता हो। आप सबके मालिक हो। आप अपने को छुपाए हुए हो। इस प्रकार ये तीनों भी ऋषियों से अपने को कर्ता हो सुनकर मान बैठे कि हम तीनों ही कर्ता हैं। ऋषि क्या झूठ बोलते हैं।

ऋषियों को वेदों में वर्णित साधना से, यज्ञों से, जप तथा तप करने से परमेश्वर प्राप्ति नहीं हुई। तप करने से, जप करने से सिद्धियाँ मिल गई। उन सिद्धियों के बल से प्रसिद्धि प्राप्त करते रहे। जीवन नष्ट कर गए।

उदाहरण:- श्री देवीपुराण के दूसरे स्कंध के अध्याय 9-10 में लिखा है कि कश्यप ऋषि ने कठिन साधना करके सर्प काटे के इलाज करने की सिद्धि-शक्ति प्राप्त की। जब राजा परीक्षित को तक्षक सर्प ने डसना था तो ऋषि कश्यप राजा को जीवित करने के उद्देश्य से उनके पास जा रहा था। विचार था कि राजा को जीवित कर दूँगा, प्रसिद्धि होगी तथा राजा बहुत सारा धन देगा। तक्षक को पता चला तो वह एक ब्राह्मण वेश में मार्ग में प्रकट हो गया। ऋषि से कहा कि जो धन आप राजा से लोगे, मैं आपको दे दूँगा। आप वापिस लौट जाओ। ऋषि ने ध्यानपूर्वक देखा तो जान लिया कि राजा परीक्षित का अंत समय आ चुका है। अब उसे मैं जीवित नहीं कर सकता। इसलिए सर्पराज तक्षक से धन ले लूँ तो अच्छा है। सर्प से धन लेकर कश्यप घर लौट आया। ऋषियों ने अपना जीवन ऐसे ही नष्ट किया। काल ब्रह्म ऐसे शास्त्रविधि के विपरीत साधना की प्रेरणा करता है। श्री विष्णु पुराण में तृतीय अंश के अध्याय 17 श्लोक 1.44 तक में कहा है कि एक समय देवताओं और राक्षसों का युद्ध हुआ। देवता हार गए। जान बचाकर समुद्र के किनारे जाकर तप करने लगे। काल ब्रह्म ने श्री विष्णु (सतगुण) के रूप में दर्शन देकर तपस्या का कारण जाना और बोला कि राक्षस शास्त्रविधि अनुसार भक्ति करते हैं। इसलिए तुमसे पराजित नहीं हुए। मैं उनको शास्त्रों के विपरीत साधना के लिए प्रेरित करके उनकी भक्ति नष्ट करवा दूँगा। ऐसा ही किया। एक माया-मोह नामक व्यक्ति काल ब्रह्म ने उत्पन्न किया। उसको राक्षसों के पास भेजकर उनको शास्त्रविधि त्यागकर शास्त्र विरूद्ध साधना पर लगा दिया। देवता भी तप करते रहे। फिर देवताओं ने राक्षसों को युद्ध के लिए ललकारा। देवता जीत गए।

विचार करें:- देवता तथा ऋषिजन सबको काल ब्रह्म भ्रमित रखता है। वे तप करके आध्यात्मिक शक्ति संग्रह करते हैं। फिर उस भक्ति की शक्ति से एक-दूसरे को हानि-लाभ पहुँचाकर अपनी तपस्या की शक्ति को नष्ट कर लेते हैं। इस प्रकार सब साधक काल के जाल से निकल नहीं पाते। कबीर परमेश्वर जी ने काल के जाल को समझाया है तथा इसके बंधन से मुक्त होने का भक्ति मार्ग बताया है। वह यथार्थ भक्ति मार्ग वर्तमान में मेरे (लेखक के) पास है। विश्व में किसी को इसका ज्ञान नहीं है। आप सब संत, गुरू व भक्तजन आकर मुझ दास से दीक्षा लेकर अपना मानव जीवन सफल करो। मान-बड़ाई का विषय ना बनाओ। जैसे राजा रोगी हो जाता है तो अपने नौकर डाॅक्टर से इलाज करवाता है तो क्या राजा डाॅक्टर से छोटा हो गया यानि राजा की छवि कम नहीं होती। इसी प्रकार दास (रामपाल दास) आत्मा का जन्म-मरण का रोग नाश करने वाला डाॅक्टर है। आप अपना नौकर जानकर अपनी जीवात्मा के जन्म-मरण के रोग का उपचार करवाओ। जब तक साधक को अपने पूज्य देव (इष्ट देव) की समर्थता का ज्ञान नहीं है, तब तक वह दृढ़ भक्त नहीं होता। जैसे कोई श्री हनुमान जी का पुजारी है, वह शिव जी की पूजा भी करता है।

श्री विष्णु जी की भी भक्ति करता है। अन्य देवी-देवताओं, भूतों, पित्तरों की भी भक्ति करता है। इससे सिद्ध है कि उसे अपने इष्ट देव की समर्थता पर विश्वास नहीं है। यदि विश्वास हो कि मेरा इष्ट देव समर्थ है तो उसको छोड़कर अन्य की ओर देखे भी नहीं।

इष्ट देव ऐसा हो जैसा कबीर जी ने बताया है:-

कबीर एकै साधैं सब सधै सब साधैं सब जाय।
माली सीचें मूल कूँ फलै फूलै अघाय।।

अर्थात् जैसे पौधे की मूल की सिंचाई करने से पौधे के सब अंग (तना, डार, शाखा, पत्ते आदि) विकसित होते हैं। यदि मूल के स्थान पर शाखाओं को जमीन में रोपकर सिंचाई करेंगे तो पौधे के सब अंग नष्ट हो जाएँगे यानि पौधा नष्ट हो जाएगा।

कुछ भी हाथ नहीं लगेगा। आप सब के सब मूल को छोड़कर शाखाओं की सिंचाई कर रहे हो यानि परम अक्षर ब्रह्म की पूजा न करके देवी-देवताओं की पूजा करके जन्म नष्ट कर रहे हो।

उदाहरण के लिए पेश है चित्र सीधे व उलटे रोपे पौधे का:-

गीता अध्याय 15 श्लोक 1.3 में कहा है कि यह संसार एक ऐसे वृक्ष के समान है जिसकी जड़ें (मूल) ऊपर तथा तीनों गुण रूप शाखाएँ तना-डार आदि नीचे को हैं। ऊपर को जो जड़ (त्ववज) है, उसको सबका धारण-पोषण करने वाला परमेश्वर जानो। तना को अक्षर पुरूष मानो। डार को क्षर पुरूष (ज्योति निरंजन) समझो। तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव) रूपी तीनों देवता मानो। पत्तों को संसार जानो।

कबीर जी ने कहा है कि:-

कबीर, अक्षर पुरूष एक पेड़ है, क्षर पुरूष वाकी डार।
तीनों देवा शाखा हैं, पात रूप संसार।।

अर्थात् गीता अध्याय 15 के श्लोक 1-3 में जो संकेत दिया है, उसको परमेश्वर कबीर जी ने स्पष्ट किया है कि संसार रूप वृक्ष का तना तो अक्षर पुरूष है जो सात संख ब्रह्मंडों का प्रभु (स्वामी) है। मोटी डार क्षर पुरूष है जो काल ब्रह्म (ज्योति निरंजन) भी कहा है जो इक्कीस ब्रह्मंडों का प्रभु है। तीनों देवता (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव) उस वृक्ष की शाखा जानो। पत्तों को संसार समझो। उस संसार रूप वृक्ष की मूल स्वयं कबीर परमेश्वर है जिसे गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में परम अक्षर ब्रह्म कहा है। गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करने वाला परमात्मा बताया है तथा उसी को वास्तव में अविनाशी परमेश्वर कहा है। गीता अध्याय 15 श्लोक 16 में क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष को नाशवान प्रभु कहा है। श्लोक 17 में उनसे अन्य पुरूषोत्तम (उत्तम पुरूष) यानि श्रेष्ठ परमेश्वर बताया है। वह स्वयं कबीर परमेश्वर है जिसके विषय में संत गरीबदास जी ने कहा है कि:-

गरीब, अनंत कोटि ब्रह्मंड का, एक रती नहीं भार।
सतगुरू पुरूष कबीर हैं, कुल के सिरजन हार।।1।।
गरीब, सब पदवी के मूल हैं, सकल सिद्धि हैं तीर।
दास गरीब सतपुरूष भजो, अविगत कला कबीर।।2।।
हम ही अलख अल्लाह हैं, कुतब गोस और पीर।
गरीबदास खालिक धनी, हमरा नाम कबीर।।3।।
गरीब, हम सुल्तानी नानक तारे, दादू को उपदेश दिया।
जाति जुलाहा भेद ना पाया, काशी माहें कबीर हुआ।।4।।

अर्थात् संत गरीबदास जी ने परमेश्वर के साथ जाकर ऊपर के लोकों को आँखों देखा। तब बताया था कि जो काशी शहर (भारत) में कबीर नामक जुलाहा रहता था। वह सबका सृजनहार यानि उत्पत्तिकर्ता (करतार) है। उसके पास सब सिद्धियाँ हैं। इस काल ब्रह्म के लोक में तो आठ (अष्ट) सिद्धियाँ ही हैं। जो काल ब्रह्म व तीनों देवताओं (ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव जी) की भक्ति से साधक को एक या दो ही प्राप्त होती हैं क्योंकि इन देवताओं व ब्रह्म के पास ये आठ ही सिद्धियाँ हैं। यदि सब दे दी तो इनके पुजारी इनके बराबर के शक्तिमान होकर अपनी डफली पीटेंगे। इसलिए साधकों को एक या दो ही देते हैं। कबीर परमेश्वर जी के पास अँसख्यों सिद्धियाँ हैं। इसलिए संत गरीबदास जी ने कहा है कि उस सतपुरूष (अविनाशी परमेश्वर) कबीर को भजो जो स्वयं ही मेरे पास आए थे। परमेश्वर कबीर जी जब काशी नगर में जुलाहे की भूमिका करने आए थे, तब पंडित रामानन्द जी आचार्य से कहा था कि मैं ही वह (अलख अल्लाह) गुप्त परमेश्वर हूँ। मैं ही (कुतुब, गोस और पीर) सतगुरू, संत तथा जिंदा बाबा बनता हूँ। मैं (कबीर) ही (खालिक धनी) सारे संसार का मालिक हूँ, मेरा नाम कबीर है।

सूक्ष्मवेद तथा गीता अध्याय 15 श्लोक 1-4 तथा 16-17 को समझने के लिए संसार रूप वृक्ष का चित्र प्रस्तुत किया है जिसमें मूल यानि सब का धारण-पोषण करने वाला परमेश्वर कबीर दिखाया है। तना अक्षर पुरूष तथा डार क्षर पुरूष काल ब्रह्म यानि गीता व चारों वेदों का ज्ञान देने वाला दिखाया तथा तीनों गुण (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव) रूप शाखाएँ बताई हैं। पत्ते जीव-जंतु दर्शाए हैं।

संसार की संरचना समझने के लिए पेश है संसार रूप वृक्ष का चित्र:-

इस पुस्तक ‘‘कबीर बड़ा या कृष्ण’’ में श्रीमद्भगवत गीता का विश्लेषण है जो अन्य ग्रन्थों से प्रमाण देकर मजबूत किया है। इस पुस्तक में यही बताया है कि किस प्रभु व देव की कितनी शक्ति है। वह समर्थ है या नहीं। जैसे हिन्दू धर्म में श्री रामचन्द्र जी तथा श्री कृष्ण जी को परमेश्वर मानकर पूजा जाता है। ये दोनों राजा थे। राजा के पास हथियार होते हैं, सेना-सिपाही होते हैं। राजा तो अपने आप ही राम (प्रभु) होता है। जैसे श्री रामचन्द्र जी ने समुद्र पर पुल बनाकर सेना को परले पार किया था। इसी काम से उनको समर्थ प्रभु मान लिया।

श्री कृष्ण जी ने गोवर्धन पर्वत को उठा लिया। इसी से उनकी पहचान प्रभु के रूप में हो गई। इसके विषय में कबीर जी ने स्पष्ट किया है कि:-

कबीर, समन्दर पाट लंका लगा सीता का भरतार।
अगस्त ऋषि ने सातों पीये थे, इनमें कौन करतार।।

अर्थात् यदि कोई श्री रामचन्द्र पुत्र राजा दशरथ को इसी कारण से करतार मानता है कि उन्होंने समुद्र के ऊपर पुल का निर्माण करवाया था तो अगस्त ऋषि ने सातों समुद्रों को पी लिया था। इन दोनों में से किस को करतार (सृष्टि का कर्ता) मानोगे?

कबीर, गोवर्धन कृष्ण ने धारयो, द्रौणागिरी हनुमंत।
शेष नाग सब सृृष्टि उठा रहा, इनमें कौन-कौन भगवंत।।

अर्थात् गोवर्धन पर्वत को श्री कृष्ण जी ने उठाकर ब्रजवासियों की इन्द्र से रक्षा की थी। हनुमान जी ने द्रौणागिरी पर्वत को उठाया। पौराणिक व्यक्ति मानते हैं कि शेषनाग सब सृष्टि को अपने सिर रखे हुए है जिसमें पृथ्वी लोक, स्वर्ग लोक, पाताल आदि लोक हैं। इन सबको शेषनाग ने उठा रखा है। अब बताओ इनमें से किसको भगवान मानोगे?

कबीर, काटे बंधन विपति में, कठिन कियो संग्राम।
चिन्हो रे नर प्राणियाँ, गरूड़ बड़ा या राम।।

अर्थात् श्री लंका के राजा रावण के साथ युद्ध के समय रामचन्द्र समेत सारी सेना को नागों (सर्पों) ने बाँध दिया था। गरूड़ पक्षी ने उन सब सर्पों को काटा। तब श्री राम जी का तथा सेना का बंधन कटा। उनकी जान बची। कबीर जी ने प्रश्न किया है कि अब बताओ कि श्री राम बड़ा है या पक्षी राज गरूड़? कहने का भाव यह है कि किसी देव की एक-दो लीला देखकर उससे उसको समर्थ मान लेना उचित नहीं है। जब तक उसकी जीवनी का सद्ग्रन्थों से ज्ञान नहीं है, तब तक उसे समर्थ मान लेना भ्रम भक्ति है।

गीता अध्याय 16 श्लोक 23 में कहा है कि जो साधक अपनी मर्जी से शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण करता है, उसको न तो सिद्धि प्राप्त हो सकती है, न उसका कार्य सिद्ध होता है, न उसकी गति होती है अर्थात् शास्त्र प्रमाणित साधना से जीव का कल्याण संभव है।

गीता अध्याय 16 श्लोक 24 में कहा है कि हे अर्जुन! इससे तेरे लिए कर्तव्य यानि जो भक्ति के कर्म करने योग्य हैं, अकर्तव्य यानि कौन से कर्म करने योग्य नहीं हैं। उनको समझने के लिए शास्त्र ही प्रमाण हैं। शास्त्रों में वर्णित साधना कर।

इस पुस्तक ‘‘कबीर बड़ा या कृष्ण’’ में सब प्रमाण शास्त्रों से लिखे हैं। भक्ति करके कल्याण करवाना चाहिए। दास के परमार्थी प्रयत्न को भावनाओं को ठेस पहुँचाना न मानना।

यहाँ पर यह भी बताना अनिवार्य समझता हूँ कि कुछ व्यक्तियों ने मेरे विषय में भ्रम फैला रखा है कि ये देवी-देवताओं की भक्ति छुड़वाता है। यह बिल्कुल गलत है। मैं सर्व देवताओं की शास्त्रोक्त साधना करने की राय देता हूँ जिससे साधक को यथार्थ लाभ मिलता है तथा पूर्ण परमात्मा को ईष्ट रूप में पूजा करने की राय देता हूँ जिससे मोक्ष की प्राप्ति होती है। वर्तमान जीवन में भी अनेकों लाभ होते हैं जो परमात्मा से अपेक्षा की जाती है।

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