एक लेवा एक देवा दूतं
जिस समय श्री शिव जी ने अपनी पत्नी पार्वती जी को अमरनाथ स्थान पर एक सूखे वृक्ष के नीचे बैठकर नाम दीक्षा (अमर मंत्र) दिया था। उस वृक्ष की खोगड़ (तने में बने बिल) में मादा तोते ने अण्डे उत्पन्न कर रखे थे। स्वस्थ अण्डे तो शिव जी की हाथों से बजाई ताली से बच्चे बनकर उड़ गए। उनमें एक अण्डा गंदा (अस्वस्थ) था। उसका जीव उसके अंदर था। जब श्री शिव जी ने श्री पार्वती जी को दीक्षा मंत्र सुनाया तो वह गंदा अण्डा स्वस्थ हो गया और तोते का बच्चा बन गया। पंख लग गई, उड़ने योग्य हो गया। पार्वती जी की समाधि लग गई। उसने हाँ-हाँ करना बंद कर दिया। तोता हाँ-हाँ करने लगा तो श्री शिव जी ने देखा कि पार्वती की तो समाधि लगी है, सुन-बोल कुछ नहीं रही है। हाँ-हाँ की आवाज किसकी है? देखा तो वृक्ष के तने के बिल (खोगड़) में तोता बोल रहा है। श्री शिव जी ने उसे मारना चाहा तो तोता उड़ गया। पीछे-पीछे श्री शिव जी सिद्धि से उड़कर मारने चले। ऋषि वेदव्यास जी की पत्नी ने जम्बाई ली। मुँह खोला तो तोते के शरीर को त्यागकर जीव व्यास की पत्नी के गर्भ में मुख से प्रवेश कर गया। श्री शिव जी ने व्यास की पत्नी से कहा कि मेरा ज्ञान चुराकर जीव तोते के शरीर को त्यागकर आपके गर्भ में चला गया है। यह मेरा चोर है, इसे मारूंगा। उसी समय ऋषि वेदव्यास जी भी आ गए थे, सब बातें सुन रहे थे। व्यास जी ने पूछा, हे भगवान! कौन-कैसा चोर? श्री शिव जी ने बताया कि मैं पार्वती जी को दीक्षा दे रहा था। अंदर के कमलों का भेद बता रहा था तो इस तोते ने सुन लिया। यह किसी अनाधिकारी को मंत्र बता देगा तो वह अमर होकर जनता को पीड़ा देगा। यह अमर हो गया। मैं इस जीव को मारूंगा। व्यास जी बोले, हे शिव जी भगवान! जब यह अमर हो गया तो आप मारोगे कैसे? यह बात सुनकर श्री शंकर जी पार्वती के पास लौट गए। पार्वती जी को सब बातें बताई। श्री वेदव्यास जी ने अपनी दिव्य दृष्टि से देखा तो पता चला कि पत्नी के गर्भ में पुत्र है। बारह वर्ष के पश्चात् पुत्र उत्पन्न हुआ। माता कहती थी कि पुत्र का नाम सुखदेव रखना है। इसके गर्भ में रहते हुए मुझे कोई दुःख नहीं हुआ। मन में खुशी बनी रहती थी। सुख का आभास होता रहता है। इसलिए गर्भ में ही उस बालक का नाम सुखदेव रख दिया था। तोते के अण्डे में रहने और तुरंत मानव शरीर प्राप्त करने के कारण ब्राह्मण लोग उसे शुक देव (शुक माने तोता) भी कहते थे। ऋषि शुकदेव जी का जन्म लेते ही बारह वर्ष का शरीर बन गया और उठकर चलने लगे तो ऋषि वेदव्यास जी ने कहा, हे पुत्र! कहाँ चला? शुकदेव जी अपने माता-पिता की ओर पीठ करके बोले, आपका और मेरा इतना ही संग है। (संस्कार है।) ऋषि व्यास जी ने कहा, हे पुत्र सुखदेव! हमने तेरे जन्म लेने की बारह वर्ष प्रतिक्षा की और आज आप छोड़कर जा रहे हो। एक बार मुख तो दिखा दे। सुखदेव ऋषि बोले, हे ऋषि जी! बहुत बार आप मेरे पिता बने, अनेको बार मैं आपका पिता बना। यह तो बड़ा बखेड़ा (झंझट) है। मैं भक्ति करके जन्म-मरण से मुक्ति करवाऊँगा। मैं आपकी ओर मुख इसलिए नहीं कर रहा हूँ कि कहीं मेरा आप में मोह न हो जाए। यह कह संत गरीबदास जी ने वाणी द्वारा बताया है कि:-
एक लेवा एक देवा दूतं, कोई काहू का पिता न पूतं।
ऋण सम्बन्ध जुड़ा एक ठाठा, अंत समय सब बारा बाटा।।
भावार्थ:- शुकदेव जी ने कहा कि जो परिवार के सदस्य बेटा-पिता आदि-आदि नातों में हैं, वे सब पूर्व जन्मों का ऋण लेने या देने के लिए जुड़े हैं। वास्तव में कोई किसी का पिता-पुत्र नहीं है। मृत्यु के उपरांत सब अपने-अपने संस्कारवश भिन्न स्थानों पर जाकर अन्य शरीर धारण कर लेते हैं। इसलिए कोई किसी का पिता-पुत्र नहीं है।
पाठको ने ऊपर किसान के पुत्रों वाली कथा में पढ़ा है कि बड़े भाई ने छोटे मौसी के पुत्र को आठ एकड़ जमीन के लालच में मरवाया तो वही जीव उसका पुत्र बनकर अपना ऋण लेने जन्मा और अपना हिसाब चुकता करके मर गया। इसलिए कहा है कि:-
एक लेवा (ऋण लेने वाला) एक देवा (ऋण चुकाने वाला) दूतम। कोई काहू का पिता नहीं पूतं। ऋण सम्बन्ध जुड़ा एक ठाठा यानि परिवार रूप में ठाठ से रहते दिखाई देते हैं, अचानक मृत्यु हो जाती है। अंत समय में बारा बाटा यानि मुत्यु के पश्चात् कोई कहीं और जन्म लेगा यानि बारा (12) बाट (रास्तों) पर चले जाऐंगे। इतनी वार्ता पिता से करके शुकदेव आकाश में उड़कर अन्य स्थान पर चला गया। प्रिय पाठको! इसलिए भक्ति करो और जीव का कल्याण करवाओ। केवल परिवार के चिपककर अपना जीवन नष्ट न करो। परमात्मा की भक्ति से ऋण भी सरलता से उतर जाएगा।