शंका समाधान

गीता अध्याय 15 श्लोक 18 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि मैं उन सर्व प्राणियों से उत्तम अर्थात् शक्तिमान हूँ जो मेरे 21 ब्रह्माण्डों में रहते हैं, इसलिए लोकवेद अर्थात् दन्त कथा के आधार से मैं पुरूषोत्तम प्रसिद्ध हूँ। वास्तव में पुरूषोत्तम तो गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में स्पष्ट कर दिया। उत्तम पुरूष अर्थात् पुरूषोत्तम तो क्षर पुरूष (गीता ज्ञान दाता) तथा अक्षर पुरूष (जो 7 शंख ब्रह्माण्डों का स्वामी है) से अन्य ही है, वही परमात्मा कहा जाता है। वह सर्व का धारण-पोषण करता है, वास्तव में अविनाशी है। वह “परम अक्षर ब्रह्म” है जो असंख्य ब्रह्माण्डों का मालिक है जो सर्व सृजनहार है, कुल का मालिक है अर्थात् परमात्मा है।

प्रश्न 9:- अक्षर का अर्थ अविनाशी होता है। आपने गीता अध्याय 15 श्लोक 16 में भी अक्षर पुरूष को भी नाशवान बताया है, कृप्या स्पष्ट करें।

उत्तर:- यह सत्य है कि “अक्षर” का अर्थ अविनाशी होता है, परन्तु प्रकरणवश अर्थ अन्य भी होता है। गीता अध्याय 15 श्लोक 16 में कहा है कि क्षर और अक्षर ये दो पुरूष (प्रभु) इस लोक में है, ये दोनों तथा इनके अन्तर्गत जितने जीव हैं, वे नाशवान हैं, आत्मा किसी की भी नहीं मरती। फिर गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में स्पष्ट किया है कि पुरूषोत्तम तो उपरोक्त दोनों प्रभुओं से अन्य है। वही अविनाशी है, वही सबका धारण-पोषण करने वाला वास्तव में अविनाशी है। गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में तत् ब्रह्म को परम अक्षर ब्रह्म कहा है। अक्षर का अर्थ अविनाशी है, परन्तु यहाँ परम अक्षर ब्रह्म कहा है। इससे भी सिद्ध हुआ कि अक्षर से आगे परम अक्षर ब्रह्म है, वह वास्तव में अविनाशी है।

प्रमाण:- जैसे ब्रह्मा जी की आयु 100 वर्ष बताई जाती है, देवताआंे का वर्ष कितने समय का है? सुनो! चार युग (सत्ययुग, त्रोतायुग, द्वापरयुग तथा कलयुग) का एक चतुर्युग होता है जिसमें मनुष्यों के 43,20,000 (त्रितालीस लाख बीस हजार) वर्ष होते हैं। इस प्रकार बने 1008 चतुर्युग का ब्रह्मा जी का दिन और इतनी ही रात्रि होती है, ऐसे 30 दिन-रात्रि का एक महीना तथा 12 महीनों का ब्रह्मा जी का एक वर्ष हुआ। ऐसे 100 (सौ) वर्ष की श्री ब्रह्मा जी की आयु है।

  • श्री विष्णु जी की आयु श्री ब्रह्मा जी से 7 गुणा है। = 700 वर्ष।
  • श्री शंकर जी की आयु श्री विष्णु जी से 7 गुणा अधिक = 4900 वर्ष।
  • ब्रह्म (क्षर पुरूष) की आयु = 70 हजार शंकर की मृत्यु के पश्चात् एक ब्रह्म की मृत्यु होती है अर्थात् क्षर पुरूष की मृत्यु होती है। इतने समय का अक्षर पुरूष का एक युग होता है।

अक्षर पुरूष की आयु:- गीता अध्याय 8 श्लोक 17 में कहा हैः-

सहंस्र युग पर्यन्तम् अहः यत् ब्रह्मणः विदुः।
रात्रिम् युग सहंस्रान्तम् ते अहोरात्र विदः जनाः।। (17)

अनुवाद:- आज तक सर्व अनुवादकर्ताओं ने उचित अनुवाद नहीं किया। सबने ब्रह्मा का एक हजार चतुर्युग लिखा है, यह गलत है। (देखें इसी पुस्तक के पृष्ठ 204 से 357 तक में गीता अध्याय 8 श्लोक 17 के अनुवाद की फोटोकाॅपी जो गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित है।)

मूल पाठ में “संहस्र युग” लिखा है, न कि संहस्र चतुर्युग। इसलिए गीता अध्याय 8 श्लोक 17 का अनुवाद ऐसे बनता है:- (ब्रह्मणः) अक्षर पुरूष का (यत) जो (अहः) दिन है वह (सहंस्रयुग प्रयन्तम्) एक हजार युग की अवधि वाला और (रात्रिम्) रात्रि को भी (युग संहस्रान्तम्) एक हजार युग की अवधि वाली जो पुरूष (विदुः) जानते हैं (ते) वे (जना) व्यक्ति (अहोरात्र) दिन-रात को (विदः) जानने वाले हैं। भावार्थ:- इस श्लोक में “ब्रह्मा” शब्द मूल पाठ में नहीं है और न ही “चतुर युग” शब्द मूल पाठ में है, इसमें “ब्रह्मणः” शब्द है जिसका अर्थ सचिदानन्द ब्रह्म अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म होता है, परंतु प्रकरण अनुसार ब्रह्मणः का अर्थ ब्रह्म से अन्य परब्रह्म (अक्षर ब्रह्म) भी होता है।

प्रमाण:- गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में ब्रह्मणः का अर्थ सचिदानन्द घन ब्रह्म किया है, वह अनुवादकों ने ठीक किया है। इस गीता अध्याय 8 श्लोक 17 में आयु का प्रकरण है। इसलिए यहाँ पर “ब्रह्मण” का अर्थ “अक्षर ब्रह्म” बनता है, यहाँ अक्षर पुरूष की आयु की जानकारी दी है। अक्षर पुरूष का एक दिन उपरोक्त एक हजार युग का होता है। {70 हजार शंकर की मृत्यु के पश्चात् एक क्षर पुरूष की मृत्यु होती है, वह समय एक युग अक्षर पुरूष का होता है।} ऐसे बने हुए एक हजार युग का अक्षर पुरूष का दिन तथा इतनी ही रात्रि होती है, ऐसे 30 दिन रात्रि का एक महीना तथा 12 महीनों का अक्षर पुरूष का एक वर्ष

तथा ऐसे 100 वर्ष की अक्षर पुरूष की आयु है। इसके पश्चात् इसकी मृत्यु होती है, इसलिए गीता अध्याय 15 श्लोक 16 में क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष दोनों नाशवान कहे हैं। गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में जो वास्तव में अविनाशी परमात्मा कहा है। यह परमात्मा सर्व प्राणियों के नष्ट होने पर भी नाश में नहीं आता।

प्रमाण:- गीता अध्याय 8 श्लोक 20 से 22 में स्पष्ट है कि वह परम अक्षर ब्रह्म सब प्राणियों के नष्ट होने पर भी कभी नष्ट नहीं होता।

उदाहरण:-

  1. जैसे सफेद मिट्टी के बने कप-प्लेट होते हैं, उनका ज्ञान है कि हाथ से छूटे और पक्के फर्श पर गिरे और टूटे अर्थात् नाशवान “क्षर” है, यह स्थिति तो क्षर पुरूष की जानो।

  2. दूसरे कप-प्लेट स्टील (इस्पाॅत) के बने हों, वे बहुत समय उपरान्त जंग लगकर नष्ट होते हैं, शीघ्र नहीं टूटते व नष्ट नहीं होते। मिट्टी के बने कप-प्लेट की तुलना में स्टील के कप-प्लेट चिर-स्थाई हैं, अविनाशी प्रतीत होते हैं, परन्तु हैं नाशवान। इसी प्रकार स्थिति “अक्षर पुरूष” की जानो।

  3. तीसरे कप-प्लेट सोने के बने हों। वे कभी नष्ट नहीं होते, उनको जंग नहीं लगता। यह स्थिति “परम अक्षर ब्रह्म” की जानो। यह वास्तव में अविनाशी हैं, इसलिए प्रकरणवश “अक्षर” का अर्थ नाशवान भी होता है, वास्तव में अक्षर का अर्थ अविनाशी होता है।

उदाहरण के लिए:- गीता अध्याय 8 श्लोक 11 में मूल पाठ =

यत् अक्षरम् वेद विदः वदन्ति विशन्ति यत् यतयः बीतरागाः
यत् इच्छन्तः ब्रह्मचर्यम चरन्ति तत् ते पदम् संग्रहेण प्रवक्ष्ये (11)

अनुवाद: इस श्लोक में “अक्षर” का अर्थ अविनाशी परमात्मा के लिए हैः-(वेद विदः) तत्वदर्शी सन्त अर्थात् वेद के तात्पर्य को जानने वाले महात्मा (यत्) जिसे (अक्षरम्) अविनाशी (वदन्ति) कहते हैं। (यतयः) साधना रत (बीतरागा) आसक्ति रहित साधक (यत्) जिस लोक में (विशन्ति) प्रवेश करते हैं और (यत्) जिस परमात्मा को (इच्छन्तः) चाहने वाले साधक (ब्रह्म चर्यम) ब्रह्मचर्य अर्थात् शिष्य परम्परा का (चरन्ति) आचरण करते हैं, (तत्) उस (पदम्) पद को (ते) तेरे लिए मैं (संग्रहेण) संक्षेप में (प्रवक्ष्ये) कहूँगा। इस श्लोक में “अक्षर” का अर्थ अविनाशी परमात्मा ठीक है।

कबीर जी ने सूक्ष्म वेद में कहा है कि -

गुरू बिन काहू न पाया ज्ञाना, ज्यों थोथा भुस छिड़े मूढ़ किसाना।
गुरू बिन वेद पढ़े जो प्राणी, समझे ना सार रहे अज्ञानी।।

प्रश्न 10: आप पूर्ण मोक्ष किसे मानते हैं?

उत्तर:- गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में वर्णन है कि तत्वदर्शी सन्त की प्राप्ति के पश्चात् तत्वज्ञान रूपी शस्त्रा से अज्ञान को काटकर अर्थात् अच्छी तरह ज्ञान समझकर उसके पश्चात् परमेश्वर के उस परमपद की (सत्यलोक की) खोज करनी चाहिए। जहाँ जाने के पश्चात् साधक फिर लौटकर संसार में कभी नहीं आते अर्थात् उनका जन्म कभी नहीं होता। जिस परमात्मा ने सर्व रचना की है, केवल उसी की भक्ति पूजा करो। पूर्ण मोक्ष उसी को कहते हैं जिसकी प्राप्ति के पश्चात् पुनः जन्म न हो। जन्म-मरण का चक्र सदा के लिए समाप्त हो जाए।

प्रश्न 11: क्या गीता ज्ञान दाता ब्रह्म की भक्ति से पूर्ण मोक्ष संभव है?

उत्तर: नहीं।

प्रश्न 12: गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में प्रमाण है कि गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि हे अर्जुन! मुझे प्राप्त होकर पुनर्जन्म नहीं होता। आप कैसे कहते हैं कि ब्रह्म भक्ति से पूर्ण मोक्ष संभव नहीं।

उत्तर: श्री देवी महापुराण (सचित्र मोटा टाईप केवल हिन्दी गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित) के सातवें स्कंध पृष्ठ 562-563 पर प्रमाण है कि श्री देवी जी ने राजा हिमालय को उपदेश देते हुए कहा है कि हे राजन! अन्य सब बातों को छोड़कर मेरी भक्ति भी छोड़कर केवल एक ऊँ नाम का जाप कर, “ब्रह्म” प्राप्ति का यही एक मंत्र है, इससे संसार के उस पार जो ब्रह्म है, उसको पा जाओगे, तुम्हारा कल्याण हो। वह ब्रह्मलोक रूपी दिव्य आकाश में रहता है। भावार्थ है कि ब्रह्म साधना का केवल एक ओम् (ऊँ) नाम का जाप है, इससे ब्रह्म की प्राप्ति होती है और वह साधक ब्रह्म लोक में चला जाता है। इसी गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में कहा है कि ब्रह्म लोक सहित सर्व लोक पुनरावर्ती में हैं अर्थात् ब्रह्मलोक में गए साधक का भी पुनर्जन्म होता है। ब्रह्म की भक्ति से पूर्ण मोक्ष नहीं होता। इस गीता अध्याय 8 श्लोक 16 का अनुवाद (गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित गीता में तथा अन्य प्रकाशन की गीता में) गलत किया है।

गीता अध्याय 8 श्लोक 16:-

आ ब्रह्म भुवनात् लोकाः पुनरावर्तिनः अर्जुन। माम् उपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विधते।। (16)

इसका अनुवाद गलत किया है, जो इस प्रकार है:-

हे अर्जुन! ब्रह्म लोक पर्यन्त सब लोक पुनरावर्ती में हैं अर्थात् जहाँ जाने के पश्चात् पुनः संसार में लौटकर आना पड़े। परन्तु मुझे प्राप्त होकर पुनः जन्म नहीं होता। (यह अनुवाद गलत है।) देखें इसी पुस्तक के पृष्ठ 204 से 357 पर अध्याय 8 श्लोक 16 का अनुवाद जो गीता प्रैस गोरखपुर वालों ने किया है, उसी की फोटोकापी लगाई है।

इसका वास्तविक अनुवाद इस प्रकार है:- ब्रह्म लोक तक सर्व लोक पुनरावर्ती में हैं अर्थात् ब्रह्म लोक में भी गए व्यक्तियों का पुनर्जन्म होता है जो यह नहीं जानते हैं। हे अर्जुन! मुझे प्राप्त होकर भी उनका पुनर्जन्म है, इस श्लोक में “विद्यते” शब्द का अर्थ “जानना” बनता है। गीता अध्याय 6 श्लोक 23 में ‘‘विद्यात्‘‘ शब्द का अर्थ जानना किया है। यहाँ इस श्लोक में भी ‘‘विद्यते‘‘ का अर्थ ‘‘जानना‘‘ बनता है। देखें इसी पुस्तक में इसी श्लोक की फोटोकापी में। अधिक स्पष्ट करने के लिए गीता अध्याय 8 श्लोक 15 पर्याप्त है।

मूल पाठ:-माम् उपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयम् अशाश्वतम्।
न आप्नुवन्ति महात्मनः संसिद्धिम परमाम् गताः।। (8:15)

अनुवाद:- (माम) मुझे प्राप्त होकर (पुनर्जन्म) पुनर्जन्म होता है जो (अशाश्वतम्) नाशवान जीवन (दुःखालयम) दुखों का घर है। (परमाम्) परम (संसिद्धिम् गता) सिद्धि को प्राप्त (महात्मयः) महात्माजन (न आप्नुवन्ति) पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होते।(गीता अध्याय 8 श्लोक 15)

भावार्थ:- गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि मुझे प्राप्त होकर तो दुःखों का घर यह क्षणभंगुर जीवन जन्म-मरण होता है। जो महात्मा परम गति को प्राप्त हो जाते हैं, उनका पुनर्जन्म नहीं होता।

विचारें:- यदि गीता अध्याय 8 श्लोक 1 से 10 तक का सारांश निकालें जो इस प्रकार है:- अर्जुन ने पूछा (गीता अध्याय 8 श्लोक 1) कि तत् ब्रह्म क्या है? गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में उत्तर दिया कि वह “परम अक्षर ब्रह्म” है।

फिर गीता ज्ञान दाता ने अध्याय 8 श्लोक 5 व 7 में अपनी भक्ति करने को कहा है तथा गीता अध्याय 8 श्लोक 8, 9, 10 में “परम अक्षर ब्रह्म” की भक्ति करने को कहा है। अपनी भक्ति का मन्त्र गीता अध्याय 8 श्लोक 13 में बताया है कि मुझ ब्रह्म का केवल एक ओम् (ऊँ) अक्षर है। उच्चारण करके स्मरण करता हुआ जो शरीर त्याग कर जाता है, वह परम गति को प्राप्त होता है। पूर्व में श्री देवी पुराण से सिद्ध कर आए हैं कि ऊँ का जाप करके ब्रह्म लोक प्राप्त होता है। गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में स्पष्ट है कि ब्रह्म लोक में गए साधक का भी पुनर्जन्म होता है। इसलिए गीता अध्याय 8 श्लोक 13 में ऊँ नाम के जाप से होने वाली परम गति का वर्णन है, परन्तु गीता अध्याय 8 श्लोक 8, 9, 10 में जिस सच्चिदानन्द घन ब्रह्म अर्थात् परम दिव्य पुरूष की भक्ति करने को कहा है, उसका मन्त्र गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में लिखा है।

ऊँ, तत्, सत्, इति, निर्देशः, ब्रह्मणः, त्रिविधः, स्मृतः
ब्राह्मणाः, तेन, वेदाः, च, यज्ञाः, च विहिताः, पुरा।।

अनुवाद:- सचिदानन्द घन ब्रह्म की भक्ति का मन्त्र ‘‘ऊँ तत् सत्‘‘ है। “ऊँ‘‘ मन्त्र ब्रह्म यानि क्षर पुरूष का है। “तत्” यह सांकेतिक है जो अक्षर पुरूष का है। ‘‘सत्’’ मंत्र भी सांकेतिक मन्त्र है जो परम अक्षर ब्रह्म का है। इन तीनों मन्त्रों के जाप से वह परम गति प्राप्त होगी जो गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कही है कि जहाँ जाने के पश्चात् साधक फिर लौटकर संसार में कभी नहीं आते। यदि गीता अध्याय 8 श्लोक 16 का यह अर्थ सही मानें कि मुझे प्राप्त होने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता तो गीता अध्याय 2 श्लोक 12, गीता अध्याय 4 श्लोक 5, गीता अध्याय 10 श्लोक 2, गलत सिद्ध हो जाते हैं जिनमें गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं, तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। मेरी उत्पत्ति को न देवता जानते, न महर्षिगण तथा न सिद्ध जानते। विचारणीय विषय यह है कि जब साध्य इष्ट का ही जन्म-मृत्यु होता है तो साधक को वह मोक्ष कैसे प्राप्त हो सकता है जिससे पुनर्जन्म नहीं होता है। इसलिए गीता अध्याय 8 श्लोक 16 का अनुवाद जो मैंने ऊपर किया है, वही सही है कि गीता ज्ञानदाता ने कहा है कि ब्रह्म लोक तक सब लोक पुनरावर्ती में हैं अर्थात् ब्रह्मलोक में गए प्राणी भी लौटकर संसार में जन्म को प्राप्त होते हैं। जो यह नहीं जानते, वे मेरी भक्ति करके भी पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं। इसीलिए तो गीता ज्ञान दाता ने अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि हे अर्जुन! तू सर्वभाव से उस परमेश्वर की शरण में जा, उस परमेश्वर की कृपा से ही तू परमशान्ति को तथा सनातन परमधाम अर्थात् सत्यलोक को प्राप्त होगा। यही प्रमाण गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में है कि तत्वदर्शी सन्त से तत्वज्ञान प्राप्त करके उस तत्वज्ञान रुपी शस्त्रा से अज्ञान को काटकर उसके पश्चात् परमेश्वर के उस परमपद की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक फिर लौटकर संसार में कभी नहीं आते। जिस परमेश्वर से संसार रुपी वृक्ष की प्रवृति विस्तार को प्राप्त हुई है अर्थात् जिस परमेश्वर ने संसार की रचना की है। गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि केवल उसी की भक्ति कर, सर्व का उसी से कल्याण सम्भव है।

  • प्रमाणित हुआ कि ब्रह्म की भक्ति से पूर्ण मोक्ष सम्भव नहीं है। केवल पूर्ण परमात्मा (परम अक्षर ब्रह्म) की भक्ति से ही पूर्ण मोक्ष सम्भव है।

प्रश्न 13: ओम् (ऊँ) यह मन्त्र तो ब्रह्म का जाप हुआ, फिर यह क्यों कह रहे हो कि ब्रह्म की भक्ति से पूर्ण मोक्ष नहीं होता। आपने बताया कि गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में ’’ऊँ तत् सत्’’ इस मन्त्र के जाप से पूर्ण मोक्ष होता है। इस मन्त्र में भी तो ओम् (ऊँ) मन्त्र है।

उत्तर: जैसे इन्जीनियर या डाॅक्टर बनने के लिए शिक्षा की आवश्यकता होती है। पहले प्रथम कक्षा पढ़नी पड़ती है, फिर धीरे-धीरे पाँचवीं-आठवीं, इस प्रकार दसवीं कक्षा पास करनी पड़ती है। उसके पश्चात् आगे पढ़ाई करनी होती है। फिर ट्रेनिंग करके इन्जीनियर या डाॅक्टर बना जाता है। ठीक इसी प्रकार श्री ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गणेश तथा देवी की साधना करनी पड़ती है, मैं स्वयं करता हूँ तथा अपने अनुयाइयों से कराता हूँ। यह तो पाँचवी कक्षा तक की पढ़ाई अर्थात् साधना जानें, दूसरे शब्दों में पाँचों कमलों को खोलने की साधना है और ब्रह्म की साधना दसवीं कक्षा तक की पढ़ाई जानें अर्थात् ब्रह्मलोक तक की साधना है जो ‘‘ऊँ‘‘ (ओम्) का जाप करना है और अक्षर पुरुष की साधना को 14वीं कक्षा की पढ़ाई अर्थात् साधना जानो जो ‘‘तत्’’ मन्त्र का जाप है। ‘‘तत्’’ मन्त्र तो सांकेतिक है, वास्तविक मन्त्र तो इससे भिन्न है जो उपदेशी को ही बताया जाता है। परम अक्षर पुरुष की साधना इन्जीनियर या डाॅक्टर की पढ़ाई अर्थात् साधना जानो जो ‘‘सत्’’ शब्द से करनी होती है। यह ‘‘सत्’’ मन्त्र भी सांकेतिक है। वास्तविक मन्त्र भिन्न है जो उपदेशी को बताया जाता है। इसको सारनाम भी कहते हैं।

इसलिए अकेले ‘‘ब्रह्म’’ के नाम ओम् (ऊँ) से पूर्ण मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता। ‘‘ऊँ‘‘ नाम का जाप ब्रह्म का है। इसकी साधना से ब्रह्म लोक प्राप्त होता है जिसके विषय में गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में कहा है कि ब्रह्म लोक में गए साधक भी पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं। पुनर्जन्म है तो पूर्ण मोक्ष नहीं हुआ जो गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि परमात्मा के उस परमपद की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक कभी लौटकर पुनर्जन्म में नहीं आता। वह पूर्ण मोक्ष पूर्ण गुरु से शास्त्रानुकूल भक्ति प्राप्त करके ही संभव है। विश्व में वर्तमान में मेरे (संत रामपाल दास) अतिरिक्त किसी के पास नहीं है।

प्रश्न 14:- परमात्मा एक है या अनेक हैं?

उत्तर:- कुल का मालिक एक है।

प्रश्न 15:- वह परमात्मा कौन है जो कुल का मालिक है, कहाँ प्रमाण है?

उत्तर:- वह परमात्मा ‘‘परम अक्षर ब्रह्म’’ है जो कुल का मालिक है।

प्रमाण:- श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 तथा 16-17 में है। गीता अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 का सारांश व भावार्थ है कि ‘‘उल्टे लटके हुए वृक्ष के समान संसार को जानो। जैसे वृक्ष की जड़ें तो ऊपर हैं, नीचे तीनों गुण रुपी शाखाएं जानो। गीता अध्याय 15 श्लोक 1 में यह भी स्पष्ट किया है कि तत्वदर्शी सन्त की क्या पहचान है? तत्वदर्शी सन्त वह है जो संसार रुपी वृक्ष के सर्वांग (सभी भाग) भिन्न-भिन्न बताए।

विशेष:- वेद मन्त्रों की जो आगे फोटोकाॅपियाँ लगाई हैं, ये आर्यसमाज के आचार्यों तथा महर्षि दयानंद द्वारा अनुवादित हैं और सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा दिल्ली द्वारा प्रकाशित हैं। जिनमें वर्णन है कि परमेश्वर स्वयं पृथ्वी पर सशरीर प्रकट होकर कवियों की तरह आचरण करता हुआ सत्य अध्यात्मिक ज्ञान सुनाता है। (प्रमाण ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सुक्त 86 मन्त्र 26-27, ऋग्वेद मण्डल 9 सुक्त 82 मन्त्र 1-2ए सुक्त 96 मन्त्र 16 से 20, ऋग्वेद मण्डल 9 सुक्त 94 मन्त्र 1, ऋग्वेद मण्डल 9 सुक्त 95 मन्त्र 2, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 20 मन्त्र 1, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 54 मन्त्र 3 में) इन मन्त्रों में कहा है कि परमात्मा सर्व भवनों अर्थात् लोकों के उपर के लोक में विराजमान है। जब-जब पृथ्वी पर अज्ञान की वृद्धि होने से अधर्म बढ़ जाता है तो परमात्मा स्वयं सशरीर चलकर पृथ्वी पर प्रकट होकर यथार्थ अध्यात्म ज्ञान का प्रचार लोकोक्तियों, शब्दों, चैपाईयों, साखियों, कविताओं के माध्यम से कवियों जैसा आचरण करके घूम-फिरकर करता है। जिस कारण से एक प्रसिद्ध कवि की उपाधि भी प्राप्त करता है। कृप्या देखें उपरोक्त मन्त्रों की फोटोकाॅपी इसी पुस्तक के पृष्ठ 104-119 पर। परमात्मा ने अपने मुख कमल से ज्ञान बोलकर सुनाया था। उसे सूक्ष्म वेद कहते हैं। उसी को ‘तत्व ज्ञान’ भी कहते हैं। तत्वज्ञान का प्रचार करने के कारण परमात्मा ‘‘तत्वदर्शी सन्त’’ भी कहलाने लगता है। उस तत्वदर्शी सन्त रूप में प्रकट परमात्मा ने संसार रुपी वृक्ष के सर्वांग इस प्रकार बतायेः-

कबीर, अक्षर पुरुष एक वृक्ष है, क्षर पुरुष वाकि डार।
तीनों देवा शाखा हैं, पात रुप संसार।।

भावार्थ: वृक्ष का जो हिस्सा पृथ्वी से बाहर दिखाई देता है, उसको तना कहते हैं। जैसे संसार रुपी वृक्ष का तना तो अक्षर पुरुष है। तने से मोटी डार निकलती है वह क्षर पुरुष जानो, डार के मानो तीन शाखाऐं निकलती हों, उनको तीनों देवता (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिव) हैं तथा इन शाखाओं पर टहनियों व पत्तों को संसार जानों। इस संसार रुपी वृक्ष के उपरोक्त भाग जो पृथ्वी से बाहर दिखाई देते हैं। मूल (जड़ें), जमीन के अन्दर हैं। जिनसे वृक्ष के सर्वांगों का पोषण होता है। गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 में तीन पुरुष कहे हैं। श्लोक 16 में दो पुरुष कहे हैं ‘‘क्षर पुरुष तथा अक्षर पुरुष’’ दोनों की स्थिति ऊपर बता दी है। गीता अध्याय 15 श्लोक 16 में भी कहा है कि क्षर पुरुष तथा अक्षर पुरुष दोनों नाशवान हैं। इनके अन्तर्गत जितने भी प्राणी हैं, वे भी नाशवान हैं। परन्तु आत्मा तो किसी की भी नहीं मरती। गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा है कि उत्तम पुरुष अर्थात् पुरुषोत्तम तो क्षर पुरुष और अक्षर पुरुष से भिन्न है जिसको परमात्मा कहा गया है। इसी प्रभु की जानकारी गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में है जिसको ‘‘परम अक्षर ब्रह्म‘‘ कहा है। गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में इसी का वर्णन है। यही प्रभु तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है। यह वास्तव में अविनाशी परमेश्वर है। मूल से ही वृक्ष की परवरिश होती है, इसलिए सबका धारण-पोषण करने वाला परम अक्षर ब्रह्म है। जैसे पूर्व में गीता अध्याय 15 श्लोक 1-4 में बताया है कि ऊपर को जड़ (मूल) वाला, नीचे को शाखा वाला संसार रुपी वृक्ष है। जड़ से ही वृक्ष का धारण-पोषण होता है। इसलिए परम अक्षर ब्रह्म जो संसार रुपी वृक्ष की जड़ (मूल) है, यही सर्व पुरुषों (प्रभुओं) का पालनहार इनका विस्तार (रचना करने वाला = सृजनहार) है। यही कुल का मालिक है।

प्रश्न 16: क्या रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शंकर (शिव) की पूजा (भक्ति) करनी चाहिए?

उत्तर: नहीं।

प्रश्न 17: कहाँ प्रमाण है कि रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शंकर (शिव) की पूजा (भक्ति) नहीं करनी चाहिए?

उत्तर: श्री मद्भगवत गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15, 20 से 23 तथा गीता अध्याय 9 श्लोक 23-24, गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 में प्रमाण है कि जो व्यक्ति रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव की भक्ति करते हैं, वे राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूर्ख मुझे भी नहीं भजते। (यह प्रमाण गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 में है। फिर गीता अध्याय 7 के ही श्लोक 20 से 23 तथा गीता अध्याय 9 श्लोक 23-24 में यही कहा है और क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष तथा परम अक्षर पुरुष गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 में जिनका वर्णन है), को छोड़कर श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री शिव जी अन्य देवताओं में गिने जाते हैं। इन दोनों अध्यायों (गीता अध्याय 7 तथा अध्याय 9 में) में ऊपर लिखे श्लोकों में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि जो साधक जिस भी उद्देश्य को लेकर अन्य देवताओं को भजते हैं, वे भगवान समझकर भजते हैं। उन देवताओं को मैंने कुछ शक्ति प्रदान कर रखी है। देवताओं के भजने वालों को मेरे द्वारा किए विधान से कुछ लाभ मिलता है। परन्तु उन अल्प बुद्धिवालों का वह फल नाशवान होता है। देवताओं को पूजने वाले देवताओं के लोक में जाते हैं। मेरे पुजारी मुझे प्राप्त होते हैं।

गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में कहा है कि शास्त्राविधि को त्यागकर जो साधक मनमाना आचरण करते हैं अर्थात् जिन देवताओं पितरों, यक्षों, भैरों-भूतों की भक्ति करते हैं और मनकल्पित मन्त्रों का जाप करते हैं, उनको न तो कोई सुख होता है, न कोई सिद्धि प्राप्त होती है तथा न उनकी गति अर्थात् मोक्ष होता है। इससे तेरे लिए हे अर्जुन! कर्तव्य (जो भक्ति करनी चाहिए) और अकत्र्तव्य (जो भक्ति न करनी चाहिए) की व्यवस्था में शास्त्रा ही प्रमाण हैं। गीता अध्याय 17 श्लोक 1 में अर्जुन ने पूछा कि हे कृष्ण! (क्योंकि अर्जुन मान रहा था कि श्री कृष्ण ही ज्ञान सुना रहा है, परन्तु श्री कृष्ण के शरीर में प्रेत की तरह प्रवेश करके काल (ब्रह्म) ज्ञान बोल रहा था जो पहले प्रमाणित किया जा चुका है)। जो व्यक्ति शास्त्राविधि को त्यागकर अन्य देवताओं आदि की पूजा करते हैं, वे स्वभाव में कैसे होते हैं? गीता ज्ञान दाता ने उत्तर दिया कि सात्विक व्यक्ति देवताओं का पूजन करते हैं। राजसी व्यक्ति यक्षों व राक्षसों की पूजा तथा तामसी व्यक्ति प्रेत आदि की पूजा करते हैं। ये सब शास्त्राविधि रहित कर्म हैं। फिर गीता अध्याय 17 श्लोक 5-6 में कहा है कि जो मनुष्य शास्त्राविधि से रहित केवल मनकल्पित घोर तप को तपते हैं, वे दम्भी (ढ़ोंगी) हैं और शरीर के कमलों में विराजमान शक्तियों को तथा मुझे भी क्रश करने वाले राक्षस स्वभाव के अज्ञानी जान।

सूक्ष्मवेद में भी परमेश्वर जी ने कहा है कि:-

‘‘कबीर, माई मसानी सेढ़ शीतला भैरव भूत हनुमंत।
परमात्मा से न्यारा रहै, जो इनको पूजंत।।
राम भजै तो राम मिलै, देव भजै सो देव।
भूत भजै सो भूत भवै, सुनो सकल सुर भेव।।‘‘

स्पष्ट हुआ कि श्री ब्रह्मा जी (रजगुण), श्री विष्णु जी (सत्गुण) तथा श्री शिवजी (तमगुण) की पूजा (भक्ति) नहीं करनी चाहिए तथा इसके साथ-साथ भूतों, पितरों की पूजा, (श्राद्ध कर्म, तेरहवीं, पिण्डोदक क्रिया, सब प्रेत पूजा होती है) भैरव तथा हनुमान जी की पूजा भी नहीं करनी चाहिए।

प्रश्न 18: क्या क्षर पुरुष (ब्रह्म) की पूजा (भक्ति) करनी चाहिए या नही?

उत्तर: यदि पूर्ण मोक्ष चाहते हो जो गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में बताया है कि ‘‘तत्वज्ञान प्राप्ति के पश्चात् परमेश्वर के उस परमपद की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर फिर कभी संसार में जन्म नहीं लेता।’’ तो क्षर पुरुष (ब्रह्म) ‘‘जो संसार रुपी वृक्ष की डार है’’ की पूजा (भक्ति) नहीं करनी चाहिए।

प्रश्न 19: पूर्व में जितने ऋषि-महर्षि हुए हैं, वे सब ब्रह्म की पूजा करते और कराते थे। ‘‘ओम्‘‘ (ऊँ) नाम को सबसे बड़ा तथा उत्तम मन्त्र जाप करने का बताते थे, क्या वे अज्ञानी थे? यदि ब्रह्म की भक्ति उत्तम नहीं है तो गीता में कोई प्रमाण बताऐं।

उत्तर: पूर्व में बताया गया है कि यथार्थ अध्यात्म ज्ञान स्वयं परमेश्वर (परम अक्षर ब्रह्म) धरती पर सशरीर प्रकट होकर ठीक-ठीक बताता है। देखें प्रमाण वेद मन्त्रों में इसी पुस्तक के पृष्ठ 104 पर। परमेश्वर द्वारा बताए ज्ञान को सूक्ष्मवेद (तत्वज्ञान) कहा गया है। तत्वज्ञान में परमात्मा ने बताया है कि:-

गुरु बिन काहू न पाया ज्ञाना, ज्यों थोथा भुस छड़े मूढ़ किसाना।
गुरु बिन बेद पढ़ै जो प्राणी, समझे ना सार रहे अज्ञानी।।

जिन ऋषियों व महर्षियों को सत्गुरु नहीं मिला। उनकी यह दशा थी कि वेद पढ़ते थे परन्तु वेदों का सार नहीं समझ सके। उदाहरण के लिये श्री देवी पुराण (सचित्र मोटा टाईप, गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित) के पृष्ठ 414 पर (चैथे स्कन्द में) लिखा है कि सत्ययुग के ब्राह्मण (महर्षि) वेद के पूर्ण विद्वान होते थे और श्री देवी (दुर्गा) की पूजा करते थे।

विचार करें:- श्रीमद्भगवत गीता चारों वेदों का सारांश है। आप जी गीता जी को तो जानते ही हो, पढ़ते भी होंगे। क्या गीता में कहीं लिखा है कि ‘श्री देवी’ की पूजा करो? इसी प्रकार चारों वेदों में कहीं नहीं लिखा है कि दुर्गा (श्री देवी) की पूजा करो, तो क्या समझा वेदों को उन महर्षियों ने? क्या खाक विद्वान थे सत्ययुग के महर्षि? उन्हीं महर्षियों का मनमाना विधान है कि ऊँ (ओम्) नाम सबसे बड़ा अर्थात् उत्तम है जो कहते थे कि ब्रह्म पूजा (भक्ति) सर्वश्रेष्ठ है। प्रिय पाठको! जो ब्रह्म की पूजा इष्ट देव मानकर करते थे, वे ज्ञानी थे। उनकी ब्रह्म साधना अनुत्तम गति देने वाली है।

गीता में प्रमाण: श्रीमद्भगवत् अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 में तो बताया है कि जो तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शंकर) की पूजा करने वाले राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए मनुष्यों में नीच दूषित कर्म करने वाले मूर्ख मुझे भी नहीं भजते। यह गीता ज्ञान दाता ने कहा है। फिर गीता अध्याय 7 के ही श्लोक 16 से 18 तक में गीता ज्ञान दाता (ब्रह्म) ने कहा है कि मेरी भक्ति चार प्रकार से करते हैं। अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु तथा ज्ञानी। फिर कहा कि ज्ञानी मुझे अच्छा लगता है, ज्ञानी को मैं अच्छा लगता हूँ। (गीता अध्याय 7 श्लोक 18) इस श्लोक में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि ये ज्ञानी आत्मा हैं तो उदार (अच्छी) परन्तु ये सब मेरी अनुत्तम गति अर्थात् घटिया गति में आश्रित हैं। इस श्लोक (गीता अध्याय 7 श्लोक 18) में गीता ज्ञान दाता ब्रह्म स्वयं स्वीकार कर रहा है कि मेरी भक्ति से होने वाली गति अनुत्तम (अश्रेष्ठ = घटिया) है।

गीता अध्याय 7 श्लोक 19 में कहा है कि:-

बहुनाम्, जन्मानाम्, अन्ते, ज्ञानवान्, माम्, प्रपद्यते,
वासुदेवः, सर्वम्, इति, सः, महात्मा, सुदुर्लभः।।

अनुवाद:- गीता ज्ञान दाता ब्रह्म ने कहा है कि मेरी भक्ति बहुत-बहुत जन्मों के अन्त में कोई ज्ञानी आत्मा करता है अन्यथा अन्य देवी देवताओं व भूत, पितरों की भक्ति में जीवन नाश करते रहते हैं। गीता ज्ञान दाता ने अपनी भक्ति से होने वाले लाभ अर्थात् गति को भी गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में अनुत्तम (घटिया) बता दिया है। इसलिए गीता अध्याय 7 श्लोक 19 में कह रहा है कि:-

यह बताने वाला महात्मा मुश्किल से मिलता है कि ‘‘वासुदेव’’ ही सब कुछ है। यही सबका सृजनहार है। यही पापनाशक, पूर्ण मोक्षदायक, यही पूजा के योग्य है। यही (वासुदेव ही) कुल का मालिक परम अक्षर ब्रह्म है। केवल इसी की भक्ति करो, अन्य की नहीं।

गीता ज्ञान दाता ने भी स्वयं कहा है कि ‘‘हे अर्जुन! तू सर्वभाव से उस परमेश्वर की शरण में जा। उस परमेश्वर की कृपा से ही तू परमशान्ति को तथा सनातन परमधाम (सत्यलोक) को प्राप्त होगा।‘‘ (यह गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में प्रमाण है) फिर गीता अध्याय 18 श्लोक 46 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि ‘‘जिस परमेश्वर से सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है, जिससे यह समस्त जगत व्याप्त है। उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्म करते-करते पूजा करके मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है। फिर गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि तत्वज्ञान को समझकर उसके पश्चात् परमेश्वर के उस परमपद की खोज करनी चाहिए। जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर संसार में नहीं आता, जिस परमेश्वर से संसार रुपी वृक्ष की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई है अर्थात् जिस परमेश्वर ने सर्व की रचना की है, उसी की पूजा करो। इससे सिद्ध हुआ कि उन ऋषियों को वेद का गूढ़ रहस्य समझ नहीं आया। वे अज्ञानी रहे।

प्रश्न 20: गीता ज्ञान दाता ने अपनी गति को अनुत्तम क्यों कहा?

उत्तर: गीता ज्ञान दाता ने अध्याय 2 श्लोक 12 गीता अध्याय 4 श्लोक 5, गीता अध्याय 10 श्लोक 2 में कहा है कि अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं। तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। मेरी उत्पत्ति को ऋषि-महर्षि तथा देवता नहीं जानते। तू और मैं तथा ये राजा व सैनिक बहुत बार पहले भी जन्मे हैं, आगे भी जन्मेंगे। पाठक जन विचार करें! जब ब्रह्म कह रहा है कि मेरा भी जन्म-मरण होता है तो ब्रह्म के पुजारी को गीता अध्याय 15 श्लोक 4 वाली गति (मोक्ष) प्राप्त नहीं हो सकती जिसमें जन्म-मरण सदा के लिए समाप्त हो जाता है। जब तक जन्म-मरण है, तब तक परमशान्ति नहीं हो सकती। उसके लिए गीता ज्ञानदाता ने असमर्थता व्यक्त की है। गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि परमशान्ति के लिए उस परमेश्वर (परम अक्षर ब्रह्म) की शरण में जा, उसी की कृप्या से ही तू परमशान्ति को तथा सनातन परम धाम को प्राप्त होगा। गीता अध्याय 8 श्लोक 5 व 7 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि मेरी भक्ति करेगा तो युद्ध भी करना पड़ेगा, जहाँ युद्ध है, वहाँ शान्ति नहीं होती, परम शान्ति का घर दूर है। इसलिए गीता ज्ञान दाता ने अपनी गति को (ऊँ नाम के जाप से होने वाला लाभ) अनुत्तम (घटिया) बताया है।

प्रश्न 21: आपने प्रश्न नं. 13 के उत्तर में कहा है कि पूर्ण मोक्ष की प्राप्ति के लिए ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गणेश तथा देवी और क्षर ब्रह्म व अक्षर ब्रह्म की साधना करनी पड़ती है। दूसरी ओर कह रहे हो कि ब्रह्मा, विष्णु, शिव अन्य देवता हैं, क्षर ब्रह्म भी पूजा (भक्ति) योग्य नहीं है। केवल परम अक्षर ब्रह्म की ही पूजा (भक्ति) करनी चाहिए?

उत्तर: मैं नहीं कह रहा, आपके सद्ग्रन्थ कह रहे हैं, पहले तो यह स्पष्ट करते हैं कि पूजा तथा साधना में क्या अन्तर है?

  • प्राप्य वस्तु की चाह पूजा कही जाती है तथा उसको प्राप्त करने के प्रयत्न को साधना कहते हैं।

उदाहरण: जैसे हमें जल प्राप्त करना है। यह हमारा प्राप्य है। हमें जल की चाह है। जल की प्राप्ति के लिए हैण्डपम्प लगाना पड़ेगा। हैण्डपम्प लगाने के लिए जो-जो उपकरण प्रयोग किए जाएंगे, बोकी लगाई जाएगी, यह प्रयत्न है। इसी प्रकार परमेश्वर का वह परमपद प्राप्त करना हमारी चाह है, जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर संसार में नहीं आता। हमारा प्राप्य परमेश्वर तथा उनका सनातन परम धाम है। उसको प्राप्त करने के लिए किया गया नाम जाप हवन-यज्ञ आदि-2 साधना है। उस साधना से पूज्य वस्तु परमात्मा प्राप्त होगा। जैसे प्रश्न 13 के उत्तर में स्पष्ट किया है, वही सटीक उदाहरण है। उस पूर्ण मोक्ष के लिए तीन बार में दीक्षा क्रम पूरा करना होता है।

  1. प्रथम नाम दीक्षा = ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गणेश, देवी के मन्त्रों की साधना दी जाती है।

  2. दूसरी बार में क्षर ब्रह्म तथा अक्षर ब्रह्म के दो अक्षर मन्त्र जाप दिए जाते हैं जिसको सन्तों ने ‘‘सत् नाम’’ कहा है। गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में तीन नाम हैं, ‘‘ओम्-तत्-सत्‘‘ इस सतनाम में दो अक्षर होते हैं, एक ‘‘ओम्‘‘ (ऊँ) दूसरा ‘‘तत्‘‘ है। (यह सांकेतिक अर्थात् गुप्त नाम है जो उपदेश के समय उपदेशी को ही बताया जाता है)

  3. तीसरी बार में सारनाम की दीक्षा दी जाती है जिस मन्त्र को गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में ‘‘सत्’’ कहा है, यह भी सांकेतिक है। उपदेश लेने वाले को दीक्षा के समय बताया जाता है। इस प्रकार पूर्ण मोक्ष प्राप्त होता है।

प्रश्न 22: जो साधना हम पहले कर रहे हैं, क्या वह त्यागनी पड़ेगी?

उत्तर: यदि शास्त्रविधि रहित है तो त्यागनी पड़ेगी। यदि अनाधिकारी से दीक्षा ले रखी है, उसका कोई लाभ नहीं होना। पूर्ण गुरु से साधना की दीक्षा लेनी पड़ेगी। प्रश्न 23: गीता अध्याय 18 श्लोक 47 में तथा गीता अध्याय 3 श्लोक 35 में कहा है:-

श्रेयान् स्वधर्मः विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनम् श्रेयः परधर्मः, भयावहः।। (गीता अध्याय 3 श्लोक 35)

अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय को देने वाला है।

उत्तर: यह अनुवाद गलत है। यदि यह बात सही है कि अपना धर्म चाहे गुणरहित हो तो भी उसे नहीं त्यागना चाहिए तो फिर श्रीमद्भगवत गीता का ज्ञान 18 अध्यायों के 700 श्लोकांे में लिखने की क्या आवश्यकता थी? एक यह श्लोक पर्याप्त था कि अपनी साधना जैसी भी हो उसे करते रहो, चाहे वह गुणरहित (लाभ रहित) भी क्यों न हो। फिर गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 में यह क्यों कहा कि रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव की पूजा राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूर्ख लोग मुझे नहीं भजते। गीता ज्ञान दाता ने उन साधकों से उनका धर्म अर्थात् धार्मिक साधना त्यागने को कहा है तथा गीता अध्याय 7 के ही श्लोक 20 से 23 में कहा है कि जो मेरी पूजा न करके अन्य देवताओं की पूजा करते हैं, वे अज्ञानी हैं। उनकी साधना से शीघ्र समाप्त होने वाला सुख (स्वर्ग समय) प्राप्त होता है। फिर अपनी धार्मिक पूजा अर्थात् धर्म भी त्यागने को कहा है। पूर्ण लाभ के लिए परम अक्षर ब्रह्म का धर्म अर्थात् धार्मिक साधना ग्रहण करने के लिए कहा है।

गीता अध्याय 3 श्लोक 35 का यथार्थ अनुवाद इस प्रकार है:-

अनुवाद: (विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्) दूसरों के गुण रहित अर्थात् लाभ रहित अच्छी प्रकार चमक-धमक वाले धर्म अर्थात् धार्मिक कर्म से (स्वर्धमः) अपना शास्त्राविधि अनुसार धार्मिक कर्म (श्रेयान्) अति उत्तम है। (स्वधर्मे) अपने शास्त्राविधि अनुसार धर्म-कर्म के संघर्ष में (निधनम्) मरना भी (श्रेयः) कल्याणकारक है। (परधर्म) दूसरों का धार्मिक कर्म (भयावहः) भय को देने वाला है। भावार्थ है कि जैसे जागरण वगैरह होता है तो उसमें बड़ी सुरीली तान में सुरीले गीत गाए जाते हैं। तड़क-भड़क भी होती है। अपने शास्त्राविधि अनुसार धर्म-कर्म में केवल नाम-जाप या सामान्य तरीके से आरती की जाती है। किसी भी वेद या गीता में श्री देवी जी की पूजा तथा जागरण करने की आज्ञा नहीं है। जिस कारण शास्त्राविधि त्यागकर मनमाना आचरण हुआ, इसलिए व्यर्थ है। दूसरों का शास्त्रविधि रहित धार्मिक कर्म देखने में अच्छा लगता है, उसमें लोग-दिखावा अधिक होता है तो सत्य साधना करने वाले को दूसरों के धार्मिक कर्म को देखकर डर बन जाता है कि कहीं हमारी भक्ति ठीक न हो। परन्तु तत्व ज्ञान को समझने के पश्चात् यह भय समाप्त हो जाता है। तत्व ज्ञान में बताया है कि:-

दुर्गा ध्यान पड़े जिस बगड़म, ता संगति डूबै सब नगरम्।
दम्भ करें डूंगर चढ़ै, अन्तर झीनी झूल।
जग जाने बन्दगी करें, बोवें सूल बबूल।।

इसलिए विगुण अर्थात् लाभरहित धार्मिक साधना को त्यागकर सत्य साधना शास्त्राविधि अनुसार करने से ही कल्याण होगा।

प्रश्न 24:- मैंने पारखी संत श्री अभिलाष दास के विचार सुने थे। वे कह रहे थे कि संसार का कोई रचने वाला भगवान वगैरह नहीं है। यह नर-मादा के संयोग से बनता है। फिर समाप्त हो जाता है। कोई भगवान नहीं है। जीव ही ब्रह्म है, जीव ही कर्ता है, अभिलाष दास के ये विचार उचित हैं या अनुचित?

उत्तर:- इसका उत्तर श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 16 श्लोक 6 से 10 में विस्तार से दिया गया है। कहा है कि जो आसुरी प्रकृति के लोग होते हैं, वे कहा करते हैं कि संसार बिना ईश्वर के है, स्त्राी-पुरुष से उत्पन्न है अर्थात् नर-मादा से उत्पन्न है। इसका कोई कर्ता नहीं है। ऐसे व्यक्ति संसार का नाश अर्थात् बुरा करने के लिए ही जन्म लेते हैं। वास्तविकता यह है कि परमात्मा सर्व संसार का सृजनहार है। जीव ब्रह्म नहीं है। ब्रह्म का अर्थ प्रभु (स्वामी) होता है। जैसे (1) ब्रह्म (जिसको क्षर पुरुष भी कहा गया है) 21 ब्रह्माण्डों का स्वामी है। (2) अक्षर ब्रह्म (जिसको अक्षर पुरुष भी कहा गया है, गीता अध्याय 15 श्लोक 16) यह 7 शंख ब्रह्माण्डों का स्वामी है। (3) पूर्ण ब्रह्म (जिसको गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में परम अक्षर ब्रह्म कहा है) असंख्य ब्रह्माण्डों का स्वामी है। यह कुल का मालिक है। यह कहना कि कोई भगवान नहीं है, संसार केवल स्त्राी-पुरुष या नर-मादा से उत्पन्न होता है, समाप्त हो जाता है। जीव ही कर्ता है अर्थात् जीव ही ब्रह्म है, यह पूर्णतया अनुचित है।

प्रश्न 25: श्रीमद्भगवत् गीता में ज्ञान दाता ने अध्याय 8 श्लोक 5 तथा 7 में कहा है कि जो पुरुष अन्त काल में भी मेरा स्मरण करता हुआ शरीर त्यागकर जाता है, वह मुझे प्राप्त होता है। इसलिए अर्जुन! सब समय में मेरा स्मरण कर, युद्ध भी कर, मुझे ही प्राप्त होगा। इसलिए गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि उस परमात्मा की शरण में जा। गीता ज्ञान दाता ने घुमा-फिराकर कहा है कि मेरी ही साधना स्मरण कर, आप अन्य परमात्मा बता रहे हो, वह विश्वसनीय नहीं है। क्या गीता में कहीं और भी लिखा है गीता ज्ञान दाता से अन्य परमात्मा की भक्ति साधना करने के लिए?

उत्तर: गीता अध्याय 7 श्लोक 29 में गीता ज्ञान दाता ने बताया है कि जो साधक केवल जरा (वृद्ध अवस्था) तथा मरण (मृत्यु) से छूटने के लिए प्रयत्नशील हैं, वे ‘‘तत् ब्रह्म’’ से परिचित हैं। अर्जुन ने गीता अध्याय 8 श्लोक 1 में पूछा कि ‘‘तत् ब्रह्म’‘ क्या है? गीता ज्ञान दाता ने अध्याय 8 श्लोक 3 में बताया कि वह ‘‘परम अक्षर ब्रह्म’’ है। गीता अध्याय 8 श्लोक 5 व 7 में तो गीता ज्ञान दाता ने अपनी साधना यानि स्मरण करने को कहा है। (गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 2 श्लोक 12 तथा अध्याय 4 श्लोक 5 व अध्याय 10 श्लोक 2 में अपना जन्म-मरण भी कहा है। कहा है कि मेरी भक्ति से परमशान्ति नहीं हो सकती, युद्ध भी करना पड़ेगा। गीता ज्ञान दाता का यह भी कहना है कि जन्म-मरण में सदा रहेगा।) तुरन्त ही गीता अध्याय 8 श्लोक 8, 9 तथा 10, इन तीन श्लोकों में गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य ‘‘परम अक्षर ब्रह्म’‘ की भक्ति करने को कहा है कि हे पार्थ! परमेश्वर की साधना के अभ्यास योग से युक्त अन्य किसी देव या प्रभु में अपनी आस्था न रखकर एक परमेश्वर का अनन्य चित्त से स्मरण करता हुआ मनुष्य (परमम् दिव्यम् पुरुषम् याति) उस परम अलौकिक परमेश्वर अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म को ही प्राप्त होता है। (गीता अध्याय 8 श्लोक 8)

जो साधक परम अक्षर ब्रह्म, अनादि, सब का संचालक, कन्ट्रोलर, सूक्ष्म से सूक्ष्म सबके धारण-पोषण करने वाले अचिन्त स्वरुप सूर्य के समान प्रकाशमान अविद्या से अति परे शुद्ध चिदानन्द परमेश्वर का स्मरण करता है। (गीता अध्याय 8 श्लोक 9)

वह भक्ति साधनायुक्त साधक अन्तकाल में भी भक्ति की शक्ति से भृकुटी के मध्य में प्राणों अर्थात् श्वांसों को अच्छी प्रकार स्थापित करके फिर निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस (दिव्य परम पुरुषम) अलौकिक परम पुरुष अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म (जो गीता ज्ञान दाता से अन्य है) को ही प्राप्त होता है। यह प्रमाण गीता के इसी अध्याय 8 श्लोक 11 से 22 में भी है। गीता अध्याय 8 श्लोक 11 में कहा है कि तत्वदर्शी अर्थात् वेद को ठीक से जानने वाले जिसे अविनाशी कहते हैं, उस परम पद को तेरे लिए कहता हूँ। गीता अध्याय 8 श्लोक 12 में वर्णन है कि उसको प्राप्त करने की साधना श्वांसों से नाम-स्मरण करने से होती है।

गीता अध्याय 8 श्लोक 13 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि मुझ ब्रह्म का केवल एक ओम् (ऊँ) अक्षर है, इसका स्मरण मरते दम तक करना है। वह इस मन्त्र से होने वाली परम गति अर्थात् ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है।

गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में कहा है कि ब्रह्म लोक में गए साधक भी पुनः लौटकर संसार में जन्म लेते हैं, फिर मरते हैं। यह पूर्ण मोक्ष नहीं है। गीता अध्याय 8 श्लोक 14 में कहा है कि जो मेरी साधना स्मरण करता है, उसके लिए मैं सुलभ हूँ।

गीता अध्याय 8 श्लोक 15 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि मुझे प्राप्त होकर तो सदा पुनर्जन्म होता है जो दुःखों का घर, क्षण भंगुर जीवन है और जो साधक परम अक्षर ब्रह्म की साधना भक्ति करते हैं वे परम सिद्धि को प्राप्त होकर अमर हो जाते हैं, वे पुनः जन्म-मरण को प्राप्त नहीं होते।

गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि ब्रह्मलोक तक सब लोक पुनरावर्ती में हैं अर्थात् ब्रह्मलोक तक सब लोकों में गए साधक सदा जन्म-मृत्यु के चक्र में रहते हंै। हे अर्जुन! जो यह नहीं जानते, वे मुझे प्राप्त होकर भी जन्म-मृत्यु के चक्र में सदा रहते हैं क्योंकि गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 2 श्लोक 12, अध्याय 4 श्लोक 5, अध्याय 10 श्लोक 2 में स्वयं कहा है कि हे अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं। आगे भी होते रहेंगे, तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। मेरी उत्पत्ति (जन्म) को न देवता जानते हंै, न महर्षिजन और न सिद्ध जानते हैं, परंतु परम अक्षर ब्रह्म की भक्ति करके परम सिद्धि यानि परमगति को प्राप्त महात्माजन पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होते।

गीता अध्याय 8 श्लोक 17 में अक्षर पुरुष (पर ब्रह्म) के दिन-रात का वर्णन है। बताया है कि (ब्रह्मणः) परब्रह्म का एक दिन एक हजार युग का होता है, इतनी ही रात्रि होती है। परब्रह्म अर्थात् अक्षर पुरुष का वर्णन गीता अध्याय 15 श्लोक 16 में है। उसी का प्रकरण गीता अध्याय 8 श्लोक 17-18-19 में है।

नोट: अधिक जानकारी के लिए कृप्या पढ़ें प्रश्न नं. 9 में गीता अध्याय 8 श्लोक 17 से 19 में अक्षर पुरुष की जानकारी है, इसे भी अव्यक्त कहा गया है। इसका दिन समाप्त होने के पश्चात् सर्व प्राणी जो क्षर पुरूष के 21 ब्रह्माण्डों में हैं, प्रलय यानि नाश को प्राप्त हो जाते हैं, रात्रि पूरी होने के पश्चात् पुनः दिन में संसार में जीव उत्पन्न होते हैं।

गीता अध्याय 8 श्लोक 20 में कहा है कि यह अक्षर पुरुष भी अव्यक्त कहा जाता है। परंतु इस अव्यक्त से दूसरा जो विलक्षण सनातन अव्यक्त भाव है, वह परम दिव्य पुरुष अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म तो सब प्राणियों के (क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष तथा इनके अन्तर्गत जितने भी जीव हैं, इन सब के) नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता अर्थात् वास्तव में अनिवाशी है।

गीता अध्याय 8 श्लोक 21 में कहा है कि जो अव्यक्त (अक्षर) अविनाशी इस नाम से कहा गया है, उस परम पुरुष की प्राप्ति को परम गति कहते हैं। जिस सनातन अव्यक्त परम पुरुष को प्राप्त होकर वापिस जन्म-मरण में नहीं आते। वह मेरे धाम से श्रेष्ठ धाम है। पहले मैं भी उसी में रहता था। इसलिए कहा है कि वह मेरा भी परम धाम है क्योंकि गीता ज्ञान दाता भी उस परम सनातन धाम अर्थात् सत्यलोक से निष्कासित है। (इसकी पूर्ण जानकारी के लिए कृप्या पढ़ें सृष्टि रचना इसी पुस्तक के पृष्ठ 120 से 187 तक।)

गीता अध्याय 8 श्लोक 22 में स्पष्ट है, गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि हे अर्जुन! जिस परमात्मा के अन्तर्गत सर्वभूत अर्थात् प्राणी हैं, (क्षर पुरुष तथा इसके 21 ब्रह्माण्डों के प्राणी तथा अक्षर पुरुष तथा सात संख ब्रह्माण्डों में इसके अन्तर्गत जितने प्राणी आते हैं, वे तथा परम अक्षर पुरुष के असंख्य ब्रह्माण्डों में जितने प्राणी हैं, वे परम अक्षर ब्रह्म के अन्तर्गत हैं।) और जिस परम अक्षर पुरुष से यह सर्व जगत परिपूर्ण अर्थात् जिसने सर्व को उत्पन्न किया है, जिसकी सत्ता सर्व के ऊपर है, वह सनातन अव्यक्त परम पुरुष तो अनन्य भक्ति से प्राप्त करने योग्य है। भावार्थ है कि परम अक्षर ब्रह्म को प्राप्त करने के लिए केवल इसी की भक्ति (पूजा) करनी चाहिये। अन्य किसी प्रभु में आस्था नहीं रखनी चाहिए। इसी को अनन्य भक्ति अर्थात् पूजा कहते हैं।

केवल परम अक्षर ब्रह्म की पूजा करना अनन्य भक्ति कहलाती है। यदि गीता अध्याय 8 श्लोक 22 का सही अनुवाद करें तो स्पष्ट है कि:-

पुरूषः, सः, परः, पार्थ, भक्तया, लभ्यः, तु, अनन्या,
यस्य, अन्तःस्थानि, भूतानि, येन, सर्वम्, इदम्, ततम्

अनुवाद:- (सः) वह (परः) दूसरा (पुरुषः) परमात्मा तो अनन्य भक्ति से प्राप्त होने योग्य है, जिसके अन्तर्गत सर्व प्राणी हैं और जिसने सर्व जगत की उत्पत्ति की है, जो सर्व का पालन कर्ता है। सरलार्थ समाप्त (गीता अध्याय 8 श्लोक 22) इसके मूल पाठ में यानि संस्कृत में लिखा है = सः परः पुरुषः = पर का अर्थ गीता अध्याय 8 श्लोक 20 में परे किया है यानि अन्य। यहाँ (गीता अध्याय 8 श्लोक 22 में) भी अन्य लिया जाता तो स्पष्ट हो जाता है कि गीता ज्ञान दाता से अन्य कोई समर्थ प्रभु है। जिसकी शरण में जाने के लिए गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है।

उपरोक्त विवरण से सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञान दाता ने श्रीमद्भगवत् गीता में अनेकों स्थानों पर अपने से अन्य परमेश्वर (परम अक्षर ब्रह्म) की भक्ति करने को कहा है। उसी से पूर्ण मोक्ष सम्भव है। जन्म-मरण का चक्र सदा के लिए समाप्त हो जाता है। प्रमाण:- गीता अध्याय 7 श्लोक 19, 29, गीता अध्याय 18 श्लोक 46, 61, 62 ,66, गीता अध्याय 3 श्लोक 9ए गीता अध्याय 8 श्लोक 3, 8, 9, 10, 20 से 22ए गीता अध्याय 4 श्लोक 31.32ए गीता अध्याय 15 श्लोक 1, 4, 17, गीता अध्याय 2 श्लोक 17ए59ए गीता अध्याय 3 श्लोक 14,15, 19 और गीता अध्याय 5 श्लोक 14,15,16,19, 20, 24, 25, 26 में भी यह प्रमाण है।

प्रश्न 26:- हमने सर्व सन्तों तथा हमारे हिन्दू धर्म के धर्मगुरूओं से तो यही सुना है कि गीता का ज्ञान श्री कृष्ण जी ने अर्जुन को सुनाया। हमें तो यही बताया गया है कि श्री कृष्ण जी पूर्ण परमात्मा हैं। श्री विष्णु जी ही स्वयं अवतार धारण करके देवकी जी के गर्भ से जन्मे थे। इनके अतिरिक्त कोई परमात्मा नहीं है। आप जी के सत्संग सुने हैं, उनमें आप ने बहुत अटपटी-सी बात कही है कि गीता ज्ञान दाता से अन्य है पूर्ण परमात्मा। उसका प्रमाण शास्त्र में दिखाओ-बताओ तो विश्वास हो सकता है।

उत्तर:- आपजी को उपरोक्त प्रश्नों के उत्तर में यही प्रमाण दिखाए हैं। आपको अभी भी शंका है। उसका कारण है कि पहली बात तो यह कि हिन्दू धर्मगुरूओं को अपने ही शास्त्रों का ज्ञान नहीं। यदि ज्ञान होता तो उपरोक्त शास्त्राविरूद्ध व्याख्या आप जी को नहीं सुनाते। दूसरी बात यह है कि धार्मिक गुरू एक अध्यापक के समान होता है। जिस अध्यापक को अपने पाठ्यक्रम (सलेबस) का ही ज्ञान नहीं हैं तो वह शिक्षक अज्ञानी माना जाता है तथा विद्यार्थियों के जीवन के साथ खिलवाड़ कर रहा है क्योंकि सलेबस के विपरीत ज्ञान विद्यार्थियों को रटा रहा है। ऐसे शिक्षक से बचना चाहिए। उसको त्याग देने में ही विद्यार्थियों का हित है।

आपको श्रीमद्भगवत् गीता में से ढे़र सारे प्रमाण बताते हैं कि पूर्ण परमात्मा गीता ज्ञान दाता से अन्य है, वही उपासना योग्य है। उसी की भक्ति से पूर्ण मोक्ष प्राप्त होता है। यहाँ गीता के कुछ श्लोक लिखता हूँ, आप इनको गीता शास्त्र में स्वयं देख सकते हैं जो इस पुस्तक में पृष्ठ 204 से 357 तक श्लोकों की फोटोकाॅपी लगाई हैं। यथार्थ रूप में गीता के अनुवाद को जानने के लिए मेरे द्वारा किया गया श्री मद्भगवत् गीता का संपूर्ण श्लोकों का अनुवाद प्राप्त करें।

पुस्तक का नाम है “गहरी नजर गीता में”, इसको हमारी website से डाउनलोड कर सकते हैं। (website का नाम है = www.jagatgururampalji.org/publications)

गीता अध्याय 18 श्लोक 46, 61,62,66, अध्याय 7 श्लोक 19, 29, अध्याय 8 श्लोक 3, 8, 9, 10, 20, 21, 22, अध्याय 4 श्लोक 31-32ए अध्याय 15 श्लोक 1,4, 16, 17, अध्याय 2 श्लोक 17, 59, अध्याय 3 श्लोक 14-15, 19, अध्याय 5 श्लोक 14,15,16, 19, 20, 24, 25, 26, अध्याय 6 श्लोक 7ए अध्याय 11 श्लोक 55, अध्याय 12 श्लोक 1 से 5 उपरोक्त गीता श्लोकों में प्रमाण है कि गीता ज्ञान दाता से अन्य कोई पूर्ण परमात्मा है। उसके विषय में तथा उसकी प्राप्ति के लिए भक्ति की साधना से गीता ज्ञान दाता भी अनभिज्ञ (अपरिचित) है। प्रमाण गीता अध्याय 4 श्लोक 32 तथा 34 में हैं। गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि (4:32), यज्ञों अर्थात् धार्मिक अनुष्ठानों का विस्तृत ज्ञान (ब्रह्मणः मुखे) सच्चिदानन्द घन ब्रह्म के मुख कमल से उच्चरित वाणी में है जो परमात्मा स्वयं पृथ्वी पर प्रकट होकर अपने मुख से बोलता है, उसे तत्वज्ञान कहते हैं, उसी को सूक्ष्म वेद भी कहते हैं। उस ज्ञान को बाद में तत्वदर्शी सन्त ही जानते हैं। उस ज्ञान में पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति तथा स्थिति का सम्पूर्ण ज्ञान होता है।

(नोटः- गीता अनुवादकों ने गीता अध्याय 4 श्लोक 32 के अनुवाद में कुछ त्रुटि की है जैसे “ब्रह्मणः” शब्द का अर्थ “वेद” किया है जो अनुचित है। “ब्रह्मणः” शब्द का यथार्थ अर्थ गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में किया है। “ब्रह्मणः” = सचिदानन्द घन ब्रह्म अर्थात् पूर्ण परमात्मा)

{पाठकों से विशेष निवेदन:- आप जी गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित गीता में प्रमाण मिलाएं, विशेषकर “पदच्छेद, अन्वय साधारण भाषा टीका सहित” अनुवादक श्री जयदयाल गोयन्दका तथा श्री रामसुख दास जी द्वारा अनुवादित गीता में देखें। पुस्तक ‘‘गीता तेरा ज्ञान अमृत’’ में जितने श्लोक प्रमाण में लिये हैं। उन सबकी फोटोकापी इसी पुस्तक के पृष्ठ 204 से 357 तक लगाई हैं जो हिन्दू संत विद्वान श्री जयदयाल गोयन्दका द्वारा अनुवादित हैं तथा गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित हैं।}

गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि जिस ज्ञान को परमात्मा स्वयं अपने मुख कमल से बोलता है, वह तत्वज्ञान है। उसमें विस्तृत जानकारी यज्ञों अर्थात् धार्मिक अनुष्ठानों की कही है, उस ज्ञान को तू तत्वदर्शी सन्तों के पास जाकर समझ। उनको दण्डवत् प्रणाम करने से तथा विन्रमतापूर्वक प्रश्न करने से वे तत्वज्ञान को जानने वाले महात्मा आपको तत्वज्ञान बताऐंगे। इससे सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञान दाता को तत्वज्ञान की जानकारी नहीं है। तत्वज्ञान श्री मद्भगवत गीता में नहीं है। यदि तत्वज्ञान गीता ज्ञान दाता को होता तो एक अध्याय और बोल देते।

ऊपर लिखे श्री मद्भगवत् गीता जी के श्लोकों में स्पष्ट है कि गीता ज्ञान दाता से अन्य कोई समर्थ अविनाशी, पूर्ण मोक्ष दाता, वास्तव में “परमात्मा” सब का धारण-पोषण करने वाला है। जिसकी शरण में जाने से सनातन परमधाम (शाश्वतम् स्थानम्) प्राप्त होता है तथा परम शान्ति प्राप्त होती है। उस परमपद में जाने के पश्चात् साधक कभी लौटकर संसार में नहीं आते अर्थात् जन्म-मृत्यु सदा के लिए समाप्त हो जाती है। अब उपरोक्त गीता के श्लोकों में से कुछेक का अनुवाद करके स्पष्ट करता हूँ।

गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि हे भारत! तू सर्वभाव से उस परमेश्वर की शरण में जा, उसकी कृपा से ही तू परमशान्ति को तथा सनातन परम धाम को प्राप्त हो जाएगा। हिन्दू धर्म के सन्त, मण्डलेश्वर, धर्मगुरू कहते हैं कि श्री कृष्ण जी अपनी ही शरण में जाने को कह रहे हैं। उन धर्मगुरूओं का यह कहना बिल्कुल अनुचित है क्योंकि गीता अध्याय 2 श्लोक 7 में कहा है कि हे श्री कृष्ण, मैं (अर्जुन) आपकी शरण में हूँ, आपका शिष्य हूँ। जो हमारे हित में हो, वही राय मुझे दीजिए। गीता अध्याय 4 श्लोक 3 में कहा है कि हे अर्जुन! तू मेरा भक्त है। इस गीता के उल्लेख से स्पष्ट हुआ कि अर्जुन तो पहले से ही श्री कृष्ण जी की शरण में था। इसलिए गीता अध्याय 18 श्लोक 62 का भावार्थ है कि गीता ज्ञान देने वाला अपने से अन्य परमेश्वर की शरण में जाने को कह रहा है। यह भी सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञान दाता से कोई अन्य “परमेश्वर” है।

अन्य प्रमाण:- गीता अध्याय 8 श्लोक 1 के प्रश्न का उत्तर गीता ज्ञान दाता ने श्लोक नं. 3 में दिया है कि वह “परम अक्षर ब्रह्म” है। फिर अध्याय 8 के ही श्लोक 5 तथा श्लोक 7 में तो अपनी भक्ति करने को कहा है। फिर श्लोक 8, 9, 10 में परम अक्षर ब्रह्म की भक्ति करने की राय दी है। गीता अध्याय 4 श्लोक 5 में, अध्याय 2 श्लोक 12 में, अध्याय 10 श्लोक 2 में गीता ज्ञान दाता ने अपनी स्थिति स्पष्ट की है कि यदि मेरी भक्ति करेगा तो जन्म-मृत्यु तेरे भी सदा बने रहेंगे और मेरे भी। गीता अध्याय 15 श्लोक 1 में तत्वदर्शी सन्त की पहचान बताई है कि जो व्यक्ति संसार रूपी वृक्ष के सर्व भाग मूल सहित तत्व से जानता है, (सः वेदवित्) वह वेद के तात्पर्य को जानने वाला है अर्थात् वह तत्वदर्शी सन्त है। फिर अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि तत्वदर्शी सन्त मिलने के पश्चात् परमेश्वर के उस परमपद को खोजना चाहिए, जहाँ जाने के पश्चात् साधक फिर लौटकर संसार में कभी जन्म-मृत्यु के चक्र में नहीं आते। गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में उसका वर्णन किया है कि अर्जुन तू सर्वभाव से उस परमेश्वर की शरण में जा। उस परमेश्वर की कृपा से ही तू परम शान्ति तथा सनातन परम धाम को प्राप्त हो जाएगा। यह परम शान्ति है क्योंकि साधक को पुनः जन्म नहीं लेना पड़ता। सदा के लिए अमर लोक (सनातन परम धाम) में निवास करेंगे। वहाँ नैष्कर्मय मोक्ष प्राप्त होता है जिसका भावार्थ है कि सत्यलोक (सनातन परम धाम) में बिना कार्य (कर्म) किए ही सब सुविधाऐं तथा पदार्थ प्राप्त होते हैं और अपने पुण्य कभी समाप्त नहीं होते, वैसे तो श्री ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गणेश, दुर्गा, ब्रह्म तथा परब्रह्म की भक्ति से भी नैष्कमर्य मोक्ष प्राप्त होता है, वह कुछ समय तक ही रहता है जो प्रत्येक देवता के लोक में बने स्वर्ग (होटल) में प्राप्त होता है। परन्तु वहाँ प्राणी को अपने पुण्यों का प्रतिफल ही प्राप्त होता है। पुण्यों के समाप्त होने के पश्चात् पुर्नजन्म तथा मृत्यु का चक्र पुनः प्रारम्भ हो जाएगा। (“नैष्कर्मय‘‘ मुक्ति का वर्णन गीता अध्याय 3 श्लोक 4 तथा अध्याय 18 श्लोक 49 में है।)

जिस सनातन परम धाम तथा शान्ति की प्राप्ति के लिए तथा उस परमेश्वर की शरण में जाने के लिए गीता अध्याय 18 श्लोक 62 तथा अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है, वह गीता ज्ञान दाता से अन्य पूर्ण परमात्मा है। गीता अध्याय 8 श्लोक 5 तथा 7 में तो गीता ज्ञान दाता ने अपनी भक्ति करने को कहा है। उससे तो जन्म-मृत्यु दोनों की बनी रहेगी। इसलिए फिर गीता अध्याय 8 श्लोक 8, 9, 10 में उस परमेश्वर की भक्ति करने के लिए कहा है जिसका वर्णन गीता अध्याय 18 श्लोक 62 तथा अध्याय 15 श्लोक 4 में है। फिर गीता अध्याय 8 के ही श्लोक 18 में कहा है (गीता अध्याय 15 श्लोक 16.17 में तीन पुरूष बताए हैं:-

  1. क्षर पुरूष, यह स्वयं गीता ज्ञान दाता है, इसे क्षर ब्रह्म भी कहते हैं। यह केवल 21 ब्रह्माण्डों का प्रभु है।
  2. अक्षर पुरूष, इसे परब्रह्म भी कहते हैं। यह केवल 7 शंख ब्रह्माण्डों का प्रभु है।
  3. परम अक्षर पुरूष है, जिसे परम अक्षर ब्रह्म, परमेश्वर, सत्य पुरूष, अविनाशी परमात्मा भी कहते हैं जो असँख्य ब्रह्माण्डों का स्वामी है। यहाँ पर अर्थात् श्रीमद्भगवत गीता के अध्याय 8 श्लोक 8, 9, 10, 20 तथा 22 में परम अक्षर पुरूष के विषय में वर्णन है। अध्याय 8 श्लोक 18 में अक्षर पुरूष के विषय में वर्णन है।)

जिस समय अक्षर पुरूष का एक दिन समाप्त होता है जो एक हजार युगों का होता है। ध्यान रहे गीता अध्याय 8 श्लोक 17 में मूल पाठ में केवल सहंस्र युग लिखा है न कि संहस्रचतुर्युग। इसलिए अक्षर पुरूष के एक दिन के समाप्त होने पर सर्व प्राणी क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष के कुछ क्षेत्र के नष्ट हो जाते हैं। क्षर पुरूष व इसके सर्व (21) ब्रह्माण्ड के सब प्राणी नष्ट हो जाते हैं। जब दिन प्रारम्भ होता है तो पुनः सब जीव अपने कर्मानुसार उत्पन्न होते हैं तथा मरते हैं। फिर गीता अध्याय 8 के ही श्लोक 20 में कहा है कि परन्तु इस अव्यक्त अर्थात् अक्षर पुरूष से (परः) परे जो अन्य सनातन अव्यक्त भाव अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म है, वह परमेश्वर तो सब प्राणियों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता है। फिर गीता अध्याय 8 श्लोक 21 में कहा है कि उसे अविनाशी अव्यक्त कहा गया है, उसी को परमेश्वर कहा गया है। उसी धाम की प्राप्ति से परम गति अर्थात् परमशान्ति प्राप्त होती है जिसे प्राप्त होकर साधक फिर वापिस नहीं आते जिसके विषय में गीता अध्याय 18 श्लोक 62 तथा अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है। गीता ज्ञान दाता ने बताया है कि वह धाम मेरे धाम से परम अर्थात् श्रेष्ठ है, इसलिए उसे सनातन परम धाम कहते हैं। (नोटः- इस गीता अध्याय 8 श्लोक 21 के अनुवाद में गलती की है कि गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि वह मेरा परम धाम है। वास्तव मूल पाठ में लिखा है “तत् धाम परमम् मम” इस में “मम” शब्द में हलन्त (मम्) नहीं है। प्रमाण के लिए उन्हीं गीता अनुवादकों ने गीता अध्याय 3 श्लोक 23 में “मम” का अर्थ करते समय अर्थ किया है, मम = ‘‘मेरा ही‘‘। इसी प्रकार इस अध्याय 8 श्लोक 21 में मम का अर्थ मेरे से परम धाम है, सही है। फिर गीता अध्याय 8 श्लोक 22 में स्पष्ट किया है कि पुरूषः सः परः = (सः) वह (परः) दूसरा (पुरूषः) परमेश्वर तो अनन्य भक्ति से प्राप्त होने योग्य है जिसके अन्तर्गत सर्व प्राणी आते हैं। जिसने सर्व संसार की रचना (उत्पत्ति) की है। गीता अध्याय 8 श्लोक 20 से 22 में गीता ज्ञान दाता से अन्य परम पुरूष का वर्णन है, इसलिए गीता ज्ञान दाता उस धाम को अपना नहीं कह सकता। उसने अपने धाम यानि लोक से परम अर्थात् श्रेष्ठ धाम उस परमेश्वर का धाम बताया है, यह सही अर्थ है।

विचार करें:- गीता अध्याय 8 श्लोक 20 में “परः” शब्द का अर्थ “परे” किया है अर्थात् अव्यक्त से (परः) = परे अर्थात् दूसरा सनातन अव्यक्त भाव वाला परमेश्वर है। इसी प्रकार गीता के इस अध्याय 8 श्लोक 22 में कहा है कि (सः) वह (परः) जो परे अर्थात् दूसरा (पुरूषः) परमेश्वर है। उसकी प्राप्ति अनन्य भक्ति से ही सम्भव है।

इसका अन्य प्रमाण:- गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 में तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शंकर जी) की भक्ति करने वालों को राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूर्ख बताया है तथा गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि ये मुझे नहीं भजते। अपनी भक्ति के विषय में गीता अध्याय 7 श्लोक 16 से 18 में कहा है कि मेरी भक्ति से होने वाली गति अनुत्तम (घटिया) है। गीता अध्याय 7 श्लोक 19 में कहा है कि बहुत-बहुत जन्मों के अन्त में किसी जन्म में मेरी भक्ति करते हैं अन्यथा अन्य देवताओं और भैरो-भूतों की पूजा ही करते रहते हैं। परन्तु यह बताने वाला सन्त बहुत दुर्लभ है कि वासुदेव अर्थात् वह पूर्ण परमात्मा जिसका वास अर्थात् सत्ता सबके ऊपर है। वही (सर्वम्) सब कुछ है यानि वही पूजा के योग्य है, उसी की भक्ति से पूर्ण मोक्ष प्राप्त होता है। वही सर्व सृष्टि का रचनहार है। सबका धारण-पोषण करने वाला है। फिर गीता अध्याय 7 श्लोक 29 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि जो साधक मेरे ज्ञान को आधार बनाकर तत्वदर्शी सन्तों से ज्ञान प्राप्त करके केवल जरा (वृद्धा अवस्था के दुःख से) तथा मरण (मृत्यु के दुःख से) छूटने के लिए भक्ति करके प्रयत्न करते हैं, वे संसार की सर्व वस्तुओं को नाशवान मानकर इनकी इच्छा नहीं करते, केवल मोक्ष उद्देश्य से ही भक्ति करते हैं। वे (तत् ब्रह्म) उस ब्रह्म को (विदु) जानते हैं, सब कर्मों से परिचित हैं, सर्व अध्यात्म ज्ञान से परिचित हैं। (गीता अध्याय 7 श्लोक 29)

गीता अध्याय 8 श्लोक 1 में अर्जुन ने प्रश्न किया कि हे भगवान! (किम् तत् ब्रह्म) वह ब्रह्म क्या है? जिसको जानकर साधक केवल मोक्ष ही चाहता है। इसका उत्तर गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में गीता ज्ञान दाता ने दिया है। कहा है कि “वह परम अक्षर ब्रह्म है।” गीता ज्ञान दाता ने इस परम अक्षर ब्रह्म की जानकारी गीता अध्याय 8 में ही श्लोक नं. 8, 9, 10, 20, 21, 22, में भी दी है जो गीता ज्ञान दाता से अन्य है। गीता अध्याय 2 श्लोक 17 में कहा है कि जिस परमेश्वर ने सम्पूर्ण जगत् की रचना की है, जिससे यह जगत व्याप्त है (अर्थात् जिसकी शक्ति से सर्व ब्रह्माण्ड टिके हैं, रूके हैं) वह वास्तव में अविनाशी परमात्मा है जिसका नाश करने में कोई समर्थ नहीं है। गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में भी कहा है कि पुरूषोत्तम तो अन्य है (गीता अध्याय 15 श्लोक 16 में दो पुरूष कहे हैं, क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष। उत्तम पुरूष इन से अन्य है, अर्थात् श्रेष्ठ परमेश्वर) जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सब का धारण-पोषण करता है। वह परमात्मा कहा जाता है। वही वास्तव में अविनाशी परमेश्वर है। (गीता अध्याय 15 श्लोक 17), फिर गीता अध्याय 2 के ही श्लोक 59 में भी गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य परमात्मा के विषय में कहा है। प्रसंग गीता अध्याय 2 श्लोक 53 से चला है। जिसमें कहा है कि ‘हे अर्जुन‘ जिस समय भांति-भांति के भ्रमित करने वाले ज्ञान के वचनों से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मा में अटल यानि स्थिर ठहर जाएगी, तब तू योग को प्राप्त होगा (गीता अध्याय 2 श्लोक 53), फिर गीता अध्याय 2 श्लोक 59 में कहा है कि कुछ व्यक्ति निराहार रहकर (भोजन त्यागकर) केवल फलाहार या दूग्धाहार ही करते हैं उनके कुछ समय के लिए विषय-विकार तो निवृत हो जाते हैं, परन्तु संसार के पदार्थों से आसक्ति निवृत नहीं होती। शास्त्रानुसार साधना करने से उस अन्य परमात्मा का साक्षात्कार होता है, जिससे विषय-विकार तथा आसक्ति भी निवृत हो जाती है। गीता अध्याय 2 श्लोक 59 के मूल पाठ में “परम्” शब्द जिस का अर्थ है “पर” अर्थात् दूसरा होता है। उदाहरण के लिए गीता अध्याय 7 श्लोक 13 में मूल पाठ में यही “परम्” शब्द है। इसमें गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि तीनों गुणों (रजगुण श्री ब्रह्मा जी, सतगुण श्री विष्णु जी तथा तमगुण श्री शंकर जी) के भाव से सारा संसार मोहित हो रहा है, इनसे परे मुझे नहीं जानता। (गीता अध्याय 7 श्लोक 13) इसमें परम् = पर = परे अर्थात् दूसरा अर्थ हुआ। इसी प्रकार गीता अध्याय 2 श्लोक 59 में “परम्” का अर्थ पर = परे अर्थात् दूसरा जानें क्योंकि गीता अध्याय 11 श्लोक 55 तथा गीता अध्याय 12 श्लोक 1 से 6 में प्रमाण है। गीता अध्याय 11 श्लोक 55 में संकेत किया है कि (मत् कर्मकृत्) = शास्त्रानुकुल भक्ति कर्म मेरे लिए करता हुआ (मत् परम्) मेरे से श्रेष्ठ परमात्मा के लिए करता हुआ (मत् भक्त) मेरा भक्त मुझे ही प्राप्त होता है। क्योंकि जब तक तत्वदर्शी सन्त नहीं मिलता, तब तक वेदों अनुसार ज्ञान से ’’ऊँ’’ नाम का जाप पूर्ण परमात्मा का मानकर करते हैं। जिससे ब्रह्म लोक में चले जाते हैं। इसलिए कहा है कि मेरा भक्त मेरे से अन्य पूर्ण परमात्मा की भक्ति करके भी मुझे ही प्राप्त होता है (गीता अध्याय 11 श्लोक 55) फिर गीता अध्याय 12 श्लोक 1 में स्पष्ट है कि अर्जुन ने प्रश्न किया कि जो भक्त पूर्वोक्त प्रकार से (गीता अध्याय 11 श्लोक 55 में संकेत है) जो (त्वम्) आपको तथा जो (अव्यक्तम् अक्षरम्) अविनाशी अव्यक्त (“जिस का वर्णन गीता अध्याय 8 श्लोक 20 से 22 में है”) उसको भजते हैं, उनमें से उत्तम भक्ति वाला कौन-सा भक्त है?( गीता अध्याय 12 श्लोक 1)

फिर गीता अध्याय 12 श्लोक 2 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि मेरा भक्त जो केवल मेरे ध्यान में लगा है, वह (युक्ततमाः मताः) मेरे विचार से वह सही साधक है। (गीता अध्याय 12 श्लोक 2)

गीता अध्याय 12 श्लोक 3 से 4 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि “जो उस सर्वव्यापी जिसके विषय में मैं भी नहीं जानता, जो सदा एक रस रहने वाला स्थाई, अचल, अव्यक्त अर्थात् परोक्ष अविनाशी परम अक्षर ब्रह्म की निरन्तर उपासना करते हैं, सब प्राणियों के हित के लिए कामना करने वाले साधक सब में समान भाव रखने वाले साधक मुझको ही प्राप्त होते हैं। भावार्थ है कि जिस सच्चिदानन्द घन ब्रह्म अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म का ज्ञान गीता ज्ञान दाता को भी नहीं है, उसका ज्ञान तत्वदर्शी सन्तों को होता है। तत्वदर्शी सन्त न मिलने से ब्रह्म के ऊँ (ओम्) नाम को परम अक्षर ब्रह्म का नाम (मंत्र) जाप मानकर साधना करते हैं। जिस कारण से काल के जाल में रह जाते हैं। इसलिए कहा है कि वह साधक मुझे ही प्राप्त होता है। परमेश्वर कबीर जी ने “सोहं” मन्त्र का आविष्कार करके साधकों को बताया है। परन्तु सारनाम फिर भी गुप्त ही रखा है। सूक्ष्म वेद में लिखा है:-

सोहं शब्द हम जग में लाऐ। सार शब्द हम गुप्त छिपाएं।।
सोहं ऊपर और सतसुकृत एक नाम।
सब हंसों का बास है, नहीं बस्ती नहीं ठाम।।
सतगुरू सोहं नाम दे, गुझ बीरज विस्तार।
बिन सोहं सीझै नहीं, मूल मन्त्र निज सार।।

‘‘जो साधक ’सोहं’ नाम का जाप करते हैं, यह परब्रह्म (अक्षर पुरूष जो गीता अध्याय 15 श्लोक 16 में प्रमाण है) उसका जाप है। सारनाम मिले बिना ’’सोहं’’ तथा ’’ऊँ’’ पूर्ण मोक्षदायक नहीं है। ’’ऊँ’’ का जाप ब्रह्म (गीता ज्ञान दाता) का है। ब्रह्मलोक में महाइन्द्र का लोक प्राप्त होता है जो ब्रह्म लोक में ही बना है तथा “सोहं” नाम के जाप की भक्ति कमाई से ब्रह्मलोक में ही बने नकली सत्यलोक को प्राप्त होता है। साधना काल में साधक यह भी कहता रहता है ‘‘सब प्रणियों का भला हो”

सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित् दुःखभाग भवेत्।।

भावार्थ:- ‘‘सब सुखी हों, सब आरोग्य अर्थात् स्वस्थ हों, सबका भला हो, कोई दुख किसी को न हो।‘‘ यह मंगलकामना का मन्त्र बनाकर आशीर्वाद देता है, दुआ (प्रार्थना) करता रहता है। जिससे इस साधक की पुण्य कमाई तथा भक्ति धन दुआ आशीर्वाद के माध्यम से समाप्त हो जाते हैं। तत्वदर्शी सन्त का अनुयायी यह गलती कभी नहीं करता। इसलिए कहा है कि उस परम अक्षर ब्रह्म का साधक भी मुझे ही प्राप्त होता है क्योंकि भक्ति आशीर्वाद तथा सर्व की मंगलकामना करके समाप्त कर दी, कुछ महास्वर्ग (ब्रह्मलोक) में खा-खर्ची, फिर जन्म-मरण तथा 84 लाख प्राणियों के चक्र में गिर जाता है।

राजा जनक के जीवन से सिद्ध करते हैं:-

त्रेतायुग में जनक जी एक धार्मिक राजा थे। इनकी पुत्री सीता जी थी जो त्रिलोकीनाथ श्री विष्णु उर्फ श्री रामचन्द्र पुत्र श्री दशरथ जी की पत्नी थी। सतयुग में राजा जनक जी का जीव ही राजा अम्बरीष थे जो श्री विष्णु जी के परम भक्त थे। साथ-साथ वेदों के अनुसार ’’ऊँ’’ नाम का जाप करते थे जो ब्रह्म साधना है। जिसके परिणामस्वरूप लाखों वर्ष श्री विष्णु जी के लोक में बने स्वर्ग में अपनी भक्ति के सुख को भोगा। फिर लाखों वर्ष ब्रह्म लोक में ब्रह्म साधना के सुख को भोगा। फिर त्रोतायुग में पुनर्जन्म जनक का हुआ जो एक धार्मिक राजा थे। अपने जीवन काल में अनेकों यज्ञ (धार्मिक अनुष्ठान) किए। श्री विष्णु जी की भक्ति की ब्रह्म साधना भी की। जब संसार छोड़कर चलने लगे तो एक विमान स्वर्ग से आया, राजा जनक जी को बैठाकर उड़ चला। रास्ते में एक नरक था जिसमें 12 करोड़ जीव अपनी करनी का दण्ड भोग रहे थे, हा-हा-कार मची थी। जनक जी ने देवदूतों से पूछा कि यह किन दुखियों की चिल्लाहट है? विमान रोको, विमान रूक गया। देवदूतों ने बताया राजन्! यह एक नरक है। इसमें प्राणी अपने पापकर्मों का दण्ड भोग रहे हैं। जनक जी ने कहा इनको इस नरक से निकाल दो। मुझसे देखा नहीं जा रहा। देवदूतों ने कहा जनक जी यहाँ आप का राज्य नहीं है। यहाँ धर्मराज की आज्ञा चलती है। जनक जी ने कहा कि या तो इनको छोड़ दो या फिर मुझे भी इसी नरक में डाल दो। देवदूतों ने बताया इसका समाधान धर्मराज ही कर सकते हैं। राजा जनक जी ने कहा धर्मराज से मेरी बात कराओ। धर्मराज वहीं उपस्थित हो गए तथा सर्व स्थिति जानने के पश्चात् बोले कि मैं आपको इस नरक में नहीं डाल सकता और न ही मैं इन 12 करोड़ जीवों को नरक से निकाल सकता। एक उपाय बताता हूँ। आप (जनक जी) अपने कुछ भक्ति धन (पुण्य तथा मन्त्र जाप का भक्ति धन) इन 12 करोड़ जीवों को प्रदान कर दो। तब इन्हें आप के साथ ही स्वर्ग भेज दूँगा। जनक जी ने दयावश होकर अपनी आधी भक्ति कमाई उन 12 करोड़ जीवों को दे दी। वे 12 करोड़ आत्माऐं राजा जनक के द्वारा दिए पुण्यों के आधार से स्वर्ग में चली गई और राजा जनक ने भी स्वर्ग में (विष्णु लोक वाले स्वर्ग में, फिर ब्रह्म लोक वाले महास्वर्ग में) निवास करके अपने पुण्यों का भोग भोगा जिससे भक्ति धन समाप्त हो गया।

कथा सार:- जिन 12 करोड़ जीवों को राजा जनक जी ने अपने आधे पुण्य दान किए थे, धर्मराज ने वे पुण्य 12 करोड़ जीवों को बराबर-बराबर बाँट दिये। उन पुण्यों के फलस्वरूप वे आत्माऐं स्वर्ग में रही। फिर उन पुण्यों के समाप्त होने पर पुनः उसी नरक में डाल दी गई। जो पापकर्म शेष बचे थे, वे फिर भोगने पडे़। राजा जनक जी के साथ बहुत बड़ा धोखा हुआ। उसके आधे पुण्य तो दान करने से समाप्त हुए और आधे ऊपर स्वर्ग में भोगकर समाप्त हुए, पुनः जन्म-मरण के चक्र में गिरे। वही जनक जी वाला जीव कलयुग में सिक्ख गुरू श्री नानक देव साहेब जी हुए। श्री नानक जी को सुल्तानपुर शहर में बेई नदी के घाट पर पूर्ण परमात्मा एक जिन्दा साधु के वेश में मिले। उनको उस सनातन परम धाम (सत्यलोक = सच्च खण्ड) में ले गए। फिर तीसरे दिन वापिस उसी बेई नदी के घाट पर छोड़ा। सर्व तत्वज्ञान कराया, उनके पूर्व अनेकों अच्छे जीवन के जन्म दिखाए, उनको सत्यनाम (जो दो अक्षर का मन्त्र है जिसमें एक औंकार (ऊँ) है तथा दूसरा गुप्त है, उपदेशी को ही बताया जाता है) की दीक्षा दी। तब श्री नानक देव साहेब जी का पूर्ण मोक्ष हुआ। यदि परमात्मा तत्वदर्शी सन्त रूप में प्रकट होकर तत्वज्ञान नहीं बताते तो श्री नानक देव जी वाले जीव का जन्म-मरण चक्र कभी समाप्त नहीं होता। वह सत्य साधना मेरे पास (सन्त रामपाल जी के पास) है। प्रसंग चल रहा है कि भावना में बहकर आशीर्वाद द्वारा अपनी भक्ति धन कभी नष्ट नहीं करना चाहिए। आपने कोई भी बुद्धिमान धनवान व्यक्ति अपने नोटों को अन्य किसी को बाँटता नहीं देखा होगा। यदि किसी की सहायता करना चाहें तो उसे कमाने का तरीका बताऐं। जिससे वह अपने पैरों पर खड़ा होकर धनी बन सके। इसी प्रकार भक्तजन जिसकी सहायता करना चाहें तो उसको पूर्ण गुरू से दीक्षा दिलाकर भक्ति धन कमाने की प्रेरणा दें।

गीता अध्याय 12 श्लोक 5 में कहा है कि “जिनकी आस्था सच्चिदानन्द घन ब्रह्म अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म में है और जो उसी को (चेतसा) जानने वाले हैं, उनको अधिकतर (क्लेशः) शंका के कारण ज्ञान का झगड़ा बना रहता है? उन मानव शरीरधारियों के लिए इस कारण से दुखपूर्वक प्राप्त की जाने वाली गति है। भावार्थ वही है कि तत्वदर्शी सन्त न मिलने के कारण कबीर पंथी (घीसा दास पंथी, गरीबदास पंथी, दादू पंथी, नेकीराम पंथी थे। सब कबीर पंथी कहलाते हैं।) भी कठिन तपस्या करते हैं। व्रत-मौनव्रत, अन्य कठिन साधना ही करते हैं। इसलिए कहा है कि उस पूर्ण परमात्मा की साधना क्लेशयुक्त तथा दुःखपूर्वक प्राप्त होने योग्य है। वास्तव में सर्व साधना जो शास्त्रानुकूल है, वह बहुत आसान है।

प्रमाणः- यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 15 में ब्रह्म साधना के लिए कहा है किः-

वायुः अनिलम् अमृतम् अथ इदम् भस्मान्तम् शरीरम्। ओम् कृतम् स्मर, किलबे स्मर कृतुः स्मर।।

भावार्थ:- ब्रह्म साधना का ऊँ (ओम्) नाम है। इससे मिलने वाला अमृतम् अर्थात् मोक्ष प्राप्ति के लिए ’’ऊँ’’ नाम का जाप (वायुः अनिलम्) श्वांस-उश्वांस से पूरी लगन के साथ शरीर नष्ट होने तक (कृतम्) कार्य करते-करते (स्मर) स्मरण कर, (किलबे स्मर) पूरी कसक अर्थात् किलबिलाहट यानि विलाप जैसी स्थिति से स्मरण कर, (कृतुः स्मर) मनुष्य जीवन का मूल कार्य जानकर स्मरण कर। (यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 15)

फिर युजर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 17 में वेद ज्ञान दाता ने (यही गीता ज्ञान दाता है) कहा है कि वह पूर्ण परमात्मा तो ऊपर के लोक में परोक्ष है अर्थात् अव्यक्त है। (अहम् खम् ब्रह्म ओम्) मैं ब्रह्म हूँ, दिव्य आकाश रूपी ब्रह्म लोक में में रहता हूँ, मेरा ऊँ नाम है। यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 10 में वेद ज्ञान दाता ने कहा कि “कोई तो परमात्मा को (सम्भवात्) उत्पन्न होने वाला अवतार रूप में साकार मानता है, कोई (असम्भवात्) उत्पन्न न होने वाला अर्थात् निराकार मानता है। वह परमात्मा उत्पन्न होता है या नहीं या जैसा है, उसका ज्ञान (धीराणाम्) तत्वदर्शी सन्तजन बताते हैं, उनसे (श्रुणुः) सुनो। (यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 10), यही प्रमाण गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में है कि परमात्मा के विषय में सम्पूर्ण ज्ञान तत्वदर्शी सन्त बताते हैं। उनकी खोज कर, उनसे निष्कपट भाव से तथा दण्डवत प्रणाम करके विनम्रता से प्रश्न करने से वे तत्वदर्शी सन्त तेरे को तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे। सूक्ष्म वेद में भी कहा कि:-

नाम उठत नाम बैठत, नाम सोवत जाग रे। नाम खाते नाम पीते, नाम सेती लाग रे।।

भावार्थ:- परमात्मा की साधना केवल नाम के जाप से होती है, उस नाम का जाप कार्य करते-करते करो, सोने से पहले, सुबह उठते ही, खाना खाते समय, पेय पदार्थ पीते समय अर्थात् सर्व कार्य करते-2 नाम का स्मरण करो। भावार्थ है कि हठयोग न करके कर्मयोग में साधना करो।

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