सुल्तान इब्राहिम को शरण में लेना
{अल्लाह अकबर जी जिंदा बाबा (अल खिज्र) का वेश बनाकर बार-बार सुल्तान इब्राहिम को समझाया।}
सम्मन वाला जीवन पूरा करके शरीर त्याग गया। वही जीव अगले जन्म में नौशेरखान फिर राजा बना। इराक के अंदर एक बलख नाम का शहर था। उस शहर में उसकी राजधानी थी। राजा का नाम सुल्तान अब्राहिम अधम था। उस आत्मा ने सम्मन के जीवन में जो श्रद्धा से भक्ति की थी। उसके कारण मानव जीवन मिलते आ रहे थे तथा जो दान किया था, उसके प्रतिफल में राजा बनता रहा। उसका सबसे बड़ा दान तीन सेर आटा था जो बेटे की कुर्बानी देकर किया था। उसी कारण से वह धनी राजा बनता रहा। कुछ नौशेरखान के जीवन में कबीर परमेश्वर जी ने कारण बनाकर दान करवाया। जिस कारण से भी बलख का धनी राजा बना। अठारह लाख घोड़े थे। अन्य हीरे-मोतियों की कमी नहीं थी। एक जोड़ी जूतियों के ऊपर अढ़ाई लाख के हीरे लगे होते थे। कहते हैं 16 हजार स्त्रिायां रखता था। ऐश (मौज) करता था। शिकार करने जाता, बहुत जीव हिंसा करता था।
एक दिन राजा के महल के पास किसी भक्त के घर कुछ संत आए थे। उन्होंने सत्संग किया। राजा ने रात्रि में अपने घर की छत के ऊपर बैठकर पूरा सत्संग सुना। परमात्मा की भक्ति की प्रबल पे्ररणा हुई। सुबह अपने मंत्रियों से कहा कि किसी अच्छे संत का पता करो। मुझे मिलाओ।
एक ढ़ोंगी बाबा बड़ा प्रसिद्ध था। राजा को उसके पास ले जाया गया। राजा उसके बताए मार्ग से भक्ति करने लगा। राजा की ऊँगली में एक बहुमूल्य छाप (अंगूठी) थी। ढ़ोंगी बाबा दिखावा तो करता था कि वह धन को हाथ नहीं लगाता। लगता था कि बड़ा त्यागी और बैरागी है, परंतु था धूर्त। सुल्तान भी उससे प्रभावित था। उस बाबा ने अपने निजी सेवक से कहा कि जिस सुनार ने राजा अब्राहिम की अँगूठी बनाई है, उस सुनार से वैसी ही अँगूठी नकली हीरों तथा मोतीयुक्त नकली सोने की बनवा ला। नकली अँगूठी बिल्कुल वैसी ही बन गई।
एक दिन राजा संत के पास गया। संत ने नौका विहार की इच्छा की। सुल्तान अब्राहिम अधम ने नौका विहार का प्रबन्ध करवाया। सरोवर के मध्य में जाकर बाबा ने कहा, राजन्! आपकी अँगूठी अति सुन्दर है, दिखाना जरा। राजा ने अँगूठी निकालकर संत जी को दे दी, वह बाबा देखने लगा। नजर बचाकर अँगूठी बदल दी। राजा ने कहा कि आप चाहें तो अँगूठी ले लें या और बनवा दूँ। बाबा ने कहा, अरे! साधु-संतों के लिए तो यह मिट्टी है मिट्टी। यह कहकर नकली अँगूठी सरोवर में फैंक दी।
राजा को पूरा भरोसा हो गया कि वास्तव में साधु त्यागी और बैरागी है। कुछ दिन बाद उस ढ़ोंगी बाबा की पोल खुल गई। उसके राजदार शिष्य ने राजा को बताया कि आपकी अँगूठी ऐसे-ऐसे बाबा ने ठगी है। वह उसके पास है। जब राजा ने वह अँगूठी उसी बाबा की कुटिया में जमीन में दबी पाई तो बहुत दुःख हुआ और साधु-संतों से विश्वास उठ गया। उस ढ़ोंगी को जेल में डाल दिया। फिर तो राजा ने अपने राज्य के सब संत-महात्माओं को बुला-बुलकार उनसे प्रश्न किया कि यदि आपने खुदा को पाया है तो मुझे भी मिला दो। इसका उत्तर किसी के पास नहीं था। एक संत ने कहा कि आप एक गिलास दूध का मंगवाऐं दूध का गिलास नौकर ने लाकर दे दिया। संत ने दूध में उंगली डाली और राजा से कहा, राजन्! आपके दूध में घी नहीं है। राजा ने कहा, दूध से घी प्राप्त करने की विधि है। पहले दूध को गर्म करके ठण्डा किया जाता है। फिर जमाया जाता है, दही बनती है। फिर बिलोया जाता है। तब घी निकलता है। उस संत जी ने कहा, सुल्तान जी! जिस प्रकार दूध से घी प्राप्त करने की विधि है। वैसे ही मानव शरीर से परमात्मा प्राप्ति की विधि है। उस विधि से परमात्मा प्राप्त होता है। गुरू बनाओ, साधना करो। राजा के मन में गुरू के प्रति घृणा थी। वह सबको उसी दृष्टिकोण से देख रहा था। सब महात्माओं को जेल में डाल दिया। सबसे चक्की चलवाई जा रही थी। सब साधु परमात्मा के लिए ही तो घर-परिवार त्यागकर निकले होते हैं। भक्ति मार्ग सही नहीं मिलने के कारण महिमा की चाह स्वतः हो जाती है। अधिक शिष्य बनाना। अच्छा-बड़ा आश्रम बनाना, यह धुन लग जाती है, परंतु परमेश्वर की अच्छी आत्माऐं होती हैं। वे परमेश्वर के लिए प्रयत्नशील होने से परमात्मा की उन पर रजा रहती है। उनको सत्यज्ञान देने के लिए वेश बदलकर परमात्मा उनको समझाते हैं, परंतु काल के जाल में अँधे होकर नहीं मानते। परमात्मा सबका पिता है। वह बालक जानकर क्षमा करता रहता है। फिर भी उनकी सहायता करता रहता है।
लीला नं. 1:- जेल में दुःखी भक्तों की पुकार सुनकर उनको छुड़ाने के लिए तथा अपने परम भक्त सम्मन को काल के जाल से निकालने के लिए परमेश्वर कबीर जी एक भैंसे के ऊपर बैठकर सुल्तान अधम के राज दरबार (कार्यालय) में पहुँच गए।
साधु वेश में परमेश्वर को देखकर अब्राहिम सुल्तान ने पूछा, आप किसलिए आए हो? परमेश्वर जी ने कहा कि आपके प्रश्न का उत्तर देने आया हूँ। अब्राहिम ने प्रश्न किया कि मुझे बताओ खुदा कैसा है? यदि खुदा से आप मिले हैं तो मुझे भी मिलाओ। कबीर जी ने भैंसे से कहा कि बता दे भैंसा! अल्लाह कैसा है? कहाँ है? खुदा की कसम सच कहना। भैंसा मनुष्य की तरह बोला, कहा कि अब्राहिम मेरे ऊपर बैठा यह अल्लाहु अकबर है। सुल्तान को भैंसे को बोलते देखकर आश्चर्य हुआ और प्रभावित भी हुआ। सोचने लगा कि यह कोई सेवड़ा हो सकता है। परमेश्वर भैंसे सहित अन्तध्र्यान हो गये। अब्राहिम को चक्कर आ गया। परमात्मा जेल के सामने खड़े हो गए। सिपाहियों को आदेश था कि कोई भी साधु मिले, उसको जेल में डाल दो। उन्होंने परमात्मा को जेल में बंद कर दिया।
सिपाहियों ने कहा कि चक्की चलाओ। अन्य सब साधु भी चक्की चलाकर आटा पीस रहे थे, रो रहे थे। कबीर जी ने सिपाहियों से कहा कि हम बन्दी एक काम करेंगे, एक सिपाही करेंगे। हम चक्की चलाएंगे तो चक्की में कनक (गेहूँ, चना, बाजरा) सिपाही डालेंगे। या हम कनक डालेंगे, तुम चक्की चलाओ।
सिपाहियों ने क्रोधित होकर कहा कि हम कनक डालेंगे, तुम चक्की चलाओ। कबीर जी ने कहा कि सब संत खड़े हो जाओ। यह कहकर अपनी चक्की को डण्डा लगाया। उसी समय सब (360) चक्की अपने आप चलने लगी। परमात्मा ने कहा, सिपाही भाई डालो कनक, पीसो जितना चाहिए। साधुओं से कहा कि आँखें बंद करो। सबने आँखें बंद कर ली। फिर परमेश्वर जी ने कहा कि आँखें खोलो। आँखें खोली तो सब जेल से बाहर बलख शहर से दूर जंगल में खड़े थे। कबीर जी ने कहा कि आप इस राजा के राज्य को त्यागकर दूर चले जाओ। सर्व भक्त जन परमेश्वर को प्रणाम तथा धन्यवाद करके भाग चले। दूर चले गए। राजा को पता चला कि एक सिद्ध फकीर आया था। सब कैदियों को छुड़ाकर ले गया। जाते दिखाई नहीं दिए। एक चक्की को डण्डा लगाया, सब (360) चक्कियाँ चलने लगी हैं। राजा जेल में गया। चलती चक्कियों को देखकर हैरान रह गया। फिर चक्कियाँ बंद हो गई। राजा विचारों में खो गया।
लीला नं. 2:- कुछ दिनों के पश्चात् परमेश्वर कबीर जी एक ऊँट चराने वाले ग्रामीण जैसे वेश बनाकर हाथ में लंबी लाठी लेकर राजा के निवास के ऊपर छत पर प्रकट हो गए। रात्रि का समय था। राजा सो रहा था। परमेश्वर ने छत के ऊपर लाठी को जोर-जोर से मारना शुरू किया। सुल्तान अब्राहिम नींद से जागा। नौकरों को डाँटा, यह कौन शोर कर रहा है? लाओ पकड़कर। नौकर ऊपर गए। एक ऊँटों को चराने वाले को छत पर से पकड़कर सुल्तान के समक्ष लाए। राजा ने पूछा, तू कौन है? मेरे महल की छत पर क्या कर रहा है?
परमेश्वर जी ने कहा कि मैं ऊँटवाल (कारवांन) हूँ। मेरा एक ऊँट गुम हो गया है। उसको छत पर खोज रहा हूँ। सुल्तान अधम ने कहा कि हे भोले बन्दे! छत के ऊपर ऊँट कैसे चढ़ सकता है? यह तो कभी हुआ न होगा। कहीं जंगल में ऊँट को खोज।
परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे अब्राहिम! जैसे ऊँट छत के ऊपर नहीं होता, न छत के ऊपर कभी मिलता है, ऊँट को जंगल में खोजना चाहिए। इसी प्रकार परमात्मा राजगद्दी पर बैठकर ऐशो-आराम (मौज-मस्ती) करने से नहीं, वह संतों में मिलता है। इतना कहकर कबीर परमेश्वर जी अंतध्र्यान हो गए। सुल्तान अधम मूर्छित होकर जमीन पर गिर गए। मन्त्रिायों तथा रानियों ने एक झाड़-फूँक करने वाला बुलाया। उसने राजा की दांई बाजू पर ताबीज बाँध दिया और कहा कि इसके ऊपर भूत-प्रेत का साया है, ठीक हो जाएगा। राजा का मन राज-काज में नहीं लग रहा था। उदास रहने लगा। राजा ने कुछ संतों को फिर से कैद कर रखा था।
परमेश्वर फिर से जेल में गए। उसी तरह उनको भी जेल से निकाला। अबकी बार सब कैदियों से कहा कि तुम सब खड़े होकर आँखें बंद करो। कुछ देर अल्लाह का चिंतन करो। उसके पश्चात् चक्की चलाएंगे। चक्की आसानी से चलेंगी। सब बंदी खड़े होकर अल्लाह का चिंतन आँखें बंद करके करने लगे। परमेश्वर ने एक चक्की को डण्डा (सोटी) लगाया। सर्व चक्कियां चलने लगी। परमात्मा कबीर जी ने कहा कि आँखें खोलो। सबने आँखें खोली तो अपने को बलख नगर से दूर जेल से बाहर जंगल में खड़े पाया। परमेश्वर ने कहा कि फिर से इस सुल्तान के राज्य की सीमा में मत आना। उसके पश्चात् राजा ने साधु-संतों को कैद में डालना बंद कर दिया था, परंतु डर के मारे कोई भी साधु-महात्मा उसके राज्य में नहीं आते थे। {कबीर परमेश्वर जी भी यही चाहते थे कि ये नकली गुरू यहाँ न आऐं। कहीं राजा को भ्रमित करके मेरे से दूर न कर दें। इसलिए उनको इस विधि से दूर रखना था।} कुछ समय उपरांत राजा सामान्य हो गया और ऐसो-आराम में खो गया।
लीला नं. 3:- परमात्मा कबीर जी अपने गुण अनुसार फिर एक लीला करने आए। एक यात्री (मुसाफिर) का रूप बनाकर काख में कपड़ों की पोटली, ग्रामीण वेशभूषा में शाम के समय सुल्तान के निवास में आए। सुल्तान घर के द्वार पर आँगन में कुर्सी पर बैठा था। राजा ने पूछा कि आप यहाँ किसलिए आए हो? परमात्मा कबीर जी ने कहा कि मैं एक यात्री हूँ। रात्रि में आपकी धर्मशाला (सराय) में रूकना है। एक रात का भाड़ा (किरवाया) बता, कितना लेगा।
सुल्तान अब्राहिम अधम हँसा और कहा कि हे भोले मुसाफिर, यह सराय नहीं है। यह तो मेरा महल है। मैं नगरी का राजा हूँ। परमात्मा बन्दी छोड़ दया के सागर ने प्रश्न किया आपसे पहले इस महल में कौन रहता था? सुल्तान अब्राहिम अधम ने उत्तर दिया कि मेरे बाप-दादा आदि रहते थे। प्रश्न प्रभु का:- वे कहाँ हैं? मैं उन्हें देखना चाहता हूँ। उत्तर सुल्तान काः- वे तो अल्लाह को प्यारे हुए। परमात्मा ने प्रश्न किया कि आप कितने दिन इस महल में रहोगे। उत्तर के स्थान पर सुल्तान ने चिंतन किया और कहा कि मुझे भी मरना है। परमेश्वर ने कहा कि हे भोले प्राणी! यह सराय (धर्मशाला) नहीं तो क्या है?
तेरे बाप-दादा पड़ पीढ़ी। वे बसे इसी सराय में गीद्यी।।
ऐसे ही तू चल जाई। तातें हम महल सराय बताई।।
अब तू तख्त बैठकर भूली। तेरा मन चढ़ने को सूली।।
इतना कहकर परमात्मा गुप्त हो गए। सुल्तानी को मूर्छा आ गई। बहुत देर में होश में आया। अन्य मौलवी बुलाया। उसने बांयी बाजु पर ताबीज बाँधकर झाड़फूँक की, कहा कि अब कुछ नहीं होगा। चला गया।
लीला नं. 4:- कुछ दिन बाद राजा सामान्य होकर फिर मौज-मस्ती करने लगा। दिन के समय राजा अब्राहिम अपने नौलखा (जिसमें नौ लाख फलदार पेड़ भिन्न-भिन्न प्रकार के लगाए जाते थे, उसको नौलखा बाग कहते थे।) बाग में सोया करता था। उसके बिस्तर को नौकरानियाँ बिछाया करती थी। फूलों के गुलदस्ते चारों ओर रखा करती थी। नौकरानियों की पोषाक रानियों से भिन्न होती थी। सब बांदियों की पोषाक एक जैसी होती थी। दीन दयाल कबीर जी ने उस अपनी प्यारी आत्मा सम्मन के जीव को काल जाल से निकालने के लिए क्या-क्या उपाय करने पड़े थे। एक दिन परमेश्वर कबीर जी ने नौकरानी का वेश बनाया।(स्त्री रूप धारण किया।) बाग में राजा का बिस्तर (सेज) बिछाया। फूलों के गुलदस्ते अत्यंत सुन्दर तरीके से लगाए और स्वयं उस सेज पर लेट गए। राजा अब्राहिम आया तो देखा, एक बांदी (खवासी) मेरी सेज पर सो रही है। इसको मेरा जरा-सा भी भय नहीं है। सुल्तान ने उसी समय कोड़ा उठाकर लेटे हुए परमेश्वर की कमर पर तीन बार मारा। तीन निशान कमर पर बन गए, खाल उतर गई। बांदी वेश में परमेश्वर ने पलंग से नीचे उतरकर एक बार रोने का अभिनय किया और फिर जोर-जोर से हँसने लगे। दासी को इतनी चोट लगने के पश्चात् भी हँसते देखकर अब्राहिम आश्चर्य में पड़ गया। वह विचार कर रहा था कि बांदी को तो बेहोश हो जाना चाहिए था या मर जाना चाहिए था। राजा ने दासी वेश धारी परमात्मा का हाथ पकड़ा और पूछा कि लौंडी! हँस किसलिए रही है?
परमात्मा ने कहा कि मैं इस बिस्तर पर एक घड़ी (24 मिनट) लेटी हूँ, विश्राम किया है। एक घड़ी के विश्राम का दण्ड मुझे तीन कोड़े मिला है। मेरे शरीर का चाम भी उतर गया है। मैं इसलिए हँस रही हूँ कि जो इस गंदी सेज पर दिन-रात सोता है, उसका क्या हाल होगा? मुझे तेरे ऊपर तरस आ रहा है भोले प्राणी!
मैं एक घड़ी सेज पर सोई। ताते मेरा यह हाल होई।।
जो सोवै दिवस और राता। उनका क्या हाल विधाता।।
गैब भये ख्वासा। सुल्तानी भये उदासा।।
यह कौन छलावा भाई। याका भेद समझ ना आई।।
यह दृश्य देखकर सुल्तान अधम अचेत हो गया। उठा तब सोचा कि यह क्या हो रहा है? मैं समझ नहीं पा रहा हूँ।
लीला नं. 5:- कुछ समय के पश्चात् मन्त्रिायों-रानियों ने कहा कि राजा को शिकार करने ले जाओ। कई दिनों तक जंगल में रहो। इनके मन की चिंता कम हो जाएगी। ऐसा ही किया गया। पहले दिन ही दोपहर तक कोई जानवर नहीं मिला। राजा को यह सब अच्छा नहीं लगा। जंगल में तो मृगों के झुण्ड के झुण्ड चलते हैं। आज एक हिरण भी नहीं आया है। अचानक एक हिरण दिखाई दिया। राजा ने कहा कि यह हिरण बचकर नहीं जाना चाहिए। जिसके पास से निकल गया, उसकी खैर नहीं। देखते-देखते हिरण राजा के घोड़े के नीचे से निकलकर जंगल की और दौड़ लिया। राजा ने शर्म के मारे घोड़ा पीछे-पीछे दौड़ाया। दूर जाकर हिरण जंगल में छिप गया। राजा तथा घोड़े को बहुत प्यास लगी थी। जान जाने वाली थी। अल्लाह से जीवन रक्षार्थ जल की याचना की। वापिस अपने पड़ाव की ओर चला। पड़ाव एक घण्टा दूर था। वहाँ तक जीवित बचना कठिन था।
कुछ दूर चलकर दाऐं-बायें देखा तो एक जिन्दा फकीर बैठा दिखाई दिया। पास में स्वच्छ जल का छोटा जलाशय था। उसके चारों ओर फलदार वृक्ष थे। मधुर फल लगे थे। राजा को जीवन की किरण दिखाई दी। जल पीया, कुछ फल खाए। घोड़े को पानी पिलाया। वृक्ष से बाँध दिया। जिन्दा बाबा की ओर देखा तो उनके पास तीन सुंदर कुत्ते बँधे थे। एक कुत्ते बाँधने की सांकल (चैन=लोहे की बेल) साथ में रखी थी।
सुल्तान ने फकीर को सलाम वालेकम किया। फकीर ने भी उत्तर में वालेकम सलाम बोला। राजा ने कहा, हे फकीर जी! आप तीन कुत्तों का क्या करोगे? इनमें से दो मुझे दे दो। फकीर जी ने कहा, ये कुत्ते मैं किसी को नहीं दे सकता। इनको मैंने पाठ पढ़ाना है। ये तीनों बलख शहर के राजा रहे हैं। मैं इनको समझाता था कि तुम अल्लाह को याद किया करो। इस संसार में सदा नहीं रहोगे। मरकर कुत्ते का जीवन प्राप्त करोगे। अब तुम नान पुलाव-काजू-किशमिश, मनुखा दाख, खीर, हलवा, फल खा रहे हो। यह आपके पूर्व जन्मों के पुण्यों तथा भक्ति का फल मिला है। यदि इस मानव जीवन में भक्ति नहीं करोगे तो कुत्ते आदि के प्राणियों के जीवन में कष्ट उठाओगे। खाने को यह अच्छा भोजन नहीं मिलेगा। झूठे टुकड़े खाया करोगे। टट्टी खाया करोगे, गंदा पानी नाली का पीया करोगे। जब राजा थे, तब इन्होंने मेरी बातों पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया। ये सोचते थे कि यह फकीर मूर्ख है। राज्य को कौन संभालेगा? रानियों का क्या होगा? अब ये तीनों कुत्ते बने हैं। देखो! मैंने काजू-बादाम, किशमिश मिलाकर बनाया हलवा-खीर इनके सामने रखा है। इनको खाने नहीं देता हूँ। दिखाता हूँ। जब ये खाने की कोशिश करते हैं तो मैं इनको पीटता हूँ। यह कहकर परमेश्वर जी ने जो एक लोहे की बेल खाली रखी थी। उठाकर कुत्तों को मारना शुरू किया। कुत्ते चिल्लाने लगे। परमेश्वर बोले कि खालो न हलवा खिलाऊँ तुमको। झूठा-सूखा टुकड़ा डालूंगा। ऐ घोड़े वाले भाई! यह जो खाली बेल रखी है, यह बताऊँ किसलिए है? जो बलख शहर का राजा सुल्तान अब्राहिम इब्न अधम है। वह भी संसार तथा राज्य की चकाचैंध में अँधा होकर अल्लाह को भूल गया है। अब उसको याद नहीं कि मरकर कुत्ता भी बनूंगा। उसको बहुत बार समझाया है कि भक्ति करले, इन महल रूपी सराय में सदा नहीं रहेगा, परंतु उसको खुदा का कोई खौफ नहीं है। वह तो खुद खुदा बनकर निर्दोष फकीरों को दण्डित कर रहा है। मैं तो यहाँ दूर बैठा हूँ। इसलिए बचा हूँ। वह राजा मरेगा, भक्ति बिना कुत्ता बनेगा। उसको लाकर इस सांकल से बाँधूंगा। जिन्दा फकीर के मुख से ये वचन सुनकर कुत्तों के रूप में अपने पूर्वजों की दुर्दशा देखकर अब्राहिम काँपने लगा और बोला कि हे फकीर जी! बलख शहर का राजा मैं ही हूँ। मुझे क्षमा करो। यह कहकर फकीर के चरणों में गिर गया। कुछ देर पश्चात् उठा तो देखा, वहाँ पर न जिन्दा बाबा था, न जलाशय, न बाग था, न कुत्ते थे। सुल्तानी इसको स्वपन भी नहीं मान सकता था क्योंकि घोड़े के पैर अभी भी भीगे थे। कुछ फल तोड़कर रखे थे, वे भी सुरक्षित थे। सुल्तान को समझते देर नहीं लगी। घोड़े पर चढ़ा और पड़ाव पर आया। मुख से नहीं बोल पाया। हाथ से संकेत किया कि सामान बाँधो और लौट चलो शहर को। कुछ मिनटों में काफिला बलख शहर को चल पड़ा।
लीला नं. 6:- घर में एक कमरे में बैठकर रोने लगा। रानियों ने, मंत्रियों ने समझाना चाहा कि यह तो वैसे ही होता रहता है। मुख्य रानियाँ कह रही थी कि ऐसी बात तो स्त्रिायों के साथ होती हैं, आप तो मर्द हैं। हिम्मत रखो। आप तो प्रजा के पालक हो।
इतने में एक कुत्ता आया। उसके सिर में जख्म था। उसमें कीट (कीड़े) नोच रहे थे। कुत्ता बोला, हे सुल्तान अब्राहिम! मैं भी राजा था। जितने प्राणी शिकार में मारे तथा एक राजा के साथ युद्ध में सैनिक मारे, वे आज अपना बदला ले रहे हैं। मेरे सिर में कीड़े बनकर मुझे नोंच रहे हैं। मैं कुछ करने योग्य नहीं हूँ। यही दशा तेरी होगी। अपना भविष्य देख लो। तेरे पीछे-पीछे खुदा भटक रहा है। तू परिवार-राज्य मोह में अपना जीवन नष्ट कर रहा है। (यह लीला भी स्वयं परमेश्वर कबीर जी ने की थी।) यह अंतिम झटका था अब्राहिम को दलदल से निकालने का।
उसी रात्रि में मुख पर काली स्याही लेपकर एक अलफी के स्थान पर एक शाॅल लपेटा, फिर एक तकिया, एक लोटा, एक पतला गद्दा यानि बिछौना लेकर घर से कमद के रास्ते पीछे से उतरकर चल पड़ा। (कमद=एक मोटा रस्सा जिसको दो-दो फुट पर गाँठें लगा रखी होती थी जिसके द्वारा छत से आपत्ति के समय उतरते थे।)
लीला नं. 7:- रास्ते में एक मालिन बाग के बाहर बेर बेच रही थी। सुल्तान को भूख लगी थी। सारी रात पैदल चला था। मालन से बेरों का भाव पूछा तो मालिन ने बताया कि एक आने के सेर। (एक रूपये में 16 आने होते थे। एक सेर यानि एक किलोग्राम) राजा के पास आना नहीं था। उसने जो जूती पहन रखी थी, उन दोनों की कीमत उस समय 2) लाख रूपये थी। उनके ऊपर हीरे-पन्ने जड़े थे।
राजा ने कहा कि मेरे पास एक आना या रूपया नहीं है। ये जूती हैं, इनकी कीमत अढ़ाई लाख रूपये है। ये दोनों ले लो, मुझे भूख लगी है, एक सेर बेर तोल दो। मालिन एक सेर बेर तोलकर अब्राहिम के शाॅल के पल्ले में डालने लगी तो एक बेर नीचे गिर गया। उस बेर को उठाने के लिए मालिन ने भी हाथ बढ़ाया और अब्राहिम ने भी मालिन के हाथ से बेर छीनना चाहा। दोनों अपना बेर होने का दावा करने लगे।
उसी समय परमेश्वर कबीर जी प्रकट हुए और कहने लगे, हे गंवार! यह तो मूर्ख है जिसको इतना भी विवेक नहीं कि एक बेर के पीछे उस व्यक्ति से उलझ रही है जिसने अढ़ाई लाख की जूती छोड़ दी। हे मूर्ख! ढ़ाई लाख की जूती छोड़ रहा है और एक पैसे के बेर के ऊपर झगड़ा कर रहा है। ये कैसा त्याग है तेरा? विवेक से काम ले। यह कहकर परमात्मा ने सुल्तान अधम के मुख पर थप्पड़ मारा और अंतध्र्यान हो गए।
जीवन की यात्र ऐसे भी हो सकती है:- सुल्तान आगे चला तो देखा कि एक निर्धन व्यक्ति एक डले के ऊपर सिर रखकर जमीन पर सो रहा है। उसी समय तकिया तथा बिछौना फैंक दिया। आगे देखा कि एक व्यक्ति नदी से हाथों से जल पी रहा था। लोटा भी फैंक दिया।
काल की भूल-भुलईया में फँसे व्यक्ति को समझाना:- रास्ते में वर्षा होने लगी। शीतल वायु बहने लगी। अब्राहिम ने एक झौंपड़ी देखी जो एक किसान की थी। उसके पास दो बीघा जमीन बिना सिंचाई की थी। एक बूढ़ी गाय जो चार-पाँच बार प्रसव कर चुकी थी। एक काणी स्त्री थी। शीतल वायु के कारण उत्पन्न ठण्ड से बचने के लिए अब्राहिम अधम सुल्तान उस झौंपड़ी के पीछे लेट गया। रात्रि में दोनों पति-पत्नी बातें कर रहे थे कि वर्षा अच्छी हो गई है। गाय का चारा पर्याप्त हो जाएगा। अपने खाने के लिए भी अच्छी फसल पकेगी। अपने ऐसे ठाठ हो जाएंगे, ऐसे तो बलख बुखारे के बादशाह के भी नहीं हैं।
सुल्तान अब्राहिम अधम यह सब वार्ता सुनकर उनकी बुद्धि पर पत्थर गिरे जानकर उनको भविष्य के दुःखों से अवगत कराने के उद्देश्य से सूर्योदय तक वहीं पर ठहरा रहा। सुबह उठकर उनकी झौंपड़ी के द्वार पर खड़ा होकर सलाम किया। दोनों पति-पत्नी झौंपड़ी से बाहर आए। अब्राहिम उनको भक्ति करने तथा माया से मुख मोड़ने का ज्ञान देने लगा। कहा कि आपके पास तो एक गाय है, एक स्त्री है। दो बीघा जमीन है। आप इसी से चिपके बैठे हो। इसे बलख के बादशाह से भी अधिक ठाठ मान रहे हो। यह तो कुछ दिनों का मेला है। तुमको गुरू जी से उपदेश दिला देता हूँ, तुम्हारा जीवन धन्य हो जाएगा। मैं ही बलख शहर वाला सुल्तान अब्राहिम अधम हूँ। मैं उस राज्य को छोड़कर परमात्मा की प्राप्ति के लिए चला हूँ।
उन्होंने कहा कि हमें तो लगता नहीं कि आप बलख शहर के राजा हो। यदि ऐसा है तो तेरे जैसा मूर्ख व्यक्ति इस पृथ्वी पर नहीं है। आपकी शिक्षा की हमें आवश्यकता नहीं है। सुल्तान ने कहा कि:-
गरीब, रांडी (स्त्री) ढांडी (गाय) ना तजैं, ये नर कहिये काग।
बलख बुखारा त्याग दिया, थी कोई पिछली लाग।।
इसके पश्चात् अब्राहिम अधम पृथ्वी का सुल्तान तो नहीं रहा, परंतु भक्ति का सुल्तान बन गया। भक्त राज बन गया। इसलिए उसको सुल्तान या प्यार में सुल्तानी नाम से प्रसिद्धि मिली। आगे की कथा में इसको केवल सुल्तान नाम से ही लिखा-कहा जाएगा। जैसे धर्मदास जी को धनी धर्मदास कहा जाने लगा था। वे भक्ति के धनी थे। वैसे सांसारिक धन की भी कोई कमी नहीं थी। सुल्तान को परमेश्वर मिले और प्रथम मंत्र दिया और कहा कि बाद में तेरे को सतनाम, फिर सार शब्द दूंगा।
कबीर सागर के अध्याय ‘‘सुल्तान बोध‘‘ में पृष्ठ 62 पर प्रमाण है:-
प्रथम पान प्रवाना लेई। पीछे सार शब्द तोई देई।।
तब सतगुरू ने अलख लखाया। करी परतीत परम पद पाया।।
सहज चैका कर दीन्हा पाना (नाम)। काल का बंधन तोड़ बगाना।।
विचार करें:- उस समय अब्राहिम के पास न तो आरती चैंका करने को धन था, न अन्य सुविधा थी। यह वास्तविक कबीर जी की दीक्षा की विधि है। जो आरती चैका, उसमें लाखों या हजारों का सामान, नारियल आदि का कोई प्रावधान नहीं है। वह तो बाद में कोई पाठ कराना चाहे तो कराए अन्यथा दीक्षा विधि केवल मंत्रित जल तथा मीठे पदार्थ (मीश्री-चीनी, गुड़, बूरा, शक्कर) से दी जा सकती है। सत्य नाम तथा सार शब्द में पान (पेय पदार्थ) नहीं दिया जाता। केवल दीक्षा मंत्र बताए-समझाए जाते हैं। संत गरीबदास जी (गाँव-छुड़ानी, जिला-झज्जर, हरियाणा प्रान्त) को परमेश्वर कबीर जी मिले थे। उनको दिव्य दृष्टि प्रदान की थी। उसी के आधार से संत गरीबदास जी ने बताया है कि:-
गरीब, हम सुल्तानी नानक तारे, दादू कूं उपदेश दिया।
जाति जुलाहा भेद न पाया, काशी माहें कबीर हुआ।।
गरीब, अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड का, एक रति नहीं भार।
सतगुरू पुरूष कबीर हैं, कुल के सिरजनहार।।