प्रभु कबीर जी का मगहर से सशरीर सत्यलोक गमन

Parakh Ka Ang

पारख का अंग (1125 – 1133)

  • प्रभु कबीर जी का मगहर से सशरीर सत्यलोक गमन तथा सूखी नदी में नीर बहाना
  • संत दादू दास जी को कबीर जी ने शरण में लिया
  • पारख के अंग की वाणी नं. 1134-1146
  • पारख के अंग की वाणी नं. 1147-1169

पारख के अंग की वाणी चौपाई नं. 1125-1133:-

चले कबीर मगहर कै तांई, तहां वहां फुलन सेज बिछाई।
दोनौंदीन अधिक परभाऊ, दोषी दुश्मन और सब साऊ।।1125।।
तहां बिजलीखां चले पठाना, बीरसिंह बघेला पद प्रवाना।
काशी उमटी चली मगहर कूं, कोई न पावै तास डगरकूं।।1126।।
बैरागी संयासी जोगी, चले मगहर को शब्द बियोगी।
तीन रोजमें पौहचै जाई, तहां वहां सुमरन राम खुदाई।।1127।।
दहूं दीन है बांहां जोरी, शस्त्रा बांधि लिये भरि गोरी।
वै गाडै वै जारन कही, दोनू दीन अधिक सो फही।।1128।।
तहां कबीर कही एक भाषा, शस्त्रा करै सो ताही तलाका।
शस्त्रा करै सो हमरा द्रोही, ज्याकी पैज पिछोड़ी होई।।1129।।
सुन बिजलीखां बात हमारी, हम हैं शब्द रूप निर्विकारी।
बीर सिंह बघेला बिनतीकरि है, हे सतगुरू तुम किसविधि मरि है।।1130।।
तहां वहां चादरि फूल बिछाये, सिज्या छाड़ी पदहि समाये।
दो चादर दहूं दीन उठावैं, ताके मध्य कबीर न पावैं।।1131।।
तहां वहां अबिगत फूल सुवासी, मगहर घोर और चैरा काशी।
अबिगतरूप अलख निरबानी, तहां वहां नीर क्षीर दिया छांनी।।1132।।
दोहा-शंख जुगन जुग जगत में, पद प्रवानि है न्यार।
दासगरीब कबीर हरि, अबिगत अधरि अधार।।1133।।
चले कबीर मगहर कै तांई, तहां वहां फूलन सेज बिछाई।
दोनौं दीन अधिक परभाऊ, दोषी दुश्मन और सब साऊ।।
तहां बिजलीखां चले पठाना, बीरसिंह बघेला पद प्रवाना।
काशी उमटी चली मगहर कूं, कोई न पावै तास डगरकूं।।
वैरागी संयासी जोगी, चले मगहर को शब्द वियोगी।
तीन रोजमैं पौहचै जाई, तहां वहां सुमरन राम खुदाई।।
दहूं दीन है बांहां जोरी, शस्त्रा बांधि लिये भरि गोरी।
वै गाडै वै जारन कही, दोनू दीन अधिक सो फही।।
तहां कबीर कही एक भाषा, शस्त्रा करै सो ताही तलाका।
शस्त्रा करै सो हमरा द्रोही, ज्याकी पैज पिछौडी होई।।
सुन बिजलीखां बात हमारी, हम हैं शब्द रूप निराकारी।
बीरसिंबघेला बिनती करि है, हे सतगुरू तुम किसविधि मरि है।।
तहां वहां चादरि फूल बिछाये, सिज्या छांडी पदहि समाये।
दो चादर दहूं दीन उठावैं, ताके मध्य कबीर न पावैं।।
तहां वहां अविगत फूल सुवासी, मगहर घोर और चैरा काशी।
अविगतरूप अलख निरबानी, तहां वहां नीर क्षीर दियाछांनी।।

दोहा-शंख जुगन जुग जगत मैं, पद प्रवानि है न्यार।
गरीबदास कबीर हरि, अविगत अधरि अधार।।948।।

बन्दी छोड़ गरीबदास जी महाराज की वाणी से राग मारू शब्द नं. 8:-

कीन्हाँ मघर पियाँना हो, दोन्यूं दीन चले संगि जाकै, हिंदू मुसलमांना हो।।टेक।। मुक्ति खेत कूं छाडि चले है, तजि काशी अस्थाँना हो। शाह सिकन्दर कदम लेत है, पातिशाह सुलताँना हो।।1 च्यारि बेद के बकता संगि हैं, खोजी बडे बयांना हो। सालिगराम सुरति सैं सेवैं, ज्ञान समुद्र दांना हो।।2 षट्दर्शन जाकै संगि चाले, गावत वांनी नाना हो। अपनां अपनाँ ईष्ट सिंभालैं, बाचैं पोथी पांना हो।।3 चदरि फूल बिछाये सतगुरु, देखै सकल जिहांना हो। च्यारि दाग सैं रहत जुलहदी, अविगत अलख अमाँना हो।।4 बिरसिंघ बघेला करै बीनती, बिजलीखाँन पठांना हो। दो चदरि बकसीस करी हैं, दीनां यौह प्रवांना हो।।5 नूर नूर निरगुण पद मेला, देखि भये हैराँना हो। पद ल्यौलीन भये अविनाशी, पाये पिण्ड न प्राना हो।।6 शब्द सरूप साहिब सरबंगी, शब्दें शब्द समाना हो। दास गरीब कबीर अर्श में, फरकैं धजा निशाँना हो।।7

पारख के अंग की वाणी नं. 1125-1133 का सरलार्थ:-

‘‘प्रभु कबीर जी का मगहर से सशरीर सत्यलोक गमन तथा सूखी नदी में नीर बहाना’’

उसके बाद इस भ्रम को तोड़ने के लिए कि जो मगहर में मरता है वह गधा बनता है और कांशी में मरने वाला स्वर्ग जाता है। (बन्दी छोड़ कहते थे कि सही विधि से भक्ति करने वाला प्राणी चाहे वह कहीं पर प्राण त्याग दे वह अपने सही स्थान पर जाएगा।) उन अज्ञानियों का भ्रम निवारण करने के लिए कबीर साहेब ने कहा कि मैं मगहर में मरूँगा और सभी ज्योतिषी वाले देख लेना कि मैं कहाँ जाऊँगा? नरक में जाऊँगा या स्वर्ग से भी ऊपर सतलोक में।

कबीर साहेब ने काशी से मगहर के लिये प्रस्थान किया। बीर सिंह बघेला और बिजली खाँ पठान ये दोनों ही सतगुरू के शिष्य थे। बीर सिंह ने अपनी सेना साथ ले ली कि कबीर साहेब वहाँ पर अपना शरीर छोड़ेंगे। इस शरीर को लेकर हम काशी में हिन्दू रीति से अंतिम संस्कार करेंगे। यदि मुसलमान नहीं मानेंगे तो लड़ाई कर के शव को लायेंगे। सेना भी साथ ले ली, अब इतनी बुद्धि है हमारी। कबीर परमेश्वर जी हर रोज शिक्षा दिया करते कि हिन्दू मुसलमान दो नहीं हैं। अंत में फिर वही बुद्धि। उधर से बिजली खाँ पठान को पता चला कि कबीर साहेब यहाँ पर आ रहे हैं। बिजली खाँ पठान ने सतगुरू तथा सर्व आने वाले भक्तों तथा दर्शकों की खाने तथा पीने की सारी व्यवस्था की और कहा कि सेना तुम भी तैयार कर लो। हम अपने पीर कबीर साहेब का यहाँ पर मुसलमान विधि से अंतिम संस्कार करेंगे। कबीर साहेब के मगहर पहुँचने के बाद बिजली खाँ ने कहा कि महाराज जी स्नान करो। कबीर साहेब ने कहा कि बहते पानी में स्नान करूँगा। बिजली खान ने कहा कि सतगुरू देव यहाँ पर साथ में एक आमी नदी है, वह भगवान शिव के श्राप से सूखी पड़ी है। उसमें पानी नहीं है। जैसी व्यवस्था दास से हो पाई है पानी का प्रबंध करवाया है। आपके स्नान के लिए प्रबंध किया है। लेकिन संगत बहुत आ गई। इनके नहाने की तो बात बन नहीं पाएगी। पीने का पानी पर्याप्त मात्रा में बाहर से मंगवा रखा है। कबीर साहेब ने कहा कि वह नदी देखें कहाँ पर है? उस नदी पर जा कर साहेब ने हाथ से ऐसे इशारा किया था जैसे यातायात (ट्रैफिक) का सिपाही रूकी हुई गाड़ियों को जाने का संकेत करता है। वह आमी नदी पानी से पूरी भरकर चल पड़ी। “बोलो सतगुरू देव की जय“ ‘‘सत साहेब‘‘। (यह आमी नदी वहाँ पर अभी भी विद्यमान है) सब ने जय जयकार की।

साहेब ने कहा कि एक चदद्र नीचे बिछाओ, एक मैं ऊपर ओढ़ूँगा। (क्योंकि वे जानी जान तो थे) कहने लगे कि ये सेना कैसे ला रखी है तुमने? अब बिजली खाँ पठान और बीर सिंह बघेला आमने-सामने खड़े हंै। उन्होंने तो मुँह लटका लिया और बोले नहीं। वे दूसरे हिन्दू और मुसलमान बिना नाम वाले बोले कि जी हम आपका अंतिम संस्कार अपनी विधि से करेंगे। दूसरे कहते हैं कि हम अपनी विधि से करेंगे। चढा ली बाहें, उठा लिए हथियार तथा कहने लगे कि आ जाओ। कबीर साहेब ने कहा कि नादानों क्या मैंने यही शिक्षा दी थी 120 वर्ष तक। इस मिट्टी का तुम क्या करोगे? चाहे फूँक दो या गाड़ दो, इससे क्या मिलेगा? तुमने क्या शिक्षा ली मेरे से? सुन लो यदि झगड़ा कर लिया तो मेरे से बुरा नहीं होगा। वे जानते थे कि ये कबीर साहेब परम शक्ति युक्त हैं। यदि कुछ कह दिया तो बात बिगड़ जाएगी। शांत हो गये पर मन में यही थी कि शरीर छोड़ने दो, हमने तो यही करना है। वे तो जानी जान थे। उस दिन गृहयुद्ध शुरू हो जाता, सत्यानाश हो जाता, यदि साहेब अपनी कृपा न बक्शते। कबीर साहेब ने कहा कि एक काम कर लेना तुम मेरे शरीर को आधा-आधा काट लेना। परन्तु लड़ना मत। ये मेरा अंतिम आदेश सुन लो और मानो, इसमें जो वस्तु मिले उसको आधा आधा कर लेना। महिना माघ शुक्ल पक्ष तिथि एकादशी वि. स. 1575 (एक हजार पाँच सौ पचहतर) सन् 1518 को कबीर साहेब ने एक चद्दर नीचे बिछाई और एक ऊपर ओढ़ ली। कुछ फूल कबीर साहेब के नीचे वाली चद्दर पर दो इंच मोटाई में बिछा दिये। थोड़ी सी देर में आकाश वाणी हुई कि मैं तो जा रहा हूँ सतलोक में (स्वर्ग से भी ऊपर)। देख लो चद्दर उठा कर इसमें कोई शव नहीं है। जो वस्तु है वे आधी-आधी ले लेना परन्तु लड़ना नहीं। जब चदद्र उठाई तो सुगंधित फूलों का ढेर शव के समान ऊँचा मिला। बोलो सतगुरू देव की जय ‘‘सत साहेब।‘‘

बीर देव सिंह बघेल और बिजली खाँ पठान एक दूसरे के सीने से लग कर ऐसे रोने लगे जैसे कि बच्चों की माँ मर जाती है। फिर तो वहाँ पर रूदन मच गया। हिन्दू और मुसलमानों का प्यार सदा के लिए अटूट बन गया। एक दूसरे को सीने से लगा कर हिन्दू और मुसलमान रो रहे थे। कहने लगे कि हम समझे नहीं। ये तो वास्तव में अल्लाह आए हुए थे। और ऊपर आकाश में प्रकाश का गोला जा रहा था। बोलो सतगुरू देव की जय ‘‘सत साहेब।‘‘ तो वहाँ मगहर में दोनों धर्मों (हिन्दुओं तथा मुसलमानों) ने एक-एक चद्दर तथा आधे-आधे सुगंधित फूल लेकर सौ फूट के अंतर पर एक-एक यादगार भिन्न-भिन्न बनाई जो आज भी विद्यमान है तथा कुछ फूल लाकर कांशी में जहाँ कबीर साहेब एक चबूतरे(चैरा) पर बैठकर सतसंग किया करते वहाँ काशी चैरा नाम से यादगार बनाई। अब वहाँ पर बहुत बड़ा आश्रम बना हुआ है। मगहर में दोनों यादगारों के बीच में एक साझला द्वार भी है आपस में कोई भेद-भाव नहीं है।

मगहर स्थान पर हिंदुओं तथा मुसलमानों द्वारा बनाई गई साथ-2 यादगार

हिन्दू और मुसलमान ऐसे रहते हैं कि जैसे माँ जाए भाई रहा करते हैं। उनसे हमने बात की थी तो उन्होंने कहा कि हमारी आज तक धर्म के नाम पर कोई लड़ाई नहीं हुई। वैसे कहा सुनी तो घर के घर में हो जाती है। फिर भी हमारी आपस में धर्म के नाम पर लड़ाई नहीं होती है। बिजली खाँ पठान ने दोनों यादगारों के नाम पाँच सौ, पाँच सौ बीघा जमीन दी जिसमें हिन्दू तथा मुसलमान अपने प्रबन्धक कमेटी बनाकर व्यवस्थित किए हैं। यह दास (संत रामपाल दास जी महाराज) अपने सैंकड़ों सेवकों सहित तीन बार इस ऐतिहासिक धार्मिक स्थल को देखकर आ चुके हैं। वहाँ जाकर ऐसा लगता है जैसे हमने सच्चाई का खजाना प्राप्त हो गया हो। बोलो सतगुरू देव की जय ‘‘सत साहेब।‘‘

जब कबीर साहिब सतलोक जा रहे थे उस समय आदि माया (प्रकृति) ने फिर जाल बिछाया। एक सुन्दर स्त्राी(अप्सरा) का रूप बना कर कबीर साहिब को भोग विलास के लिए प्रेरित किया, परंतु मुँह की खाकर चली गई।

बन्दी छोड़ गरीबदास जी महाराज की वाणी से राग मारू का शब्द नं. 9:-

देख्या मघर जहूरा हो, कांशी मैं कीर्ति करि चाले, झिलमिल देही नूरा हो।।टेक।। माया आदि अर्श तैं उतरी, बनी अपसरा हूरा हो। हम तौ बरैं कबीर पुरुष कूं, तूं है दुलहा पूरा हो।।1।। माया कहैं कबीर पुरुष सैं, देखो बदन जहूरा हो। अर्श विमान सुरग में मंदर, भोगैं हम कूं सूरा हो।।2।। कहै कबीर सुनौ री माया, कुटिल नजरि तुम घूरा हो। जिनि भोगी सोई कलि रोगी, हो गये धूरम धूरा हो।।3।। माया कहै कबीर पुरुष सैं, मैं हूं जग सैं दूरा हो। मैं तुमरी पटराँनी दासी, राखौ पलक हजूरा हो।।4।। कहै कबीर सुनौ री माया, तुम हो लड्डू बूरा हो। जो तुझि खावै सो बहजावै, तास अकलि के कूरा हो।।5।। सेत मुकुट जहां सेत छत्रा है, बाजैं अनहद तूरा हो। दास गरीब कहै सुनि माया, हम सैं रहियौ दूरा हो।।6।।

कामी नर के अंग की वाणी नं. 74-91:-

माया सतगुरु सूं अटकी, माया सतगुरु सूं अटकी। जोगनि हमरै क्यूं भटकी, जोगनि हमरै क्यूं भटकी।। हम तो भगलीगर जोगी, हम तो भगलीगर जोगी। हम नहीं माया के भोगी, हम नहीं माया के भोगी।। तोमैं झगरा है भारी, तोमैं झगरा है भारी। मारे बड छत्राधारी, मारे बड छत्राधारी।। सेवा करिसूं मैं नीकी, सेवा करिसूं मैं नीकी। हमकूं लागत है फीकी, हमकूं लागत है फीकी।। हमरी सार नहीं जानी, हमरी सार नहीं जानी। अरीतैंतोघालि दई घानी, अरीतैंतोघालि दई घानी।। चलती फिरती क्यूं नांहीं, चलती फिरती क्यूं नांही। हम रहते अविगतपद मांहि, हम रहते अविगतपद मांहि।। अरी तूं गहली है गोली, अरी तूं गहली है गोली। दाग लगावैगी चोली, दाग लगावैगी चोली।। मेरा अंजन है नूरी, मेरा अंजन है नूरी। अंदर महकै कस्तूरी, अंदर महकै कस्तूरी।। तुम किसी राजा पै जावो, तुम किसी राजा पै जावो। हमरे मन नांहीं भावो, हमरे मन नांहीं भावो।। मैं तो अर्धंगी दासी, मैं तो अर्धंगी दासी। हम हैं अनहदपुर बासी, हम हैं अनहदपुर बासी।। हमरा अनहद में डेरा, हमरा अनहद में डेरा। अंत न पावैगी मेरा, अंत न पावैगी मेरा।। हमतो आदि जुगादिनिजी, हमतो आदि जुगादिनिजी। अरी तुझ माता कहूंकधी, अरी तुझ माता कहूंकधी।। अब मैं देऊंगी गारी, अब मैं देऊंगी गारी। हमतो जोगी ब्रह्मचारी, हमतो जोगी ब्रह्मचारी।। आसन बंधूंगी जिंदा, आसन बंधूंगी जिंदा। गल में डारौंगी फंदा, गल में डारौंगी फंदा।। आसन मुक्ता री माई, आसन मुक्ता री माई। तीनूं लोक न अंघाई, तीनूं लोक न अंघाई।। हमरै द्वारै क्यूं रोवौ, हमरै द्वारै क्यूं रोवौ। किसी राजाराणेकूं जोवौ, किसी राजाराणे कूं जोवौ।। हमरै भांग नहीं भूनी, हमरै भांग नहीं भूनी। माया शीश कूटि रूंनी, माया शीश कूटि रूंनी।। तूंतो जोगनि है खंडी, तूंतो जोगनि है खंडी। मौहरा फेरि चली लंडी, मौहरा फेरि चली लंडी।।

-: धर्मदास जी का शब्द :-

आज मोहे दर्शन दियो जी कबीर।।टेक।।
सत्य लोक से चल कर आए, काटन यम की जंजीर ।।1।।
थारे दर्शन से म्हारे पाप कटत हैं, निर्मल होवै जी शरीर ।।2।।
अमृत भोजन म्हारे सतगुरू जीमैं, शब्द दूध की खीर।।3।।
हिन्दू के तुम देव कहाये, मुसलमान के पीर।।4।।
दोनांे दीन का झगड़ा छिड़ गया, टोहे ना पाये शरीर।।5।।
धर्मदास की अर्ज गुसाई, खेवा लंघाइयों परले तीर।।6।।

मलूक दास जी

मलूक दास जी को परमेश्वर कबीर जी संत रूप में मिले थे। उनको सत्यलोक ले जाकर वापिस छोड़ा था। अपनी महिमा से परिचित करवाया। उसके पश्चात् संत मलूक दास जी ने कबीर जी की महिमा का गुणगान किया।

अगम निगम बोध के पृष्ठ 45 (1735) पर मलूक दास जी का शब्द है:-

जपो रे मन साहेब नाम कबीर। (टेक)
एक समय गुरू बंशी बजाई कालिंद्री के तीर। सुरनर मुनि सब चकित भये, रूक गया यमुना नीर।।
काशी तज गुरू मगहर गए, दोऊ दीन के पीर।।
कोई गाड़ै कोई अग्नि जलावै, नेक न धरते धीर। चार दाग से सतगुरू न्यारा। अजरो-अमर शरीर।।
जगन्नाथ का मंदिर बचाया, ऐसे गहर गम्भीर। दास मलूक सलूक कहत है, खोजो खसम कबीर।।

संत दादू दास जी को कबीर जी ने शरण में लिया

श्री दादू जी को सात वर्ष की आयु में जिन्दा बाबा जी के स्वरूप में परमेश्वर जी मिले थे। (दादू पंथ की एक पुस्तक में ग्यारह वर्ष की आयु में कबीर जी का मिलना लिखा है।) उस समय कई अन्य हमउम्र बच्चे भी खेल रहे थे। परमेश्वर कबीर जी ने अपने कमण्डल (लोटे) से कुछ जल पान के पत्ते को कटोरे की तरह बनाकर पिलाया तथा प्रथम नाम देकर सत्यलोक ले गए। दादू जी तीन दिन-रात अचेत (coma में) रहे। फिर सचेत हुए तथा कबीर जी का गुणगान किया। जो बच्चे श्री दादू जी के साथ खेल रहे थे। उन्होंने गाँव में आकर बताया कि एक बूढ़ा बाबा आया था। उसने जादू-जंत्रा का जल दादू को पिलाया था। परंतु दादू जी ने बताया था कि:-

जिन मोकूं निज नाम दिया, सोई सतगुरू हमार। दादू दूसरा कोई नहीं, कबीर सिरजनहार।।
दादू नाम कबीर की, जे कोई लेवे ओट। ताको कबहू लागै नहीं, काल वज्र की चोट।।
केहरी नाम कबीर है, विषम काल गजराज। दादू भजन प्रताप से, भागै सुनत आवाज।।
अब हो तेरी सब मिटे, जन्म-मरण की पीर। श्वांस-उश्वांस सुमरले, दादू नाम कबीर।।

स्पष्टीकरण:– संत मलूक दास जी तथा संत दादू दास जी को परमेश्वर संत गरीबदास जी की तरह सतलोक जाने के पश्चात् मिले थे। यह प्रकरण कबीर सागर में नहीं था, बाद में लिखा गया है।

अगम निगम बोध पृष्ठ 44 (1734) पर नानक जी का शब्द है:-

वाह-वाह कबीर गुरू पूरा है। (टेक)
पूरे गुरू की मैं बली जाऊँ जाका सकल जहूरा है।
अधर दुलीचे परे गुरूवन के, शिव ब्रह्मा जहाँ शूरा है।
श्वेत ध्वजा फरकत गुरूवन की, बाजत अनहद तूरा है।
पूर्ण कबीर सकल घट दरशै, हरदम हाल हजूरा है।
नाम कबीर जपै बड़भागी, नानक चरण को धूरा है।

अगम निगम बोध पृष्ठ 46 पर प्रमाण दिया है कि महादेव जी के पूज्य ईष्ट देव कबीर परमेश्वर जी हैं।

पारख के अंग की वाणी नं. 1134-1146:-

गरीब, सील मांहि सर्व लोक हैं, ज्ञान ध्यान बैराग। जोग यज्ञ तप होम नेम, गंगा गया प्रयाग।।1134।।
गरीब, कहाँ सुरग पाताल सब, और कहां मत्यु लोक। फिर पीछै कौं क्या रहा, जब आया संतोष।।1135।।
गरीब, बिवेक बिहंगम अचल है, आया हृदय मांहि। भक्ति मुक्ति और ज्ञान गति, फिर पीछै कछु नांहि।।1136।।
गरीब, दया सर्वका मूल हैं, क्षमा छिक्या जो होय। त्रिलोकी कौं त्यार दे, नाम परमेश्वर गोय।।1137।।
गरीब, दश हजार रापति बल, कामदेव महमन्त। ता शिर अंकुश शीलका, तोरत गज के दंत।।1138।।
गरीब, क्रोध बली चंडाल है, बल रापति द्वादश सहंस। एक पलक में डोबिदे, अनंत कोटि जीव हंस।।1139।।
गरीब, ता शिर अंकुश क्षमाका, मारै तुस तुस बीन। त्रिलोकी सें काढि दे, जै कोय साधु प्रबीन।।1140।।
गरीब, लोभ सदा लहर्या रहै, त्रिलोकी में अंछ। बलरापति बीस सहंस हैं, पलक पलक प्रपंच।।1141।।
गरीब, ता अंकुश संतोष है, त्रिलोकी सें काढि। काटै कोटि कटक दल, संतोष तेग बड़ बाड।।1142।।
गरीब, मोह मुवासी मस्त है, बलरापति तीस सहंस। त्रिलोकी परिवार है, जहां उपजै तहां वंश।।1143।।
गरीब, ता शिर अंकुश बिवेक है, पूरण करैं मुराद। त्रिलोकी की बासना, ले बिवेक सब साधि।।1144।।
गरीब, सरजू सिरजनहार है, जल न्हाये क्या होय। भक्ति भली परमेश्वर की, नाम बीज दिल बोय।।1145।।
गरीब, ये बैरागर छिप रहैं, हृदय कमल कै मांहि। नघ पत्थर एक ठौर हैं, बीनैं जिस बलि जांहि।।1146।।

सरलार्थ:– इन वाणियों में विशेष ज्ञान नहीं है। यह ज्ञान पहले कई अंगों में वर्णन है। इनमें बताया है कि (शील) संयम, संतोष, विवेक, दया, क्षमा आदि ये गुण इंसान में होने चाहिएँ।

काम (स्त्री भोग = sex), क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार से भक्त को बचना चाहिए। इनसे बचना जीव के वश में नहीं है। साधना से बचाव होता है। साधना भी सतपुरूष कबीर जी की करने से लाभ होता है।

  • काम (sex) में दस हजार हाथियों जितना बल है, समाधान शील है।
  • क्रोध में बारह हजार हाथियों जितना बल है, समाधान क्षमा करना है।
  • लोभ में बीस हजार हाथियों का बल है, समाधान संतोष करना है।
  • मोह में तीस हजार हाथियों जितना बल है, समाधान विवेक है।
  • अहंकार सर्वनाश करने वाला है। इसमें छत्तीस हजार हाथियों का बल है। समाधान आधीनी भाव करना है।

पारख के अंग की वाणी नं. 1147-1169:-

गरीब, मन को मुरजीवा करैं, गोता दिल दरियाव। माणिक भरे समुद्र में, बाहिर लेकै आव।।1147।।
गरीब, बैरागर के गंज हैं, ऊंचै शून्य सुमेर। तापर आसन मार कर, सुन मुरली की टेर।।1148।।
गरीब, बाजै मुरली कौहक पद, बिना कण्ठ मुख द्वार। आठ बखत सुनता रहै, सुनि अनहद झनकार।।1149।।
गरीब, उस मुरली की लहरि सैं, कहर जरैं ज्यौं घास। आठ बखत पद में रहै, कोई जन हरि के दास।।1150।।
गरीब, मुरली मधुर अधर बजै, राग छतीसौं बैंन। इत उत मुरली एक हैं, चरनां बिसरी धैंन।।1151।।
गरीब, मुरली उरली बिधि नहीं, बाजत है परलोक। सरब जीव अचराचरं, सुनि करि पाया पोष।।1152।।
गरीब, मुरली मदन मुरारि मुख, बाजी नन्द द्वार। सकल जीव ल्यौलीन गति, सुनिया गोपी ग्वाल।।1153।।
गरीब, बाजत मुरली मुख बिना, सुनियत बिनही कान। स्वर्ग सलहली गर्ज धुन,फिर भी अबिगत पद निर्वाण।।1154।।
गरीब, मुरली बजै कबीर की, परखो मुरली बिबेक। ताल ख्याल नहीं भंग होय, बाजैं बजैं अनेक।।1155।।
गरीब, अनंत कोटि बाजै बजैं, ता मधि मुरली टेर। रनसींगे सहनाईयां, झालरि झांझरि भेर।।1156।।
गरीब, बजैं नफीरी शुन्य में, घट मठ नहीं आकाश। सो जन भिन्न भिन्न सुनत हैं, जो लीन करैं दमश्वास।।1157।।
गरीब, मुरली गगन गर्ज धुनि, जहां चन्द्र नहीं सूर। नाद अगाध घुरैं जहां, बाजत अनहद तूर।।1158।।
गरीब, तूर दूर नहीं निकट हैं, तन मन करि ले नेश। मुरली के मोहे पडे, ब्रह्मा बिष्णु महेश।।1159।।
गरीब, बिष्णु सुनी शंकर सुनी, ब्रह्मा सुनी एक रिंच। पारब्रह्म कूं मोहिया, और भू आत्म पंच।।1160।।
गरीब, मुरली सरली सुरति सर, जिन सरबर तूं न्हाय। अनंत कोटि तीरथ बगै, परबी द्यौं समझाय।।1161।।
गरीब, मुरली बजै अगाधि गति, शिब विरंच बिष्णु सुन लीन्ह। उस मुरली की टेर सुन, नारद डारी बीन।।1162।।
गरीब, नारद शारद सब थके, सनक सनन्दन संत। अनंत कोटि जुग कलप क्या, बाजत हैं बे अंत।।1163।।
गरीब, सुन्दर मुर्ति मोहनी, पीतांबर पहिरानं। मुरली जाके मुख बजै, दर दिवाल गलतानं।।1164।।
गरीब, कालंदरी के तीर, बाजी मुरली मुख कबीर। सुनी ब्रह्मा बिष्णु महेश कुं, और दरिया का नीर।।1165।।
गरीब, सूक्ष्म मूर्ति स्वर्ग में, छत्रसेत शिर शीश। बाहर भीतर खेलता, है कबीर अबिगत जगदीश।।1166।।
गरीब, भिरंग नाद अगाध गति, राग रूप होय जात। नूरी रूप हो गया, पिण्ड प्राण सब गात।।1167।।
गरीब, उस मुरली की टेर सुनि, फेरि धरत नहीं जूंनि। आसन गगन औजूद बिन, बिचरत शून्य बेशुंनि।।1168।।
गरीब, बिन शाखा फूलै फलै, बिना मूल महकंत। बिना घटा लखि दामनी, बिन बादल गरजंत।।1169।।

सरलार्थ:– जैसे समुद्र में मोती हैं। (मूरजीवा) गोताखोर होकर समुद्र से मोती लाता है। ऐसे मानव के दिल रूपी दरिया में परमात्मा की शक्ति का खजाना है। सत्य साधना करने से वह भक्त की आत्मा में प्रवेश कर जाती है। जैसे कोई बैंक में नौकरी करता है। बैंक रूपयों से भरा है, परंतु वह नौकरी करता रहेगा तो बैंक से उसकी तनख्वाह उसे मिल जाएगी, उसके खाते में आ जाएगी। (1147)

(बैरागर) हीरों के (गंज) खजाने हैं, ऊँचे-ऊँचे ढ़ेर लगे हैं। तापर आसन लायकर यानि भक्ति करने से भक्त को अध्यात्मिक शक्ति मिलती है। परमात्मा के पास तो शक्ति के पहाड़ हैं। सुमेरू पर्वत सबसे विशाल माना जाता है। उससे परमात्मा की शक्ति की उपमा की है कि सत्य साधना करने से भक्त की भक्ति की कमाई (धन) अत्यधिक हो जाएगा। उसके कारण शरीर में धुन (संगीत) सुनाई देने लगेगा। वैसे तो परमात्मा के सतलोक में असँख्यों धुन (संगीत की ध्वनि) हो रही हैं। जब भक्ति कमाई (शक्ति) अधिक हो जाती है, तब मूरली की (टेर) ध्वनि सुनाई देने लगती है। इसलिए उपमात्मक तरीके से समझाया है कि सुमेरू पर्वत जितनी विशाल भक्ति की शक्ति हो जाए, तब उसे सुमेरू जैसी भक्ति के बाद मुरली सुनाई देगी। तब आपका सत्यलोक जाने का मार्ग खुल गया है। जीवात्मा उसे सुनती-सुनती उस ओर चलती है। सतलोक पहुँच जाती है। वह निरंतर बजती रहती है। उस मुरली की आवाज सुनने से (कहर) भयंकर दंड देने वाले पाप ऐसे नष्ट हो जाते हैं जैसे सूखा घास जलकर भस्म बन जाता है।

श्री कृष्ण जी नंद बाबा के द्वार पर पृथ्वी पर मुरली बजाते थे तो अनेकों गोपियाँ (गौ पालन करने वालों की पत्नियाँ) तथा ग्वाले सुनकर मस्त हो जाते। गोपियाँ रात्रि में अपने पतियों को सोये हुए छोड़कर चुपचाप मुरली सुनने चाँदनी रात्रि में जंगल में श्री कृष्ण के पास चली जाती थी।

परंतु जो मुरली सतपुरूष कबीर जी के सत्यलोक में बज रही है, उसकी मधुरता तथा आकर्षण श्री कृष्ण वाली मुरली से असँख्य गुणा अधिक है। स्वर्ग में बादल की गर्ज जैसी आवाज आती है। (अविगत पद निर्वाण) पूर्ण मोक्ष की पद्यति भिन्न है। कबीर परमात्मा की मुरली की ध्वनि को परखो जो सत्यलोक में बज रही है। काल ने धोखा देने के लिए ब्रह्मलोक में भी मुरली की ध्वनि चला रखी है जो सतपुरूष कबीर जी की सत्यलोक वाली मुरली की ध्वनि की तुलना में बहुत खराब है। सत्यलोक में असँख्यों बाजे बज रहे हैं। संगीत चल रहा है। उनके बीच में ही मुरली की ध्वनि भी चल रही है।

जो मुरली काल ब्रह्म ने ब्रह्मलोक में नकली बजा रखी है, परमात्मा कबीर जी ने अपने लोक वाली मुरली ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव को एक-एक बार सुनाई थी। वे उस मुरली की (टेर) ध्वनि पर मोहित हो गए हैं। परंतु उनकी साधना सतलोक वाली नहीं है। इसलिए वे उसे नहीं सुन पा रहे हैं।

परमात्मा कबीर जी अच्छी भक्त आत्माओं को मिलते हैं। इस क्रम में ऋषि नारद को भी मिले थे। उसे भी सतलोक वाली मुरली एक बार सुनाई थी। कुछ समय तक नारद जी सुनते रहे। उस मुरली की सुरीली ध्वनि को सुनकर नारद मुनि ने अपनी मुरली फैंक दी कि यह तो उस मुरली की तुलना में कुछ मायने नहीं रखती। (1148-1164)

जिस समय परमात्मा कबीर जी काशी नगर (भारत) में जुलाहे की भूमिका करके तत्त्वज्ञान प्रचार किया करते थे। उस समय धनी धर्मदास जी को मिले थे। सेठ धर्मदास जी श्री कृष्ण के परम भक्त थे। बाद में तत्त्वज्ञान सुनकर तथा सत्यलोक में परमात्मा कबीर जी को आँखों देखकर मान गए थे कि समर्थ परमात्मा कबीर जी हैं। एक दिन चलती बात पर धर्मदास जी ने कहा कि हे सतगुरू देव! श्री कृष्ण की मुरली की ध्वनि में इतना आकर्षण था, बताते हैं कि गौएँ, गोपियाँ तथा ग्वाले आकर्षित होकर उसकी ओर स्वतः चले आते थे। ऐसी क्या शक्ति थी उनमें? परमात्मा बोले कि हे धर्मदास! इसका उत्तर जुबानी नहीं दिया जा सकता। कार्यरूप देकर (च्तंबजपबंससल) उत्तर दिया जाएगा। चलो उस स्थान पर जहाँ श्री कृष्ण मुरली बजाया करते थे। परमात्मा कबीर जी अपने प्रिय भक्त धर्मदास जी को साथ लेकर कालंदरी (यमुना) के उस तट पर गए जहाँ श्री कृष्ण मुरली बजाया करते। कबीर परमात्मा ने आकाश की ओर संकेत किया। एक मुरली उनके हाथ में आ गई। परमात्मा ने मुरली बजानी प्रारम्भ की। आसपास के क्षेत्र के सभी स्त्री-पुरूष, पशु-पक्षी, स्वर्ग लोक के देवता, स्वर्ग गए हुए ऋषि-मुनि, तीनों ब्रह्मा-विष्णु-महेश भी अपने-अपने लोक त्यागकर मुरली की (टेर) ध्वनि सुनने आए थे।

यमुना नदी का जल भी परमात्मा की मुरली की टेर सुनने के लिए रूक गया। एक पहर यानि तीन घण्टे तक मुरली बजाई। सब यथास्थिति में खड़े रहे। टस से मस भी नहीं हुए। जब मुरली रूकी तो सब कबीर जी की जय-जयकार करने लगे। स्थानीय लोगों ने जानना चाहा कि यह कौन देव है जिसने इतनी मधुर मुरली बजाई है। इनकी शक्ति का कोई वार-पार नहीं है। उन्हें बताया गया कि ये पूर्ण परमात्मा हैं। काशी में जुलाहे का कार्य कर रहे हैं। सब अपने-अपने स्थान को लौट गए।

संत मलूक दास जी को परमात्मा कबीर जी मिले थे। सत्यलोक दिखाया। अपने से परिचित करवाया था। उन्होंने कहा था:-

एक समय गुरू मुरली बजाई, कालंदरी के तीर। सुरनर मुनिजन थकत भए थे, रूक गया जमना नीर।
जपो रे मन साहेब नाम कबीर।। (1165)

परमात्मा कबीर जी सूक्ष्म रूप में स्वर्ग में गुप्त निगरानी रखते हैं। सत्यलोक में सिंहासन पर बैठे हैं। सिर के ऊपर सफेद (white) छत्र लगा रखा है। नराकार है। उस मुरली की टेर सुनकर यदि साधक शरीर त्याग देता है तो वह बहुत समय तक पुनर्जन्म नहीं लेता। उसमें आकाश में उड़ने की सिद्धि आ जाती है। वह ऊपर सुन्न में तथा अन्य शून्य स्थानों में भ्रमता रहता है। उसे कोई (आसन) ठिकाना नहीं होता। उसका स्थूल शरीर भी नहीं होता। सूक्ष्म शरीर में अपनी भक्ति को खा-खर्चकर पुनः पृथ्वी पर मानव जन्म भी प्राप्त कर सकता है। चैरासी लाख प्रकार के प्राणियों के शरीरों में भी जन्म ले सकता है। (1166-1168)

सतलोक में परमात्मा की शक्ति से फूल बिना शाखा के दिखाई देते हैं। यह कुछ क्षेत्र है। बिना घटा बादल के (दामिनि) बिजली देखो। बिना बादल के बादल की गर्जना सुनो। ऐसा दिव्य है सतलोक। (1169)

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