ऋषि चुणक तथा मानधाता की कथा
कथा प्रसंग: गीता ज्ञान दाता (ब्रह्म) ने गीता अध्याय 7 श्लोक 16-17 में बताया है कि मेरी भक्ति चार प्रकार के भक्त करते हैं - 1. आर्त (संकट निवारण के लिए) 2. अर्थार्थी (धन लाभ के लिए), 3. जिज्ञासु (जो ज्ञान प्राप्त करके वक्ता बन जाते हैं) और 4. ज्ञानी (केवल मोक्ष प्राप्ति के लिए भक्ति करने वाले)। इनमें से तीन को छोड़कर चैथे ज्ञानी को अपना पक्का भक्त गीता ज्ञान दाता ने बताया है।
ज्ञानी की विशेषता:- ज्ञानी वह होता है जिसने जान लिया है कि मनुष्य जीवन केवल मोक्ष प्राप्ति के लिए ही प्राप्त होता है। उसको यह भी ज्ञान होता है कि पूर्ण मोक्ष के लिए केवल एक परमात्मा की भक्ति करनी चाहिए। अन्य देवताओं (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिवजी) की भक्ति से पूर्ण मोक्ष नहीं होता। उन ज्ञानी आत्माओं को गीता अध्याय 4 श्लोक 34 तथा यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 10 में वर्णित तत्वदर्शी सन्त न मिलने के कारण उन्होंने वेदों से स्वयं निष्कर्ष निकाल लिया कि ‘‘ब्रह्म’’ समर्थ परमात्मा है, ओम् (ऊँ) इसकी भक्ति का मन्त्रा है। इस साधना से ब्रह्मलोक प्राप्त हो जाता है। यही मोक्ष है। ज्ञानी आत्माओं ने परमात्मा प्राप्ति के लिए हठयोग किया। एक स्थान पर बैठकर घोर तप किया तथा ओम् (ऊँ) नाम का जाप किया। जबकि वेदों व गीता में हठ करने, घोर तप करने वाले मूर्ख दम्भी तथा राक्षस बताए हैं। (गीता अध्याय 3 श्लोक 4 से 9, गीता अध्याय 16 श्लोक 17 से 20 तथा गीता अध्याय 17 श्लोक 1 से 6)। इनको हठयोग करने की प्रेरणा कहाँ से हुई? श्री देवीपुराण (गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित सचित्र मोटा टाईप) के तीसरे स्कंद में लिखा है कि ब्रह्मा जी ने अपने पुत्र नारद को बताया कि जिस समय मेरी उत्पत्ति हुई, मैं कमल के फूल पर बैठा था। आकाशवाणी हुई कि तप करो-तप करो। मैंने एक हजार वर्ष तक तप किया।
हे धर्मदास! ब्रह्माजी को वेद तो बाद में सागर मन्थन में मिले थे। उनको पढ़ा तो यजुर्वेद अध्याय 40 के मन्त्रा 15 में ‘ओम्’’ नाम मिला। उसका जाप तथा आकाशवाणी से सुना हठयोग (घोर तप) दोनों मिलाकर ब्रह्मा जी स्वयं करने लगे तथा अपनी सन्तानों (ऋषियों) को बताया। (चारों वेदों तथा इन्हीं का निष्कर्ष श्रीमद्भगवत गीता में हठ करके घोर तप करने वालों को राक्षस, क्रूरकर्मी, नराधम यानि नीच व्यक्ति कहा है। प्रमाण गीता अध्याय 16 श्लोक 17-20 तथा अध्याय 17 श्लोक 1-6 में।) वही साधना ज्ञानी आत्मा ऋषिजन करने लगे। उन ज्ञानी आत्माओं में से एक चुणक ऋषि का प्रसंग सुनाता हूँ जिससे आप के प्रश्न का सटीक उत्तर मिल जाएगाः-
चुणक ऋषि
एक चुणक नाम का ऋषि था। उसने हजारों वर्षों तक घोर तप किया तथा ओम् (ऊँ) नाम का जाप किया। यह ब्रह्म की भक्ति है। ब्रह्म ने प्रतिज्ञा कर रखी है कि मैं किसी साधना यानि न वेदों में वर्णित यज्ञों से, न जप से, न तप से, किसी को भी दर्शन नहीं दूँगा। गीता अध्याय 11 श्लोक 48 में कहा है कि हे अर्जुन! तूने मेरे जिस रुप के दर्शन किए अर्थात् मेरा यह काल रुप देखा, यह मेरा स्वरुप है। इसको न तो वेदों में वर्णित विधि से देखा जा सकता, न किसी जप से, न तप से, न यज्ञ से तथा न किसी क्रिया से देखा जा सकता। गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 7 श्लोक 24-25 में स्पष्ट किया है कि यह मेरा अविनाशी विधान है कि मैं कभी किसी को दर्शन नहीं देता, अपनी योग माया से छिपा रहता हूँ। ये मूर्ख लोग मुझे मनुष्य रूप अर्थात् कृष्ण रूप में मान रहे हैं। जो सामने सेना खड़ी थी, उसकी ओर संकेत करके गीता ज्ञान दाता कह रहा था। कहने का भाव था कि मैं कभी किसी को दर्शन नहीं देता, अब तेरे ऊपर अनुग्रह करके यह अपना रूप दिखाया है।
भावार्थ:- वेदों में वर्णित विधि से तथा अन्य प्रचलित क्रियाओं से ब्रह्म प्राप्ति नहीं है। इसलिए उस चुणक ऋषि को परमात्मा प्राप्ति तो हुई नहीं, सिद्धियाँ प्राप्त हो गई। ऋषियों ने उसी को भक्ति की अन्तिम उपलब्धि मान लिया। जिसके पास अधिक सिद्धियाँ होती थी, वह अन्य ऋषियों से श्रेष्ठ माना जाने लगा। यही उपलब्धि चुणक ऋषि को प्राप्त थी।
मानधाता चक्रवर्ती राजा
एक मानधाता चक्रवर्ती राजा (जिसका राज्य पूरी पृथ्वी पर हो, ऐसा शक्तिशाली राजा) था। उसके पास 72 अक्षौणी सेना थी। राजा ने अपने आधीन राजाओं को कहा कि जिसको मेरी पराधीनता स्वीकार नहीं, वे मेरे साथ युद्ध करें, एक घोड़े के गले में एक पत्र बाँध दिया कि जिस राजा को राजा मानधाता की आधीनता स्वीकार न हो, वो इस घोड़े को पकड़ ले और युद्ध के लिए तैयार हो जाए। पूरी पृथ्वी पर किसी भी राजा ने घोड़ा नहीं पकड़ा। घोड़े के साथ कुछ सैनिक भी थे। वापिस आते समय ऋषि चुणक ने पूछा कि कहाँ गए थे सैनिको! उत्तर मिला कि पूरी पृथ्वी पर घूम आए, किसी ने घोड़ा नहीं पकड़ा। किसी ने राजा का युद्ध नहीं स्वीकार किया। ऋषि ने कहा कि मैंने यह युद्ध स्वीकार लिया। सैनिक बोले हे कंगाल! तेरे पास दाने तो खाने को हैं नहीं और युद्ध करेगा महाराजा मानधाता के साथ? ऋषि चुणक जी ने घोड़ा पकड़कर वृक्ष से बाँध लिया। मानधाता राजा को पता चला तो युद्ध की तैयारी हुई। राजा ने 72 अक्षौणी सैना की चार टुकड़ियाँ बनाई। ऋषि पर हमला करने के लिए एक टुकड़ी 18 अक्षौणी (18 करोड़) सेना भेज दी । दूसरी ओर ऋषि ने अपनी सिद्धि से चार पूतलियाँ बनाई। एक पुतली छोड़ी जिसने राजा की 18 अक्षौणी सेना का नाश कर दिया। राजा ने दूसरी टुकड़ी छोड़ी। ऋषि ने दूसरी पुतली छोड़ी, उसने दूसरी टुकड़ी 18 अक्षौणी सेना का नाश कर दिया। इस प्रकार चुणक ऋषि ने मानधाता राजा की चार पुतलियों से 72 अक्षौणी सेना नष्ट कर दी। जिस कारण से महर्षि चुणक की महिमा पूरी पृथ्वी पर फैल गई। इस अनर्थ के कारण सर्वश्रेष्ठ ऋषि माना गया।
हे धर्मदास! (जिन्दा रुप धारी परमात्मा बोले) ऋषि चुणक ने जो सेना मारी, ये पाप कर्म ऋषि के संचित कर्मों में जमा हो गए। ऋषि चुणक ने जो ऊँ (ओम्) एक अक्षर का जाप किया, वह उसके बदले ब्रह्मलोक में जाएगा। फिर अपना ब्रह्म लोक का सुख समय व्यतीत करके पृथ्वी पर जन्मेगा। जो हठ योग तप किया, उसके कारण पृथ्वी पर राजा बनेगा। फिर मृत्यु के उपरान्त कुत्ते का जन्म होगा। जो 72 अक्षौणी सेना मारी थी, वह अपना बदला लेगी। कुत्ते के सिर में जख्म होगा और उसमें कीड़े बनकर 72 अक्षौणी सेना अपना बदला चुकाएगी। इसलिए हे धर्मदास! गीता ज्ञान दाता (ब्रह्म) ने अपनी साधना से होने वाली गति यानि मुक्ति को अनुत्तम (अश्रेष्ठ) कहा है।
प्रश्न 45 (धर्मदास जी का):- हे जिन्दा! मैंने एक महामण्डलेश्वर से प्रश्न किया था कि गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में भगवान कृष्ण जी ने किस परमेश्वर की शरण में जाने के लिए कहा है? उस मण्डलेश्वर ने उत्तर दिया था कि भगवान श्री कृष्ण से अतिरिक्त कोई भगवान ही नहीं। कृष्ण जी ही स्वयं पूर्ण परमात्मा हैं, वे अपनी ही शरण आने के लिए कह रहे हैं, बस कहने का फेर है। हे जिन्दा जी! कृप्या मुझ अज्ञानी का भ्रम निवारण करें।
उत्तर: (जिन्दा बाबा परमेश्वर का):- हे धर्मदास!
ये माला डाल हुए हैं मुक्ता। षटदल उवा-बाई बकता। आपके सर्व मण्डलेश्वर तथा शंकराचार्य अट-बट करके भोली जनता को भ्रमित कर रहे हैं। कह रहे हैं कि गीता ज्ञान दाता गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में अर्जुन को अपनी शरण में आने को कहता है, यह बिल्कुल गलत है क्योंकि गीता अध्याय 2 श्लोक 7 में अर्जुन ने कहा कि ‘हे कृष्ण! अब मेरी बुद्धि ठीक से काम नहीं कर रही है। मैं आप का शिष्य हूँ, आपकी शरण में हूँ। जो मेरे हित में हो, वह ज्ञान मुझे दीजिए। हे धर्मदास! अर्जुन तो पहले ही श्री कृष्ण की शरण में था। इसलिए गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य ‘परम अक्षर ब्रह्म’ की शरण में जाने के लिए कहा है। गीता अध्याय 4 श्लोक 3 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि हे अर्जुन तू मेरा भक्त है। इसलिए यह गीता शास्त्रा सुनाया है।
गीता ज्ञान दाता से अन्य पूर्ण परमात्मा का अन्य प्रमाण गीता अध्याय 13 श्लोक 11 से 28, 30, 31, 34 में भी है।
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श्री मद्भगवत गीता अध्याय 13 श्लोक 1 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि शरीर को क्षेत्र कहते हैं जो इस क्षेत्र अर्थात् शरीर को जानता है, उसे “क्षेत्रज्ञ” कहा जाता है। (गीता अध्याय 13 श्लोक 1)
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गीता अध्याय 13 श्लोक 2 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि:- मैं क्षेत्रज्ञ हूँ। क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ दोनों को जानना ही तत्वज्ञान कहा जाता है, ऐसा मेरा मत है। गीता अध्याय 13 श्लोक 10 में कहा है कि मेरी भक्ति अव्यभिचारिणी होनी चाहिए। जैसे अन्य देवताओं की साधना तो गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 तथा 20 से 23 में तथा अध्याय 9 श्लोक 23-24 में व्यर्थ कही हैं। केवल ब्रह्म की भक्ति करें। उसके विषय में यहाँ कहा है कि अन्य देवता में आसक्त न हों। भावार्थ है कि भक्ति व मुक्ति के लिए ज्ञान समझें, वक्ता बनने के लिए नहीं। इसके अतिरिक्त वक्ता बनने के लिए ज्ञान सुनना अज्ञान है। पतिव्रता स्त्री की तरह केवल मुझमें आस्था रखकर भक्ति करें। अन्य मनुष्यों में बैठकर बातें बनाने का स्वभाव नहीं होना चाहिए। एकान्त स्थान में रहकर भक्ति करें।
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गीता अध्याय 13 श्लोक 11 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि अध्यात्म ज्ञान में रूचि रखकर तत्व ज्ञान के लिए सद्ग्रन्थों को देखना तत्वज्ञान है, वह ज्ञान है तथा तत्वज्ञान की अपेक्षा कथा कहानियाँ सुनाना, सुनना, शास्त्रविधि विरूद्ध भक्ति करना यह सब अज्ञान है। तत्वज्ञान के लिए परमात्मा को जानना ही ज्ञान है।
गीता अध्याय 13 श्लोक 12 में गीता ज्ञान दाता ने अपने से “परम ब्रह्म” यानि श्रेष्ठ परमात्मा का ज्ञान कराया है, जो परमात्मा (ज्ञेयम्) जानने योग्य है, जिसको जानकर (अमृतम् अश्नुते) अमरत्व प्राप्त होता है अर्थात् पूर्ण मोक्ष का अमृत जैसा आनन्द भोगने को मिलता है। उसको भली-भाँति कहूँगा। (तत्) वह दूसरा (ब्रह्म) परमात्मा न तो सत् कहा जाता है और न असत् अर्थात् गीता ज्ञान दाता ने अध्याय 4 श्लोक 32, 34 में कहा है कि जो तत्वज्ञान है, उसमें परमात्मा का पूर्ण ज्ञान है, वह तत्वज्ञान परमात्मा अपने मुख कमल से स्वयं उच्चारण करके बोलता है। उस तत्वज्ञान को तत्वदर्शी सन्त जानते हैं, उनको दण्डवत् प्रणाम करने से, नम्रतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म तत्व को भली-भाँति जानने वाले तत्वदर्शी सन्त तुझे तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे। इससे सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञान दाता को परमात्मा का पूर्ण ज्ञान नहीं है। इसलिए कह रहा है कि वह दूसरा परमात्मा जो गीता ज्ञान दाता से भिन्न है। वह न सत् है, न ही असत्। यहाँ पर पर+ब्रह्म का अर्थ सात संख ब्रह्माण्ड वाले परब्रह्म अर्थात् गीता अध्याय 15 श्लोक 16 वाले अक्षर पुरूष से नहीं है क्योंकि काल लोक (जो 21 ब्रह्माण्डों का क्षेत्र है) में अक्षर पुरूष जिसे परब्रह्म कहा है, की विशेष भूमिका नहीं है। यहाँ काल लोक में काल तथा दयाल की भूमिका है। इसलिए यहाँ (पर माने दूसरा और ब्रह्म माने परमात्मा) ब्रह्म से अन्य परमात्मा पूर्ण ब्रह्म का वर्णन है।
भावार्थ:- गीता अध्याय 13 श्लोक 12 में गीता ज्ञान दाता कह रहा है कि जो मेरे से दूसरा ब्रह्म अर्थात् प्रभु है वह अनादि वाला है। अनादि का अर्थ है जिसका कभी आदि अर्थात् शुरूवात न हो, कभी जन्म न हुआ हो। गीता ज्ञानदाता क्षर पुरूष है, इसे “ब्रह्म” भी कहा जाता है। इसने गीता अध्याय 2 श्लोक 12, गीता अध्याय 4 श्लोक 5, 9, गीता अध्याय 10 श्लोक 2 में स्वयं स्वीकारा है कि हे अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं, तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। इससे सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञानदाता अनादि वाला “ब्रह्म” अर्थात् प्रभु नहीं है। इससे यह सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञानदाता ने अध्याय 13 के श्लोक 12 में अपने से अन्य अविनाशी परमात्मा की महिमा कही है। (अध्याय 13 श्लोक 12)
गीता ज्ञान दाता ब्रह्म है, यह एक हजार (संहस्र) हाथ-पैर वाला है। इसका संहस्र कमल है अर्थात् हजार पँखुड़ियों वाला कमल है। गीता अध्याय 11 श्लोक 46 में अर्जुन ने कहा है कि हे संहस्राबाहु! (हजार हाथों वाले) आप चतुर्भुज रूप में आइए। इससे सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञानदाता केवल हजार भुजाओं वाला है। इसलिए गीता अध्याय 13 श्लोक 13 में गीता ज्ञान दाता अपने से अन्य सब और हाथ-पैर वाले, सब और नेत्र सिर और मुख वाले और सब और कान वाले परमात्मा की महिमा कह रहा है। कहा है कि वह परमात्मा संसार में सबको व्याप्त करके अर्थात् अपनी शक्ति से सब रोके है और स्वयं सत्यलोक (शाश्वत स्थानम् तिष्ठति) में बैठा है।
स्पष्ट हुआ कि गीता ज्ञानदाता से अन्य समर्थ परमात्मा है, वही सब संसार का संचालन, पालन करता है। (गीता अध्याय 13 श्लोक 13)
गीता के अध्याय 13 श्लोक 14 श्लोक में भी स्पष्ट है कि गीता ज्ञान दाता अपने से अन्य परमात्मा का ज्ञान कराया है। कहा है:- सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को जानने वाला अर्थात्ा् अन्तर्यामी है। सब इन्द्रियों से रहित है अर्थात् परमात्मा की इन्द्रियाँ हम मानव तथा अन्य प्राणियों जैसी विकारग्रस्त नहीं है। वह परमात्मा आसक्ति रहित है अर्थात् वह इस काल लोक (इक्कीस ब्रह्माण्डों) की किसी वस्तु-पदार्थ में आसक्ति नहीं रखता क्योंकि उस परमेश्वर का सत्यलोक इस काल के क्षेत्र से असख्यों गुणा उत्तम है। इसलिए वह परमात्मा आसक्ति रहित कहा है। वही सबका धारण-पोषण करने वाला है। यही प्रमाण गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में भी है। वह परमात्मा निर्गुण है, परंतु सगुण होकर ही अपना महत्व दिखाता है। उदाहरण के लिए:- जैसे आम का पेड़ आम के बीज (गुठली) में निर्गुण अवस्था में होता है। उस बीज को जब बीजा जाता है, तब वह पौधा फिर पेड़ रूप में सगुण होकर अपना महत्व प्रकट करता है। परन्तु परमात्मा सत्यलोक में सर्गुण रूप में बैठा है क्योंकि परमात्मा ने अपने वचन शक्ति से सर्व सृष्टि रचकर विधान बनाकर छोड़ दिया। उस परमात्मा के विधान अनुसार सर्व प्राणी तथा नक्षत्र बनते-बिगड़ते रहते हैं, जीव कर्मानुसार जन्मते-मरते रहते हैं। परमात्मा को कोई टैंशन नहीं, परन्तु जब परमात्मा पृथ्वी पर प्रकट होता है, उस समय सर्व गुणों को भोगता है। जैसे आम के वृक्ष को तो निर्गुण से सर्गुण होने में बहुत समय लगता है। परन्तु परमात्मा के लिए समय सीमा नहीं है। वे तो क्षण में निर्गुण, अगले क्षण में सर्गुण हो सकते हैं। जैसे क्षण में सत्यलोक चले जाते हैं तो हमारे लिए निर्गुण हो गए। हम उनके गुणों का लाभ प्राप्त नहीं कर सकते। क्षण में पृथ्वी पर प्रकट हो जाते हैं तो वे सगुण हो गए। हमारे को आशीर्वाद देकर अपने गुणों का लाभ देते हैं। इस प्रकार निर्गुण-सगुण कहा है। इससे भी सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञान दाता से अन्य कोई सबका धारण-पोषण करने वाला परमात्मा है।
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गीता अध्याय 13 श्लोक 15-16 में भी यही प्रमाण है। गीता ज्ञानदाता ने कहा है कि जैसे सूर्य दूर स्थान पर स्थित होते हुए भी यहाँ पृथ्वी पर अपना प्रभाव बनाए है। उसी प्रकार परमात्मा सत्यलोक में स्थित होकर भी सर्व ब्रह्माण्डों पर अपनी शक्ति का प्रभाव बनाए हुए है। सर्व चर-अचर भूतों के बाहर-भीतर है। इसी प्रकार सूक्ष्म होने से हम उसको चर्मदृष्टि से देख नहीं पाते। इसलिए अविज्ञय अर्थात् हमारे ज्ञान से परे है तथा वही परमात्मा हमारे समीप में तथा दूर भी वही स्थित है। परमात्मा तो दूर सत्यलोक (शाश्वत स्थान) में है, उसकी शक्ति का प्रभाव प्रत्येक के साथ है। (गीता अध्याय 13 श्लोक 15)
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जैसे सूर्य दूर स्थित है, परन्तु पृथ्वी के ऊपर प्रत्येक प्राणी को अपने साथ दिखाई देता है। जैसे एक स्थान पर कई घड़े जल के भरे रखे हैं तो सूर्य प्रत्येक में दिखाई देता है, टुकड़ों में नहीं दिखता। इसी प्रकार परमात्मा प्रत्येक व्यक्ति को दिखाई देता है। परमात्मा ऐसे ही एक स्थान पर स्थित है। वह परमात्मा जानने योग्य है। भावार्थ है कि गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि मेरे से अन्य परमात्मा का ज्ञान होना चाहिए, वह जानने योग्य है। वही परमात्मा अपने विधानानुसार सर्व का धारण-पोषण, उत्पत्ति तथा मृत्यु करता है। वास्तव में “ब्रह्मा” (सब का उत्पत्तिकर्ता) वही है। वास्तव में विष्णु (सबका धारण-पोषण करने वाला) वही है, वास्तव में शंकर (संहार करने वाला) वही है। अन्य ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर तो केवल एक ब्रह्माण्ड के कर्ता-धरता हैं। परन्तु वह परमात्मा तो सर्व ब्रह्माण्डों का ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर रूप में अकेला ही है। जैसे भारत वर्ष में केन्द्र का भी गृहमंत्री होता है तथा राज्यों में भी गृहमंत्री होते हैं। देश के प्रधानमंत्री जी अपने पास अन्य विभाग भी रख लेते हैं। उस समय प्रधानमंत्री जी गृहमंत्री आदि-आदि भी होते हैं और प्रधानमंत्री भी होते हैं।
इससे सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य समर्थ परमात्मा की महिमा बताई है। गीता ज्ञान दाता से अन्य कोई पूर्ण परमात्मा है। (गीता अध्याय 13 श्लोक 16) गीता अध्याय 13 श्लोक 17 में गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य परमात्मा की महिमा कही है जो इस प्रकार हैः-
वह दूसरा परमात्मा (परम् ब्रह्म) सब ज्योतियों की भी ज्योति है अर्थात् सर्व प्रकाशस्रोत है, उसी अन्य समर्थ परमात्मा की शक्ति से सब प्रकाशमान हैं। और उस परमात्मा का प्रकाश सर्व से अधिक है। वह परमात्मा माया से अति परे कहा जाता है। वास्तव में निरंजन वही है। जो गीता ज्ञान दाता है, यह माया सहित “ज्योति निरंजन” कहा जाता है। वह परमात्मा ज्ञान का भण्डार है, वह जानने योग्य है, वह (ज्ञानगम्यम्) तत्व ज्ञान द्वारा प्राप्त होने योग्य है।
इस गीता अध्याय 13 श्लोक 17 में मूल पाठ में “ज्ञानम् ज्ञेयम् ज्ञान गम्यम्” लिखा है जिसका भावार्थ है कि (ज्ञानम्) जो ज्ञान परमात्मा स्वयं पृथ्वी पर प्रकट होकर तत्वज्ञान अपने मुख कमल से बोलता है। इसलिए वह ज्ञान रूप है अर्थात् ज्ञान का भण्डार है। वह परमात्मा (ज्ञेयम् ज्ञानग्यम्) उसी तत्वज्ञान से जानने योग्य तथा उसी तत्वज्ञान से प्राप्त करने योग्य है। वह परमात्मा सर्व प्राणियों के हृदय में स्थित है। जैसे सूर्य दूर स्थान पर होते हुए भी प्रत्येक घड़े के जल में दिखाई देता है। वास्तव में वह उन घड़ों में नहीं हैं। परंतु घड़ों के ऊपर अपना प्रभाव रखता है, उष्णता देता है। सूक्ष्म वेद में कहा है कि:-
ब्रह्मा विष्णु शिव राई झूमकरा। नहीं सब बाजी के खम्ब सुनों राई झूमकरा।
वह सर्व ठाम सब ठौर है राई झूमकरा। सकल लोक भरपूर सुनो राई झूमकरा।।
यही प्रमाण गीता अध्याय 18 श्लोक 61 में भी है कहा है कि हे अर्जुन! शरीर रूप यन्त्र में आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी माया अर्थात् अपनी शक्ति से उनके कर्मानुसार भ्रमण कराता है अर्थात् संस्कारों के अनुसार अच्छी-बुरी योनियों में घूमाता है। वही सर्व शक्तिमान परमात्मा सर्व प्राणियों के हृदय में स्थित है अर्थात् विराजमान है। इसी प्रकार परमेश्वर की महिमा गीता अध्याय 13 श्लोक 17 में कही है। इससे सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य पूर्ण परमात्मा की महिमा कही है। (गीता अध्याय 13 श्लोक 17)
गीता अध्याय 13 श्लोक 18 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि इस प्रकार क्षेत्र अर्थात् शरीर, ज्ञानम् तत्व ज्ञान और ज्ञेयम् अर्थात् जानने योग्य परमात्मा की महिमा मैंने संक्षेप में कही है। मेरा भक्त पहले मुझे ही सर्वेस्वा जानकर मुझ पर आश्रित था। वह इस (विज्ञाय) तत्वज्ञान के आधार से मेरे भाव अर्थात् मेरी शक्ति से परिचित होकर तथा उस समर्थ की शक्ति से परिचित होकर (उप पद्यते) उसके उपरान्त भक्ति करके उसी भाव को प्राप्त होता है। (गीता अध्याय 13 श्लोक 18)
इसी प्रकार गीता अध्याय 13 श्लोक 19 में गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य पुरूष अर्थात् परमात्मा की महिमा कही है। कहा है कि प्रकृति और पुरूष दोनों ही अनादि हैं। यहाँ पर प्रकृति से तात्पर्य सत्यलोक की प्रकृति से है। जिसको पराशक्ति, परानन्दनी, महान प्रकृति कहा जाता है। पुरूष का अर्थ पूर्ण परमात्मा है, ये दोनों अनादि हैं। इस प्रकृति का भावार्थ दुर्गा स्त्राी रूप की तरह स्त्राी रूप प्रकृति से नहीं है। जैसे सूर्य है तो उसकी प्रकृति उष्णता भी साथ ही है। इसी प्रकार सत्यपुरूष तथा उसकी प्रकृति अर्थात् शक्ति दोनों अनादि हैं। इस प्रकार विकार तथा तीनों गुण जिस से उत्पन्न हुए हैं, वह अन्य प्रकृति है, उससे उत्पन्न हुए हैं, ऐसा जान। गीता अध्याय 7 श्लोक 4-5 में दो प्रकृति कही हैं, एक जड़ और दूसरी चेतन दुर्गा देवी। यहाँ पर दूसरी प्रकृति दुर्गा कही है। (गीता अध्याय 13 श्लोक 19)
गीता अध्याय 13 श्लोक 20 में भी अन्य (पुरूषः) परमात्मा का वर्णन है। गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित गीता के इस श्लोक के अनुवाद में “पुरूषः” का अर्थ जीवात्मा किया। वास्तव में यहाँ पुरूष का अर्थ परमात्मा है। गीता अध्याय 13 श्लोक 20 का यथार्थ अनुवाद देखें “गहरी नजर गीता में” जो हमारी website पर देखी व डाऊनलोड की जा सकती है। website का नाम है www.jagatgururampalji.org
गीता अध्याय 13 श्लोक 21 में भी अन्य (पुरूषः) परमात्मा का वर्णन है। इसके अनुवाद में गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित में “पुरूषः” का अर्थ पुरूष ही किया है, यह ठीक है। पुरूषः का अर्थ परमात्मा होता है। प्रकरणवश पुरूषः का अर्थ मनुष्य भी किया जाता है क्योंकि परमात्मा ने मनुष्य को अपने स्वरूप के अनुरूप बनाया है। इसलिए कहा जाता है कि:-
नर नारायण रूप है, तू ना समझ देहि।