धर्मदास जी के विषय में विशेष प्रकरण
- नारायण दास को काल का दूत बताना
- धर्मदास जी के दूसरे पुत्र चूड़ामणी की उत्पत्ति
- धर्मदास जी को सार शब्द देने का प्रमाण
- धर्मदास की पीढ़ी वालों को काल ने छला
कबीर सागर में ‘‘अनुराग सागर’’ अध्याय में धर्मदास जी के विषय में विशेष प्रकरण है जो इस प्रकार है:-
नारायण दास को काल का दूत बताना
अनुराग सागर पृष्ठ 115 का सारांश:-
परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी को सत्यज्ञान समझाकर तथा सत्यलोक में ले जाकर अपना परिचय देकर धर्मदास जी के विशेष विनय करने पर उनको दीक्षा मंत्र दे दिये। प्रथम मंत्र में कमलों के देवताओं के जो जाप मंत्र हैं, वे दिए जाते हैं। धर्मदास जी उन देवों को ईष्ट रूप में पहले ही मानता था, पंरतु अब ज्ञान हो गया था कि ये ईष्ट रूप में पूज्य तो नहीं हैं, परंतु साधना का एक अंग हैं। धर्मदास की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। उसने अपने परिवार का कल्याण करना चाहा। धर्मदास जी के साथ उनकी पत्नी आमिनी देवी दीक्षा ले चुकी थी। केवल इकलौता पुत्र नारायण दास ही दीक्षा बिना रहता था। धर्मदास जी ने परमात्मा कबीर जी से अपने पुत्र नारायण दास को शरण में लेने के लिए प्रार्थना की।
धर्मदास वचन
हे प्रभु तुम जीवन के मूला। मेटेउ मोर सकल तन सूला।।
आहि नरायण पुत्र हमारा। सौंपहु ताहि शब्द टकसारा।।
इतना सुनत सदगुरू हँसि दीन्हा। भाव प्रगट बाहर नहिं कीन्हा।।
भावार्थ:– धर्मदास जी ने परमेश्वर कबीर जी से प्रार्थना की कि हे प्रभु जी! आप सर्व प्राणियों के मालिक हैं। मेरे दिल का एक सूल यानि काँटे का दर्द दूर करें। मेरा पुत्र नारायण दास है। उसको भी टकसार शब्द यानि वास्तविक मोक्ष मंत्र देने की कृपा करें। जब तक नारायण दास आपकी शरण में नहीं आता। तब तक मेरे मन में सूल (काँटे) जैसा दर्द बना है।
धर्मदास जी की बात सुनकर परमात्मा अंदर ही अंदर हँसे। हँसी को बाहर प्रकट नहीं किया। कारण यह था कि परमेश्वर कबीर जी तो जानीजान हैं, अंतर्यामी हैं। उनको पता था कि काल का मुख्य दूत मृत्यु अंधा ही नारायण दास रूप में धर्मदास के घर पुत्र रूप में जन्मा है।
कबीर परमेश्वर वचन
धर्मदास तुम बोलाव तुरन्ता। जेहिको जानहु तुम शुद्धअन्ता।।
धर्मदास तब सबहिं बुलावा। आय खसम के चरण टिकावा।।
चरण गहो समरथ के आई। बहुरि न भव जल जन्मो भाई।।
इतना सुनत बहुत जिव आये। धाय चरण सतगुरू लपटाये।।
यक नहिं आये दास नरायन। बहुतक आय परे गुरू पायन।।
धर्मदास सोच मन कीन्हा। काहे न आयो पुत्र परबीना।।
भावार्थ:– कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि हे धर्मदास! अपने पुत्र को भी बुला ले और जो कोई आपका मित्र या निकटवासी है, उनको भी बुला लो, सबको एक-साथ दीक्षा दे दूँगा। धर्मदास जी ने नारायण दास तथा अन्य आस-पड़ोस के स्त्राी-पुरूषों से कहा कि परमात्मा आए हैं, दीक्षा लेकर अपना कल्याण कराओ। फिर यह अवसर हाथ नहीं आएगा। यह बात सुनकर आसपास के बहुत से जीव आ गए, परंतु नारायण दास नहीं आया। धर्मदास जी को चिंता हुई कि मेरा पुत्र क्यों नहीं आया? वह तो बड़ा प्रवीन है। तीक्ष्ण बुद्धि वाला है। धर्मदास जी ने अपने नौकर तथा नौकरानियों से कहा कि मेरे पुत्र नारायण दास को बुलाकर लाओ। नौकरों ने देखा कि वह गीता पढ़ रहा था और आने से मना कर दिया।
नारायण दास वचन
हम नहिं जायँ पिता के पासा। वृद्ध भये सकलौ बुद्धि नाशा।।
हरिसम कर्ता और कहँ आहि। ताको छोड़ जपैं हम काही।।
वृद्ध भये जुलाहा मन भावा। हम मन गुरू विठलेश्वर पावा।।
काहि कहौं कछु कहो न जाई। मोर पिता गया बौराई।।
भावार्थ:– नारायण दास ने नौकरों से कहा कि मैं पिताजी के पास नहीं जाऊँगा। वृद्धावस्था (बुढ़ापे) में उनकी बुद्धि का पूर्ण रूप से नाश हो गया है। हरि (श्री विष्णु जी) के समान और कौन कर्ता है जिसे छोड़कर हम अन्य किसकी भक्ति करें? पिता जी को वृद्ध अवस्था में जुलाहा मन बसा लिया है। मैंने तो बिट्ठलेश्वर यानि बिट्ठल भगवान (श्री कृष्ण जी) को गुरू मान लिया है। क्या कहूँ? किसके सामने कहने लायक नहीं रहा हूँ। मेरे पिताजी पागल हो गए हैं।
नौकरों ने जो-जो बातें नारायण ने कही थी, धर्मदास जी को सुनाई। धर्मदास जी स्वयं नारायण दास को बुलाने गए और कहा कि हे पुत्र! आप चलो सतपुरूष आए हैं। चरणों में गिरकर विनती करो। अपना कल्याण कराओ। बेटा! फिर ऐसा अवसर हाथ नहीं आएगा। हे भोले बेटा! यह हठ छोड़ दे।
नारायण दास वचन
तुम तो पिता गये बौराई। तीजे पन जिंदा गुरू पाई।।
राम कृष्ण सम न देवा। जाकी ऋषि मुनि लावहिं सेवा।।
गुरू बिठलेश्वर छांडेउ दीता। वृद्ध भये जिंदा गुरू कीता।।
भावार्थ:– नारायण दास ने कहा कि पिता जी! आप तो पागल हो गए हो। तीजेपन यानि जीवन के तीसरे पड़ाव को पार कर चुके हो। 75 वर्ष तक के जीवन को तीसरा पड़ाव कहते हैं। आपने जिन्दा बाबा (मुसलमान संत) गुरू बना लिया। राम जी के समान अन्य कोई प्रभु नहीं है। जिसकी सेवा (पूजा) सब ऋषि-मुनि करते रहे हैं।
धर्मदास वचन
बांह पकर तब लीन्ह उठाई। पुनि सतगुरू के सन्मुख लाई।।
सतगुरू चरण गहो रे बारा। यम के फन्द छुड़ावन हारा।।
तज संसार लोक कहँ जाई। नाम पान गुरू होय सहाई।।
भावार्थ:– धर्मदास जी ने अपने पुत्र नारायण दास को बाजू से पकड़कर उठाया और सतगुरू कबीर जी के सामने ले आया। हे मेरे बालक! सतगुरू के चरण ग्रहण करो। ये काल की बंद से छुड़ाने वाले हैं। जिस समय संसार छोड़कर सतलोक में जाएंगे तो गुरू दीक्षा सहायता करती है।
नारायण दास वचन
तब मुख फेरे नरायन दासा। कीन्ह मलेच्छ भवन परगासा।।
कहँवाते जिंदा ठग आया। हमरे पितहिं डारि बौराया।।
वेद शास्त्रा कहँ दीन उठाई। आपनि महिमा कहत बनायी।।
जिंदा रहे तुम्हारे पासा। तो लग घरकी छोड़ी आसा।।
इतना सुनत धर्मदासा अकुलाने। ना जाने सुत का मत ठाने।।
पुनि आमिन बहुविधि समझायो। नारायण चित एकु न आयो।।
तब धर्मदास गुरू पहँ आये। बहुविधिते पुनि बिनती लाये।।
भावार्थ:– सतगुरू कबीर जी के सम्मुख जाते ही नारायण दास ने अपना मुख दूसरी ओर टेढ़ा किया और बोला कि पिता जी! आपने मलेच्छ (मुसलमान) को घर में प्रवेश करवाया है। धर्म भ्रष्ट कर दिया है। यह जिंदा बाबा ठग कहाँ से आया। मेरे पिता को बहका दिया है। इसने वेद-शास्त्रों को तो एक और रखा दिया, अपनी महिमा बनाई है। जब तक यह जिन्दा घर में रहेगा, मैं घर में नहीं आऊँगा। अपने पुत्र की इतनी बातें सुनकर धर्मदास व्याकुल हो गया कि बेटा पता नहीं क्या कर बैठेगा? फिर नारायण दास की माता जी आमिनी देवी ने भी बहुत समझाया, परंतु नारायण दास के हृदय में एक बात नहीं आई और उठकर चला गया। धर्मदास जी ने परमेश्वर कबीर जी से प्रार्थना की कि हे प्रभु! क्या कारण है। नारायण दास इतना विपरित चल रहा है।
कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि हे धर्मदास! तेरे पुत्र रूप में काल का दूत आया है। इसका नाम मृत्यु अंधा दूत है। यह मेरी बात को नहीं मानेगा।
विवेचन:– पाठकों से निवेदन है कि अनुराग सागर के पृष्ठ 117 पर ‘‘कबीर वचन‘‘ जो पंक्ति 15 नं. 22 अंतिम तक तथा पृष्ठ 118 तथा पृष्ठ 123 तक वाणियां बनावटी तथा मिलावटी हैं। यह धर्मदास जी के बिंद (परिवार वाले) महंतों ने नाश कर रखा है क्योंकि जिन 12 पंथों का यहाँ वर्णन है वह ‘‘कबीर बानी‘‘ अध्याय में कबीर सागर में पृष्ठ 134 पर लिखे प्रथम अंश से नहीं मिलता। उसमें लिखा है कि प्रथम अंश उत्तम यानि चूड़ामणी (मुक्तामणी) नाम साहेब के विषय में कहा है। यदि काल के बारह (12) पंथों में प्रथम उत्तम है तो नारायण दास प्रथम पंथ का प्रवर्तक नहीं हो सकता क्योंकि नारायण दास ने तो कबीर जी का मार्ग ग्रहण नहीं किया था। वे तो अंतिम समय तक श्री कृष्ण जी के पुजारी रहे थे। अपने छोटे भाई चूड़ामणी जी के दुश्मन बन गए थे। चूड़ामणी जी तो बाँधवगढ़ त्यागकर कुदुर्माल गाँव चले गए थे। नारायण दास ने बाँधवगढ़ में श्री कृष्ण जी का आलीशान मंदिर बनवाया था। श्री चूड़ामणी जी के कुदुर्माल जाने के कुछ वर्ष पश्चात् बाँधवगढ़ नगर भूकंप से नष्ट हो गया था। उसमें सब श्री कृष्ण पुजारी वैश्य रहते थे जैसे हरियाणा में अग्रोहा में हुआ था। बाद में उसी बाँधवगढ़ में श्री कृष्ण मंदिर बनाया गया है जो वर्तमान में विद्यमान है और उसको केवल जन्माष्टमी पर सरकार की देखरेख में तीन दिन दर्शनार्थ खोला जाता है। शेष समय में केवल सरकारी पुजारी मंदिर में पूजा करता है। कारण यह है कि उस स्थान पर खुदाई करना मना है। पहले खुदाई में बहुत व्यक्तियों को बहुत सोना-चाँदी हाथ लगा था। बाद में सरकार ने अपने कब्जे में ले रखा है। उस मंदिर का इतिहास नारायण दास सेठ से प्रारम्भ होता है। (यह वहाँ का पुजारी तथा वहाँ के उपासक बताते हैं।) धर्मदास जी के सर्व धन-संपत्ति पर नारायण दास ने कब्जा कर लिया था। श्री चूड़ामणी नाम साहेब तो परमेश्वर कबीर जी के भेजे परम हंस थे। उनका उद्देश्य धन-संपत्ति संग्रह करना नहीं था। परमात्मा के यथार्थ ज्ञान का प्रचार करना था तथा परमेश्वर कबीर जी के वचन अनुसार धर्मदास का वंश चलाना था जो बयालीस (42) पीढ़ी तक चलेगा। वर्तमान में चैदहवीं पीढ़ी चल रही है। चूड़ामणी की वंश गद्दी परंपरा में छठी पीढ़ी वाले ने वास्तविक भक्ति विधि तथा भक्ति मंत्र त्यागकर काल के 12 पंथों में भी पाँचवां टकसारी पंथ है, उसके बहकावे में आकर टकसारी पंथ वाली आरती-चैंका तथा पाँच नाम (अजर नाम, अमर नाम, अमीनाम आदि-आदि) शुरू कर दिये थे जो वर्तमान में दामाखेड़ा (छत्तीसगढ़) में गद्दी परंपरा वाले चैदहवें महंत श्री प्रकाश मुनि नाम साहेब प्रदान कर रहे हैं। अधिक जानकारी के लिए अनुराग सागर के पृष्ठ 138 से पृष्ठ 142 तक विस्तृत ज्ञान पढ़ें आगे।
धर्मदास जी के दूसरे पुत्र चूड़ामणी की उत्पत्ति
अनुराग सागर पृष्ठ 124 का सारांश:-
धर्मदास वचन
हे प्रभु तुम जीवन के मूला। मेटहु मोर सकल दुख शूला।।
आहि नरायन पुत्र हमारा। अब हम तहँकर दीन्हा निकारा।।
काल अंश गृह जन्मों आई। जीवन काज होवै दुखदाई।।
धन सतगुरू तुम मोहि लखावा। काल अंशको भाव चिन्हावा।।
पुत्र नरायना त्यागी हम दीन्हा। तुमरो वचन मानि हम लीना।।
धर्मदास साहब को अन्शका दर्शन होना
धर्मदास विनवै सिर नाई। साहिब कहो जीव सुखदाई।।
किहि विधि जीव तरै भौसागर। कहिये मोहि हंसपति आगर।।
कैसे पंथ करौं परकासा। कैसे हंसहिं लोक निवासा।।
दास नरायन सुत जो रहिया। काल जान ताकँइ परिहरिया।।
अब साहिब देहु राह बताइ। कैसे हंसा लोक समाई।।
कैसे बंस हमारो चलि है। कैसे तुम्हरो पंथ अनुसरि है।।
आगे जेहिते पंथ चलाई। ताते करो विनती प्रभुराई।।
भावार्थ:– कुछ वाणी काटी गई हैं। इसलिए वह प्रसंग बताता हूँ। धर्मदास जी को विश्वास नहीं हुआ कि नारायण दास वास्तव में काल दूत है। तब कबीर परमेश्वर जी से व्याकुल तथा पुत्र मोह से ग्रस्त होकर कहा कि हे सतगुरू जी! आप जो कहते हैं वह गलत नहीं हो सकता, परंतु मेरा मन मुझे परेशान कर रहा है कि नारायण दास तो भगवान का परम भक्त है। यह काल का दूत नहीं हो सकता। ऐसी करो गुरूदेव मेरी शंका समाप्त हो। परमेश्वर जी ने कहा कि हे धर्मदास! आप नारायण दास को फिर बुलाओ और दोनों पति-पत्नी तुम आओ। जैसे-तैसे नारायण दास बुलाया। परमेश्वर कबीर जी ने नारायण दास की प्रशंसा की। कहा कि धर्मदास! तेरे घर प्रभु का परम भक्त जन्मा है। यह जो भक्ति कर रहा है, करने दो, देख इसके मस्तिक की रेखा। दोनों (आमिनी तथा धर्मदास) देखो। ऐसी रेखा करोड़ों में एक की होती है। धर्मदास तथा आमिनी ने देखा कि नारायण दास का स्वरूप भयानक था। ओछा माथा और लंबे दाँत, काला शरीर। उसके ऊपर नारायण दास के भौतिक शरीर का कवर था जो पहले हटता दिखा, फिर लिपटता दिखा। अपने पुत्र रूप में काल के दूत को आँखों देखकर धर्मदास तथा आमिनी देवी ने एक सुर में कहा कि जाओ पुत्र! जैसी भक्ति करना चाहो करो, परंतु घर त्यागकर मत जाना। लोग हमें जीने नहीं देंगे। नारायण दास चला गया। कबीर साहब ने कहा कि हे धर्मदास! यह कहीं जाने वाला नहीं है। अब ऊपर लिखी अनुराग सागर के पृष्ठ 124 की वाणियों का सरलार्थ करता हूँ।
भावार्थ:– धर्मदास जी ने परमेश्वर कबीर जी से निवेदन किया कि हे प्रभु! आप तो सर्व प्राणियों के जनक हैं। मेरे मन की शंका दूर करो। नारायण तो काल का अंश। यह तो मैंने दिल से उतार दिया। और पुत्र है नहीं। नारायण दास की संतान काल प्रेरित रहेगी। इस प्रकार तो मेरा वंश काल वंश होगा। आपने कहा कि मेरा वंश बयालीस पीढ़ी तक चलेगा। हे परमात्मा! ये तो काल कुल होगा। आपने कहा है कि तू धर्मदास मेरे (कबीर जी के) पंथ को आगे बढ़ाना सो वह कैसे संभव हो सकेगा?
अनुराग सागर के पृष्ठ 125 का सारांश:-
कबीर वचन
धर्मदास सुनु शब्द सिखापन। कहों संदेश जानि हित आपन।।
नौतम सुरति पुरूष के अंशा। तुव गृह प्रगट होइ है वंशा।।
वचन वंश जग प्रगटे आई। नाम चुणामणि ताहि कहाई।।
पुरूष अंश के नौतम वंशा। काल फन्द काटे जिव संशा।।
छन्द
कलि यह नाम प्रताप धर्मनि, हंस छूटे कालसो।।
सत्तनाम मन बिच दृढ़गहे, सोनिस्तरे यमजालसो।।
यम तासु निकट न आवई, जेहि बंशकी परतीतिहो।
कलि काल के सिर पांदै, चले भवजल जीतिहो।।
सोरठा-तुमसों कहों पुकार, धर्मदास चित परखहू।।
तेहि जिव लेउँ उबार वचन जो वंश दृढ़ गहे।।
भावार्थ:– परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि तेरे घर मेरे वचन से तेरी पत्नी के गर्भ से एक पुत्र का जन्म दसवें महीने होगा। उसका नाम चूड़ामणी रखना। वैसे उसका नाम नोतम दास है। (मीनी सतलोक में काल लोक में भी परमेश्वर कबीर जी ने एक सतलोक की रचना की है जैसे राजदूत भवन प्रत्येक देश में प्रत्येक देश का होता है, उसका प्रसिद्ध नाम सतगुरू लोक है। वहाँ से चुड़ामणि वाला जीव भेजा जाएगा।) उसको मैं स्वयं दीक्षा तथा गुरू पद प्रदान करूँगा।
अनुराग सागर के पृष्ठ 125 का सारांश:-
धर्मदास वचन
भावार्थ:– धर्मदास जी ने कहा कि यदि उस अंश के एक बार दर्शन हो जाएं तो मन का सब संशय समाप्त हो जाएगा। आपके वचन पर विश्वास हो जाएगा।
कबीर परमेश्वर वचन
भावार्थ:– परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे मुक्तामणी! तू मेरा नामक अंश है। मेरे से सुकृत ने तेरे दर्शन का हठ किया है। एक बार शिशु रूप में इसके आंगन में प्रकट हो और फिर वापिस जाओ। {सतगुरू लोक यानि मीनी सतलोक से धर्मदास जी वाली आत्मा आई थी। वहाँ पर इनकी आत्मा का नाम सुकृत है। उस लोक के हंस इसी नाम से जानते हैं। सतगुरू लोक में जो हंस हैं, वे पार नहीं हुए हैं। उनकी भक्ति अधूरी रहती है, वे अंकुरी हंस हैं। अब कलयुग की बिचली पीढ़ी (कलयुग 5505 वर्ष बीतने के पश्चात् सन् 1997 से प्रारम्भ हुई है) में पृथ्वी पर जन्म लेंगे। यदि मेरे (रामपाल दास) से दीक्षा लेंगे, वे सर्व सतलोक चले जाएंगे।} परमेश्वर कबीर जी के कहते ही एक शिशु धर्मदास के घर के आँगन में पृथ्वी से एक फुट ऊपर दिखाई दिया। एक पैर का अंगूठा मुख में, एक को हिला रहा था। फिर तुरंत चला गया। धर्मदास तथा आमिनी देवी अति हर्षित हुए। परमेश्वर के चरणों में दण्डवत् प्रणाम किया।
धर्मदास वचन
भावार्थ:– हे परमात्मा! मेरी आयु अति वृद्ध हो चुकी है। उस समय धर्मदास जी की आयु लगभग 85 वर्ष की थी। आगे कैसे वंश चलेगा?
कबीर वचन
भावार्थ:– कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि यह जो शिशु आपने देखा था। वह तेरी पत्नी के गर्भ से दसवें महीने जन्म लेगा। जो यह तुम्हारा पुत्र होगा, यह हमारा अंश होगा। जो मैंने तेरे को सतनाम तथा सारनाम दिया है। वह भंडार है, उसको उसे देना जिसे मैं कहूँ।
धर्मदास वचन
भावार्थ:– हे प्रभु! मेरी इन्द्री शिथिल हो चुकी है। अब कैसे लड़का उत्पन्न होगा?
{स्पष्टीकरण:- इन वाणियों में मिलावट है जो लिखा है कि मैंने इन्द्री वश किन्हीं हैं, पुत्र कैसे होगा। यह गलत है। इन्द्री वश करने का अर्थ है संयम रखना। परंतु ऐसी आवश्यकता पड़ने पर संतानोत्पत्ति के लिए इन्द्री तो सक्रिय ही होती है। वास्तविकता यह थी कि वृद्ध अवस्था का हवाला देकर प्रश्न किया था। परंतु इतिहास गवाह है कि 80-90 वर्ष के व्यक्ति ने भी संतानोत्पत्ति की है। जिनका स्वास्थ्य ठीक चल रहा हो। फिर भी परमात्मा जो चाहे, कर सकते हैं। बांझ को संतान। नपुसंक को भी मर्द बना सकते हैं। यहाँ पर इतना ही समझना पर्याप्त है।
अनुराग सागर के पृष्ठ 126 का सारांश:-
धर्मदास जी को सार शब्द देने का प्रमाण
कबीर वचन
तब आयसु साहब अस भाखे। सुरति निरति करि आज्ञा राखे।।
पारस नाम धर्मनि लिखि देहू। जाते अंश जन्म सो लेहू।।
लखहु सैन मैं देऊँ लखाई। धर्मदास सुनियो चितलाई।।
लिखो पान पुरूष सहिदाना। आमिन देहु पान परवाना।।
भावार्थ:– परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे धर्मदास! अब आपका दृढ़ निश्चय हो गया है। तूने अपने पुत्र को भी त्याग दिया है। अब मैं तेरे को पारस पान (सारनाम की दीक्षा) देता हूँ। आमिनी देवी को भी सारनाम देता हूँ।
धर्मदास वचन
भावार्थ:– वाणियों को पढ़ने से ही पता चलता है कि इनमें कृत्रिम वाणी है, लिखा है कि:-
रति सुरति सो गरभ जो भयऊ। चूरामनी दास वास तहं लयऊ।।
इस वाणी से यह सिद्ध करना चाहा है कि सुरति से रति (sex) करने से चूड़ामणी का जन्म हुआ।
इस प्रकार कबीर सागर में अपनी बुद्धि के अनुसार यथार्थ वर्णन कई स्थानों पर नष्ट कर रखा है। इसके लिए जो मैंने (रामपाल दास ने) लिखा है, वही यथार्थ जानें कि परमेश्वर की शक्ति से धर्मदास तथा आमिनी के संयोग से पुत्र चूड़ामणी का जन्म हुआ। कई कबीर पंथी जो दामाखेड़ा गद्दी वालों के मुरीद (शिष्य) हैं, वे कहते हैं कि चूड़ामणी के शरीर की छाया नहीं थी। जिस कारण से कहा जाता है कि उनका जन्म सुरति से हुआ है। यहाँ याद रखें कि श्री ब्रह्मा, महेश, विष्णु जी के शरीर की छाया नहीं होती। उनका जन्म भी दुर्गा देवी (अष्टांगी) तथा ज्योति निरंजन के भोग-विलास (sex) करने से हुआ। कबीर सागर के अध्याय ज्ञान बोध के पृष्ठ 21-22 पर वाणी है:-
धर्मराय कीन्हें भोग विलासा। माया को रही तब आश।।
तीन पुत्र अष्टांगी जाये। ब्रह्मा, विष्णु, शिव नाम धराये।।
इसलिए यह कहना कि चूड़ामणी जी के शरीर की छाया नहीं थी। इसलिए यह लिख दिया कि सुरति से रति (sex) किया गया था, अज्ञानता का प्रमाण है। कबीर सागर के अनुराग सागर के पृष्ठ 126 का सारांश किया जा रहा है। स्पष्टीकरण दिया है कि वाणी में मिलावट करके भ्रम उत्पन्न किया है। मेरी (रामपाल दास की) सेवा इसलिए परमेश्वर जी ने लगाई है कि सब अज्ञान अंधकार समाप्त करूं। कबीर बानी अध्याय में कबीर सागर के पृष्ठ 134 पर भी परमेश्वर कबीर जी ने स्पष्ट किया है कि तेरहवें अंश मिटै सकल अंधियारा। अब आध्यात्मिक ज्ञान को पूर्ण रूप से स्पष्ट करके प्रमाणित करके आपके रूबरू कर रहा हूँ।
अनुराग सागर के पृष्ठ 127-128 का सारांश:-
इन दोनों पृष्ठों पर वृतान्त यह है कि परमेश्वर कबीर जी ने चूड़ामणी जी को दीक्षा दी तथा गुरू पद दिया। कहा कि हे धर्मदास! तेरे बयालीस वंश का आशीर्वाद दे दिया है और तेरे वंश मेरे वचन अंश चूड़ामणी को कड़िहार (तारणहार) का आशीर्वाद दे दिया है। तेरे वंश से दीक्षा लेकर जो मर्यादा में रहकर भक्ति करेगा, उसका कल्याण हो जाएगा। परंतु सार शब्द इस दीक्षा से भिन्न है। मैंने 14 कोटि ज्ञान कह दिया है, परंतु सार शब्द इनसे भिन्न है। अन्य नाम तो तारे जानो। सार शब्द को सूर्य जानो।
अनुराग सागर के पृष्ठ 129 का सारांश:-
धर्मदास वचन
धर्मदास विनती अनुसारी। हे प्रभु मैं तुम्हरी बलिहारी।।
जीवन काज वंश जग आवा। सो साहिब सब मोहि सुनावा।।
वचन वंश चीन्हे जो ज्ञानी। ता कह नहीं रोके दुर्ग दानी।।
पुरूष रूप हम वंशहि जाना। दूजा भाव न हृदये आना।।
नौतम अंश परगट जग आये। सो मैं देखा ठोक बजाये।।
तबहूँ मोहि संशय एक आवे। करहु कृपा जाते मिट जावे।।
हमकहँ समरथ दीन पठायी। आये जग तब काल फसायी।।
तुम तो कहो मोहि सुकृत अंशा। तबहूँ काल कराल मुहिडंसा।।
ऐसहिं जो वंशन कहँ होई। जगत जीव सब जाय बिगोई।।
ताते करहु कृपा दुखभंजन। वंशन छले नहिं काल निरंजन।।
और कछू मैं जानौं नाहीं। मोरलाज प्रभु तुम कहँ आही।।
भावार्थ:– धर्मदास जी ने शंका की और समाधान चाहा कि हे परमेश्वर जी! आपने मेरे वंश (बिन्द वालों) को कड़िहार (नाद दीक्षा देकर मोक्ष करने वाला) बना दिया। मुझे एक शंका है कि जैसे आपने मुझे कहा है कि तुम सुकृत अंश हो, संसार में जीवों के उद्धार के लिए भेजा है। आगे मेरे को काल ने फंसा लिया। आप मुझे सुकृत अंश कहते हो तो भी मेरे को काल कराल ने डस लिया यानि अपना रंग चढ़ा दिया। मैं (धर्मदास) काल के पुत्र श्री विष्णु पर पूर्ण कुर्बान था। आपने राह दिखाया और मुझे बचाया। कहीं काल मेरे वंश वालों के साथ भी छल कर दे तो संसार के जीव कैसे पार होंगे? वे सब नष्ट हो जाएंगे। इसलिए हे दुःख भंजन! ऐसी दया करो कि मेरे वंश वालों को काल निरंजन न ठगे। मैं और अधिक कुछ नहीं जानता, मेरी लाज आपके हाथ में है।
कबीर वचन
अनुराग सागर पृष्ठ 130 से 137 का सारांश:-
कबीर परमेश्वर जी ने बताया कि हे धर्मदास! काल बड़ा छलिया है। इसने पहले तो मेरे से तीन युगों में जीव थोड़े पार करने तथा कलयुग में जितने मर्जी पार कर देना, यह वर माँग लिया। बाद में कहा कि मेरे अंश (काल के दूत) पहले भेजूंगा जो तेरे (कबीर) नाम से 12 पंथ चलाएंगे। उनके चार मुखिया होंगे। अन्य भी होंगे। उसने अपने चार मुख्य दूतों से कहा कि जगत में मेरा शत्रु कबीर जाएगा। वह कबीर नाम से पंथ चलाएगा। भवसागर उजाड़ना चाहता है। कोई अन्य लोक सुखदायी तथा अन्य सतपुरूष बताएगा। वह झूठ बोलता है, तुम जाओ, मेरी भक्ति दृढाओ। इस प्रकार उसने (काल निरंजन ने) अपने दूत भेजे हैं। बताया है कि कबीर जम्बूद्वीप (भारत) में अपना पंथ चलाएगा। तुम कबीर नाम से 12 नकली पंथ चलाना। काल ने अपने दूतों को समझाकर पृथ्वी पर जाने के लिए कहा। चार मुख्य दूत हैं – रंभ, कूरंभ, जय तथा विजय।
ये सब जालिम हैं। इनमें ‘‘जय‘‘ नामक दूत अधिक दुष्ट है। वह तेरे वंश को भ्रमित करेगा। बांधवगढ़ के पास गाँव कुरकुट में चमार जाति में जन्म लेगा। साहब दास नाम कहावैगा। इसका पुत्र गणपति नाम का होगा। ये दोनों तेरी गद्दी वालों यानि वंश छाप वालों को भ्रमित करेंगे। वे झंग शब्द का उच्चारण करेंगे, यही दीक्षा मंत्र होगा। काल ने एक झांझरी द्वीप की रचना कर रखी है। उसमें काल का बाजा बजता है, वही काल लोक वाली भंवर गुफा में सुनता है। आरती चैंका करेंगे और अपने पंथ को वास्तविक कबीर पंथ बताकर तेरे वंश को विचलित करेंगे।
धर्मदास की पीढ़ी वालों को काल ने छला
अनुराग सागर पृष्ठ 138 से 142 तक का सारांश:-
पृष्ठ 138 पर भविष्य कथन अलग व्यौहार:–
परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि हे धर्मदास! जो कुछ आगे तेरे वंश में होगा और कैसे तेरे बयालीस वंश तथा जगत के अन्य जीवों को पार करूँगा। जो कुछ आगे होय है भाई। सो चरित्र तोहि कहूं बुझाई।। जो आगे होगा, वह चरित्र पूछो धर्मदास। जब तक तुम शरीर में रहोगे, तब तक काल निकट नहीं आएगा। तेरे शरीर त्यागने के पश्चात् काल तेरे कुल (वंश) के निकट आएगा और तेरे वंश का यथार्थ नाम दीक्षा खंडित करेगा। तेरे वंश वालों में यह अभिमान होगा कि हम धर्मदास के कुल के हैं, हम सबके तारणहार हैं। आपस में तो झगड़ा करेंगे ही, वे जो मेरा भेजा नाद (वचन का पुत्र यानि शिष्य) परंपरा वाले से जो मेरा सुपंथ (यथार्थ कबीर पंथ) चलाएगा, उसकी निंदा करके पाप के भागी होंगे, पार तो हो ही नहीं सकेंगे। इसलिए अपने वंश को समझा देना कि जब काल का दाॅव लग जाए, वंश परंपरा कुपंथ पर चले तो मैं अपना नाद (शिष्य) परम्परा का अपना अंश भेजूंगा, उसको प्रेम से मिलें और उससे दीक्षा ले लें। जैसे मेरा पुत्र कमाल था जिसको मैंने मृतक से जीवित किया था। उसको दीक्षा भी दी थी। वह स्वयंभू गुरू बन गया था। अपना जीवन नष्ट किया और अनेकों को भी ले डूबा। (विस्तार से वर्णन कबीर सागर के अध्याय ‘‘कमाल बोध‘‘ के सारांश में पढ़ें।)
पृष्ठ 139 पर:- कमाल को अभिमान हो गया था। मैंने उसको त्याग दिया था। मेरे को अहंकारी प्राणी पसंद नहीं हैं। हम तो भक्ति के साथी हैं, हाथी-घोड़ों को नहीं चाहता। जो प्रेम भक्ति करता है, उसको हृदय में रखता हूँ। इसलिए नाद पुत्र को (शिष्य परंपरा वाले को) दीक्षा देने का अधिकार यानि गुरू पद सौंपूंगा। मेरा पंथ नाद से ही उजागर होगा यानि प्रसिद्ध होगा। तेरे वंश वाले बहुत अहंकार करेंगे। धर्मदास जी ने चिंता जताई कि आप नाद वाले को गुरू पद दोगे, परंतु मेरे वंश वाले कैसे मोक्ष प्राप्त करेंगे? परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि तेरे वंश वाले हों, चाहे अन्य जीव हों, जो मेरे द्वारा भेजे अंश (नाद अंश) से दीक्षा लेकर मर्यादा में रहेंगे तो कैसे पार नहीं होंगे? जो हमारे वचन को मानेगा, वही वंश वाला मुझे प्यारा लगेगा। बिना वचन यानि नाद वाले को गुरू माने बिना पार नहीं हो सकता, मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। तेरे बयालीस (42) पीढ़ी को मैंने एक वचन से पार कर दिया है। वह वचन यह है कि (नाद परंपरा) वाले से दीक्षा लेकर पार हो जाएंगे। बिन्द वाले वंश कहलाते हैं और वचन (नाद) वाले बिना वे अपने घर यानि सतलोक नहीं जा सकते।
अनुराग सागर पृष्ठ 140 का सारांश:-
(कबीर वचन ही चल रहे हैं)
परमेश्वर कबीर जी बता रहे हैं कि मेरा नाद का पुत्र चूड़ामणी है। यह मेरा शिष्य है और आपका वंश (बिन्द) पुत्र है। यह मेरी आज्ञा से पंथ चलाएगा, जीवों का कल्याण करेगा। परंतु हे धर्मदास! तेरा वंश (कुल) के लोग अज्ञानी हैं। वे ठीक से ज्ञान नहीं समझेंगे। मेरे अंश को (जो मैं भेजूंगा) नहीं समझ सकेंगे और अन्य काल के दूतों से भ्रमित होकर कुमार्ग पर चलेंगे।
जो कुछ आगे तेरी वंश गद्दी वालों के साथ होगा, वह सुन! चूड़ामणी के पश्चात् छठी पीढ़ी वाले महंत को काल द्वारा चलाए गए 12 पंथों में से पाँचवां टकसारी पंथ होगा, वह ठगेगा। अपना ज्ञान सुनाकर प्रभावित करके काल जाल में डालेगा। तेरा छठी पीढ़ी वाला (पोता) उस टकसारी पंथ वाले से दीक्षा लेगा और उसी वाला आरती-चैंका किया करेगा। (वही हुआ, वर्तमान में जो दीक्षा बाँधवगढ़ गद्दी वाले महंत दे रहे हैं तथा जो आरती-चैंका कर रहे हैं, वह वही काल के दूत टकसारी वाली है) हे धर्मदास! इस प्रकार तेरा वंश अज्ञानी होकर काल के धोखे में पड़कर नरक में जाएगा। तेरा वंश मेरी वह दीक्षा जो मैंने चूड़ामणी को दी है, उसको छोड़ देगा। टकसारी वाली दीक्षा लेकर अपना जीवन नाश करेगा। ऐसे तेरा वंश (कुल) दुर्मति को प्राप्त होगा। वे तेरे वंश वाले ठग मेरे नाद अंश को बाधित करेंगे, पाप के भागी होंगे।
धर्मदास वचन
हे परमात्मा! पहले तो आप कह रहे थे कि तेरे बयालीस पीढ़ी को पार कर दूंगा। अब आप कह रहे हो कि काल जाल में फंसेगे। ये दोनों बात कैसे सत्य होंगी?
कबीर जी वचन
परमेश्वर कबीर जी ने कहा हे धर्मदास! तुम सावधान होवो और अपने वंश को समझा देना कि जिस समय काल झपट्टा लगाएगा यानि मार्ग से तेरे वंश को भ्रमित करेगा तो मैं अपना नाद यानि शिष्य परंपरा वाला हंस प्रकट करूँगा। यथार्थ कबीर पंथ यानि भक्ति मार्ग से भटके मानव को सत्य भक्ति पर दृढ़ करूँगा। उसी से दीक्षा लेकर तेरे वंश वाले मोक्ष प्राप्त करेंगे। वचन वंश (चुड़ामणि की संतान) भी नाद यानि शिष्य शाखा वाले से दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्ति करेगा।
अति महत्वपूर्ण शंका समाधान
विशेष विवेचन:- कुछ व्यक्ति इस प्रकरण को सुनकर भ्रम फैलाते हैं कि रामपाल के बिन्द वालों से इस पंथ का नाश होगा। हम रामपाल के नाद वाले (शिष्य) हैं। हमारे से यह पंथ आगे फैलेगा। हमें दान का पैसा दो, रामपाल वालों को न दो। ऐसे व्यक्ति काल के दूत हैं। वे अपने स्वार्थवश ऐसा भ्रम फैलाते हैं। मैं स्पष्ट करना चाहता हूँ कि धर्मदास के बिन्द वाले गुरू पद प्राप्त करके भक्ति विधि में परिवर्तन करके सत्य साधना त्यागकर काल साधना करते-कराते हैं। भक्ति विधि तथा ज्ञान गलत होने से यथार्थ पंथ का नुकसान (harm) होता है। मेरे पश्चात् कलयुग में कोई गुरू पद पर रहेगा ही नहीं। यह तेरहवां (13वां) अंतिम पंथ है। यह दास (रामपाल दास) अंतिम सतगुरू है। मेरे प्रकाश पुंज (म्समबजतवदपब) शरीर यानि क्टक् वाले स्वरूप से नाद दीक्षा दी जा रही है। यही आगे चलेगी। यह प्रक्रिया सन् 2009 से चल रही है। लाखों अनुयाई बन चुके हैं। प्रत्येक को लाभ हो रहा है और होता रहेगा। अब न तो भक्ति विधि यानि भक्ति के मंत्र बदल सकते हैं, न ज्ञान। फिर पंथ नष्ट होने का प्रश्न ही नहीं रहता। नाद और बिंद का झंझट ही समाप्त हो गया है। क्टक् से गुरू जी के नाम को दिलाने की सेवा नाद वालों को मिले, चाहे बिन्द वालों को, पंथ नष्ट नहीं हो सकता। आगे ही बढ़ेगा।
अनुराग सागर पृष्ठ 141 का सारांश:-
सार शब्द की चास यानि अधिकार नाद के पास होगा। यदि तेरा बिंद (पुत्र परंपरा) उससे दीक्षा नहीं लेंगे तो वे नष्ट हो जाएंगे। परमेश्वर कबीर जी ने नाद की परिभाषा स्पष्ट की है। कहा है कि हे धर्मदास! तू मेरा नाद पुत्र (वचन पुत्र यानि शिष्य) है। इसलिए तेरे को मुक्ति मंत्र यानि सार शब्द दे दिया है। परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी को गुरू पद दिया था। कहा था कि जब तक मैं संसार में हूँ, तब तक तू दीक्षा नहीं देगा। धर्मदास से कहा था कि सारशब्द किसी को नहीं बताना। इसको बिचली पीढ़ी सन् 1997 तक छुपाकर रखना है। अपने वंश वालों को भी नहीं बताना है। कुछ समय पश्चात् धर्मदास के मन में दोष आया कि मेरे वंश वाले कैसे पार होंगे? सारशब्द बिन मोक्ष नहीं हो सकता। मैं अपने वंश वालों को तो अवश्य बताऊँगा। दीक्षा दिया करूँगा। कबीर जी ने धर्मदास के मन के दोष को जाना तथा कहा कि धर्मदास! गुरू जी की आज्ञा का उल्लंघन करना महापाप है। धर्मदास ने क्षमा माँगी। सच्चाई बताई। कबीर जी ने धर्मदास से गुरू पद वापिस ले लिया था। धर्मदास को दीक्षा देने का अधिकार नहीं दिया था और सख्त निर्देश दिया था कि जो सार शब्द मैंने तेरे को दिया है, यह किसी को नहीं बताना है। यदि यह तूने बता दिया तो जिस समय बिचली पीढ़ी कलयुग में चलेगी यानि जिस समय कलयुग 5505 वर्ष बीत जाएगा (सन् 1997 में) तब मैं अपना नाद अंश भेजूंगा। मेरा यथार्थ कबीर पंथ चलेगा। उस समय से पहले यदि यह सार शब्द काल के दूतों के हाथ लग गया तो सत्य-असत्य भक्ति विधि का ज्ञान कैसे होगा? जिस कारण से भक्त पार नहीं हो पावेंगे। कबीर सागर में ‘‘कबीर बानी’’ अध्याय के पृष्ठ 137 पर तथा अध्याय ‘‘जीव धर्म बोध’’ पृष्ठ 1937 पर प्रमाण है जिसमें कहा है कि:-
धर्मदास मेरी लाख दुहाई, सार शब्द कहीं बाहर नहीं जाई।
सार शब्द बाहर जो परही, बिचली पीढ़ी हंस नहीं तिरही।।
सार शब्द तब तक छिपाई, जब तक द्वादश (12) पंथ न मिट जाई।।
स्वस्मबेद बोध पृष्ठ 121 तथा 171 पर कहा है कि:-
चौथा युग जब कलयुग आई। तब हम अपना अंश पठाई।।
काल फंद छूटे नर लोई। सकल सृष्टि परवानिक होई।।
घर-घर देखो बोध विचारा (ज्ञान चर्चा)। सत्यनाम सब ठौर उचारा।।
पाँच हजार पाँच सौ पाँचा। तब यह वचन होयगा साचा।।
कलयुग बीत जाय जब ऐता। सब जीव परम पुरूष पद चेता।।
प्रिय पाठको! कलयुग सन् 1997 में 5505 वर्ष पूरा कर गया है। यहाँ तक सार शब्द छुपाकर रखना था। कबीर जी ने धर्मदास के पुत्र चूड़ामणि (जिसको मुक्तामणि भी कहते हैं) को विक्रमी संवत् 1570 (सन् 1513) में गद्दी पर बैठाया था। प्रथम मंत्र से पाँच नाम दिए थे। इन्हीं पाँच नामों (ओम्, किलियं, हरियं, श्रीयं, सोहं) को आगे दीक्षा में अपने अनुयाईयों को देने की आज्ञा दी थी। ये पाँच नाम टकसारी पंथ वाले ने छठी पीढ़ी वाले को भ्रमित करके छुड़वा दिए थे। इनके स्थान पर अजर नाम, अमर नाम, पाताले सप्त सिंधु नाम आदि-आदि पाँच नाम देने को कहा था जो वर्तमान दामाखेड़ा वाले देते हैं जो गलत है। उनसे कोई लाभ नहीं होगा। विक्रमी संवत् 1575 (सन् 1518) में यानि पाँच वर्ष पश्चात् कबीर जी मगहर स्थान से सशरीर सतलोक गए थे। उसके पश्चात् पुनः सतलोक से आए। धर्मदास के घर गए।
बीच-बीच में धर्मदास जी वंश मोह में आकर सार शब्द अपने पुत्र चूड़ामणी जी को बताना चाहते थे। अंतर्यामी परमेश्वर कबीर जी ने कुछ दिन धर्मदास के साथ रहकर उसको दृढ़ किया। जब देखा कि धर्मदास बात बिगाड़ेगा तो धर्मदास जी को जगन्नाथ पुरी में जीवित समाधि दे दी यानि जीवित ही पृथ्वी में दबा दिया। धर्मदास जी ने स्वयं कबीर जी से कहा था कि हे परमेश्वर! मैं पुत्र मोह वश होकर सार शब्द बता सकता हूँ। मेरे वश से बाहर की बात हो चुकी है। आप मुझे सत्यलोक भेज दो नहीं तो बात बिगड़ जाएगी। तब धर्मदास जी को जीवित समाधि दी गई थी। (धर्मदास को जिंदे को जमीन में दबाने यानि समाधि देने का प्रमाण दामाखेड़ा वाले महंत द्वारा छपाई पुस्तक ‘‘आशीर्वाद शताब्दी ग्रन्थ’’ में पृष्ठ 95 पर है।)
अनुराग सागर पृष्ठ 141 का शेष सारांशः-
कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि हे धर्मदास! चारों युगों में देख ले, मेरे यथार्थ कबीर पंथ को नाद परंपरा ने प्रसिद्ध किया है। क्या निर्गुण क्या सर्गुण है, नाद बिन पंथ नहीं चलेगा। यदि तेरे बिन्द वाले उससे दीक्षा लेंगे तो वे भी पार हो जाएंगे। तेरे बिन्द वालों को इस प्रकार बयालीस पीढ़ी को पार करूँगा। जब कलयुग 5505 वर्ष पूरा करेगा। उसके पश्चात् सर्व विश्व दीक्षित होगा तो धर्मदास जी के वंशज भी दीक्षा लेकर कल्याण कराएंगे। (यदि नाद की आशा बिन्द (परिवार वंश) वाले छोड़ देंगे तो तेरे बिंद (पीढ़ी) वाले काल जाल में फंसेंगे।) इसलिए हे धर्मदास! अपने बिन्द को सतर्क कर देना। अपना कल्याण कराएँ। परमेश्वर कबीर जी का कहना है कि बिन्द वाले नाम को बदलकर यथार्थ भक्ति नष्ट कर देते हैं। वर्तमान में वह समस्या नहीं रहेगी क्योंकि अब कोई उतराधिकारी गुरू रूप नहीं होगा। दीक्षा क्ण्टण्क्ण् से दी जा रही है। नाम दीक्षा दिलाने की सेवा चाहे नाद वाले करो, चाहे बिन्द वाले, भक्ति विधि सही रहेगी। इसलिए पंथ को कोई हानि नहीं होगी।
अनुराग सागर के पृष्ठ 142 का सारांश:-
परमेश्वर कबीर जी अपने भक्त धर्मदास जी को समझा रहे हैं कि जो कोई नाद वंश को जान लेगा, उसको यम के दूत रोक नहीं पाएंगे। जिन्होंने सत्य शब्द (सतनाम) को पहचान लिया, वे ही मोक्ष प्राप्त कर सकेंगे। तेरे वंश वाले जो चूड़ामणी की संतान हैं, वही सफल होगा जो नाद वंश की शरण न छोड़े। तुम्हारा बिन्द यानि संतान नाद यानि शिष्य परंपरा वाले के साथ मोक्ष प्राप्त करेगी।
धर्मदास वचन
धर्मदास जी ने प्रश्न किया कि आपने मेरे पुत्र चूड़ामणी को वचन वंश कहा है क्योंकि यह आप जी के वचन यानि आशीर्वाद से उत्पन्न हुआ। इसकी संतान को बिन्द कहा जो मेरे बयालीस पीढ़ी चलेगी। आप यह भी कह रहे हो कि मेरे बिन्द परंपरा यानि महंत गद्दी वाले नाद यानि शिष्य परंपरा वालों से दीक्षा लेकर पार हो सकते हैं। वे आप जी ने नाद वंश के आधीन बता दिए। फिर बिन्द वाले क्या करेंगे? यदि नाद से ही जगत पार होना है।
कबीर वचन
धर्मदास जी के वचन सुनकर परमेश्वर हँसे और कहा कि हे धर्मदास! तेरे को बयालीस वंश का आशीर्वाद दे दिया है क्योंकि तुम नारायण दास को काल दूत जानकर वंश नष्ट होने की चिंता कर रहे हो। इसलिए तेरे वंश की शुरूआत आपके नेक पुत्र से की है। पाठकों से निवेदन है कि इस पृष्ठ पर बिन्द परंपरा वालों ने बनावटी वाणी अधिक डाली हैं अपनी महिमा बनाने के लिए, परंतु अनुराग सागर के पृष्ठ 140-141 पर स्पष्ट कर दिया है कि चूड़ामणी जी की वंश गद्दी की छठी पीढ़ी वाले के पश्चात् मेरे द्वारा बताई यथार्थ भक्ति विधि तथा भक्ति मंत्र नहीं रहेंगे। वह पाँचवी पीढ़ी वाला ‘‘टकसारी‘‘ पंथ वाला आरती-चैंका तथा वही नकली पाँच नाम की दीक्षा देने लगेगा। इसलिए तेरे बिन्द वाले काल जाल में जाएंगे। यदि वे मेरे द्वारा भेजे गए नाद अंश से दीक्षा ले लेंगे तो तेरी बयालीस (42) पीढ़ी मोक्ष प्राप्त करेगी। इस प्रकार तेरे 42 वंश को पार करूँगा। उस समय जब पूरा जगत ही दीक्षा प्राप्त करेगा तो तेरी संतान भी दीक्षा लेगी। यह वर्णन पृष्ठ 140-141 के सारांश में स्पष्ट कर दिया है।
अनुराग सागर के पृष्ठ 143 का सारांश:-
धर्मदास जी को फिर से अपने पुत्र नारायण दास का मोह सताने लगा और परमेश्वर कबीर जी से अपनी चिंता व्यक्त की कि मेरा पुत्र नारायण दास काल के मुख में पड़ेगा। मुझे अंदर ही अंदर यह चिंता खाए जा रही है। हे स्वामी! उसकी भी मुक्ति करो।
कबीर परमेश्वर वचन
बार बार धर्मनि समुझावा। तुम्हरे हृदय प्रतीत न आवा।।
चैदह यम तो लोक सिधावें। जीवन को फन्द कह्यो वे लावें।।
अब हम चीन्हा तुम्हारो ज्ञाना। जानि बूझि तुम भयो अजाना।।
पुरूष आज्ञा मेटन लागे। बिसरयो ज्ञान मोहमद जागे।।
मोह तिमिर जब हिरदे छावे। बिसर ज्ञान तब काज नसावे।।
बिन परतीत भक्ति नहिं होई। बिनु भक्ति जिव तरै न कोई।।
बहुरि काल फांसन तोहि लागा। पुत्रमोह त्व हिरदय जागा।।
प्रतच्छ देखि सबे तुम लीना। दास नरायण काल अधीना।।
ताहू पर तुम पुनि हठ कीना। मोर वचन तुम एकु न चीन्हा।।
धर्मदास जो मोसन कहिया। सोऊ ध्यान त्व हृदय न रहिया।।
मोर प्रतीत तुम्हैं नहिं आवे। गुरू परतीत जगत कसलावे।।
भावार्थ:– कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि हे धर्मदास! अब मुझे तेरी बुद्धि के स्तर का पता चल गया। तू जान-बूझकर अनजान बना हुआ है। जब तेरे को बता दिया, आँखों दिखा दिया कि नारायण दास काल का दूत है। मेरी आत्माओं को काल जाल में फांसने के लिए काल का भेजा आया है। तेरे को बार-बार समझाया है, वह तेरी बुद्धि में नहीं आ रहा है। अब तेरे हृदय में पुत्र मोह से अज्ञान अंधेरा छा गया है। काल के दूत को लेकर फिर हठ कर रहा है। मेरा एक वचन भी तेरी समझ में नहीं आया। हे धर्मदास! जो वचन तूने मेरे से किये थे कि मैं कभी नारायण दास को दीक्षा देने के लिए नहीं कहूंगा। अब तेरे हृदय से वह वादा भूल गया है। जब तुमको मुझ पर विश्वास नहीं हो रहा जबकि तेरे को सतलोक तक दिखा दिया तो फिर मेरे भेजे नाद अंश जो गुरू पद पर होगा, उस पर जगत कैसे विश्वास करेगा?
अनुराग सागर पृष्ठ 144 का सारांश:-
परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी को बार-बार वही बातें दोहराई हैं जो पूर्व के पृष्ठ पर कही हैं।
अनुराग सागर के पृष्ठ 145 का सारांश:-
धर्मदास वचन
सुनत वचन धर्मदास सकाने। मनहीं माहिं बहुत पछताने।।
धाइ गिरे सतगुरू के पाई। हौं अचेत प्रभु होहु सहाई।।
चूक हमारी वकसहु स्वामी। विनती मानहु अन्तरयामी।।
हम अज्ञान शब्द तुम टारा। विनय कीन्ह हम बारंबारा।।
अब मैं चरण तुम्हारे गहऊँ। जो संतनिकी विनती करऊँ।।
पिता जानि बालक हठ लावे। गुण औगुण चित ताहि न आवे।।
पतित उधारण नाम तुम्हारा। औगुण मोर न करहु विचारा।।
भावार्थ:– परमेश्वर कबीर जी के वचन सुनकर धर्मदास जी बहुत लज्जित हुए और परमेश्वर कबीर जी के चरणों में गिरकर विलाप करने लगे कि हे स्वामी जी! मैं तो अचेत यानि मंद बुद्धि हूँ। मेरी गलती क्षमा करो। हे अंतर्यामी! मेरी विनती स्वीकार करो। मैं अज्ञानी हूँ। मैंने आपके वचन की अवहेलना की है। मैंने ऐसे गलती की है जैसे बालक अपने पिता से हठ कर लेता है, पिता बालक की गलती पर ध्यान नहीं देता, उसके अवगुण क्षमा कर देता है। आपका नाम तो पतित उद्धारण है। आप पापियों का उद्धार करने वाले हो, मेरे अवगुणों पर ध्यान न दो। बालक जानकर क्षमा कर दो।
कबीर परमेश्वर वचन
परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे धर्मदास! आप सतपुरूष अंश हैं। आप नारायण दास मोह त्याग दो। तुम में और मेरे में कोई भेद नहीं है क्योंकि आप मेरे नाद पुत्र (शिष्य रूपी पुत्र) हो। आप तो जगत में यथार्थ पंथ चलाने के लिए आए हो। जीवों का उद्धार करने के लिए भेजा है। परमेश्वर कबीर जी ने इस प्रकार धर्मदास को उत्साहित किया।
धर्मदास वचन
हे प्रभु तुम सुख सागर दाता। मुझ किंकर को करयो सनाथा।।
जबलग हम तुमों नहीं चीन्हा। तब लग मति कालहर लीन्हा।।
जबते तुम आपन कर जाना। तबते मोहिं भयो दृढ ज्ञाना।।
अब नहिं दुनिया मोहि सुहायी। निश्चय गहीं चरण तुव धाई।।
तुम तजि मोहि आनकी आसा। तो मुहिं होय नरक महँ वासा।।
भावार्थ:– धर्मदास जी ने कहा कि हे परमेश्वर! आप तो सुख सागर दाता हैं। मुझ किंकर (दास) को शरण में लेकर सनाथ कर दिया। जब तक मैंने आप जी को नहीं जाना था, तब तक तो मेरी बुद्धि काल ने छीन रखी थी। जब से आपने मेरे को शरण दी है यानि अपना मान लिया है, उसी दिन से मुझे आपके चरणों में दृढ़ निश्चय है। अब मुझे यह संसार अच्छा नहीं लग रहा है। यदि मैं आपको त्यागकर किसी अन्य में श्रद्धा करूं तो मेरा नरक में निवास हो।
कबीर वचन
भावार्थ:– कबीर परमेश्वर जी ने धर्मदास जी से कहा कि तेरा धन्य भाग है कि तूने मेरे को पहचान लिया और मेरी बात मानकर पुत्र मोह त्याग दिया।
अनुराग सागर के पृष्ठ 146 का सारांश:-
इस पृष्ठ में ऊपर की वाणी बनावटी हैं। यह धर्मदास जी की संतान चूड़ामणी जी वाली दामाखेड़ा गद्दी वाले महंतों की कलाकारी है। इसमें कोशिश की है यह दर्शाने की कि नारायण दास वाली संतान तो बिन्द वाली है और चूड़ामणी वाली संतान नाद वाली है ताकि हमारी महिमा बनी रहे कि हमारे से दीक्षा लेकर ही जगत के जीवों का कल्याण होगा। याद रखें कि नारायण दास ने तो कबीर जी की दीक्षा ली ही नहीं थी। वह तो विष्णु उर्फ कृष्ण पुजारी था। उसके पंथ का कबीर पंथ से कोई लेना-देना नहीं है। प्रिय पाठको! कबीर जी कहते हैं कि:-
चोर चुरावै तुम्बड़ी, गाड़ै पानी मांही। वो गाड़ै वा ऊपर आवै, सच्चाई छानी नांही।।
अनुराग सागर के पृष्ठ 140 पर परमेश्वर जी ने स्पष्ट कर रखा है कि मेरा शिष्य (नाद) तथा तेरे बिन्द से उत्पन्न पुत्र चूड़ामणी जो पंथ चलाएगा और जीवों की मुक्ति कराएगा। इस चूड़ामणी को मैंने दीक्षा दी है तथा गुरू पद दिया है। यह मेरा नाद पुत्र है। आगे इसकी बिन्दी (संतान) धारा चलेगी। वे इस गुरू गद्दी पर विराजमान होंगे। वे अज्ञानी होंगे। छठी पीढ़ी वाले महंत को काल के बारह पंथों में पाँचवां पंथ टकसारी पंथ होगा। वह भ्रमित करेगा। जिस कारण से मेरे द्वारा बताए यथार्थ भक्ति विधि तथा यथार्थ मंत्र त्यागकर टकसारी पंथ वाले मंत्र तथा आरती-चैंका दीक्षा रूप में देने लगेगा। तुम्हारा वंश यानि चूड़ामणी वाली संतान दुर्मति को प्राप्त होगी। वे बटपारे (ठग) बहुत जीवों को चैरासी लाख के चक्र में डालेंगे, नरक में ले जाएंगे। जो मेरा नाद परंपरा का अंश आएगा, उसके साथ झगड़ा करेंगे।
प्रत्यक्ष प्रमाण:– प्रिय पाठको! सन् 2012 में मेरे कुछ अनुयाईयों द्वारा मेरे विचारों की लिखी एक पुस्तक ‘‘यथार्थ कबीर पंथ परिचय‘‘ का प्रचार करते-करते दामाखेड़ा (छत्तीसगढ़) में चले गए। उस दिन दामाखेड़ा महंत गद्दी वालों का सत्संग चल रहा था। उस दिन समापन था। मेरे शिष्य सत्संग से जा रहे भक्तों को वह पुस्तक बाँटने लगे। उस आश्रम के किसी सेवक ने वह पुस्तक पहले ले रखी थी। वह पहले ही इस ताक में था कि रामपाल के शिष्य कहीं मिलें तो उनकी पिटाई करें। उस दिन दामाखेड़ा में ही उसने मेरे शिष्यों को सेवा करते देखा तो महंत श्री प्रकाश मुनि नाम साहेब जो चैदहवां गुरू गद्दी वाला बिन्दी परंपरा वाला महंत है, को बताया कि जो ‘‘यथार्थ कबीर पंथ परिचय‘‘ पुस्तक मैंने आपको दी थी, आज फिर उसी पुस्तक को रामपाल के शिष्य हमारी संगत में बाँट रहे हैं। यह सुनकर महंत प्रकाश मुनि आग-बबूला हो गया और आदेश दिया कि उनको पकड़कर लाओ। उसी समय पुस्तक बाँट रहे मेरे अनुयाईयों में से पाँच को गाड़ी में जबरदस्ती डालकर ले गए। अन्य शिष्य पता चलने पर भाग निकले। जिन सेवकों को दामाखेड़ा वाले पकड़कर ले गए थे, उनको बेरहमी से मारा-पीटा, उनसे कहा कि कहो, फिर नहीं बाँटेंगे। उन्होंने कहा कि इसमें गलत क्या है? यह तो बताओ। उन सब मेरे शिष्यों को पीट-पीटकर अचेत कर दिया। फिर मुकदमा दर्ज करा दिया कि शांति भंग कर रहे थे। तीन दिन में जमानत हुई। ऐसे हैं ये धर्मदास जी की बिन्द परंपरा चुड़ामणी वाली दामाखेड़ा गद्दी के महंत जिनके विषय में परमेश्वर कबीर जी ने कहा हैः-
कबीर नाद अंश मम सत ज्ञान दृढ़ाही। ताके संग सभी राड़ बढ़ाई।।
अस सन्त महन्तन की करणी। धर्मदास मैं तो से बरणी।।
यही प्रमाण अनुराग सागर के पृष्ठ 140 पर है:-
आप हंस अधिक होय ताही। नाद पुत्र से झगर कराहीं।।
(आपा हंस यह गलत है। यहाँ पर ‘‘आप अहम‘‘ है जिसका अर्थ है अपने आप में अहंकार।)
होवै दुरमत वंश तुम्हारा। नाद वंश रोके बटपारा।।
प्रिय पाठको! यह सर्व लक्षण मुझ दास (रामपाल दास) तथा दामाखेड़ा की गद्दी वाले धर्मदास जी के बिन्द वालों पर खरे उतरते हैं।