ज्ञान प्रकाश
अध्याय ‘‘ज्ञान प्रकाश‘‘ का सारांश (छठा अध्याय)
जैसा कि इस ग्रन्थ (कबीर सागर का सरलार्थ) के प्रारम्भ में लिखा है कि कबीर सागर के यथार्थ अर्थ को न समझकर कबीर पंथियों ने इस ग्रन्थ में अपने विवेक अनुसार फेर-बदल किया है। कुछ अंश काटे हैं। कुछ आगे-पीछे किए हैं। कुछ बनावटी वाणी लिखकर कबीर सागर का नाश किया है। परंतु सागर तो सागर ही होता है। उसको खाली नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार कबीर सागर में बहुत सा सत्य विवरण उनकी कुदृष्टि से बच गया है। शेष मिलावट को अब एक बहुत पुराने हस्तलिखित ‘‘कबीर सागर‘‘ से मेल करके तथा संत गरीबदास जी की अमृतवाणी के आधार से तथा परमेश्वर कबीर जी द्वारा मुझ दास (रामपाल दास) को दिया, दिव्य ज्ञान के आधार से सत्य ज्ञान लिखा गया है। एक प्रमाण बताता हूँ जो बुद्धिमान के लिए पर्याप्त है।
ज्ञान प्रकाश में परमेश्वर कबीर जी द्वारा धनी धर्मदास जी को शरण में लेने का विवरण है। आपसी संवाद है, परंतु धर्मदास जी का निवास स्थान भी गलत लिखा है। पृष्ठ 21 पर पूर्व गुरू रूपदास जी से शंका का निवारण करके अपने घर चले गए। धर्मदास जी का निवास स्थान ‘‘मथुरा नगर‘‘ लिखा है, वाणी इस प्रकार है:-
तुम हो गुरू वो सतगुरू मोरा। उन हमार यम फंदा तोरा (तोड़ा)।।
धर्मदास तब करी प्रणामा। मथुरा नगर पहुँचे निज धामा।।
जबकि धर्मदास जी का निज निवास स्थान ‘‘बांधवगढ़‘‘ कस्बा था जो मध्यप्रदेश में है। संत गरीबदास जी ने अपनी वाणी में सर्व सत्य विवरण लिखा है कि धर्मदास बांधवगढ़ के रहने वाले सेठ थे। वे तीर्थ यात्रा के लिए मथुरा गए थे। उसके पश्चात् अन्य तीर्थों पर जाना था। कुछ तीर्थों पर भ्रमण कर आए थे। फेर-बदल का अन्य प्रमाण इसी ज्ञान प्रकाश में धर्मदास जी का प्रकरण चल रहा है। बीच में सर्वानन्द ब्राह्मण की कथा लिखी है जो वहाँ पर नहीं होनी चाहिए। केवल धर्मदास की ही बात होनी चाहिए। पृष्ठ 37 से 50 तक सर्वानन्द की कथा है। इससे पहले पृष्ठ 34 पर धर्मदास जी को नाम दीक्षा देने, आरती-चौका करने का प्रकरण है। पृष्ठ 35 पर गुरू की महिमा की वाणी है जो पृष्ठ 36 तक है। फिर ‘‘धर्मदास वचन‘‘ चौपाई है जो मात्र तीन वाणी हैं। इसके बाद ‘‘सतगुरू वचन‘‘ वाला प्रकरण मेल नहीं करता। पृष्ठ 36 पर ‘‘धर्मदास वचन‘‘ चौपाई की तीन वाणी के पश्चात् पृष्ठ 50 पर ‘‘धर्मदास वचन‘‘ से मेल (स्पदा) करता है जो सर्वानन्द के प्रकरण के पश्चात् ‘‘धर्मदास वचन‘‘ की वाणी है।
ज्ञान प्रकाश पृष्ठ 36 पर
‘‘धर्मदास वचन‘‘ चौपाई
हो साहब तव पद सिर नाऊँ। तव पद परस परम पद पाऊँ।।
केहि विधि आपन भाग सराही । तव बरत गहैं भाव पुनः बनाई।।
कोधों मैं शुभ कर्म कमाया। जो सदगुरू पद दर्शन पाया।।
ज्ञान प्रकाश पृष्ठ 50
‘‘धर्मदास वचन‘‘
धन्य धन्य साहिब अविगत नाथा। प्रभु मोहे निशदिन राखो साथा।।
सुत परिजन मोहे कछु न सोहाही। धन दारा अरू लोक बड़ाई।।
इसके पश्चात् सही प्रकरण है। बीच में अन्य प्रकरण लिखा है, वह मिलावटी तथा गलत है। नाम दीक्षा देने के पश्चात् परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी को प्रसन्न करने के लिए कहा कि जब आपको विश्वास हो जाएगा कि मैं जो ज्ञान तथा भक्ति मंत्र बता रहा हूँ, वे सत्य हैं। फिर तेरे को गुरू पद दूँगा। आप दीक्षा लेने वाले से सवा लाख द्रव्य (रूपये या सोना) लेकर दीक्षा देना। परमात्मा ने धर्मदास जी की परीक्षा ली थी कि वैश्य (बनिया) जाति से है यदि लालची होगा तो इस लालचवश मेरा ज्ञान सुनता रहेगा। ज्ञान के पश्चात् लालच रहेगा ही नहीं। परंतु धर्मदास जी पूर्ण अधिकारी हंस थे। सतलोक से विशेष आत्मा भेजे थे। फिर उन्होंने इस राशि को कम करवाया और निःशुल्क दीक्षा देने का वचन करवाया यानि माफ करवाया।
अब ‘‘ज्ञान प्रकाश‘‘ के पृष्ठ 9 से आवश्यक वाणी लेते हैं क्योंकि जो अमृतवाणी परमेश्वर कबीर जी के मुख कमल से बोली गई है, उसके पढ़ने-सुनने से भी अनेकों पाप नाश होते हैं। ज्ञान प्रकाश पृष्ठ 9 से वाणी:-
धर्मदास बोध = ज्ञान प्रकाश
निम्न वाणी पुराने कबीर ग्रन्थ के अध्याय ‘‘ज्ञान प्रकाश‘‘ से हैं:-
बांधवगढ़ नगर कहाय। तामें धर्मदास साह रहाय।।
धन का नहीं वार रू पारा। हरि भक्ति में श्रद्धा अपारा।।
रूप दास गुरू वैष्णव बनाया। उन राम कृष्ण भगवान बताया।।
तीर्थ बरत मूर्ति पूजा। एकादशी और सालिग सूजा।।
ताके मते दृढ़ धर्मनि नागर। भूल रहा वह सुख का सागर।।
तीर्थ करन को मन चाहा। गुरू आज्ञा ले चला उमाहा।।
भटकत भ्रमत मथुरा आया। कृष्ण सरोवर में उठ नहाया।।
चौका लीपा पूजा कारण। फिर लगा गीता सलोक उचारण।।
ताही समय एक साधु आया। पाँच कदम पर आसन लाया।।
धर्मदास को कहा आदेशा। जिन्दा रूप साधु का भेषा।।
धर्मदास देखा नजर उठाई। पूजा में मगन कछु बोल्या नाहीं।।
जग्यासु वत देखै दाता। धर्मदास जाना सुनत है बाता।।
ऊँचे सुर से पाठ बुलाया। जिन्दा सुन-सुन शीश हिलाया।।
धर्मदास किया वैष्णव भेषा। कण्ठी माला तिलक प्रवेशा।।
पूजा पाठ कर किया विश्रामा। जिन्दा पुनः किया प्रणामा।।
जिन्दा कहै मैं सुना पाठ अनुपा। तुम हो सब संतन के भूपा।।
मोकैं ज्ञान सुनाओ गोसाँई। भक्ति सरस कहीं नहीं पाई।।
मुस्लिम हिन्दू गुरू बहु देखे। आत्म संतोष कहीं नहीं एके।।
धर्मदास मन उठी उमंगा। सुनी बड़ाई तो लागा चंगा।।
धर्मदास वचन
जो चाहो सो पूछो प्रसंगा। सर्व ज्ञान सम्पन्न हूँ भक्ति रंगा।।
पूछहूँ जिन्दा जो तुम चाहो। अपने मन का भ्रम मिटाओ।।
जिन्द वचन
तुम काको पाठ करत हो संता। निर्मल ज्ञान नहीं कोई अन्ता।।
मोकूं पुनि सुनाओ बाणी। जातें मिलै मोहे सारंग पाणी।।
तुम्हरे मुख से ज्ञान मोहे भावै। जैसे जिह्ना मधु टपकावै।।
धर्मदास सुनि जब कोमल बाता। पोथी निकाली मन हर्षाता।।