अध्याय 17
- सारांश
- सर्व प्राणी शास्त्र विधि रहित भक्ति भी स्वभाव अनुसार ही करते हैं
- शास्त्र विधि को त्याग कर साधना करने वाले भगवानों को दुःखदाई तथा नरक अधिकारी
- शरीर (पिण्ड) में कमलों (चक्रों) का चित्र
- यज्ञों की जानकारी
- तप की परिभाषा -
सतरहवां अध्याय
।। सारांश।।
{विशेष:- गीता अध्याय 17 में प्रवेश से पहले यह व्याख्या ध्यानपूर्वक पढ़ें व समझें। गीता अध्याय 16 के श्लोक 1 से 5 में अच्छे स्वभाव वाले दैवी प्रकृति वाले व्यक्तियों का वर्णन है, परंतु वे भी शास्त्रविरूद्ध साधना करते हैं। श्लोक 6-9, 14-20 में कहा है कि जो कहते हैं कि संसार का कोई ईश्वर या परमेश्वर कर्ता नहीं है। यह तो नर-मादा के संयोग से उत्पन्न होता है। काम (sex) इसका कारण है। वे शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण करके अपना जीवन नष्ट करते हैं तथा मानव शरीर में बने कमल चक्रों में विराजमान मुख्य देवताओं, मुझे तथा परमेश्वर को क्रश करने वाले हैं। उन कुकर्मियों को बार-बार असुर योनि में डालता हूँ। फिर इस अध्याय 16 के श्लोक 23- 24 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि:-
अध्याय 16 श्लोक 23 का अनुवाद:- जो साधक शास्त्रविधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है यानि शास्त्र वर्णित साधना मंत्रों के अतिरिक्त अन्य नाम जाप करता है। अन्य साधना शास्त्रविरूद्ध करता है, वह न सिद्धि को प्राप्त होता है यानि सत्य साधना से होने वाली भक्ति की शक्ति जिसके बल से साधक सनातन परम धाम जाता है, वह सिद्धि उसे प्राप्त नहीं होती, न उसे कोई सुख प्राप्त होता है, न उसकी गति यानि मुक्ति होती है अर्थात् शास्त्र के विपरित भक्ति करना व्यर्थ है क्योंकि इन तीनों लाभों को प्राप्त करने के लिए साधक परमात्मा की भक्ति करता है।
गीता अध्याय 16 श्लोक 24 का अनुवाद:- इससे तेरे लिए कर्तव्य यानि जो साधना कर्म करने योग्य हैं और अकर्तव्य अर्थात् जो न करने वाला भक्ति कर्म है, उसके निर्णय के लिए शास्त्र ही प्रमाण मानना है। इस अध्याय 17 में उन्हीं के विषय में अर्जुन ने प्रश्न किया है कि ये जो शास्त्रविधि त्यागकर साधना करते हैं। उनकी साधना है तो व्यर्थ, परंतु उनकी श्रद्धा कितने प्रकार की व कैसी होती है?}
गीता अध्याय 17 के श्लोक 1 में अर्जुन ने प्रश्न किया कि शास्त्रविधि को त्यागकर यानि शास्त्र के विपरित मनमाना आचरण करके श्रद्धा से युक्त हुए साधना (पूजन) करने वाले व्यक्ति किस निष्ठा (वृत्ति) के होते है? सात्विक या राजसी वा तामसी अर्थात् तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिवजी) तथा इनसे भी नीचे के देवी-देवताओं के साधकों के स्वभाव तथा चरित्रा कैसे होते हैं?
।। सर्व प्राणी शास्त्र विधि रहित भक्ति भी स्वभाव अनुसार ही करते हैं।।
गीता ज्ञान दाता का उत्तर:-
(गीता अध्याय 17 श्लोक 2 से 10 तक का सारांश) गीता ज्ञान दाता ने उत्तर दिया है कि शास्त्रविधि को त्यागकर साधना करने वाले वाले स्वभाव वश साधना करते हैं। जिसका अंतःकरण जैसा है, उसे वैसी पूजाओं में श्रद्धा होती है।
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सात्विक वृत्ति के व्यक्ति अन्य देवी-देवताओं तथा श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी, श्री शिव जी को पूजते हैं तथा विशेष कर इष्ट रूप में विष्णु जी की पूजा करते हैं जो शास्त्रविरूद्ध है।
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राजस वृत्ति के व्यक्ति यक्षों व राक्षसों की व तीनों उपरोक्त प्रभुओं को भी पूजते हैं, परन्तु इष्ट रूप में ब्रह्मा जी की उपासना रजोगुण प्रधान व्यक्ति करते हैं जो शास्त्रविरूद्ध है।
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तामस वृत्ति के भूतों, पित्रों तथा तीनों ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी, श्री शिव जी की भी पूजा करते हंै तथा तमोगुण प्रधान व्यक्तियों का उपास्य देव शिव होता है। जैसे रावण ने भगवान शिव की साधना इष्ट मान कर की जिस से नरक का भागी हुआ और उससे निम्न स्तर की साधना
भूतों-पितरों की पूजा करके सीधे नरक चले जाते हैं। जो शास्त्र विधि के विरूद्ध साधना करते हैं वे दुष्ट आत्मा मुझे तथा उस परमात्मा को भी कष्ट देते हैं तथा वे राक्षस वृत्ति के जान। उनको भोजन भी वृत्ति (स्वभाव) वश ही पसंद होता है। सात्विक मनुष्यों को साधारण भोजन दाल, दूध, दही-घी, मक्खन, शहद, मीठे फल आदि पसंद तथा राजसी मनुष्य कड़वे (शराब, पान, हुक्का) खट्टे, ज्यादा नमक वाले, ज्यादा गर्म-रूखे, मुख जलाने वाले (मिर्च) आदि जो रोगों का कारण होते हैं पसंद होता है।
तामसी व्यक्ति गला-सड़ा, रस रहित अपवित्रा (मांस-शराब-तम्बाखु आदि) बासी, झूठा आहार पसंद करते हैं।
।। शास्त्र विधि को त्याग कर साधना करने वाले भगवानों के लिए दुःखदाई तथा नरक के अधिकारी।।
अध्याय 17 के श्लोक 6 का अनुवाद:-- शरीर में स्थित मुझे तथा प्राणियों के मुखिया (ब्रह्मा, विष्णु, शिव, प्रकृति-आदि माया व गणेश) तथा शरीर में हृदय में स्थित कपड़े में धागे की तरह व्यवस्थित करके रहने वाले पूर्ण परमात्मा को परेशान (कृश) करने वाले अज्ञानियों को राक्षसी स्वभाव वाले ही जान जो मतानुसार (शास्त्र विधि अनुसार) साधना नहीं करते और मनमुखी साधना तथा आचरण करते हैं।
विशेष: मानव शरीर (स्थूल शरीर) में कुल कमल चक्र नौ हैं, परंतु सात कमल हैं जो सामान्य ऋषि की पहुँच में हैं। यहाँ पर सात कमल चक्रों का वर्णन किया जाता है।
प्रत्येक चक्र में भिन्न-भिन्न देवताओं का प्रभाव है। जैसे टैलिविजन चैनल (ज्ण्टण् ब्ींददमस) से प्रसारण तो एक स्थान यानि प्रसारण केन्द्र से होता है, वही करोड़ों टैलिविजनों में देखा जाता है। इसी प्रकार प्रत्येक देवता अन्य स्थानों पर रहते हुए भी मानव शरीर में बने कमल चक्रों में दिखाई देते हैं।
रीढ़ की हड्डी गुदा के पास समाप्त होती है। उससे दो ऊँगल ऊपर -
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मूल कमल - इसमें गणेश जी रहते हैं। इस कमल की चार पंखुड़ियाँ हैं। फिर मूल कमल से लगभग दो ऊँगल ऊपर रीड की हड्डी के साथ अन्दर की तरफ
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स्वाद कमल (चक्र) है जिसमें ब्रह्मा सावित्राी रहते हैं। इस कमल की छः पंखुड़ियाँ हैं।
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स्वाद चक्र से ऊपर नाभि के सामने रीड की हड्डी के साथ नाभि कमल है उसमें भगवान विष्णु व लक्ष्मी रहते हैं। इनकी आठ पंखुड़ियाँ हैं।
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इससे ऊपर हृदय के पीछे एक हृदय कमल है उसमें भगवान शिव व पार्वती रहते हैं। इस हृदय कमल की 12 पंखुड़ियाँ हैं।
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इनसे ऊपर कण्ठ कमल है जो कण्ठ के पास पीछे रीढ की हड्डी से ही चिपका हुआ है। इसमें प्रकृति देवी (अष्टंगी माई) रहती है। इस कमल की सोलह पंखुड़ियाँ हैं।
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इससे ऊपर त्रिकुटी कमल है। इसकी दो पंखुड़ियाँ हैं। (एक सफेद दूसरी काली रंग की।) इसमें पूर्ण परमात्मा रहता है। जैसे सूर्य दूर स्थान पर होते हुए भी प्रत्येक मानव के शरीर पर प्रभाव डालता रहता है, परन्तु दिखाई आँखों से ही देता है, यहाँ पर ऐसा भाव जानना है तथा इसके साथ-साथ आत्मा के साथ अन्तःकरण में भी रहता है। जैसे धागा पूरे कपड़े में समाया हुआ होता है तथा अन्य कशीदाकारी भी होती है जो कुछ हिस्से पर ही होती है।
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इससे ऊपर जहाँ चोटी रखते हैं उस स्थान पर अन्दर की ओर सहंस्रार कमल है जहाँ ज्योति निंरजन (हजार पंखुड़ियों रूप में प्रकाश रूप में) स्वयं काल (ब्रह्म) रहता है। इस कमल की एक हजार पंखुड़ियाँ हैं। इसीलिए इस श्लोक में कहा है कि जो राक्षस स्वभाव के व्यक्ति शास्त्रनुकूल साधना नहीं करते वे शरीर में रहने वाले मुझे तथा प्राणी प्रमुख ब्रह्मा, विष्णु, शिव, गणेश, आद्या (प्रकृति) तथा पूर्ण परमात्मा जो आत्मा के साथ अभेद रूप से रहता है (जैसे गंध और वायु रहती हैं) को परेशान करते हैं, उन्हें घोर नरक में डालता हूँ।
भक्त सम्मन को अपने गुरुदेव जी के लिए अपने इकलौते पुत्रा सेऊ की गर्दन काटनी पड़ी तो भी पीछे नहीं हटा। यह शास्त्रनुकूल साधक का शरीर सम्बन्धी तप हुआ। जैसे कबीर साहेब सत्य साधना का विवरण दिया करते थे। झूठी साधना (देवी-देवताओं, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, माता मसानी, मूर्ति पूजा) को अधूरी तथा मोक्ष बाधक बताते थे। शराब पीना, मांस खाना, तम्बाखु प्रयोग करना महा पाप है। हिन्दु-मुस्लिम एक ही परमात्मा के जीव हैं। मस्जिद व मन्दिर में भगवान नहीं है। भगवान तो पूर्ण संत से नाम लेकर शास्त्रनुकूल साधना करने से शरीर में ही प्राप्त होता है। जैसे गाय, भैंस, भेड़, बकरी, या कोई भी स्तन धारी मादा प्राणी है। उसके शरीर में से ही दूध प्राप्त होता है। बिना बच्चे वाली मादा के शरीर में दूध नहीं होता परंतु जब वह मादा नए दूध होती है अर्थात् गर्भधारण करती है। फिर बच्चे को जन्म देती है। तब दूध प्राप्त होता है। इसी प्रकार जब यह मनुष्य शरीर धारी प्राणी पूर्ण गुरु (तत्वदर्शी संत) से नाम ले लेता है। फिर सुमरण करता है तथा आजीवन गुरु मर्यादा में रहता है तो उसमें भक्ति रूपी बच्चा तैयार होता है। फिर परमात्मा से मिलने वाला लाभ (दूध) प्राप्त होता है। अन्य कहीं पर परमात्मा प्राप्ति नहीं है। वैसे तो परमात्मा की शक्ति निराकार रूप में सर्व व्यापक है। जैसे सूर्य का प्रकाश व ताप दिन के समय सर्व स्थानों पर प्रभाव डालता है, परंतु ऊर्जा संग्रह तो सौलर यन्त्रा ही करता है यानि मानव शरीर में भक्ति से परमात्मा की शक्ति संग्रह होती है जो लाभ देती है। कार्य सिद्ध करती है, मोक्ष देती है। ऐसे ही प्रभु आकार में सत्यलोक में रहते हुए भी घर, खेत, मन्दिर, मस्जिद आदि में भी है। परंतु वह जीव को कोई लाभ नहीं दे रहा है। लाभ गुरू से नाम प्राप्त व्यक्ति को ही मिलता है।
अन्य उदाहरण:- जैसे सूर्य का प्रकाश व ताप अपने विधान के अनुसार ही लाभ प्रदान करता है। सर्दियों में पूर्ण ताप प्रदान नहीं कर पाता जिस की पूर्ति के लिए आग जलानी पड़ती है या हीटर-वातानुकूल करने वाले (।पत बवदकपजपवदमत) यन्त्रा का प्रयोग अवश्य करना पड़ता है या मोटे व ऊनी वस्त्र धारण करके ताप पूर्ति की जाती है। इसी प्रकार हम सत्यलोक में उस पूर्ण परमात्मा का पूर्ण लाभ प्राप्त कर रहे थे। अब हम उस परमेश्वर से दूर आने से सर्दियों वाले शरद क्षेत्रा में आ गए हैं। उसके कुछ गुण प्राप्त करने के लिए वही साधन अपनाने पड़ेंगे जो हमारी रक्षा कर सकें अर्थात् शास्त्र विधि (उपरोक्त गर्मी पैदा करने वाले वास्तविक साधनों को) त्याग कर अन्य उपाय (शास्त्र विधि रहित) करने का कोई लाभ नहीं है। (प्रमाण पवित्रा गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में)।
जब दुःखी प्राणी संत (परमात्मा प्रकट किए हुए साधक) के पास जाता है। उसके आशीर्वाद से सुखी हो जाता है। वहाँ परमात्मा उस संत में मिला अर्थात् उस पूर्ण संत ने ताप प्रदान करने वाले साधन (शास्त्र विधि अनुसार साधना) प्रदान किए जिससे उसको ईश्वरीय गुणों का लाभ प्राप्त हुआ। क्योंकि परमात्मा के यही गुण होते हैं। किसी धर्म के अन्दर मांस, मदिरा, तम्बाखु सेवन का आदेश नहीं है अर्थात् सख्त मनाही है। जो बकरी काट कर भगवान पूजन करते हैं वे भक्ति नहीं कर रहे बल्कि नरक के अधिकारी बन रहे हैं। इन सच्ची बातों का बुरा मान कर धर्म के झूठे ठेकेदारों कथित मुल्ला, काजी व कथित पंडितों ने कबीर साहेब को बहुत तंग किया। कभी सरसों के उबलते हुए तेल में डाला। कभी खूनी हाथी के आगे डाला आदि-आदि। यह वाणी सम्बन्धी तप कहा जाता है। गीता अध्याय 17 के कुछ श्लोकों का हिन्दी अनुवाद
गीता अध्याय 17 श्लोक 1-10:-
अध्याय 17 श्लोक 1 का अनुवाद: श्लोक 1 में अर्जुन ने जानना चाहा कि हे कृष्ण! जो मनुष्य शास्त्रविधिको त्यागकर श्रद्धासे युक्त हुए देवादिका पूजन करते हैं। उनकी स्थिति फिर कौन-सी सात्विकी है अथवा राजसी तामसी?(1)
गीता ज्ञान देने वाले काल ब्रह्म ने उत्तर दिया:-
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अध्याय 17 श्लोक 2 का अनुवाद: मनुष्यों की वह स्वभाव से उत्पन्न श्रद्धा सात्विकी और राजसी तथा तामसी ऐसे तीनों प्रकार की ही होती है। उस अज्ञान अंधकाररूप जंजाल को सुन।(2)
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अध्याय 17 श्लोक 3 का अनुवाद: हे भारत! सभी की श्रद्धा उनके अन्तःकरण के अनुरूप होती है। यह व्यक्ति श्रद्धामय है इसलिये जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला है, वह स्वयं वास्तव में वही है।(3)
अध्याय 17 श्लोक 4 का अनुवाद: सात्विक पुरुष श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी, श्री शिव जी आदि देवताओं को पूजते हैं, राजस पुरुष यक्ष और राक्षसोंको तथा अन्य जो तामस मनुष्य हैं वे प्रेत और भूतगणों को पूजते हैं तथा मुख्य रूप से श्री शिव जी को भी इष्ट मानते हैं।(4)
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अध्याय 17 श्लोक 5 का केवल हिन्दी अनुवाद: जो मनुष्य शास्त्रविधिसे रहित केवल मन माना घोर तपको तपते हैं तथा पाखण्ड और अहंकारसे युक्त एवं कामना के आसक्ति और भक्ति बल के अभिमान से भी युक्त हैं।(5)
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अध्याय 17 श्लोक 6 का अनुवाद: शरीर में रहने वाले प्राणियों के मुखिया - ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा गणेश व प्रकृति को व मुझे तथा इसी प्रकार शरीर के हृदय कमल में जीव के साथ रहने वाले पूर्ण परमात्मा को परेशान करने वाले उनको अज्ञानियोंको राक्षसस्वभाववाले ही जान। गीता अध्याय 13 श्लोक 17 तथा अध्याय 18 श्लोक 61 में कहा है कि पूर्ण परमात्मा विशेष रूप से सर्व प्राणियों के हृदय में स्थित है।(6)
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अध्याय 17 श्लोक 7 का अनुवाद: भोजन भी सबको अपनी अपनी प्रकृतिके अनुसार तीन प्रकार का प्रिय होता है इसलिए वैसे ही यज्ञ तप और दान भी तीन-तीन प्रकारके होते हैं उनके इस भेदको तू मुझसे सुन।(7)
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अध्याय 17 श्लोक 8 का अनुवाद: आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीतिको बढ़ानेवाले रसयुक्त चिकने और स्थिर रहनेवाले तथा स्वभावसेही मनको प्रिय ऐसे आहार अर्थात् भोजन करनेके पदार्थ सतोगुण प्रधान अर्थात् विष्णु के उपासक को जिनका विष्णु उपास्य देव है। उनको ऊपर लिखे आहार करना पसंद होते हैं।(8)
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अध्याय 17 श्लोक 9 का अनुवाद: कडुवे, खट्टे, लवणयुक्त बहुत गरम, तीखे, रूखे, दाहकारक और दुःख चिन्ता तथा रोगोंको उत्पन्न करनेवाले आहार राजस पुरुषको रजोगुण प्रधान अर्थात् जिनका ब्रह्मा उपास्य देव है उनको ऊपर लिखे आहार स्वीकार होते हैं। क्योंकि हिरणाकशिपु राक्षस ने ब्रह्मा की उपासना की थी।(9)
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अध्याय 17 श्लोक 10 का अनुवाद: जो भोजन अधपका रसरहित दुर्गन्धयुक्त बासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्रा भी है वह भोजन तामस पुरुषको प्रिय होता है। तमोगुण प्रधान व्यक्तियों का उपास्य देव शिव है तथा वे उनसे निम्न स्तर के भूत प्रेतों को पूजते हैं उनको आहार ऊपर लिखित पसंद होता है। (10)
गीता अध्याय 17 श्लोक 11-13 का सारांश:-
’’यज्ञों की जानकारी‘‘
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गीता ज्ञान दाता ने श्लोक 11 में बताया है कि यज्ञ यानि धार्मिक अनुष्ठान शास्त्र विधि अनुसार (पूर्ण गुरू के बताए अनुसार) बिना कार्य सिद्धि के मनुष्य का कर्तव्य मानकर मन को तत्वज्ञान से समझाकर किया जाता है। वह सात्विक है यानि यथार्थ यज्ञ है।(17:11)
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अध्याय 17 श्लोक 12 में कहा है कि जो यज्ञ दम्भ यानि पाखण्ड आचरण के लिए किया जाता है तथा फल प्राप्ति की इच्छा रखकर किया जाता है, उस यज्ञ को राजस समझ।(17:12)
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अध्याय 17 श्लोक 13 में तामस यज्ञ के लक्षण बताए हैं। कहा है कि शास्त्रविधि से हीन यानि जो शास्त्र में वर्णित नहीं है तथा जिसमें अन्न दान से रहित यानि जिस धार्मिक कार्यक्रम में भोजन नहीं कराया जाता (लंगर नहीं लगाया जाता) तथा जिसमें गुरू को दक्षिणा नहीं दी जाती और जो बिना श्रद्धा के किया जाता है, वह यज्ञ तामस कहा जाता है।
गीता अध्याय 17 श्लोक 14-19 का सारांश:-
’’तप की परिभाषा‘‘
गीता अध्याय 17 के श्लोक 14 से 19 में तप की व्याख्या बताई है जो करना चाहिए। जैसे इसी अध्याय 17 के श्लोक 5.7 में घोर तप करना शास्त्रविधि रहित होने से व्यर्थ कहा है जो अकर्तव्य है। जो घोर तप करते हैं, वे असुर स्वभाव वाले बताया है। इसी अध्याय 17 श्लोक 14-19 में कर्तव्य तप के लक्षण बताए हैं:-
- अध्याय 17 श्लोक 14:- देव यानि देवता, द्विज यानि ब्राह्मण अर्थात् विद्वान गुरू तथा प्राज्ञ यानि तत्वदर्शी संत का पूजन यानि सत्कार, पवित्रा रहना यानि सफाई रखना, सरलता यानि नम्रता करना, ब्रह्मचर्य रखना यानि जति धर्म का पालन करना {जति दो प्रकार के होते हैं:- 1ण् जो आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करता है। विवाह नहीं करता। 2ण् जो विवाह करता है तथा अपनी स्त्री तक ही सीमित रहता है।}, अहिंसा को आधार मानता है यानि जो किसी को तन-मन, वचन से पीड़ा नहीं देता, स्वयं कष्ट उठा लेता है। जो सत्संग में आने वाले भाई-बहनों, वृद्धों, रोगियों, असहायों की सेवा करता है, सत्संग में जो भी सेवा मिलती है, उसे पूरी निष्ठा से करता है। यह शरीर संबंधी तप कहा है।(17:14)
वाणी संबंधी तप:-
अध्याय 17 श्लोक 15:- जो साधक किसी के कटु वचन कहने पर भी नहीं भड़कता, सबसे प्यार से बोलता है। सत्य भाषण करता है यानि स्वार्थ या भय के कारण झूठ नहीं बोलता अपितु यथार्थ न्याय की बात कहता है। उसके लिए कितना भी कष्ट सहना पड़े, प्रवाह नहीं करता है, वह वाणी संबंधी तप कहा जाता है। जैसे परमेश्वर कबीर जी ने सत्य ज्ञान कहा। स्वार्थी तत्कालीन धर्मगुरूओं ने ढ़ेर सारी यातनाऐं दी, परंतु अडिग रहे। यह वाणी रूपी तप है जो करना चाहिए। (स्वाध्याय अभ्यसनम्) प्रतिदिन सुबह, दोपहर व शाम तीनों समय की संध्या यानि आरती करना। धर्म ग्रंथों को पढ़ना, धार्मिक पुस्तकों जो ग्रन्थ-शास्त्रों को सरल करके लिखी गई हैं, उनको पढ़ना वाणी संबंधी तप कहा जाता है।(17:15)
- गीता अध्याय 17 श्लोक 16:- इसमें बताया है कि मन को शांत व प्रसन्न रखना मन को बुराईयों से हटाकर शुभ कर्मों तथा शास्त्रविधि अनुसार साधना में लगाना, बड़बड़ न बोलकर यानि मौन रहना। यहाँ पर मौन का अर्थ यह नहीं है कि किसी से बोलना ही नहीं है। इस मौन का भावार्थ है कि कोई व्यक्ति भक्त या संत को अभद्र भाषा भी बोलता है तो उत्तर न दे। अपने ज्ञान को बताने के लिए अनावश्यक बड़-बड़ न करे। कोई इच्छ से सुनना चाहे तो अवश्य समझाए। कबीर परमेश्वर जी ने सूक्ष्मवेद यानि तत्वज्ञान में कहा है कि:-
कबीर, कहते को कहे जान दे, गुरू की सीख तू लेय।
साकट और श्वान (कुत्ते) को उल्ट जवाब न देय।।
भावार्थ:- यदि कोई व्यक्ति भक्त-संत को अनाप-शनाप बातें कहता है तो भक्त को चाहिए कि वह अपने गुरू द्वारा बताए ज्ञान को आधार बनाकर शांत रहे। गुरू जी बताते हैं कि यदि कुत्ता आपकी ओर भौंकता है तो उसे कुछ मत कहो, चले जाओ या शांत खड़े रहो। यदि कुत्ते को भौंकने से रोकने की कोशिश करोगे तो और अधिक भौंकेगा। इसी प्रकार यदि साकट यानि दुष्ट व्यक्ति को उत्तर दोगे तो और अधिक बकवास करेगा। इसलिए अपने मन को समझाकर संयम बरतना मन संबंधी तप कहा है।(17:16)
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अध्याय 17 श्लोक 17:- करने योग्य तप यानि कर्तव्य भक्ति कर्मों में तप उसे कहते हैं जो स्वधर्म पालन में आने वाली कठिनाइयाँ जो सेवा करने में, दान करने में, समाज के व्यंग्य सहने में जो-जो मानसिक या शारीरिक पीड़ा होती है, वह वास्तविक तप है। उस तप को यानि भक्ति कर्मों को करने वाले साधक पुरूषों (स्त्री-पुरूष) द्वारा श्रद्धा से किया जाता है। यह तप यानि साधना सात्विक कहा जाता है। जो पूर्व के श्लोकों में बताया है, वह ही वास्तविक तप है।(17:17)
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अध्याय 17 श्लोक 18:- जो तप यानि साधना सत्कार, मान और पूजा करवाने के लिए पाखण्ड से किया जाता है, वह (अधु्रवम्) निराधार यानि अनिश्चित फल वाला (चलम्) चलायमान यानि क्षणिक यहाँ राजस तप कहा गया है जो शास्त्रविधि विरूद्ध होने के कारण व्यर्थ है।(17:18)
घोर तप के विषय में श्लोक 19 में कहा है। इसका संबंध इसी अध्याय 17 के श्लोक 5-6 से है।
- अध्याय 17 श्लोक 19:- मूढ़ग्राहेण आत्मनः पीड़या क्रियते यत् तपः यानि जो मूर्ख आत्मा मूर्खतापूर्वक हठ से अपने शरीर को पीड़ा देकर तप करते हैं। जैसे पाँच धूने लगाकर तप करते हैं। वर्षों खड़ा या बैठकर तप करते हैं या जल में खड़े होकर तप करते हैं। जैसे भस्मासुर ने शीर्षासन करके ऊपर को पैर नीचे को सिर कर किया, वह तप तथा ‘‘परस्य उत्सात् अनार्थम्’’ यानि दूसरे का अनष्टि यानि बुरा करने के लिए किया गया तप तामस कहा जाता है। जैसे वर्तमान में एक ट्रैंड चल रहा है। यदि किसी की किसी से कहा-सुनी यानि झगड़ा हो जाता है तो वे एक-दूसरे का अनिष्ट करवाने के लिए जन्त्रा-मन्त्रा करने वाले तांत्रिकों व सेवड़ों के पास धन लुटाते हैं। उनसे अपने शत्राु का नाश करने की फीस देते हैं। ऐसी साधना करने वाले तांत्रिकों द्वारा किया यह तप जिससे अन्य को कष्ट देने के उद्देश्य से किया जाता है, वह तामस तप है, पाप देने वाला है।(17ध्19)
गीता अध्याय 17 श्लोक 20-22 का सारांश:-
सात्विक दान:- गीता अध्याय 17 श्लोक 20:- जो दान अपना भक्ति कर्तव्य कर्म जानकर बिना स्वार्थ के देश, काल तथा पात्रा के प्राप्त होने पर दिया जाता है, वह दान सात्विक यानि यथार्थ दान कहा जाता है। देश, काल व पात्रा से तात्पर्य है कि गुरू धारण करके उनके आदेशानुसार किया दान लाभदायक है। देश का अर्थ है स्थान, काल का अर्थ समय। गुरू जी आवश्यकता अनुसार गरीब, दुःखियों, असहायों की सहायता करने को कहें, करो अन्यथा गुरू जी को दान दे दो जो सुपात्रा है। वह अपने आप आपके दान को खर्च करे। वह दान सही है।(17:20)
विशेष:- परमेश्वर कबीर जी ने संत गरीबदास जी को सूक्ष्मवेद यानि तत्वज्ञान में कहा है:-
-बिन इच्छा जो दान देत है, सोई दान कहावै। फल चाहै नहीं तास का अमरापुर जावै।_
भावार्थ:- जो साधक फल की इच्छा न करके दान करता है, वही वास्तविक दान है जो भक्त के मोक्ष में भी सहयोग करता है तथा यहाँ संसारिक सुख भी प्रदान करता है।
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अध्याय 17 श्लोक 21:- जो दान क्लेशपूर्वक यानि जैसे चंदा माँगने वाले को धन दुःखी मन से मजबूरी में दिया जाता है, वह दान व्यर्थ है और जो दान के बदले में परमात्मा से कुछ लाभ फल प्राप्ति के लिए दिया जाता है, वह दान राजस है यानि उसका मोक्ष में सहयोग नहीं है।(17:21)
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अध्याय 17 श्लोक 22:- जो दान कुपात्रा को दिया जाता है तथा मन मारकर तिरस्कारपूर्वक बिना श्रद्धा के दिया जाता है, वह तामस दान कहा जाता है जो व्यर्थ है।(17:22)
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अध्याय 17 के श्लोक 21 से 22 तक का भाव है इसमें भगवान तप व यज्ञ कैसे होते हैं? तथा उनके प्रकार व फल बताएँ? क्योंकि यज्ञ, दान, तप का लाभ भी परम अक्षर ब्रह्म (पूर्णब्रह्म) ही देता है। इसलिए कहा है कि उस परमात्मा (परम अक्षर ब्रह्म) के निमित किया कर्म श्रेष्ठ है तथा पूर्ण मुक्ति दाता है। अन्य परमात्माओं (ब्रह्म व परब्रह्म) के निमित कर्म पूर्ण मुक्ति दायक नहीं है। फिर भी ब्रह्म से अधिक सुखदाई परमात्मा परब्रह्म है परंतु पूर्ण सुखदायक, जन्म-मरण से पूर्ण मुक्त करने वाला भगवान पूर्णब्रह्म ही है। वह साहेब कबीर हैं। इसी को सत साहेब कहते हैं।
अध्याय 17 के 23 से 28 श्लोकों का हिन्दी अनुवाद
विशेष:- गीता अध्याय 15 श्लोक 1.4 तथा 16.17 में संसार को एक वृक्ष के समान बताया है। उस वृक्ष की जड़ तो परम अक्षर ब्रह्म यानि पूर्ण ब्रह्म बताया है। जिसे परम अक्षर ब्रह्म, सत्य पुरूष, परम दिव्य पुरूष आदि-आदि नामों से भी जाना जाता है। तना अक्षर पुरूष बताया है तथा डार क्षर पुरूष यानि काल ब्रह्म बताया है। तीनों देवताओं (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव) को शाखा बताया है। तीनों देवताओं और अन्य देवताओं की साधना गीता अध्याय 7 श्लोक 12.15 तथा 20.23 में व्यर्थ बताई है। गीता अध्याय 7 के ही श्लोक 16.18 में गीता ज्ञान दाता ने अपनी साधना से होने वाली गति यानि मोक्ष अनुत्तम बताया है तथा गीता अध्याय 8 श्लोक 13 में अपनी भक्ति साधना का केवल एक अक्षर ¬ (ओम्) मंत्रा अंतिम श्वांस तक स्मरण करने को बताया है। गीता अध्याय 8 के ही श्लोक 3 में परम अक्षर ब्रह्म अपने से अन्य समर्थ प्रभु बताया है तथा इसी अध्याय 8 के श्लोक 5 तथा 7 में अपनी पूजा करने को कहा है तथा श्लोक 8.10 में परम अक्षर ब्रह्म की भक्ति की प्रेरणा की है। उसकी प्राप्ति के मंत्रों की जानकारी इस अध्याय 17 के श्लोक 23.28 में बताई है जिससे गीता अध्याय 15 के श्लोक 4 में कहा परम पद प्राप्त होता है जहाँ जाने के पश्चात्
साधक लौटकर कभी संसार में नहीं आता तथा गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कही परमशांति प्राप्त होती है तथा सनातन परम धाम प्राप्त होता है। गीता ज्ञान दाता ने अपनी भक्ति का मंत्रा केवल एक ॐ (ओम्) अक्षर कहा है। ओम् (ॐ) की साधना से ब्रह्मलोक प्राप्त होता है। गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में स्पष्ट किया है कि ब्रह्मलोक में गए साधक भी पुनरावर्ती में रहते हैं यानि उनका जन्म-मरण रहता है। ब्रह्मलोक में भक्ति की कमाई यानि पुण्य समाप्त होने के पश्चात् साधक का पुनर्जन्म होता है यानि जन्म-मरण से मुक्ति नहीं मिलती। इस अध्याय 17 श्लोक 23-28 में ॐ मंत्र जो क्षर पुरूष का है तथा तत् मंत्र जो सांकेतिक है, यह अक्षर पुरूष की साधना का है तथा सत् मंत्र भी सांकेतिक है। यह परम अक्षर पुरूष की साधना का है। इन तीनों मंत्रों के जाप से पूर्ण मोक्ष प्राप्त होता है। जैसी गीता अध्याय 18 श्लोक 62 तथा 66 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि हे अर्जुन! तू सर्व भाव से उस परमेश्वर की शरण में जा। उस परमेश्वर की ही कृपा से तू परम शांति को तथा (शाश्वतम् स्थानम्) सनातन परम धाम यानि अमर लोक को प्राप्त होगा। यह गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है। फिर गीता अध्याय 18 श्लोक 66 में गीता ज्ञान देने वाले काल ब्रह्म यानि क्षर पुरूष ने स्पष्ट किया है कि यदि उस परमेश्वर यानि परम अक्षर पुरूष की शरण में जाना है तो (सर्व धर्मान् परित्यज्य माम् एकम् शरणम् व्रज) मेरी साधना यानि जो ॐ (ओम्) की साधना है, उसकी धार्मिक कमाई यानि मेरे स्तर की सब धार्मिक क्रियाओं की भक्ति मुझ में त्यागकर उस एकम् यानि जिसके समान अन्य कोई नहीं है। उस समर्थ की शरण में (व्रज) जाओ। मैं तुझे मेरी भक्ति के प्रतिफल में सब पापों से मुक्त कर दूँगा। तू चिंता मत कर।
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अध्याय 17 श्लोक 23 का अनुवाद: ओं (ॐ) मन्त्र ब्रह्म यानि क्षर पुरूष का तत् यह सांकेतिक मंत्रा परब्रह्म यानि अक्षर पुरूष का सत् यह सांकेतिक मन्त्रा सच्चिदानंद घन ब्रह्म यानि परम अक्षर पुरूष (पूर्णब्रह्म) का है। ऐसे यह तीन प्रकार के पूर्ण परमात्मा के नाम सुमरण का आदेश कहा है और सृष्टि के आदिकाल में विद्वानों ने उसी तत्वज्ञान के आधार से वेद तथा यज्ञादि बनाए। उसी आधार से साधना करते थे।(23)
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श्लोक 24 का अनुवाद: इसलिये भगवान की स्तुति करने वालांे तथा शास्त्रविधि से नियत क्रियाऐं बताने वालों की यज्ञ, दान और तप व स्मरण क्रियाएँ सदा ‘ऊँ‘ इस नाम को उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं अर्थात् तीनों नामों के जाप में ओं से ही श्वांस द्वारा प्रारम्भ किया जाता है।(24)
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अध्याय 17 श्लोक 25 का अनुवाद: अक्षर पुरूष अर्थात् परब्रह्म के तत् मन्त्रा के जाप पर श्वांस इति अर्थात् अन्त होता है तथा फल को न चाहकर नाना प्रकार की यज्ञ, तपरूप क्रियाएँ तथा दान रूप क्रियाएँ कल्याण की इच्छा वाले अर्थात् केवल जन्म-मृत्यु से पूर्ण छुटकारा चाहने वाले पुरुषों द्वारा की जाती हैं अर्थात् यह तत जाप सांकेतिक मन्त्रा है जो परब्रह्म का जाप मन्त्रा है और सतनाम के श्वांस द्वारा जाप में तत् मन्त्रा पर श्वांस का इति अर्थात् अन्त होता है।(25)
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अध्याय 17 श्लोक 26 का अनुवाद: ‘सत्‘ यह सारनाम का सांकेतिक मंत्रा है। इसे पूर्ण परमात्मा के नाम के साथ सत्यभाव में और श्रेष्ठभाव में प्रयोग किया जाता है तथा हे पार्थ! उत्तम कर्ममें ही सत् शब्द अर्थात् सारनाम का प्रयोग किया जाता है अर्थात् पूर्वोक्त दोनों मन्त्रों ओं व तत् के साथ जोड़ा जाता है।(26)
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अध्याय 17 श्लोक 27 का अनुवाद: तथा यज्ञ तप और दान में जो स्थिति है भी ‘सत्‘ इस प्रकार कही जाती है और उस परमात्मा के लिये किए हुए शास्त्र अनुकूल किया भक्ति कर्म में ही वास्तव में सत् शब्द के अन्त में कोई अन्य शब्द तत्वदर्शी संत द्वारा कहा जाता है। जैसे सत् साहेब, सतगुरू, सत् पुरूष, सतलोक, सतनाम आदि शब्द बोले जाते हैं।(27)
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अध्याय 17 श्लोक 28 का अनुवाद: हे अर्जुन! बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन दिया हुआ दान एवं तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ शुभ कर्म है वह समस्त ‘असत्‘ अर्थात् व्यर्थ है इस प्रकार कहा जाता है इसलिये वह हमारे लिए न तो इस लोकमें लाभदायक है और न मरनेके बाद ही।(28)