कलयुग वर्तमान में कितना बीत चुका है?
हिन्दू धर्म में आदि शंकराचार्य जी का विशेष स्थान है। दूसरे शब्दों में कहें तो हिन्दू धर्म के सरंक्षक तथा संजीवन दाता भी आदि शंकराचार्य हैं। उनके पश्चात् जो प्रचार उनके शिष्यों ने किया, उसके परिणामस्वरूप हिन्दू देवताओं की पूजा की क्रान्ति-सी आई है। उनके ईष्ट देव श्री शंकर भगवान हैं। उनकी पूज्य देवी पार्वती जी हैं। इसके साथ श्री विष्णु जी तथा अन्य देवताओं के वे पुजारी हैं। विशेषकर ‘‘पंच देव पूजा‘‘ का विधान है:- 1) श्री ब्रह्मा जी 2) श्री विष्णु जी 3) श्री शंकर जी 4) श्री पारासर ऋषि जी 5) श्री कृष्ण द्वैपायन उर्फ श्री वेद व्यास जी पूज्य हैं।
पुस्तक ‘‘जीवनी आदि शंकराचार्य‘‘ में लिखा है कि आदि शंकराचार्य जी का जन्म 508 वर्ष ईशा जी से पूर्व हुआ था।
फिर पुस्तक ‘‘हिमालय तीर्थ‘‘ में भविष्यवाणी की थी जो आदि शंकराचार्य जी के जन्म से पूर्व की है। कहा है कि आदि शंकराचार्य जी का जन्म कलयुग के तीन हजार वर्ष बीत जाने के पश्चात् होगा।
अब गणित की रीति से जाँच करके देखते हैं, वर्तमान में यानि 2012 में कलयुग कितना बीत चुका है?
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आदि शंकराचार्य जी का जन्म ईसा जी के जन्म से 508 वर्ष पूर्व हुआ।
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ईसा जी के जन्म को हो गए = 2012 वर्ष।
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शंकराचार्य जी को कितने वर्ष हो गए = 2012 + 508 = 2520 वर्ष।
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ऊपर से हिसाब लगाएं तो शंकराचार्य जी का जन्म हुआ = कलयुग 3000 वर्ष बीत जाने पर।
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कुल वर्ष 2012 में कलयुग कितना बीत चुका है =3000 + 2520 = 5520 वर्ष।
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अब देखते हैं कि 5505 वर्ष कलयुग कौन-से सन् में पूरा होता है = 5520 – 5505 = 15 वर्ष 2012 से पहले।
2012 – 15 = 1997 ई. को कलयुग 5505 वर्ष पूरा हो जाता है। संवत् के हिसाब से स्वदेशी वर्ष फाल्गुन महीने यानि फरवरी-मार्च में पूरा हो जाता है।
जो संतजन मानते हैं कि श्रीमद्भगवत गीता 5151 वर्ष पूर्व कही गई थी। वह गलत है।
दीक्षा देने की विधि कबीर सागर के अनुसार
प्रश्न:– कबीर पंथी दीक्षा एक बार में देते हैं। आप कहते हैं कि तीन बार में दीक्षा क्रम पूरा होता है। कौन-सी बात सत्य मानी जाए?
उत्तर:– जो कबीर सागर के अध्याय ‘‘अमर मूल’’ में प्रमाण है।
प्रश्न:- आप कहते हैं और अध्याय ‘‘अनुराग सागर’’ में भी पढ़ा है कि कबीर सागर में बहुत कांट-छांट की गई है, मिलावट भी की गई है। आप जिन वाणियों को सत्य मानते हो, उनको कैसे सत्य मानें?
उत्तर:- यदि इन वाणियों पर मिलावट करने वालों की दृष्टि पड़ जाती तो इसे काट देते क्योंकि वे एक बार में दीक्षा देकर नरकगामी कर रहे हैं। यह प्रकरण उनकी मान्यता अनुसार भी सत्य है क्योंकि यह कबीर सागर में लिखा है तथा राजा बीर सिंह को तीन बार में नामदान करने का भी प्रमाण है। इसलिए मेरे वाली क्रिया ठीक है।
मुझ दास (रामपाल दास) को दीक्षा देने का आदेश मेरे पूज्य गुरूजी द्वारा सन् 1994 में हुआ था। उस समय से मैं दीक्षा को तीन चरणों में पूरा कर रहा हूँ। यह प्रेरणा परमेश्वर कबीर जी की ओर से थी। उस समय तक मैंने कबीर सागर का नाम भी नहीं सुना था। मैं संत गरीबदास जी के पंथ में दीक्षित होने के कारण संत गरीबदास जी के ग्रन्थ को ही पढ़ता था। सन् 2008 में कबीर सागर को पढ़ा। तब पाया कि परमात्मा कबीर जी भी दीक्षा क्रम को तीन चरणों में पूरा करते थे।
प्रमाण:– पवित्र कबीर सागर के अध्याय ‘‘अमर मूल‘‘ के पृष्ठ 265 पर स्पष्ट किया है कि हे धर्मदास! दीक्षा को तीन चरणों में पूरा करना होता है। इसी परंपरा से सर्व संसार में दीक्षा प्रदान की जाएगी। (यही प्रमाण कबीर सागर के अध्याय ‘‘सुल्तान बोध‘‘ के पृष्ठ 62 पर है:- प्रथम पान परवाना लेई। पीछे सार शब्द तोहे देई।।) फिर अध्याय ‘‘बीर सिंह बोध‘‘ में प्रमाण है कि कबीर परमेश्वर जी ने राजा बीर सिंह को तीन चरणों में दीक्षा प्रदान की थी। प्रथम बार ‘‘सात नाम‘‘ का मंत्र दिया था।
प्रमाण = अध्याय ‘‘बीर सिंह बोध‘‘ पृष्ठ 113 पर:-
तिनका तोरि पान लिख (रख) दयऊ। रानी-राय (राजा) अपन करि लयऊ।।
बहुत जीव पान मम पाये। ताघट पुरूष नाम सात आये।।
जो कोई हमरा बीरा पावै। बहुरि न योनि संकट आवै।।
(बीर सिंह बोध पृष्ठ 114 से वाणी)
सत्य कहूँ सुनु धर्मदासा। बिनु बीरा पावै यम फांसा।।
बीरा पाय राय भय भागा। सत्य ज्ञान हृदय में जागा।।
गदगद कंड हरष मन बाढ़ा। विनती करै राजा होय ठाढ़ा।।
प्रेमाश्रु दोई नैनन ढ़रावै। प्रेम अधिकता बचन न आवै।।
भावार्थ:– प्रथम बार राजा तथा रानी को सात नाम वाला प्रथम मंत्र नामदान किया। उनके साथ बहुत सारे व्यक्तियों ने भी दीक्षा ली। उनको सात नाम का मंत्र दिया जो सात पुरूषों (प्रभुओं) का है।
- परमात्मा का गुरू रूप में त्रिकुटी कमल में विराजमान का ‘‘सत सुकृत‘‘ नाम जाप।
- मूल कमल में विराजमान गणेश जी का नाम जाप।
- स्वाद कमल में विराजमान ब्रह्मा-सावित्री जी का नाम जाप।
- नाभि कमल में विराजमान विष्णु-लक्ष्मी जी का नाम जाप।
- हृदय कमल में विराजमान शंकर-पार्वती जी का नाम जाप।
- कंठ कमल में विराजमान देवी दुर्गा जी का नाम जाप।
- नौवें कमल में विराजमान पूर्ण ब्रह्म यानि सत्य पुरूष जी का नाम जाप।
सात नाम के मंत्र के विषय में अन्य प्रमाण:- अध्याय ‘‘अगम निगम बोध‘‘ पृष्ठ 84 से 86ः- पृष्ठ 84 पर वाणी पंक्ति सँख्या 7 से 9 तक। पृष्ठ 85 पर नीचे सें पाँचवीं (5वीं) पंक्ति में लिखा है:- सातों नाल जो आय विहंगा। भावार्थ है कि सात प्रभु एक नाल (कड़ी) में जुड़े हैं। फिर पृष्ठ 86 प्रथम पंक्ति में लिखा है:- सोहं नाल चीन्ह जिन पाई, सोई सिद्ध संत है भाई। फिर पाँचवीं पंक्ति में कहा है:- पाँच नाम तिहको परवाना, जो कोई साधु हृदय में आना। फिर आठवीं पंक्ति में लिखा है:- सप्त नाल के सातों नामा, बीर विहंग करै सब कामा। अगम निगम बोध पृष्ठ 86, 87 पर श्रीं, ॐ, ह्रीं, कलीं नाम प्रत्यक्ष लिखे हैं। परमात्मा कबीर जी विशेष श्रद्धालु को ही सात नाम वाला मंत्र देते थे। अन्य को केवल पाँच नाम ही देते जो गणेश जी से दुर्गा जी वाले हैं, ही देते थे। अनुराग सागर पृष्ठ 72 पर राजा खेम सरी को प्रथम नाम 5 शब्द दिए थे, वहाँ पढ़ें।
‘दूसरे चरण में सतनाम देने का प्रमाण’
कबीर सागर अध्याय ‘‘बीर सिंह बोध‘‘ पृष्ठ 114 पर:-
यहाँ पर कहा है कि जब राजा बीर सिंह को सत्यनाम दिया। जब राजा ने अपने कानों सत्यनाम (दो अक्षर) को सुना, तब प्रतीत आई यानि विश्वास हुआ।
‘‘राजा बीर सिंह द्वारा प्रार्थना (स्तूति करना)‘‘
करूणामय सद्गुरू अभय मुक्ति धामी नामा हो।
पुलकित सादर प्रेम वश होय सुधरे सो जीव कामा हो।
भव सिंधु अति विकराल दारूण, तास तत्त्व बुझायऊ।
अजर बीरा नाम दै मोहि। पुरूष दर्श करायऊ।।
सोरठा:- चलिये वही लोक को, राय चरण गहे धाय।
जरा मरण जेही घर नहीं, जहाँ वहाँ हंस रहाय।।
भावार्थ:– परमेश्वर कबीर जी ने जब राजा को प्रथम मंत्र दिया। उसको प्राप्त करके राजा को विश्वास हुआ कि साधना सही है क्योंकि हिन्दू होने के नाते राजा ने अपने देवताओं के निज मंत्र प्राप्त किए तो मन में कोई विरोध नहीं हुआ। फिर परमेश्वर कबीर जी ने कहा राजा यह मंत्र तो सांसारिक सुविधाएँ प्राप्त करवाता है और भक्ति में रूचि पैदा करता है। जब संसार छोड़कर जाओगे तो आपको प्रत्येक देव जिनका नाम दिया है, वे अपनी-अपनी सीमा से जीव को आदर के साथ बिना किसी बाधा के पार करेंगे, परंतु त्रिकुटी पर जाने के पश्चात् जीव के पास ‘‘सत्य नाम‘‘ का होना अनिवार्य है। यदि सत्यनाम नहीं है तो जीव ब्रह्म रंद्र वाले दसवें द्वार को तथा परब्रह्म रंद्र वाले ग्यारहवें द्वार को नहीं खोल पाएगा। फिर पूर्ण ब्रह्म रंद्र बारहवां द्वार है। वह सार शब्द से खुलता है। यह सत्यनाम के बाद प्रदान किया जाता है। जब तक सत्यनाम के स्मरण की कमाई यानि भक्ति शक्ति धन संग्रह नहीं करेगा, तब तक सारनाम (सार शब्द) नहीं दिया जाता। वह मैं परीक्षा करके देता हूँ। राजा ने उपरोक्त वाणियों में परमेश्वर कबीर जी से प्रार्थना की है कि हे दया के सागर सद्गुरू! यह भवसागर बहुत विकराल है, भयंकर है। उस तत्त्वभेद को बताकर मुझे अजर बीरा नाम अर्थात् अमर होने की दीक्षा देकर सत्यपुरूष के दर्शन कराने की कृपा करो और उस लोक में ले चलो जहाँ जरा (वृद्ध अवस्था) तथा मरण (मृत्यु) नहीं है। जहाँ पर अमर हंस (देव स्वरूप आत्माएँ) रहती हैं। इतना सुनकर राजा ने परमेश्वर कबीर जी के चरण दौड़कर दण्डवत् करके पकड़े।
‘‘कबीर वचन‘‘
तौन नाम राजा कहं दीना। सकल जीव अपना कर लीना।।
राजा (राय) श्रवण जब नाम सुनायी। तब प्रतीत राजा जीव आई।।
सत्य पुरूष सत्य है फूला। सत्य शब्द है मुक्ति को मूला।।
सत्यनाम जीव जो पावै। सोई जीव तेहि लोक समावै।।
ऐसो नाम सुहेला भाई। सुनतहि काल जाल नशि जाई।।
सोई नाम राजा जो पाये। सत्य पुरूष दरशन चित लाये।।
(पुराने कबीर सागर से वाणी)
अब राजा तुम सिमर करिहो। राज पराये चित न धरिहो।।
सत्य नाम बख्स मैं दीना। रहना सदा भक्त संत के आधीना।।
सार शब्द जब तक नहीं पावै। कोई साधक सतलोक नहीं जावै।।
सार शब्द सुमरण करही। सो हंस भवसागर तिरही।।
कबीर सागर अध्याय ‘‘बीर सिंह बोध‘‘ पृष्ठ 115 पर:-
‘‘राजा बीर सिंह वचन‘‘
साहब सार शब्द मोहे दीजे। अपना करि प्रभु निज कै लीजै।।
दयावंत बिनती सुन मोरी। हम पुरूषा परे नरक अघोरी।।
मोको तारो भवसागर सो गोसाईं। बिनती करों रंककी नाई।।
कबीर सागर के अध्याय बीर सिंह बोध के पृष्ठ 116-118 की फोटोकाॅपी लगाई हैं ताकि पाठकजन आँखों देख पढ़कर विश्वास करें। अब तक तो प्रथम तथा दूसरे मंत्र देने का वर्णन है। आगे सार शब्द (सार नाम) के लिए परीक्षा ली। फिर सार शब्द (सारनाम) देने का प्रमाण है।
‘‘कबीर वचन‘‘
कबीर सागर अध्याय ‘‘बीर सिंह बोध‘‘ पृष्ठ 116 (पढ़ें फोटोकाॅपी)
कबीर सागर के अध्याय बीर सिंह बोध के पृष्ठ 116 से 118 में कहा है किः-
परमेश्वर कबीर से राजा बीर सिंह बघेल ने विनती की कि हे सद्गुरू जी! सार शब्द बिन मोक्ष नहीं है तो मुझे सार शब्द देने का कष्ट करें। परमेश्वर कबीर जी ने एक तीर से न शिकार किए। बीर सिंह बघेल काशी नगरी के राजा थे। उसी नगर में एक विधवा ब्राह्मणी (नाम-चन्द्रप्रभा) रहती थी। उसकी एक पुत्री थी। उन दोनों ने भी परमेश्वर से सत्यनाम ले रखा था। वे दोनों माँ-बेटी भी सारशब्द के लिए बार-बार प्रार्थना किया करती थी। ब्राह्मणी चन्द्रप्रभा भगवान जगन्नाथ को ईष्ट मानकर अटूट श्रद्धा से भक्ति करती थी। गुरू कबीर जी को मानती थी। उसने अपने आँगन में कपास (बाड़ी) बीजी। उसमें गंगा का पावन जल लाकर सिंचाई की। फिर उससे कपास निकालकर सूत बनाया और अपने हाथों कपड़ा बुना यानि एक धोती (साड़ी जैसी) बनाई जिसे भगवान जगन्नाथ के मंदिर में पुरी (प्रान्त-उड़ीसा) में अर्पित करना चाहती थी। एक-दो दिन में पुरी को रवाना होने वाली थी। परमेश्वर कबीर जी ने कहा, राजन! आपको मैं सारशब्द देता हूँ, परंतु उसके लिए एक धोती की आवश्यकता पड़ती है। आप ऐसा करो, आपकी नगरी काशी में आपकी एक गुरू बहन ब्राह्मणी रहती है। उसने अपने घर के आँगन में कपास बीजकर स्वयं निकालकर कात-बुनकर एक धोती तैयार की है। वह धोती लाओ तो सारनाम मिलेगा। राजा बीर सिंह उस बहन के पास गए। उस बहन चन्द्रप्रभा को राजा के आने की खबर मिली तो पहले तो घबराई, कुछ संभलकर दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करके आदर से बैठाया। आने का कारण पूछा। राजा ने कहा, बहन! आज मुझे सारनाम मिलना है। गुरूदेव ने एक धोती मँगाई है जो आपने अपने घर के आँगन में बाड़ी बीजकर और सूत बुनकर तैयार की है। आप उसके बदले में चाहे कुछ गाँव ले लो बहन! मेरे जीवन कल्याण के लिए वह धोती दे दे। राजा बीर सिंह की यह बात सुनकर दोनों माँ-बेटी हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगी कि राजन! यह धोती भगवान जगन्नाथ जी के लिए बनाई है। हे राजन! बेसक हमारा सिर काट दो, परंतु हम यह धोती नहीं दे सकते। बीर सिंह ने कहा, बहन! सतगुरू देव जी ने मँगाई है। मैं राजा के तौर पर माँगने नहीं आया हूँ। आपकी इच्छा नहीं है तो मैं चला जाता हूँ। बहन चन्द्रप्रभा तथा पुत्री ने राहत की साँस ली। राजा बीर सिंह बघेल ने जाकर सतगुरू कबीर जी को सब वार्ता बताई। तब सतगुरू देव जी ने कहा कि मैं अपनी शर्त छोड़ देता हूँ, मैं आपको बिना धोती के ही सारनाम दे दूँगा। आप एक काम करो। जब वह धोती भेंट करने पुरी को जाए, उस बहन चन्द्रप्रभा के साथ अपने सिपाही भेज दो। राजा ने दो सिपाही उस बहन के साथ भेज दिए ताकि कोई रास्ते में परेशान न करे। दोनों माँ-बेटी जगन्नाथ पुरी में चली गई। सुबह स्नान करके एक नारियल तथा धोती थाली में रखकर जगन्नाथ मंदिर में भेंट कर दी। देखते-देखते धोती वहाँ से उठी और मंदिर से बाहर आँगन में मिट्टी में गिरी। आकाशवाणी हुई कि यह धोती मैंने राजा बीर सिंह के द्वारा काशी में मँगवाई थी। वहाँ क्यों नहीं भेजी? यहाँ किसलिए लाई है? जगन्नाथ तो काशी में बैठा है, जाओ, उसे भेंट करो। यह कौतुक सबने देखा। राजा के सिपाही भी यह सब देख रहे थे। आकाशवाणी भी सुनी। ब्राह्मणी बहन तथा उसकी पुत्री पश्चाताप करने लगी कि हम कितनी मूर्ख हैं, जगन्नाथ तो काशी में कबीर जी हैं। हम उन्हें सामान्य व्यक्ति जुलाहा ही मान रही थी। वहीं से रोने लगी थी, रह-रहकर रो रही थी। वापिस काशी नगरी में आ गए। उस दिन भी परमेश्वर कबीर जी राजा बीर सिंह बघेल के महल में बैठे थे। चन्द्रप्रभा बहन, उसकी पुत्री तथा दोनों सिपाही कबीर परमेश्वर जी से मिले। साथ में राजा बीर सिंह बघेल बैठा था। वह ब्राह्मणी चन्द्रप्रभा परमेश्वर कबीर जी के चरणों में धोती रखकर बिलख-बिलखकर रोने लगी और कहा, मुझे भ्रम था कि आप केवल मानव हैं। हे सतगुरू! आप तो जगत के स्वामी साक्षात् जगन्नाथ हो। दोनों सिपाहियों ने सर्व घटना बताई। जो आकाशवाणी सुनी थी, वह भी बताई। तब राजा बीर सिंह को भी दृढ़ निश्चय हुआ। परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि:-
कबीर, गुरू मानुष कर जानते, ते नर कहिए अंध। होवें दुखी संसार में, आगै यम के फंद।।
गुरू गोविन्द कर जानियो, रहियो शब्द समाय। मिलें तो दण्डवत् बन्दगी, नहीं पल-पल ध्यान लगाय।।
तब परमेश्वर जी ने कहा, पहले अपना नाम शुद्ध कराओ, कमाई करो, फिर सारनाम दूँगा। यह कहकर परमेश्वर जी ने उन सबका नाम शुद्ध किया।
परमेश्वर ने एक तीर से तीन शिकार किए। राजा को विश्वास नहीं था कि कबीर जी वास्तव में परमेश्वर हैं। वे उनको सिद्ध पुरूष मानते थे। यही दशा उस बहन ब्राह्मणी की थी, उन दोनों का भ्रम निवारण किया तथा अपनी महिमा से परिचित करवाया।
उपरोक्त प्रकरण से सिद्ध हुआ कि परमेश्वर जी नाम दीक्षा का क्रम तीन चरणों में पूरा करते थे। विश्व में कोई संत इस प्रकार दीक्षा को तीन चरणों में प्रदान नहीं करता। परमेश्वर कबीर जी के पश्चात् यह दास (रामपाल दास) तीन चरणों में दीक्षा का कार्य पूरा करता है।
बुद्धिमान को संकेत ही पर्याप्त होता है। यहाँ तो प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।
कथा सारांश:– सार शब्द प्राप्ति के लिए साधक को विशेष ज्ञान होना आवश्यक है। परमात्मा और सतगुरू के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित होना अनिवार्य है। सर्व संसार-असार तथा दुःखालय मानना चाहिए। दीक्षा तीन चरणों में देने वाला वास्तव में सतगुरू है, वह तारणहार (कड़िहार गुरू=संसार से काड़ने यानि निकालने वाला गुरू) है। प्रसंग दीक्षा के विषय में चल रहा है:-