किस-किसको मिला परमात्मा?
कलयुग में परमेश्वर जिन-जिन महान आत्माओं को मिले, उनको तत्वज्ञान बताया, उनका मैं संक्षिप्त वर्णन करता हूँः-
‘‘सन्त धर्मदास जी से प्रथम बार परमेश्वर कबीर जी का साक्षात्कार’’
श्री धर्मदास जी बनिया जाति से थे जो बाँधवगढ़ (मध्य प्रदेश) के रहने वाले बहुत धनी व्यक्ति थे। उनको भक्ति की प्रेरणा बचपन से ही थी। जिस कारण से एक रुपदास नाम के वैष्णव सन्त को गुरु धारण कर रखा था। हिन्दू धर्म में जन्म होने के कारण सन्त रुपदास जी, श्री धर्मदास जी को राम कृष्ण, विष्णु तथा शंकर जी की भक्ति करने को कहते थे। एकादशी का व्रत, तीर्थों पर भ्रमण करना, श्राद्ध कर्म, पिण्डोदक क्रिया सब करने की राय दे रखी थी। गुरु रुपदास जी द्वारा बताई सर्व साधना श्री धर्मदास जी पूरी आस्था के साथ किया करते थे। गुरु रुपदास जी की आज्ञा लेकर धर्मदास जी मथुरा नगरी में तीर्थ-दर्शन, तीर्थ स्नान करने तथा गिरीराज (गोवर्धन) पर्वत की परिक्रमा करने के लिए गए थे। परम अक्षर ब्रह्म एक जिन्दा महात्मा की वेशभूषा में धर्मदास जी को स्वयं मथुरा में मिले। श्री धर्मदास जी ने उस तीर्थ तालाब में स्नान किया जिसमें श्री कृष्ण जी बाल्यकाल में स्नान किया करते थे। फिर उसी जल से एक लोटा भरकर लाये। भगवान श्री कृष्ण जी की पीतल की मूर्ति (सालिग्राम) के चरणों पर डालकर दूसरे बर्तन में डालकर चरणामृत बनाकर पीया। फिर सालिग्राम को स्नान करवाकर अपना कर्मकाण्ड पूरा किया। एक स्थान को लीपकर अर्थात् गारा तथा गाय का गोबर मिलाकर कुछ भूमि पर पलस्तर करके उस पर स्वच्छ कपड़ा बिछाकर श्रीमद्भगवत् गीता का पाठ करने बैठे। यह सर्व क्रिया जब धर्मदास जी कर रहे थे। परमात्मा जिन्दा वेश में थोड़ी दूरी पर बैठे देख रहे थे। धर्मदास जी भी देख रहे थे कि एक मुसलमान सन्त मेरी भक्ति क्रियाओं को बहुत ध्यानपूर्वक देख रहा है, लगता है इसको हम हिन्दुओं की साधना मन भा गई है। इसलिए श्रीमद्भगवत् गीता का पाठ कुछ ऊँचे स्वर में करने लगा तथा हिन्दी का अनुवाद भी पढ़ने लगा। परमेश्वर उठकर धर्मदास जी के निकट आकर बैठ गए। धर्मदास जी को अपना अनुमान सत्य लगा कि वास्तव में इस जिन्दा वेशधारी बाबा को हमारे धर्म का भक्ति मार्ग अच्छा लग रहा है। इसलिए उस दिन गीता के कई अध्याय पढ़े तथा उनका अर्थ भी सुनाया। जब धर्मदास जी अपना दैनिक भक्ति कर्म कर चुका, तब परमात्मा ने कहा कि हे महात्मा जी, आप का शुभ नाम क्या है? कौन जाति से हैं। आप जी कहाँ के निवासी हैं? किस धर्म-पंथ से जुड़े हैं? कृपया बताने का कष्ट करें। मुझे आपका ज्ञान बहुत अच्छा लगा, मुझे भी कुछ भक्ति ज्ञान सुनाइए। आप की अति कृपा होगी।
धर्मदास जी ने उत्तर दिया:- मेरा नाम धर्मदास है, मैं बांधवगढ़ गाँव का रहने वाला वैश्य कुल से हूँ। मैं वैष्णव पंथ से दीक्षित हूँ, हिन्दू धर्म में जन्मा हूँ। मैंने पूरे निश्चय के साथ तथा अच्छी तरह ज्ञान समझकर वैष्णव पंथ से दीक्षा ली है। मेरे गुरुदेव श्री रुपदास जी हैं। आध्यात्म ज्ञान से मैं परिपूर्ण हूँ। अन्य किसी की बातों में आने वाला मैं नहीं हूँ। राम-कृष्ण जो श्री विष्णु जी के ही अवतार हुए हैं तथा भगवान शंकर की भी पूजा करता हूँ, एकादशी का व्रत रखता हूँ। तीर्थों में जाता हूँ, वहाँ दान करता हूँ। शालिग्राम की पूजा नित्य करता हूँ। यह पवित्र पुस्तक श्रीमद्भगवत् गीता है, इसका नित्य पाठ करता हूँ। मैं अपने पूर्वजों का जो स्वर्गवासी हो चुके हैं, श्राद्ध भी करता हूँ। पिण्डदान भी करता हूँ। मैं कोई जीव हिंसा नहीं करता, माँस, मदिरा, तम्बाकू सेवन नहीं करता।
परमेश्वर कबीर जी ने पूछा कि आप जिस पुस्तक को पढ़ रहे थे, इसका नाम क्या है?
धर्मदास जी ने बताया कि यह श्रीमद् भगवत गीता है। हम शुद्ध रहते हैं, शुद्र को निकट भी नहीं आने देते।
प्रश्न 29:- (कबीर जी जिन्दा रुप में) आप क्या नाम-जाप करते हो?
उत्तर:- (धर्मदास जी का) हम हरे कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण हरे-हरे, ओम् नमः शिवाय, ओम् भगवते वासुदेवाय नमः, राधे-राधे श्याम मिलादे, गायत्री मन्त्र का जाप 108 बार प्रतिदिन करता हूँ। विष्णु सहंस्रनाम का जाप भी करता हूँ।
प्रश्न 30:- (जिन्दा बाबा का) हे महात्मा धर्मदास! गीता का ज्ञान किसने दिया?
उत्तर: (धर्मदास का) कुल के मालिक सर्वशक्तिमान भगवान श्री कृष्ण जी ने, यही श्री विष्णु जी हैं।
प्रश्न 31: (जिन्दा बाबा रुप में परमात्मा का):- आप जी के पूज्य देव श्री कृष्ण अर्थात् श्री विष्णु हैं। उनका बताया भक्ति ज्ञान गीता शास्त्र है। हे धर्मदास! एक किसान को वृद्धावस्था में पुत्र प्राप्त हुआ। किसान ने विचार किया कि जब तक पुत्र कृषि करने योग्य होगा, तब तक मेरी मृत्यु हो जाएगी। इसलिए उसने कृषि करने का तरीका अपना अनुभव एक बही (रजिस्टर) में लिख दिया। अपने पुत्र से कहा कि बेटा जब आप युवा हो जाओ तो मेरे इस रजिस्टर में लिखे अनुभव को बार-2 पढ़ना। इसके अनुसार फसल बोना। कुछ दिन पश्चात् पिता की मृत्यु हो गई, पुत्र प्रतिदिन अपने पिता के अनुभव का पाठ करने लगा। परन्तु फसल का बीज व बिजाई, सिंचाई उस अनुभव के विपरीत करता था। तो क्या वह पुत्र अपने कृषि के कार्य में सफलता प्राप्त करेगा?
उत्तर: (धर्मदास का): इस प्रकार तो पुत्र निर्धन हो जाएगा। उसको तो पिता के लिखे अनुभव के अनुसार प्रत्येक कार्य करना चाहिए। वह तो मूर्ख पुत्र है।
प्रश्न 32: (बाबा जिन्दा रुप में भगवान जी का) हे धर्मदास जी! गीता शास्त्रा आप के परमपिता भगवान कृष्ण उर्फ विष्णु जी का अनुभव तथा आपको आदेश है कि इस गीता शास्त्रा में लिखे मेरे अनुभव को पढ़कर इसके अनुसार भक्ति करोगे तो मोक्ष प्राप्त करोगे। क्या आप जी गीता में लिखे श्री कृष्ण जी के आदेशानुसार भक्ति कर रहे हो? क्या गीता में वे मन्त्र जाप करने के लिए लिखा है जो आप जी के गुरुजी ने आप जी को जाप करने के लिए दिए हैं? (हरे राम-हरे राम, राम-राम हरे-हरे, हरे कृष्णा-हरे कृष्णा, कृष्ण-कृष्ण हरे-हरे, ओम नमः शिवाय, ओम भगवते वासुदेवाय नमः, राधे-राधे श्याम मिलादे, गायत्री मन्त्र तथा विष्णु सहंस्रनाम) क्या गीता जी में एकादशी का व्रत करने तथा श्राद्ध कर्म करने, पिण्डोदक क्रिया करने का आदेश है?
उत्तर:- (धर्मदास जी का) नहीं है।
प्रश्न 33:- (परमेश्वर जी का) फिर आप जी तो उस किसान के पुत्र वाला ही कार्य कर रहे हो जो पिता की आज्ञा की अवहेलना करके मनमानी विधि से गलत बीज गलत समय पर फसल बीजकर मूर्खता का प्रमाण दे रहा है। जिसे आपने मूर्ख कहा है। क्या आप जी उस किसान के मूर्ख पुत्र से कम हैं? धर्मदास जी बोले: हे जिन्दा! आप मुसलमान फकीर हैं। इसलिए हमारे हिन्दू धर्म की भक्ति क्रिया व मन्त्रों को गलत कह रहे हो।
उत्तर: (कबीर जी का जिन्दा रुप में) हे स्वामी धर्मदास जी! मैं कुछ नहीं कह रहा, आपके धर्मग्रन्थ कह रहे हैं कि आप के धर्म के धर्मगुरु आप जी को शास्त्राविधि त्यागकर मनमाना आचरण करा रहे हैं जो आपकी गीता के अध्याय 16 श्लोक 23-24 में भी कहा है कि हे अर्जुन! जो साधक शास्त्रा विधि को त्यागकर मनमाना आचरण करता है अर्थात् मनमाने मन्त्र जाप करता है, मनमाने श्राद्ध कर्म व पिण्डोदक कर्म व व्रत आदि करता है, उसको न तो कोई सिद्धि प्राप्त हो सकती, न सुख ही प्राप्त होगा और न गति अर्थात् मुक्ति मिलेगी, इसलिए व्यर्थ है। गीता अध्याय 16 श्लोक 24 में कहा है कि इससे तेरे लिए कत्र्तव्य अर्थात् जो भक्ति कर्म करने चाहिए तथा अकत्र्तव्य (जो भक्ति कर्म न करने चाहिए) की व्यवस्था में शास्त्रा ही प्रमाण हंै। उन शास्त्रों में बताए भक्ति कर्म को करने से ही लाभ होगा।
धर्मदास जी: हे जिन्दा! तू अपनी जुबान बन्द करले, मुझसे और नहीं सुना जाता। जिन्दा रुप में प्रकट परमेश्वर ने कहा, हे वैष्णव महात्मा धर्मदास जी! सत्य इतनी कड़वी होती है जितना नीम, परन्तु रोगी को कड़वी औषधि न चाहते हुए भी सेवन करनी चाहिए। उसी में उसका हित है। यदि आप नाराज होते हो तो मैं चला। इतना कहकर परमात्मा (जिन्दा रुप धारी) अन्तध्र्यान हो गए। धर्मदास को बहुत आश्चर्य हुआ तथा सोचने लगा कि यह कोई सामान्य सन्त नहीं था। यह पूर्ण विद्वान सिद्ध पुरूष लगता है। मुसलमान होकर हिन्दू शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान है। यह कोई देव हो सकता है। धर्मदास जी अन्दर से मान रहे थे कि मैं गीता शास्त्रा के विरुद्ध साधना कर रहा हूँ। परन्तु अभिमानवश स्वीकार नहीं कर रहे थे। जब परमात्मा अन्तध्र्यान हो गए तो पूर्ण रुप से टूट गए कि मेरी भक्ति गीता के विरुद्ध है। मैं भगवान की आज्ञा की अवहेलना कर रहा हूँ। मेरे गुरु श्री रुपदास जी को भी वास्तविक भक्ति विधि का ज्ञान नहीं है। अब तो इस भक्ति को करना, न करना बराबर है, व्यर्थ है। बहुत दुःखी मन से इधर-उधर देखने लगा तथा अन्दर से हृदय से पुकार करने लगा कि मैं कैसा नासमझ हूँ। सर्व सत्य देखकर भी एक परमात्मा तुल्य महात्मा को अपनी नासमझी तथा हठ के कारण खो दिया। हे परमात्मा! एंक बार वही सन्त फिर से मिले तो मैं अपना हठ छोड़कर नम्र भाव से सर्वज्ञान समझूँगा। दिन में कई बार हृदय से पुकार करके रात्रि में सो गया। सारी रात्रि करवट लेता रहा। सोचता रहा हे परमात्मा! यह क्या हुआ। सर्व साधना शास्त्राविरुद्ध कर रहा हूँ। उस फरिश्ते ने मेरी आँखें खोल दी। मेरी आयु 60 वर्ष हो चुकी है। अब पता नहीं वह देव (जिन्दा रुपी) पुनः मिलेगा कि नहीं। प्रातः काल वक्त से उठा। पहले खाना बनाने लगा। उस दिन भक्ति की कोई क्रिया नहीं की। पहले दिन जंगल से कुछ लकड़ियाँ तोड़कर रखी थी। उनको चूल्हे में जलाकर भोजन बनाने लगा। एक लकड़ी मोटी थी। वह बीचो-बीच थोथी थी। उसमें अनेकांे चीटियाँ थीं। जब वह लकड़ी जलते-जलते छोटी रह गई तब उसका पिछला हिस्सा धर्मदास जी को दिखाई दिया तो देखा उस लकड़ी के अन्तिम भाग में कुछ तरल पानी-सा जल रहा है। चीटियाँ निकलने की कोशिश कर रही थी, वे उस तरल पदार्थ में गिरकर जलकर मर रही थी। कुछ अगले हिस्से में अग्नि से जलकर मर रही थी। धर्मदास जी ने विचार किया। यह लकड़ी बहुत जल चुकी है, इसमें अनेकों चीटियाँ जलकर भष्म हो गई है। उसी समय अग्नि बुझा दी। विचार करने लगा कि इस पापयुक्त भोजन को मैं नहीं खाऊँगा। किसी साधु सन्त को खिलाकर मैं उपवास रखूँगा। इससे मेरे पाप कम हो जाएंगे। यह विचार करके सर्व भोजन एक थाल में रखकर साधु की खोज में चल पड़ा। परमेश्वर कबीर जी ने अन्य वेशभूषा बनाई जो हिन्दू सन्त की होती है। एक वृक्ष के नीचे बैठ गए। धर्मदास जी ने साधु को देखा। उनके सामने भोजन का थाल रखकर कहा कि हे महात्मा जी! भोजन खाओ। साधु रुप में परमात्मा ने कहा कि लाओ धर्मदास! भूख लगी है। अपने नाम से सम्बोधन सुनकर धर्मदास को आश्चर्य तो हुआ परंतु अधिक ध्यान नहीं दिया। साधु रुप में विराजमान परमात्मा ने अपने लोटे से कुछ जल हाथ में लिया तथा कुछ वाणी अपने मुख से उच्चारण करके भोजन पर जल छिड़क दिया। सर्वभोजन की चींटियाँ बन गई। चींटियों से थाली काली हो गई। चींटियाँ अपने अण्डों को मुख में लेकर थाली से बाहर निकलने की कोशिश करने लगी। परमात्मा भी उसी जिन्दा महात्मा के रुप में हो गए। तब कहा कि हे धर्मदास वैष्णव संत! आप बता रहे थे कि हम कोई जीव हिंसा नहीं करते, आपसे तो कसाई भी कम हिंसक है। आपने तो करोड़ों जीवों की हिंसा कर दी। धर्मदास जी उसी समय साधु के चरणों में गिर गया तथा पूर्व दिन हुई गलती की क्षमा माँगी तथा प्रार्थना कि की हे प्रभु! मुझ अज्ञानी को क्षमा करो। मैं कहीं का नहीं रहा क्योंकि पहले वाली साधना पूर्ण रुप से शास्त्रा विरुद्ध है। उसे करने का कोई लाभ नहीं, यह आप जी ने गीता से ही प्रमाणित कर दिया। शास्त्रा अनुकूल साधना किस से मिले, यह आप ही बता सकते हैं। मैं आप से पूर्ण आध्यात्मिक ज्ञान सुनने का इच्छुक हूँ। कृपया मुझ किंकर पर दया करके मुझे वह ज्ञान सुनाएंे जिससे मेरा मोक्ष हो सके।