पांडवों द्वारा की गई यज्ञ
महाभारत ग्रन्थ में एक प्रकरण आता है कि कुरूक्षेत्र के मैदान में युद्ध हुआ, करोड़ों सैनिक मारे गए, करोड़ों बहनें विधवा हो गई, करोड़ों बच्चे अनाथ हो गए। पाण्डव युद्ध जीत गए। कौरवों का सर्वनाश हो गया। दिल्ली (इन्द्रप्रस्थ) की गद्दी पर श्री युधिष्ठर को बैठाकर श्री कृष्ण जी “द्वारका” चले गये। युधिष्ठर राजा को भयंकर स्वपन आने लगे जिसमें सिर कटे व्यक्ति उनके महल में प्रवेश करते दिखाई लेने लगे। करोड़ों बच्चे पिता जी! - पिता जी! कहकर चिल्लाते दिखाई देने लगे, करोड़ों सैनिकों की विधवाऐं हाय कन्त! - हाय कन्त! कह-कहकर बिलखती-तड़फती अपने सिर के बालों को नौंचती दिखाई देने लगी। उनकी वह तड़फ मानो कह रही हो कि महलों के सुख को भोगने के लिए हमारे सुहाग उजाड़ने वाले इन बच्चों सहित हमें भी मार डाल, तेरा ऐश्वर्य पूर्ण हो जाएगा। कितने दिन रहोगे इस राज सिंहासन पर? एक दिन सुबह के समय राजा युधिष्ठर स्नान करने के लिए गंगा तट पर गया, वहाँ पर कई हजारों की सँख्या में महिलाएं भी अपने सुहाग की चूड़ियाँ जो विधवा होने पर तोड़ी जाती हैं, उनको जल प्रवाह करने उस घाट पर गई हुई थी, रो रही थी, सुबक रही थी, कुछ चक्कर खा कर गिर रही थी, उसके बेटे-बेटियाँ उस विधवा माँ के ऊपर गिरकर रो रहे थे। कुछेक को दो-दो महिलाएंे जो वृद्ध थी, हाथ का सहारा देकर चल रही थी तथा सब रो रही थी। यह विकराल दृश्य देखकर राजा युधिष्ठर बिना स्नान किए ही वापिस लौट गए। सारा दिन वही दृश्य आँखों के सामने घूमने लगा। कुछ नहीं खाया-पीया, रात्रि में सोने लगा तो वही दृश्य आँखों के सामने था। जैसे-तैसे सोया तो वही स्वपन आने लगे जो पहले दो-तीन दिन से दिख रहे थे। राजा युधिष्ठर न सो पा रहा था, न रो पा रहा था, न कुछ खा रहा था, केवल नाम-मात्र आहार करता था। आँखें फटी-फटी-सी, चेहरा डरा-डरा-सा रहता था। द्रोपदी कई दिन से यह दशा अपने बड़े पति की देख रही थी। कई बार कारण भी पूछा। परन्तु उत्तर होता था कुछ नहीं - कुछ नहीं। जब द्रोपदी को संतोषजनक उत्तर नहीं मिला और युधिष्ठर जी की दशा दिन-प्रतिदिन बिगड़ती देखकर उसे अन्य पाण्डवों को बताना पड़ा। चारों पाण्डव (भीम, अर्जुन, नकुल तथा सहदेव) युधिष्ठर जी के पास गए तथा विनम्रतापूर्वक परेशानी का कारण पूछा। युधिष्ठर ने उस समय भी कहा कुछ नहीं। जब बड़ा भाई जीवित है तो छोटों को टेंशन (चिन्ता) नहीं करनी चाहिए। लेकिन अर्जुन ने कहा कि बड़े भाई क्या हम बच्चे हैं? क्या हम अपने भाई के दुख के भागीदार नहीं बन सकते? क्या आप हमें अपना भाई नहीं मानते? युधिष्ठर की आँखों से आँसू झलक गए और चारों को बाँहों में लेकर सीने व गले से लगाकर फिर उनके मुख पर हाथ रखकर कहने लगा कि ऐसा मत कहो, आप मेरे भाई ही नहीं मेरी जिन्दगी हो और पिता जी की धरोहर हो, परन्तु ऐसी कोई बात नहीं है जो आप से छुपाऊँ। सहदेव ने आँखों में पानी भरकर कहा कि बड़े भईया! लगता है राजा बनकर आप बेईमान-धोखेबाज बन गए हो। हमसे अवश्य कुछ हेराफेरी-बेईमानी कर रहे हो, सच-सच बता दो हम चारों की कसम। नहीं तो हम भी खाना-पीना त्याग देंगे। युधिष्ठर को उस छोटे भाई के प्यार भरे उलाहनों ने विवश कर दिया उनके सामने अपना दुःख व्यक्त करने के लिए। तब जो-जो स्वपन तथा गंगा दरिया तट पर दृश्य देखे थे, सब बताए। पाण्डवों के गुरू श्री कृष्ण जी थे। (प्रमाण गीता अध्याय 2 श्लोक 7 तथा गीता अध्याय 4 श्लोक 3 में)
इसलिए पाँचों पाण्डव द्वारका पहूँचे तथा युधिष्ठर जी की परेशानी से श्री कृष्ण जी को परिचित कराया तथा इस संकट के आने का कारण तथा निदान (समाधान) पूछा। श्री कृष्ण जी ने देख-सोचकर बताया कि युधिष्ठर के ऊपर बुरी आत्माओं का साया है तथा युद्ध में किए बन्धुघात का पाप सिर चढ़ा है।
समाधान:- श्री कृष्ण जी ने बताया कि एक अश्वमेध यज्ञ करो। पूरी पृथ्वी के साधु-सन्त, ऋषि-महर्षि, ब्राह्मण, अपने रिश्तेदार तथा स्वर्ग लोक के सर्व देवताओं को उस यज्ञ में भण्डारा भोजन कराओ। एक पंचायण (पंचानन्) अर्थात् पंचमुखी शंख लाओ। उसको एक सुसज्जित मेज पर रखा जाएगा। जब सर्व उपस्थित मेहमान भोजन कर लेंगे, तब यह शंख अपने आप आवाज करेगा। तब तुम्हारे ये तीन ताप का संकट समाप्त होगा। यदि शंख ने आवाज नहीं की तो यज्ञ सम्पूर्ण नहीं होगी, संकट बना रहेगा। यह सुनकर अर्जुन को मानो साँप सूंघ गया हो। उसका दिमाग फटने को हो गया। सोचने लगा कि जब युद्ध की तैयारी थी, मैं युद्ध से मना कर रहा था। तब भगवान युद्ध करने को बार-बार प्रेरित कर रहे थे। कहा था कि तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा, तू तो निमित मात्र है। तेरे दोनों हाथों में लडडू हैं। अब कह रहे हैं कि युद्ध में किए नरसंहार का पाप ही तुम्हारे संकट का कारण है। समाधान भी ऐसा बताया कि उस समय के करोड़ों रूपये (वर्तमान के खरबों रूपये) खर्च होने हैं। यह विचार करके अर्जुन विष की घूंट पी गया कि यदि मैं आज श्री कृष्ण जी से प्रश्न करके पूछुँगा कि गीता ज्ञान देते समय आप कह रहे थे कि युद्ध करो, तुम पाप को प्राप्त नहीं होगे। अब वही युद्ध में किया पाप ही संकट का कारण बताया है। भाई युधिष्ठर यह सोचेगा कि खरबों रूपये मेरे इलाज पर खर्च होने हैं अर्जुन इसीलिए श्री कृष्ण जी से वाद-विवाद कर रहा है, यह मेरा इलाज नहीं कराना चाहता। जरा-सी भी भनक युधिष्ठर भाई को लग गई तो यह मर सकता है, इलाज नहीं कराएगा। यह विचार करके अर्जुन ने यज्ञ की तिथि तथा स्थान पूछकर यज्ञ की तैयारी की। उस यज्ञ में तेतीस (33) करोड़ देवता, 88 हजार ऋषि, 12 करोड़ ब्राह्मण, 56 करोड़ यादव, (अर्जुन की ससुराल वाले द्वारका से) नौ नाथ, 84 सिद्ध महात्मा, अन्य अनेकों सामान्य जनता जन आए तथा श्री कृष्ण सहित सबने भोजन खाया। परन्तु शंख ने आवाज नहीं की। फिर सन्त सुदर्शन (सुपच) जी को बुलाया गया, तब वह शंख बजा, यज्ञ सम्पूर्ण हुई। उस समय करूणामय नाम से प्रकट परमात्मा जो तत्वदर्शी सन्त की लीला करने प्रत्येक युग में आते हैं, आए हुए थे। सुदर्शन उनका शिष्य था तथा सत्यनाम (सतनाम, जो दो अक्षर का है, एक ऊँ दूसरा तत्) की भक्ति करता था। जिस कारण से पाण्डवों की यज्ञ सफल हुई थी तथा वह तीन ताप से आया संकट पाण्डवों का समाप्त हुआ था जो न श्री कृष्ण जी के भोजन करने से तथा न उपरोक्त महानुभावों के भोजन करने से समाप्त हुआ। श्री सुदर्शन जी उस परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् पूर्ण परमात्मा की भक्ति करता था। सूक्ष्म वेद में कहा हैः-
तुम कौन राम का जपते जापम्। तातें कटें ना तुम्हरें तीनों तापम्।।
भावार्थ:- आप कौन से राम की भक्ति का नाम जपते हैं, जिससे आप के तीन ताप भी समाप्त नहीं होते, मोक्ष तो बहुत दूर की बात है। इसलिए मेरे (सन्त रामपाल के) पास वह सत्य साधना है, दो अक्षर का सत्यनाम है। आओ और दीक्षा लेकर अपना कल्याण कराओ।
अब उसी प्रसंग पर आते हैं कि गीता में दो तरह का ज्ञान है अर्थात् विरोधाभास है। एक तो गीता ज्ञान दाता ने युद्ध कराने के लिए अपने दाॅव-पेंच लड़ाए हैं, वे वेद विरूद्ध होने से तथा सत्य से परे होने से स्वीकार्य नहीं है, वह इसका मत है। इसलिए गीता अध्याय 12 श्लोक 5 में कहा है कि उस सच्चिदानन्द घन ब्रह्म की भक्ति क्लेश व दुःखपूर्वक प्राप्त होती है। जबकि वेद में लिखा है कि तत्वदर्शी सन्त मिलने के पश्चात् उस परमात्मा (पूर्णब्रह्म) की भक्ति कार्य करते-करते नाम जाप साधना करके की जाती है, बहुत ही सरल है। इससे सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञान दाता ने जो अपना मत बताया है, यदि वह वेदों (चार वेद हैंः- 1. ऋग्वेद, 2. यजुर्वेद, 3. सामवेद, 4. अथर्ववेद तथा पाँचवा है सूक्ष्म वेद।) से मेल नहीं खाता है तो वह व्यर्थ ज्ञान है। वह गीता ज्ञान दाता के घर का है, वह हमें ग्रहण नहीं करना है, वह हमें नहीं मानना है।
अन्य प्रमाण:- गीता अध्याय 12 श्लोक 8 से 19 तक में अपना मत बताया है। गीता अध्याय 12 श्लोक 8 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि मुझमें मन लगा, मेरे में बुद्धि लगा, मुझे प्राप्त होगा। इसी प्रकार (ऊध्र्वम्) ऊपर वाले अव्यक्त की भक्ति करेगा तो उसे प्राप्त होगा, इसमें कोई संशय नहीं है। (गीता अध्याय 12 श्लोक 8)
गीता अध्याय 12 श्लोक 9 में गीता ज्ञान दाता कहता है कि यदि मेरी प्राप्ति चाहता है और यदि तू मन को मुझमें लगाने में समर्थ नहीं है तो हे धनंजय! “अर्जुन!‘‘ अभ्यास योग अर्थात् नाम-जाप तथा नित्य पाठ करना आदि-आदि अभ्यास साधना कहलाती है, को करके मुझे प्राप्त करने की इच्छा कर।
गीता अध्याय 12 श्लोक 10 में गीता ज्ञान दाता कहता है कि यदि नाम-जाप नित्य पाठ आदि-आदि अभ्यास करने में भी समर्थ नहीं है तो (मत् कर्म परमः) मेरे लिए श्रेष्ठ कर्म करने वाला हो जा। इस प्रकार मेरे लिए शुभ कर्म करता हुआ भी सिद्धि को प्राप्त कर लेगा।
गीता अध्याय 12 श्लोक 11 में गीता ज्ञान दाता कहता है कि यदि (मद्योगम = मत् योगम्) मेरे द्वारा बताई गई भक्ति साधना पर आश्रित होकर उपरोक्त साधना करने में भी तू समर्थ नहीं है तो (यतात्मवान् = यत आत्मवान्) यति आत्मा वाला हो जा। “यति‘‘ का अर्थ है अपनी पत्नी के अतिरिक्त किसी भी स्त्राी के प्रति विषय विकारवश होकर मन में कभी द्वेष उत्पन्न न होता हो, उसे यति पुरूष कहते हैं। जैसे श्री रामचन्द्र जी को यति अर्थात् सन्त भाषा में “जति” कहा जाता है। श्री सुखदेव = शुकदेव पुत्र श्री ब्यास को भी यति = जति माना गया है तथा सीता पत्नी श्री रामचन्द्र को “सती” माना गया है। इसलिए कहा है कि यतात्मवान् अर्थात् यति पुरूष बनकर सर्व कर्मों के फल का त्याग कर। (गीता अध्याय 12 श्लोक 11)
गीता अध्याय 12 श्लोक 12 में गीता ज्ञान दाता कहता है कि (अभ्यासात्) नाम जाप, नित्य पढ़ आदि-आदि जो अभ्यास किया जाता है, उससे श्रेष्ठ ज्ञान है अर्थात् जिज्ञासु बनकर ज्ञान प्राप्त कर। ज्ञान से ध्यान अर्थात् हठ साधना करके समाधि लगाना यहाँ गीता ज्ञान दाता के मतानुसार ध्यान कहा है। जिसका अनुसरण सर्व ऋषिजन किया करते थे। जिसे वर्तमान में डमकपजंजपवद (मैडिटेशन) कहते हैं। ध्यान से श्रेष्ठ सर्व कर्मों का फल का त्याग है क्योंकि त्याग से तत्काल शान्ति प्राप्त हो जाती है। (यह गीता ज्ञान दाता का मत है।)
गीता अध्याय 12 श्लोक 13 .14 में गीता ज्ञान दाता कहता है कि जो व्यक्ति सब प्राणियों से द्वेष भाव रहित है। सब का मित्र है और दयालु है। जैसे राजा जनक था। ममता रहित अहंकार से रहित सुख-दुःख में समान रहता है, क्षमावान् है, जो (योगी) साधक निरन्तर संतुष्ट है। (यतात्मा) यति पुरूष हैं, दृढ़ निश्चय वाला है अर्थात् जो मैंने ज्ञान अपना मत या वेद ज्ञान बताया है, उसको दृढ़ निश्चय से पालन करता है। वह मुझ पर समर्पित मेरा भक्त मुझे प्रिय है।
इसी प्रकार गीता अध्याय 12 श्लोक 15 से 19 तक में अपना मत कहा है जो केवल नास्तिकता की ओर ले जाने वाला है। जैसे ऊपर किए गए उल्लेख में (गीता अध्याय 12 श्लोक 8 से 12 तक) कहा है किः-
मुझ में मन लगा, यदि मन नहीं लगा सकता तो नाम, जाप तथा नित्य पाठ आदि का अभ्यास किया कर। अभ्यास का अर्थ है नित्य प्राप्ति बार-बार कर्म करना। नाम-जाप, नित्य पाठ करके मुझे प्राप्त करने की इच्छा कर। यदि नाम जाप, नित्य पाठ भी नहीं कर सकता तो मेरे लिए अर्थात् परमात्मा के लिए कर्म करने वाला हो जा। उदाहरण के लिए जैसे धार्मिक कर्म करते हैं। कहीं कम्बल बाँट दिए, कहीं भोजन भण्डारा कर दिया, कहीं मन्दिर बना दिया, कहीं प्याऊ बनवा दी, पक्षियों को अनाज डाल दिया आदि-आदि भगवान के प्राप्ति किए कर्म कहलाते हैं। इनके करने से कुछ सिद्धी प्राप्त हो जाएगी। प्रिय पाठको! ध्यान से विचारो, इस श्लोक में इन कर्मों से होने वाला फल भी बता दिया है कि “सिद्धी” प्राप्त हो जाती है। फिर साधक स्वयं झाड़-फूंक, जन्त्र-मन्त्र, आशीर्वाद तथा दुआ-बद्दुआ देने योग्य हो जाता है और महर्षि प्रसिद्ध हो जाता है। (गीता अध्याय 12 श्लोक 10)
यदि भगवान के लिए कर्म भी नहीं कर सकता है तो यति (जति) पुरूष बनकर कर्म फल का त्याग कर।
विचार करें:- जब भगवान के लिए धार्मिक कर्म करेगा ही नहीं तो कौन से कर्म शेष हैं जिनके फल का त्याग करेगा। इसे कहते हैं ऊवा-बाई का ज्ञान, बिना सिर-पैर का ज्ञान। (गीता अध्याय 12 श्लोक 11) फिर गीता अध्याय 12 श्लोक 12 में तो कमाल ही कर दिया। कहा है कि अभ्यास अर्थात् नाम जाप नित्य पाठ रूपी अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है जो गीता ज्ञान दाता अपना मत बता रहा है, यहाँ पर इस ज्ञान की चर्चा है। ज्ञान से ध्यान ;डमकपजंजपवदद्ध अर्थात् हठपूर्वक एक स्थान पर एकान्त में आसन (गीता अध्याय 6 श्लोक 10 से 15 में बताई विधि जो गीता ज्ञान दाता का मत है) पर बैठकर करना श्रेष्ठ है। ध्यान से सब धार्मिक कर्मों का फल त्यागने से तुरन्त शान्ति मिल जाती है। गीता अध्याय 12 श्लोक 11 में सब धार्मिकता वाले कर्म भी त्यागने का आदेश है। इस प्रकार का यह ज्ञान जो साधकों को नास्तिकता की ओर धकेल रहा है। यह गीता ज्ञान दाता का शास्त्राविरूद्ध ज्ञान है, जिस कारण से साधक शास्त्राविधि को त्याग कर मनमाना आचरण करने लग गए और अपना अनमोल मनुष्य जीवन व्यर्थ करते हैं। यदि ये ज्ञान उचित होता कि भगवान में मन न लगे तो अभ्यास (नाम जाप, नित्य पाठ) कर, अभ्यास न कर सके तो भगवान के लिए कर्म कर, भगवान के लिए कर्म न कर सके तो सर्व कर्मों का फल त्याग दें तो चार वेदों की तथा श्री मद्भगवत गीता के अन्य 650 श्लोकों की (क्योंकि लगभग 50 श्लोकों में गीता ज्ञान दाता मत वाला ज्ञान है) क्या आवश्यकता थी। यही 4.5 श्लोक पर्याप्त थे। इस प्रकार गीता ज्ञान दाता ने जो अपना मत बताया है, जो वेदों के विरूद्ध है, वह स्वीकार करने योग्य नहीं है। गीता अध्याय 12 श्लोक 20 में अपने अज्ञान को छुपाने के लिए फिर कहा है कि परन्तु जो (श्रद्यानाः) साधक श्रद्धा के साथ (मत्परमाः = मत् परमाः) मेरे से श्रेष्ठ परमेश्वर को (पर्युवासते) पूजते हैं, वे मुझे अधिक प्रिय हैं।
जैसा कि प्रारम्भ में वर्णन है कि गीता अध्याय 5 श्लोक 14 से 16, 20, 24, 25, 26 में भी प्रमाण है कि गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य प्रभु के विषय में बताया है। गीता अध्याय 5 श्लोक 14 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि (प्रभु) परमात्मा किसी मनुष्य के न तो कर्तापन की, न कर्मक, न कर्मफल संयोग की उत्पत्ति करता है, किन्तु सर्व प्राणी अपने स्वभाववश कर्म करते हैं।
गीता अध्याय 5 श्लोक 15:- (विभुः) सर्वव्यापी अर्थात् वासुदेव जिसका गीता अध्याय 3 श्लोक 14.15 में वर्णन है। कहा है कि सर्व प्राणियों की उत्पत्ति अन्न से होती है, अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है, वर्षा धार्मिक अनुष्ठानों अर्थात् यज्ञों से होती है। यज्ञ शास्त्रानुकूल धार्मिक कर्मों से उत्पन्न होते हैं। धार्मिक कर्म तो ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरूष से उत्पन्न होते हैं। ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरूष को (अक्षरः सम् उद्ध भवम्) अविनाशी परमात्मा अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म से उत्पन्न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि (सर्वगतम् ब्रह्म) सर्वव्यापी परमात्मा अर्थात् “विभुः” सर्वव्यापी परमेश्वर न किसी के पाप और न शुभ कर्म को ही ग्रहण करता है। उसी से सर्व (जन्तवः) जीव-जन्तु तथा मनुष्य मोहित हो रहे हैं।
गीता अध्याय 5 श्लोक 16 तथा 17 को पढ़ने से स्पष्ट हो जाएगा कि गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य परमेश्वर के विषय में बताया है। इसी प्रकार गीता अध्याय 5 श्लोक 20ए 24ए 25ए 26 को गीता में अन्य अनुवादकों द्वारा किए सरलार्थ से समझा जा सकता है।
इसी प्रकार गीता अध्याय 6 श्लोक 7 में स्पष्ट “परमात्मा” शब्द मूल पाठ में लिखा है जो गीता ज्ञान दाता से अन्य “परमात्मा” का प्रमाण है क्योंकि गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा है कि श्लोक 16 में वर्णित दो पुरूषों, क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष से अन्य कोई उत्तम पुरूष अर्थात् पुरूषोत्तम है जिसे (परमात्मा इति उदाहृत) परमात्मा कहा जाता है। वही तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है, वह अविनाशी परमात्मा है। इसमें (गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में) भी “परमात्मा” शब्द है। इस प्रकार गीता के अमृत ज्ञान को समझना है, केवल गीता जी के पढ़ने मात्र से कल्याण नहीं है, इस के अमृत ज्ञान को समझकर इसके अनुसार अपनी धार्मिक क्रियाएं करने से तीनों लाभ हैं जो गीता अध्याय 16 श्लोक 23 में सुख प्राप्ति, सिद्धि-शक्ति प्राप्ति तथा परम गति अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्ति के लिए बताए हैं।
अब पुनः उसी प्रसंग पर चर्चा करते हैं जो प्रश्नकर्ता ने जानना चाहा है कि “गीता ज्ञान दाता से अन्य पूर्ण परमात्मा कौन है तथा उसने अपने से अन्य किस परमेश्वर की शरण में जाने को कहा है?
उत्तर चल रहा है। यह तो स्पष्ट ही हो चुका है कि गीता ज्ञान दाता से अन्य “परम अक्षर ब्रह्म” है। गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में उस परमेश्वर (परम अक्षर पुरूष) की शरण में जाने के लिए कहा है। गीता अध्याय 18 श्लोक 66, गीता अध्याय 8 श्लोक 28ए गीता अध्याय 12 श्लोक 6 से 7 में कहा है कि पूर्ण परमात्मा को प्राप्त करने के लिए मेरी भक्ति भी की जाती है, जैसे गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में ’’ओम् (ऊँ) तत् सत्’’ तीन नाम का जाप परम अक्षर ब्रह्म की प्राप्ति के लिए है। गीता अध्याय 8 श्लोक 13 में गीता ज्ञान दाता ने अपनी साधना करने का केवल एक ’’ओम्’’ (ऊँ) नाम बताया है। पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति के लिए ’’ऊँ’’ नाम का जाप भी साधक करता है। इसलिए गीता अध्याय 8 श्लोक 28 में कहा है:- योगी अर्थात् भक्त तत्वज्ञान के द्वारा इस रहस्य को जानकर जो वेदों के अनुसार भक्ति करने से, उसी के अनुसार यज्ञ अर्थात् धार्मिक अनुष्ठान करने से, तप अर्थात् अपने धर्म पर दृढ़ता से लगे रहने से जो शारीरिक, मानसिक कठिनाई झेलनी पड़ती है, उस तप से तथा दान करने से जो पुण्य फल होता है अर्थात् धार्मिक कर्म से भक्ति फल होता है, उसका (अत्येति) उल्लंघन कर जाता है अर्थात् त्याग जाता है, वह (आद्य) सनातन (परम्) अन्य = दूसरे (स्थानम्) धाम को प्राप्त होता है।
गीता अध्याय 12 श्लोक 7 से 8 में कहा है कि:- जो (मत्पराः = मत् पराः) मेरे से दूसरे परमात्मा की भक्ति करने वाले सर्वभक्तजन मेरी भक्ति के सर्व भक्ति कर्म मुझको अर्पण करके मुझमें त्याग जाते हैं। जो अनन्य भक्ति उस मेरे से परे अर्थात् दूसरे को भजते हैं।
गीता अध्याय 12 श्लोक 7 में वर्णन है कि हे अर्जुन! मुझमें चित लगाने वाले, मुझे जानने वाले (आवेशित) आवेश के साथ (चेतासाम्) मुझे चेत चुके हैं, मुझे जान चुके हैं। उन भक्तों का मैं शीघ्र ही संसार समुद्र से (सम् उद्धर्ता = समुद्धर्ता) उसी प्रकार उद्धार कर देता हूँ। गीता अध्याय 18 श्लोक 66 में कहा है कि:-
सर्वधर्मान् परित्यज्य माम, एकम शरणम् व्रज।
अहम् त्वा सर्व पापेभ्यः मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।
अन्य अनुवादकर्ताओं ने जो अनुवाद इस गीता अध्याय 18 श्लोक 66 का किया है, वह इस प्रकार है जो गलत है:- सम्पूर्ण धर्मों को अर्थात् सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें त्यागकर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान सर्वाधार परमेश्वर की शरण में (व्रज) आजा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, शोक मत कर।
विवेचन:- जो अनुवाद किया है कि सम्पूर्ण धर्मों को अर्थात् कर्तव्य कर्मों को मुझमें त्यागकर केवल तू एक मुझ सर्व शक्तिमान सर्वाधार परमेश्वर की शरण में आजा, यह गलत है।
विचार करें:- गीता अध्याय 18 श्लोक 46ए62ए अध्याय 15 श्लोक 1-4 तथा 17 में सर्व शक्तिमान सर्वाधार परमात्मा तो कोई अन्य कहा है, जिसे गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में परम अक्षर ब्रह्म कहा है। यहाँ गीता अध्याय 18 श्लोक 66 में अनुवादक ने अपनी ओर से महिमा जोड़ी है जो व्यर्थ है। फिर कहा है कि सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें त्यागकर मेरी शरण में आजा। यह भी न्याय संगत बात नहीं है। यदि कोई कहे कि सर्व कर्म मुझमें छोड़ और मेरी शरण में आजा। इससे भी स्पष्ट है कि सर्व धार्मिक कर्मों की भक्ति कमाई को मुझ में छोड़कर अन्य की शरण मंे जा। वैसे भी “व्रज” का अर्थ जाना है, आना नहीं किया जा सकता। जैसे अग्रेंजी के शब्द “ळव” का अर्थ जाना है, उसका अर्थ आना नहीं किया जाना चाहिए। फिर अन्य प्रमाण गीता अध्याय 2 श्लोक 7 में अर्जुन ने कहा है कि मैं आप का शिष्य हूँ, आप की शरण में हूँ, मुझे उचित शिक्षा दीजिए। फिर गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 4 श्लोक 3 में कहा है कि तू मेरा भक्त तथा सखा है। यहाँ गीता अध्याय 18 श्लोक 66 में यह अनुवाद करना कि मेरी शरण में आजा, बिल्कुल अनुचित है क्योंकि अर्जुन तो पहते ही श्री कृष्ण की शरण था, ऊपर सिद्ध हो चुका है। तत्वज्ञान न होने के कारण अनुवादकों ने अर्थों के अनर्थ कर रखे हैं। गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि उस परमेश्वर की शरण में जा, उस परमेश्वर की कृपा से ही तू परम शान्ति को तथा सनातन परम धाम को प्राप्त होगा। गीता अध्याय 18 श्लोक 46 में कहा कि “जिस परमेश्वर से सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत व्याप्त है, उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्म करते-करते पूजा करके मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है। गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में स्पष्ट किया है कि श्लोक 16 में कहे दो पुरूषों (क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष) से उत्तम पुरूष तो कोई अन्य ही है जिसे परमात्मा कहा जाता है। वही तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है। वह वास्तव में अविनाशी परमेश्वर है। गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि तत्वदर्शी सन्त की प्राप्ति के पश्चात् परमेश्वर के उस परमपद की खोज करनी चाहिए, जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर संसार में नहीं आते। जिस परमेश्वर से संसार रूपी वृक्ष की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई है, उसी की भक्ति करो।
गीता ज्ञान दाता ने अपनी स्थिति गीता अध्याय 2 श्लोक 12, अध्याय 4 श्लोक 5, अध्याय 10 श्लोक 2 में स्पष्ट कर ही दी है कि अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं, आगे भी होते रहेंगें, तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। जिस प्रभु की स्वयं जन्म-मृत्यु होती है तो वह भी अविनाशी नहीं हुआ, उसका उपासक भी जन्मता-मरता रहेगा, ब्रह्म का साधक वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता जो गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि जहाँ जाने के पश्चात् पुनः जन्म नहीं होता। गीता अध्याय 18 श्लोक 66 का वास्तविक अनुवाद इस प्रकार है।
अनुवादः- (“सर्व धर्मान्”) सम्पूर्ण धार्मिक कर्म जो मेरी उपासना के हैं, उनकी भक्ति कमाई है। उन्हें (माम्) मुझको (परित्यज्य) त्यागकर तू (एकम्) उस एक जिसके समान दूसरा नहीं है, अद्वितीय सर्व शक्तिमान परमेश्वर अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म की (शरणम्) शरण में (व्रज) जा। (अहम् त्वा) मैं तुझे (सर्व पापेभ्यः) सम्पूर्ण पापों से (मोक्षयिष्यामि) मुक्त कर दूँगा, (मा शुचः) शोक मत कर। गीता अध्याय 18 श्लोक 66 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि जो मन्त्र मेरी उपासना के हैं, उनकी भक्ति की कमाई मुझको त्यागकर तू केवल उस एक अर्थात् जिसके समान कोई अन्य शक्ति न हो, अद्वितीय सर्व शक्तिमान परमेश्वर अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म की शरण में जा, मैं तुझे सर्व पापों से मुक्त कर दूँगा, शोक मत कर। (गीता अध्याय 18 श्लोक 66)
विश्लेषण:- गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में गीता ज्ञान दाता ने संकेत किया है कि उस (ब्राह्मणः) सच्चिदानन्द घन ब्रह्म अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म की प्राप्ति का ’’ऊँ तत् सत्’’ यह तीन मन्त्र का जाप है। इसी का जाप करने का निर्देश है।
फिर गीता अध्याय 8 श्लोक 13 में अपनी उपासना का मन्त्र बताया है किः- मुझ ब्रह्म की भक्ति का केवल एक ’’ओम्’’ (ऊँ) अक्षर है, जो इसका उच्चारण करता हुआ शरीर त्यागकर जाता है तो उसको मेरी परम गति (मोक्ष) प्राप्त होती है। ’’ऊँ’’ का जाप ब्रह्म का जाप है, इससे ब्रह्मलोक प्राप्त होता है, यही परम गति ऊँ के जाप से होती है जिसे गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में अति अनुत्तम अर्थात् अश्रेष्ठ कहा है। गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में कहा है कि ब्रह्म लोक तक जितने भी लोक हैं, उनमें गए हुए साधक पुनरावृति में हैं अर्थात् ब्रह्म लोक तक गए साधक पुनः जन्म-मृत्यु में रहते हैं, इसलिए उपरोक्त गीता अध्याय 18 श्लोक 46ए 62ए 66 अध्याय 15 श्लोक 4 तथा 17 में किसी समर्थ परमेश्वर की शरण में जाने के लिए कहा है जो ‘‘ऊँ तत् सत्‘‘ नाम का जाप (गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में तीन मन्त्र ऊँ तत् सत) है, इसमें जो ’’ऊँ’’ नाम है, वह ब्रह्म का जाप है। इसी ब्रह्म को गीता अध्याय 15 श्लोक 16 में क्षर पुरूष कहा है तथा दूसरा जो अक्षर पुरूष कहा है। अक्षर पुरूष का जाप “तत्” मन्त्र का है, यह सांकेतिक है तथा गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा है कि “उत्तम पुरूषः तु अन्यः” पुरूषोत्तम अर्थात् सर्वश्रेष्ठ सर्व शक्तिमान पुरूष तो क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष से अन्य ही है। उसका मन्त्र “सत्” है जो सांकेतिक है। उस परमेश्वर अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म जिसको सन्त भाषा में सत्य पुरूष कहते हैं, के उस परमपद अर्थात् सनातन परम धाम जिसे सन्त भाषा में “सत्यलोक” कहते हैं, में जाने के लिए अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त करने के लिए गीता अध्याय 17 श्लोक 23 वाले ’’ऊँ तत् सत्’’ मऩ्त्र का जाप करना होता है। अन्य कोई नाम जाप पूर्ण मोक्ष का नहीं है। ’’तत्-सत्’’ ये दोनों अन्य मन्त्र हैं जो उपदेश लेने वाले को उपदेश के समय ही सार्वजनिक किए जाते हैं। ’’ऊँ’’ नाम का जाप ब्रह्म = क्षर पुरूष का है, गीता ज्ञान दाता का है। इसकी उपासना ’’ऊँ’’ नाम के जाप से होती है। ’’ऊँ’’ नाम के जाप की कमाई अर्थात् धार्मिक कर्म ब्रह्म को त्यागने होते हैं। हम पहले बिना तत्वज्ञान के ’’ऊँ’’ नाम के जाप की कमाई (भक्ति धन) ब्रह्म लोक में जाकर समाप्त कर देते थे, पाप यानि कर्ज (स्वंद) शेष रह जाते थे। उनको नरक में तथा 84 लाख प्रकार के प्राणियों के शरीर में कष्ट उठाकर भोगा करते थे। अब हम ’’ऊँ’’ नाम के जाप का भक्ति धन ब्रह्म को त्याग देंगे, इसका फल ब्रह्म लोक में नहीं भोगेंगे, जिसके प्रतिफल में यह ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरूष हमारे सर्व पापों यानि कर्ज को समाप्त कर देगा। इस गीता अध्याय 18 श्लोक 66 का यह भावार्थ है। फिर हम “तत्” मन्त्र के जाप की कमाई अक्षर पुरूष अर्थात् परब्रह्म (गीता ज्ञान दाता से दूसरा ब्रह्म) को त्याग देंगे। उसका 7 शंख ब्रह्माण्ड का क्षेत्र है जिसको पार करके सनातन परम धाम (सत्यलोक) में जाने का किराया देना होता है। दूसरे शब्दों में टोल टैक्स (ज्वसस ज्ंग) वह “तत्” मन्त्र के जाप की कमाई से पूरा हो जाता है। फिर “सत्” मन्त्र जो सत्य पुरूष (परम अक्षर ब्रह्म) का जाप है, इसकी कमाई लेकर हम परमेश्वर के उस परमपद में अर्थात् सनातन परम धाम (सत्य लोक) को प्राप्त हो जाऐंगे, जहाँ जाने के पश्चात् साधक फिर संसार में कभी नहीं आते, परमशान्ति अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त होता है। यह सम्पूर्ण भक्ति साधना मेरे (सन्त रामपाल दास के) पास है, आओ और अपना कल्याण कराओ। यह है यथार्थ गीता के अध्याय 18 श्लोक 66 का अनुवाद। इसलिए कहा है “गीता तेरा ज्ञान अमृत”। उपरोक्त प्रमाणों से सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञान दाता से अन्य पूर्ण परमात्मा है। उसी की शरण में जाने के लिए गीता ज्ञान दाता ने (गीता अध्याय 18 श्लोक 62, 66) में कहा है। जिस अनमोल गीता ज्ञान को ठीक से न समझकर अज्ञानी व्यक्तियों ने उल्टा अर्थ किया है, लिखा है कि गीता ज्ञान देने वाला अपनी ही शरण में आने को कह रहा है।
जैसे किसी व्यक्ति का कार्य मुख्यमंत्री के अधिकार में है और वह मंत्री के पास खड़ा है, मंत्री से विनय कर रहा है कि यह कार्य कर दीजिए। मंत्री बुद्धिमान होता है, वह भ्रमित नहीं करता। वह कहेगा कि यदि आप को यह कार्य कराना है तो आप मुख्यमंत्री के पास जाएं, उनकी कृपा से ही आपका कार्य हो सकता है। उस मंत्री ने एक पत्र लिखकर दे दिया कि आप उस मुख्यमंत्री के पास जाइए, उसकी कृपा से आपका यह कार्य सम्भव है। कोई व्यक्ति उसका अर्थ करे कि मंत्री जी अपने पास आने को ही कह रहा है तो वह गलत अर्थ कर रहा है, मंत्री के पास से वह व्यक्ति आया ही है। इसी प्रकार गीता के अमृत ज्ञान को न समझकर ’’अड़ंगा’’ अनुवाद करके पाठकों को अज्ञानी सन्तों ने भ्रमित किया है और जन्म-मरण के चक्र में स्वयं भी गिरे हैं तथा अपने भोले अनुयाईयों को भी जन्म-मरण के चक्र में डाले हुए हैं जो उन अज्ञानियों को पूर्ण विद्वान गीता मनीषी माने बैठे हैं। गीता का ज्ञान किसने कहा था, यह पूर्व के प्रश्न-उत्तर में स्पष्ट हो चुका है, पढे़ं प्रश्न 1 का उत्तर:-
प्रश्न 27: परमात्मा साकार है या निराकार? अव्यक्त का अर्थ निराकार होता है?
उत्तरः परमात्मा साकार है, नर स्वरुप है अर्थात् मनुष्य जैसे आकार का है। अव्यक्त का अर्थ निराकार नहीं होता, साकार होता है। उदाहरण के लिए जैसा सूर्य के सामने बादल छा जाते हैं, उस समय सूर्य अव्यक्त होता है। हमें भले ही दिखाई नहीं देता, परन्तु सूर्य अव्यक्त है, साकार है। जो प्रभु हमें सामान्य साधना से दिखाई नहीं देते, वे अव्यक्त कहे जाते हैं।
जैसे गीता अध्याय 7 श्लोक 24-25 में गीता ज्ञान दाता ने अपने आपको अव्यक्त कहा है क्योंकि वह श्री कृष्ण में प्रवेश करके बोल रहा था। जब व्यक्त हुआ तो विराट रुप दिखाया था। यह पहला अव्यक्त प्रभु हुआ जो क्षर पुरुष कहलाता है। जिसे काल भी कहते है। गीता अध्याय 8 श्लोक 17 से 19 तक दूसरा अव्यक्त अक्षर पुरुष है। गीता अध्याय 8 श्लोक 20 में कहा है कि इस अव्यक्त अर्थात् अक्षर पुरुष से दूसरा सनातन अव्यक्त परमेश्वर अर्थात् परम अक्षर पुरुष है। इस प्रकार ये तीनों साकार(नराकार) प्रभु हैं। अव्यक्त का अर्थ निराकार नहीं होता। क्षर पुरुष (ब्रह्म) ने प्रतिज्ञा की है कि मैं कभी भी अपने वास्तविक रुप में किसी को भी दर्शन नहीं दूँगा।
प्रमाण: गीता अध्याय 11 श्लोक 47-48 में जिसमें कहा है कि हे अर्जुन! यह मेरा विराट रुप आपने देखा, यह मेरा रुप आपके अतिरिक्त पहले किसी ने नहीं देखा, मैंने तुझ पर अनुग्रह करके दिखाया है।
गीता अध्याय 11 श्लोक 48 में कहा है कि यह मेरा स्वरुप न तो वेदों में वर्णित विधि से, न जप से, न तप से, न यज्ञ आदि से देखा जा सकता। इससे सिद्ध हुआ कि क्षर पुरुष (गीता ज्ञान दाता) को किसी भी ऋषि-महर्षि व साधक ने नहीं देखा। जिस कारण से इसे निराकार मान बैठे। सूक्ष्म वेद (तत्व ज्ञान) में कहा है कि:- ’’खोजत-खोजत थाकिया, अन्त में कहा बेचून। (निराकार) न गुरु पूरा न साधना, सत्य हो रहे जूनमं-जून (जन्म-मरण)।।
अब गीता अध्याय 7 श्लोक 24-25 में गीता ज्ञान दाता ने स्पष्ट कर ही दिया है कि मैं अपनी योग माया से छिपा रहता हूँ। किसी के समक्ष नहीं आता, मैं अव्यक्त हूँ। छिपा है तो साकार है। अक्षर पुरुष भी अव्यक्त है, यह ऊपर प्रमाणित हो चुका है। इस प्रभु (अक्षर पुरूष) की यहाँ कोई भूमिका नहीं है। यह अपने 7 शंख ब्रह्माण्डों तक सीमित है। इसलिए इसको कोई नहीं देख सका।
परम अक्षर पुरुष:- इस प्रभु की सर्व ब्रह्माण्डों में भूमिका है। यह सत्यलोक में रहते हैं जो पृथ्वी से 16 शंख कोस (एक कोस लगभग 3 किमी. का होता है) दूर है। इसकी प्राप्ति की साधना वेदों (चारों वेदों) में वर्णित नहीं है। जिस कारण से इस प्रभु को कोई नहीं देख सका। जब यह प्रभु (परम अक्षर ब्रह्म) पृथ्वी पर सशरीर प्रकट होता है तो कोई इन्हें पहचान नहीं पाता। परमात्मा कहते भी हैं किः-
’’हम ही अलख अल्लाह हैं, कुतुब-गोस और पीर।
गरीब दास खालिक धनी, हमरा नाम कबीर।।’’
हम पूर्ण परमात्मा हैं, हम ही पीर अर्थात् सत्य ज्ञान देने वाले सत्गुरु हैं। सर्व सृष्टि का मालिक भी मैं ही हूँ, मेरा नाम कबीर है। परन्तु सर्व साधकों, ऋषियों-महर्षियों ने यही ज्ञान दृढ़ कर रखा होता है कि परमात्मा तो निराकार है। वह देखा नहीं जा सकता। यह पृथ्वी पर विचरने वाला जुलाहा (धाणक) कबीर एक कवि कैसे परम अक्षर ब्रह्म हो सकता है?
उसका समाधान इस प्रकार है:-
विश्व में कोई भी परमात्मा चाहने वाला बुद्धिमान व्यक्ति चारों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद) को गलत नहीं मानता। वर्तमान में आर्य समाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द को वेदों का पूर्ण विद्वान माना जाता रहा है। इनका भी यह कहना है कि ‘‘परमात्मा निराकार’’ है। आर्यसमाज और महर्षि दयानन्द वेदों के ज्ञान को सत्य मानते हैं। इन्होंने स्वयं ही वेदों का हिन्दी अनुवाद किया है। जिसमें स्पष्ट लिखा है कि परमात्मा ऊपर के लोक में रहता है। वहाँ से गति करके (चल कर सशरीर) पृथ्वी पर आता है। अच्छी आत्माओं को मिलता है, उनको यथार्थ भक्ति का ज्ञान सुनाता है। परमात्मा तत्वज्ञान अपने मुख कमल से उच्चारण करके लोकोक्तियों, साखियों, शब्दों, दोहों तथा चैपाईयों के रुप में पदों द्वारा बोलता है। जिस कारण से प्रसिद्ध कवि की उपाधि भी प्राप्त करता है। कवियों की तरह आचरण करता हुआ पृथ्वी के ऊपर विचरण करता रहता है। भक्ति के गुप्त मन्त्रों का आविष्कार करके साधकों को बताता है। भक्ति करने के लिए प्रेरणा करता है।
प्रमाण देखें वेदों के निम्न मंत्रों की फोटोकापियाँ इसी पुस्तक के पृष्ठ 104 पर।
ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 86 मन्त्र 26-27, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 82 मन्त्र 1-2, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मन्त्र 16-20, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 94 मन्त्र 1, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 95 मन्त्र 2, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 54 मन्त्र 3, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 20 मन्त्र 1 और भी अनेकों वेद मन्त्रों में उपरोक्त प्रमाण है कि परमात्मा मनुष्य जैसा नराकार है। श्रीमद्भगवत् गीता अध्याय 4 श्लोक 32 तथा 34 में भी प्रमाण है। गीता ज्ञान दाता ने बताया कि हे अर्जुन! परम अक्षर ब्रह्म अपने मुख कमल से तत्वज्ञान बोलकर बताता है, उस सच्चिदानन्द घन ब्रह्म की वाणी में यज्ञों अर्थात् धार्मिक अनुष्ठानों की जानकारी विस्तार से कही गई है। उसको जानकर सर्व पापों से मुक्त हो जाएगा। फिर गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में कहा है कि उस ज्ञान को तू तत्वदर्शी सन्तों के पास जाकर समझ। उनको दण्डवत प्रणाम करके विनयपूर्वक प्रश्न करने से वे तत्वदर्शी सन्त तुझे तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे।
यह प्रमाण आप को बताए और विशेष बात यह है कि गीता चारों वेदों का सारांश है। इसमें सांकेतिक ज्ञान अधिक है। यह भी स्पष्ट हुआ कि तत्वज्ञान गीता ज्ञान से भी भिन्न है। वह केवल तत्वदर्शी संत ही जानते हैं जिनको परम अक्षर ब्रह्म स्वयं आकर धरती पर मिलते हैं।
प्रश्न 28: किन-किन पुण्यात्मा महात्माओं को परमात्मा मिले हैं?
उत्तर: परमात्मा चारों युगों में प्रकट होकर ज्ञान सुनाते हैं। 1. सतयुग में ‘‘सत्यसुकृत’’ नाम से, 2. त्रेता युग में ‘‘मुनीन्द्र’’ नाम से, 3. द्वापर युग में ‘‘करुणामय’’ नाम से, 4. कलयुग में ‘‘कबीर’’ नाम से परमेश्वर प्रकट हुए हैं। सू़क्ष्म वेद में कहा है:-
सतयुग में सतसुकृत कह टेरा, त्रेता नाम मुनिन्द्र मेरा।।
द्वापर में करुणामय कहाया, कलयुग नाम कबीर धराया।।