काशी में भण्डारा करना

सुमिरन का अंग (112-127)

वाणी नं. 112:-

मांझी मर्द कबीर है, जगत करै उपहास। कैसौ बनजारा भया, भक्त बढ़ाया दास।।

काशी में भण्डारा करना

सरलार्थ:– मांझी = नौका को चलाने वाला यानि खेवट। संसार सागर से जीव की नौका को पार करने वाला। मर्द = समर्थ पुरूष। (नामर्द = नपुसंक व कायर को कहते हैं) जगत यानि संसार। करै उपहास = यह कहकर मजाक करता है कि जुलाहा अशिक्षित है। बात करता है वेदों, गीता और पुराणों की, यह क्या जाने भक्ति के बारे में? अन्य संतों के ज्ञान को परमेश्वर कबीर जी ने गलत सिद्ध कर दिया था, परंतु आँखों देखकर भी अपनी रोजी-रोटी को बनाए रखने के उद्देश्य से परमेश्वर कबीर जी को रास्ते से हटाने के लिए बदनाम तथा शर्मसार करने के उद्देश्य से भिन्न-भिन्न हथकण्डे अपनाते थे। केसो यानि केशव नाम का बनजारा किसलिए बने, पढ़ें वाणी नं. 30 के सरलार्थ में ‘‘काशी में भण्डारा करना‘‘।

वाणी नं. 112 का सरलार्थ है कि परमेश्वर कबीर जी ने भक्ति और भक्त तथा भगवान की महिमा बनाए रखने के लिए यह लीला की। स्वयं ही केशव बने, स्वयं भक्त बने। (112)

स्वामी रामानंद ने परमेश्वर कबीर जी को सतलोक में व पृथ्वी पर दोनों स्थानों पर देखकर कहा था:-

दोहूँ ठौर है एक तू, भया एक से दोय। गरीबदास हम कारने, आए हो मग जोय।।
तुम साहेब तुम संत हो, तुम सतगुरू तुम हंस। गरीबदास तव रूप बिन, और न दूजा अंश।।
बोलत रामानंद जी, सुनो कबीर करतार। गरीबदास सब रूप में, तुम ही बोलनहार।।

वाणी नं. 113 से 117:-

गरीब, सोहं ऊपरि और है, सत सुकत एक नाम। सब हंसों का बंस है, सुंन बसती नहिं गाम।।113।।
गरीब, सोहं ऊपरि और है, सुरति निरति का नाह। सोहं अंतर पैठकर, सतसुकृत लौलाह।।114।।
गरीब, सोहं ऊपरि और है, बिना मूल का फूल। ताकी गंध सुगंध है, जाकूं पलक न भूल।।115।।
गरीब, सोहं ऊपरि और है, बिन बेलीका कंद। राम रसाइन पीजियै, अबिचल अति आनंद।।116।।
गरीब, सोहं ऊपरि और है, कोइएक जाने भेव। गोपि गोसांई गैब धुनि, जाकी करि लै सेव।।117।।

सरलार्थ:– जैसा कि परमेश्वर कबीर जी ने कहा है तथा संत गरीबदास जी ने बोला है:- सोहं शब्द हम जग में लाए, सार शब्द हम गुप्त छिपाए। उसी का वर्णन इन अमृतवाणियों में है कि कुछ संत व गुरूजन परमेश्वर कबीर जी की वाणी से सोहं शब्द पढ़कर उसको अपने शिष्यों को जाप के लिए देते हैं। वे इस दिव्य मंत्र की दीक्षा देने के अधिकारी नहीं हैं और सोहं का उपदेश यानि प्रचार करके फिर नाम देना सम्पूर्ण दीक्षा पद्यति नहीं है। अधूरा नाम है। मोक्ष नहीं हो सकता। सोहं नाम के ऊपर एक सुकृत यानि कल्याणकारक (सम्पूर्ण मोक्ष मंत्र) और है। वह सब हंसों यानि निर्मल भक्तों के वंश (अपना परंपरागत मंत्र) है जिसे भूल जाने के कारण मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते। यदि यह मंत्र प्राप्त नहीं होता है तो उनको (नहीं बस्ती नहीं गाम) कोई ठिकाना नहीं मिलता। वे घर के रहते न घाट के यानि मोक्ष प्राप्त नहीं होता। (113)

सोहं से ऊपर जो कल्याणकारक (सत सुकृत) नाम है, उसका स्मरण सुरति-निरति से होता है यानि ध्यान से उसका जाप करना होता है। सोहं नाम का जाप करते-करते उस सारशब्द का भी जाप ध्यान से करना है। उसमें (लौ ला) लगन लगा। (114)

जो सार शब्द है, वह सत्य पुरूष जी का नाम जाप है। उस परमेश्वर के कोई माता-पिता नहीं हैं यानि उनकी उत्पत्ति नहीं हुई। (बिन बेली) बिना बेल के लगा फूल है अर्थात् स्वयंभू परमात्मा कबीर जी हैं। उसके सुमरण से अच्छा परिणाम मिलेगा यानि सतलोक में उठ रही सुगंध आएगी। उस परमात्मा के सार शब्द को तथा उस मालिक को पलक (क्षण) भी ना भूलना। वही आपका उपकार करेंगे। (115)

वाणी नं. 116 का सरलार्थ:– वाणी नं. 115 वाला ही सरलार्थ है। इसमें फूल के स्थान पर कंद (मेवा) कहा है। उस परमेश्वर वाली इस सत्य भक्ति रूपी रसाईन (जड़ी-बूटी की) पीजिए यानि श्रद्धा से सुमरण कीजिए जो अविचल (सदा रहने वाला), आनन्द (सुख) यानि पूर्ण मोक्ष है। वह प्राप्त होगा।(116)

जो सारशब्द सोहं से ऊपर है, उसका भेद कोई-कोई ही जानता है। गोपि (गुप्त) यानि अव्यक्त, गोसांई (परमात्मा) गैब (गुप्त) धुनि यानि उस जाप से स्मरण की आवाज बनती है। उसे धुन कहा है। उस मंत्र की सेव यानि पूजा (स्मरण) करो। (117)

वाणी नं. 118:-

गरीब, सुरति लगै अरु मनलगै, लगै निरति धुनि ध्यान। च्यार जुगन की बंदगी, एक पलक प्रवान।।118।।

सरलार्थ:– उस सम्पूर्ण दीक्षा मंत्र का सुमरण (स्मरण) ध्यानपूर्वक करना है। उसका स्मरण करते समय सुरति-निरति तथा मन नाम के जाप में लगा रहे। ऐसा न हो कि:-

कबीर, माला तो कर में फिरै, जिव्हा फिरै मुख मांही। मनवा तो चहुँ दिश फिरै, यह तो सुमरण नांही।।

सुरति-निरति तथा मन व श्वांस (पवन) के साथ स्मरण करने से एक ही नाम जाप से चार युगों तक की गई शास्त्राविरूद्ध मंत्रों के जाप की भक्ति से भी अधिक फल मिल जाता है। (118)

वाणी नं. 119:-

गरीब, सुरति लगै अरु मनलगै, लगै निरति तिस ठौर। संकर बकस्या मेहर करि, उभर भई जद गौर ।।119।।

सरलार्थ:– उपरोक्त विधि से स्मरण करना उचित है। उदाहरण बताया है कि जैसे शंकर भगवान ने कृपा करके पार्वती जी को गुप्त मंत्र बताया जो प्रथम मंत्र यह दास (रामपाल दास) देता है जो शास्त्रोक्त नाम है और देवी जी ने उस स्मरण को ध्यानपूर्वक किया तो तुरंत लाभ मिला। (119)

वाणी नं. 120:-

गरीब, सुरति लगै और मन लगै, लगै निरति तिसमांहि। एक पलक तहां संचरै, कोटि पाप अघ जाहिं ।।120।।

सरलार्थ:– उपरोक्त विधि के सुमरण (स्मरण) से एक क्षण में करोड़ों पाप नष्ट हो जाते हैं।(120)

वाणी नं. 121:-

गरीब, अबिगत की अबिगत कथा, अबिगत है सब ख्याल। अबिगत सूं अबिगत मिलै, कर जोरे तब काल।।121।।

सरलार्थ:– अविगत की यानि दिव्य परम पुरूष (परमेश्वर) की अविगत कथा (दिव्य कहानी) है। उसका ख्याल (विचार-विमर्श) भी अविगत (अनोखा) है क्योंकि उसका किसी को ज्ञान नहीं होता। कोई प्रथम बार उस परमेश्वर की महिमा सुनता है तो अनोखी लगती है। उस परमेश्वर को (अविगत से) दिव्य मंत्र की साधना से (अविगत मिले) प्राप्त करते हैं तो उस साधक के सामने (कर जौरे तब काल) काल (ज्योति निरंजन) हाथ जोड़ता है और उसको सतलोक जाने में बाधा उत्पन्न नहीं करता। (121)

वाणी नं. 122:-

गरीब, अमर अनूपम कबीर आप है, और सकल सब खण्ड। सूछम से सूछम सही, पूरन पद प्रचंड ।।122।।

सरलार्थ:– वह अमर अनुपम (अद्भुत) परमात्मा स्वयं कबीर जी हैं। अन्य सब प्रभु खण्ड (नाशवान) हैं यानि खण्डित होने वाले हैं। वह परमेश्वर सूक्ष्म से सूक्ष्म यानि समर्थ है। जैसे अणु से अधिक विस्फोटक परमाणु है। इसी प्रकार परमेश्वर परमाणु से भी अधिक सूक्ष्म होने से अधिक शक्तिमान हैं और (पूर्ण पद) वह परम पद प्राप्त कराने वाले हैं जहाँ जाने के पश्चात् साधक फिर लौटकर संसार में कभी नहीं आते। वह परमेश्वर ऐसा प्रचण्ड यानि प्रबल है। (122)

राग प्रभाती से शब्द नं. 8:-

कोई जन जानैगा भेव शाख नहीं वह तो मूल है।।टेक।। ऊपरि मूल तले कूं डार, दिव्य चिसम्यौं तुम देखौ रे निहारि। समाधान शाखा न पात, कौंन लखै सांई की दाति।।1।। राता पीरा है अकाश, दम कूं खोजो महतत बास। महतत में एक मूरति ऐंन, मुरली मधुर बजावैं बैन।।2।। अछै बिरछ असथांन हमार, खेलौ हंसा अधिर अधार। कोटिक ब्रह्मा धरते ध्यान, कोटिक शंभू है सुरज्ञान।।3।। नारद बिसनु रटते शेष, कोई क जांनैं सतगुरु उपदेश। सनक सनंदन हैं ल्यौलीन, ध्यान धरैं सतगुरु दुरबीन।।4।। जनक बिदेही और सुखदेव, गोरख दत्त करत हैं सेव। कोटि कला त्रिबैंनी तीर, दास गरीब भजि अबिगत कबीर ।।5।।8।।

वाणी नं. 123:-

गरीब, अधमउधारन भगति है, अधम उधारन नांव। अधम उधारक संत है, जिनकी मैं बलि जाँव ।।123।।

सरलार्थ:– संत गरीबदास जी ने बताया है कि जो शास्त्रा अनुकूल भक्ति है, उससे अधम (नीच-अपराधी) व्यक्ति का भी उद्धार हो जाता है। इसलिए वह शास्त्रा अनुकूल सत्यनाम (वास्तविक नाम) की साधना अधम उद्धारन (नीचों का भी उद्धार करने वाली) है। जो शास्त्रविधि अनुसार सत्य मंत्रों की भक्ति करने को कहते हैं, वे संत भी अधम उद्धारक यानि पापियों का उद्धार करने वाले हैं जिनकी मैं बलिहारी जाऊँ यानि उनका बार-बार धन्यवाद करूँ। (123)

वाणी नं. 124:-

गरीब, गज गनिका अरु भीलनी, सबरी प्रेम सहेत। केते पतित उधारिया, सतगुरु गावैं नेत।।124।।

सरलार्थ:– पूर्व जन्म तथा वर्तमान जन्म में की गई भक्ति की शक्ति से परमात्मा ने अनेकों की सहायता की। जैसे गज (हाथी और मगरमच्छ के युद्ध में हाथी) को बचाया। एक वैश्या (गणिका) को ज्ञान समझाकर शरण में लेकर उसका उद्धार किया। शबरी यानि भीलनी का उद्धार भी पूर्व जन्म के संस्कार से हुआ। ऐसे-ऐसे कितने पतित यानि पापियों का उद्धार किया। सतगुरू जी बताते हैं कि नेति (न इति) कोई अंत नहीं, इतने पापियों को पार किया। तो जो भक्ति करेगा, वह किसी न किसी जन्म में पार हो जाएगा।(124)

वाणी नं. 125:-

गरीब, राम रसाइन पीजिये, यौह औसरि यौह दाव। फिरि पीछै पछिताइगा, चला चली होइ जाव ।।125।।

सरलार्थ:– हे भक्त! राम रसायन यानि शुभ नाम रूपी औषधि का सेवन कर जिससे तेरी आत्मा की कीमत बने।

रसायन:– पूर्व समय में एक साधु ने जड़ी-बूटियों का शोध करके रसायन यानि कैमिकल (chemical) तैयार किया। उसको लोहे पर डालने से लोहा सोना (gold) बन जाता था। संत गरीबदास जी ने कहा है कि राम नाम वाली रसायन को पी ले ताकि तेरी आत्मा जो पापों के कारण लोहा हो चुकी है, वह सोना यानि शुद्ध आत्मा बनकर भक्ति धन का संग्रह करके सत्यलोक चली जाए। यह मानव जन्म का अवसर मिला है। यह एक दाँव लगा है। अन्यथा जब शरीर छूट जाएगा और कुल के व्यक्ति कहेंगे कि उठाओ-चलो, शमशान घाट ले चलो। कहते हैं कि फिर बाद में पश्चाताप् करेगा। न परिवार साथ चलेगा, न धन साथ चलेगा। इसलिए सच्चे नाम रूपी रसायन का सेवन कर यानि सत्य साधना कर। (125)

वाणी नं. 126:-

गरीब, राम रसाइन पीजिये, चोखा फूल चुवाइ। सुंनि सरोवर हंस मन, पीया प्रेम अघाइ ।।126।।

सरलार्थ:– राम नाम वाली बूटी (औषधि) जो आत्मा को बहुमूल्य बनाती है। उसको पी यानि भक्ति कर। इतनी भक्ति कर कि चोखा (अधिक) फूल चुवाई यानि भक्ति रूपी फूल को खिला अर्थात् अधिक से अधिक भक्ति करके महिमा बना। जिन साधकों ने राम नाम की रसायन अघाई यानि छिक-छिककर पीया है यानि अधिक से अधिक भक्ति की है। सुन्न सरोवर में अर्थात् ऊपर आकाश में बने सतलोक रूपी सरोवर में मन रूपी हंस आनन्द से उसमें मोक्ष रूपी मोती सेवन करता है। सुखी रहता है। (126)

वाणी नं. 127:-

गरीब, कहता दास गरीब है, बांदी जाम गुलाम। तुम हौ तैसी कीजिये, भगति हिरंबर नाम।।127।।

सरलार्थ:– संत गरीबदास जी ने कहा है कि मैं बांदी जाम गुलाम यानि अति आधीन व नम्रभाव से कह रहा हूँ जैसे गुलाम अपने मालिक से कहता है। ऐसे तुम मालिक के बच्चे हो। उसी भाव से तुमको कह रहा हूँ कि भक्ति करो। अपना कल्याण कराओ। यह मानव जन्म बार-बार नहीं मिलता। तुमसे जितनी भक्ति हो सके, उतनी अवश्य करियो। भक्ति रूपी हिरंबर (स्वर्ण) नाम यानि सत्य मंत्र से ही बनता है यानि मोक्ष प्राप्ति के सच्चे नामों की भक्ति करके अपना जीवन स्वर्ण की तरह चमकाओ। उसकी कीमत (टंसनम) बनाओ। अपना कल्याण कराओ। (127)

स्वामी रामदेवानंद गुरू महाराज जी की असीम कृपा से ’’सुमरण के अंग” का सरलार्थ सम्पूर्ण हुआ। ।।सत साहेब।।

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