दयानन्द सरस्वती जी की जन्म पत्री
“आर्य समाज प्रवर्तक श्री दयानन्द सरस्वती जी की जन्म पत्री”
पुस्तकः- ‘‘श्री मत् दयानन्द-प्रकाश’’
लेखकः- श्री सत्यानन्द जी महाराज, प्रकाशक:- सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिद्यी सभा 3/5 महर्षि दयानन्द भवन, नई दिल्ली-2
महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के जीवन पर उपरोक्त पुस्तक से निष्कर्ष रूप में यथार्थ भाव सहित संक्षिप्त विवरण लिखा जाता हैः-
स्वामी दयानन्द जी के पूज्य पिता जी का नाम कर्षनजी था। जो उदीच्य ब्राह्मण थे। उन्हें मोरवी राज्य से कुछ अधिकार भी प्राप्त थे, कुछ सैनिक भी रखते थे। वे काठीयावाड़ देश के मोरवी नगर के ग्राम टंकारा में रहते थे तथा बड़े भूमीहारी भी थे।
- श्री दयानन्द जी का वास्वतिक नाम मूल जी था। स्वामी जी का जन्म संवत् 1881 (सन् 1824) में हुआ। ब्राह्मण होने के कारण बचपन में पांच वर्ष की आयु में देवनागरी भाषा को पढ़ा तथा बन्धुजनों ने उन्हें बहुत से स्तोत्र, मंत्र, श्लोक और उनकी टिकाऐं कण्ठस्थ करा दी। आठ वर्ष की आयु में गायत्री तथा सन्ध्या की उपासना-विधि सिखाई गई। उदीच्य वंशीय होने के कारण सामवेद को परम्परागत पढ़ा करते तथा शैव (शिव के उपासक) होने के कारण रूद्राध्याय भी पढ़ा करते थे।
चौदह वर्ष की आयु में यजुर्वेद संहिता कण्ठस्थ याद हो गई अन्य वेदों का भी कुछ-2 अभ्यास कर लिया। व्याकरण के भी शब्दरूपावली आदि छोटे-छोटे ग्रन्थ पिता जी से पढ़ लिए। शिव प्रभु की पत्थर की प्रतिमा पर चूहे बैठे प्रभु को लगा भोग खा रहे थे। उस दिन से मूर्ति में आस्था नहीं रही (वैराग्य काण्ड पहला सर्ग पृष्ठ 1-6 तक उपरोक्त विवरण है)
-
आयु के सोलहवें वर्ष में अपनी छोटी बहन की विशुचिका रोग के कारण अचानक मृत्यु देखकर संसार से विरक्त हो गए तथा सोचने लगे कि जन्म-मृत्यु के नाश की औषधी कहाँ मिले। अमर जीवन के लिए कौन से उपायों का अवलम्बन करना चाहिए। मुक्ति मार्ग में किसका भरोसा किया जाए ? इत्यादि विचारों से वे रात-दिन निमग्न रहते। उन्होंने दृढ निश्चय कर लिया कि जैसे भी हो मुक्ति हस्तगत करूंगा तथा मृत्यु के दुःख से छुटकारा पाऊंगा। आयु के उन्नीसवें वर्ष में उनके प्रिय चाचा जी भी विशूचिका रोग से अचानक मृत्यु को प्राप्त हो गए। इस से स्वामी दयानन्द जी का मन संसार से उठ गया। विवाह से स्पष्ट मना कर दिया। काशी में विद्या ग्रहण करने के प्रस्ताव को पिता जी ने नहीं माना तो निकट ग्राम में एक पण्डित जी से व्याकरण आदि पढ़ा।
-
बाईस वर्ष की आयु में घर त्याग कर मृत्यु से छुटकारा पाने के लिए चल पड़े।
(स्वामी दयानन्द जी के अनुयाई कहते हैं कि स्वामी जी गुरूडम अर्थात् गुरू बनाने के विरोधी थे। कृप्या पाठक जन देखें स्वामी दयानन्द जी ने कितने गुरू बनाए)
-
(प्रथम गुरू) सायले नामक ग्राम में एक ब्रह्मचारी सन्त मिले जिन्होंने स्वामी दयानन्द जी का मूल नाम बदल कर ‘‘शुद्ध चैतन्य’’ रख दिया। रात्री में स्वामी दयानन्द जी बाहर पेड़ के नीचे साधना कर रहे थे। पेड़ के ऊपर से अनोखी आवाज आई जिसे भूत (प्रेत) जान कर डर कर मठ में चले गए।
-
(दूसरा गुरू) वहाँ से चलकर तत्वदर्शी सन्त की खोज में अहमदाबाद के बड़ौदा नगर में एक ब्रह्मानन्द नामक ब्रह्मचारी से मिले। जिसने स्वामी दयानन्द जी को वेदान्ती बना दिया तथा ‘‘अहम् ब्रह्मास्मि’’ का नाम जाप मन्त्रा दिया।(उपरोक्त विवरण वैराग्य काण्ड का दूसरा तथा तीसरा सर्ग पृष्ठ 7 से 19 तक पर है)
-
उसके बाद वह प्यासी आत्मा तृप्त न होकर अन्य पूर्ण संत की खोज में चला। जहाँ भी कोई साधु सन्त मिलता उसी से ज्ञान ग्रहण करता रहता।
-
(तीसरा गुरू) चाणोद करनोली में जिज्ञासु शुद्धचैतन्य अर्थात् दयानन्द जी ने श्री चिदाश्रम नामक व्यक्ति को सच्चा विद्वान मान कर ज्ञान ग्रहण किया। अन्य विद्वान पंड़ितों से भी ज्ञान ग्रहण किया।
-
(चौथा गुरू) एक परमानंद नामक साधु से कई मास तक वेदांत-परिभाषा, आर्य हरिमीडेतोटक, आर्य हरिहरतोटक आदि ग्रंथ पढ़े।
-
(पांचवां गुरू) चाणोद से डेढ कोस दूर जंगल में दण्डी स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती को पूर्ण ज्ञानी जान स्वामी दयानन्द जी ने दीक्षा तथा ज्ञान ग्रहण किया। उनका नाम शुद्धचैतन्य से बदल कर ‘‘दयानन्द सरस्वती’’ रख दिया तथा हाथ में दण्ड (डण्डा) थमा दिया।
-
(छठे गुरू) एक योगानन्द नामक महात्मा से योग विद्या सीखी।
-
(सातवां गुरू) ग्राम छिन्नड़े में कृष्ण शास्त्री से व्याकरण पढ़ी।
-
(आठवां गुरू) वापिस चाणोद में आकर एक राजगुरू से वेदाध्ययन किया।
-
(नौवें गुरू) दो योगियों (1.श्री ज्वाला नन्द पुरी 2.शिवानन्द गिरी) से योग शास्त्र सीखा।
-
(दसवें गुरू) उपरोक्त दोनों योगियों से भी कहीं अधिक आगे बढ़े हुए अन्य योगियों से भी योग तत्वों की प्राप्ति की। उस समय श्री दयानन्द जिज्ञासु की आयु 32 वर्ष की थी।
-
(ग्यारहवें गुरू) हरिद्वार में अपनी परख से उत्तमोत्तम सन्तों से ज्ञान व योग साधनाऐं सीखी।
(उपरोक्त विवरण पूर्वोक्त पुस्तक वैराग्य काण्ड तीसरा तथा चौथा सर्ग पृष्ठ 20 से 24 पर है)
-
(बारहवें गुरू) फिर भी पूर्ण सन्त के अभाव से प्यासे स्वामी दयानन्द जी जोशी मठ पहुँचे वहाँ एक महाराष्ट्र सन्यासी से नवीन भेद प्राप्त किया फिर भी प्यासे रहे(पृष्ठ 29 पर) तथा बद्रीनारायण पहुँच गए वहाँ से फिर पूर्ण सन्त की खोज में महाकष्ट उठाते हुए एक नदी को पार कर के सर्दी के कारण मृत्यु के निकट पहुँच गए। फिर भी साहस करके वापिस बद्रीनारायण लौट आए।
-
द्रौणासागर नगर में निवास के समय आत्महत्या करने का विचार किया परन्तु पूर्ण ज्ञान प्राप्त न होने के कारण हिमालय में समाधी लेने(देह त्याग) का विचार बदल दिया। (उपरोक्त विवरण पृष्ठ 33 तक है।)
-
एक शव को चीर फाड़ कर देखा। उसमें कोई चक्र(नाभी चक्र, मूल चक्र आदि) नहीं पाए। इसी परिक्षण से जिज्ञासु दयानन्द स्वामी जी ने निर्णय कर लिया कि जिन पुस्तकों में चक्रों का वर्णन है वे सर्व झूठी तथा काल्पनिक हैं। उनको फाड़ कर गंगा जी में फैंक दिया। (वैराग्य काण्ड छठा सर्ग पृष्ठ 33-34 पर उपरोक्त विवरण है)
-
तीन वर्ष नर्मदा नदी के तीर पर भटकते रहे। सन्तों-ऋषियों का सत्संग सुनते रहे। तत्पश्चात एक श्री विरजानन्द जी की महिमा सुनकर मथुरा पहुँचे।
-
(तेरहवें गुरू) श्री विरजानन्द जी अन्धे थे। जिनकी आँखें पाँच वर्ष की आयु में शीतला के कारण समाप्त हो गई थी। श्री दयानन्द जी के तेरहवें गुरू श्री विरजानन्द जी ‘‘श्री विष्णु जी’’ के उपासक थे। श्री विरजानन्द जी सारस्वत ब्राह्मण थे। ‘‘विष्णु स्तोत्र’’ का नित्य पाठ किया करते थे। श्री विरजानन्द जी उत्तम कोटी के दण्डी सन्यासी थे। उस समय दण्डी स्वामी विरजानन्द जी की आयु 81 वर्ष थी। जब श्री दयानन्द जी जिज्ञासु उनके शिष्य हुए तथा व्याकरण निघटु, निरूक्त तथा अष्टाध्यायी आदि ग्रन्थों की शिक्षा ग्रहण की उस समय श्री दयानन्द सरस्वती की आयु 36 वर्ष की थी (सम्वत् 1917)।
स्वामी विरजानन्द जी दण्डी सन्यासी के शिष्य बन कर श्री दयानन्द जी भाल पर विभूति (राख) रमाया करते गले में रूद्राक्ष की माला पहनते थे। सिर पर उपरना बांधते थे तथा हाथ में लम्बा मोटा दण्ड (सोटा) रखते थे (पूरा ढोंग करते थे) जो दण्डी सन्यासी की वेशभूषा होती थी।(पृष्ठ 44, 45) पर श्री विरजानन्द जी के सानिध्य में कठिन साधना करके व्याकरण आदि का ज्ञान प्राप्त किया। उस समय श्री दयानन्द जी की आयु 36 वर्ष थी।
-
एक दिन साधना काल में एक स्त्री ने उनके चरणों में सिर रख दिया। ‘‘श्री दयानन्द जी माता-2 कह कर उठकर जंगल में चले गए। वहाँ एक मन्दिर में तीन-दिन तथा तीन रात निराहार रहे अर्थात् अपने मन को वश किया (पृष्ठ 48) पर।
-
श्री विरजानन्द जी दण्डी स्वामी कभी-2 श्री दयानन्द जी को लाठी से भी पीटते थे। कई बार कुटिया में आना बन्द कर देते थे(क्योंकि बार-बार गुरू मर्यादा का उल्लंघन करते थे)। इस प्रकार ढाई वर्ष श्री विरजानन्द जी दण्डी सन्यासी से वेदान्त सूत्र आदि अनेक पुस्तकों का अध्ययन किया (उपरोक्त विवरण वैराग्य काण्ड सातवें से दसवें सर्ग पर पृष्ठ 40 से 52 तक है)
तत्पश्चात् अपने आप को पूर्ण ज्ञानयुक्त मान कर स्वामी दयानन्द जी देश-देशान्तर में घूम कर तेरह अधूरे गुरूओं तथा ज्ञानहीन अन्य सन्यासियों से संग्रह किये (कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा) ज्ञान का प्रचार करने लगे जिसका प्रमाण उनके द्वारा रची पुस्तक ‘‘सत्यार्थ प्रकाश’’ है जिसमें सत्य का नामोनिशान भी नहीं है, कोरी बकवाद भरी है।
“गीता प्रक्षिप्त नहीं है”
स्वामी दयानन्द जी ने पृष्ठ 162 पर कहा है कि गीता प्रक्षिप्त नहीं है यदि किसी को संस्य है तो मेरे साथ शास्त्रार्थ करे तथा पृष्ठ 55, 213 पर गीता जी के श्लोकों का आंशिक अनुवाद भी किया। (श्री आत्मानन्द जी झज्जर गुरूकुल के आचार्य ने गीता जी के सात सौ श्लोकों में से आधे से अधिक को प्रक्षिप्त बताया है। जो श्री दयानन्द जी के विचारों की अवहेलना है।)
-
पृष्ठ 61 पर दो बार लिखा है कि स्वामी दयानन्द जी गीता आदि ग्रन्थों का प्रकरण सुना कर कृतार्थ किया करते थे।
-
पृष्ठ 66 पर लिखा है कि स्वामी दयानन्द जी से पूछा कि ईश्वर का नाम क्या है? श्री दयानन्द जी ने ईश्वर का नाम ‘‘सचिदानन्द’’ बताया।
-
पृष्ठ75 पर लिखा है स्वामी दयानन्द जी दोसाला ओढते थे, पाँव में जुराब तथा गले में स्फटिक की माला भी पहनते थे।
-
पृष्ठ 75 पर लिखा है कि अभ्रक भस्म आदि कई प्रकार की भस्में खाते थे।
-
पृष्ठ 79-80 पर लिखा है कि स्वामी दयानन्द जी ने त्याग किया। स्वर्ण मुहरें व शाल स्वामी विरजा नन्द जी के आश्रम में मथुरा भिजवा दिए तथा सारे उपकरण हरिद्वार में त्याग दिए, सर्व पुस्तकें भी त्याग कर सारे तन पर राख रमा कर कौपीन मात्रधारी-मौनावलम्बी हो गये।
-
पृष्ठ 436 पर लिखा है कि स्वामी दयानन्द जी की मृत्यु के कुछ समय पूर्व एक कल्लु नामक सेवक छः- सात सौ रूपये लेकर चम्पत हो गया। आज से 123 वर्ष पूर्व उस समय (सन् 1883) के सात सौ रूपयों का मूल्य वर्तमान (सन् 2006) के पांच लाख से भी अधिक है अब श्री दयानन्द जी के त्याग का ढोंग पर्दा फास हो गया।
-
पृष्ठ 89 पर शास्त्रार्थ की झलकः- गंगा कांड, आठवां सर्ग पृष्ठ 89 पर ज्यों का त्यों लेखः-
तीन दिन तक, प्रतिसायं कृष्णानन्द जी और स्वामी जी का शास्त्रार्थ होता रहा। एक दिन शास्त्रार्थ के समय किसी ने कृष्णानन्द जी से साकारवाद का अवलम्बन किया और इसी पर शास्त्रार्थ चलाया। स्वामी जी का तो यह मन-चाहता विषय था। उन्होंने धाराप्रवाह संस्कृत बोलते हुए निराकार सिद्धान्त पर वेदों और उपनिषदों के प्रमाणों की एक लड़ी पिरो दी, और कृष्णानन्द जी को उनका अर्थ मानने के लिए बाधित किया। कृष्णानन्द कोई प्रमाण न दे सका। केवल गीता का यह श्लोक ‘‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत’’ लोगों की ओर मुंह करके पढ़ने लगा। स्वामी जी ने गर्ज कर कहा कि ‘‘आप वाद मेरे साथ करते हैं, इसलिए मुझे ही अभिमुख कीजिये।’’ परन्तु उसके तो विचार ही उखड़ गये थे, वह चौकड़ी ही भूल चुका था। मुख में झाग आ गए। गले में घिग्घी बँध गई। चेहरा फीका पड़ गया। किसी प्रकार लाज रह जाए, इससे उसने तर्क-शास्त्र की शरण लेकर स्वामी जी को कहा कि ‘‘अच्छा, लक्षण का लक्षण बताइये?’’ स्वामी जी ने उत्तर दिया कि ‘‘जैसे कारण का कारण नहीं वैसे ही लक्षण का लक्षण भी नहीं है।’’ लोगों ने अपनी हंसी से कृष्णानन्द की हार प्रकाशित कर दी और वह घबड़ाकर वहाँ से चलता बना।
- स्वामी दयानन्द जी शुद्रों को भक्ति योग्य नहीं मानते थे। गंगा काण्ड प्रथम तथा नौवां सर्ग पृष्ठ 56 से 94 पर।
“समाज सुधार का दावा करने वाले श्री दयानन्द सरस्वती समाज बिगाड़ करते थे”
- पृष्ठ 138 पर लिखा हैं कि स्वामी दयानन्द जी (तम्बाकू सूंघा करते) नसवार लिया करते थे, कहते थे शरीर स्वस्थ करने के लिए तम्बाकू संूघना पाप नहीं।
- राजाओं को विशेष आदर देते थे। अपने बराबर बैठाया करते क्योंकि राजा यशवन्त सिंह जोधपुर ने सौ रूपये तथा पाँच स्वर्ण मुद्रायें भेंट की थी। (पृष्ठ 426-427 पर उपरोक्त प्रमाण है)
“स्वामी दयानन्द जी की मृत्यु”
(सम्वत् 1940 अर्थात् सन् 1883 में 59 वर्ष की आयु में एक महीने तक चारपाई पर पड़ा रह कर, महान पीड़ा सहन करके, दुर्दशा से मृत्यु हुई। उनका मल-मुत्र वस्त्रों में निकल जाता था, उनकी जीभ पर छाले पड़ गए थे, पूरे शरीर पर, कंठ, मुंह के अन्दर, माथे पर, सिर पर छाले पड़ गए थे इस प्रकार अपने किए कर्म (मिथ्या भाषण रूप पाप) का दण्ड भोगते हुए दुर्दशा से मृत्यु हुई।)
पृष्ठ 437 से 451 परः- स्वामी दयानन्द जी का स्वास्थय दो-चार दिन से कुछ शिथिल था अर्थात वे अस्वस्थ थे। आश्विन (आसौज) वदी चतुर्दशी सम्वत् 1940 को रात्री में जगन्नाथ नामक रसोईये से दूध लेकर पीया। कुछ निद्रा लेने के पश्चात् उल्टी तथा दस्त प्रारम्भ हो गए। पेट में प्रबल पीड़ा हो रही थी। मुंह सूख रहा था। डा. ने दवाई दी कोई आराम नहीं हुआ। जो भी दवाई डा. देता उल्टा ही प्रभाव होता था। दवाई लगना बंद हो गई तथा दवाई दुष्प्रभाव करने लगी। स्वामी दयानन्द जी का शरीर जीर्ण-शीर्ण होने लगा। चार पांच दिन बाद एक सद्धर्म प्रचारक समाचार पत्र ने छापा की एक जगन्नाथ नामक ब्राह्मण ने स्वामी जी को विष दे दिया जो उन्हीं का रसोईया था। स्वामी जी ने जगन्नाथ रसोईया को कुछ रूपये देकर वहाँ से निकाल दिया कि कहीं इसे कोई मार न दे। जगन्नाथ भी ब्राह्मण था। स्वामी दयानन्द जी को कोई भी औषधी काम नहीं कर रही थी। उनके पूरे शरीर तथा कण्ठ, जीभ पर मुख में तथा माथे व सिर में छाले पड़ गए थे। पानी की घूट भी गले नहीं उतर रही थी। मल-मुत्र भी समय-कुसमय वस्त्रों में निकल जाने लगा। श्वांस-प्रश्वास की क्रिया बहुत तेज थी। उनका जी घबराता था, गला बैठ गया था, श्वास-प्रश्वास की गति बहुत तेज हो गई थी। सारी देह में दाह (आग) सी लगी थी।
संवत् 1940 आश्विनी वदी (कृष्णा) 14 से कार्तिक अमावस्या तक (एक मास तक) महा पीड़ा को भोग कर स्वामी दयानन्द जी का देहान्त हो गया।
पृष्ठ 453- 454 पर लिखा है कि अन्तिम संस्कार करके भगवान दयानन्द जी की अस्थियों को उठाकर (फूल चुनकर) एक बाग (उद्यान) में गाड़ दिया।
“उपरोक्त स्वामी दयानन्द जी के जीवन विवरण का सारांश”
-
स्वामी दयानन्द जी पूर्व जन्म के पुण्य कर्मी प्राणी थे। किसी जन्म में शास्त्रविधि अनुसार साधना की हुई थी। जिसके परिणाम स्वरूप प्रभु भक्त श्री कर्षन जी के घर जन्म हुआ। जो वर्तमान में शास्त्रविरूद्ध साधना कर रहा था। पुत्र को भी भगवत् भक्ति का रंग चढाया। बचपन से ही श्री दयानन्द जी ने यजुर्वेद को कण्ठस्थ कर लिया। जब बड़े हुए तो व्याकरण आदि परमपरागत सीख ली थी। घर त्याग कर पूर्ण सन्त की खोज करके जन्म-मृत्यु से छुटकारा प्राप्ति के लिए चल ड़े। उस जिज्ञासु दयानन्द जी को पूर्ण सन्त नहीं मिला जो भी मिले वे तत्वज्ञान हीन ही मिले। जिनसे वह प्यारी आत्मा तृप्त नहीं हुआ। एक समय सोचा कि तत्वज्ञान प्राप्त हुआ नहीं। इस जीवन का क्या करना है। इस विचार से आत्महत्या करना चाहा परन्तु तुरन्त ही अन्य स्थानों पर पूर्ण ज्ञानी की खोज में निकल पड़े। भ्रमते भटकते श्री दयानन्द जी मथुरा में एक विरजानन्द जी दण्डी स्वामी नेत्रहीन को मिले जहाँ से उन्होंने व्याकरण का शेष ज्ञान प्राप्त किया। श्री विरजानन्द जी, श्री विष्णु जी के भक्त थे। ‘‘विष्णु स्तोत्र’’ का नित्य पाठ किया करते थे। लगभग तेरह ज्ञानहीन गुरूओं के खचड़ा ज्ञान से परिपूर्ण होकर स्वामी दयानन्द जी, जिज्ञासु से ज्ञानदाता बन कर शिष्य बनाने लग गए तथा वही अज्ञानियों से ग्रहण ज्ञान दूर-2 तक बिखेर दिया। आम के बीज की खोज में निकले श्रद्धालु दयानन्द जी को पूर्ण सन्त न मिलने के कारण बबूल (कीकर) का बीज ग्रहण हुआ। वही अज्ञान अपने द्वारा रचित पुस्तकों ‘‘सत्यार्थ प्रकाश’’ आदि में भर कर भक्त समाज में प्रवेश कर दिया। बचपन से वेद मन्त्रों को घोटने में लगे थे। साधारण व्यक्ति को बड़े विद्वान दिखाई देते थे क्योंकि संस्कृत भाषा में प्रवचन करते परन्तु ज्ञान का अंश मात्र भी स्वामी दयानन्द जी के पात्र में नहीं था। जिस का प्रमाण ‘‘सत्यार्थ प्रकाश’’ है।
-
ज्ञानहीन सन्तों व ऋषियों के ग्रहण अज्ञान के आधार से परमेश्वर कविर्देव (कबीर प्रभु) के विषय में अनाप-शनाप व्याख्या कर दी जो ‘‘सत्यार्थ प्रकाश’’ समुल्लास ग्यारह में लिखी है। अन्य प्रभु प्राप्त सन्तों को भी मूर्ख लिखा है। जिस कारण से स्वामी दयानन्द जी महापाप के भागी हो गए। जिसका दुष्परिणाम यह हुआ कि अन्त समय में एक मास तक महाकष्ट को भोगकर मृत्यु को प्राप्त हुए। पूरा शरीर गल गया था, मल-मूत्र भी समय-कुसमय वस्त्रों में ही निकल जाता था। पूरे शरीर में आग के जले जैसा दर्द हो रहा था। पूरे शरीर पर छाले पड़ गए थे। श्री दयानन्द जी की जीभ पर छाले, मुंह में छाले, अन्दर कंठ में छाले, माथे तथा सिर पर छाले पड़ गए थे। इस प्रकार महाकष्ट को भोग कर, परमेश्वर कर्विदेव तथा अन्य प्रभु द्रष्टा सन्तों की निन्दा तथा मिथ्या भाषण के महादोष का पात्र बन कर पाप दण्ड को भोगते हुए, एक महीना दुर्गति को प्राप्त होकर देहान्त हुआ। ऐसे प्रभु के प्यासे दयानन्द जी की दुर्गति का श्रेय ज्ञानहीन सन्तों को ही जाता है। जिन्हें स्वयं ज्ञान नहीं है। दूसरों को शिष्य बना कर उनका जीवन नष्ट कर रहे हैं।
-
यदि स्वामी दयानन्द जी को पूर्ण संत मिल जाता तो अपना कल्याण करते तथा अन्य को भी सत्य मार्ग दर्शाते श्रद्धालु एक उपजाऊ जमीन होती है। उपजाऊ जमीन में जो भी पौधा लगाया जाता है वह उसे उगा देती है। जिस श्रद्धालु को पूर्ण सन्त मिल गया उसने सतभक्ति व तत्वज्ञान रूपी आम का पोधा लगा दिया। जिस श्रद्धालु को ज्ञानहीन गुरू मिला उसने शास्त्रविधि रहित साधना व अज्ञान रूपी कीकर (बबूल) का पौधा लगा दिया। उपजाऊ गुण होने के कारण दोनों ही पौधों को उपजाऊ जमीन पोषण करके हरा-भरा कर देती है।
-
स्वामी दयानन्द जी अपना जीवन व्यर्थ कर गये तथा हजारों श्रद्धालुओं को भ्रमित करके मिथ्याभाषण रूपी महापाप के भागी हो गये। जिसका मूल कारण ज्ञानहीन सन्त, ऋषि, आचार्य तथा महंत जन हैं।
-
स्वामी जी ने घर त्यागा था जन्म-मृत्यु से छुटकारा पाने, पूर्ण मोक्ष प्राप्त करने के लिए। परन्तु ज्ञान हीन गुरू सन्तों ने उल्टा पाठ पढा दिया कि जन्म-मृत्यु कभी समाप्त नहीं हो सकता इसलिए स्वामी दयानन्द जी ने ‘‘सत्यार्थ प्रकाश’’ के नौवें समुल्लास में यही विचार दृढ किए हैं, लिखा है मोक्ष प्राप्ति जीव छत्तीस हजार बार उत्पति-प्रलय तक मोक्ष भोगने के पश्चात् पुनर् अवश्य जन्म लेगा। फिर पुण्य कर्म न्यून होने पर अन्य प्राणियों के शरीरों में भी जाएगा।
जन्म तथा मरण इतना आवश्यक है जितना सुबह खाना खाने के बाद शाम को फिर भोजन की भूख लगती है। इसी आधार से श्री दयानन्द जी ने वेदों के शब्दों का भी अनर्थ किया है। ऋग्वेद मण्डल 1 सू. 24 मन्त्र 1-2 के अनुवाद में लिखा है कि परमात्मा के उस नाम को जाने जो हम अनादि मोक्ष प्राप्त जीवों को पूनर् जन्म देकर माता-पिता के दर्शन कराता है।
विचार करेंः- अनादि मोक्ष प्राप्त प्राणी तो वह है जिस का मोक्ष समय कभी समाप्त न हो। फिर उस का पुनर् जन्म कहना अर्थों का अनर्थ करना मात्र है तथा अपने गलत विचारों का समर्थन मात्र है। जबकि उपरोक्त ऋग्वेद मण्डल 1 सुक्त 24 मन्त्रा 1. 2 का शब्दार्थ है कि अमर भगवानों, (अक्षर पुरूष अर्थात् परब्रह्म तथा परम अक्षर पुरूष अर्थात् पूर्ण ब्रह्म) में से कौन से प्रभु के वास्तविक नाम का समरण करें जो सतनाम जाप हमें अनादि मोक्ष प्राप्त कराता है तथा पूनर् जन्म नहीं देता अर्थात् जन्म-मरण पूर्ण रूप से समाप्त कर देता है और जिस परमात्मा में माता-पिता, भ्राता तथा मित्र आदि के सर्व गुण विद्यमान हैं (त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधु च सखा त्वमेव। त्वमेव विद्या च दृविणम् त्वमेव, त्वमेव सर्वम मम देवः देवः।।), उस पूर्ण परमात्मा रूपी माता-पिता के दर्शन करा देता है।
उत्तर में कहा है कि उस अग्ने अर्थात् तेजोमय शरीर युक्त कविरग्नि (कविरदेव) का जाप करने से पूर्ण मोक्ष प्राप्त होता है।
-
परमात्मा को निराकार कहने वाले स्वयं भगवान को साकार कह रहे हैं। पूर्वोक्त पुस्तक के पृष्ठ सं. 207ए 437ए 439 से 443 तथा अन्य स्थानों पर श्री दयानन्द जी को भगवान दयानन्द लिखा है। लगता है अब कुछ दिनों में ये आचार्य लोग स्वामी दयानन्द जी को भी निराकार कहा करेगें।
-
महर्षि दयानन्द की सुरक्षा के लिए एक सैना तैयार की गई (संगठन काण्ड प्रथम सर्ग पृष्ठ 216 पर)
-
आर्य समाज की स्थापना सम्वत् 1932 (सन् 1875) में मुम्बई में की गई (पृष्ठ 216) तथा सम्वत् 1940 में (आठ वर्ष पश्चात्) स्वामी दयानन्द जी का देहान्त हो गया।
-
स्वामी दयानन्द साधना हठयोग से करते थे। समाधिस्थ हुए नजर आते थे। जिससे भोले-भाले श्रद्धालुओं ने योगी पुरूष मान लिया। यदि स्वामी दयानन्द योगी होते तो मानव शरीर में बने चक्रों के विवरण को मिथ्या नहीं कहते।
-
एक दिन हठयोग कर रहे स्वामी जी के चरणों में किसी स्त्री ने महायोगी व परम सन्त जानकर श्रद्धा से सिर रख दिया। स्वामी दयानन्द घबरा कर उठे तथा माता-माता कहते हुए विरान जंगल में एक पुराने मंदिर में तीन दिन तीन रात निराहार रहे तब उनके मन की वासना शांत हुई।
-
यदि स्वामी दयानन्द जी आत्मज्ञानी तथा योगी होते तो स्त्री तथा पुरूष में भेद नहीं मानते और उनके मन में दोष नहीं आता।
आत्मज्ञानी महात्मा की स्थिती एैसी हो जाती है जैसे एक समय एक नगर में स्वांग हो रहा था। स्वांग में नर ही नारी की वेषभूषा पहनकर अभिनय करते थे। एक व्यक्ति भी स्वांग का खेल देखने गया। उसने अपने साथी से कहा देखो कितनी सुन्दर स्त्री है। उसके साथी को पता था कि यह स्त्री नहीं है पुरूष ही स्त्री की वेशभूषा धारण किए हुए है। साथी ने कहा ये स्त्री नहीं यह तो पुरूष है। नए दर्शक को विश्वास नहीं हुआ। स्वांग के उपरांत दोनों दर्शक अभिनेताओं के पीछे-2 उनके निवास स्थान पर गए। जहाँ सर्व पात्रों ने स्त्री की वेशभूषा उतार कर पुरूष वाली पहन ली। तब उस नए दर्शक को पता चला कि यह स्त्री नहीं पुरूष है। अगले दिन उस व्यक्ति को वह स्त्री वेशभूषा में पुरूष ही लग रहा था। स्त्री वाला आकर्षण नहीं रहा तथा मन का दोष भी नहीं रहा।
इसी प्रकार तत्वज्ञानी तथा आत्मज्ञानी महात्मा को ऊपर का वस्त्र (स्त्री व पुरूष का शरीर) स्पष्ट दिखाई देता है। स्त्री के शरीर (वस्त्र) युक्त जीवात्मा को भी अपना सजातिय ही समझता है। इसलिए आत्म ज्ञानी के मन में कोई दोष नहीं आता। जैसे श्री दयानन्द जी के दुषित अन्तःकर्ण में भरा था।
-
स्वामी दयानन्द जी हरिद्वार में तो सर्वधन व वस्तुओं को त्याग कर वैरागी तथा मौनी हो गए क्योंकि अधिक वस्तु संग्रह तथा धन संग्रह साधना में बाधक बन जाता है फिर मृत्यु काल में 700 रूपये तो कल्लु सेवक लेकर चम्पत हो गया। कुछ रूपये जगन्नाथ रसोईया को यात्रा खर्च देकर भगा दिया। आज (सन् 2006) से 123 वर्ष पूर्व सात सौ रूपये का आज के पांच लाख रूपये से भी अधिक मूल्य होता था। उस समय एक उच्च अधिकारी का मेहनताना पचास रूपये होता था। आज पचास हजार रूपये है। देसी घी उस समय चार आने (25 पैसे) का सेर (एक किग्रा.) आता था। आज 200 रूपये प्रति कि.ग्रा. (सेर) आता है। इस तुलना से सात सौ रूपये की कीमत आज(सन् 2006 में) पांच लाख से भी अधिक है।
-
स्वामी जी दुशाला ओढते थे, पैरों में जुराब तथा गले में स्फटिक की माला पहनते थे।
-
स्वामी जी कभी-2 घोड़ा बुग्गी में बैठकर यात्रा करते थे। सच्चखण्ड का संदेश 149
-
स्वामी दयानन्द जी की मृत्यु विष देने से नहीं हुई अपितु मिथ्याभाषण रूपी वाणी द्वारा किए पाप का दण्ड भोग था।
-
स्वामी दयानन्द जी की पूर्वोक्त पुस्तक ‘‘श्री मद् दयानन्द प्रकाश’’ में लिखे विवरण से स्पष्ट है कि उन्हें विष नहीं दिया गया था। वे पहले से ही कई दिनों से अस्वस्थ चल रहे थे। प्रतिदिन की तरह जगन्नाथ रसोईया से दूध पान किया। अर्धरात्री के पश्चात् स्वास्थ्य अधिक बिगड़ना प्रारम्भ हुआ। वैद्य ने दवाई दी जो प्रतिक्रिया (रियैक्शन) कर गई। फिर अन्य वैद्य बुलाया। परन्तु औषधी लाभ के स्थान पर हानि ही करती चली गई। तत्पश्चात् ‘‘सद्धर्म प्रचारक’’ समाचार पत्र में प्रकाशित लेख में जगन्नाथ सेवक पर संदेह किया गया है कि उसने स्वामी जी को किसी से रूपये प्राप्ति के लालच में विष दिया है। जिस रात्री को स्वास्थय अधिक बिगड़ा उस के चार दिन बाद तक श्री जगन्नाथ रसोईया स्वामी जी की सेवा में ही था। समाचार पत्र में पढ़कर किसी के कहने के पश्चात् स्वामी दयानन्द जी ने अपने विश्वास पात्र जगन्नाथ रसोईया से पूछा, उसके पश्चात् उसे यात्रा खर्च देकर भगा दिया। इससे सिद्ध है कि नौकर दोषी नहीं था। नहीं तो उसी रात चला जाता स्वामी दयानन्द जी को पता था कि जगन्नाथ निर्दोष है परन्तु अपनी मृत्यु सुनिश्चित जानकर तथा यह सोचकर कि मेरी मृत्यु के पश्चात् निर्दोष नौकर को दोषी बनाकर दण्डीत् न कर दें इसलिए अपने सेवक को भी बचा कर निकाल दिया था।
-
वास्तव में जब प्राणी के पूर्व जन्म के शुभ संस्कार समाप्त हो जाते हैं तथा वर्तमान में शास्त्रविधि अनुसार साधना पूर्ण संत से प्राप्त नहीं होती। उस व्यक्ति पर पाप कर्मों का दण्ड प्रभावी हो जाता है। जिसके कारण दुर्गती को प्राप्त होता है। यही कारण था जो स्वामी दयानन्द सरस्वती को महाकष्ट भोगना पड़ा। एक महीना (अश्वनी वदी 14 से कात्र्तिक वदी अमावस्या) तक स्वामी दयानन्द जी का मल-मुत्र वस्त्रों में ही निकल जाता था पूरे शरीर पर छाले पड़ गए थे मिथ्या भाषण रूपी वाणी द्वारा किए पाप के कारण उनकी जीभ पर छाले, मुंह में, कण्ठ में, माथे पर तथा सिर पर छाले पड़ गए थे पूरा शरीर गल गया था। दवाई ने दुष्प्रभाव (रियक्शन) कर दिया था। कष्ट के कारण अंत में अचेत होकर मृत्यु को प्राप्त हुए। ‘‘सत्यार्थ प्रकाश’’ समुल्लास 9 पृष्ठ 217 पर लिखा है कि वाणी द्वारा (मिथ्या भाषण आदि) किए पाप के कारण पक्षी तथा मृगादि पशुओं के शरीर में दुःख भोगता है इससे स्पष्ट है कि अगले जीवन में मिथ्याभाषण रूपी महापाप के कारण श्री दयानन्द जी का जीव पशु तथा पक्षीयों के शरीर में कष्ट उठा रहा होगा। यदि पूर्ण सन्त से शास्त्रविधि अनुसार साधना प्राप्त होती तो पूर्ण परमात्मा कविर्देव (कवीर परमेश्वर) उस पुण्यात्मा के इस पाप कर्म को क्षमा (नाश) करके सौ वर्ष की आयु प्रदान कर देता। जैसे ऋग्वेद मण्डल 10 सुक्त 161 मन्त्र 2 में तथा यजुर्वेद अध्याय 8 के मन्त्रा 13 में स्पष्ट है कि परमात्मा साधक के महापराध (महापाप) को भी नाश(क्षमा) कर देता है तथा रोगी के जीवन श्वांस शेष न रहे हों तो पूर्ण परमात्मा साधक को स्वस्थ करके सौ वर्ष की आयु प्रदान कर देता है। इससे सिद्ध है कि स्वामी दयानन्द जी को वेदों में वर्णित भक्तिविधि प्राप्त नहीं थी। अन्यथा वेद कथन अनुसार लाभ अवश्य प्राप्त होता। स्वामी दयानन्द हृदय विदारक पीड़ा के कारण मृत्यु को प्राप्त नहीं होते।
जैसे इन्वर्टर की बैटरी पहले चार्ज होती है। उससे बल्ब भी जलते हैं, पंखे भी चलते हैं यदि फिर से चार्ज नहीं किया जाए तो बैटरी डिस्चार्ज हो जाती है तथा अचानक सर्व लाभ मिलने बंद हो जाते हैं। यही दशा पूर्व जन्म के पुण्यकर्मी प्राणी की होती है। यदि उसे वर्तमान जीवन में शास्त्रविधि अनुसार साधना प्राप्त नहीं होती है तो जब तक पूर्व जन्म का पुण्य चलता है तो वह अच्छा महसूस करता है। फिर अचानक आपत्तियों से घिर जाता है। पूर्ण परमात्मा की वेदों अनुसार सत्य साधना मुझ दास (संत रामपाल दास) के पास है। जो स्वयं पूर्ण परमात्मा कर्विदेव (कबीर परमेश्वर) द्वारा प्रदत्त है। जिस कारण से लाखों भक्तों को नवजीवन प्राप्त हो चुका है। जिनका जीवन शेष नहीं था वे आज सर्व कार्य कर रहे हैं। जो उठ-बैठ नहीं सकते थे। वे बच्चे अपना सर्व कार्य कर रहे हैं।
‘‘शास्त्र विधी अनुसार साधना करने वाले को अन्त समय में कष्ट नहीं होताः-
-
आदरणीय सन्त गरीबदास जी महाराज ने बैठे-2 शरीर त्याग दिया था। पूर्ण स्वस्थ थे।
-
मुझ दास के पूज्य गुरू देव स्वामी रामदेवानन्द जी महाराज 24 जनवरी 1997 को मुझ दास के पास से जीन्द आश्रम से तलवण्डी भाई पंजाब में बने आश्रम में गए तथा 26 जनवरी 1997 का ‘‘सत साहेब’’ उच्चारण करते हुए दिन के 10 बजे शरीर त्याग दिया। उस समय उनकी आयु लगभग 108 वर्ष की थी, पूर्ण स्वस्थ थे। ऐसे-2 अनेकों प्रमाण हैं।
-
परमेश्वर कर्विदेव (कबीर प्रभु) ने मगहर (उत्तर प्रदेश) में हजारों दर्शकों के सामने स्वधाम गमन किया। शरीर के स्थान पर सुगंधित फूल मिले थे।
मुझ दास की प्रार्थना है कि समाज सुधार तथा आत्मा उद्धार तत्वज्ञान के आधार से पूर्ण संत से प्राप्त करके साधना करने से ही संभव है। कृप्या सर्व मतभेद भुला कर शास्त्रविधि अनुसार पूर्ण परमात्मा की साधना निःशुल्क अविलम्ब प्राप्त करके अपना तथा अपने परिवार का कल्याण कराएं। संत रामपाल दास महाराज