पूर्ण परमात्मा की साधना करने तथा समर्थता का सटीक वर्णन
अध्याय 2 के श्लोक 46 का अनुवाद - जिस प्रकार सब ओर से (पूर्ण रूप से) परिपूर्ण (बहुत बड़े पानी से भरे) जलाशय (तालाब) को प्राप्त हो जाने पर छोटे से तलईया (जलाशय) के प्रति जो आस्था रह जाती है इसी प्रकार तत्व ज्ञान को प्राप्त तत्वदर्शी सन्त की आस्था अन्य ज्ञानों में रह जाती है। तत्वज्ञान के आधार से तत्वदृष्टा सन्त को पूर्ण परमात्मा की जानकारी हो जाती है। जिस कारण से उसकी अन्य प्रभुओं (ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा क्षर ब्रह्म - परब्रह्म व देवी-देवताओं) में आस्था कम रह जाती है अर्थात् वह विद्वान पूर्ण परमात्मा के आश्रित हो जाता है। तीन लोक की साधना त्याग कर सतलोक की साधना करता है। पूर्व समय में सिंचाई तथा पीने के पानी का स्रोत जलाशय ही होता था। जो परिवार किसी छोटे तालाब पर निर्वाह कर रहा हो जिसका जल ग्रीष्म ऋतु में सूख जाता हो, वर्षा होने पर जल से भरता हो। यदि वर्षा न हो तो जल के अभाव से संकट निश्चित होता है। उस परिवार को बहुत बड़ा जलाशय (झील) प्राप्त हो जाए जिसका जल दस वर्ष वर्षा न होने पर भी समाप्त न हो। फिर उस परिवार की आस्था पहले वाले छोटे जलाशय में जैसी रह जाती है, वह छोटा जलाशय बुरा नहीं लगता परंतु उसकी क्षमता का ज्ञान है कि यह तो अस्थाई लाभ है तथा बड़ा जलाशय (झील) स्थाई लाभदायक है। वह परिवार तुरंत बड़े जलाशय के निकट अपना डेरा डाल लेता है। इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा सतपुरुष (कविर्देव) के लाभ को दिलाने वाला तत्वदर्शी संत मिलने के पश्चात् साधक की आस्था अन्य प्रभुओं में जैसे उपरोक्त छोटे जलाशय में रह जाती है, ऐसे रह जाती है। अन्य प्रभु बुरे भी नहीं लगते, परंतु उनकी क्षमता (शक्ति) का ज्ञान हो जाने से पूर्ण परमात्मा में स्वतः श्रद्धा अधिक बन जाती है। फिर साधक पूर्ण परमात्मा से ही लाभ प्राप्ति का प्रयत्न करता है, अन्य प्रभुओं की प्राप्ति की इच्छा नहीं करता। इसीलिए गीता ज्ञान दाता प्रभु ने श्रीमद्भगवत् गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि हे अर्जुन! तू सर्व भाव से उस परमात्मा की शरण में जा जिस की कृपा से तू परम शान्ति तथा शाश्वत् स्थान अर्थात् सत्यलोक (अविनाशी लोक) को प्राप्त होगा।
अध्याय 2 के श्लोक 47 में कहा है कि कर्म कर फल की इच्छा मत कर।
गीता अध्याय 2 श्लोक 48 से 50 तक का भाव है कि शास्त्रा विधि अनुसार भक्ति कर्म एक प्रभु का ही करना श्रेयकर है। आपको सिद्धि प्राप्त हो या न हो, इस बात को भूल जा, प्रभु जो करता है वह अच्छा ही होता है, यह ध्यान में रखकर साधना करता रह। पहले वाले सर्व शास्त्राविरूद्ध भक्ति कर्म त्याग दे, चाहे वे तुझे अच्छे भी लगते हैं तथा अन्य दुषित कर्म जैसे मास- मदिरा, तम्बाखु, चोरी-ठगी, व्याभीचार आदि भी त्याग कर तत्वदर्शी संत द्वारा बताए भक्ति मार्ग के प्रत्येक नियम का पालन करते हुए साधना करना ही बुद्धिमता है। सुकृत अर्थात् अच्छे कर्म जो चाहे साधक के दृष्टिकोण से अच्छे भी लगते हों उन्हें गुरु आदेश से त्याग देने से ही लाभ है (जैसे किसी को बुलाकर पाठ आदि करवाना, भिखारी को पैसे देना, वह भिखारी उन पैसों की शराब सेवन कर लेता है तो आपको ही दोष लगेगा।) एक भिखारी को एक धार्मिक व्यक्ति ने सौ रूपये अच्छे कर्म (पुण्य) जान कर दे दिए। पहले वह पाव (बोतल का चैथा भाग) शराब पीता था। उस दिन आधी बोतल उस भिखारी ने मदिरा सेवन किया तथा अपनी पत्नी को पीट डाला। उसकी पत्नी बच्चों सहित कुएँ में गिरकर मृत्यु को प्राप्त हुई। ऐसा अपनी सूझ-बूझ का अच्छा कर्म अर्थात् पुण्य भी नहीं करना चाहिए। केवल गुरुदेव के आदेश का पालन करना ही सत्य भक्ति में हितकर है।
अनामी (अनामय) लोक का प्रमाण अध्याय 2 के श्लोक 51 में।
अध्याय 2 के श्लोक 51 में स्पष्ट है कि जो भजन अभ्यास शास्त्रानुकूल अर्थात् मतानुसार (मतपरायण होकर) मेरे बताए अनुसार करता है वह सतलोक में जाकर फिर वहाँ से आगे अनामी (अनायम् पदम् गच्छन्ति) लोक को चला जाता है अर्थात् अनामी परमात्मा को प्राप्त हो जाता है अर्थात् जन्म-मरण का रोग समाप्त हो जाता है। अनामी पुरुष का प्रमाण कृप्या देखें इसी पुस्तक के पृष्ठ नं. 66 पर शब्द ‘कर नैनों दीदार महल में प्यारा है‘ की 29 नं. कड़ी -
तापर अकह लोक है भाई, पुरुष अनामी तहाँ रहाई। जो पहुँचेंगे जानेगा वाही, कहन सुनन ते न्यारा है।।29।।
जैसे साधक चार पदों (मुक्ति स्थानों) की प्राप्ति कर सकता है।
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देवी-देवताओं, पितरों, भूतों की साधना से इन्हीं को प्राप्त होता है। परंतु यह सबसे घटिया साधना पद (मुक्ति स्थान) प्राप्ति है। अध्याय 9 के श्लोक 25 के अनुसार। अध्याय 9 के श्लोक 25 का अनुवाद: देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं और मतानुसार अर्थात् शास्त्रा अनुसार पूजन करने वाले भक्त मुझको ही प्राप्त होते हैं।
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दूसरी गति या पद (मुक्ति स्थान) प्राप्ति तीनों गुणों (रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु, तमगुण-शिव) तथा अन्य देवी-देवताओं की पूजा है। यह पद (मुक्ति स्थान) प्राप्ति पूर्ण नहीं है अर्थात् घटिया है। अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 तथा 20.23 तथा अध्याय 14 के श्लोक 5 से 9 तक। कृप्या तीनों गुण क्या हैं? पढ़ें इसी पुस्तक के पृष्ठ 309 पर।
अध्याय 14 के श्लोक 5 का अनुवाद: हे अर्जुन! सत्वगुण, रजोगुण, तमगुण ये प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण अविनाशी जीवात्मा को शरीर में बाँधते हैं।
अध्याय 14 के श्लोक 6 का अनुवाद: हे निष्पाप! उन तीनों गुणों में सत्वगुण तो निर्मल होने के कारण प्रकाश करने वाला और नकली अनामी है। वह सुख के सम्बन्ध से और ज्ञान के सम्बन्ध से अर्थात् उसके अभिमान से बाँधता है।
अध्याय 14 के श्लोक 7 का अनुवाद: हे अर्जुन! रागरूप रजोगुणको कामना और आसक्तिसे उत्पन्न जान वह इस जीवात्माको कर्मोंके और उनके फलके सम्बन्ध से बाँधता है।
अध्याय 14 के श्लोक 8 का अनुवाद: हे अर्जुन! सब शरीरधारियों को मोहित करने वाले तमोगुण को तो अज्ञान से उत्पन्न जान। वह इस जीवात्मा को प्रमाद, आलस्य और निंद्रा के द्वारा बाँधता है।
अध्याय 14 के श्लोक 9 का अनुवाद: हे अर्जुन! सतगुण सुख में लगाता है और रजोगुण कर्म में तथा तमोगुण तो ज्ञान को ढककर प्रमाद में भी लगाता है।
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तीसरी गति अर्थात् पद (मुक्ति स्थान) प्राप्ति ब्रह्म साधना है जो वेदों व गीता जी के अनुसार करनी चाहिए। सर्व देवी-देवताओं तथा ब्रह्मा, विष्णु, महेश की अर्थात् तीनों गुणों की साधना त्याग कर एक ऊँ (ओंकार) नाम का जाप गुरु धारण करके करते हुए ब्रह्म लोक (महास्वर्ग) में साधक चला जाता है जो हजारों युगों तक वहाँ ब्रह्म लोक में आनन्द मनाता है। फिर पुण्यों के समाप्त होने पर मृतलोक में चैरासी लाख जूनियों में चक्र लगाता रहता है। यह भी गति-पद (मुक्ति) अच्छी नहीं है। इससे भी जीव पूर्ण रूप से सुखी नहीं। पूर्ण शांति को प्राप्त नहीं अर्थात् पूर्ण मुक्त नहीं है। परंतु इस ब्रह्म (काल) साधना से प्राणी अन्य पूजाओं से सौ गुणा सुखी है परंतु फिर भी काल (ब्रह्म-क्षर पुरुष) के जाल से मुक्त नहीं है। यह मुक्ति अच्छी नहीं अपितु व्यर्थ है। गीता जी के अध्याय 7 के श्लोक 18 में स्वयं काल कह रहा है कि ये सर्व ज्ञानी आत्मा हैं तो उदार, परंतु ये भी मेरी (अनुत्तमाम्) अति घटिया (गतिम्) मुक्ति में ही आश्रित हुए प्रसन्न हैं।
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चैथी गति यानि मुक्ति स्थान:- (गति-पद) है परब्रह्म (अक्षर पुरुष) की भक्ति से चैथी गति (पद यानि मुक्ति स्थान) को प्राप्त होता है। लेकिन परब्रह्म की साधना का ज्ञान वेदों व गीता जी में नहीं है। इनमें केवल ब्रह्म (क्षर पुरुष) तक की भक्ति तथा इसी की प्राप्ति का ज्ञान है। जैसे ऊँ मन्त्रा का जाप केवल ब्रह्म साधना है। इसलिए जो साधक परब्रह्म की भक्ति निर्गुण मान कर करते हैं वे भी काल के जाल में ब्रह्म लोक में ही चले जाते हैं। क्योंकि निर्गुण उपासक ऋषि जन मान लेते हैं कि हम परब्रह्म साधना कर रहे हैं, परंतु काल (ब्रह्म) तक का ही लाभ प्राप्त करते हैं। काल प्रभु ने महास्वर्ग में भिन्न-भिन्न प्रकार के लोकों की व्यवस्था कर रखी है। ब्रह्मलोक की प्राप्ति तीन लोक में सबसे उत्तम मानते हैं।
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पाँचवीं गति यानि मुक्ति स्थान:- पूर्ण परमात्मा का ज्ञान होने पर उसी परमात्मा प्राप्ति की साधना करते हैं। इसी प्रकार यह आत्मा तत्वदर्शी संत से उपदेश मंत्रा प्राप्त करके सत्य भक्ति की कमाई करके उसके आधार से सतलोक चली जाती है। यह वह स्थान है जहाँ प्राणी मानव रूप में आकार में रहता है। तेज पुंज का शरीर हो जाता है। इतना नूरी शरीर बन जाता है मानो 16 सूर्यों जितनी रोशनी हो। यहाँ पर गए प्राणी (आत्मा) कभी नहीं मरते। सतलोक में हंस पुरूष को तथा हंसनी स्त्राी को कहते हैं।
सतलोक वह स्थान है जिसमें हंस आत्मा आकार में मौज करती है। सतलोक से आगे अलख लोक है, अलख लोक में अलख पुरुष का राज्य है, अलख लोक से आगे अगम लोक है, अगम लोक में अगम पुरुष का राज्य है। अगम लोक से आगे अकह लोक अर्थात् अनामी लोक है। इसमें अनामी परमात्मा (पुरुष) का राज्य है। ऊपर के तीनों लोकों में एक ही परमात्मा (पूर्णब्रह्म कविर्देव) है वह तीन स्थितियों में रहता है। जैसे भारत के प्रधान मंत्राी जी के शरीर का नाम कुछ और होता है, परंतु प्रधान मंत्राी उनका पद का उपमात्मक नाम होता है। कई बार प्रधान मंत्राी जी अपने पास अन्य विभाग रख लेता है। जैसे गृह विभाग अपने पास रख लिया। जब गृह मंत्रालय के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करता है तो अपने को गृह मंत्राी लिखता है, उस समय उनकी शक्ति प्रधान मंत्राी वाले हस्ताक्षरों से कहीं कम होती है। ठीक इसी प्रकार पूर्ण ब्रह्म सतपुरुष का वास्तविक नाम कविर्देव भाषा भिन्न होने से कबीर,कबीरन्, खबीरा, हक्का कबीर, सत कबीर वास्तविक नाम है तथा उपमात्मक नाम से वह परमात्मा अलख लोक में अलख पुरुष बन कर, अगम लोक में अगम पुरुष बन कर, अकह लोक में अनामी (अनामय) बन कर रहता है जो आत्मा सतलोक में जा कर अनामी पुरुष की साधना करती है वह आत्मा भक्ति के कारण उस परमात्मा (अनामी-अनामय) की परम गति को प्राप्त हो कर भगवान में लीन हो जाती है। अध्याय 2 के श्लोक 51 में - ‘अनामयम् पदम् गच्छन्ति‘ अर्थात् पूर्ण रूप से जन्म-मरण रूपी दीर्घ रोग से रहित हो कर अनामी (अनामय) पद यानि मुक्ति स्थान को प्राप्त हो जाता है इसको अनामय पद प्राप्ति कहा है। यहाँ प्रत्येक ब्रह्मण्ड में क्षर पुरुष (काल) ने सतलोक की नकल करके नकली (क्नचसपबंजम) लोक बना रखे हैं। ज्योति निरंजन (ब्रह्म) ने प्रत्येक ब्रह्मण्ड में एक ब्रह्मलोक की रचना करवा रखी है। इसी ब्रह्मलोक में तीन गुप्त स्थानों की भी रचना करवा रखी है। एक सतोगुण प्रधान, दूसरा रजोगुण प्रधान, तीसरा तमोगुण प्रधान। इसी ब्रह्मलोक में एक महास्वर्ग की रचना करवा रखी है। उसी महास्वर्ग में नकली सतलोक, नकली अलख लोक, नकली अगम लोक व नकली अनामी लोक की रचना भी प्रकृति दुर्गा से करवा रखी है। इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में भी नकली चारों लोकों की रचना करवा रखी है। यह प्राणियों को धोखे में रख कर वास्तविकता का पता नहीं लगने देता है। स्वयं कविर्देव (कबीर परमेश्वर) आकर अपनी सर्व जानकारी देते हैं।
प्रश्न:- मुक्तियों के विषय में तो शास्त्रों में लिखा है कि मुक्ति चार है।
(1) सालोक्य=ईश्वर के लोक में निवास करना (2) सारूप्य = जैसा उपासनीय देव की आकृति वैसा बन जाना (3) सामिप्य=सेवक के समान उपासनीय देव के पास रहना (4) सायुज्य=उपास्य देव के साथ संयुक्त हो जाना। आप ने चार मुक्ति भिन्न बताई हैं तथा पाँचवी मुक्ति भी बताई है। जिस के विषय में कभी नहीं सुना व कहीं नहीं पढा।
उत्तर:- जो ये चार मुक्तियाँ बताई हैं, वे उपास्य देव की साधना से होती हैं। इसलिए बताई हैं। प्रत्येक प्रभु या देवताओं की साधना से ये चारों उपरोक्त (जो प्रश्न में बताई हैं) मुक्तियों में से एक साधक को प्राप्त होती है तथा पांचवी मुक्ति का ज्ञान स्वसम वेद में है।