हिन्दू धर्म शास्त्र क्या बताते हैं? (What Hindu Religious Scriptures tell us)
हिन्दू धर्म यानि सनातन पंथ (धर्म) के व्यक्ति (स्त्राी-पुरूष) पवित्र चारों वेदों, पवित्र 18 पुराणों, पवित्र श्रीमद्भगवत् गीता (गीता को चारों वेदों का साररूप मानते हैं तथा सर्व शास्त्रों का निष्कर्ष मानते हैं) तथा सुधा सागर व उपनिषदों को सत्य शास्त्रा मानते हैं। इनका यह भी मानना है कि हमारे गुरुजनों ने इन सर्व शास्त्रों को ठीक से जाना है और हमारे को इन शास्त्रों में वर्णित भक्ति-साधना ही बताई है। सामान्य हिन्दू भक्त व भक्तमति श्रीमद्भगवत गीता को अधिक महत्व देते हैं क्योंकि गीता का हिन्दी अनुवाद वर्षों से पढ़ने को मिल रहा है जो अधिक विस्तार वाला भी नहीं है क्योंकि चारों वेदों में 18 हजार (अठारह हजार) श्लोक (मन्त्र) हैं। गीता शास्त्रा में केवल सात सौ (700) श्लोक हैं। इसलिए गीता को सर्वोत्तम मानते हैं। उसको हिन्दू धर्म के धर्मगुरु भी अपना पाठ्यक्रम मानते हैं। इसी के साथ-साथ सुधा सागर (श्रीमद् भागवत) को भी विशेष महत्व देते हैं जिसमें श्री कृष्ण जी की जीवन लीलाऐं अधिक हैं। कुछ पुराणों को सामान्य भक्त पढ़ते हैं जैसे श्री देवी पुराण, श्री विष्णु पुराण, श्री शिव पुराण, श्री ब्रह्मा पुराण, श्री गरूड़ पुराण, श्री मारकण्डेय पुराण आदि-आदि।
मैंने (लेखक ने) इन सर्व शास्त्रों का अध्ययन गहनता से किया है। इनके साथ-साथ पाँचवें वेद यानि सूक्ष्म वेद को भी ठीक से समझा है। (पाँचवां वेद क्या है? यह भी आप जी ने इसी पुस्तक में पढ़ा है, पहले उपरोक्त शास्त्रों से साधना की सत्यता प्रमाणित करता हूँ।)
श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में कहा है कि जो साधक शास्त्राविधि को त्यागकर मनमाना आचरण करता है यानि जो साधना शास्त्रों में वर्णित है, उसी के विपरित साधना करना मनमाना आचरण कहा जाता है। उस मनमाने आचरण करने वाले को न तो सुख की प्राप्ति होती है, न सिद्धि यानि अध्यात्म शक्ति प्राप्त होती है, न उसकी गति होती है। (इन तीन चीजों के लिए ही साधक साधना करता है। यदि जिस साधना के करने से ये तीनों लाभ नहीं मिलते तो वह साधना व्यर्थ है।)
श्री गीता अध्याय 16 श्लोक 24:- इससे तेरे लिए अर्जुन! कत्र्तव्य यानि जो साधना करनी चाहिए तथा अकत्र्तव्य यानि जो नहीं करनी चाहिए, की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण हैं। भावार्थ है कि जो धार्मिक क्रियाऐं करने का निर्देश धर्म के पवित्र शास्त्रों में वर्णित है। वे ही धाार्मिक क्रियाऐं करनी चाहिए, अन्य को अकत्र्तव्य जानकर त्याग देना चाहिए।
कबीर परमेश्वर (कविर्देव) जी ने कहा है कि:-
कबीर, पीछे लागा जाऊं था, लोकवेद के साथ।
रास्ते में सतगुरु मिल गये, दीपक दीन्हा हाथ।।
शब्दार्थ:- परमात्मा कबीर जी ने सूक्ष्म वेद का ज्ञान अपने मुख कमल से बोली वाणी में बताया है। अपने को पात्र बनाकर भक्त समाज को समझाया है कि जब तक सतगुरु (वेद-शास्त्रों का यथार्थ ज्ञाता गुरु) नहीं मिलता, तब तक पूर्व जन्मों के शुभ संस्कारों से प्रेरित साधक लोकवेद (सुना-सुनाया ज्ञान जो शास्त्र प्रमाणित ना हो यानि क्षेत्रीय ज्ञान (दंतकथाओं) के आधार से साधना करता रहता है। उस शास्त्राविधि विरूद्ध साधना के सफर में जिस समय सतगुरु मिल जाता है तो सतगुरू शास्त्रोक्त ज्ञान यानि तत्वज्ञान रूपी दीपक दे देता है। जिसके प्रकाश में साधक अंध श्रद्धा भक्ति जो अज्ञान अंधेरे में कर रहा था, दिशाहीन भटक रहा था, को त्यागकर सीधे भक्ति मार्ग पर चल पड़ता है जो लाभदायक है। जिसके करने से गीता अध्याय 23 में कहे तीनों लाभ (सुख, सिद्धि तथा मोक्ष) प्राप्त होते हैं जिसके करने से भक्ति का यथार्थ लाभ मिलने से मानव जीवन सफल हो जाता है। इसके विपरित मनमाना आचरण जो शास्त्र विरूद्ध के आधार से साधना करने से अनमोल मानव जीवन नष्ट हो जाता है।
कबीर जी ने सूक्ष्म वेद के ज्ञान को इस प्रकार बताया है:-
कबीर, मानव जन्म दुर्लभ है, मिले ना बारम्बार।
जैसे तरवर से पत्ता टूट गिरे, बहुर ना लगता डार।।
कबीर, कहता हूँ कहि जात हूँ, कहूं बजा कर ढ़ोल।
स्वांस जो खाली (नाम बिना) जात है, तीन लोक का मोल।।
शब्दार्थ:- परमात्मा कबीर जी ने बताया है कि मानव शरीर (स्त्राी-पुरूष) का बहुत युगों के पश्चात् प्राप्त होने से दुर्लभ है। परमात्मा शुभ संस्कारी प्राणी को मानव शरीर संस्कारी कार्यों के साथ शास्त्रोक्त भक्ति करके अपने जीवन का मोक्ष कराने के लिए देता है। यदि मानव शरीर प्राप्त प्राणी भक्ति नहीं करता या शास्त्राविरूद्ध भक्ति करता है तो उसके प्रत्येक स्वांस व्यर्थ नष्ट हो रहे हैं। प्रत्येक प्राणी को स्वासों के आधार से जीवन प्राप्त होता है। प्रत्येक स्वांस (लेने-छोड़ने) से मानव का जीवन कम होता है। सूक्ष्मवेद में कहा है कि मानव के इस एक स्वांस का मूल्य तीनों लोकों (पृथ्वी, स्वर्ग, पाताल) के समान है यानि अनमोल (बेशकीमती) है जो सत्य साधना बिना नष्ट हो रहा है। इसलिए सत्य साधना शास्त्र के अनुसार करके अपने अनमोल मानव जीवन को सफल बना। संसारिक भूल-भूलैया में उलझे मानव अध्यात्म ज्ञान से अपरिचित होने के कारण बिना भक्ति या शास्त्र के विरूद्ध साधना करके मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। वे संसार तथा परिवार से सदा के लिए ऐसे दूर हो जाते हैं जैसे वृक्ष की टहनी का पता टूटकर गिर जाता है जो उस स्थान पर स्थापित कभी नहीं हो सकता यानि मानव शरीर शीघ्र प्राप्त नहीं होता। वह जीव परमात्मा के दरबार (कार्यालय) में अपने शुभ-अशुभ कर्मों को देखकर अपनी गलतियों को समझकर बहुत रोता है। परमात्मा से विनय करता है कि भूल हुई क्षमा करो। मैंने शास्त्रविरूद्ध भक्ति की या बिल्कुल ही नहीं की। मुझे एक मानव जीवन और दे दो, अबकी बार कोई गलती नहीं करूंगा। पूर्ण गुरु की खोज करके संसारिक कार्यों के साथ-साथ भक्ति अवश्य करूंगा। क्षमा करो-क्षमा करो। परमात्मा कहते हैं कि देख तेरे पूर्व के मानव जन्मों की क्टक्, तू हर बार यही गलती करता रहा है। अब तो अपने पाप कर्मों का फल नरक में, फिर पशु-पक्षियों के शरीर में भोग। फिर कभी मानव जीवन का दाॅव लगे तो सतभक्ति अवश्य करना। वहाँ जाकर वह ज्ञान सत्य लगता है जो पृथ्वी पर अपने शास्त्रा बताते हैं या तत्वदर्शी संत (पूर्ण गुरु=सतगुरु) बताते हैं कि जीव को मानव शरीर मिलना बड़ा दुर्लभ है। यह अवसर बार-बार नहीं मिलता। यदि मानव जीवन में सतभक्ति (शास्त्रोक्त साधना) नहीं की तो पशु तुल्य जीवन जीकर प्राणी संसार से चला जाता। आगे परमात्मा का न्यायधीश यानि संत भाषा में धर्मराय पूरे मानव जीवन में किये कर्मों का हिसाब लेता है। वहाँ पर जो सतभक्ति करते हुए आजीवन मर्यादा में रहकर शरीर त्याग कर जाते हैं। उनका हिसाब देखकर धर्मराय प्रसन्न होता है। उनको सम्मान के साथ ऊँचे सिंहासन पर बिठाता है। जो मानव शरीरधारी प्राणी या तो भक्ति बिल्कुल नहीं करता या शास्त्रविरूद्ध मनमाना आचरण यानि व्यर्थ भक्ति करके शरीर त्याग करके धर्मराज के समक्ष उपस्थित किया जाता है। उसके शुभ-अशुभ कर्मों को देखता है तो दुःखी होता है कि हे भोले प्राणी! ऐसा सुनहरा अवसर (golden chance) गंवाकर आ खड़ा हुआ। देख तेरे पाप कर्म! कोई भी भक्ति या शुभ कर्म नहीं है। वह प्राणी जो शास्त्राविरूद्ध साधना करता था और झूठा गुरु भी बनाया था, वह कहता है कि प्रभु! मैंने तो गुरु जी बताए अनुसार तन-मन-धन से आपकी भक्ति की थी। मेरा कोई भी भक्ति कर्म मेरे खाते में किस कारण से जमा नहीं है। धर्मराज जी उसे बताता है कि आपके धर्मगुरु शास्त्रों से परिचित नहीं हैं। उन्होंने अपना भी मानव जीवन नष्ट किया तथा हजारों-लाखों भोले अनुयाईयों को भी शास्त्राविरूद्ध साधना बताकर उनका पाप भी अपने सिर पर धर लिया। वे अनुयाई भी अपना मानव जीवन नष्ट कर गये।
जो साधक जो फर्जी गुरु से दीक्षा लेकर साधना करके धर्मराय दरबार में जाता है, वह निवेदन करता है कि भगवन! इसमें मेरा क्या दोष है? मुझे सजा क्यों मिली। मैंने तो उसे पूर्ण गुरु मानकर साधना की है। धर्मराज जी बोले कि देख! तेरे जीवन के चलचित्र (DVD), इसमें यह कबीर दास नामक पूर्ण गुरु तेरे से कह रहा है कि आपकी भक्ति शास्त्रा के विपरित है। आपके गुरु जी तत्वज्ञान नेत्रहीन अंधे हैं। इनके पास मोक्ष मार्ग नहीं है। मेरे पास शास्त्रोक्त सत्य साधना है। इस फर्जी गुरु को त्यागकर मेरी शरण में आ जा। तेरा कल्याण हो जाएगा। आपने क्या कहा, सुन ले। चलचित्र में कह रहा है कि हे महात्मा! आप स्वार्थी लगते हो। आप चाहते हो कि मैं अपने गुरु को त्यागकर तेरा शिष्य बन जाऊँ। दक्षिणा के लोभी! मेरे गुरु के विषय में कुछ मत कहना नहीं तो मैं झगड़ा कर दूँगा। उसने फिर भी नम्रता से कहा कि आपके साथ आपका फर्जी बहुत बड़ा धोखा कर रहा है। आपको धर्मराज के दरबार में पश्चाताप् करना पड़ेगा। धर्मराज जी ने कहा कि हे मूर्ख जीव! आपने उस पूर्ण गुरु से विनयपूर्वक जानना चाहिए था कि हे महात्मा जी! हमारी साधना शास्त्राविरूद्ध है। इसका आपके पास क्या प्रमाण है? फिर वह आपको शास्त्रों से प्रमाणित करता। आप अपनी आँखों देखते और झूठे गुरु को त्यागकर शास्त्रोक्त सत्य साधना करते तो आज ये दिन नहीं देखने पड़ते। आपने तो अंध श्रद्धा भक्ति के आधार से जीवन नष्ट किया है। आपका यह दोष है। यदि आप कुमार्ग पर जा रहे हो और रास्ते में आपसे कोई सज्जन पुरूष कहे कि आप गलत मार्ग पर जा रहे हो। आपके घर जाने का यह मार्ग नहीं है। आपको किसी ने गलत राय दी है तो आपको चाहिए कि उस सज्जन पुरूष से जानें कि मुझे सच्चा रास्ता बताओ जिस पर मैं विश्वास कर सकूँ, ऐसा प्रमाण बताऐं। वह सज्जन पुरूष आपको आपकी डायरी में लगा मानचित्र (map) दिखाकर कहे कि आप दिल्ली से चलें है और मथुरा जाना है। यह देखो आप तो हिसार के बस स्टैण्ड के पास खड़े हो ‘‘तब आप क्या करोगे’’? उस प्रमाण को देखकर आप उस गलत मार्ग बताने वाले को कोसोगे तथा कहोगे कि ‘‘उस जालिम को क्या मिला, मेरा इतना समय नष्ट कर दिया?’’ क्या आप उसे अच्छा व्यक्ति कहोगे? जीव बोला ‘‘कभी नहीं’’। धर्मराज बोला, हे बेटा/बेटी! यही दशा उन फर्जी गुरुओं की जानों जो आपके अनमोल जीवन को नष्ट कर रहे हैं। कबीर जी ने सूक्ष्म वेद का ज्ञान बताया है:-
मोती मुक्ता दर्शत नाहीं, यह जग है सब अंध रे।
दीखत के तो नयन चिशम हैं, फिरा मोतिया बिंद रे।।
शब्दार्थ:- कबीर परमेश्वर जी ने कहा है कि जो फर्जी गुरु हैं, वे ऐसे हैं जैसे किसी व्यक्ति की आँखों में मोतिया बिंद का रोग लगा होता है तो उसकी आँखें स्वस्थ दिखाई देती हैं। लगता है कि इसे सब कुछ साफ दिखाई दे रहा है। परन्तु वह निपट अंधा होता है। यही दशा फर्जी धर्मगुरुओं की है। वे धारावाहिक संस्कृत बोलते हैं। शास्त्रों के प्रमाण बताकर अपनी भक्ति को सत्य बताते हैं, परंतु इनको शास्त्रों का कुछ भी ज्ञान नहीं है। संस्कृत के विद्धान बनकर आपजी को धोखा देते हैं। आप (भक्त समाज) इनको महाविद्वान, महामण्डलेश्वर, गीता मनीषि, पूर्ण गुरु माने बैठे हो, परंतु इनको अपने हिन्दू धर्म के शास्त्रों का ही ज्ञान नहीं है। हिन्दू धर्म के वर्तमान के सब गुरुजन, आचार्य, शंकराचार्य, सर्व अखाड़ों के महंत, महामण्डलेश्वर तथा जो गीता मनीषि की उपाधि प्राप्त हैं, आदि-आदि सभी शास्त्राज्ञान नेत्रहीन हैं यानि इनको आध्यात्मिक मोतियाबिंद हुआ है। वर्तमान में मेरे (लेखक यानि रामपाल दास परमेश्वर पंथी के) अतिरिक्त सबको आध्यात्मिक मोतियाबिंद का रोग है। इनको अपने हिन्दू धर्म के शास्त्रों का ही ज्ञान नहीं है। करोड़ों अनुयाईयों को दिग् भ्रष्ट किए हुए हैं। स्वयं भी यथार्थ भक्ति दिशा से भटके हैं। वे अपना भी जीवन नष्ट कर रहे हैं तथा जो अनुयाई इनको पूर्ण गुरु मानकर धोखे में पड़े हैं। उनको भी अपने पीछे लगाकर नरक में गिराने चले हैं। कबीर जी ने फिर सूक्ष्मवेद का ज्ञान बताया है कि:-
सच्चा सतगुरु कोए ना करही, झूठो जग पतियावै।
अंधे की बांह गही अंधे ने, सत मार्ग कौन बतावै।।
शब्दार्थ:- कबीर परमात्मा जी ने बताया है कि सच्चे मार्गदर्शक गुरु से कोई दीक्षा नहीं लेता। इसके विपरित झूठे गुरुओं पर यह भक्त समाज विश्वास कर रहा है। इनकी तो यह दशा है जैसा एक अंधे (मोतिया बिंद वाले) ने अपने को आँखों वाला घोषित कर रखा है और उसको स्वस्थ आँखों वाला मानकर अनेकों नेत्रहीन उसका हाथ पकड़कर एक-दूसरे को अपना हाथ पकड़ाकर निश्चित होकर बाग में जाने के उद्देश्य से चल रहे हैं। उनको कोई आँखों वाला रास्तें में रोककर पूछे कि हे सूरदासो! कहाँ को चले? उत्तर मिले कि हम बाग में जा रहे हैं। आँखों वाला बताऐ कि यह रास्ता तो घोर जंगल में जाता है जिसमें अनेकों घातक सिंह, चीते व भालू जैसे पशु तथा सर्प, बिच्छू जैसे भयंकर जीव हैं। आप सबकी जीवन लीला समाप्त कर देंगे। आपको मैं बाग का मार्ग बता सकता हूँ। वे सब अंधे उस सज्जन पुरूष से कहते हैं कि हमारे गुरु जी आँखों वाले हैं। वे सही दिशा में हमें ले जा रहे हैं। हम तेरी बातों में आने वाले नहीं हैं। देखते-देखते वे सबके सब जंगल में गहरे चले गये। रात्रि के समय जंगली जानवरों ने सबको नोंच-नोंचकर खा लिया, उनकी जीवन लीला का अंत कर दिया।
इसी प्रकार उन अंध श्रद्धावानों व उनके झूठे गुरुओं का अनमोल मानव (स्त्राी-पुरूष) का जीवन नष्ट हो जाता है। आप सब धर्मगुरुओं तथा आपके अनुयाइयों को मोतियाबिंद का रोग लगा है। आप अपने धर्म शास्त्रों के ज्ञान से अपरिचित हैं यानि अध्यात्म ज्ञान नेत्रहीन है। आप सब (गुरुओं तथा अनुयाईयों) का मोतियाबिंद का उपचार विश्व में केवल मेरे (लेखक रामपाल दास सतलोक आश्रम बरवाला, जिला हिसार, हरियाणा) पास है। अविलंब आकर समय रहते अपने आध्यात्मिक ज्ञान रूपी मोतिया बिंद का उपचार निशुल्क करवाऐं, बंदा हाजिर है। आपका शुभचिंतक आपका दास, आपका मित्र खास हूँ। इन बातों को पढ़कर चिंगरना मत (क्रोध ना करना) मस्तिष्क पर जोर देना। मेरे साथ झगड़ा ना करना। यदि आपको कुछ गलत लगे तो कोर्ट की शरण लेना। ध्यान रखना कि विवाद निपटाने के लिए आपजी को हिसार कोर्ट में अर्जी लगानी पड़ेगी। यदि सर्वोच्च न्यायालय में लगानी है तो आप दिल्ली के लिए स्वतंत्र हैं। यदि हाई कोर्ट में लगानी है तो आप पंजाब व हरियाणा हाई कोर्ट चण्डीगढ़ में ही शरण ले सकते हैं। कोर्ट में आपको सब प्रमाण दिखाकर आपको साधना शास्त्रों से गलत प्रमाणित करके आपजी को सत्य स्वीकार करने के लिए निवेदन कोर्ट में भी करूँगा। दावे के साथ कहता हूँ कि दूसरा विकल्प यह है कि आप हमारे आश्रम की वेब साईट https://www.jagatgururampalji.org/publications पर जाऐं। उससे निशुल्क मेरे प्रवचनों की डी.वी.डी प्राप्त करें। मेरे द्वारा लिखी पुस्तक ‘‘गीता तेरा ज्ञान अमृत’’, ‘‘जीने की राह’’, ‘‘भक्ति से भगवान तक’’ तथा अन्य पुस्तक मेरे प्रवचनों से लिखी ‘‘ज्ञान गंगा’’ आदि निःशुल्क इसी वेबसाईट से डाउनलोड करके पढ़ें, सत्संग देखें-सुनें। आपके आध्यात्मिक अज्ञान रूपी मोतियाबिंद का उपचार निःशुल्क हो जाएगा। फिर मेरे पास आश्रम में आकर शास्त्रोक्त सत्य साधना प्राप्त करके अपना मानव जीवन धन्य बनाऐं। अपने झूठे गुरुओं को समझाकर उनको भी मेरे (रामपाल दास) से दीक्षा दिलाकर उन दिग् भ्रष्ट गुरुओं का भी कल्याण कराऐं।
प्रिय पाठको! आपजी को बता दूँ कि पूरे हिन्दू धर्म (सनातन पंथ) के वर्तमान के धर्मगुरु तथा अनुयाई देवी-देवताओं की पूजा करते और करवाते हैं। कुल तेतीस करोड़ देवता माने गये हैं तथा इतनी ही इनकी धर्म पत्नियाँ (देवियाँ) हैं। देवताओं का राजा इन्द्र को कहते हैं (देवराज इन्द्र कहते हैं) जो केवल स्वर्ग का राजा है जिसकी आयु बहत्तर (72) चैकड़ी युग यानि 72 चतुर्युग की है। इनके अतिरिक्त तीन प्रधान देवता हैं जिनके शुभ नाम इस प्रकार हैं:-
- श्री ब्रह्मा जी (रजगुण)
- श्री विष्णु जी (सतगुण)
- श्री शिव शंकर जी (तमगुण)
मारकण्डेय पुराण में पृष्ठ 123 पर लिखा है कि श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री शिव जी ब्रह्म के प्रधान देवता हैं। यही तीन देवता हैं, यही तीन गुण हैं यानि तीन गुण (रजगुण, सतगुण, तमगुण) प्रकरण वश तीन देवताओं श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री शिव शंकर का बोध करवाते हैं। उदाहरण के लिए गीता अध्याय 7 श्लोक 12-15 में गीता ज्ञान दाता ब्रह्म ने कहा है कि तीनों गुणों द्वारा जो हो रहा है (रजगुण ब्रह्मा से उत्पति, सतगुण विष्णु से स्थिति तथा तमगुण शिव जी से संहार) उसका निमित्त मैं ही हूँ क्योंकि काल ब्रह्म को श्रापवश एक लाख मानव शरीरधारी प्राणियों को खाना पड़ रहा है। (इसलिए काल ब्रह्म ने अपने तीनों पुत्रों (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव जी) को अपने खाने की व्यवस्था करने के लिए ये तीन कार्य दिये हैं। वह स्वयं इन तीनों से भिन्न-भिन्न गुप्त स्थानों पर रहता है।
इस विषय में आप जी सम्पूर्ण ज्ञान इसी पुस्तक के पृष्ठ 208 पर सृष्टि रचना में पढ़ेंगे।) इसलिए कहा है कि परंतु ये मुझमें तथा मैं इनमें नहीं हूँ। (गीता अध्याय 7 श्लोक 12)
गीता अध्याय 7 श्लोक 13:- इन तीनों गुणों यानि रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिव जी के कार्य रूप के कारण इन तीनों प्रकार के भावों से यह सारा संसार इन्हीं पर मोहित हो रहा है यानि तीनों देवताओं के कार्यों उत्पत्ति, स्थिति तथा संहार से प्रभावित होकर इन्हीं तीनों को ईष्ट रूप में मानकर इन्हीं पर आसक्त हो रहे हैं। इन तीनों देवताओं से परे मुझे नहीं जानते। (गीता अध्याय 7 श्लोक 13)
गीता अध्याय 7 श्लोक 14:- क्योंकि यह आलौकिक अर्थात् अति अदभुत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है यानि श्री ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव द्वारा फैलाया मोह-ममता का जाल बड़ा भयंकर है। जो केवल मुझ काल ब्रह्म को भजते हैं, वे इस माया को उल्लंघन कर जाते हैं यानि इस संसार से तर जाते हैं। भावार्थ है कि जो इन तीनों देवताओं की भक्ति त्यागकर काल भगवान की ईष्ट रूप में भक्ति करते हैं, वे ब्रह्म लोक में चले जाते हैं। उनका स्वर्ग समय तीनों देवताओं की भक्ति से प्राप्त स्वर्ग सुख (जो देवताओं के पास जाकर इनके पुजारी स्वर्ग सुख भोगते हैं) से बहुत अधिक है। परंतु ब्रह्मलोक गये साधक भी पुनरावृत्ति यानि जन्म-मरण में हैं। प्रमाण के लिए देखें गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में। (गीता अध्याय 7 श्लोक 14)
गीता अध्याय 7 श्लोक 15:- माया (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव की भक्ति से मिलने वाले क्षणिक स्वर्ग समय को ही पूर्ण लाभ मानकर इसी) लाभ से जिनका ज्ञान हरा जा चुका है यानि इनके पुजारी उनसे अन्य किसी अन्य प्रभु को महत्व नहीं देते। इस कारण से इनका यथार्थ आध्यात्मिक ज्ञान हरा जा चुका है। ऐसे असुर स्वभाव को धारण किये हुए मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म (दुष्कर्म) करने वाले, मूढ़ (मूर्ख) लोग मुझको (काल ब्रह्म को यानि ब्रह्मा, विष्णु, शिव के पिता को) नहीं भजते। (वे तीनों गुणों यानि ब्रह्मा, विष्णु, शिव की भक्ति करते हैं।) (गीता अध्याय 7 श्लोक 15)
गीता अध्याय 7 के ही श्लोक 20=23 में भी स्पष्ट किया है कि:-
उन-उन भोगों की कामना द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है। (वे लोग) अपने स्वभाववश प्रेरित होकर उस-उस नियम को धारण करके यानि जिस देवता की पूजा के लिए नियम क्षेत्र में लोक वेद के आधार से प्रसिद्ध है, उस विधि के अनुसार अन्य देवताओं को भजते हैं अर्थात् पूजा करते हैं। (गीता अध्याय 7 श्लोक 20)
गीता अध्याय 7 श्लोक 21:- काल ब्रह्म स्पष्ट कर रहा है कि जो भक्त जिस-जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है। उस-उस भक्त की श्रद्धा को मैं उसी देवता के प्रति स्थिर करता हूँ। (गीता अध्याय 7 श्लोक 21)
भावार्थ:- काल ब्रह्म ने ऊपर के श्लोकों गीता अध्याय 7 श्लोक 12-15 तथा 20 में स्पष्ट कर दिया है कि तीनों देवताओं के पुजारियों का ज्ञान हरा जा चुका है। वे इन्हीं से प्राप्त होने वाले अस्थाई लाभ पर मोहित (आसक्त) हैं। ये राक्षस स्वभाव को धारण किये हुए मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले (दुष्कर्मी) मूर्ख मेरी भक्ति नहीं करते। जब देख लिया कि ये मूर्ख इन देवताओं के जाल से नहीं निकलना चाहते तो जो जिस देवता को ईष्ट रूप में भजना चाहता है उसकी आस्था उसी में मैं दृढ़ करता हूँ कि नहीं मानते तो पड़ो कुऐं में।
गीता अध्याय 7 श्लोक 22:- काल ब्रह्म ने स्पष्ट किया है कि इन देवताओं को मैंने कुछ शक्ति दे रखी है। उसी से ये देवता अपने पुजारियों की कुछ मनोकामना सिद्ध कर देते हैं यानि उन देवताओं की पूजा से कुछ अस्थाई लाभ प्राप्त करते हैं। श्लोक 23 में स्पष्ट कर दिया है कि:-
गीता अध्याय 7 श्लोक 23:- परन्तु उन अल्प बुद्धि वालों का यानि अज्ञानियों का वह फल नाश्वान है। देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं। मेरा भक्त मुझे ही प्राप्त होता है।
गीता अध्याय 9 श्लोक 23:- हे अर्जुन! यद्यपि श्रद्धा से युक्त जो भक्त दूसरे देवतों को पूजते हैं। वे भी मुझको ही पूजते हैं। (क्योंकि इसी के द्वारा दी कुछ शक्ति से देवता अपने पुजारी को अस्थाई यानि छोटा-मोटा लाभ देते हैं। इसलिए काल ब्रह्म ने कहा है कि वह भी मेरी ही पूजा है।) परन्तु वह अविधिपूवर्क यानि शास्त्राविधि के विपरीत हैं। (जिसे गीता अध्याय 16 श्लोक 23 में व्यर्थ बताया है।)
गीता अध्याय 9 श्लोक 25:- इस श्लोक में काल ब्रह्म ने कई शंकाओं का समाधान कर दिया है। कहा है कि जो देवताओं की पूजा करते हैं, वे देवताओं को प्राप्त होते हैं। (यही प्रमाण गीता अध्याय 7 श्लोक 23 में भी है)
पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होंगे। (यानि जो श्राद्ध कर्म करते हैं, वे पितर योनि को प्राप्त करके पितर लोक में यमराज के अधीन यम लोक में कष्ट उठाऐंगे।) भूतों यानि प्रेतों को पूजने वाले जो (तेरहवीं, सत्तरहवीं, महीना, वर्षी करते हैं। पिण्ड दान करते हैं, अस्थियाँ चुनकर गति कराने किसी पुरोहित के पास जाते हैं। यह सब भूतों की पूजा है जो गीता शास्त्रा में स्पष्ट कर दिया है कि इन पूजाओं का यह फल मोक्ष दायक नहीं होता। जब तक पूर्ण मोक्ष नहीं होगा तो जीव का जन्म-मरण बना रहेगा। पाप-पुण्य के कारण दुःख अस्थाई सुख भोगता रहेगा। मानव जीवन का यथार्थ लाभ प्राप्त नहीं होगा।)
काल ब्रह्म ने कहा है कि मेरी पूजा करने वाला मुझे प्राप्त होता है। इससे भी जन्म-मरण समाप्त नहीं होता क्योंकि गीता अध्याय 2 लोक 12, गीता अध्याय 4 श्लोक 5 तथा गीता अध्याय 10 श्लोक 2 में गीता ज्ञान दाता काल ब्रह्म ने स्वयं कहा है कि हे अर्जुन! तेरे और मेरे अनेकों जन्म हो चुके हैं, तू नहीं जानता मैं जानता हूँ। तू-मैं और ये सब राजा लोग पहले भी जन्में थे, आगे भी जन्मेंगे। मेरी उत्पति को ये देवता व ऋषिजन नहीं जानते क्योंकि इनकी उत्पति मेरे से हुई है। इसलिए गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में पूर्ण मोक्ष के लिए अपने से अन्य परमेश्वर की शरण में जाने को कहा है। जिसकी कृपा से ही परम शांति तथा सनातन परमधाम प्राप्त होगा। गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में वर्णित पूर्ण मोक्ष यानि परमेश्वर का परम पद प्राप्त होगा। जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर कभी संसार में नहीं आता।
हिन्दू धर्म के गुरुजन तथा अनुयाई गीता शास्त्रा में वर्जित साधना कर रहे हैं जो शास्त्रा विधि को त्यागकर मनमाना आचरण होने से परमात्मा की भक्ति से मिलने वाले लाभ से वंचित रहते हैं। अनमोल मानव (स्त्राी-पुरूष) का जीवन नष्ट कर रहे हैं। उनसे निवेदन है कि वर्तमान में विश्व में अरबों मनुष्यों में केवल यह दास (रामपाल दास यानि लेखक) शास्त्राविधि अनुसार साधना जानता है जो सर्व सद्ग्रन्थों में वर्णित है। मेरे ज्ञान का आधार सूक्ष्म वेद है जो परमेश्वर द्वारा पृथ्वी पर प्रकट होकर अपने मुख से वाणी बोलकर बताया है, जिसे सच्चिदानन्द घन ब्रह्म की वाणी कहा जाता है जिसे तत्वज्ञान कहते हैं। जिसका प्रमाण गीता अध्याय 4 श्लोक 32 में है। गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि यथार्थ भक्ति की क्रियाओं यानि यज्ञों का ज्ञान सच्चिदानन्द घन ब्रह्म अपने मुख कमल से उच्चारित वाणी में बताता है। वह तत्वज्ञान है जो कार्य करते-करते साधना करने का है जिससे पूर्ण मोक्ष प्राप्त होता है।
गीता अध्याय 4 श्लोक 34:- इस श्लोक में गीता ज्ञान देने वाले ने कहा कि उस तत्वज्ञान को मैं नहीं जानता। इसलिए तो कहा है कि उस ज्ञान को जिसे परमात्मा स्वयं बोलकर अपनी वाणी में सुनाता है, किसी तत्वदर्शी संत के पास जाकर समझ। उनको दण्डवत प्रणाम करने से, नम्रतापूर्वक प्रश्न करने से वे तत्वज्ञान को भली-भांति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे।
गीता अध्याय 7 श्लोक 29 में गीता ज्ञान दाता ने इसी प्रकरण के आधार से कहा है कि:- जो मेरे द्वारा बताये ज्ञान के आधार से यानि मेरे इस ज्ञान का आश्रय लेकर तत्वदर्शी संतों को खोज लेते हैं, वे केवल (जरा) वृद्धावस्था तथा (मरण) मृत्यु से छुटकारा पाने के लिए प्रयत्न करते हैं। वे संसार की किसी वस्तु की इच्छा नहीं करते। वे (तत ब्रह्म) उस परमेश्वर को जानते हैं तथा सम्पूर्ण कर्मों तथा सम्पूर्ण अध्यात्म को जानते हैं। अर्जुन ने गीता अध्याय 8 श्लोक 1 में प्रश्न किया कि तत् ब्रह्म क्या है? गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में बताया कि परम अक्षर ब्रह्म है।
गीता अध्याय 8 के ही श्लोक नं. 5 व 7 में अपनी साधना करने को गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि मेरी भक्ति करेगा तो मुझे प्राप्त होगा, युद्ध भी करना होगा। (जहाँ युद्ध हो, वहाँ परम शांति नहीं हो सकती।)
गीता ज्ञान दाता काल ब्रह्म ने गीता अध्याय 8 श्लोक 13 में अपनी भक्ति का केवल एक अक्षर ‘‘ओम्’’ (ॐ) मंत्र का जाप बताया है।
गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में स्पष्ट किया है कि ओम् नाम जो ब्रह्म का है, की भक्ति करने से ब्रह्म लोक प्राप्त होता है। (यही प्रमाण श्री देवी पुराण के सातवें स्कंद में पृष्ठ 562-563 पर श्री देवी जी ने हिमालय राजा को ज्ञान देते समय कहा है कि हे राजन! आप मेरी पूजा सहित सब पूजाओं को त्यागकर केवल एक ॐ नाम का जाप कर। यह मंत्र ब्रह्म की प्राप्ति का है। इसके जाप से ब्रह्म को प्राप्त हो जाओगे जो ब्रह्म लोक रूपी दिव्य आकाश में रहता है। तुम्हारा कल्याण हो। इससे सिद्ध हुआ कि ॐ (ओम्) मन्त्रा जाप ब्रह्म का है। इसकी साधना जाप करने से ब्रह्म लोक प्राप्त होता है (गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में स्पष्ट किया है कि ब्रह्म लोक गए साधकों का भी जन्म-मरण रहता है।) इससे सिद्ध हुआ कि ब्रह्म की साधना से परम शांति तथा सनातन परम धाम प्राप्त नहीं होता। इसलिए गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 8 श्लोक 8-9-10 में अपने से अन्य सच्चिदानन्द घन ब्रह्म यानि परम अक्षर ब्रह्म बताया है। कहा है कि उसकी भक्ति करने से उसको ही प्राप्त होता है। उसकी भक्ति का मंत्र गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में बताया है कि ‘‘सच्चिदानन्द घन ब्रह्म यानि परम अक्षर ब्रह्म का स्मरण करने का तीन मंत्र का ओम्-तत्-सत् का जाप है। उसकी भक्ति करने से उसी को प्राप्त होता है। गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में गीता ज्ञान बताने वाला उसी परमेश्वर की शरण में जाने को कह रहा है जिसकी कृपा से परम शांति यानि जन्म-मरण सदा के लिए समाप्त हो जाता है तथा (शाश्वत् स्थान) सनातन परम धाम प्राप्त होता है। उसी परमेश्वर के परम पद की प्राप्ति करने के लिए गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि तत्वज्ञान रूपी शास्त्र के द्वारा अज्ञान को काटकर यानि तत्वज्ञान समझने के पश्चात् परमेश्वर के उस परमपद की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् कभी लौटकर संसार में नहीं आता जिस परमेश्वर ने संसार रूपी वृक्ष का विस्तार किया है यानि जिसने सर्व ब्रह्मण्डों की रचना की, उसी की भक्ति करो।)
गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 में तीन पुरूष कहे हैं। क्षर पुरूष और अक्षर पुरूष तथा इन दोनों तथा इनके अन्तर्गत जितने प्राणी हैं, वे सब नाश्वान हैं। क्षर पुरूष के 21 ब्रह्माण्ड तथा अक्षर पुरूष के सात संख ब्रह्मण्ड हैं।
गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में स्पष्ट किया है कि पुरूषोतम तो उपरोक्त दोनों से अन्य ही है जिसको परमात्मा कहा जाता है जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है। वह वास्तव में अविनाशी परमेश्वर है। (गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 )
शंका समाधान:- कुछ भ्रमित श्रद्धालु कहते हैं कि गीता अध्याय 15 श्लोक 18 में गीता ज्ञान कहने वाला अपने को पुरूषोतम कह रहा है।
समाधान:- इस श्लोक में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि जितने प्राणी मेरे अंतर्गत हैं, उनसे मैं उत्तम यानि श्रेष्ट हूँ। जिस कारण से लोक वेद यानि कहे-सुने ज्ञान यानि दंत कथा के आधार से मैं पुरूषोतम प्रसिद्ध हूँ। (वास्तविक पुरूषोतम तो गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में बता दिया है।)
हिन्दू धर्म के सर्व धर्म गुरु (शंकराचार्य, आचार्य, श्री ज्ञानानंद जी, वृदांवन वाले, आसाराम, सुधांशु व अन्य हिन्दू धर्म के महंत-अखाड़ा परिषद् वाले) तीनों देवताओं श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शिव जी या तेतीस करोड़ देवताओं व देवियों में से किसी ना किसी की भक्ति करते-करवाते हैं। श्राद्ध कर्म, भूत पूजा भी करते-करवाते हैं जो शास्त्राविधि को त्यागकर मनमाना आचरण कर तथा करवा रहे हैं। ये भक्त समाज के साथ सबसे बड़ा धोखा कर रहे हैं क्योंकि इन सबको गीता शास्त्र का बिल्कुल ज्ञान नहीं है। इनको मान-बड़ाई तथा अहंकार त्यागकर पुनर् विचार करना चाहिए। अन्यथा परमात्मा के दरबार में छुपने का स्थान नहीं मिलेगा। उस समय बहुत देर हो चुकी होगी।
- पूर्व में बताया है कि इन्द्र का जीवन 72 चतुर्युग का होता है यानि देवताओं का राजा भी नाशवान है। सर्व देवता भी नाश्वान हैं।
श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी, श्री शिव जी भी नाशवान हैं:-
प्रमाण:- श्री देवी महापुराण के तीसरे स्कंद में स्वयं श्री विष्णु जी ने कहा है कि हे माता! तुम शुद्ध स्वरूपा हो। सारा संसार तुम से ही उद्भाषित हो रहा है। मैं (विष्णु), ब्रह्मा तथा शंकर अविनाशी नहीं हैं। हमारा तो आविर्भाव (जन्म) तथा तिरोभाव (मृत्यु) हुआ करता है। माता मैंने आपको उस समय देखा था जब मैं छोटा बालक था। आप मुझे पालने में झुला रही थी। मैं अपने पैरों के अंगूठों को मुख में चूस रहा था।
शंकर जी ने कहा कि आपके पेट से विष्णु तथा ब्रह्मा का जन्म हुआ। इनके पश्चात् मुझे जन्म देने वाली भी माता आप हैं। क्या मैं तमोगुणी लीला करने वाला तुम्हारा पुत्र नहीं हुआ? आप मेरी व ब्रह्मा, विष्णु की जननी हैं।
- उपरोक्त प्रमाणों से स्पष्ट हुआ कि तीनों (श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री शंकर जी) नाशवान हैं। जन्मते-मरते हैं। इनकी माता श्री देवी दुर्गा है।
- इन तीनों का पिता काल ब्रह्म है:-
प्रमाण:- श्री शिव पुराण में रूद्र संहिता तथा विद्यवेश्वर संहिता में है। (गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित में)
- रूद्र संहिता में कहा है कि सदाशिव यानि काल ब्रह्म ने अपने अंदर से एक स्त्राी उत्पन्न की। उसको प्रकृति देवी, त्रिदेवजननी कहा गया है। जिसकी आठ भुजाऐं हैं। इन दोनों ने पति-पत्नी रूप में विलास करके एक पुत्र को जन्म दिया। उसका नाम विष्णु रखा।
- उसके पश्चात् ब्रह्मा को उसी प्रकार उत्पन्न किया।
विद्यवेश्वर संहिता में स्पष्ट किया है कि काल ब्रह्म के ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव पुत्र हैं। प्रकरण इस प्रकार है:-
एक समय श्री ब्रह्मा जी तथा श्री शिव जी का युद्ध होने लगा। कारण यह था कि श्री ब्रह्मा जी एक बार श्री विष्णु जी के निवास स्थान पर गए तो उस समय श्री विष्णु जी शेष सैय्या पर लेटे थे। उनके पास लक्ष्मी जी बैठी थी तथा आसपास पारखद (नौकर) बैठे थे। उन्होंने ब्रह्मा जी का स्वागत नहीं किया। जिस बात से क्षुब्ध होकर श्री ब्रह्मा जी बोले कि हे विष्णु! देख तेरा बाप आया है। तुम उठकर सम्मान नहीं कर रहे। तुझे इतना अभिमान हो गया। मैं सबकी उत्पत्तिकर्ता हूँ। इसलिए मैं तेरा भी जनक हूँ। श्री विष्णु जी अंदर से तो जल-भुन गए, परंतु ऊपर से शांत रहकर बोले कि हे ब्रह्मा! तेरा जन्म मेरी नाभि से निकले कमल पर हुआ है। इसलिए मैं तेरा पिता हुआ। अपने पिता के चरण नहीं छू रहा। तेरे को अभिमान हो गया है। तेरा अभिमान ठीक करना पड़ेगा। ऐसा कहकर दोनों ने अपने-अपने शस्त्र उठा लिए। लड़ने-मरने को उद्धत हो गए। उसी समय इनके पिता सदाशिव जिसे काल ब्रह्म तथा ज्योति स्वरूप निरंजन भी कहते हैं, ने उन दोनों के मध्य में तेजोमय स्तम्भ खड़ा कर दिया। दोनों शांत हो गए। (एक लंबी कथा है, परंतु पुस्तक विस्तार को देखते हुए संक्षिप्त में वर्णन करता हूँ।) उसी समय काल ब्रह्म प्रकट हो गए जिसने अपने पुत्र शिव का रूप धारण किया था। उनके साथ उसकी पत्नी दुर्गा भी पार्वती रूप में थी। सदाशिव ने ब्रह्मा तथा विष्णु से कहा कि पुत्रो! तुम दोनों ही ईश (भगवान) नहीं हो। तुम दोनों को तुम्हारे तप के प्रतिफल में दो कृत मैंने उत्पत्ति तथा स्थिति के दे रखे हैं। इसी प्रकार रूद्र तथा शंकर को संहार व तिरोभाव यानि देव स्तर के जीवों को मारना तिरोभाव कहा जाता है, परंतु संहार करना ही अर्थ है।
इस प्रकरण से सिद्ध हुआ कि श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री शिव का पिता काल ब्रह्म है तथा माता प्रकृति देवी यानि दुर्गा (अष्टांगी) है। यह प्रकरण श्री शिव पुराण में है जिसके प्रकाशक हैं खेमचंद-कृष्ण दास। मुद्रक:- वैंकटेश्वर प्रेस मुंबई जिसमें संस्कृत तथा हिन्दी अनुवाद है।)
- हिन्दू धर्म के गुरूजन आज तक इस सत्य से अपरिचित हैं और दंत कथा सुनाते रहे हैं कि श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शिव जी के कोई माता-पिता नहीं हैं। ये स्वयंभू हैं। अविनाशी हैं। इनका जन्म-मरण कभी नहीं होता। ये यह भी कहते रहे हैं कि श्री ब्रह्मा जी की आयु सौ वर्ष है। इनका इकावनवां (51वां) वर्ष चल रहा है।
विचार करने की बात है कि यह ऊवा-बाई नहीं तो क्या है? इससे सिद्ध है कि हिन्दू धर्म के सर्व धर्मगुरू शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान नहीं रखते। ये नीम-हकीम खतरा-ए-जान हैं। इनसे बचो और दास (रामपाल दास) के पास बरवाला आश्रम में (जिला हिसार, हरियाणा) आओ। शास्त्रोक्त ज्ञान तथा साधना प्राप्त करके फिर शास्त्र अनुकूल साधना करके जीव का कल्याण कराओ।