जैन धर्म बोध
अध्याय जैन धर्म बोध का सारांश
कबीर सागर में 31वां अध्याय ‘‘जैन धर्म बोध‘‘ पृष्ठ 45(1389) पर है।
परमेश्वर कबीर जी ने जैन धर्म की जानकारी इस प्रकार बताई है।
जैन धर्म की जानकारी
अयोध्या का राजा नाभिराज था। उनका पुत्र ऋषभ देव था जो अयोध्या का राजा बना। धार्मिक विचारों के राजा थे। जनता के सुख का विशेष ध्यान रखते थे। दो पत्नी थी। कुल 100 पुत्र तथा एक पुत्री थी। बड़ा पुत्र भरत था।
कबीर परमेश्वर जी अपने विधान अनुसार अच्छी आत्मा को मिलते हैं। उसी गुणानुसार ऋषभ देव के पास एक ऋषि रूप में गए। अपना नाम कबि ऋषि बताया। उनको आत्म बोध करवाया। शब्द सुनाया, मन तू चल रे सुख के सागर, जहाँ शब्द सिंधु रत्नागर जो आप जी ने पढ़ा आत्म बोध के सारांश में पृष्ठ 373-374 पर।
यह सत्संग सुनकर राजा ऋषभ देव जी की आत्मा को झटका लगा जैसे कोई गहरी नीन्द से जागा हो। ऋषभ देव जी के कुल गुरू जो ऋषिजन थे, उनसे परमात्मा प्राप्ति का मार्ग जानना चाहा। उन्होंने ॐ नाम तथा हठयोग करके तप करने की विधि दृढ़ कर दी। राजा ऋषभ देव को परमात्मा प्राप्ति करने तथा जन्म-मरण के दुःखद चक्र से छूटने के लिए वैराग्य धारण करने की ठानी। अपने बड़े बेटे भरत जी को अयोध्या का राज्य दे दिया तथा अन्य पुत्रों को भी अन्य नगरियों का राज्य प्रदान करके घर त्यागकर जंगल में चले गए। परमेश्वर कबीर जी भी जंगल में गए। परमेश्वर कबीर जी जंगल में ऋषभ देव जी से फिर मिले और कहा कि हे भोली आत्मा! ‘‘आसमान से गिरे और खजूर पर अटके‘‘ वाली बात चित्रार्थ कर दी है। राज्य त्यागकर जंगल में निवास किया, परंतु साधना पूर्ण मोक्ष की प्राप्त नहीं हुई। यह तो जन्म-मरण का चक्र में रहने वाली साधना आप कर रहे हो। मेरे पास सत्य साधना है। आप मेरे से दीक्षा ले लो, आपका जन्म-मरण सदा के लिए समाप्त हो जाएगा। ऋषभ देव जी अपने गुरू जी के बताए मार्ग को पूर्ण रूप से सत्य मान चुके थे। इसलिए उन्होंने कबि ऋषि की बातों पर विशेष ध्यान नहीं दिया। प्रभु कबीर देव चले गए। राजा ऋषभ देव जी पहले एक वर्ष तक निराहार रहे। फिर एक हजार वर्ष तक हठ योग तप किया। उसके पश्चात् धर्मदेशना (दीक्षा) देने लगे। उन्होंने प्रथम धर्म देशना (दीक्षा) अपने पौत्र मारीचि को दी जो भरत का पुत्र था। मारीचि वाला जीव ही आगे चलकर चैबीसवें तीर्थकंर बने जिनका नाम महाबीर जैन था। राजा ऋषभदेव जी यानि प्रथम तीर्थकंर जैन धर्म के प्रवर्तक से दीक्षा प्राप्त करने के पश्चात् मारीचि जी वाला जीव 60 करोड़ बार गधा बना। 30 करोड़ बार कुत्ता, करोड़ों बार बिल्ली, करोड़ों बार घोड़ा, करोड़ों बार नपुसंक, करोड़ों बार वैश्या तथा वृक्षों आदि के जन्मों में कष्ट उठाता रहा। कभी-कभी राजा बना और 80 लाख बार देवता बना तथा नरक भी भोगा और फिर ये उपरोक्त दुःख भोगकर महाबीर जैन भगवान बना। नंगे रहते थे। श्री महाबीर जैन जी के जीव ने 363 पाखंड मत चलाए।
भोगेगा अपना किया रे
एक समय महाबीर जैन वाला जीव यानि मारीचि वाला जीव राजा था। उसका एक विशेष नौकर था। राजा का मनोरंजन करने के लिए एक वाद्य यंत्र बजाने वाली पार्टी होती थी। राजा धुन सुनते-सुनते सो जाता तो वह तान बंद करा दी जाती थी। राजा अपने महल में पलंग पर लेटा-लेटा धुन सुना करता। अपने नौकर को कह रखा था कि जब मुझे नींद आ जाए तो बाजा बंद करा देना। एक दिन नौकर आनन्द मग्न होकर धुन सुनने में लीन हो गया। उसको पता नहीं चला कि राजा कब सो गए? शोर से राजा की निन्द्रा भंग हो गई। राजा जब उठा तो मंडली बाजा बजा रही थी। राजा को क्रोध आया। उस नौकर को दण्डित करने का आदेश सुना दिया कि इसने मेरे आदेश को अनसुना किया है। इसके कानों में काँच (glass) पिघलाकर गर्म-गर्म डालो। नौकर ने बहुत प्रार्थना की, क्षमा कर दो। आगे से कभी ऐसी गलती नहीं करूंगा, परंतु अहंकारवश राजा ने उसकी एक नहीं सुनी और सिपाहियों ने उस नौकर को पकड़कर जमीन पर लेटाकर दोनों कानों में पिघला हुआ गर्म काँच (शीशा) डाल दिया। नौकर की चीख हृदय विदारक थी। महीनों तक दर्द के मारे रोता रहा। समय आने पर राजा का देहान्त हुआ। फिर वही जीव महाबीर जैन रूप में जन्मा। घर त्यागकर जंगल में साधना करने लगा। उसी क्षेत्र में एक व्यक्ति अपनी गायों को घास चराने ले जाता था। दोनों में मित्रता हो गई। वह व्यक्ति गाँव से भोजन ले आता था, महाबीर जी को खिलाता था। एक दिन उस गौपाल को किसी कार्यवश घर जाना पड़ा तो उसने साधक से कहा कि मेरे को गाँव जाकर आना है। आप मेरी गायों का ध्यान रखना, कहीं गुम न हो जाऐं। महाबीर जी ने आश्वासन दिया कि आप निश्चिंत होकर जाओ, मैं ध्यान रखूंगा। महाबीर जी साधना करने लगे। उनको ध्यान नहीं रहा, गायें दूर जंगल में चली गई। जब वह ग्वाला आया और साधक से पूछा कि मेरी गायें कहाँ हैं? तो साधक निरूत्तर हो गए और कारण बताया कि मैं साधना में लगा था और ध्यान नहीं रहा। ग्वाले को पता था कि गौवें जंगल में गहरा जाने के पश्चात् जीवित नहीं बचती क्योंकि वहाँ शेर, चीते आदि खूंखार जानवर बहु सँख्या में रहते थे। अपने धन की हानि का कारण साधक को मानकर बाँस की लाठी को तोड़कर उससे पतली-पतली दो टुकड़ी छः-2 इंच लंबी (फाटकी) लेकर साधक को पकड़कर बलपूर्वक धरती के ऊपर गिराकर दोनों कानों में वे टुकड़ी ठोककर अंदर तोड़ दी। साधक बुरी तरह से चिल्लाता रहा। वह ग्वाला चला गया। फिर उधर कभी नहीं गया। एक महीने के पश्चात् दैव योग से एक वैद्य किसी औषधि की खोज करता-करता गया तो महाबीर जैन की पीड़ा का पता चला। उसने साधक के कानों से वे फाटकी निकाली तो लकड़ी की सली (बाँस के फटने से उसमें पतली-पतली सूई जैसी नुकीली सींख बन जाती हैं, उनको सली कहते हैं) कानों को चीरती हुई बाहर आई। रक्त व मवाद की पिचकारी लगी और साधक की किलकारी निकली यानि महावीर जी बुरी तरह चिल्लाए। वैद्य ने उपचार किया। कई महीनों में पीड़ा ठीक हुई, परंतु बहरे हो गए, मृत्यु हो गई। फिर अन्य जीवन भोगकर फिर महावीर जैन बने।
महाबीर जैन जी ने 363 पाखण्ड मत चलाए जो वर्तमान में जैन धर्म में पाखण्ड मत वाली साधना चल रही हैं।
इस कथा से शिक्षा मिलती है कि जो अपनी शक्ति का दुरूपयोग करके किसी को तंग करता है तो उसका बदला भी उसको कभी न कभी देना पड़ता है। इसलिए कभी अपनी शक्ति का दुरूपयोग न करें। अब ऋषभ देव जी की कथा सुनाता हूँ।
ऋषभ देव निवस्त्र रहने लगे क्योंकि उनको अपनी स्थिति का ज्ञान नहीं था। वे परमात्मा के वैराग्य में इतने मस्त थे कि उनको ध्यान ही नहीं था कि वे नंगे हैं। उनका ध्यान परमात्मा में रहता था। वर्तमान के जैनी महात्माओं ने वह नकल कर ली और नंगे रहने लगे। यह मात्र परंपरा का निर्वाह है।
ऋषभ देव जी अपने मुख में पत्थर का टुकड़ा लेकर नग्न अवस्था में कुटक के जंगलों में दिन-रात फिरते थे। एक बार बाँसों के आपस में घिसने से जंगल में अग्नि लग गई। दावानल इतनी भयंकर हुई कि सब जंगल जलकर राख हो गए। ऋषभ देव जी भी जलकर मर गए। ऋषभ देव जी का जीव ही बाबा आदम के रूप में जन्मा जो मुसलमानों, ईसाईयों तथा यहूदियों का प्रथम पुरूष तथा नबी माना जाता है।
जैन धर्म में दो प्रकार के साधु हैं:-
- बिल्कुल नंगे रहते हैं जो पूर्व के महापुरूषों की नकल कर रहे हैं। जैन धर्म की स्त्री, पुरूष, युवा लड़के-लड़कियां, बच्चे-वृद्ध सब उन नंगे साधुओं की पूजा करते हैं।
इनको दिगंबर साधु कहा जाता है। इनमें स्त्रिायों को साधु नहीं बनाया जाता। विचारणीय विषय है कि क्या स्त्री को मोक्ष नहीं चाहिए। यदि आपका मार्ग सत्य है तो स्त्रिायों को भी करो नंगा, निकालो जुलूस। सच्चाई को न मानकर मात्र परंपरा का निर्वाह करने से परमात्मा प्राप्ति नहीं होती।
- दूसरे साधु श्वेताम्बर हैं। वे सफेद वस्त्र, मुख पर कपड़े की पट्टी रखते हैं। इसमें स्त्रिायां भी साधु हैं। मारीचि जी के जीव ने प्रथम तीर्थकंर ऋषभ देव जी से दीक्षा लेकर साधना की थी जो ऋषभ देव जी की बताई साधना विधि थी। उसके परिणामस्वरूप गधा, कुत्ता, घोड़ा, बिल्ली, धोबी, वैश्या का जीवन भोगा और स्वर्ग-नरक में भटके। फिर महाबीर जैन बने। महाबीर जी ने तो किसी से धर्मदेशना (दीक्षा) भी नहीं ली थी यानि गुरू नहीं बनाया था। उन्होंने तो मनमाना आचरण करके साधना की जिसको गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में व्यर्थ बताया है। कबीर जी ने कहा है कि:-
गुरू बिन माला फेरते, गुरू बिन देते दान।
गुरू बिन दोनों निष्फल है, पूछो वेद पुराण।।
इसी कारण से महाबीर जी का मोक्ष संभव नहीं है। महाबीर जी ने अपने अनुभव से 363 पाखण्ड मत चलाए जो वर्तमान में जैन धर्म में प्रचलित हैं। विचार करें महाबीर जैन की आगे क्या दुर्दशा हुई होगी? यह स्पष्ट है क्योंकि राजा ऋषभ देव वेदों अनुसार साधना करते थे। वही दीक्षा मारीचि जी को दी थी। वेदों अनुसार साधना करने से मारीचि वाले जीव को ऊपर लिखित लाभ-हानि हुई। जन्म-मरण जारी है तो महाबीर जी ने तो वेदों के विरूद्ध शास्त्र विधि त्यागकर मनमाना आचरण किया था। गुरू से दीक्षा भी नहीं ली थी। उनको तो स्वपन में भी स्वर्ग नहीं मिलेगा। अन्य वर्तमान के जैनी भाई-बहनों को क्या मिलेगा?
जैनी मानते हैं कि
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सृष्टि का कोई कर्ता नहीं है। यह अनादि काल से चली आ रही है। नर-मादा के संयोग से उत्पत्ति होती है, मरते हैं।
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जैनी मूर्ति पूजा में विश्वास रखते हैं। किसी परमात्मा की मूर्ति नहीं रखते जिनको हिन्दु समाज प्रभु मानता है जैसे श्री विष्णु, श्री शिव जी, श्री ब्रह्मा जी या देवी जी। ये अपने तीर्थकंर को ही प्रभु मानते हैं, उन्हीं की मूर्ति मंदिरों में रखते हैं। ॐ मंत्र का स्वरूप तथा उच्चारण बिगाड़कर ओंकार को ‘‘णोंकार‘‘ बनाकर जाप करते हैं।
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जो स्त्री या पुरूष श्वेताम्बरों से दीक्षा लेता है, उनके सिर तथा दाढ़ी के बाल हाथों से नोंच-नोंचकर उखाड़ते हैं, महान पीड़ा होती है। भक्ति में शरीर को अधिक कष्ट देना लाभदायक मानते हैं। (इस तरह की साधना तथा विधान निराधार तथा नरक दायक है। मोक्ष तो स्वपन में भी नहीं है।)
जैनियों का विधान है कि सृष्टि को रचने वाला कोई नहीं है। नर-मादा से उत्पन्न होते हैं, मरते रहते हैं। यह पढ़कर गीता अध्याय 16 श्लोक 8-9 याद आया।
गीता अध्याय 16 श्लोक 8:- वे आसुरी प्रकृति वाले कहा करते हैं कि जगत आश्रय रहित सर्वथा असत्य तथा (अनीश्वरम्) बिना ईश्वर के अपने आप केवल स्त्री-पुरूष के संयोग से उत्पन्न होता है। केवल काम (sex) ही इसका कारण है। इसके सिवा क्या है?
गीता अध्याय 16 श्लोक 9:- इस मिथ्या ज्ञान को अवलम्बन करके जिनका स्वभाव नष्ट हो गया है, जिनकी बुद्धि मंद है यानि ज्ञानहीन है। सबका अपकार (बुरा) करने वाले यानि भ्रमित करके गलत ज्ञान, गलत साधना द्वारा अनमोल जीवन नष्ट कराने वाले (उग्रकर्माणः) क्रूरकर्मी सर्व बालों को नौंच-नौचकर उखाड़ना, निःवस्त्र फिरना, गर्मी-सर्दी से शरीर को बिना वस्त्र के कष्ट देना, व्रत करने के उद्देश्य से कई-कई दिन तक भोजन न करना। फिर संथारा द्वारा भूखे-प्यासे रहकर देहान्त करना आदि-आदि क्रूरकर्म हैं। ऐसे क्रूरकर्मी मनुष्य केवल जगत के नाश के लिए ही उत्पन्न होते हैं।
यह जैन धर्म का ज्ञान आपको परमेश्वर कबीर जी के बताए अनुसार लेखक ने बताया है।
कबीर सागर के अध्याय ‘‘जैन धर्म बोध‘‘ का सारांश सम्पूर्ण हुआ।