सत्ययुग में कबीर परमेश्वर का सत सुकृत नाम से प्राकाट्य
वर्तमान में चल रही चतुर्युगी के प्रथम सत्ययुग में मैंने (परमेश्वर कबीर जी ने) एक सरोवर में कमल के फूल पर शिशु रूप धारण किया। एक ब्राह्मण दम्पति निःसन्तान था। वह विद्याधर नामक ब्राह्मण अपनी पत्नी दीपिका के साथ अपनी ससुराल से आ रहा था। वे सरोवर पर विश्राम हेतु रूके वहाँ एक नवजात् शिशु को फूल पर प्राप्त करके अति प्रसन्न हुए। उसे परमेश्वर शिव की कृपा से प्राप्त जान कर घर ले आए। एक अन्य ब्राह्मण से नाम रखवाया उसने मेरा नाम सत्सुकृत रखा। मेरी प्रेरणा से कंवारी गायों ने दूध देना प्रारम्भ किया। उनके दूध से मेरी परवरिश लीला हुई। गुरूकुल में शिक्षा की लीला की। ऋषि जी जो वेद मन्त्र भूल जाते तो मैं खड़ा होकर पूरा करता। ऋषि जी वेद मन्त्रों का गलत अर्थ करते मैं विरोध करता। इस कारण से मुझे गुरूकुल से निकाल दिया। पृथ्वी पर घूम कर मैंने बहुत से ऋषियों से ज्ञान चर्चा की परन्तु शास्त्राविरूद्ध ज्ञान पर आधारित होने के कारण किसी भी ऋषि-महर्षि ने ज्ञान सुनने की चेष्टा ही नहीं की। महर्षि मनु से भी मेरी वेद ज्ञान पर भी चर्चा हुई। महर्षि मनु ने ब्रह्मा जी से ही ज्ञान ग्रहण किया था। महर्षि मनु जी ने मुझे उल्टा ज्ञान देने वाला बताया तथा मेरा उपनाम वाम देव रख दिया। मैंने महर्षि मनु व अन्य ऋषियों से यहाँ तक कहा कि वह पूर्ण परमात्मा मैं ही हूँ। उन्होंने मेरा उपहास किया तथा कहा आप यहाँ है तो आपका सतलोक तो आपके बिना सुनसान पड़ा होगा वहाँ सतलोक में जाने का क्या लाभ? वहाँ गये प्राणी तो अनाथ हैं। मैंने कहा मैं ऊपर भी विराजमान हूँ। तब मनु जी सहित सर्व ऋषियों ने ठहाका लगा कर कहा फिर तो आपका नाम वामदेव उचित है। वामदेव का अर्थ है कि दो स्थानों पर निवास करने वाला, भी है। वाम अक्षर दो का बोधक है। इस प्रकार उन ज्ञानहीन व्यक्तियों ने मेरे तत्वज्ञान को ग्रहण नहीं किया। (वामदेव का प्रमाण शिवपुराण पृष्ठ 606.607 कैलाश संहिता प्रथम अध्याय में है।) बहुत से प्रयत्न करने पर कुछ पुण्यात्माओं ने मेरा उपदेश ग्रहण किया। मैंने स्वस्म वेद (कविगिरः=कविर्वाणी) की रचना की जिसकी काल द्वारा प्रेरित ज्ञानहीन ऋषियों ने बहुत निन्दा की तथा जनता से इसे न पढ़ने का आग्रह किया। सतयुग के प्राणी मुझे केवल एक अच्छा कवि ही मानते थे। इस कारण से सतयुग में बहुत ही कम जीवों ने मेरी शरण् ग्रहण की। सतयुग में मानव की आयु एक लाख वर्ष से प्रारम्भ होती है तथा सतयुग के अन्त में दस हजार वर्ष रह जाती है। सत्ययुग में बहुत ही पुण्यकर्मी प्राणी जन्म लेते हैं। सतयुगमें स्त्राी विधवा नहीं होती। पिता से पहले पुत्र की मृत्यु नहीं होती। आपसी भाई चारा बहुत अच्छा होता है। चोरी-जारी अन्य बुराईयाँ नाम मात्र में ही होती है। तथा शराब, मांस, तम्बाकु आदि का सेवन सत्ययुग के आदि में प्राणी नहीं करते। ब्राह्मण विद्याधर वाली आत्मा त्रेता युग में वेदविज्ञ ऋषि हुए तथा कलयुग में ऋषि रामानन्द हुए तथा दीपिका वाली आत्मा त्रेता में सूर्या हुई तथा कलयुग में कमाली हुई तथा सतयुग में बहुत ही कम प्राणियों ने मेरी शरण ली।
प्रश्न:- धर्मदास जी ने पूछा हे बन्दी छोड़ आप त्रेता युग में मुनिंद्र ऋषि के
नाम से अवतरित हुए थे। कृप्या उस युग में किन-2 पुण्यात्माओं ने आप की शरण ग्रहण की?
उत्तरः- हे धर्मदास! त्रेता युग में मैं मुनिन्द्र ऋषि के नाम से प्रकट हुआ। त्रेता युग में भी मैं एक शिशु रूप धारण करके कमल के फूल पर प्रकट हुआ था। एक वेदविज्ञ नामक ऋषि तथा सूर्या नामक उसकी साधवी पत्नी थी। वे प्रतिदिन सरोवर पर स्नान करने जाते थे। वह निःसन्तान दम्पति मुझे अपने साथ ले गए तथा सन्तान रूप में पालन किया। प्रत्येक युग में जिस समय मैं एक पूरे जीवन रहने की लीला करने आता हूँ। मेरी परवरिश कंवारी गायों से होती है। शिशु काल से ही मैं तत्वज्ञान की वाणी उच्चारण करता हूँ। जिस कारण से मुझे प्रसिद्ध कवि की उपाधी प्राप्त होती है। परन्तु ज्ञानहीन ऋषियों द्वारा भ्रमित जनता मुझे न पहचान कर एक कवि की उपाधि प्रदान कर देती है। केवल मुझ से परिचित श्रद्धालु ही मुझे समझ पाते हैं तथा वे अपना कल्याण करा लेते हैं।
‘‘त्रेता युग में कविर्देव का ऋषि मुनिन्द्र नाम से प्राकाट्य’’ लेखक के शब्दों में निम्न पढ़ें:-