पूर्ण संत की पहचान
(पवित्र सद्ग्रन्थों से पूर्ण संत की पहचान)
वेदों, गीता जी आदि पवित्रा सद्ग्रंथों में प्रमाण मिलता है कि जब-जब धर्म की हानि होती है व अधर्म की वृद्धि होती है तथा वर्तमान के नकली संत, महंत व गुरुओं द्वारा भक्ति मार्ग के स्वरूप को बिगाड़ दिया गया होता है। फिर परमेश्वर स्वयं आकर या अपने परमज्ञानी संत को भेज कर सच्चे ज्ञान के द्वारा धर्म की पुनः स्थापना करता है। वह भक्ति मार्ग को शास्त्रों के अनुसार समझाता है। उसकी पहचान होती है कि वर्तमान के धर्म गुरु उसके विरोध में खड़े होकर राजा व प्रजा को गुमराह करके उसके ऊपर अत्याचार करवाते हैं। कबीर साहेब जी अपनी वाणी में कहते हैं कि-
जो मम संत सत उपदेश दृढ़ावै (बतावै), वाके संग सभि राड़ बढ़ावै।
या सब संत महंतन की करणी, धर्मदास मैं तो से वर्णी।।
कबीर साहेब अपने प्रिय शिष्य धर्मदास को इस वाणी में ये समझा रहे हैं कि जो मेरा संत सत भक्ति मार्ग को बताएगा उसके साथ सभी संत व महंत झगड़ा करेंगे। ये उसकी पहचान होगी।
दूसरी पहचान वह संत सभी धर्म ग्रंथों का पूर्ण जानकार होता है। प्रमाण सतगुरु गरीबदास जी की वाणी में -
”सतगुरु के लक्षण कहूं, मधूरे बैन विनोद। चार वेद षट शास्त्रा, कहै अठारा बोध।।“
सतगुरु गरीबदास जी महाराज अपनी वाणी में पूर्ण संत की पहचान बता रहे हैं कि वह चारों वेदों, छः शास्त्रों, अठारह पुराणों आदि सभी ग्रंथों का पूर्ण जानकार होगा अर्थात् उनका सार निकाल कर बताएगा। यजुर्वेद अध्याय 19 मंत्रा 25, 26 में लिखा है कि वेदों के अधूरे वाक्यों अर्थात् सांकेतिक शब्दों व एक चैथाई श्लोकों को पुरा करके विस्तार से बताएगा व तीन समय की पूजा बताएगा। सुबह पूर्ण परमात्मा की पूजा, दोपहर को विश्व के देवताओं का सत्कार व संध्या आरती अलग से बताएगा वह जगत का उपकारक संत होता है।
यजुर्वेद अध्याय 19 मन्त्र 25
सन्धिछेदः- अर्द्ध ऋचैः उक्थानाम् रूपम् पदैः आप्नोति निविदः।
प्रणवैः शस्त्राणाम् रूपम् पयसा सोमः आप्यते।(25)
अनुवादः- जो सन्त (अर्द्ध ऋचैः) वेदों के अर्द्ध वाक्यों अर्थात् सांकेतिक शब्दों को पूर्ण करके (निविदः) आपूत्र्ति करता है (पदैः) श्लोक के चैथे भागों को अर्थात् आंशिक वाक्यों को (उक्थानम्) स्तोत्रों के (रूपम्) रूप में (आप्नोति) प्राप्त करता है अर्थात् आंशिक विवरण को पूर्ण रूप से समझता और समझाता है (शस्त्राणाम्) जैसे शस्त्रों को चलाना जानने वाला उन्हें (रूपम्) पूर्ण रूप से प्रयोग करता है एैसे पूर्ण सन्त (प्रणवैः) औंकारों अर्थात् ओम्-तत्-सत् मन्त्रों को पूर्ण रूप से समझ व समझा कर (पयसा) दूध-पानी छानता है अर्थात् पानी रहित दूध जैसा तत्व ज्ञान प्रदान करता है जिससे (सोमः) अमर पुरूष अर्थात् अविनाशी परमात्मा को (आप्यते) प्राप्त करता है। वह पूर्ण सन्त वेद को जानने वाला कहा जाता है।
भावार्थः- तत्वदर्शी सन्त वह होता है जो वेदों के सांकेतिक शब्दों को पूर्ण विस्तार से वर्णन करता है जिससे पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति होती है वह वेद के जानने वाला कहा जाता है।
यजुर्वेद अध्याय 19 मन्त्र 26
सन्धिछेद:- अश्विभ्याम् प्रातः सवनम् इन्द्रेण ऐन्द्रम् माध्यन्दिनम्
वैश्वदैवम् सरस्वत्या तृतीयम् आप्तम् सवनम् (26)
अनुवाद:- वह पूर्ण सन्त तीन समय की साधना बताता है। (अश्विभ्याम्) सूर्य के उदय-अस्त से बने एक दिन के आधार से (इन्द्रेण) प्रथम श्रेष्ठता से सर्व देवों के मालिक पूर्ण परमात्मा की (प्रातः सवनम्) पूजा तो प्रातः काल करने को कहता है जो (ऐन्द्रम्) पूर्ण परमात्मा के लिए होती है। दूसरी (माध्यन्दिनम्) दिन के मध्य में करने को कहता है जो (वैश्वदैवम्) सर्व देवताओं के सत्कार के सम्बधित (सरस्वत्या) अमृतवाणी द्वारा साधना करने को कहता है तथा (तृतीयम्) तीसरी (सवनम्) पूजा शाम को (आप्तम्) प्राप्त करता है अर्थात् जो तीनों समय की साधना भिन्न-2 करने को कहता है वह जगत् का उपकारक सन्त है।
भावार्थः- जिस पूर्ण सन्त के विषय में मन्त्रा 25 में कहा है वह दिन में 3 तीन बार (प्रातः दिन के मध्य-तथा शाम को) साधना करने को कहता है। सुबह तो पूर्ण परमात्मा की पूजा मध्र्याी को सर्व देवताओं को सत्कार के लिए तथा शाम को संध्या आरती आदि को अमृत वाणी के द्वारा करने को कहता है वह सर्व संसार का उपकार करने वाला होता है।
यजुर्वेद अध्याय 19 मन्त्र 30
सन्धिछेदः- व्रतेन दीक्षाम् आप्नोति दीक्षया आप्नोति दक्षिणाम्।
दक्षिणा श्रद्धाम् आप्नोति श्रद्धया सत्यम् आप्यते (30)
अनुवादः- (व्रतेन) दुव्र्यसनों का व्रत रखने से अर्थात् भांग, शराब, मांस तथा तम्बाखु आदि के सेवन से संयम रखने वाला साधक (दीक्षाम्) पूर्ण सन्त से दीक्षा को (आप्नोति) प्राप्त होता है अर्थात् वह पूर्ण सन्त का शिष्य बनता है (दीक्षया) पूर्ण सन्त दीक्षित शिष्य से (दक्षिणाम्) दान को (आप्नोति) प्राप्त होता है अर्थात् सन्त उसी से दक्षिणा लेता है जो उस से नाम ले लेता है। इसी प्रकार विधिवत् (दक्षिणा) गुरूदेव द्वारा बताए अनुसार जो दान-दक्षिणा से धर्म करता है उस से (श्रद्धाम्) श्रद्धा को (आप्नोति) प्राप्त होता है (श्रद्धया) श्रद्धा से भक्ति करने से (सत्यम्) सदा रहने वाले सुख व परमात्मा अर्थात् अविनाशी परमात्मा को (आप्यते) प्राप्त होता है।
भावार्थ:- पूर्ण सन्त उसी व्यक्ति को शिष्य बनाता है जो सदाचारी रहे। अभक्ष्य पदार्थों का सेवन व नशीली वस्तुओं का सेवन न करने का आश्वासन देता है। पूर्ण सन्त उसी से दान ग्रहण करता है जो उसका शिष्य बन जाता है फिर गुरू देव से दीक्षा प्राप्त करके फिर दान दक्षिणा करता है उस से श्रद्धा बढ़ती है। श्रद्धा से सत्य भक्ति करने से अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति होती है अर्थात् पूर्ण मोक्ष होता है। पूर्ण संत भिक्षा व चंदा मांगता नहीं फिरेगा।
कबीर, गुरू बिन माला फेरते गुरू बिन देते दान। गुरू बिन दोनों निष्फल है पूछो वेद पुराण।।
तीसरी पहचान तीन प्रकार के मंत्रों (नाम) को तीन बार में उपदेश करेगा जिसका वर्णन कबीर सागर ग्रंथ पृष्ठ नं. 265 बोध सागर में मिलता है व गीता जी के अध्याय नं. 17 श्लोक 23 व सामवेद संख्या नं. 822 में मिलता है।
कबीर सागर में अमर मूल बोध सागर पृष्ठ 265 -
तब कबीर अस कहेवे लीन्हा, ज्ञानभेद सकल कह दीन्हा।।
धर्मदास मैं कहो बिचारी, जिहिते निबहै सब संसारी।।
प्रथमहि शिष्य होय जो आई, ता कहैं पान देहु तुम भाई।।1।।
जब देखहु तुम दृढ़ता ज्ञाना, ता कहैं कहु शब्द प्रवाना।।2।।
शब्द मांहि जब निश्चय आवै, ता कहैं ज्ञान अगाध सुनावै।।3।।
दोबारा फिर समझाया है -
बालक सम जाकर है ज्ञाना। तासों कहहू वचन प्रवाना।।1।।
जा को सूक्ष्म ज्ञान है भाई। ता को स्मरन देहु लखाई।।2।।
ज्ञान गम्य जा को पुनि होई। सार शब्द जा को कह सोई।।3।।
जा को होए दिव्य ज्ञान परवेशा, ताको कहे तत्व ज्ञान उपदेशा।।4।।
उपरोक्त वाणी से स्पष्ट है कि कड़िहार गुरु (पूर्ण संत) तीन स्थिति में सार नाम तक प्रदान करता है तथा चैथी स्थिति में सार शब्द प्रदान करना होता है। क्योंकि कबीर सागर में तो प्रमाण बाद में देखा था परंतु उपदेश विधि पहले ही पूज्य दादा गुरुदेव तथा परमेश्वर कबीर साहेब जी ने हमारे पूज्य गुरुदेव को प्रदान कर दी थी जो हमारे को शुरु से ही तीन बार में नामदान की दीक्षा करते आ रहे हैं।
हमारे गुरुदेव रामपाल जी महाराज प्रथम बार में श्री गणेश जी, श्री ब्रह्मा सावित्राी जी, श्री लक्ष्मी विष्णु जी, श्री शंकर पार्वती जी व माता शेरांवाली का नाम जाप देते हैं। जिनका वास हमारे मानव शरीर में बने चक्रों में होता है। मूलाधार चक्र में श्री गणेश जी का वास, स्वाद चक्र में ब्रह्मा सावित्राी जी का वास, नाभि चक्र में लक्ष्मी विष्णु जी का वास, हृदय चक्र में शंकर पार्वती जी का वास, कंठ चक्र में शेरांवाली माता का वास है और इन सब देवी-देवताओं के आदि अनादि नाम मंत्रा होते हैं जिनका वर्तमान में गुरुओं को ज्ञान नहीं है। इन मंत्रों के जाप से ये पांचों चक्र खुल जाते हैं। इन चक्रों के खुलने के बाद मानव भक्ति करने के लायक बनता है। सतगुरु गरीबदास जी अपनी वाणी में प्रमाण देते हैं कि:--
पांच नाम गुझ गायत्राी आत्म तत्व जगाओ। ¬ किलियं हरियम् श्रीयम् सोहं ध्याओ।।
भावार्थ: पांच नाम जो गुझ गायत्राी है। इनका जाप करके आत्मा को जागृत करो।
दूसरी बार में दो अक्षर का जाप देते हैं जिनमें एक ओम् और दूसरा तत् (जो कि गुप्त है उपदेशी को बताया जाता है) जिनको स्वांस के साथ जाप किया जाता है।
तीसरी बार में सारनाम देते हैं जो कि पूर्ण रूप से गुप्त है।
-ः तीन बार में नाम जाप देने का प्रमाण:-
अध्याय 17 का श्लोक 23
¬, तत्, सत्, इति, निर्देशः, ब्रह्मणः, त्रिविधः, स्मृतः,
ब्राह्मणाः, तेन, वेदाः, च, यज्ञाः, च, विहिताः, पुरा।।23।।
अनुवाद: (¬) ब्रह्म का (तत्) यह सांकेतिक मंत्र परब्रह्म का (सत्) पूर्णब्रह्म का (इति) ऐसे यह (त्रिविधः) तीन प्रकार के (ब्रह्मणः) पूर्ण परमात्मा के नाम सुमरण का (निर्देशः) संकेत (स्मृतः) कहा है (च) और (पुरा) सृष्टि के आदिकालमें (ब्राह्मणाः) विद्वानों ने बताया कि (तेन) उसी पूर्ण परमात्मा ने (वेदाः) वेद (च) तथा (यज्ञाः) यज्ञादि (विहिताः) रचे।
संख्या न. 822 सामवेद उतार्चिक अध्याय 3 खण्ड न. 5 श्लोक न. 8 (संत रामपाल दास द्वारा भाषा-भाष्य): -
मनीषिभिः पवते पूव्र्यः कविर्नृभिर्यतः परि कोशां असिष्यदत्।
त्रितस्य नाम जनयन्मधु क्षरन्निन्द्रस्य वायुं सख्याय वर्धयन्।।8।।
मनीषिभिः पवते पूव्र्यः कविर् नृभिः यतः परि कोशान् असिष्यदत् त्रि तस्य नाम जनयन् मधु क्षरनः न इन्द्रस्य वायुम् सख्याय वर्धयन्।
शब्दार्थµ(पूव्र्यः) सनातन अर्थात् अविनाशी (कविर नृभिः) कबीर परमेश्वर मानव रूप धारण करके अर्थात् गुरु रूप में प्रकट होकर (मनीषिभिः) हृदय से चाहने वाले श्रद्धा से भक्ति करने वाले भक्तात्मा को (त्रि) तीन (नाम) मन्त्रा अर्थात् नाम उपदेश देकर (पवते) पवित्रा करके (जनयन्) जन्म व (क्षरनः) मृत्यु से (न) रहित करता है तथा (तस्य) उसके (वायुम्) प्राण अर्थात् जीवन-स्वांसों को जो संस्कारवश गिनती के डाले हुए होते हैं को (कोशान्) अपने भण्डार से (सख्याय) मित्राता के आधार से (परि) पूर्ण रूप से (वर्धयन्) बढ़ाता है। (यतः) जिस कारण से (इन्द्रस्य) परमेश्वर के (मधु) वास्तविक आनन्द को (असिष्यदत्) अपने आशीर्वाद प्रसाद से प्राप्त करवाता है।
भावार्थ:- इस मन्त्रा में स्पष्ट किया है कि पूर्ण परमात्मा कविर अर्थात् कबीर मानव शरीर में गुरु रूप में प्रकट होकर प्रभु प्रेमियों को तीन नाम का जाप देकर सत्य भक्ति कराता है तथा उस मित्रा भक्त को पवित्रा करके अपने आर्शीवाद से पूर्ण परमात्मा प्राप्ति करके पूर्ण सुख प्राप्त कराता है। साधक की आयु बढाता है। यही प्रमाण गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में है कि ओम्-तत्-सत् इति निर्देशः ब्रह्मणः त्रिविद्य स्मृतः भावार्थ है कि पूर्ण परमात्मा को प्राप्त करने का ¬ (1) तत् (2) सत् (3) यह मन्त्रा जाप स्मरण करने का निर्देश है। इस नाम को तत्वदर्शी संत से प्राप्त करो। तत्वदर्शी संत के विषय में गीता अध्याय 4 श्लोक नं. 34 में कहा है तथा गीता अध्याय नं. 15 श्लोक नं. 1 व 4 में तत्वदर्शी सन्त की पहचान बताई तथा कहा है कि तत्वदर्शी सन्त से तत्वज्ञान जानकर उसके पश्चात् उस परमपद परमेश्वर की खोज करनी चाहिए। जहां जाने के पश्चात् साधक लौट कर संसार में नहीं आते अर्थात् पूर्ण मुक्त हो जाते हैं। उसी पूर्ण परमात्मा से संसार की रचना हुई है।
विशेष:- उपरोक्त विवरण से स्पष्ट हुआ कि पवित्रा चारों वेद भी साक्षी हैं कि पूर्ण परमात्मा ही पूजा के योग्य है, उसका वास्तविक नाम कविर्देव (कबीर परमेश्वर) है तथा तीन मंत्रा के नाम का जाप करने से ही पूर्ण मोक्ष होता है।
धर्मदास जी को तो परमश्ेवर कबीर साहेब जी ने सार शब्द देने से मना कर दिया था तथा कहा था कि यदि सार शब्द किसी काल के दूत के हाथ पड़ गया तो बिचली पीढ़ी वाले हंस पार नहीं हो पाऐंगे। जैसे कलयुग के प्रारम्भ में प्रथम पीढ़ी वाले भक्त अशिक्षित थे तथा कलयुग के अंत में अंतिम पीढ़ी वाले भक्त कृतघनी हो जाऐंगे तथा अब वर्तमान में सन् 1947 से भारत स्वतंत्रा होने के पश्चात् बिचली पीढ़ी प्रारम्भ हुई है। सन् 1951 में सतगुरु रामपाल जी महाराज को भेजा है। अब सर्व भक्तजन शिक्षित हैं। शास्त्रा अपने पास विद्यमान हैं। अब यह सत मार्ग सत साधना पूरे संसार में फैलेगा तथा नकली गुरु तथा संत, महंत छुपते फिरेंगे। इसलिए कबीर सागर, जीव धर्म बोध, बोध सागर, पृष्ठ 1937 पर:-
धर्मदास तोहि लाख दुहाई, सार शब्द कहीं बाहर नहीं जाई।
सार शब्द बाहर जो परि है, बिचली पीढ़ी हंस नहीं तरि है।
पुस्तक “धनी धर्मदास जीवन दर्शन एवं वंश परिचय” के पृष्ठ 46 पर लिखा है कि ग्यारहवीं पीढ़ी को गद्दी नहीं मिली। जिस महंत जी का नाम “धीरज नाम साहब” कवर्धा में रहता था। उसके बाद बारहवां महंत उग्र नाम साहेब ने दामाखेड़ा में गद्दी की स्थापना की तथा स्वयं ही महंत बन बैठा। इससे पहले दामाखेड़ा में गद्दी नहीं थी। इससे स्पष्ट है कि पूरे विश्व में सतगुरु रामपाल जी महाराज के अतिरिक्त वास्तविक भक्ति मार्ग नहीं है। संत रामपाल जी महाराज अपने प्रवचनों में बार-2 कहते हैं कि सर्व प्रभु प्रेमी श्रद्धालुओं से प्रार्थना है कि मुझे प्रभु का भेजा हुआ दास जान कर अपना कल्याण करवाऐं।
यह संसार समझदा नाहीं, कहन्दा श्याम दोपहरे नूं।
गरीबदास यह वक्त जात है, रोवोगे इस पहरे नूं।।
बारहवें पंथ (गरीबदास पंथ बारहवां पंथ लिखा है कबीर सागर,कबीर चरित्रा बोध पृष्ठ 1870 पर) के विषय में कबीर सागर कबीर वाणी पृष्ठ नं. 136.137 पर वाणी लिखी है कि:-
सम्वत् सत्रासै पचहत्तर होई, ता दिन प्रेम प्रकटें जग सोई।
साखी हमारी ले जीव समझावै, असंख्य जन्म ठौर नहीं पावै।
बारवें पंथ प्रगट ह्नै बानी, शब्द हमारे की निर्णय ठानी।
अस्थिर घर का मरम न पावैं, ये बारा पंथ हमही को ध्यावैं।
बारवें पंथ हम ही चलि आवैं, सब पंथ मेटि एक ही पंथ चलावें।
धर्मदास मोरी लाख दोहाई, सार शब्द बाहर नहीं जाई।
सार शब्द बाहर जो परही, बिचली पीढी हंस नहीं तरहीं।
तेतिस अर्ब ज्ञान हम भाखा, सार शब्द गुप्त हम राखा।
मूल ज्ञान तब तक छुपाई, जब लग द्वादश पंथ मिट जाई।
यहां पर साहेब कबीर जी अपने शिष्य धर्मदास जी को समझाते हैं कि संवत् 1775 में मेरे ज्ञान का प्रचार होगा जो बारहवां पंथ होगा। बारहवें पंथ में हमारी वाणी प्रकट होगी लेकिन सही भक्ति मार्ग नहीं होगा। फिर बारहवें पंथ में हम ही चल कर आएगें और सभी पंथ मिटा कर केवल एक पंथ चलाएंगे। लेकिन धर्मदास तुझे लाख सौगंध है कि यह सार शब्द किसी कुपात्रा को मत दे देना नहीं तो बिचली पीढ़ी के हंस पार नहीं हो सकेंगे। इसलिए जब तक बारह पंथ मिटा कर एक पंथ नहीं चलेगा तब तक मैं यह मूल ज्ञान छिपा कर रखूंगा।
संत गरीबदास जी महाराज की वाणी में नाम का महत्व:--
नाम अभैपद ऊंचा संतों, नाम अभैपद ऊंचा।
राम दुहाई साच कहत हूं, सतगुरु से पूछा।।
कहै कबीर पुरुष बरियामं, गरीबदास एक नौका नामं।।
नाम निरंजन नीका संतों, नाम निरंजन नीका।
तीर्थ व्रत थोथरे लागे, जप तप संजम फीका।।
गज तुरक पालकी अर्था, नाम बिना सब दानं व्यर्था।
कबीर, नाम गहे सो संत सुजाना, नाम बिना जग उरझाना।
ताहि ना जाने ये संसारा, नाम बिना सब जम के चारा।।
संत नानक साहेब जी की वाणी में नाम का महत्व:--
नानक नाम चढ़दी कलां, तेरे भाणे सरबत दा भला।
नानक दुःखिया सब संसार, सुखिया सोय नाम आधार।।
जाप ताप ज्ञान सब ध्यान, षट शास्त्रा सिमरत व्याखान।
जोग अभ्यास कर्म धर्म सब क्रिया, सगल त्यागवण मध्य फिरिया।
अनेक प्रकार किए बहुत यत्ना, दान पूण्य होमै बहु रत्ना।
शीश कटाये होमै कर राति, व्रत नेम करे बहु भांति।।
नहीं तुल्य राम नाम विचार, नानक गुरुमुख नाम जपिये एक बार।।
(परम पूज्य कबीर साहेब (कविर् देव) की अमृतवाणी)
संतो शब्दई शब्द बखाना
संतो शब्दई शब्द बखाना।।टेक।। शब्द फांस फँसा सब कोई शब्द नहीं पहचाना।।
प्रथमहिं ब्रह्म स्वं इच्छा ते पाँचै शब्द उचारा। सोहं, निरंजन, रंरकार, शक्ति और ओंकारा।। पाँचै तत्व प्रकृति तीनों गुण उपजाया। लोक द्वीप चारों खान चैरासी लख बनाया।। शब्दइ काल कलंदर कहिये शब्दइ भर्म भुलाया।। पाँच शब्द की आशा में सर्वस मूल गंवाया।। शब्दइ ब्रह्म प्रकाश मेंट के बैठे मूंदे द्वारा। शब्दइ निरगुण शब्दइ सरगुण शब्दइ वेद पुकारा।। शुद्ध ब्रह्म काया के भीतर बैठ करे स्थाना। ज्ञानी योगी पंडित औ सिद्ध शब्द में उरझाना।। पाँचइ शब्द पाँच हैं मुद्रा काया बीच ठिकाना। जो जिहसंक आराधन करता सो तिहि करत बखाना।। शब्द निरंजन चांचरी मुद्रा है नैनन के माँही। ताको जाने गोरख योगी महा तेज तप माँही।। शब्द ओंकार भूचरी मुद्रा त्रिकुटी है स्थाना। व्यास देव ताहि पहिचाना चांद सूर्य तिहि जाना।। सोहं शब्द अगोचरी मुद्रा भंवर गुफा स्थाना। शुकदेव मुनी ताहि पहिचाना सुन अनहद को काना।। शब्द रंरकार खेचरी मुद्रा दसवें द्वार ठिकाना। ब्रह्मा विष्णु महेश आदि लो रंरकार पहिचाना।। शक्ति शब्द ध्यान उनमुनी मुद्रा बसे आकाश सनेही। झिलमिल झिलमिल जोत दिखावे जाने जनक विदेही।। पाँच शब्द पाँच हैं मुद्रा सो निश्चय कर जाना। आगे पुरुष पुरान निःअक्षर तिनकी खबर न जाना।। नौ नाथ चैरासी सिद्धि लो पाँच शब्द में अटके। मुद्रा साध रहे घट भीतर फिर ओंधे मुख लटके।। पाँच शब्द पाँच है मुद्रा लोक द्वीप यमजाला। कहैं कबीर अक्षर के आगे निःअक्षर का उजियाला।।
जैसा कि इस शब्द ‘‘संतो शब्दई शब्द बखाना‘‘ में लिखा है कि सभी संत जन शब्द (नाम) की महिमा सुनाते हैं। पूर्णब्रह्म कबीर साहिब जी ने बताया है कि शब्द सतपुरुष का भी है जो कि सतपुरुष का प्रतीक है व ज्योति निरंजन (काल) का प्रतीक भी शब्द ही है। जैसे शब्द ज्योति निरंजन यह चांचरी मुद्रा को प्राप्त करवाता है इसको गोरख योगी ने बहुत अधिक तप करके प्राप्त किया जो कि आम (साधारण) व्यक्ति के बस की बात नहीं है और फिर गोरख नाथ काल तक ही साधना करके सिद्ध बन गए। मुक्त नहीं हो पाए। जब कबीर साहिब ने सत्यनाम तथा सार नाम दिया तब काल से छुटकारा गोरख नाथ जी का हुआ। इसीलिए ज्योति निरंजन नाम का जाप करने वाले काल जाल से नहीं बच सकते अर्थात् सत्यलोक नहीं जा सकते। शब्द ओंकार (ओ3म) का जाप करने से भूंचरी मुद्रा की स्थिति में साधक आ जाता हे। जो कि वेद व्यास ने साधना की और काल जाल में ही रहा। सोहं नाम के जाप से अगोचरी मुद्रा की स्थिति हो जाती है और काल के लोक में बनी भंवर गुफा में पहुँच जाते हैं। जिसकी साधना सुखदेव ऋषि ने की और केवल श्री विष्णु जी के लोक में बने स्वर्ग तक पहुँचा। शब्द रंरकार खैंचरी मुद्रा दसमें द्वार (सुष्मणा) तक पहुँच जाते हंै। ब्रह्मा विष्णु महेश तीनों ने ररंकार को ही सत्य मान कर काल के जाल में उलझे रहे। शक्ति (श्रीयम्) शब्द ये उनमनी मुद्रा को प्राप्त करवा देता है जिसको राजा जनक ने प्राप्त किया परन्तु मुक्ति नहीं हुई। कई संतों ने पाँच नामों में शक्ति की जगह सत्यनाम जोड़ दिया है जो कि सत्यनाम कोई जाप नहीं है। ये तो सच्चे नाम की तरफ इशारा है जैसे सत्यलोक को सच्च खण्ड भी कहते हैं ऐसे ही सत्यनाम व सच्चा नाम है। केवल सत्यनाम-सत्यनाम जाप करने का नहीं है। इन पाँच शब्दों की साधना करने वाले नौ नाथ तथा चैरासी सिद्ध भी इन्हीं तक सीमित रहे तथा शरीर में (घट में) ही धुन सुनकर आनन्द लेते रहे। वास्तविक सत्यलोक स्थान तो शरीर (पिण्ड) से (अण्ड) ब्रह्मण्ड से पार है, इसलिए फिर माता के गर्भ में आए (उलटे लटके) अर्थात् जन्म-मृत्यु का कष्ट समाप्त नहीं हुआ। जो भी उपलब्धि (घट) शरीर में होगी वह तो काल (ब्रह्म) तक की ही है, क्योंकि पूर्ण परमात्मा का निज स्थान (सत्यलोक) तथा उसी के शरीर का प्रकाश तो परब्रह्म आदि से भी अधिक तथा बहुत आगे (दूर) है। उसके लिए तो पूर्ण संत ही पूरी साधना बताएगा जो पाँच नामों (शब्दों) से भिन्न है।
संतों सतगुरु मोहे भावै, जो नैनन अलख लखावै।।
ढोलत ढिगै ना बोलत बिसरै, सत उपदेश दृढ़ावै।।
आंख ना मूंदै कान ना रूदैं ना अनहद उरझावै।
प्राण पूंज क्रियाओं से न्यारा, सहज समाधि बतावै।।
घट रामायण के रचयिता आदरणीय तुलसीदास साहेब जी हाथ रस वाले स्वयं कहते हैं कि:- (घट रामायण प्रथम भाग पृष्ठ नं. 27)।
पाँचों नाम काल के जानौ तब दानी मन संका आनौ।
सुरति निरत लै लोक सिधाऊँ, आदिनाम ले काल गिराऊँ।
सतनाम ले जीव उबारी, अस चल जाऊँ पुरुष दरबारी।।
कबीर, कोटि नाम संसार में, इनसे मुक्ति न हो।
सार नाम मुक्ति का दाता, वाको जाने न कोए।।
पूरा सतगुरु सोए कहावै, दोय अखर का भेद बतावै।
एक छुड़ावै एक लखावै, तो प्राणी निज घर जावै।।
गुरु नानक जी की वाणी में तीन नाम का प्रमाण:--
जै पंडित तु पढ़िया, बिना दुउ अखर दुउ नामा।
परणवत नानक एक लंघाए, जे कर सच समावा।
वेद कतेब सिमरित सब सांसत, इन पढ़ि मुक्ति न होई।।
एक अक्षर जो गुरुमुख जापै, तिस की निरमल होई।।
भावार्थ: गुरु नानक जी महाराज अपनी वाणी द्वारा समाझाना चाहते हैं कि पूरा सतगुरु वही है जो दो अक्षर के जाप के बारे में जानता है। जिनमें एक काल व माया के बंधन से छुड़वाता है और दूसरा परमात्मा को दिखाता है और तीसरा जो एक अक्षर है वो परमात्मा से मिलाता है।
संत गरीबदास जी महाराज की अमृतवाणी में स्वांस के नाम का प्रमाण:--
गरीब, स्वांसा पारस भेद हमारा, जो खोजे सो उतरे पारा।
स्वांसा पारा आदि निशानी, जो खोजे सो होए दरबानी।
गरीब, स्वांसा ही में सार पद, पद में स्वांसा सार।
दम देही का खोज करो, आवागमन निवार।।
गरीब, स्वांस सुरति के मध्य है, न्यारा कदे नहीं होय।
सतगुरु साक्षी भूत कूं, राखो सुरति समोय।।
गरीब, चार पदार्थ उर में जोवै, सुरति निरति मन पवन समोवै।
सुरति निरति मन पवन पदार्थ (नाम) करो इक्तर यार।
द्वादस अन्दर समोय ले, दिल अंदर दीदार।
कबीर, कहता हूं कहि जात हूं, कहूं बजा कर ढोल।
स्वांस जो खाली जात है, तीन लोक का मोल।।
कबीर, माला स्वांस उस्वांस की, फेरेंगे निज दास।
चैरासी भ्रमे नहीं, कटैं कर्म की फांस।।
गुरु नानक देव जी की वाणी में प्रमाण:--
चहऊं का संग, चहऊं का मीत, जामै चारि हटावै नित।
मन पवन को राखै बंद, लहे त्रिकुटी त्रिवैणी संध।।
अखण्ड मण्डल में सुन्न समाना, मन पवन सच्च खण्ड टिकाना।।
पूर्ण सतगुरु वही है जो तीन बार में नाम दे और स्वांस की क्रिया के साथ सुमिरण का तरीका बताए। तभी जीव का मोक्ष संभव है। जैसे परमात्मा सत्य है। ठीक उसी प्रकार परमात्मा का साक्षात्कार व मोक्ष प्राप्त करने का तरीका भी आदि अनादि व सत्य है जो कभी नहीं बदलता है। गरीबदास जी महाराज अपनी वाणी में कहते हैं:
भक्ति बीज पलटै नहीं, युग जांही असंख। सांई सिर पर राखियो, चैरासी नहीं शंक।।
घीसा आए एको देश से, उतरे एको घाट। समझों का मार्ग एक है, मूर्ख बारह बाट।।
कबीर भक्ति बीज पलटै नहीं, आन पड़ै बहु झोल। जै कंचन बिष्टा परै, घटै न ताका मोल।।
बहुत से महापुरुष सच्चे नामों के बारे में नहीं जानते। वे मनमुखी नाम देते हैं जिससे न सुख होता है और न ही मुक्ति होती है। कोई कहता है तप, हवन, यज्ञ आदि करो व कुछ महापुरुष आंख, कान और मुंह बंद करके अन्दर ध्यान लगाने की बात कहते हैं जो कि यह उनकी मनमुखी साधना का प्रतीक है। जबकि कबीर साहेब, संत गरीबदास जी महाराज, गुरु नानक देव जी आदि परम संतों ने सारी क्रियाओं को मना करके केवल एक नाम जाप करने को ही कहा है।
एक नास्त्रोदमस नामक भविष्य वक्ता था। जिसकी सर्व भविष्यवाणियां सत्य हो रही हैं जो लगभग चार सौ वर्ष पूर्व लिखी व बोली गई थी। उसने कहा है कि सन् 2006 में एक हिन्दू संत प्रकट होगा अर्थात् संसार में उसकी चर्चा होगी। वह संत न तो मुसलमान होगा, न वह इसाई होगा वह केवल हिन्दू ही होगा। उस द्वारा बताया गया भक्ति मार्ग सर्व से भिन्न तथा तथ्यों पर आधारित होगा। उसको ज्ञान में कोई पराजित नहीं कर सकेगा। सन् 2006 में उस संत की आयु 50 व 60 वर्ष के बीच होगी। (संत रामपाल जी महाराज का जन्म 8 सितम्बर सन् 1951 को हुआ। जुलाई सन् 2006 में संत जी की आयु ठीक 55 वर्ष बनती है जो भविष्यवाणी अनुसार सही है।) उस हिन्दू संत द्वारा बताए गए ज्ञान को पूरा संसार स्वीकार करेगा। उस हिन्दू संत की अध्यक्षता में सर्व संसार में भारत वर्ष का शासन होगा तथा उस संत की आज्ञा से सर्व कार्य होंगे। उसकी महिमा आसमानों से ऊपर होंगी। नास्त्रौदमस द्वारा बताया सांकेतिक संत रामपाल जी महाराज हैं जो सन् 2006 में विख्यात हुए हैं। भले ही अनजानों ने बुराई करके प्रसिद्ध किया है परंतु संत में कोई दोष नहीं है।
उपरोक्त लक्षण जो बताए हैं ये सभी तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज में विद्यमान हैं।