पांचवी किस्त
राधा स्वामी पंथ की कहानी-उन्हीं की जुबानी: जगत गुरु
(धन-धन सतगुरु, सच्चा सौदा तथा जय गुरुदेव पंथ भी राधास्वामी की शाखाएं हैं)
(पांचवी किस्त)
(18 अप्रैल 2006 को पंजाब केसरी में प्रकाशित)
(---- गतांक से आगे)
‘‘एक श्रद्वालु की आत्म कथा’’
मैं राजेन्द्र दास 200.बी पश्चिम बिहार एक्सटैन्शन नई दिल्ली-63 का रहने वाला हूँ। मैंने राधास्वामी पंथ के सन्त चरणसिंह जी महाराज(डेरा बाबा जैमल सिंह ब्यास जि. अमृतसर पंजाब) से सन् 1980 में नाम दान लिया। गुरू जी के बताए अनुसार 2:30 घण्टे सुबह तथा 2:30 घण्टे शाम साधना शुरू की अभ्यास बढाते-2 अधिक समय करने लगा। मेरे दोनों कुल्हे भी पीड़ा करने लग जाते थे। फिर भी परमात्मा प्राप्ति की तड़फ से कष्ट को सहन करते हुए साधना की। कुछ प्रकाश भी दिखाई देता था तथा कुछ आवाजें भी सुनने लगी। अपने पंथ की साधना को सर्वोच्च मानकर अन्य की बात नहीं सुनता था। शरीर में कष्ट, घर में निर्धनता बढ़ती गई। कोई कार्य सिद्ध नहीं होता था। महा परेशानी का जीवन जीता रहा। गुरू चरण दास जी सत्संगों में कहते थे कि प्रारब्ध का कर्म भोग तो जीव को भोगना ही पड़ता है। इस दृष्टिकोण से अपने महाकष्टमय जीवन को जी रहा था।
एक दिन आस्था टी.वी. चैलन पर सन्त रामपाल दास आश्रम करौंथा जिरोहतक का सत्संग सुना तो मुझे बहुत गुस्सा आया तथा सोचा यह तो हमारे पंथ
की निन्दा कर रहा है। न चाहते हुए भी देखता रहा। जब सन्त रामपाल जी ने हमारे ही पंथ की पुस्तकों को टी.वी. पर दिखाया तथा अन्य शास्त्रों से तुलना की बताया कि श्री सावन सिंह महाराज ने श्री जगत सिंह जी को उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया। तीन वर्ष पश्चात् श्री जगत सिंह जी का निधन हो गया उसके पश्चात श्री सावन सिंह के शिष्य श्री चरण सिंह जी जो नाते में श्री सावन सिंह के पौत्र थे को व्यास गद्दी पर नियुक्त किया गया। श्री चरण सिंह को श्री सावन सिंह जी ने नाम दान का आदेश भी नहीं दिया था। यदि कहें कि श्री जगत सिंह जी ने आदेश दिया तो श्री सावन सिंह जी का शिष्य नहीं रहा। श्री चरण सिंह जी तथा श्री जगत सिंह जी गुरु भाई थे। एक शिष्य दूसरे शिष्य को आदेश नहीं दे सकता। जैसे एक सिपाही दूसरे सिपाही को सिपाही नियुक्त नहीं कर सकता। यह प्रमाण देख कर मुझे करंट जैसा लगा कि सचमुच राधास्वामी पंथ का ज्ञान तथा साधना पूर्ण रूप से शास्त्रविरूद्ध है। वह कार्यक्रम आस्था टी.वी. पर बन्द हो गया। कुछ समय उपरान्त एक समाचार पत्र पढ़ा उसमें भी सन्त रामपाल जी ने सर्व पुस्तकों का तथा पृष्ठों का हवाला देकर लेख लिखा था।
राधास्वामी पंथ की साधना करते-2 भी घर तथा परिवार व कारोबार में अत्यधिक परेशानियों के कारण शराब तथा तम्बाखु का आदी भी हो गया था। उस समाचार पत्र को तथा उसके सम्बन्धित पुस्तकों को लेकर में ब्यास डेरा राधास्वामी पंजाब में गया तथा सन्त रामपाल दास द्वारा बताई गई त्रुटियों के समाधान के लिए श्री रोहतास चन्द्र बहल जी तथा परिचर कथा वाचक श्री खुराना जी से मिला। उनको तुलसी साहेब हाथरस वाले द्वारा रचित घट रामायण भाग पहला के पृष्ठ 27 पर दिखाया। जिसमें लिखा है कि पाँचों नाम काल के हैं। इनसे भिन्न आदि नाम तथा सतनाम(दो नाम) हैं। उनसे ही काल जाल से छुटकारा हो सकता है। वो दो नाम हमें नहीं मिले तो कैसे काल जाल से छुटेगें। कबीर साहेब जी की वाणी दिखाई ‘‘शब्द‘‘ ‘‘सन्तों शब्द शब्द बखाना, शब्द फांस फंशा सब कोई शब्द नहीं पहचाना। प्रथम ही ब्रह्म (काल) स्वईच्छा से पांचों शब्द उच्चारा, सोहं, जोत निरंजन, ररंकार, शक्ति और ओंकारा।’’ जब यह पुस्तके दिखाई तो दाँतों तले उंगली दबाई। परन्तु अपनी चतुरता दिखाई की छटवां नाम अन्दर ध्यान में मिलेगा। मैंने पूछा तुलसी साहेब तो कह रहे हैं कि दो नाम और है जो पांचों से अन्य हैं। आदि नाम तथा सतनाम। फिर सातवां कहाँ मिलेगा? इस बात पर उन्होंने कहा आप गुरू जी(सन्त गुरूइन्द्र सिंह जी) से मिल कर पूछो। मैंने कहा मिलाओ मुझे गुरू जी से, टालते हुए कहा कि करोड़ों शिष्य हैं गुरू जी के, किस-2 से मिलेगें। आप पत्र द्वारा समाधान प्राप्त करना। मैं रोता हुआ वापिस दिल्ली आ गया। पत्र डाला। उसका जवाब मिला, जो बेतुका था, कहा था आप अभ्यास और बढाते जाओ अपने आप ही सब मन्त्रा मिल जाएगें।
डेरा ब्यास के उत्तर से कोई सन्तुष्टि नहीं हुई। उसके पश्चात सन्त रामपाल जी महाराज के बताए अनुसार राधास्वामी पंथ की पुस्तकों को पढा तो रोना आने लगा। यह क्या मजाक कर रखा है।
- हजूर स्वामी शिवदयाल जी का कोई गुरू नहीं था।
- स्वामी जी हुक्का पीते थे।
- स्वामी जी प्रेत की तरह अपनी परम शिष्या बुक्की में प्रवेश होकर बोलते थे। मृत्यु उपरान्त भी बुक्की के मुख से हुक्का पीते थे तथा भोजन भी ग्रहण करते थे। सारवचन वार्तिक वचन 4 में कहा है कि सतनाम को सतनाम, सारनाम, सतशब्द, सतलोक, सतपुरूष भी कहते हैं।
आदि व्याख्याओं को पढ़ कर रोना आया। क्या करूं? कहाँ जाऊँ? सन्त रामपाल दास जी महाराज ने बताया कि हठ योग सन्त मार्ग नहीं है। हठ योग का प्रमाण रूहानी फूल पुस्तक पृष्ठ-82 पर श्री जैमल सिंह जी महाराज अभ्यास में आलस आने पर अपने शरीर पर बैंत मारते थे तथा हजूर स्वामी शिवदयाल जी महाराज कई-2 दिन तक बन्द कमरे में हठ योग से साधना करते थे जो किसी भी सन्त के इतिहास में नहीं है। सन्त नानक जी हल चलाते थे तथा स्मरण भी करते थे, सन्त रविदास जी जूते बनाने का कार्य भी करते थे तथा स्मरण भी करते थे तथा परमेश्वर कबीर जी ने लीला करके दिखाया की जुलाहे का कार्य करते-2 भी प्रभु नाम का स्मरण कर सकते हैं। सन्त गरीब दास जी(छुडानी वाले) हल भी चलाते थे तथा स्मरण भी करते थे। हठ योग करने से श्री तुलसीदास साहेब हाथरस वाले के दोनों पैर कमर से नीचे सुन्न हो गए थे (अधरंग हो गया था) उनके शिष्य पालकियों में बैठा कर ले जाते थे (पुस्तक जीवन चरित्र तुलसी साहेब पृष्ठ - 7 पर प्रमाण है)। यह साधना जनसाधारण नहीं कर सकता तथा शास्त्रविरूद्ध होने के कारण व्यर्थ है। पुस्तक सन्तमत प्रकाश भाग-4 पृष्ठ-126 पर श्री सावन सिंह जी ने लिखा है कि अभ्यास में आत्मा सिमट कर आँखों के पीछे चली जाती है शरीर सो जाता है तो यह शरीर मुर्दा दिखाई देता है। यही जीवित मरना है।
उपरोक्त प्रमाणों को आँखों देख कर मैंने (राजेन्द्र ने) परम सन्त रामपाल दास जी महाराज से उपदेश ग्रहण कर लिया। मेरे सर्व कार्य सिद्ध हो गए तथा सर्व नशा छूट गया। मेरे शरीर का रोग भी समाप्त हो गया।
मेरी सर्व भक्त समाज से प्रार्थना है कि सत्य को आँखों देख कर सन्त
रामपाल जी महाराज से नाम दान लेकर अपना मानव जीवन सफल बनाऐं।
आपका अपना
राजेन्द्र दास
कुछेक श्रद्धालु कहते हैं कि क्या गुरू बदलने में पाप तो नहीं लगेगा? उन श्रद्धालुओं से निवेदन है कि जैसे एक डाक्टर(वैद्य) से उपचार नहीं होता है तो दूसरा डाक्टर बदलने में लाभ होता है हानि नहीं होती। ठीक इसी प्रकार गुरू को जानो। इसलिए शास्त्रविधि विरूद्ध ज्ञान वाले गुरू को त्यागकर पूर्ण गुरू धारण करना हितकर है। पाप नहीं अपितु पूण्य है। कुछ श्रद्धालु संकोच करते हैं कि हमारी तीस वर्ष की साधना का क्या होगा? अब कैसे छोड़ें? उन श्रद्धालुओं से निवेदन हैं कि विचार करें कि आपको किसी शहर में जाना है, तीस किलोमीटर जाने के बाद पता चले कि आप गलत रास्ते पर जा रहे हैं, तो तुरंत मुड़ जाना चाहिए। नहीं तो मंजिल दूर होती जाएगी। फिर भी कोई कहे कि हम तो तीस किलोमीटर सफर तय कर चुके हैं, अब कैसे छोड़ें इस रास्ते को? यह विचार तो बालक के या शराबी के हो सकते हैं। समझदार तो तुरंत मुड़ जाएगा। इसलिए उस साधना को तुरंत त्यागकर वास्तविक शास्त्रविधि अनुसार साधना संत रामपाल जी महाराज से ग्रहण करें।
कृप्या पूर्ण सन्त की अन्य पहचान (2) में पढ़ें:-
नानक साहेब कहते हैं कि -
सोई गुरु पूरा कहावै, दोय अख्खर का भेद बतावै। एक छुड़ावै एक लखावै, तो प्राणी निज घर जावै।
शेष अगले अंक में ----------------