शास्त्रार्थ विषय
शास्त्रार्थ कैसे होता था ? -
दो विद्वान प्रश्न-उत्तर किया करते थे तथा श्रोतागण भी बहु संख्या में शास्त्रार्थ (प्रश्नोत्तर) सुनने के लिए विराजमान होते थे। हार जीत का फैसला श्रोताओं के हाथ में होता था, जिन्हें स्वयं ज्ञान नहीं कि ये क्या कह रहे हैं? जिसने ज्यादा संस्कृत लगातार उच्चारण की तो श्रोतागण ताली बजाकर विजयी होने का प्रमाण देते थे। इस तरह विद्वानों की हार - जीत का फैसला अविद्वानों के हाथ में था। प्रमाण:- पुस्तक ‘‘ श्री मद् दयानन्द प्रकाश’’ लेखक श्री सत्यानन्द जी महाराज, प्रकाशकः- सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधी सभा 3ध्5 महर्षि दयानन्द भवन, राम लीला मैदान नई दिल्ली-2, गंगा काण्ड आठवां सर्ग पृष्ठ 89 पर से ज्यों का त्यों लेखः- तीन दिन तक, प्रतिसायं कृष्णानन्द जी और स्वामी जी का शास्त्रार्थ होता रहा। एक दिन शास्त्रार्थ के समय किसी ने कृष्णानन्द जी से साकारवाद का अवलम्बन किया और इसी पर शास्त्रार्थ चलाया। स्वामी जी का तो यह मन-चाहता विषय था। उन्होंने धाराप्रवाह संस्कृत बोलते हुए निराकार सिद्धान्त पर वेदों और उपनिषदों के प्रमाणों की एक लड़ी पिरोदी, और कृष्णानन्द जी को उनका अर्थ मानने के लिए बाधित किया। कृष्णानन्द कोई प्रमाण न दे सका। केवल गीता का यह श्लोक ‘‘ यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत’’ लोगों की ओर मुंह करके पढ़ने लगा। स्वामी जी ने गर्ज कर कहा कि ‘‘ आप वाद मेरे साथ करते हैं, इसलिए मुझे ही अभिमुख कीजियें।’’ परन्तु उसके तो विचार ही उखड़ गये थे, वह चैकड़ी ही भूल चुका था। मुख में झाग आ गए। गले में घिग्घी बँध गई। चेहरा फीका पड़ गया। किसी प्रकार लाज रह जाए, इससे उसने तर्क-शास्त्र की शरण लेकर स्वामी जी को कहा कि ‘‘अच्छा, लक्षण का लक्षण बताइये?’’ स्वामी जी ने उत्तर दिया कि‘‘जैसे कारण का कारण नहीं वैसे ही लक्षण का लक्षण भी नहीं है।’’ लोगों ने अपनी हंसी से कृष्णानन्द की हार प्रकाशित कर दी और वह घबड़ाकर वहाँ से चलता बना।
उपरोक्त लेख में स्पष्ट है कि विद्वानों की हार जीत का निर्णय अविद्वान करते थे। स्वामी दयानन्द जी ने लगातार संस्कृत बोल दी श्रोताओं ने हंसी कर दी तथा महर्षि दयानन्द जी को विजेता घोषित कर दिया तथा परमात्मा निराकार मान लिया। जबकि यजुर्वेद अध्याय 1 मंत्र 15 तथा यजुर्वेद अध्याय 5 मंत्र 1 में स्पष्ट है कि परमात्मा सशरीर है तथा साकार है।
स्वामी दयानन्द जी संस्कृत भाषा में प्रवचन करते थे का प्रमाण:-- ‘सत्यार्थ प्रकाश‘ की भूमिका पृष्ठ 8 पर स्वामी दयानन्द जी ने कहा है कि पहली बार सत्यार्थ प्रकाश छपा था। उस समय मुझे हिन्दी अच्छी तरह नहीं आती थी। क्योंकि बचपन से सन् 1882 (संवत् 1939) तक संस्कृत में भाषण करता रहा। इससे सिद्ध हुआ कि स्वामी दयानन्द जी संस्कृत भाषा में शास्त्रार्थ करते थे। संवत् 1939 (सन् 1882) में सत्यार्थ प्रकाश को दोबारा छपवाने के एक वर्ष पश्चात् सन् 1883 में स्वामी जी का निधन हो गया। स्पष्ट हुआ कि निधन के एक वर्ष पूर्व ही स्वामी दयानन्द जी ने हिन्दी भाषा को जाना। इससे पूर्व संस्कृत में प्रवचन (व्याख्यान) करते थे। श्रोतागण संस्कृत से अपरिचित होते थे और वे ही विद्वानों की हार-जीत का फैसला करते थे।
अब यह दासों का भी दास (रामपाल दास) चाहता है कि सर्व पवित्र धर्मों की प्रभु चाहने वाली पुण्यात्माऐं तत्वज्ञान से परिचित हो जाऐं, तब स्वयं लाल व लालड़ी की परख (पहचान) कर लिया करेंगे।
कथा:- एक सेठ के दो पुत्र थे। एक सोलह वर्ष का दूसरा अठारह वर्ष का। पिता जी का देहांत हो गया। बच्चों की माता जी ने एक कपड़े में लिपटे लाल अपने बच्चों के हाथ में रखे तथा कहा पुत्रो यह लाल ले जाओ तथा अपने ताऊ जी (पिता जी के बड़े भाई) को कहना कि हमारे पास पैसे नहीं हैं। यह लाल अपने पास रख लो तथा व्यापार में हमारा हिस्सा कर लो। हम अकेले बालक व्यापार नहीं कर सकते। दोनों बच्चे माता जी के दिए हुए लालों को लेकर अपने ताऊ जी के पास गए तथा जो माता जी ने कहा था प्रार्थना की। उस सेठ(ताऊ जी) ने लालों को देखा तथा बच्चों की प्रार्थना स्वीकार करके कहा पुत्र इन लालों को अपनी माता जी को दे आओ, संभाल कर रख लेगी। आप मेरे साथ दूसरे शहर में चलो, मुझे बहुत उधार माल मिल जाता है, वापिस आकर इन लालों को प्रयोग कर लेंगे। दोनों बालक ताऊ जी के साथ दूसरे शहर में गए। एक दिन ताऊ जी ने एक लाल बच्चों को दिया तथा कहा पुत्रो यह लाल है, इसे उस सेठ को देकर आना, जिससे कल पचास हजार का माल उधार लिया था तथा कहना कि यह लाल रख लो, हम वापिस आकर आप का ऋण चुका देंगे तथा अपना लाल वापिस ले लेंगे। दोनों बच्चों ने सेठ को उपरोक्त विवरण कहा तब सेठ ने एक जौहरी बुलाया। जौहरी ने लाल को परख कर बताया कि यह लाल नहीं है, यह तो लालड़ी है, जो सौ रूपये की भी नहीं है, लाल की कीमत तो नौ लाख रूपये होती है। सेठ ने भली-बुरी कहते हुए उस लालड़ी को गली में दे मारा। बच्चे उस लालड़ी को उठा कर अपने ताऊ जी (अंकल) के पास आए। आँखों में आँसु भरे हुए सर्व वृतान्त सुनाया कि एक व्यक्ति ने बताया कि यह लाल नहीं है यह तो लालड़ी है।
ताऊ जी (अंकल) ने कहा पुत्र वह जौहरी था। वह सही कह रहा था, यह तो वास्तव में लालड़ी है, इसकी कीमत तो सौ रूपया भी नहीं है। पुत्रो मेरे से धोखा हुआ है। लाल तो यह है, गलती से मैंने ही आप को लालड़ी दे दी। अब जाओ तथा सेठ से कहना मेरे ताऊजी (अंकल जी) धोखेबाज नहीं हैं। लाल के धोखे में लालड़ी दे दी। दोनों भाई फिर गए उसी व्यापारी के पास तथा कहा कि मेरे ताऊ जी ऐसे धोखेबाज व्यक्ति नहीं हैं सेठ जी, गलती से लाल के स्थान पर लालड़ी दे दी थी, यह लो लाल। जौहरी ने बताया कि वास्तव में यह लाल है वह लालडी थी।
सामान ले कर वापिस अपने शहर लौट आए। तब ताऊ(अंकल जी) ने कहा पुत्रो अपनी माता जी से लाल ले आओ, उधार ज्यादा हो गई है। दोनों बच्चों ने अपनी माता जी से लाल लेकर कपड़े में से निकाल कर देखा तो वे लालड़ी थी, लाल एक भी नहीं था। ताऊजी ने बच्चों को लाल तथा लालड़ी की पहचान करवा दी थी। दोनों पुत्रों ने अपनी माता जी से कहा कि माता जी यह तो लालड़ी है, लाल नहीं है। दोनों बच्चे वापिस ताऊ जी के पास आए तथा कहा कि मेरी माँ बहुत भोली है। उसे लाल व लालड़ी का ज्ञान नहीं है। वे लाल नहीं हैं, लालड़ी हैं। सेठ ने कहा पुत्रो ये उस दिन भी लालड़ी ही थी जिस दिन मेरे पास ले कर आए थे। यदि मैं लालड़ी कह देता तो आप की माता जी कहती कि मेरा पति नहीं रहा, इसलिए अब मेरे लालों को भी लालड़ी बता रहा है। पुत्रो आज मैंने आपको ही लाल तथा लालड़ी की परख (पहचान) करने योग्य बना दिया। आपने स्वयं फैसला कर लिया।
विशेष:- इसी प्रकार आज यह दास यही चाहता है कि तत्वज्ञान को जन-जन तक पहुँचाऊँ तथा शास्त्रों के प्रमाण देख कर आप स्वयं परख (पहचान) करने योग्य हो कर संत-असंत को पहचान सकें।
शास्त्रार्थ विद्वान किया करते थे तथा हार जीत का फैसला अविद्वानों के हाथों में था। यह दास चाहता है कि पहले प्रभु प्रेमी पुण्यात्माऐं शास्त्र समझें फिर स्वयं जान जायेंगे कि ये संत व महर्षि जी क्या पढ़ाई पढ़ा रहे हैं।
“शास्त्रार्थ महर्षि सर्वानन्द तथा परमेश्वर कबीर (कविर्देव) का”
एक सर्वानन्द नाम के महर्षि थे। उसकी पूज्य माता श्रीमति शारदा देवी पाप कर्म फल से पीड़ित थी। उसने सर्व पुजाऐं व जन्त्रा-मन्त्रा कष्ट निवारण के लिए वर्षों किए। शारीरिक पीड़ा निवारण के लिए वैद्यों की दवाईयाँ भी खाई, परन्तु कोई राहत नहीं मिली। उस समय के महर्षियों से उपदेश भी प्राप्त किया, परन्तु सर्व महर्षियों ने कहा कि बेटी शारदा यह आप का पाप कर्म दण्ड प्रारब्ध कर्म का है, यह क्षमा नहीं हो सकता, यह भोगना ही पड़ता है। भगवान श्री राम ने बाली का वध किया था, उस पाप कर्म का दण्ड श्री राम (विष्णु) वाली आत्मा ने श्री कृष्ण बन कर भोगा। श्री बाली वाली आत्मा शिकारी बनी। जिसने श्री कृष्ण जी के पैर में विषाक्त तीर मार कर वध किया। इस प्रकार गुरु जी व महन्तांे व संतों - ऋषियों के विचार सुनकर दुःखी मन से भक्तमति शारदा अपना प्रारब्ध पापकर्म का कष्ट रो-रो कर भोग रही थी। एक दिन किसी निजी रिश्तेदार के कहने पर काशी में (स्वयंभू) स्वयं सशरीर प्रकट हुए (कविर्देव) कविर परमेश्वर अर्थात् कबीर प्रभु से उपदेश प्राप्त किया तथा उसी दिन कष्ट मुक्त हो गई। क्योंकि पवित्र यजुर्वेद अध्याय 5 मंत्र 32 में लिखा है कि ‘‘कविरंघारिरसि‘‘ अर्थात् (कविर्) कबीर (अंघारि) पाप का शत्रु (असि) है। फिर इसी पवित्र यजुर्वेद अध्याय 8 मंत्र 13 में लिखा है कि परमात्मा (एनसः एनसः) अधर्म के अधर्म अर्थात् पापों के भी पाप घोर पाप को भी समाप्त कर देता है। प्रभु कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ने कहा बेटी शारदा यह सुख आप के भाग्य में नहीं था, मैंने अपने कोष से प्रदान किया है तथा पाप विनाशक होने का प्रमाण दिया है। आप का पुत्र महर्षि सर्वानन्द जी कहा करता है कि प्रभु पाप क्षमा (विनाश) नहीं कर सकता तथा आप मेरे से उपदेश प्राप्त करके आत्म कल्याण करो। भक्तमति शारदा जी ने स्वयं आए परमेश्वर कबीर प्रभु (कविर्देव) से उपदेश लेकर अपना कल्याण करवाया। महर्षि सर्वानन्द जी को जो भक्तमति शारदा का पुत्र था, शास्त्रार्थ का बहुत चाव था। उसने अपने समकालीन सर्व विद्वानों को शास्त्रार्थ करके पराजित कर दिया। फिर सोचा कि जन
- जन को कहना पड़ता है कि मैंने सर्व विद्वानों पर विजय प्राप्त कर ली है। क्यों न अपनी माता जी से अपना नाम सर्वाजीत रखवा लूं। यह सोच कर अपनी माता श्रीमति शारदा जी के पास जाकर प्रार्थना की। कहा कि माता जी मेरा नाम बदल कर सर्वाजीत रख दो। माता ने कहा कि बेटा सर्वानन्द क्या बुरा नाम है ? महर्षि सर्वानन्द जी ने कहा माता जी मैंने सर्व विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया है। इसलिए मेरा नाम सर्वाजीत रख दो। माता जी ने कहा कि बेटा एक विद्वान मेरे गुरु महाराज कविर्देव (कबीर प्रभु) को भी पराजित कर दे, फिर अपने पुत्र का नाम आते ही सर्वाजीत रख दूंगी। माता के ये वचन सुन कर श्री सर्वानन्द पहले तो हँसा, फिर कहा माता जी आप भी भोली हो। वह जुलाहा (धाणक) कबीर तो अशिक्षित है। उसको क्या पराजित करना? अभी गया, अभी आया।
महर्षि सर्वानन्द जी सर्व शास्त्रों को एक बैल पर रख कर कविर्देव (कबीर परमेश्वर) की झौंपड़ी के सामने गया। परमेश्वर कबीर जी की धर्म की बेटी कमाली पहले कूएँ पर मिली, फिर द्वार पर आकर कहा आओ महर्षि जी यही है परमपिता कबीर का घर। श्री सर्वानन्द जी ने लड़की कमाली से अपना लोटा पानी से इतना भरवाया कि यदि जरा-सा जल और डाले तो बाहर निकल जाए तथा कहा कि बेटी यह लोटा धीरे-धीरे ले जाकर कबीर को दे तथा जो उत्तर वह देवें वह मुझे बताना। लड़की कमाली द्वारा लाए लोटे में परमेश्वर कबीर (कविर्देव) जी ने एक कपड़े सीने वाली बड़ी सुई डाल दी, कुछ जल लोटे से बाहर निकल कर पृथ्वी पर गिर गया तथा कहा पुत्रु यह लोटा श्री सर्वानन्द जी को लौटा दो। लोटा वापिस लेकर आई लड़की कमाली से सर्वानन्द जी ने पूछा कि क्या उत्तर दिया कबीर ने? कमाली ने प्रभु द्वारा सुई डालने का वृतांत सुनाया। तब महर्षि सर्वानन्द जी ने परम पूज्य कबीर परमेश्वर (कविर्देव) से पूछा कि आपने मेरे प्रश्न का क्या उत्तर दिया? प्रभु कबीर जी ने पूछा कि क्या प्रश्न था आपका?
श्री सर्वानन्द महर्षि जी ने कहा ‘‘मैंने सर्व विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया है। मैंने अपनी माता जी से प्रार्थना की थी कि मेरा नाम सर्वाजीत रख दो। मेरी माता जी ने आपको पराजित करने के पश्चात् मेरा नाम परिवर्तन करने को कहा है। आपके पास लोटे को पूर्ण रूपेण जल से भर कर भेजने का तात्पर्य है कि मैं ज्ञान से ऐसे परिपूर्ण हूँ जैसे लोटा जल से। इसमें और जल नहीं समाएगा, वह बाहर ही गिरेगा अर्थात् मेरे साथ ज्ञान चर्चा करने से कोई लाभ नहीं होगा। आपका ज्ञान मेरे अन्दर नहीं समाएगा, व्यर्थ ही थूक मथोगे। इसलिए हार लिख दो, इसी में आपका हित है।
पूज्य कबीर परमेश्वर (कविर्देव) ने कहा कि आपके जल से परिपूर्ण लोटे में लोहे की सूई डालने का अभिप्राय है कि मेरा ज्ञान (तत्वज्ञान) इतना भारी (सत्य) है कि जैसे सुई लोटे के जल को बाहर निकालती हुई नीचे जाकर रूकी है। इसी प्रकार मेरा तत्वज्ञान आपके असत्य ज्ञान (लोक वेद) को निकाल कर आपके हृदय में समा जाएगा।
महर्षि सर्वानन्द जी ने कहा प्रश्न करो। एक बहु चर्चित विद्वान को जुलाहों (धाणकों) के मौहल्ले (काॅलोनी) में आया देखकर आस-पास के भोले-भाले अशिक्षित जुलाहे शास्त्रार्थ सुनने के लिए एकत्रित हो गए।
पूज्य कविर्देव ने प्रश्न किया:
कौन ब्रह्मा का पिता है, कौन विष्णु की माँ। शंकर का दादा कौन है, सर्वानन्द दे बताए।।
उत्तर महर्षि सर्वानन्द जी का: -
श्री ब्रह्मा जी रजोगुण हैं तथा श्री विष्णु जी सतगुण युक्त हैं तथा श्री शिव जी तमोगुण युक्त हैं। यह तीनों अजर-अमर अर्थात् अविनाशी हैं, सर्वेश्वर - महेश्वर - मृत्यु×जय हैं। इनके माता-पिता कोई नहीं। आप अज्ञानी हो। आपने शास्त्रों का ज्ञान नहीं है। ऐसे ही उट-पटांग प्रश्न किया है। सर्व उपस्थित श्रोताओं ने ताली बजाई तथा महर्षि सर्वानन्द जी का समर्थन किया। पूज्य कबीर प्रभु (कविर्देव) जी ने कहा कि महर्षि जी आप श्रीमद्देवी भागवत पुराण के तीसरे स्कंद तथा श्री शिव पुराण का छटा तथा सातवां रूद्र संहिता अध्याय प्रभु को साक्षी रखकर गीता जी पर हाथ रख कर पढ़ें तथा अनुवाद सुनाऐं। महर्षि सर्वानन्द जी ने पवित्र गीता जी पर हाथ रख कर शपथ ली कि सही-सही सुनाऊँगा।
पवित्र पुराणों को प्रभु कबीर (कविर्देव) जी के कहने के पश्चात् ध्यान पूर्वक पढ़ा। श्री शिव पुराण (गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित, जिसके अनुवादक हैं श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार) में पृष्ठ नं. 100 से 103 पर लिखा है कि सदाशिव अर्थात् काल रूपी ब्रह्म तथा प्रकृति (दुर्गा) के संयोग (पति-पत्नी व्यवहार) से सतगुण श्री विष्णु जी, रजगुण श्री ब्रह्मा जी तथा तमगुण श्री शिवजी का जन्म हुआ। यही प्रकृति (दुर्गा) जो अष्टंगी कहलाती है, त्रिदेव जननी (तीनों ब्रह्मा, विष्णु, शिव जी) की माता कहलाती है।
पवित्र श्री मद्देवी पुराण (गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित, अनुवादक श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार तथा चिमन लाल गोस्वामी) तीसरे स्कंध में पृष्ठ नं. 114 से 123 तक में स्पष्ट वर्णन है कि भगवान विष्णु जी कह रहे हैं कि यह प्रकृति (दुर्गा) हम तीनों की जननी है। मैंने इसे उस समय देखा था जब मैं छोटा-सा बच्चा था। माता की स्तुति करते हुए श्री विष्णु जी ने कहा कि हे माता मैं (विष्णु), ब्रह्मा तथा शिव तो नाशवान हैं। हमारा तो आविर्भाव (जन्म) तथा तिरोभाव (मृत्यु) होती है। आप प्रकृति देवी हो। भगवान शंकर ने कहा कि हे माता यदि ब्रह्मा व विष्णु आप से उत्पन्न हुए हैं तो मैं शंकर भी आप से ही उत्पन्न हुआ हूँ अर्थात् आप मेरी भी माता हो।
महर्षि सर्वानन्द जी पहले सुने सुनाए अधूरे शास्त्र विरुद्ध ज्ञान (लोकवेद) के आधार पर तीनों (ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव) को अविनाशी व अजन्मा कहा करता था। पुराणों को पढ़ता भी था फिर भी अज्ञानी ही था। क्योंकि ब्रह्म (काल) पवित्र गीता जी में कहता है कि मैं सर्व प्राणियों (जो मेरे इक्कीस ब्रह्मण्डों में मेरे अधीन हैं) की बुद्धि हूँ। जब चाहूँ ज्ञान प्रदान कर दूं तथा जब चाहूँ अज्ञान भर दूं। उस समय पूर्ण परमात्मा के कहने के बाद काल (ब्रह्म) का दबाव हट गया तथा सर्वानन्द जी को स्पष्ट ज्ञान हुआ। वास्तव में ऐसा ही लिखा है। परन्तु मान हानि के भय से कहा मैंने सर्व पढ़ लिया ऐसा कहीं नहीं लिखा है। कविर्देव (कबीर परमेश्वर) से कहा तू झूठा है। तू क्या जाने शास्त्रों के विषय में। हम प्रतिदिन पढ़ते हैं। फिर क्या था, सर्वानन्द जी ने धारा प्रवाहिक संस्कृत बोलना प्रारम्भ कर दिया। बीस मिनट तक कण्ठस्थ की हुई कोई और ही वेदवाणी बोलता रहा, पुराण नहीं सुनाया।
सर्व उपस्थित भोले-भाले श्रोतागण जो उस संस्कृत को समझ भी नहीं रहे थे, प्रभावित होकर सर्वानन्द महर्षि जी के समर्थन में वाह-वाह महाज्ञानी कहने लगे। भावार्थ है कि परमेश्वर कबीर (कविर्देव) जी को पराजीत कर दिया तथा महर्षि सर्वानन्द जी को विजयी घोषित कर दिया। परम पूज्य कबीर परमेश्वर (कविर्देव) जी ने कहा कि सर्वानन्द जी आपने पवित्र गीता जी की कसम खाई थी, वह भी भूल गए। जब आप सामने लिखी शास्त्रों की सच्चाई को भी नहीं मानते हो तो मैं हारा तुम जीते।
एक जमींदार का पुत्र सातवीं कक्षा में पढ़ता था। उसने कुछ अंग्रेजी भाषा को जान लिया था। एक दिन दोनों पिता पुत्र खेतों में बैल गाड़ी लेकर जा रहे थे। सामने से एक अंगे्रज आ गया। उसने बैलगाड़ी वालों से अंग्रेजी भाषा में रास्त्ता जानना चाहा। पिता ने पुत्र से कहा बेटा यह अंग्रेज अपने आप को ज्यादा ही शिक्षित सिद्ध करना चाहता है। आप भी तो अंग्रेजी भाषा जानते हो। निकाल दे इसकी मरोड़। सुना दे अंग्रेजी बोल कर। किसान के लड़के ने अंग्रेजी भाषा में बीमारी की छुट्टी के लिए प्रार्थना-पत्र पूरी सुना दी। अंग्रेज उस नादान बच्चे की नादानी पर कि पूछ रहा हूँ रास्त्ता सुना रहा है बीमारी की छुट्टी की प्रार्थना - पत्र। अपनी कार लेकर माथे में हाथ मार कर चल पड़ा। किसान ने अपने विजेता पुत्र की कमर थप-थपाई तथा कहा वाह पुत्र मेरा तो जीवन सफल कर दिया। आज तुने अंग्रेज को अंग्रेजी भाषा में पराजीत कर दिया। तब पुत्र ने कहा पिता जी माई बैस्ट फ्रेंड (मेरा खास दोस्त नामक प्रस्त्ताव) भी याद है। वह सुना देता तो अंग्रेज कार छोड़ कर भाग जाता। इसी प्रकार कविर्देव जी पूछ कुछ रहें हैं और सर्वानन्द जी उत्तर कुछ दे रहे हैं। यह शास्त्रार्थ ने घर घाल रखे हैं।
परम पूज्य कबीर परमेश्वर (कविर्देव) ने कहा कि सर्वानन्द जी आप जीते मैं हारा। महर्षि सर्वानन्द जी ने कहा लिख कर दे दो, मैं कच्चा कार्य नहीं करता। परमात्मा कबीर (कविर्देव) जी ने कहा कि यह कृपा भी आप कर दो। लिख लो जो लिखना है, मैं अंगूठा लगा दूंगा। महर्षि सर्वानन्द जी ने लिख लिया कि शास्त्रार्थ में सर्वानन्द विजयी हुआ तथा कबीर साहेब पराजित हुआ तथा कबीर परमेश्वर से अंगूठा लगवा लिया। अपनी माता जी के पास जाकर सर्वानन्द जी ने कहा कि माता जी लो आपके गुरुदेव को पराजित करने का प्रमाण। भक्तमति शारदा जी ने कहा पुत्र पढ़ कर सुनाओ। जब सर्वानन्द जी ने पढ़ा उसमें लिखा था कि शास्त्रार्थ में सर्वानन्द पराजित हुआ तथा कबीर परमेश्वर (कविर्देव) विजयी हुआ। सर्वानन्द जी की माता जी ने कहा पुत्र आप तो कह रहे थे कि मैं विजयी हुआ हूँ, तुम तो हार कर आये हो। महर्षि सर्वानन्द जी ने कहा माता जी मैं कई दिनों से लगातार शास्त्रार्थ में व्यस्त था, इसलिए निंद्रा वश होकर मुझ से लिखने में गलती लगी है। फिर जाता हूँ तथा सही लिख कर लाऊँगा। माता जी ने शर्त रखी थी कि विजयी होने का कोई लिखित प्रमाण देगा तो मैं मानुँगी, मौखिक नहीं। महर्षि सर्वानन्द जी दोबारा गए तथा कहा कि कबीर साहेब मेरे लिखने में कुछ त्रुटि रह गई है, दोबारा लिखना पड़ेगा। साहेब कबीर जी ने कहा कि फिर लिख लो। सर्वानन्द जी ने फिर लिख कर अंगूठा लगवा कर माता जी के पास आया तो फिर विपरीत ही पाया। कहा माता जी फिर जाता हूँ। तीसरी बार लिखकर लाया तथा मकान में प्रवेश करने से पहले पढ़ा ठीक लिखा था। सर्वानन्द जी ने उस लेख से दृष्टि नहीं हटाई तथा चलकर अपने मकान में प्रवेश करता हुआ कहने लगा कि माता जी सुनाऊँ, यह कह कर पढ़ने लगा तो उसकी आँखों के सामने अक्षर बदल गए। तीसरी बार फिर यही प्रमाण लिखा गया कि शास्त्रार्थ में सर्वानन्द पराजित हुए तथा कबीर साहेब विजयी हुए। सर्वानन्द बोल नहीं पाया। तब माता जी ने कहा पुत्र बोलता क्यों नहीं? पढ़कर सुना क्या लिखा है। माता जानती थी कि नादान पुत्र पहाड़ से टकराने जा रहा है। माता जी ने सर्वानन्द जी से कहा कि पुत्र परमेश्वर आए हैं, जाकर चरणों में गिर कर अपनी गलती की क्षमा याचना कर ले तथा उपदेश ले कर अपना जीवन सफल कर ले। सर्वानन्द जी अपनी माता जी के चरणों में गिर कर रोने लगा तथा कहा माता जी यह तो स्वयं प्रभु आए हैं। आप मेरे साथ चलो, मुझे शर्म लगती है। सर्वानन्द जी की माता अपने पुत्र को साथ लेकर प्रभु कबीर के पास गई तथा सर्वानन्द जी को भी कबीर परमेश्वर से उपदेश दिलाया। तब उस महर्षि कहलाने वाले नादान प्राणी का पूर्ण परमात्मा के चरणों में आने से ही उद्धार हुआ। पूर्ण ब्रह्म कबीर परमेश्वर (कविर्देव) ने कहा सर्वानन्द आपने अक्षर ज्ञान के आधार पर भी शास्त्रों को नहीं समझा। क्योंकि मेरी शरण में आए बिना ब्रह्म (काल) किसी की बुद्धि को पूर्ण विकसित नहीं होने देता। अब फिर पढ़ो इन्हीं पवित्र वेदों व पवित्र गीता जी तथा पवित्र पुराणों को। अब आप ब्राह्मण हो गए हो। ‘‘ब्राह्मण सोई ब्रह्म पहचाने‘‘ विद्वान वही है जो पूर्ण परमात्मा को पहचान ले। फिर अपना कल्याण करवाए।
विशेष:- आज से 550 वर्ष पूर्व यही पवित्र वेदों, पवित्र गीता जी व पवित्र पुराणों में लिखा ज्ञान कबीर परमेश्वर (कविर्देव) जी ने अपनी साधारण वाणी में भी दिया था। जो उस समय से तथा आज तक के महर्षियों ने व्याकरण त्रुटि युक्त भाषा कह कर पढ़ना भी आवश्यक नहीं समझा तथा कहा कि कबीर तो अज्ञानी है, इसे अक्षर ज्ञान तो है ही नहीं। यह क्या जाने संस्कृत भाषा में लिखे शास्त्रों में छूपे गूढ़ रहस्य को। हम विद्वान हैं जो हम कहते हैं वह सब शास्त्रों में लिखा है तथा श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी व श्री शिव जी के कोई माता-पिता नहीं हैं। ये तो अजन्मा-अजर-अमर-अविनाशी तथा सर्वेश्वर, महेश्वर, मृत्यु×जय हैं। सर्व सृष्टि रचन हार हैं, तीनों गुण युक्त हैं। आदि आदि व्याख्या ठोक कर अभी तक कहते रहे। आज वे ही पवित्र शास्त्र अपने पास हैं। जिनमें तीनों प्रभुओं (श्री ब्रह्मा जी रजगुण, श्री विष्णु जी सतगुण, श्री शिव जी तमगुण) के माता-पिता का स्पष्ट विवरण है। उस समय अपने पूर्वज अशिक्षित थे तथा शिक्षित वर्ग को शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान नहीं था। फिर भी कबीर परमेश्वर (कविर्देव) के द्वारा बताए सत्यज्ञान को जान बूझ कर झुठला दिया कि कबीर झूठ कह रहा है किसी शास्त्र में नहीं लिखा है कि श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी व श्री शिव जी के कोई माता-पिता हैं। जब कि पवित्र पुराण साक्षी हैं कि श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शिव जी का जन्म-मृत्यु होता है। ये अविनाशी नहीं हैं तथा इन तीनों देवताओं की माता प्रकृति(दुर्गा) है तथा पिता ज्योति निरंजन काल रूपी ब्रह्म है।
आज सर्व मानव समाज बहन-भाई, बालक व जवान तथा बुजुर्ग, बेटे तथा बेटी शिक्षित हैं। आज कोई यह नहीं बहका सकता कि शास्त्रों में ऐसा नहीं लिखा जैसा कबीर परमेश्वर (कविर्देव) साहेब जी की अमृत वाणी में लिखा है।
अमृतवाणी पूज्य कबीर परमेश्वर (कविर्देव) की:-
धर्मदास यह जग बौराना। कोइ न जाने पद निरवाना।।
अब मैं तुमसे कहों चिताई। त्रियदेवन की उत्पति भाई।।
ज्ञानी सुने सो हिरदै लगाई। मूर्ख सुने सो गम्य ना पाई।।
माँ अष्टंगी पिता निरंजन। वे जम दारुण वंशन अंजन।।
पहिले कीन्ह निरंजन राई। पीछेसे माया उपजाई।।
धर्मराय किन्हाँ भोग विलासा। मायाको रही तब आसा।।
तीन पुत्र अष्टंगी जाये। ब्रह्मा विष्णु शिव नाम धराये।।
तीन देव विस्त्तार चलाये। इनमें यह जग धोखा खाये।।
तीन लोक अपने सुत दीन्हा। सुन्न निरंजन बासा लीन्हा।।
अलख निरंजन सुन्न ठिकाना। ब्रह्मा विष्णु शिव भेद न जाना।।
अलख निरंजन बड़ा बटपारा। तीन लोक जिव कीन्ह अहारा।।
ब्रह्मा विष्णु शिव नहीं बचाये। सकल खाय पुन धूर उड़ाये।।
तिनके सुत हैं तीनों देवा। आंधर जीव करत हैं सेवा।।
तीनों देव और औतारा। ताको भजे सकल संसारा।।
तीनों गुणका यह विस्त्तारा। धर्मदास मैं कहों पुकारा।।
गुण तीनों की भक्ति में, भूल परो संसार।
कहै कबीर निज नाम बिन, कैसे उतरें पार।।
उपरोक्त अमृतवाणी में परमेश्वर कबीर साहेब जी अपने निजी सेवक श्री धर्मदास साहेब जी को कह रहे हैं कि धर्मदास यह सर्व संसार तत्वज्ञान के अभाव से विचलित है। किसी को पूर्ण मोक्ष मार्ग तथा पूर्ण सृष्टि रचना का ज्ञान नहीं है। इसलिए मैं आपको मेरे द्वारा रची सृष्टि की कथा सुनाता हूँ। बुद्धिमान व्यक्ति तो तुरंत समझ जायेंगे। परन्तु जो सर्व प्रमाणों को देखकर भी नहीं मानंेगे तो वे नादान प्राणी काल प्रभाव से प्रभावित हैं, वे भक्ति योग्य नहीं। अब मैं बताता हूँ तीनों भगवानों (ब्रह्मा जी, विष्णु जी तथा शिव जी) की उत्पत्ति कैसे हुई? इनकी माता जी तो अष्टंगी (दुर्गा) है तथा पिता ज्योति निरंजन (ब्रह्म, काल) है। पहले ब्रह्म की उत्पत्ति अण्डे से हुई। फिर दुर्गा की उत्पत्ति हुई। दुर्गा के रूप पर आसक्त होकर काल (ब्रह्म) ने गलती (छेड़-छाड़)की, तब दुर्गा (प्रकृति) ने इसके पेट में शरण ली। मैं वहाँ गया जहाँ ज्योति निरंजन काल था। तब भवानी को ब्रह्म के उदर से निकाल कर इक्कीस ब्रह्मण्ड समेत 16 संख कोस की दूरी पर भेज दिया। ज्योति निरंजन ने प्रकृति देवी (दुर्गा) के साथ भोग-विलास किया। इन दोनों के संयोग से तीनों गुणों (श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शिव जी) की उत्पत्ति हुई। इन्हीं तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव जी) की ही साधना करके सर्व प्राणी काल जाल में फंसे हैं। जब तक वास्तविक मंत्र नहीं मिलेगा, पूर्ण मोक्ष कैसे होगा?