प्रथम किस्त

राधा स्वामी पंथ की कहानी-उन्हीं की जुबानी: जगत गुरु

(प्रथम किस्त)

(8 मार्च 2006 को पंजाब केसरी में प्रकाशित)

श्री कृष्ण सिंह लाठर ट्रस्टी ने बताया कि सतलोक आश्रम करौंथा जि. रोहतक (हरियाणा) में सात दिवसीय सत्संग 6 मार्च को प्रारम्भ हुआ। जो 12 मार्च 2006 तक चलेगा। काशी में 120 वर्ष लीला करके सन् 1518 में मगहर स्थान से सशरीर सतलोक जाने के 209 वर्ष बाद इस दिन (फाल्गुन शुद्धी द्वादशी) को पूर्ण परमात्मा सतपुरूष कर्विदेव (कबीर परमेश्वर) सतलोक से चलकर सशरीर गाँव छुड़ानी जि. झज्जर (हरियाणा) में सन् 1727 में दिन के सुबह 10 बजे खेतों में प्रकट हुए थे। जहाँ पर दस वर्षीय बालक गरीबदास साहेब जी गायों को चरा रहे थे। कई अन्य बड़े ग्वाले भी थे। एक कंवारी गाय का दूध अपने आर्शीवाद से निकाला। उसे स्वयं भी पीया तथा बालक गरीब दास जी को भी पिलाया। नाम दान करके उसकी आत्मा को सतलोक ले गए। पीछे से बालक गरीबदास जी को मृत जानकर अन्तिम संस्कार के लिए चिता पर लिटा लिया गया था। लगभग आठ घण्टे के बाद गरीबदास जी की आत्मा को सर्व ब्रह्मण्डों तथा सतलोक का दर्शन करा कर वापिस छोड़ दिया। चिता पर से इकलौते पुत्र को जीवित देख कर माता-पिता की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। परन्तु आदरणीय गरीबदास जी महाराज पहले वाली भाषा नहीं बोल रहे थे। वे आँखों देखा सतलोक का हाल अमृतवाणी (दोहों-लोकोक्तियों) के द्वारा बोलने लगे। जो आज सद्ग्रन्थ साहेब नाम से लिपि बद्ध है। यही ज्ञान परम पूज्य कविर्देव (कबीर परमेश्वर) की अमृतवाणी में है। इस दिन (फाल्गुन मास शुद्धी द्वादशी) को प्रति वर्ष आदरणीय गरीबदास जी के बोध दिवस के उपलक्ष में सतलोक आश्रम करौंथा में मनाया जाता है। सत्संग में उपरोक्त जानकारी सन्त रामपाल जी महाराज ने सर्व संगत को दी तथा भक्तों की शंकाओं का समाधान करते हुए राधास्वामी पंथ की पुस्तकों को पर्दे पर प्रोजैक्टर द्वारा सर्व को दिखाया। सर्व तथ्यों को आँखों देख कर सर्व संगत ने दांतों तले ऊंगली दबाई। राधास्वामी पंथ से जुड़े सैकड़ों भक्तों ने सन्त रामपाल जी महाराज से नाम उपदेश प्राप्त किया।

कुछ श्रद्धालुओं ने शंका व्यक्त की कि क्या गुरू बदलने में पाप तो नहीं लगेगा? सन्त रामपाल जी महाराज ने कहा: जैसे एक वैद्य (डाक्टर) से उपचार नहीं होता तो दूसरा बदल लेना हितकर होता है। इसी प्रकार सर्व सृष्टि को जन्म-मृत्यु का रोग लगा है। गुरू बदलने से लाभ होता है हानि नहीं होती।

‘‘राधा स्वामी पंथ’’ का मूल सिद्धांतः-

परमात्मा निराकार है। गुरू रूप में प्रकट सन्त ही प्रभु का साकार रूप है। सतलोक(सच्चखण्ड) में केवल प्रकाश ही प्रकाश है। अभ्यासी को शरीर (घट) में जो धुन सुन रही है तथा जो प्रकाश दिखाई देता है यही प्रभु प्राप्ति है। पाँच नामों के जाप से पाँच मण्डलों में साधक पहुँच जाता है। नाम इस प्रकार है- ज्योति निरंजन, ओंकार, ररंकार, सोहं तथा सतनाम। इन नामों के जाप से शब्द खुलता है। धुन सुनाई देती है। जिस के सहारे आत्मा सतलोक में जाकर निराकार सतपुरूष में लीन हो जाती है। जैसे समुन्द्र में बूंद मिल जाती है। सर्व उपलब्धी भी शरीर अर्थात् पिण्ड (घट) में ही मानते हैं।

‘‘राधा स्वामी पंथ की संक्षिप्त जानकारी’’

राधा स्वामी पंथ का प्रवर्तक श्री हजूर शिवदयाल जी महाराज को माना जाता है जिनका जन्म आगरा शहर की मुहल्ला पन्ना गली में श्री सेठ दिलवाली सिंह जी के घर माता महामाया जी की पवित्र कोख से 25 अगस्त 1818 (सम्वत् 1875 भादव बदी अष्टमी के दिन) को हुआ। स्वामी शिवदयाल जी महाराज के माता-पिता जी श्री तुलसी साहेब हाथरस वाले सन्त जी के भक्त थे। जो उनके घर पर आते रहते थे। जो उस तुलसी दास गोसांई वाली आत्मा थी जिसने पहले श्री रामचरित्र मानस अर्थात रामायण को लिखा था(यह विवरण घट रामायण भाग पहला के पहले लिखे इनके जीवन चरित्र में है) श्री तुलसी साहेब जी हाथरस वाले का कोई गुरू नहीं था।

इसी तुलसी साहेब हाथरस वाले के वचन श्री शिवदयाल जी (राधास्वामी पंथ के प्रथम सन्त) सुना करते थे। परन्तु श्री शिवदयाल जी ने भी कोई गुरू धारण नहीं किया था। {उपरोक्त विवरण पुस्तक‘‘सार वचन राधा स्वामी’’ नजम यानि छन्द-बन्द भूमिका पृष्ठ क-ख पर तथा पुस्तक ‘‘सार वचन राधास्वामी (वार्तिक) भूमिका पृष्ठ प्.प्प्1पर है।}

श्री शिवदयाल जी स्वयं ही छः वर्ष की आयु में हठयोग क्रिया करके, बन्द कमरे में सुरत-शब्द का अभ्यास किया करते थे। दो-दो, तीन-तीन दिन तक बाहर नहीं निकलते थे। इस प्रकार लगभग पंद्रह वर्ष तक करते रहे। संवत् 1917 (सन् 1860) को 42 वर्ष की आयु में पहला सत्संग किया। श्री शिवदयाल जी का विवाह भक्तमति नारायणी देवी से हुआ जिसे बाद में ‘‘राधा’’ कहने लगे थे।

प्रमाणः- पुस्तक ‘‘उपदेश राधा स्वामी (प्रकाशक- एस. एल. सौंधी, सैक्रेटरी राधा स्वामी सत्संग ब्यास जि. अमृतसर, प्रांत पंजाब) पृष्ठ 30-31 तथा पुस्तक‘‘जीवन चरित्र परम संत बाबा जयमल सिंह’’ लेखक संत कृपाल सिंह पृष्ठ 56 पर है।

‘‘वचन आखिरी‘‘ जो संवत् 1935 (1878) को शरीर छोड़ते समय श्री शिवदयाल जी ने अपने मुख कमल से उच्चारण किए।

वचन आखिरी सं. 5 में लिखा है कि अन्त समय में सर्व संगत से कहा था कि मेरे बाद ‘‘राधा जी’’ (नारायणी देवी) को मेरे समान समझना (राधा श्री शिवदयाल जी की पत्नी थी)

वचन आखिरी सं. 9-10 में कहा है कि गृहस्थी औरतों के लिए राधा जी मेरा उतराधिकारी है। वे राधा जी के दर्शन व पूजा करें। साधुओं के लिए सनमुख दास जी को ठहराया।

वचन आखिरी सं. 12 में अपने भाई प्रताप सिंह से कहा है कि आप बाग में सत्संग करो और कराओ।

वचन आखिरी सं. 14 में कहा है कि मेरा मत तो सतनाम और अनामी का था और राधा स्वामी मत तो सालगराम का चलाया हुआ है। मेरा है ही नहीं, इसे भी चलने देना। सतसंग जारी रहे और सतसंग पहले से बढ़कर होगा।

उपरोक्त विवरण पुस्तक ‘‘सार वचन राधास्वामी’’ नजम यानि छन्द-बन्द की भूमिका पृष्ठ ×ा से ढ तक लिखा है।

विशेष विचारः- उपरोक्त विवरण से स्पष्ट हुआ कि

  1. श्री शिवदयाल जी का कोई गुरू नहीं था।

  2. श्री शिवदयाल जी मनमाना आचरण (पूजा) करते थे। हठ योग द्वारा बन्द कमरे में दो-तीन दिन तक बैठे रहते थे। जो सन्त मत के विरूद्ध है, क्योंकि सन्त मत तो सहज मार्ग है। जो साधना श्री शिवदयाल जी करते थे उसे जनसाधारण नहीं कर सकता।

  3. उपरोक्त विवरण वचन आखिरी से यह भी प्रमाणित हुआ कि श्री शिवदयाल जी ने श्री जयमल सिंह जी महाराज (जिन्होंने राधास्वामी व्यास डेरा नाम से पंथ पंजाब में चलाया) को नाम दान करने का आदेश नहीं दिया, न श्री सालिगराम जी को नामदान करने का आदेश दिया। यदि नाम दान करने का आदेश दिया होता तो अवश्य आखिरी वचनों में वर्णन होता। राधास्वामी पंथ की पुस्तकों में लिखा है कि वक्त गुरु के बिना जीव मुक्त नहीं हो सकता। कृप्या विचार करें कि श्री शिवदयाल जी (राधास्वामी) तथा श्री जयमल सिंह जी (डेरा बाबा व्यास) तथा उनके अनुयाईयों श्री सावन सिंह जी तथा श्री कृपाल सिंह जी तथा सच्चा सौदा सिरसा के प्रवत्र्तक श्री खेमामल जी उर्फ बिलोचिस्तानी शाह मस्ताना जी जो श्री सावन सिंह जी राधास्वामी के शिष्य हैं। जिन्हें श्री सावन सिंह जी ने कोई नामदान करने का आदेश नहीं दिया। क्या होगा, क्योंकि मुखिया (श्री शिवयाल जी) ही वक्त गुरु रहित थे ?

  4. राधा स्वामी पंथ श्री शिवदयाल जी का चलाया हुआ नहीं हैः- वचन आखिरी सं. 14 में स्पष्ट है कि स्वामी जी महाराज ने कहा है कि मेरा मत तो सतनाम और अनामी का है। राधा स्वामी पंथ सालगराम जी का चलाया हुआ है। श्री शिवदयाल ने स्पष्ट संकेत किया है‘‘ बुद्धिमान व्यक्ति को संकेत ही होता है।’’

शंका (1) एक श्रद्धालु ने शंका व्यक्त की:- वचन आखिरी सं. 14 में यह भी तो लिखा है कि राधा स्वामी मत सालगराम का चलाया हुआ है। इसे भी चलने देना।

शंका समाधानः- आपके दृष्टिकोण से राधा स्वामी पंथ को चलते रहने का आदेश श्री शिवदयाल जी महाराज का है तो भी राधा स्वामी पंथ के प्रवर्तक श्री सालगराम जी हुए। जिन्होंने वर्तमान में राधा स्वामी नाम से पंथ व आश्रम बनाए हैं। वे श्री सालगराम जी के अनुसार हुए न कि श्री शिवदयाल जी के। क्योंकि श्री शिवदयाल जी ने तो कहा है कि मेरा मत तो सतनाम और अनामी का है राधास्वामी का नहीं है।

वास्तविकता यह है कि:- श्री शिवदयाल जी की धर्मपत्नी श्रीमति नारायणी देवी को राधा कहते थे तथा श्री शिवदयाल जी को राधा का स्वामी (पति) अर्थात राधास्वामी कहने लगे।

उदाहरण जैसेः- भगवान शिव जी को उमा स्वामी भी कहते हैं। उमा (पार्वती) का पति(स्वामी) होने से उमास्वामी नाम श्री शिव जी का ही बोधक है। इसी प्रकार ‘‘राधा स्वामी’’ नाम श्री शिव दयाल जी का बोधक है।

श्री सालगराम जी ने श्री शिवदयाल महाराज को पूर्ण परमात्मा मान कर उन्हीं की पूजा का प्रावधान कर दिया तथा नाम जाप भी राधा स्वामी ही दान करने लगा। जिसका प्रमाण पुस्तक सार वचन राधा स्वामी नजम (छन्द-बन्द) में है कि ‘‘राधा स्वामी नाम जो गावे सोई तरे’’

अन्य प्रमाण हैः- जिला भिवानी (हरियाणा) गांव दिनोद में श्री ताराचन्द जी महाराज ने यही नाम दान किया है।

प्रश्नः शंका नं. 2:- स्वामी जी ने यह किसलिए कहा कि यह सालगराम का

चलाया हुआ है। इसे भी चलने देना।

उत्तरः शंका समाधानः- स्वामी जी महाराज श्री शिवदयाल जी का अंतिम समय था। उन्होंने देख लिया था कि सालगराम ने मनमुखी मार्ग मेरी आज्ञा के विपरित चला दिया है। मना करने से भी नहीं मानता है। कहीं अधिक जोर देने के कारण यह किसी अन्य नाम से पंथ न चला ले। इसलिए विवश्ता में कहा कि इसे भी कुछ मत कहना, करने दो इस मनमुखी को जो करता है।

उदाहरणः- एक समय श्री नानक जी साहेब अपने शिष्यों के साथ गांव-गांव नगर-नगर में भ्रमण करके सत्संग कर रहे थे। एक गांव में उनको पत्थर मारे तथा अभद्र व्यवहार किया। श्री नानक साहेब ने कहा ‘‘यहीं बसते रहो’’ दूसरे गांव में उनका बहुत आदर हुआ तथा भोजन आदि का प्रबन्ध प्रेम व श्रद्धा से किया गया। चलते समय श्री नानक जी ने कहा ‘‘आप उजड़ जाओ’’

शिष्यों ने पूछा है गुरूदेव! आपने शरारती व्यक्तियों को यहीं बसते रहने का आर्शीवाद दिया तथा नेक व्यक्तियों का उजड़ने का श्राप दे दिया, कारण क्या है?

श्री नानक जी ने उत्तर दिया:- जो व्यक्ति नेक नहीं हैं वे एक ही नगर में रहें तो अच्छा है। यदि कहीं अन्य स्थानों पर बसेंगे तो उन्हें भी अपने जैसा बना देगें। जो नेक व्यक्ति है वे किसी अन्य स्थान पर जाकर रहेगें तो अन्य को भी अपने जैसा नेक बनाएगें। इसलिए इनको उजड़ने को कहा है।

उपरोक्त उदारहण से स्पष्ट है कि संत का कहने का दृष्टिकोण कुछ अन्य ही होता है। ठीक इसी तरह श्री शिवदयाल जी ने विवश होकर कहा है कि इसे (राधा स्वामी पंथ को) भी चलने देना। नहीं तो वे नहीं कहते कि मेरा मत राधा स्वामी नहीं है मेरा मत तो सतनाम और अनामी का है।

प्रश्नः शंका 3:- मैंने पुस्तक ‘‘सन्तमत प्रकाश भाग-3’’ पढ़ी है उसमें श्री सावन जी महाराज के सत्संग वचन हैं {श्री सावन सिंह जी, श्री जयमल सिंह जी महाराज के शिष्य तथा उत्तराधिकारी डेरा व्यास (पंजाब) हुए है।} पृष्ठ 76 पर लिखा है कि सतनाम या सचखण्ड चैथा लोक है। फिर पृष्ठ नं. 79 पर चार राम का विवरण करते हुए बताया है किः- एक राम दशरथ का बेटा, दूसरा राम मन, तीसरा राम ब्रह्म, चैथा राम सतनाम है, यह असली राम है।

‘‘सार वचन वार्तिक’’ नामक पुस्तक (भाग-1) जिसके प्रकाशक हैं एस. एलसौंधी, सैक्रेटरी, राधा स्वामी व्यास डेरा बाबा जयमल सिंह, जि. अमृतसर (पंजाब) है। पुस्तक की भूमिका में लिखा है कि ‘‘सार वचन वार्तिक’’ हजूर स्वामी जी महाराज (श्री शिवदयाल जी)के वचनों का संग्रह जो बाद में पुस्तक के रूप में छपवाया गया तथा सन् 1902 में बाबा जयमल सिंह द्वारा गुरुमुखी लीपी (पंजाबी) में छपवाया।

पृष्ठ सं. 3 पर वचन सं. 4 में लिखा हैः- (भाग-1) (ज्यों का त्यों लेख) (4) अब समझना चाहिए की राधा स्वामी पद सबसे ऊंचा मुकाम है और यही नाम कुल मालिक और सच्चे साहिब, और सच्चे खुदा का है और इस मुकाम से दो स्थान नीचे सतनाम का मुकाम है कि जिसको संतों ने सतलोक और सच्चखण्ड और सारशब्द और सतशब्द और सतनाम और सतपुरूष करके ब्यान किया है।

पृष्ठ 5 पर वचन सं. 7 में लिखा है (ज्यों का त्यों लेख)

ऊपर जिकर हुआ है कि सतनाम स्थान जिसको सतलोक और सच्चखण्ड भी कहते हैं।(लेख समाप्त) फिर हमारे को पाँच नाम (ज्योति निरंजन, ओंकार, ररंकार, सोहं तथा सतनाम) दिए हैं। इनमें मन्त्र रूप से सतनाम जाप करने को भी दिया है। मैं बीस वर्ष से इस राधा स्वामी पंथ से जुड़ा हूँ। मैं यह नहीं समझ पाया हूँ कि सतनाम क्या चीज है? सतनाम स्थान है या भगवान है या मन्त्र का जाप है या कोई पशु पक्षी है। ऊपर के वचन सं. 7 में लिखा है- सतनाम का स्थान जिसको सतलोक और सच्चखण्ड भी कहते हैं। फिर वचन 4 में लिखा है सारशब्द-सतशब्द-सतपुरूष और सतनाम भी इसी को कहते हैं। फिर वचन सं. 4 में ही एक बार तो लिखा है राधास्वामी पद सबसे ऊंचा मुकाम (स्थान) है। फिर तुरन्त ही लिखा है कि यह नाम सच्चे मालिक का है। जैसे कोई कहे कि दिल्ली बहुत अच्छा स्थान है। इसी को प्रधानमंत्री भी कहते हैं। इस तरह की दो तरफा बातें अब समझ में आने लगी हैं। जब आप के द्वारा लिखी पुस्तकें ‘‘परमेश्वर का सार संदेश’’ तथा ‘‘गहरी नजर गीता में’’ तथा आप द्वारा समाचार पत्रों में लिखे लेखों को पढ़कर ध्यान से राधास्वामी पंथ की पुस्तकों को फिर पढ़ा जो पृष्ठ आपने लिखे थे। उन का मिलान किया वे अब समझ में आए। सचमुच हमारे साथ धोखा हो रहा है? नोट:- कृप्या पाठक वृन्द पढ़ें फोटो कापी उपरोक्त पुस्तकों से वचन सं. 4 तथा 7 इसी पुस्तक (सच्चखण्ड का संदेश) के पृष्ठ 71-72 पर तथा स्वयं निर्णय करें।

सन्त रामपाल जी महाराज ने सर्व संगत को अवगत कराया कि:- राधास्वामी पंथ वाले सरे आम झूठ बोल रहे हैं किः- सतनाम स्थान जिसको सतलोक और सच्चखण्ड भी कहते हैं बहुत ऊँचा है और संतों का दरबार है और उसके ऊपर तीन स्थान और हैं जिनको किसी सन्त ने नहीं खोला अब राधास्वामी(श्री शिवदयाल जी) ने खोला है। इन्हीं की पुस्तक सन्तमत प्रकाश भाग-1 में प्रथम पृष्ठ पर ही पूज्य कबीर परमेश्वर की अमृत वाणी में एक शब्द लिखा है ‘‘कर नैनों दिदार महल में प्यारा है’’ जो 32 कली का है। जिसका अनुवाद श्री सावन सिंह जी महाराज (जो श्री जयमल जी महाराज डेरा व्यास वाले के उतराधिकारी थे) ने अनुवाद किया है। उस शब्द में सर्व स्थानों व लोकों का वर्णन भिन्न-2 है। जो वाणी परमेश्वर कबीर सतपुरूष की राधास्वामी(श्री शिवदयाल जी) के जन्म से भी चार सौ वर्ष पूर्व की लिखी हुई है।

इससे स्पष्ट है कि परमेश्वर कबीर सतपुरूष जी की वाणी को चुरा कर अपनी फोक्ट महिमा बनाई है। जिसकी अब पोल खुल गई है। पुस्तक सारवचन राधास्वामी वार्तिक के पृष्ठ 5 पर वचन 7 से स्पष्ट है कि श्री शिवदयाल जी को ही राधास्वामी कहा गया है। क्योंकि यह पुस्तक ‘‘सारवचन वार्तिक’’ की भूमिका में लिखा है कि इस पुस्तक में हजुर जी महाराज शिव दयाल जी के वचनों को संग्रह करके लिखा है। इस वचन 7 में कहा है कि राधास्वामी जी ने भेद खोला है यदि राधास्वामी (श्री शिवदयाल महाराज) का अपना अनुभव होता तो उपरोक्त पुस्तक के फोटो कापी में ऊवा-बाई (कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा) ज्ञान नहीं बोलते।

शंका समाधान:- वास्तव में ----------
(शेष फिर)

निष्कर्ष:- उपरोक्त फोटो कापी पुस्तक ‘‘संतमत प्रकाश भाग-3 के पृष्ठ 76 व 79 के अंशों की है। जिसके लेखक संत सावन सिंह जी महाराज हैं।

उपरोक्त लेखों से पता चलता है कि सन्त सावन सिंह को सन्तमत का कोई ज्ञान नहीं था। उन्हें यही नहीं पता था कि ‘‘सतनाम’’ क्या है। पृष्ठ 76 पर सतनाम को सच्चखण्ड (सतलोक) बताया है पृष्ठ 79 पर सतनाम को चैथा राम बताया है तथा पाँच नामों में सतनाम को जाप का मन्त्र बताया है। यही विचार राधास्वामी पंथ के प्रमुख हजूर साहेब शिवदयाल जी उर्फ राधास्वामी जी के हैं जो पुस्तक सारवचन वार्तिक पृष्ठ 3 व 5 पर लिखे हैं उन की फोटो कापी कृप्या इसी पुस्तक के पृष्ठ 71-72 पर है।

(पुस्तक संतमत प्रकाश भाग-3 के पृष्ठ 76 की फोटो काॅपी)

(पुस्तक संतमत प्रकाश भाग-3 के पृष्ठ 79 की फोटो काॅपी)

(पुस्तक सारवचन राधास्वामी वार्तिक के वचन संख्या 4 पृष्ठ 3 की फोटो काॅपी)

(पुस्तक सारवचन राधास्वामी वार्तिक के पृष्ठ 5 वचन संख्या 7 की फोटो काॅपी)

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