यथार्थ कबीर प्राकाट्य प्रकरण (कबीर साहेब चारों युगों में आते हैं)

  • सतयुग में कविर्देव (कबीर साहेब) का सत्सुकृत नाम से प्राकाट्य
  • वेदों में कविर्देव अर्थात् कबीर परमेश्वर का प्रमाण
  • त्रेतायुग में कबीर परमेश्वर जी का प्रकट होना
  • त्रेतायुग में कविर्देव (कबीर परमेश्वर) का मुनिन्द्र नाम से प्राकाट्य
  • नल तथा नील को शरण में लेना
  • समुन्द्र पर रामचन्द्र के पुल के लिए पत्थर तैराना
  • कबीर परमेश्वर द्वारा विभीषण तथा मंदोदरी को शरण में लेना
  • पूर्ण परमात्मा कबीर जी का द्वापर युग में प्रकट होना
  • द्वापर युग में इन्द्रमति को शरण में लेना
  • पाण्डवों की यज्ञ में सुपच सुदर्शन द्वारा शंख बजाना
  • प्रमाण के लिए गीता जी के कुछ श्लोक
  • अर्जुन सहित पाण्डवों को युद्ध में की गई हिंसा के पाप लगे
  • क्या पाण्डव सदा स्वर्ग में ही रहेंगे?
  • क्या द्रोपदी भी नरक जाएगी तथा अन्य प्राणियों के शरीर धारण करेगी?
  • कबीर परमेश्वर जी का कलयुग में अवतरण
  • भक्त सुदर्शन के माता-पिता वाले जीवों के कलयुग के अन्य मानव जन्मों की जानकारी
  • नीरू-नीमा को कबीर परमात्मा की लहरतारा सरोवर में प्राप्ति
  • कबीर जी के सशरीर सत्यलोक से आने का साक्षी
  • शिशु कबीर परमेश्वर का नामांकन
  • शिशु कबीर देव द्वारा कंवारी गाय का दूध पीना
  • नीरू को धन की प्राप्ति
  • ऋषि रामानन्द, सेऊ, सम्मन तथा नेकी व कमाली के पूर्व जन्मों का ज्ञान
  • शिशु कबीर की सुन्नत करने का असफल प्रयत्न
  • ऋषि रामानन्द का उद्धार करना
  • ऋषि रामानन्द स्वामी को गुरु बना कर शरण में लेना
  • ऋषि विवेकानन्द जी से ज्ञान चर्चा
  • कबीर जी द्वारा स्वामी रामानन्द के मन की बात बताना
  • स्वामी रामानन्द जी क्या क्रिया करते थे?
  • कबीर देव द्वारा ऋषि रामानन्द के आश्रम में दो रूप धारण करना .

गरीब, सतगुरु पुरुष कबीर हैं, चारों युग प्रवान। झूठे गुरुवा मर गए, हो गए भूत मसान।।

”सतयुग में कविर्देव (कबीर साहेब) का सत्सुकृत नाम से प्राकाट्य“

तत्त्वज्ञान के अभाव से श्रद्धालु शंका व्यक्त करते हैं कि जुलाहे रूप में कबीर जी तो वि. सं. 1455 (सन् 1398) में काशी में हुए थे। वेदों में कविर्देव यही काशी वाला जुलाहा (धाणक) कैसे पूर्ण परमात्मा हो सकता है?

इस विषय में दास (सन्त रामपाल दास) की प्रार्थना है कि यही पूर्ण परमात्मा कविर्देव (कबीर परमेश्वर) वेदों के ज्ञान से भी पूर्व सतलोक में विद्यमान थे तथा अपना वास्तविक ज्ञान (तत्त्वज्ञान) देने के लिए चारों युगों में भी स्वयं प्रकट हुए हैं। सतयुग में सतसुकृत नाम से, त्रेतायुग में मुनिन्द्र नाम से, द्वापर युग में करूणामय नाम से तथा कलयुग में वास्तविक कविर्देव (कबीर प्रभु) नाम से प्रकट हुए हैं।

{कबीर जी ने कहा है कि मैं चारों युगों में आया हूँ:-
सत्ययुग में ’सत सुकृत‘ कह टेरा, त्रेता नाम मुनिन्द्र मेरा।
द्वापर में करूणामय कहाया, कलयुग नाम कबीर धराया।।
}

इसके अतिरिक्त अन्य रूप धारण करके कभी भी प्रकट होकर अपनी लीला करके अन्तध्र्यान हो जाते हैं। उस समय लीला करने आए परमेश्वर को प्रभु चाहने वाले श्रद्धालु नहीं पहचान सके, क्योंकि सर्व महर्षियों व संत कहलाने वालों ने प्रभु को निराकार बताया है। वास्तव में परमात्मा आकार में है। मनुष्य सदृश शरीर युक्त हैं। परंतु परमेश्वर का शरीर नाड़ियों के योग से बना पांच तत्त्व का नहीं है। एक नूर तत्त्व से बना है। पूर्ण परमात्मा जब चाहे यहाँ प्रकट हो जाते हैं वे कभी मां से जन्म नहीं लेते क्योंकि वे सर्व के उत्पत्ति कत्र्ता हैं। धर्मदास जी के प्रश्न का उत्तर देते हुए कबीर परमेश्वर जी ने बताया कि हे धर्मदास! मैं चारों युगों में आता हूँ। जब चाहूँ, उसी क्षण सतलोक से आ जाता हूँ। अन्य रूप में वहाँ भी रहता हूँ। जब मैं ब्रह्मा से मिला, उसको तत्त्वज्ञान में सृष्टि रचना का ज्ञान करवाया तो वह प्रभावित हुआ तथा कहा कि आपका ज्ञान अद्वितीय है। प्रथम मन्त्रा प्राप्त किया। ब्रह्मा तथा सावित्री को मैंने ओम् मन्त्र दिया। यह देखने के लिए कि यह कितना विश्वास करता है? इसके पश्चात् मैं श्री विष्णु के पास विष्णु लोक गया उससे भी ज्ञान चर्चा की तथा विष्णु भी मेरा शिष्य हुआ। उसको तथा लक्ष्मी को हरियं मन्त्रा प्रथम मन्त्र रूप में दिया गया। यह देखने के लिए कि यह काल ब्रह्म के द्वारा डगमग तो नहीं हो जाएगा? इसके पश्चात् शिव के पास शंकर लोक में गया उसको तथा पार्वती को सोहं नाम दिया। यह देखने के लिए कहीं ये भी काल ब्रह्म द्वारा फिर तो भ्रमित नहीं कर दिए जाऐंगे। उसके पश्चात् अन्य ऋषियों मनु आदि से ज्ञान चर्चा की परन्तु मनु आदि ऋषियों ने काल प्रभाव के कारण मेरे ज्ञान पर विश्वास नहीं किया। मेरे को उल्टा ज्ञान देने वाला ‘‘वामदेव’’ उर्फ नाम से पुकारने लगे जबकि पृथ्वी पर मेरा नाम सत्ययुग में ‘‘सत्यसुकृत’’ था।

कुछ दिनों पश्चात् मैं फिर से ब्रह्मा के पास गया। ब्रह्मा से ज्ञान चर्चा करनी चाही तो ब्रह्मा जी ने अरूचि दिखाई। क्योंकि जब काल ब्रह्म ने देखा कि मेरे ज्येष्ठ पुत्र ब्रह्मा को तत्वज्ञान से परिचित किया जा रहा है। उसने सोचा यदि मेरा पुत्र तत्त्वज्ञान से परिचित हो गया तो मेरे से घृणा करेगा तथा जीव उत्पत्ति नहीं हो पाएगी। मेरा उदर कैसे भरेगा? क्योंकि काल ब्रह्म को एक लाख मानव शरीरधारी जीवों को प्रतिदिन खाने का शाप लगा है। इसलिए काल ब्रह्म ने अपने ज्येष्ठ पुत्र ब्रह्मा की बुद्धि को परिवर्तित कर दिया। ब्रह्मा के मन में विचार भर दिए कि काल ब्रह्म (ज्योति निरंजन) ही पूज्य है। वह निराकार है। इससे भिन्न कोई अन्य परमात्मा नहीं हैं। जो तुझे ज्ञान दिया जा रहा है वह मिथ्या है। यह अग्नि ऋषि जो तेरे पास आया था वह अज्ञानी है। इसकी बातों में नहीं आना है। हे धर्मदास! ब्रह्मा ने काल ब्रह्म के प्रभाव से प्रभावित होकर मेरे ज्ञान को ग्रहण नहीं किया तथा कहा हे ऋषिवर! जो ज्ञान आप बता रहे हो यह अप्रमाणित है। इसलिए विश्वास के योग्य नहीं है। वेदों में केवल एक परमात्मा की पूजा का विधान है। उसका केवल एक ओं (ॐ) ही जाप करने का है। मुझे पूर्ण ज्ञान है मुझे आप का ज्ञान अस्वीकार्य है। हे धर्मदास! मैंने बहुत कोशिश की ब्रह्मा को समझाने की तथा बताया कि वेद ज्ञान दाता ब्रह्म किसी अन्य पूर्ण ब्रह्म के विषय में कह रहा है। उसकी प्राप्ति के लिए तथा उसके विषय में तत्त्व से जानने के लिए किसी तत्त्वदर्शी सन्त (धीराणाम्) की खोज करो फिर उनसे वह तत्त्वज्ञान सुनों।

प्रमाणः- यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 10 व 13 में स्पष्ट वर्णन है तथा गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में भी स्पष्ट कहा है। प्रमाणों को देख कर भी काल ब्रह्म के अति प्रभाव के कारण ब्रह्मा ने मेरे विचारों में रूचि नहीं ली। मैंने जान लिया कि ब्रह्मा को काल ने भ्रमित कर दिया है। इसलिए विष्णु जी ने भी अरूचि की तो मैं वहाँ से शिव शंकर के पास गया। यही स्थिति शिव की देख कर मैं नीचे पृथ्वी लोक में आया। वर्तमान में चल रही चतुर्युगी के प्रथम सत्ययुग में मैंने (परमेश्वर कबीर जी ने) एक सरोवर में कमल के फूल पर शिशु रूप धारण किया। एक ब्राह्मण दम्पति निःसन्तान था। वह विद्याधर नामक ब्राह्मण अपनी पत्नी दीपिका के साथ अपनी ससुराल से आ रहा था। उनकी आधी आयु बीत चुकी थी। कोई संतान नहीं थी। दीपिका को अपने पिता के घर पर कुछ औरतों ने हमदर्दी जताते हुए कई बार कहा था कि संतान बिना स्त्री का कोई सम्मान नहीं करता। एक संतान तो होनी ही चाहिए। इन बातों को याद करके दीपिका रो रही थी तथा सुबकी लेकर अपने ईष्ट शिव जी से संतान की प्रार्थना कर रही थी। विचार कर रही थी कि वृद्धावस्था में हमारी ऊँगली पकड़ने वाला भी नहीं है। वह समय कैसे बीतेगा? इतने में एक सरोवर दिखाई दिया। प्यास लगी थी। वे सरोवर पर विश्राम हेतु रूके। वहाँ एक नवजात् शिशु को कमल के फूल पर प्राप्त करके अति प्रसन्न हुए। उसे परमेश्वर शिव की कृपा से प्राप्त जान कर घर ले आए। एक अन्य ब्राह्मण से नाम रखवाया उसने मेरा नाम सत्सुकृत रखा। मेरी प्रेरणा से कंवारी गायों ने दूध देना प्रारम्भ किया। उनके दूध से मेरी परवरिश लीला हुई। गुरूकुल में शिक्षा की लीला की। ऋषि जी जो वेद मन्त्रा भूल जाते तो मैं खड़ा होकर पूरा करता। ऋषि जी वेद मन्त्रों का गलत अर्थ करते मैं विरोध करता। इस कारण से मुझे गुरूकुल से निकाल दिया। पृथ्वी पर घूम कर मैंने बहुत से ऋषियों से ज्ञान चर्चा की परन्तु शास्त्रविरूद्ध ज्ञान पर आधारित होने के कारण किसी भी ऋषि-महर्षि ने ज्ञान सुनने की चेष्टा ही नहीं की। महर्षि मनु से भी मेरी वेद ज्ञान पर भी चर्चा हुई। महर्षि मनु ने ब्रह्मा जी से ही ज्ञान ग्रहण किया था। महर्षि मनु जी ने मुझे उल्टा ज्ञान देने वाला बताया तथा मेरा उपनाम वाम देव रख दिया। मैंने महर्षि मनु व अन्य ऋषियों से यहाँ तक कहा कि वह पूर्ण परमात्मा मैं ही हूँ। उन्होंने मेरा उपहास किया तथा कहा आप यहाँ है तो आपका सतलोक तो आपके बिना सुनसान पड़ा होगा वहाँ सतलोक में जाने का क्या लाभ? वहाँ गये प्राणी तो अनाथ हैं। मैंने कहा मैं ऊपर भी विराजमान हूँ। तब मनु जी सहित सर्व ऋषियों ने ठहाका लगा कर कहा फिर तो आपका नाम वामदेव उचित है। वामदेव का अर्थ है कि दो स्थानों पर निवास करने वाला, भी है। वाम अक्षर दो का बोधक है। इस प्रकार उन ज्ञानहीन व्यक्तियों ने मेरे तत्त्वज्ञान को ग्रहण नहीं किया। (वामदेव का प्रमाण शिवपुराण पृष्ठ 606-607 कैलाश संहिता प्रथम अध्याय में है।) बहुत से प्रयत्न करने पर कुछ पुण्यात्माओं ने मेरा उपदेश ग्रहण किया। मैंने स्वस्म वेद (कविगिरः=कविर्वाणी) की रचना की जिसकी काल द्वारा प्रेरित ज्ञानहीन ऋषियों ने बहुत निन्दा की तथा जनता से इसे न पढ़ने का आग्रह किया। सतयुग के प्राणी मुझे केवल एक अच्छा कवि ही मानते थे। इस कारण से सतयुग में बहुत ही कम जीवों ने मेरी शरण् ग्रहण की। ब्राह्मण विद्याधर वाली आत्मा त्रेता युग में वेदविज्ञ ऋषि हुए तथा कलयुग में ऋषि रामानन्द हुए तथा दीपिका वाली आत्मा त्रेता में सूर्या हुई तथा कलयुग में कमाली हुई।

संत गरीबदास जी ने अपने प्रभु तथा गुरू कबीर जी की महिमा का वर्णन करने में कमाल कर रखा है। सच्चाई से परिपूर्ण है। कहा है कि पूर्ण प्रभु कबीर जी (कविर्देव) सतयुग में सतसुकृत नाम से स्वयं प्रकट हुए थे। उस समय गरुड़ जी, श्री ब्रह्मा जी श्री विष्णु जी तथा श्री शिव जी आदि को सतज्ञान समझाया था।

_आदि अंत हमरै नाहीं, मध्य मिलावा मूला। ब्रह्मा को ज्ञान सुनाइया, धर पिण्डा अस्थूल।।
श्वेत भूमि को हम गए, जहाँ विष्णु विश्वम्भर नाथ। हरियम् हीरा नाम देय, अष्ट कमल दल स्वांति।।
हम बैरागी ब्रह्म पद, सन्यासी महादेव। सोहं नाम दिया शंकर कूं, करे हमारी सेव।।

इस प्रकार सतयुग में परमेश्वर कविर्देव जी जो सतसुकृत नाम से आए थे उस समय के ऋषियों व साधकों को वास्तविक ज्ञान समझाया करते थे। परन्तु ऋषियों ने स्वीकार नहीं किया। सतसुकृत जी के स्थान पर परमेश्वर को ‘‘वामदेव‘‘ कहने लगे।

इसी लिए यजुर्वेद अध्याय 12 मंत्र 4 में विवरण है कि यजुर्वेद के वास्तविक ज्ञान को वामदेव ऋषि ने सही जाना तथा अन्य को समझाया।

यह यजुर्वेद अध्याय 12 मंत्र 4 की फोटोकाॅपी है जिसका अनुवाद महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने किया है तथा सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा दिल्ली द्वारा छपाया गया है। इसमें स्पष्ट है कि वेदों के ज्ञान को वामदेव ऋषि ने ठीक से समझा तथा अन्य को समझाया।

पवित्र वेदों के ज्ञान को समझने के लिए कृपया विचार करें:-

‘‘वेदों में कविर्देव अर्थात् कबीर परमेश्वर का प्रमाण‘‘

(पवित्र वेदों में प्रवेश से पहले)

प्रभु जानकारी के लिए पवित्र चारों वेद प्रमाणित शास्त्र हैं। पवित्र वेदों की रचना उस समय हुई थी जब कोई अन्य धर्म नहीं था। इसलिए पवित्र वेदवाणी किसी धर्म से सम्बन्धित नहीं है, केवल आत्म कल्याण के लिए है। इनको जानने के लिए निम्न व्याख्या बहुत ध्यान तथा विवेक के साथ पढ़नी तथा विचारनी होगी।

प्रभु की विस्तृत तथा सत्य महिमा वेद बताते हैं। (अन्य शास्त्र‘‘श्री गीता जी व चारों वेदों तथा पूर्वोक्त प्रभु प्राप्त महान संतों तथा स्वयं कबीर साहेब(कविर्देव) जी की अपनी पूर्ण परमात्मा की अमृत वाणी के अतिरिक्त‘‘ अन्य किसी ऋषि साधक की अपनी उपलब्धि है। जैसे छः शास्त्र ग्यारह उपनिषद् तथा सत्यार्थ प्रकाश आदि। यदि ये वेदों की कसौटी में खरे नहीं उतरते हैं तो यह सम्पूर्ण ज्ञान नहीं है।)

पवित्र वेद तथा गीता जी स्वयं काल प्रभु(ब्रह्म) दत्त हैं। जिन में भक्ति विधि तथा उपलब्धि दोनों सही तौर पर वर्णित हैं। इनके अतिरिक्त जो पूजा विधि तथा अनुभव हैं वह अधूरा समझें। यदि इन्हीं के अनुसार कोई साधक अनुभव बताए तो सत्य जानें। क्योंकि कोई भी प्राणी प्रभु से अधिक नहीं जान सकता।

वेदों के ज्ञान से पूर्वोक्त महात्माओं का विवरण सही मिलता है। इससे सिद्ध हुआ कि वे सर्व महात्मा पूर्ण थे। पूर्ण परमात्मा का साक्षात्कार हुआ है तथा बताया है वह परमात्मा कबीर साहेब(कविर् देव) है।

वही ज्ञान चारों पवित्र वेद तथा पवित्र गीता जी भी बताते हैं।

कलियुगी ऋषियों ने वेदों का टीका (भाषा भाष्य) ऐसे कर दिया जैसे कहीं दूध की महिमा कही गई हो और जिसने कभी जीवन में दूध देखा ही न हो और वह अनुवाद कर रहा हो, वह ऐसे करता है:-

पोष्टिकाहार असि। पेय पदार्थ असि। श्वेदसि।
अमृत उपमा सर्वा मनुषानाम पेय्याम् सः दूग्धः असिः।

(पौष्टिकाहार असि)=कोई शरीर पुष्ट कर ने वाला आहार है (पेय पदार्थ) पीने का तरल पदार्थ (असि) है। (श्वेत्) सफेद (असि) है। (अमृत उपमा) अमृत सदृश है (सर्व) सब (मनुषानाम्) मनुष्यों के (पेय्याम्) पीने योग्य (सः) वह (दूग्धः) पौष्टिक तरल (असि) है।

भावार्थ किया:- कोई सफेद पीने का तरल पदार्थ है जो अमृत समान है, बहुत पौष्टिक है, सब मनुष्यों के पीने योग्य है, वह स्वयं तरल है। फिर कोई पूछे कि वह तरल पदार्थ कहाँ है? उत्तर मिले वह तो निराकार है। प्राप्त नहीं हो सकता। यहाँ पर दूग्धः को तरल पदार्थ लिख दिया जाए तो उस वस्तु ‘‘दूध‘‘ को कैसे पाया व जाना जाए जिसकी उपमा ऊपर की है? यहाँ पर (दूग्धः) को दूध लिखना था जिससे पता चले कि वह पौष्टिक आहार दूध है। फिर व्यक्ति दूध नाम से उसे प्राप्त कर सकता है।

विचार:- यदि कोई कहे दुग्धः को दूध कैसे लिख दिया? यह तो वाद-विवाद का प्रत्यक्ष प्रमाण ही हो सकता है। जैसे दुग्ध का दूध अर्थ गलत नहीं है। भाषा भिन्न होने से हिन्दी में दूध तथा क्षेत्रीय भाषा में दूधू लिखना भी संस्कृत भाषा में लिखे दुग्ध का ही बोध है। जैसे पलवल शहर के आसपास के ग्रामीण परवर कहते हैं। यदि कोई कहे कि परवर को पलवल कैसे सिद्ध कर दिया, मैं नहीं मानता। यह तो व्यर्थ का वाद विवाद है। ठीक इसी प्रकार कोई कहे कि कविर्देव को कबीर परमेश्वर कैसे सिद्ध कर दिया यह तो व्यर्थ का वाद-विवाद ही है। जैसे ‘‘यजुर्वेद‘‘ है यह एक धार्मिक पवित्र पुस्तक है जिसमें प्रभु की यज्ञिय स्तुतियों की ऋचाऐं लिखी हैं तथा प्रभु कैसा है? कैसे पाया जाता है? सब विस्तृत वर्णन है।

अब पवित्र यजुर्वेद की महिमा कहें कि प्रभु की यज्ञीय स्तुतियों की ऋचाओं का भण्डार है। बहुत अच्छी विधि वर्णित है। एक अनमोल जानकारी है और यह लिखें नहीं कि वह ‘‘यजुर्वेद‘‘ है अपितु यजुर्वेद का अर्थ लिख दें कि यज्ञीय स्तुतियों का ज्ञान है। तो उस वस्तु (पवित्र पुस्तक) को कैसे पाया जा सके? उसके लिए लिखना होगा कि वह पवित्र पुस्तक ‘‘यजुर्वेद‘‘ है जिसमें यज्ञीय ऋचाऐं हैं।

अब यजुर्वेद की सन्धिच्छेद करके लिखें। यजुर्$वेद, भी वही पवित्र पुस्तक यजुर्वेद का ही बोध है। यजुः+वेद भी वही पवित्र पुस्तक यजुर्वेद का ही बोध है। जिसमें यज्ञीय स्तुति की ऋचाऐं हैं। उस धार्मिक पुस्तक को यजुर्वेद कहते हैं। ठीक इसी प्रकार चारों पवित्र वेदों में लिखा है कि वह कविर्देव(कबीर परमेश्वर) है। जो सर्व शक्तिमान, जगत्पिता, सर्व सृष्टि रचनहार, कुल मालिक तथा पाप विनाशक व काल की कारागार से छुटवाने वाला अर्थात् बंदी छोड़ है।

इसको कविर्+देव लिखें तो भी कबीर परमेश्वर का बोध है। कविः+देव लिखें तो भी कबीर परमेश्वर अर्थात् कविर् प्रभु का ही बोध है।

इसलिए कविर्देव उसी कबीर साहेब का ही बोध करवाता है:- सर्व शक्तिमान, अजर-अमर, सर्व ब्रह्मण्डों का रचनहार कुल मालिक है क्योंकि पूर्वोक्त प्रभु प्राप्त सन्तों ने अपनी-अपनी मातृभाषा में ‘कविर्‘ को ‘कबीर‘ बोला है तथा ‘वेद‘ को ‘बेद‘ बोला है। इसलिए ‘व‘ और ‘ब‘ के अंतर हो जाने पर भी पवित्र शास्त्र वेद का ही बोध है।

विचार:- जैसे कोई अंग्रेजी भाषा में लिखें कि God Kavir (Kaveer) is almighty इसका हिन्दी अनुवाद करके लिखें कविर या कवीर परमेश्वर सर्व शक्तिमान है।

अब अंग्रेजी भाषा में तो हलन्त ( ् ) की व्यवस्था ही नहीं है। फिर मात्र भाषा में इसी को कबीर कहने तथा लिखने लगे।

यही परमात्मा कविर्देव(कबीर परमेश्वर) तीन युगों में नामान्तर करके आते हैं जिनमें इनके नाम रहते हैं - सतयुग में सत सुकृत, त्रेतायुग में मुनिन्द्र, द्वापरयुग में करुणामय तथा कलयुग में कबीर देव (कविर्देव)। वास्तविक नाम उस पूर्ण ब्रह्म का कविर् देव ही है। जो सृष्टि रचना से पहले भी अनामी लोक में विद्यमान थे। इन्हीं के उपमात्मक नाम सतपुरुष, अकाल मूर्त, पूर्ण ब्रह्म, अलख पुरुष, अगम पुरुष, परम अक्षर ब्रह्म आदि हैं। उसी परमात्मा को चारों पवित्र वेदों में ‘‘कविरमितौजा‘‘, ‘‘कविरघांरि‘‘, ‘‘कविरग्नि‘‘ तथा ‘‘कविर्देव‘‘, कहा है तथा सर्वशक्तिमान, सर्व सृष्टि रचनहार बताया है। पवित्र कुरान शरीफ में सुरत फुर्कानी नं. 25 आयत नं. 19,21,52,58,59 में भी प्रमाण है। कई एक का विरोध है कि जो शब्द कविर्देव‘ है इसको सन्धिच्छेद करने से कविः$देवः बन जाता है यह कबिर् परमेश्वर या कबीर साहेब कैसे सिद्ध किया? व को ब तथा छोटी इ ( ि) की मात्र को बड़ी ई ( ी) की मात्रा करना बेसमझी है।

विचार:- एक ग्रामीण लड़के की सरकारी नौकरी लगी। जिसका नाम कर्मवीर पुत्र श्री धर्मवीर सरकारी कागजों में तथा करमबिर पुत्र श्री धरमबिर पुत्र परताप गाँव के चैकीदार की डायरी में जन्म के समय का लिखा था। सरकार की तरफ से नौकरी लगने के बाद जाँच पड़ताल कराई जाती है। एक सरकारी कर्मचारी जाँच के लिए आया। उसने पूछा कर्मवीर पुत्र श्री धर्मवीर का मकान कौन-सा है, उसकी अमूक विभाग में नौकरी लगी है। गाँव में कर्मवीर को कर्मा तथा उसके पिता जी को धर्मा तथा दादा जी को प्रता आदि उर्फ नामों से जानते थे। व्यक्तियों ने कहा इस नाम का लड़का इस गाँव में नहीं है। काफी पूछताछ के बाद एक लड़का जो कर्मवीर का सहपाठी था, उसने बताया यह कर्मा की नौकरी के बारे में है। तब उस बच्चे ने बताया यही कर्मबीर उर्फ कर्मा तथा धर्मबीर उर्फ धर्मा ही है। फिर उस कर्मचारी को शंका उत्पन्न हुई कि कर्मबीर नहीं कर्मवीर है। उसने कहा चैकीदार की डायरी लाओ, उसमें भी लिखा था - ‘‘करमबिर पुत्र धरमबिर पुत्र परताप‘‘ पूरा ‘‘र‘‘ ‘‘व‘‘ के स्थान पर ‘‘ब‘‘ तथा छोटी ‘‘‘ि‘ की मात्रा लगी थी। तो भी वही बच्चा कर्मवीर ही सिद्ध हुआ, क्योंकि गाँव के नम्बरदारों तथा प्रधानों ने भी गवाही दी कि बेशक मात्रा छोटी बड़ी या ‘‘र‘‘ आधा या पूरा है, लड़का सही इसी गाँव का है। सरकारी कर्मचारी ने कहा नम्बरदार अपने हाथ से लिख दे। नम्बरदार ने लिख दिया मैं करमविर पूतर धरमविर को जानता हूँ जो इस गाम का बासी है और हस्त्ताक्षर कर दिए। बेशक नम्बरदार ने विर में छोटी ई()ि) की मात्रा का तथा करम में बड़े ‘‘र‘‘ का प्रयोग किया है, परन्तु हस्त्ताक्षर करने वाला गाँव का गणमान्य व्यक्ति है। किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि नाम की स्पेलिंग गलत नहीं होती।

ठीक इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा का नाम सरकारी दस्त्तावेज (वेदों) में कविर्देव है, परन्तु गाँव(पृथ्वी) पर अपनी-2 मातृ भाषा में कबीर, कबिर, कबीरा, कबीरन् आदि नामों से जाना जाता है। इसी को नम्बरदारों(आँखों देखा विवरण अपनी पवित्र वाणी में ठोक कर गवाही देते हुए आदरणीय पूर्वोक्त सन्तों) ने कविर्देव को हक्का कबीर, सत् कबीर, कबीरा, कबीरन्, खबीरा, खबीरन् आदि लिख कर हस्त्ताक्षर कर रखे हैं।

वर्तमान (सन् 2006)से लगभग 600 वर्ष पूर्व जब परमात्मा कबीर जी (कविर्देव जी) स्वयं प्रकट हुए थे उस समय सर्व सद्ग्रन्थों का वास्तविक ज्ञान लोकोक्तियों (दोहों, चोपाईयों, शब्दों अर्थात् कविताओं) के माध्यम से साधारण भाषा में जन साधारण को बताया था। उस तत्त्व ज्ञान को उस समय के संस्कृत भाषा व हिन्दी भाषा के ज्ञाताओं ने यह कह कर ठुकरा दिया कि कबीर जी तो अशिक्षित है। इस के द्वारा कहा गया ज्ञान व उस में उपयोग की गई भाषा व्याकरण दृष्टिकोण से ठीक नहीं है। जैसे कबीर जी ने कहा है:-

कबीर बेद मेरा भेद है, मैं ना बेदों माहीं।
जौण बेद से मैं मिलु ये बेद जानते नाहीं।।

भावार्थ:- परमेश्वर कबीर बन्दी छोड़ जी ने कहा है कि जो चार वेद है ये मेरे विषय में ही ज्ञान बता रहे हैं परन्तु इन चारों वेदों में वर्णित विधि द्वारा मैं (पूर्ण ब्रह्म) प्राप्त नहीं हो सकता। जिस वेद (स्वसम अर्थात् सूक्ष्म वेद) में मेरी प्राप्ति का ज्ञान है। उस को चारों वेदों के ज्ञाता नहीं जानते। इस वचन को सुनकर। उस समय के आचार्यजन कहते थे कि कबीर जी को भाषा का ज्ञान नहीं है। देखो वेद का बेद कहा है। नहीं का नाहीं कहा है। ऐसे व्यक्ति को शास्त्रों का क्या ज्ञान हो सकता है? इसलिए कबीर जी मिथ्या भाषण करते हैं। इस की बातों पर विश्वास नहीं करना। स्वामी दयानन्द जी ने सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास ग्यारह पृष्ठ 306 पर कबीर जी के विषय में यही कहा है। वर्तमान में मुझ दास (संत रामपाल दास) के विषय में विज्ञापनों में लिखे लेख पर आर्य समाज के आचार्यों ने यही आपत्ति व्यक्त की थी कि रामपाल को हिन्दी भाषा भी सही नहीं लिखनी आती व को ब लिखता है छोटी-बड़ी मात्राओं को गलत लिखता है। कोमा व हलन्त भी नहीं लगाता। इसका ज्ञान कैसे सही माना जाए।

विचार:- किसी लड़के का विवाह एक सुन्दर सुशील युवती से हो गया। उसने साधारण वस्त्र पहने थे। मेकअप (हार, सिंगार) नहीं कर रखा था। उस के विषय में कोई कहे कि ‘‘यह भी कोई विवाह है। वधु ने मेकअप (हार, सिंगार-आभूषण आदि नहीं पहने) नहीं किया है। विचार करें विवाह का अर्थ है पुरूष को पत्नी प्राप्ति। यदि मेकअप (श्रृंगार) नहीं कर रखा तो वांच्छित वस्तु प्राप्त है। यदि श्रृंगार कर रखा है लड़की ने तो भी बुरा नहीं किया, परन्तु एक श्रृंगार के अभाव से विवाह को ही नकार देना कौन सी बुद्धिमता है। ठीक इसी प्रकार परमेश्वर कबीर बन्दी छोड़ तथा संत रामपाल दास जी महाराज द्वारा दिया तत्त्व ज्ञान है। वास्तविक ज्ञान प्राप्त है। यदि भाषा में श्रृंगार का अभाव अर्थात् मात्राओं व हलन्तों की कमी है तो विद्वान पुरूष कृप्या ठीक करके पढ़ें।

इस तरह इस उलझी हुई ज्ञानगुत्थी को सुलझाया जाएगा। इसमें भाषा तथा व्याकरण की भूमिका क्या है?

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने अपने द्वारा रचे पवित्र उपनिषद् ‘‘सत्यार्थ प्रकाश‘‘ के सातवें समुलास में (पृष्ठ नं. 217, 212 अजमेर से प्रकाशित तथा पृष्ठ संख्या 173 दीनानगर दयानन्द मठ पंजाब से प्रकाशित) लिखा है, उसका भावार्थ है कि ब्रह्म ने वेद वाणी चार ऋषियों में जीवस्थ रूप से बोले। जैसे लग रहा था कि ऋषि वेद बोल रहे थे, परन्तु ब्रह्म बोल रहा था तथा ऋषियों का मुख प्रयोग कर रहा था। (‘‘जीवस्थ रूप‘‘ का भावार्थ है जैसे ऋषियों के अन्दर कोई और जीव स्थापित होकर बोल रहा हो) बाद में उन ऋषियों को कुछ मालूम नहीं कि क्या बोला, क्या लिखा? (जैसे कोई प्रेतात्मा किसी के शरीर में प्रवेश करके बोलती है। उस समय लग रहा होता है कि शरीर वाला जीव ही बोल रहा है, परन्तु प्रेत के निकल जाने के बाद उस शरीर वाले जीव को कुछ मालूम नहीं होता, मैंने क्या बोला था)।

इसी प्रकार बाद में ऋषियों ने वेद भाषा को जानने के लिए व्याकरण निघटु आदि की रचना की। जो स्वामी दयानन्द जी के शब्दों में सत्यार्थ प्रकाश तीसरे समुल्लास (पृष्ठ नं. 80, अजमेर से प्रकाशित तथा पृष्ठ संख्या 64 दीनानगर पंजाब से प्रकाशित) में पवित्र चारों वेद ईश्वर कृत होने से निभ्रात हैं, वेदों का प्रमाण वेद ही हैं। चारों ब्राह्मण, व्याकरण, निघटु आदि ऋषियों कृत होने से त्रुटि युक्त हो सकते हैं। उपरोक्त विचार स्वामी दयानन्द जी के हैं।

विचार करें वेद पढ़ने वाले ऋषियों के अपने विचारों से रचे उपनिषद् एक दूसरे के विपरीत व्याख्या कर रहे हैं। इसलिए वेद ज्ञान को तत्त्वज्ञान से ही समझा जा सकता है। तत्त्वज्ञान (स्वसम वेद) पूर्ण ब्रह्म कविर्देव ने स्वयं आकर बताया है तथा चारों वेदों का ज्ञान ब्रह्म द्वारा बताया गया है और वेदों को बोलने वाला ब्रह्म स्वयं पवित्र यजुर्वेद अध्याय नं. 40 मन्त्रा नं. 10 में कह रहा है कि उस पूर्ण ब्रह्म को कोई तो (सम्भवात्) जन्म लेकर प्रकट होने वाला अर्थात् आकार में(आहुः) कहता है तथा कोई (असम्भवात्) जन्म न लेने वाला अर्थात् व निराकार(आहुः) कहते हैं। परन्तु इसका वास्तविक ज्ञान तो(धीराणाम्) पूर्ण ज्ञानी अर्थात् तत्त्वदर्शी संतजन (विचचक्षिरे) पूर्ण निर्णायक भिन्न भिन्न बताते हैं (शुश्रुम्) उसको ध्यानपूर्वक सुनो। इससे स्वसिद्ध है कि वेद बोलने वाला ब्रह्म भी स्वयं कह रहा है कि उस पूर्ण ब्रह्म के बारे में मैं भी पूर्ण ज्ञान नहीं रखता। उसको तो कोई तत्त्वदर्शी संत ही बता सकता है। इसी प्रकार इसी अध्याय के मन्त्रा नं. 13 में कहा है कि कोई तो (विद्याया) अक्षर ज्ञानी एक भाषा के जानने वाले को ही विद्वान कहते हैं, दूसरे (अविद्याया) निरक्षर को अज्ञानी कहते हैं, यह जानकारी भी (धीराणाम्) तत्त्वदर्शी संतजन ही (विचचक्षिरे) विस्तृत व्याख्या ब्यान करते हैं (तत्) उस तत्त्वज्ञान को उन्हीं से (शुश्रुम्) ध्यानपूर्वक सुनो अर्थात् वही तत्त्वदर्शी संत ही बताएगा कि विद्वान अर्थात् ज्ञानी कौन है तथा अज्ञानी अर्थात् अविद्वान कौन है।

विशेष:- उपरोक्त प्रमाणों को विवेचन करके सद्भावना पूर्वक पुनर्विचार करें तथा व को ब तथा छोटी बड़ी मात्राओं की शुद्धि-अशुद्धि से ही ज्ञानी व अज्ञानी की पहचान नहीं होती, वह तो तत्त्वज्ञान से ही होती है।

(कविर् देव) = कबीर परमेश्वर के विषय में ‘व‘ को ‘ब‘ कैसे सिद्ध किया है? छोटी इ( ि) की मात्रा बड़ी ई( ी) की मात्रा कैसे सिद्ध हो सकती है? इस वाद-विवाद में न पड़कर तत्त्वज्ञान को समझना है।

जैसे यजुर्वेद है, यह एक पवित्र पुस्तक है। इसके विषय में कहीं संस्कृत भाषा में विवरण किया हो जहां यजुः या यजुम् आदि शब्द लिखें हो तो भी पवित्र पुस्तक यजुर्वेद का ही बोध समझा जाता है। इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा का वास्तविक नाम कविर्देव है। इसी को भिन्न-भिन्न भाषा में कबीर साहेब, कबीर परमेश्वर कहने लगे। कई श्रद्धालु शंका व्यक्त करते हैं कि कविर् को कबीर कैसे सिद्ध कर दिया। व्याकरण दृष्टिकोण से कविः का अर्थ सर्वज्ञ होता है। दास की प्रार्थना है कि प्रत्येक शब्द का कोई न कोई अर्थ तो बनता ही है। रही बात व्याकरण की। भाषा प्रथम बनी क्योंकि वेद वाणी प्रभु द्वारा कही है, तथा व्याकरण बाद में ऋषियों द्वारा बनाई है। यह त्रुटियुक्त हो सकती है। वेद के अनुवाद (भाषा-भाष्य) में व्याकरण व्यतय है अर्थात् असंगत तथा विरोध भाव है। क्योंकि वेद वाणी मंत्रों द्वारा पदों में है। जैसे पलवल शहर के आस-पास के व्यक्ति पलवल को परवर बोलते हैं। यदि कोई कहे कि पलवल को कैसे परवर सिद्ध कर दिया। यही कविर् को कबीर कैसे सिद्ध कर दिया कहना मात्र है। जैसे क्षेत्रीय भाषा में पलवल शहर को परवर कहते हैं। इसी प्रकार कविर् को कबीर बोलते हैं, प्रभु वही है। महर्षि दयानन्द जी ने ‘‘सत्यार्थ प्रकाश’’ समुल्लास 4 पृष्ठ 100 पर (दयानन्द मठ दीनानगर पंजाब से प्रकाशित पर) ‘‘देवृकामा’’का अर्थ देवर की कामना करने किया है देवृ को पूरा ‘‘ र ’’ लिख कर देवर किया है। कविर् को कविर फिर भाषा भिन्न कबीर लिखने व बोलने में कोई आपत्ति या व्याकरण की त्रुटि नहीं है। पूर्ण परमात्मा कविर्देव है, यह प्रमाण यजुर्वेद अध्याय 29 मंत्र 25 तथा सामवेद संख्या 1400 में भी है जो निम्न है:-

यजुर्वेद के अध्याय नं. 29 के श्लोक नं. 25 (संत रामपाल दास द्वारा भाषा-भाष्य):-

समिद्धोऽअद्य मनुषो दुरोणे देवो देवान्यजसि जातवेदः।
आ च वह मित्रमहश्चिकित्वान्त्वं दूतः कविरसि प्रचेताः।।25।।

समिद्धः अद्य मनुषः दुरोणे देवः देवान्य ज्अ सि जातवेदः आ च वह मित्रमहः चिकित्वान्त्व म् दूतः कविर् असि प्रचेताः

अनुवाद:- (अद्य) आज अर्थात् वर्तमान में (दुरोणे) शरीर रूप महल में दुराचार पूर्वक (मनुषः) झूठी पूजा में लीन मननशील व्यक्तियों को (समिद्धः) लगाई हुई आग अर्थात् शास्त्र विधि रहित वर्तमान पूजा जो हानिकारक होती है, उसके स्थान पर (देवान्) देवताओं के (देवः) देवता (जातवेदः) पूर्ण परमात्मा सतपुरूष की वास्तविक (यज्) पूजा (असि) है। (आ) दयालु (मित्रमहः) जीव का वास्तविक साथी पूर्ण परमात्मा ही अपने (चिकित्वान्) स्वस्थ ज्ञान अर्थात यथार्थ भक्ति को (दूतः) संदेशवाहक रूप में (वह) लेकर आने वाला (च) तथा (प्रचेताः) बोध कराने वाला (त्वम्) आप (कविरसि) कविर्देव है अर्थात् कबीर परमेश्वर हैं।

भावार्थ - जिस समय पूर्ण परमात्मा प्रकट होता है उस समय सर्व ऋषि व सन्त जन शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण अर्थात् पूजा द्वारा सर्व भक्त समाज को मार्ग दर्शन कर रहे होते हैं। तब अपने तत्त्वज्ञान अर्थात् स्वस्थ ज्ञान का संदेशवाहक बन कर स्वयं ही कविर्देव अर्थात् कबीर प्रभु ही आता है।

संख्या नं. 1400 सामवेद उतार्चिक अध्याय नं. 12 खण्ड नं. 3 श्लोक नं. 5
(संत रामपाल दास द्वारा भाषा-भाष्य):-

भद्रा वस्त्रा समन्या3वसानो महान् कविर्निवचनानि शंसन्।
आ वच्यस्व चम्वोः पूयमानो विचक्षणो जागृविर्देववीतौ।।5।।

भद्रा वस्त्रा समन्या वसानः महान् कविर् निवचनानि शंसन् आवच्यस्व चम्वोः पूयमानः विचक्षणः जागृविः देव वीतौ

अनुवाद:- (सम् अन्या) अपने शरीर जैसा अन्य (भद्रा वस्त्रा) सुन्दर चोला यानि शरीर (वसानः) धारण करके (महान् कविर्) समर्थ कविर्देव यानि कबीर परमेश्वर (निवचनानि शंसन्) अपने मुख कमल से वाणी बोलकर यथार्थ अध्यात्म ज्ञान बताता है, यथार्थ वर्णन करता है। जिस कारण से (देव) परमेश्वर की (वितौ) भक्ति के लाभ को (जागृविः) जागृत यानि प्रकाशित करता है। (विचक्षणः) कथित विद्वान सत्य साधना के स्थान पर (आ वच्यस्व) अपने वचनों से (पूयमानः) आन-उपासना रूपी मवाद (चम्वोः) आचमन करा रखा होता है यानि गलत ज्ञान बता रखा होता है।

भावार्थ:- जैसे यजुर्वेद अध्याय 5 मंत्र एक में कहा है कि ‘अग्नेः तनुः असि = परमेश्वर सशरीर है। विष्णवे त्वा सोमस्य तनुः असि = उस अमर प्रभु का पालन पोषण करने के लिए अन्य शरीर है जो अतिथि रूप में कुछ दिन संसार में आता है। तत्त्व ज्ञान से अज्ञान निंद्रा में सोए प्रभु प्रेमियों को जगाता है। वही प्रमाण इस मंत्र में है कि कुछ समय के लिए पूर्ण परमात्मा कविर्देव अर्थात् कबीर प्रभु अपना रूप बदलकर सामान्य व्यक्ति जैसा रूप बनाकर पृथ्वी मण्डल पर प्रकट होता है तथा कविर्निवचनानि शंसन् अर्थात् कविर्वाणी बोलता है। जिसके माध्यम से तत्त्वज्ञान को जगाता है तथा उस समय महर्षि कहलाने वाले चतुर प्राणी मिथ्याज्ञान के आधार पर शास्त्र विधि अनुसार सत्य साधना रूपी अमृत के स्थान पर शास्त्र विधि रहित पूजा रूपी मवाद को श्रद्धा के साथ आचमन अर्थात् पूजा करा रहे होते हैं। उस समय पूर्ण परमात्मा स्वयं प्रकट होकर तत्त्वज्ञान द्वारा शास्त्र विधि अनुसार साधना का ज्ञान प्रदान करता है।

पवित्र ऋग्वेद के निम्न मंत्रों में भी पहचान बताई है कि जब वह पूर्ण परमात्मा कुछ समय संसार में लीला करने आता है तो शिशु रूप धारण करता है। उस पूर्ण परमात्मा की परवरिश (अध्न्य धेनवः) कंवारी गाय द्वारा होती है। फिर लीलावत् बड़ा होता है तो अपने पाने व सतलोक जाने अर्थात् पूर्ण मोक्ष मार्ग का तत्त्वज्ञान (कविर्गिभिः) कबीर बाणी द्वारा कविताओं द्वारा बोलता है, जिस कारण से प्रसिद्ध कवि कहलाता है, परन्तु वह स्वयं कविर्देव पूर्ण परमात्मा ही होता है जो तीसरे मुक्ति धाम सतलोक में रहता है।

ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 1 मंत्र 9 तथा सूक्त 96 मंत्र 17 से 20:-

ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 1 मंत्र 9

अभी इमं अध्न्या उत श्रीणन्ति धेनवः शिशुम्। सोममिन्द्राय पातवे।।9।।

अभी इमम्-अध्न्या उत श्रीणन्ति धेनवः शिशुम् सोमम् इन्द्राय पातवे।

अनुवाद:- (उत) विशेष कर (इमम्) इस (शिशुम्) बालक रूप में प्रकट (सोमम्) पूर्ण परमात्मा अमर प्रभु की (इन्द्राय) सुख सुविधाओं द्वारा अर्थात् खाने-पीने द्वारा जो शरीर वृद्धि को प्राप्त होता है उसे (पातवे) वृद्धि के लिए (अभी) पूर्ण तरह (अध्न्या धेनवः) जो गाय, सांड द्वारा कभी भी परेशान न की गई हो अर्थात् कंवारी गाय द्वारा (श्रीणन्ति) परवरिश की जाती है।

भावार्थ - पूर्ण परमात्मा अमर पुरुष जब लीला करता हुआ बालक रूप धारण करके स्वयं प्रकट होता है उस समय कंवारी गाय अपने आप दूध देती है जिससे उस पूर्ण प्रभु की परवरिश होती है।

’’त्रेतायुग में कबीर परमेश्वर जी का प्रकट होना‘‘

प्रश्न:- धर्मदास जी ने पूछा हे बन्दी छोड़ आप त्रेता युग में मुनिन्द्र ऋषि के नाम से अवतरित हुए थे। कृप्या उस युग में किन-2 पुण्यात्माओं ने आप की शरण ग्रहण की?

उत्तरः- हे धर्मदास! त्रेता युग में मैं मुनिन्द्र ऋषि के नाम से प्रकट हुआ। त्रेता युग में भी मैं एक शिशु रूप धारण करके कमल के फूल पर प्रकट हुआ था। एक वेदविज्ञ नामक ऋषि तथा सूर्या नामक उसकी साधवी पत्नी थी। वे प्रतिदिन सरोवर पर स्नान करने जाते थे। उनकी आयु आधी से अधिक हो चुकी थी। वह निःसन्तान दम्पति मुझे अपने साथ ले गए तथा सन्तान रूप में पालन किया। प्रत्येक युग में जिस समय मैं एक पूरे जीवन रहने की लीला करने आता हूँ। मेरी परवरिश कंवारी गायों से होती है। बाल्यकाल से ही मैं तत्त्वज्ञान की वाणी उच्चारण करता हूँ। जिस कारण से मुझे प्रसिद्ध कवि की उपाधि प्राप्त होती है। परन्तु ज्ञानहीन ऋषियों द्वारा भ्रमित जनता मुझे न पहचान कर एक कवि की उपाधि प्रदान कर देती है। केवल मुझ से परिचित श्रद्धालु ही मुझे समझ पाते हैं तथा वे अपना कल्याण करवा लेते हैं। त्रेता युग में कविर्देव का ऋषि मुनिन्द्र नाम से प्राकाट्य’’ लेखक के शब्दों में निम्न पढ़ें:-

”त्रेतायुग में कविर्देव (कबीर परमेश्वर) का मुनिन्द्र नाम से प्राकाट्य“

”नल तथा नील को शरण में लेना“

त्रेतायुग में स्वयंभु कविर्देव(कबीर परमेश्वर) रूपान्तर करके मुनिन्द्र ऋषि के नाम से आए हुए थे। एक दिन अनल अर्थात् नल तथा अनील अर्थात् नील ने मुनिन्द्र साहेब का सत्संग सुना। दोनों भक्त आपस में मौसी के पुत्र थे। माता-पिता का देहान्त हो चुका था। नल तथा नील दोनों शारीरिक व मानसिक रोग से अत्यधिक पीड़ित थे। सर्व ऋषियों व सन्तों से कष्ट निवारण की प्रार्थना कर चुके थे। सर्व ऋषियों व सन्तों ने बताया था कि यह आप का प्रारब्ध का पाप कर्म का दण्ड है, यह आपको भोगना ही पड़ेगा। इसका कोई समाधान नहीं है। दोनों दोस्त जीवन से निराश होकर मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे। सत्संग के उपरांत ज्यों ही दोनों ने परमेश्वर कविर्देव (कबीर परमेश्वर) उर्फ मुनिन्द्र ऋषि जी के चरण छुए तथा परमेश्वर मुनिन्द्र जी ने सिर पर हाथ रखा तो दोनों का असाध्य रोग छू मन्त्रा हो गया अर्थात् दोनों नल तथा नील स्वस्थ हो गए। इस अद्धभुत चमत्कार को देख कर प्रभु के चरणों में गिर कर घण्टों रोते रहे तथा कहा आज हमें प्रभु मिल गया। जिसकी हमें वर्षों से खोज थी उससे प्रभावित होकर ऋषि मुनिन्द्र जी से नाम (दीक्षा) ले लिया मुनिन्द्र साहेब जी के साथ ही सेवा में रहने लगे। पहले ऋषियों व संतों का समागम पानी की व्यवस्था देख कर नदी के किनारे होता था। नल और नील दोनों बहुत प्रभु प्रेमी तथा भोली आत्माएँ थी। परमात्मा में श्रद्धा बहुत हो गई थी। सेवा बहुत किया करते थे। समागमों में रोगी व वृद्ध व विकलांग भक्तजन आते तो उनके कपड़े धोते तथा बर्तन साफ करते। उनके लोटे और गिलास साफ कर देते थे। परंतु थे भोले से दिमाग के। कपड़े धोने लग जाते तो सत्संग में जो प्रभु की कथा सुनी होती उसकी चर्चा करने लग जाते। दोनों भक्त प्रभु चर्चा में बहुत मस्त हो जाते और वस्तुएँ दरिया के जल में कब डूब जाती उनको पता भी नहीं चलता। किसी की चार वस्तु ले कर जाते तो दो वस्तु वापिस ला कर देते थे। भक्तजन कहते कि भाई आप सेवा तो बहुत करते हो, परंतु हमारा तो बहुत काम बिगाड़ देते हो। अब ये खोई हुई वस्तुएँ हम कहाँ से ले कर आयें? आप हमारी सेवा ही करनी छोड़ दो। हम अपनी सेवा आप ही कर लेंगे। नल तथा नील रोने लग जाते थे कि हमारी सेवा न छीनों। अब की बार नहीं खोएँगे। परन्तु फिर वही काम करते। प्रभु की चर्चा में लग जाते और वस्तुएँ डूब जाती। भक्तजनों ने मुनिन्द्र जी से प्रार्थना की कि कृप्या आप नल तथा नील को समझाओ। ये न तो मानते हैं और कहते हैं तो रोने लग जाते हैं। हमारी तो आधी भी वस्तुएँ वापिस नहीं लाते। बर्तन व वस्त्र धोते समय वे दोनों भगवान की चर्चा में मस्त हो जाते हैं और वस्तुएँ डूब जाती हैं। मुनिन्द्र साहेब ने एक दो बार नल-नील को समझाया। वे रोने लग जाते थे कि साहेब हमारी ये सेवा न छीनों। सतगुरु मुनिन्द्र साहेब ने आशीर्वाद देते हुए कहा बेटा नल तथा नील खूब सेवा करो, आज के बाद आपके हाथ से कोई भी वस्तु चाहे पत्थर या लोहा भी क्यों न हो जल में नहीं डूबेगी।

‘‘समुन्द्र पर रामचन्द्र के पुल के लिए पत्थर तैराना’’

एक समय की बात है कि सीता जी को रावण उठा कर ले गया। भगवान राम को पता भी नहीं कि सीता जी को कौन उठा ले गया? श्री रामचन्द्र जी इधर उधर खोज करते हैं। हनुमान जी ने खोज करके बताया कि सीता माता लंकापति रावण की कैद में है। पता लगने के बाद भगवान राम ने रावण के पास शान्ति दूत भेजे तथा प्रार्थना की कि सीता लौटा दे। परन्तु रावण नहीं माना। युद्ध की तैयारी हुई। तब समस्या यह आई कि समुद्र से सेना कैसे पार करें?

भगवान श्री रामचन्द्र ने तीन दिन तक घुटनों पानी में खड़ा होकर हाथ जोड़कर समुद्र से प्रार्थना की कि रास्ता दे। परन्तु समुद्र टस से मस न हुआ। जब समुद्र नहीं माना तब श्री राम ने उसे अग्नि बाण से जलाना चाहा। भयभीत समुद्र एक ब्राह्मण का रूप बनाकर सामने आया और कहा कि भगवन् सबकी अपनी-अपनी मर्यादाएँ हैं। मुझे जलाओ मत। मेरे अंदर न जाने कितने जीव-जंतु वसे हैं। अगर आप मुझे जला भी दोगे तो भी आप मुझे पार नहीं कर सकते, क्योंकि यहाँ पर बहुत गहरा गड्डा बन जायेगा, जिसको आप कभी भी पार नहीं कर सकते।

समुद्र ने कहा भगवन ऐसा काम करो कि सर्प भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। मेरी मर्यादा भी रह जाए और आपका पुल भी बन जाए। तब भगवान श्री राम ने समुद्र से पूछा कि वह क्या है? ब्राह्मण रूप में खडे़ समुद्र ने कहा कि आपकी सेना में नल और नील नाम के दो सैनिक हैं। उनके पास उनके गुरुदेव से प्राप्त एक ऐसी शक्ति है कि उनके हाथ से पत्थर भी तैर जाते हैं। हर वस्तु चाहे वह लोहे की हो, तैर जाती है। श्री रामचन्द्र ने नल तथा नील को बुलाया और उनसे पूछा कि क्या आपके पास कोई ऐसी शक्ति है? तो नल तथा नील ने कहा कि हाँ जी, हमारे हाथ से पत्थर भी नहीं डूबंेगे। तो श्रीराम ने कहा कि परीक्षण करवाओ।

उन नादानों (नल-नील) ने सोचा कि आज सब के सामने तुम्हारी बहुत महिमा होगी। उस दिन उन्होंने अपने गुरुदेव मुनिन्द्र जी (कबीर परमेश्वर जी) को यह सोचकर याद नहीं किया कि अगर हम उनको याद करेंगे तो कहीं श्रीराम ये न सोच लें कि इनके पास शक्ति नहीं है, यह तो कहीं और से मांगते हैं। उन्होंने पत्थर उठाकर समुद्र के जल में डाला तो वह पत्थर डूब गया। नल तथा नील ने बहुत कोशिश की, परन्तु उनसे पत्थर नहीं तैरे। तब भगवान राम ने समुद्र की ओर देखा मानो कहना चाह रहे हों कि आप तो झूठ बोल रहे थे। इनमें तो कोई शक्ति नहीं है। समुद्र ने कहा कि नल-नील आज तुमने अपने गुरुदेव को याद नहीं किया। कृप्या अपने गुरुदेव को याद करो। वे दोनों समझ गए कि आज तो हमने गलती कर दी। उन्होंने सतगुरु मुनिन्द्र साहेब जी को याद किया। सतगुरु मुनिन्द्र (कबीर परमेश्वर) वहाँ पर पहुँच गए। भगवान रामचन्द्र जी ने कहा कि हे ऋषिवर! मेरा दुर्भाग्य है कि आपके सेवकों से पत्थर नहीं तैर रहे हैं। मुनिन्द्र साहेब ने कहा कि अब इनके हाथ से कभी तैरेंगे भी नहीं, क्योंकि इनको अभिमान हो गया है। सतगुरु की वाणी प्रमाण करती है किः-

गरीब, जैसे माता गर्भ को, राखे जतन बनाय। ठेस लगे तो क्षीण होवे, तेरी ऐसे भक्ति जाय।

उस दिन के बाद नल तथा नील की वह शक्ति समाप्त हो गई। श्री रामचन्द्र जी ने परमेश्वर मुनिन्द्र साहेब जी से कहा कि हे ऋषिवर! मुझ पर बहुत आपत्ति पड़ी हुई है। दया करो किसी प्रकार सेना परले पार हो जाए। जब आप अपने सेवकों को शक्ति दे सकते हो तो प्रभु! मुझ पर भी कुछ रजा करो। मुनिन्द्र साहेब जी ने कहा कि यह जो सामने वाला पहाड़ है, मैंने उसके चारों तरफ एक रेखा खींच दी है। इसके बीच-बीच के पत्थर उठा लाओ, वे नहीं डूबेंगे। श्री राम ने परीक्षण के लिए पत्थर मंगवाया। उसको पानी पर रखा तो वह तैरने लग गया। नल तथा नील कारीगर(शिल्पकार) भी थे। हनुमान जी प्रतिदिन भगवान याद किया करते थे। उसने अपनी दैनिक क्रिया भी करते रहने के लिए राम राम भी लिखता रहा और पहाड़ के पहाड़ उठा कर ले आता था। नल नील उनको जोड़-तोड़ कर पुल में लगा देते थे। इस प्रकार पुल बना था। धर्मदास जी कहते हैं:-

रहे नल नील जतन कर हार, तब सतगुरू से करी पुकार।
जा सत रेखा लिखी अपार, सिन्धु पर शिला तिराने वाले।
धन-धन सतगुरु सत कबीर, भक्त की पीर मिटाने वाले।

कोई कहता था कि हनुमान जी ने पत्थर पर राम का नाम लिख दिया था इसलिए पत्थर तैर गये। कोई कहता था कि नल-नील ने पुल बनाया था। कोई कहता था कि श्रीराम ने पुल बनाया था। परन्तु यह सतकथा ऐसे है, जो ऊपर लिखी है।

(सत कबीर की साखी - पृष्ठ 179 से 182 तक)

-ः पीव पिछान को अंग:-

कबीर- तीन देव को सब कोई ध्यावै, चैथे देव का मरम न पावै।
चैथा छाड़ पंचम को ध्यावै, कहै कबीर सो हम पर आवै।।3।।
कबीर- ओंकार निश्चय भया, यह कर्ता मत जान।
साचा शब्द कबीर का, परदे मांही पहचान।।5।।
कबीर- राम कृष्ण अवतार हैं, इनका नांही संसार।
जिन साहेब संसार किया, सो किन्हूं न जन्म्या नार।।17।।
कबीर - चार भुजा के भजन में, भूलि परे सब संत।
कबिरा सुमिरो तासु को, जाके भुजा अनंत।।23।।
कबीर - समुद्र पाट लंका गये, सीता को भरतार।
ताहि अगस्त मुनि पीय गयो, इनमें को करतार।।26।।
कबीर - गिरवर धारयो कृष्ण जी, द्रोणागिरि हनुमंत।
शेष नाग सब सृष्टि सहारी, इनमें को भगवंत।।27।।
कबीर - काटे बंधन विपति में, कठिन किया संग्राम।
चिन्हों रे नर प्राणियां, गरुड बड़ो की राम।।28।।
कबीर - कह कबीर चित चेतहंू, शब्द करौ निरूवार।
श्रीरामहि कर्ता कहत हैं, भूलि परयो संसार।।29।।
कबीर - जिन राम कृष्ण व निरंजन कियो, सो तो करता न्यार।
अंधा ज्ञान न बूझई, कहै कबीर विचार।।30।।

“कबीर परमेश्वर द्वारा विभीषण तथा मंदोदरी को शरण में लेना”

परमेश्वर मुनिन्द्र जी अनल अर्थात् नल तथा अनील अर्थात् नील को शरण में लेने के उपरान्त श्री लंका में गए। वहाँ पर एक परम भक्त विचित्र चन्द्रविजय जी का सोलह सदस्यों का परिवार रहता था। वे भाट जाति में उत्पन्न पुण्यकर्मी प्राणी थे। परमेश्वर मुनिन्द्र(कविर्देव) जी का उपदेश सुन कर पूरे परिवार ने नाम दान प्राप्त किया। परम भक्त विचित्र चन्द्रविजय जी की पत्नी भक्तमति कर्मवती लंका के राजा रावण की रानी मन्दोदरी के पास नौकरी(सेवा) करती थी। रानी मंदोदरी को हँसी-मजाक अच्छे-मंदे चुटकुले सुना कर उसका मनोरंजन कराती थी। भक्त चन्द्रविजय, राजा रावण के पास दरबार में नौकरी (सेवा) करता था। राजा की बड़ाई के गाने सुना कर उसे प्रसन्न करता था। भक्त विचित्र चन्द्रविजय की पत्नी भक्तमति कर्मवती परमेश्वर से उपदेश प्राप्त करने के उपरान्त रानी मंदोदरी को प्रभु चर्चा जो सृष्टि रचना अपने सतगुरुदेव मुनिन्द्र जी से सुनी थी प्रतिदिन सुनाने लगी।

भक्तमति मंदोदरी रानी को अति आनन्द आने लगा। कई-कई घण्टों तक प्रभु की सत कथा को भक्तमति कर्मवती सुनाती रहती तथा मंदोदरी की आँखों से आँसू बहते रहते। एक दिन रानी मंदोदरी ने कर्मवती से पूछा आपने यह ज्ञान किससे सुना? आप तो बहुत अनाप-शनाप बातें किया करती थी। इतना बदलाव परमात्मा तुल्य संत बिना नहीं हो सकता। तब कर्मवती ने बताया कि हमने एक परम संत से अभी-अभी उपदेश लिया है। रानी मंदोदरी ने संत के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त करते हुए कहा, आप के गुरु अब की बार आयें तो उन्हें हमारे घर बुला कर लाना। अपनी मालकिन का आदेश प्राप्त करके शीश झुकाकर सत्कार पूर्वक कहा कि जो आप की आज्ञा, आप की नौकरानी वही करेगी। मेरी एक विनती है, कहते हैं कि संत को आदेशपूर्वक नहीं बुलाना चाहिए। स्वयं जा कर दर्शन करना श्रेयकर होता है और जैसे आप की आज्ञा वैसा ही होगा। महारानी मंदोदरी ने कहा कि अब के आपके गुरुदेव जी आयें तो मुझे बताना मैं स्वयं उनके पास जाकर दर्शन करूंगी। परमेश्वर ने फिर श्री लंका में कृपा की। मंदोदरी रानी ने उपदेश प्राप्त किया। कुछ समय उपरान्त अपने प्रिय देवर भक्त विभीषण जी को उपदेश दिलाया। भक्तमति मंदोदरी उपदेश प्राप्त करके अहर्निश प्रभु स्मरण में लीन रहने लगी। अपने पति रावण को भी सतगुरु मुनिन्द्र जी से उपदेश प्राप्त करने की कई बार प्रार्थना की परन्तु रावण नहीं माना तथा कहा करता था कि मैंने परम शक्ति महेश्वर मृत्युंजय शिव जी की भक्ति की है। इसके तुल्य कोई शक्ति नहीं है। आपको किसी ने बहका लिया है।

कुछ ही समय उपरान्त वनवास प्राप्त श्री सीता जी का अपहरण करके रावण ने अपने नौ लखा बाग में कैद कर लिया। भक्तमति मंदोदरी के बार-बार प्रार्थना करने से भी रावण ने माता सीता जी को वापिस छोड़ कर आना स्वीकार नहीं किया। तब भक्तमति मंदोदरी जी ने अपने गुरुदेव मुनिन्द्र जी से कहा महाराज जी, मेरे पति ने किसी की औरत का अपहरण कर लिया है। मुझ से सहन नहीं हो रहा है। वह उसे वापिस छोड़ कर आना किसी कीमत पर भी स्वीकार नहीं कर रहा है। आप दया करो मेरे प्रभु। आज तक जीवन में मैंने ऐसा दुःख नहीं देखा था।

परमेश्वर मुनिन्द्र जी ने कहा कि बेटी मंदोदरी यह औरत कोई साधारण स्त्री नहीं है। श्री विष्णु जी को शापवश पृथ्वी पर आना पड़ा है, वे अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र रामचन्द्र नाम से जन्में हैं। इनको 14 वर्ष का वनवास प्राप्त है तथा लक्ष्मी जी स्वयं सीता रूप में इनकी पत्नी रूप में वनवास में श्री राम के साथ थी। उसे रावण एक साधु वेश बना कर धोखा देकर उठा लाया है। यह स्वयं लक्ष्मी ही सीता जी है। इसे शीघ्र वापिस करके क्षमा याचना करके अपने जीवन की भिक्षा याचना रावण करें तो इसी में इसका शुभ है।

भक्तमति मंदोदरी के अनेकों बार प्रार्थना करने से रावण नहीं माना तथा कहा कि वे दो मसखरे जंगल में घूमने वाले मेरा क्या बिगाड़ सकते हैं। मेरे पास अनीगनत सेना है। मेरे एक लाख पुत्र तथा सवा लाख नाती हैं। मेरे पुत्र मेघनाद ने स्वर्ग राज इन्द्र को पराजित कर उसकी पुत्री से विवाह कर रखा है। तेतीस करोड़ देवताओं को हमने कैद कर रखा है। तू मुझे उन दो बेसहारा बन में बिचर रहे बनवासियों को भगवान बता कर डराना चाहती है। इस स्त्री को वापिस नहीं करूँगा। मंदोदरी ने भक्ति मार्ग का ज्ञान जो अपने पूज्य गुरुदेव से सुना था, रावण को बहुत समझाया। विभीषण ने भी अपने बड़े भाई को समझाया। रावण ने अपने भाई विभीषण को पीटा तथा कहा कि तू ज्यादा श्री रामचन्द्र का पक्षपात कर रहा है, उसी के पास चला जा।

एक दिन भक्तमति मंदोदरी ने अपने पूज्य गुरुदेव से प्रार्थना की कि हे गुरुदेव मेरा सुहाग उजड़ रहा है। एक बार आप भी मेरे पति को समझा दो। यदि वह आप की बात को नहीं मानेगा तो मुझे विधवा होने का दुःख नहीं होगा।

अपनी बचन की बेटी मंदोदरी की प्रार्थना स्वीकार करके राजा रावण के दरबार के समक्ष खड़े होकर परमेश्वर मुनिन्द्र जी ने द्वारपालों से राजा रावण से मिलने की प्रार्थना की। द्वारपालों ने कहा ऋषि जी इस समय हमारे राजा जी अपना दरबार लगाए हुए हैं। इस समय अन्दर का संदेश बाहर आ सकता है, बाहर का संदेश अन्दर नहीं जा सकता। हम विवश हैं। तब पूर्ण प्रभु अंतध्र्यान हुए तथा राजा रावण के दरबार में प्रकट हो गए। रावण की दृष्टि ऋषि पर गई तो गरज कर पूछा कि इस ऋषि को मेरी आज्ञा बिना किसने अन्दर आने दिया है उन द्वारपालों को लाकर मेरे सामने कत्ल कर दो। तब परमेश्वर ने कहा राजन् आप के द्वारपालों ने स्पष्ट मना किया था। उन्हें पता नहीं कि मैं कैसे अन्दर आ गया। रावण ने पूछा कि तू अन्दर कैसे आया? तब पूर्ण प्रभु मुनिन्द्र वेश में अदृश होकर पुनर् प्रकट हो गए तथा कहा कि मैं ऐसे आ गया। रावण ने पूछा कि आने का कारण बताओ। तब प्रभु ने कहा कि आप योद्धा हो कर एक अबला का अपहरण कर लाए हो। यह आप की शान व शूरवीरता के विपरीत है। सीता कोई साधारण औरत नहीं है यह स्वयं लक्ष्मी जी का अवतार है। श्री रामचन्द्र जी जो इसके पति हैं वे स्वयं विष्णु हैं। इसे वापिस करके अपने जीवन की भिक्षा माँगो। इसी में आप का श्रेय है। इतना सुन कर तमोगुण (भगवान शिव) का उपासक रावण क्रोधित होकर नंगी तलवार लेकर सिंहासन से दहाड़ता हुआ कूदा तथा उस नादान प्राणी ने तलवार के अंधाधँुध सत्तर वार ऋषि जी को मारने के लिए किए। परमेश्वर मुनिन्द्र जी ने एक झाडू की सींक हाथ में पकड़ी हुई थी। उसको ढाल की तरह आगे कर दिया। रावण के सत्तर वार उस नाजुक सींक पर लगे। ऐसे आवाज हुई जैसे लोहे के खम्बे (पीलर) पर तलवार लग रही हो। सींक टस से मस नहीं हुई। रावण को पसीने आ गए। फिर भी अपने अहंकारवश नहीं माना। यह तो जान लिया कि यह कोई साधारण ऋषि नहीं है। रावण ने अभिमान वश कहा कि मैंने आप की एक भी बात नहीं सुननी, आप जा सकते हैं। परमेश्वर अंतध्र्यान हो गए तथा मंदोदरी को सर्व वृतान्त सुनाकर प्रस्थान किया। रानी मंदोदरी ने कहा गुरुदेव अब मुझे विधवा होने में कोई कष्ट नहीं होगा।

श्री रामचन्द्र व रावण का युद्ध हुआ। रावण का वध हुआ। जिस लंका के राज्य को रावण ने तमोगुण भगवान शिव की कठिन साधना करके, दस बार शीश न्यौछावर करके प्राप्त किया था। वह क्षणिक सुख भी रावण का चला गया तथा नरक का भागी हुआ। इसके विपरीत पूर्ण परमात्मा के सतनाम साधक विभीषण को बिना कठिन साधना किए पूर्ण प्रभु की सत्य साधना व कृपा से लंकादेश का राज्य भी प्राप्त हुआ। हजारों वर्षों तक विभीषण ने लंका का राज्य का सुख भोगा तथा प्रभु कृपा से राज्य में पूर्ण शान्ति रही। सभी राक्षस वृति के व्यक्ति विनाश को प्राप्त हो चुके थे। भक्तमति मंदोदरी तथा भक्त विभीषण तथा परम भक्त चन्द्रविजय जी के परिवार के पूरे सोलह सदस्य तथा अन्य जिन्होंने पूर्ण परमेश्वर का उपदेश प्राप्त करके आजीवन मर्यादावत् सतभक्ति की वे सर्व साधक यहाँ पृथ्वी पर भी सुखी रहे तथा अन्त समय में परमेश्वर के विमान में बैठ कर सतलोक (शाश्वतम् स्थानम्) में चले गए। इसीलिए पवित्र गीता अध्याय 7 मंत्र 12 से 15 में कहा है कि तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव जी) की साधना से मिलने वाली क्षणिक सुविधाओं के द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, वे राक्षस स्वभाव वाले, मनुष्यों में नीच, दुष्कर्म करने वाले मूर्ख मुझ (काल-ब्रह्म) को भी नहीं भजते।

फिर गीता अध्याय 7 मंत्र 18 में गीता बोलने वाला (काल-ब्रह्म) प्रभु कह रहा है कि कोई एक उदार आत्मा मेरी (ब्रह्म की) ही साधना करता है क्योंकि उनको तत्त्वदर्शी संत नहंी मिला। वे भी नेक आत्माऐं मेरी (अनुत्तमाम्) अति अश्रेष्ठ (गतिम्) गति में आश्रित रह गए। वे भी पूर्ण मुक्त नहीं हैं। इसलिए पवित्र गीता अध्याय 18 मंत्र 62 में कहा है कि हे अर्जुन तू सर्व भाव से उस परमेश्वर (पूर्ण परमात्मा अर्थात् तत् ब्रह्म) की शरण में जा। उसकी कृपा से ही तू परम शान्ति तथा सतलोक अर्थात् सनातन परम धाम को प्राप्त होगा।

इसलिए पुण्यात्माओं से निवेदन है कि आज इस दासन् के भी दास (रामपाल दास) के पास पूर्ण परमात्मा प्राप्ति की वास्तविक विधि प्राप्त है। निःशुल्क उपदेश लेकर लाभ उठाऐं।

प्रश्नः- धर्मदास जी ने प्रश्न किया हे प्रभु कुछ श्रद्धालु श्री हनुमान जी की पूजा करते हैं। यह शास्त्रविरूद्ध है या अनुकूल।

उत्तरः- कबीर देव ने कहा हे धर्मदास! अर्जुन को काल ब्रह्म ने श्रीमदभगवत् गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में कहा है कि हे अर्जुन! जो व्यक्ति शास्त्रविधि को त्याग कर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण (पूजा) करता है। वह न सिद्धि को प्राप्त होता है न परमगति को न सुख को ही (गीता अ16/मं.23) इस से तेरे लिए कर्तव्य अर्थात् करने योग्य भक्ति कर्म तथा अकत्र्तव्य अर्थात् न करने योग्य जो त्यागने योग्य कर्म हैं उनकी व्यवस्था में शास्त्र में लिखा उल्लेख ही प्रमाण है। ऐसा जानकर तू शास्त्रविधि से नियत भक्ति कर्म अर्थात् साधना ही करने योग्य है। (गीता अ.16/ श्लोक 24) हे धर्मदास जी! गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 व 20 से 23 तथा गीता अध्याय 9 श्लोक 20 से 23 तथा 25 में गीता ज्ञान दाता काल ब्रह्म ने तीनों देवताओं (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव) की पूजा करना भी व्यर्थ कहा है, भूतों की पूजा, पितरों की पूजा व अन्य सर्व देवताओं की पूजा को भी अविधिपूर्वक (शास्त्रविधि विरूद्ध) बताया है। हनुमान तो रामभक्त थे। वे स्वयं भी भक्ति करते थे तथा अन्य को भी राम की भक्ति करने को ही कहते थे। यदि कोई भक्त दूसरे भक्त की पूजा करता है। वह शास्त्रविधि विरूद्ध होने से व्यर्थ है। त्रेता युग में मैंने हनुमान को भी शरण में लिया था।

‘‘पूर्ण परमात्मा कबीर जी का द्वापर युग में प्रकट होना’’

प्रश्नः- हे परमेश्वर! अपने दास धर्मदास पर कृपा करके द्वापर युग में प्रकट होने की कथा सुनाऐं जिस से तत्त्वज्ञान प्राप्त हो?

उत्तरः- कबीर परमेश्वर (कबिर्देव) ने कहा हे धर्मदास! द्वापर युग में भी मैं रामनगर नामक नगरी में एक सरोवर में कमल के फूल पर शिशु रूप में प्रकट हुआ। एक निःसन्तान वाल्मिकी (कालू तथा गोदावरी) दम्पति अपने घर ले गया। एक ऋषि से मेरा नामकरण करवाया। उसने भगवान विष्णु की कृपा से प्राप्त होने के आधार से मेरा नाम करूणामय रखा। मैंने 25 दिन तक कोई आहार नहीं किया मेरी पालक माता अति दुःखी हुई। पिता जी भी कई साधु सन्तों के पास गए मेरे ऊपर झाड़-फूंक भी कराई। वे विष्णु के पुजारी थे। उनको अति दुःखी देखकर मैंने विष्णु को प्रेरणा दी। विष्णु भगवान एक ऋषि रूप में वहाँ आए तथा पिता कालू से कुशल मंगल पूछा। पिता कालू तथा माता गोदावरी (कलयुग में सम्मन तथा नेकी रूप में दिल्ली में जन्में थे) ने अपना दुःख ऋषि जी को बताया कि हमें वृद्ध अवस्था में एक पुत्र रत्न भगवान विष्णु की कृपा से सरोवर में कमल के फूल पर प्राप्त हुआ है। यह बच्चा 25 दिन से भूखा है कुछ भी नहीं खाया है। अब इसका अन्त निकट है। परमात्मा विष्णु ने हमें अपार खुशी प्रदान की है। अब उसे छीन रहे हैं। हम प्रार्थना करते हैं कि हे विष्णु भगवान यह खिलौना दे कर मत छीनों। हम अपराधियों से ऐसा क्या अपराध हो गया? इस बच्चे में हमारा इतना मोह हो गया है कि यदि इसकी मृत्यु हो गई तो हम दोनों उसी सरोवर में डूब कर मरेंगे जहाँ पर यह बालक रत्न हमें मिला था।

हे धर्मदास! ऋषि रूप में उपस्थित विष्णु भगवान ने मेरी ओर देखा। मैं पालने में झूल रहा था। मेरे अति स्वस्थ शरीर को देखकर विष्णु भगवान आश्चर्य चकित हुए तथा बोले हे कालू भक्त! यह बच्चा तो पूर्ण रूप से स्वस्थ है। आप कह रहे हो यह कुछ भी आहार नहीं करता। यह बालक तो ऐसा स्वस्थ है जैसे एक सेर दूध प्रतिदिन पीता हो। यह नहीं मरने वाला। इतना कह कर विष्णु मेरे पास आया। मैंने विष्णु से बात की तथा कहा हे विष्णु भगवान! आप मेरे माता पिता से कहो एक कुँवारी गाय लाऐं उस गाय को आप आशीर्वाद देना व कंवारी गाय दूध देने लगेगी उस गाय का दूध मैं पीऊंगा। मेरे द्वारा अपना परिचय जान कर विष्णु भगवान समझ गए यह कोई सिद्ध आत्मा है जिसने मुझे पहचान लिया है। मुझे ऋषि के साथ बातें करते हुए मेरे पालक माता-पिता हैरान रह गए। अन्दर ही अन्दर खुशी की लहर दौड़ गई। ऋषि ने कहा कालू एक कुंवारी गाय लाओ। वह दूध देगी उस दूध को यह होनहार बच्चा पीएगा। कालू पिता तुरन्त एक गाय ले आया। भगवान विष्णु ने मेरी प्रार्थना पर उस कुंवारी गाय की कमर पर हाथ रख दिया। उसी समय उस गाय की बछिया के थनों से दूध की धार बहने लगी तथा वह तीन सेर का पात्र भरने के पश्चात् रूक गई। वह दूध मैंने पीया।

मेरी तथा विष्णु जी की वार्ता की भाषा को कालू व गोदावरी समझ नही सके। वे मुझ पच्चीस दिन के बालक को बोलते देखकर उस ऋषि रूप विष्णु का ही चमत्कार मान रहे थे तथा कुंवारी गाय द्वारा दूध देना भी उस ऋषि की कृपा जानकर दोनों ऋषि के चरणों में लिपट गए। मेरी पालक माता ने मुझे पालने से उठाया तथा उस ऋषि रूप में विराजमान विष्णु के चरणों में डाला। मैं जमीन पर नहीं गिरा। माता के हाथों से निकल कर जमीन से चार फुट ऊपर हवा में पालने की तरह स्थित हो गया। जब गोदावरी ने मुझे ऋषि के चरणों की ओर किया भगवान विष्णु तीन कदम पीछे हट गए तथा बोले माई! यह बालक परम शक्ति युक्त है, बड़ा होकर जनता का उपकार करेगा। इतना कह कर ऋषि रूप धारी विष्णु अपने लोक को चल दिए। मैं पुनः पालने में विराजमान हो गया।

उस वाल्मीकि दम्पति (कालू तथा गोदावरी) ने मेरा हवा में स्थित होना भी ऋषि का ही करिश्मा जाना इस कारण से मुझे कोई अवतारी पुरूष नहीं समझ सके मैं भी यही चाहता था, कि ये मुझे एक साधारण बालक ही समझंे जिससे इनकी वृद्ध अवस्था का समय मेरे लालन पालन में बीत जाए। मैं शिशु काल में ही तत्त्वज्ञान की वाणी उच्चारण करने लगा। उस नगरी में अकाल गिर गया। मेरे माता पिता मुझे लेकर बनारस (काशी) आए तथा वहाँ रहने लगे। कलयुग में कालू का जन्म सम्मन रूप में तथा गोदावरी का जन्म नेकी रूप में दिल्ली में हुआ जो कबीर जी की शरण में आए। उनका एक पुत्र सेऊ (शिव) भी परमात्मा की शरण में आया था।

काशी नगर में एक सुदर्शन नाम का वाल्मिीकि जाति का पुण्यात्मा मेरी वाणी सुनकर बहुत प्रभावित हुआ। मैंने सुदर्शन भक्त को सृष्टि रचना सुनाई। सुदर्शन मेरी हम उमर था। उस समय मेरी लीलामय आयु 12 वर्ष थी। जब काशी के विद्वानों से ज्ञान चर्चा होती थी, सुदर्शन भी मेरे साथ जाता था। एक दिन सुदर्शन ने कहा हे करूणामय! आप जो ज्ञान सुनाते हो इसका समर्थन कोई भी ऋषि नहीं करता। आप के ज्ञान पर कैसे विश्वास हो? हे करूणामय! आप ऐसी कृपा करो जिससे मेरा भ्रम दूर हो जाए। हे धर्मदास मैंने उस प्यासी आत्मा सुदर्शन को सत्यलोक के दर्शन कराए आप की तरह उसको भी तीन दिन तक ऊपर के सर्व लोकों में ले गया। सुदर्शन का पंच भौतिक शरीर अचेत हो गया। सुदर्शन भी अपने माता-पिता का इकलौता पुत्र था। अपने इकलौते पुत्र को मृत तुल्य देखकर उसके माता-पिता विलाप करने लगे तथा हमारे घर आकर मेरे मात-पिता से झगड़ा करने लगे। कहा कि तुम्हारे करूण ने हमारे बच्चे को जादू-जन्त्रा कर दिया। वह सेवड़ा है। हमारा पुत्र मर गया तो हम आप के विरूद्ध राजा को शिकायत करेगें। मेरे माता-पिता ने मेरे से उन्ही के सामने पूछा हे करूण ! सच बता तूने क्या कर दिया उस सुदर्शन को। मैंने कहा वह सतलोक देखना चाहता था। इसलिए उसे सतलोक दर्शन के लिए भेजा है। शीघ्र ही लौट आएगा। कई वैद्य बुलाएं कई झाड़-फूँक करने वाले बुलाए कोई लाभ नहीं हुआ। तीसरे दिन सुदर्शन के मात-पिता रोते हुए मेरे पास आए बोले बेटा करूण! हमारे पुत्र को ठीक कर दे हम तेरे आगे हाथ जोड़ते हैं। मैंने कहा माई तुम्हारा पुत्र नहीं मरेगा।

मेरे (परमेश्वर कबीर साहेब) को अपने साथ अपने घर ले गए। मेरे माता-पिता भी साथ गए आस-पास के व्यक्ति भी वहाँ उपस्थित थे। मैंने सुदर्शन के शीश को पकड़ कर हिलाया तथा कहा हे सुदर्शन! वापिस आ जा तेरे माता-पिता बहुत व्याकुल हैं। इतना कहते ही सुदर्शन ने आँखें खोली चारों ओर देखा, अपने सिर की ओर मुझे नहीं देख सका। उठ-बैठकर बोला परमेश्वर करूणामय कहाँ हैं? रोने लगा-कहाँ गए परमेश्वर करूणामय। उपस्थित व्यक्तियों ने पूछा, क्या करूण को ढूँढ़ रहा है? देख यह बैठा तेरे पीछे। मुझे देखते ही चरणों में शीश रख कर विलाप करने लगा तथा रोता हुआ बोला हे काशी के रहने वालों। यह पूर्ण परमात्मा है। यह सर्व सृष्टि रचनहार अपने शहर में विराजमान है। आप इसे नहीं पहचान सके। यह मेरे साथ ऊपर के लोक में गया। ऊपर के लोक में यह पूर्ण परमात्मा के रूप में एक सफेद गुबन्द में विराजमान है। यही दोनों रूपों में लीला कर रहा है। सर्व व्यक्ति कहने लगे इस कालू के पुत्र ने भीखू के पुत्र पर जादू जन्त्रा किया है। जिस कारण से इसका दिमाग चल गया है। इस करूण को ही परमात्मा कह रहा है। भला हो भगवान का भीखू का बेटा जीवित हो गया नहीं तो बेचारों का कोई और बूढ़ापे का सहारा भी नहीं था। यह कह कर सर्व अपने-2 घर चले गए।

भीखू तथा उसकी पत्नी सुखी (सुखवन्ती) अपने पुत्र को जीवित देखकर अति प्रसन्न हुए भगवान विष्णु का प्रसाद बनाया पूरे मौहल्ले (काॅलोनी) में प्रसाद बांटा। सुदर्शन ने मुझसे उपदेश लिया। अपने माता-पिता भीखू तथा सुखी को भी मेरे से उपदेश लेने को कहा। दोनों ने बहुत विरोध किया तथा कहा यह कालू का पुत्र पूर्ण परमात्मा नहीं है बेटा! इसने तेरे ऊपर जादू-जन्त्रा करके मूर्ख बनाया हुआ है। भगवान विष्णु से बड़ा कोई नहीं है। सुदर्शन ने मुझ से कहा हे प्रभु! कृप्या मुझे अपनी शरण में रखना। मेरे माता-पिता का कोई दोष नहीं है सर्व मानव समाज इसी ज्ञान पर अटका है। जिस पर आपकी कृपा होगी केवल वही आप को जान व मान सकता है। इस काल-ब्रह्म ने तो पूरे विश्व (ब्रह्मा-विष्णु-शिव सहित) को भ्रमित किया हुआ है। हे धर्मदास! सुदर्शन भक्त ने काल के जाल को समझ कर सच्चे मन से मेरी भक्ति की तथा मेरा साक्षी बना कि पूर्ण परमात्मा कोई अन्य है जो ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव से भिन्न तथा अधिक शक्तिशाली है। हे धर्मदास! पाण्डवों की अश्वमेघ यज्ञ को जिस सुदर्शन द्वारा सम्पूर्ण की गई आप सुनते हो यह वही सुदर्शन वाल्मिीकि मेरा शिष्य था। द्वापर युग में मैं 404 वर्ष तक करूणामय शरीर में लीला करता रहा तथा सशरीर सतलोक चला गया।

प्रश्नः- धर्मदास ने प्रश्न किया हे प्रभु आपकी कृपा द्वापर युग में और किस पुण्यात्मा पर हुई?

उत्तरः- कबीर परमेश्वर (कविर्देव) ने कहा द्वापर युग में एक चन्द्रविजय नामक राजा की रानी इन्द्रमती को पार किया तथा राजा चन्द्रविजय पर भी कृपा की। परमेश्वर कबीर जी द्वारा बताई ‘‘रानी इन्द्रमती को पार करने वाली कथा’’ लेखक ( संत रामपाल दास जी महाराज) के शब्दों में:-

”द्वापर युग में इन्द्रमती को शरण में लेना“

द्वापरयुग में चन्द्रविजय नाम का एक राजा था। उसकी पत्नी इन्द्रमती बहुत ही धार्मिक प्रवृति की औरत थी। संत-महात्माओं का बहुत आदर किया करती थी। उसने एक गुरुदेव भी बना रखा था। उनके गुरुदेव ने बताया था कि बेटी साधु-संतों की सेवा करनी चाहिए। संतों को भोजन खिलाने से बहुत लाभ होता है। एकादशी का व्रत, मन्त्रा के जाप आदि साधनायें जो गुरुदेव ने बताई थी। उस भगवत् भक्ति में रानी बहुत दृढ़ता से लगी हुई थी। गुरुदेव ने बताया था कि संतों को भोजन खिलाया करेगी तो तू आगे भी रानी बन जाएगी और तुझे स्वर्ग प्राप्ति होगी। रानी ने सोचा कि प्रतिदिन एक संत को भोजन अवश्य खिलाया करूँगी। उसने यह प्रतिज्ञा मन में ठान ली कि मैं खाना बाद में खाया करूँगी, पहले संत को खिलाया करूँगी। इससे मुझे याद बनी रहेगी, कहीं मुझे भूल न पड़ जाये। रानी प्रतिदिन पहले एक संत को भोजन खिलाती फिर स्वयं खाती। वर्षों तक ये क्रम चलता रहा।

एक समय हरिद्वार में कुम्भ के मेले का संयोग हुआ। जितने भी त्रिगुण माया के उपासक संत थे सभी गंगा में स्नान के लिए (प्रभी लेने के लिए) प्रस्थान कर गये। इस कारण से कई दिन रानी को भोजन कराने के लिए कोई संत नहीं मिला। रानी इन्द्रमती ने स्वयं भी भोजन नहीं किया। चैथे दिन अपनी बांदी से कहा कि बांदी देख ले कोई संत मिल जाए तो, नहीं तो आज तेरी मालकिन जीवित नहीं रहेगी। चाहे मेरे प्राण निकल जाएँ परन्तु मैं खाना नहीं खाऊँगी। वह दीन दयाल कबीर परमेश्वर अपने पूर्व वाले भक्त को शरण में लेने के लिए न जाने क्या कारण बना देता है ? बांदी ने ऊपर अटारी पर चढ़कर देखा कि सामने से सफेद कपड़े पहने एक संत आ रहा था। द्वापर युग में परमेश्वर कबीर करूणामय नाम से आये थे। बांदी नीचे आई और रानी से कहा कि एक व्यक्ति है जो साधु जैसा नजर आता है। रानी ने कहा कि जल्दी से बुला ला। बांदी महल से बाहर गई तथा प्रार्थना की कि साहेब आपको हमारी रानी ने याद किया है। करूणामय साहेब ने कहा कि रानी ने मुझे क्यों याद किया है, मेरा और रानी का क्या सम्बन्ध? नौकरानी ने सारी बात बताई।

करूणामय (कबीर) साहेब ने कहा कि रानी को आवश्यकता पड़े तो यहाँ आ जाए, मैं यहाँ खड़ा हूँ। तू बांदी और वह रानी। मैं वहाँ जाऊँ और यदि वह कह दे कि तुझे किसने बुलाया था या उसका राजा ही कुछ कह दे बेटी संतों का अनादर बहुत पापदायक होता है। बांदी फिर वापिस आई और रानी से सब वार्ता कह सुनाई। तब रानी ने कहा कि बांदी मेरा हाथ पकड़ और चल। जाते ही रानी ने दण्डवत् प्रणाम करके प्रार्थना की कि हे परवरदिगार! चाहती तो ये हूँ कि आपको कंधे पर बैठा लूं। करूणामय साहेब ने कहा बेटी! मैं यही देखना चाहता था कि तेरे में कोई श्रद्धा भी है या वैसे ही भूखी मर रही है। रानी ने अपने हाथों खाना बनाया। करूणामय रूप में आए कविर्देव ने कहा कि मैं खाना नहीं खाता। मेरा शरीर खाना खाने का नहीं है। तो रानी ने कहा कि मैं भी खाना नहीं खाऊँगी। करूणामय साहेब जी ने कहा कि ठीक है बेटी लाओ खाना खाते हैं, क्योंकि समर्थ उसी को कहते हंै जो, जो चाहे, सो करे। करूणामय साहेब ने खाना खा लिया, फिर रानी से पूछा कि जो यह तू साधना कर रही है यह तेरे को किसने बताई है? रानी ने कहा कि मेरे गुरुदेव ने आदेश दिया है? कबीर साहेब ने पूछा क्या आदेश दिया है तेरे गुरुदेव ने? इन्द्रमती ने कहा कि विष्णु-महेश की पूजा, एकादशी का व्रत, तीर्थ भ्रमण, देवी पूजा, श्राद्ध निकालना, मन्दिर में जाना, संतों की सेवा करना। करूणामय (कबीर) साहेब ने कहा कि जो साधना तेरे गुरुदेव ने दी है तेरे को जन्म और मृत्यु तथा स्वर्ग-नरक व चैरासी लाख योनियों के कष्ट से मुक्ति प्रदान नहीं करा सकती। रानी ने कहा कि महाराज जी जितने भी संत हैं, अपनी-अपनी प्रभुता आप ही बनाने आते हैं। मेरे गुरुदेव के बारे में कुछ नहीं कहोगे। मैं चाहे मुक्त होऊँ या न होऊँ। करूणामय (कबीर) साहेब ने सोचा कि इस भोले जीव को कैसे समझाऐं? इन्होंने जो पंूछ पकड़ ली उसको छोड़ नहीं सकते, मर सकते हैं। करूणामय साहेब ने कहा कि बेटी वैसे तो तेरी इच्छा है, मैं निंदा नहीं कर रहा। क्या मैंने आपके गुरुदेव को गाली दी है या कोई बुरा कहा है? मैं तो भक्तिमार्ग बता रहा हूँ कि यह भक्ति शास्त्र विरूद्ध है। तुझे पार नहीं होने देगी और न ही तेरा कोई आने वाला कर्म दण्ड कटेगा और सुन ले आज से तीसरे दिन तेरी मृत्यु हो जाएगी। न तेरा गुरु बचा सकेगा और न तेरी यह नकली साधना बचा सकेगी। (जब मरने की बारी आती है फिर जीव को डर लगता है। वैसे तो नहीं मानता) रानी ने सोचा कि संत झूठ नहीं बोलते। कहीं ऐसा न हो कि मैं तीसरे दिन ही मर जाऊँ। इस डर से करूणामय साहेब से पूछा कि साहेब क्या मेरी जान बच सकती है? कबीर साहेब (करूणामय) ने कहा कि बच सकती है। अगर तू मेरे से उपदेश लेगी, मेरी शिष्या बनेगी, पिछली पूजाएँ त्यागेगी, तब तेरी जान बचेगी। इन्द्रमती ने कहा मैंने सुना है कि गुरुदेव नहीं बदलना चाहिए, पाप लगता है।

कबीर साहेब (करूणामय) ने कहा कि नहीं पुत्री यह भी तेरा भ्रम है। एक वैद्य (डाक्टर) से औषधि न लगे तो क्या दूसरे से नहीं लेते? एक पाँचवीं कक्षा का अध्यापक होता है। फिर एक उच्च कक्षा का अध्यापक होता है। बेटी अगली कक्षा में जाना होगा। क्या सारी उम्र पाँचवीं कक्षा में ही लगी रहेगी ? इसको छोड़ना पड़ेगा। तू अब आगे की पढ़ाई पढ़, मैं पढ़ाने आया हूँ। वैसे तो नहीं मानती परन्तु मृत्यु दिखने लगी कि संत कह रहा है तो कहीं बात न बिगड़ जाए। ऐसा विचार करके इन्द्रमती ने कहा कि जैसे आप कहोगे मैं वैसे ही करूँगी। करूणामय (कबीर) साहेब ने उपदेश दिया। कहा कि तीसरे दिन मेरे रूप में काल आयेगा, तू उससे बोलना मत। जो मैंने नाम दिया है दो मिनट तक इसका जाप करना। दो मिनट के बाद उसको देखना है। उसके बाद सत्कार करना है। वैसे तो गुरुदेव आए तो अति शीघ्र चरणों में गिर जाना चाहिए। ये मेरा केवल इस बार आदेश है। रानी ने कहा ठीक है जी।

रानी को तो चिंता बनी हुई थी। श्रद्धा से जाप कर रही थी। (कबीर साहेब) करूणामय साहेब का रूप बना कर गुरुदेव रूप में काल आया, आवाज लगाई इन्द्रमती, इन्द्रमती। उसको तो पहले ही डर था, स्मरण करती रही। काल की तरफ नहीं देखा। दो मिनट के बाद जब देखा तो काल का स्वरूप बदल गया। काल का ज्यों का त्यों चेहरा दिखाई देने लगा। करूणामय साहेब का स्वरूप नहीं रहा। जब काल ने देखा कि तेरा तो स्वरूप बदल गया। वह जान गया कि इसके पास कोई शक्ति युक्त मंत्र है। यह कहकर चला गया कि तुझे फिर देखूँगा। अब तो बच गई। रानी बहुत खुश हुई, फूली नहीं समाई। कभी अपनी बांदियों को कहने लगी कि मेरी मृत्यु होनी थी, मेरे गुरुदेव ने मुझे बचा दिया। राजा के पास गई तथा कहा कि आज मेरी मृत्यु होनी थी, मेरे गुरुदेव ने रक्षा कर दी। मुझे लेने के लिए काल आया था। राजा ने कहा कि तू ऐसे ही ड्रामें करती रहती है, काल आता तो क्या तुझे छोड़ जाता? ये संत वैसे बहका देते हैं। अब इस बात को वह कैसे माने? खुशी-खुशी में रानी लेट गई। कुछ देर के बाद सर्प बनकर काल फिर आया और रानी को डस लिया। ज्यों ही सर्प ने डसा रानी को पता चल गया। रानी जोर से चिल्लाई। मुझे साँप ने डंस लिया। नौकर भागे। देखते ही देखते एक मोरी (पानी निकलने का छोटा छिद्र) में से वह सर्प घर से बाहर निकल गया। अपने गुरुदेव को पुकार कर रानी बेहोश हो गई। करूणामय (कबीर) साहेब वहाँ प्रकट हो गए। लोगों को दिखाने के लिए मंत्र बोला और (वे तो बिना मंत्र भी जीवित कर सकते हैं, किसी जंत्र-मंत्र की आवश्यकता नहीं) इन्द्रमती को जीवित कर दिया। रानी ने बड़ा शुक्र मनाया कि हे बंदी छोड़ ! यदि आज आपकी शरण में नहीं होती तो मेरी मृत्यु हो जाती। साहेब ने कहा कि इन्द्रमती इस काल को मैं तेरे घर में घुसने भी नहीं देता और यह तेरे ऊपर यह हमला भी नहीं करता। परन्तु तुझे विश्वास नहीं होता। तू यह सोचती कि मेरे ऊपर कोई आपत्ति नहीं आनी थी। गुरुजी ने मुझे बहका कर नाम दे दिया। इसलिए तेरे को थोड़ा-सा झटका दिखाया है, नहीं तो बेटी तेरे को विश्वास नहीं होता।

धर्मदास यहाँ घना अंधेरा, बिन परचय (शक्ति प्रदर्शन) जीव जम का चेरा।।

कबीर साहेब (करूणामय) ने कहा कि अब जब मैं चाहूँगा, तब तेरी मृत्यु होगी। गरीबदास जी कहते हैं कि:-

गरीब, काल डरै करतार से, जय जय जय जगदीश। जौरा जौरी झाड़ती, पग रज डारे शीश।।

यह काल, कबीर परमेश्वर से डरता है और यह मौत कबीर साहेब के जूते झाड़ती है अर्थात् नौकर तुल्य है। फिर उस धूल को अपने सिर पर लगाती है कि आप जिसको मारने का आदेश दोगे उसके पास जाऊँगी, नहीं मैं नहीं जाऊँगी।

गरीब, काल जो पीसै पीसना, जौरा है पनिहार । ये दो असल मजूर हैं, मेरे साहेब के दरबार।।

यह काल जो यहाँ का 21 ब्रह्मण्ड का भगवान (ब्रह्म) है जो ब्रह्मा, विष्णु, महेश का पिता है। ये तो मेरे कबीर साहेब का आटा पीसता है अर्थात पक्का नौकर है और जौरा (मौत) मेरे कबीर साहेब का पानी भरती है अर्थात् एक विशेष नौकरानी है। यह दो असल मजूर मेरे साहेब के दरबार में हंै।

कुछ दिनों के बाद करूणामय (कबीर जी) साहेब फिर आए। रानी इन्द्रमती को सतनाम प्रदान किया। फिर कुछ समय के उपरान्त करूणामय साहेब ने रानी इन्द्रमती की अति श्रद्धा देखकर सारनाम दिया। परम पद की उपलब्धि करवाई। परमेश्वर करूणामय रूप से रानी के घर दर्शन देने जाते रहते थे तो इन्द्रमती प्रार्थना किया करती थी कि मेरे पति राजा को समझाओ मालिक, यह भी मान जाये। आपके चरणों में आ जाये तो मेरा जीवन सफल हो जाये। चन्द्रविजय से कबीर साहेब ने प्रार्थना की कि चन्द्रविजय आप भी नाम लो, यह दो दिन का राज और ठाठ है। फिर चैरासी लाख योनियों में प्राणी चला जाएगा। चन्द्रविजय ने कहा कि भगवन मैं तो नाम लूं नहीं और आपकी शिष्या को मना करूँ नहीं, चाहे सारे खजाने को ही दान करो, चाहे किसी प्रकार का सत्संग करवाओ, मैं मना नहीं करूँगा। कबीर साहेब (करूणामय) ने पूछा आप नाम क्यों नहीं लोगे? चन्द्रविजय राजा ने कहा कि मैंने तो बड़े-बड़े राजाओं की पार्टियों में जाना पड़ता है। करूणामय (कबीर साहेब) ने कहा कि पार्टियों में जाने में नाम क्या बाधा करेगा? सभा में जाओ, वहाँ काजू खाओ, दूध पी लो, शरबत (जूस) पी लो, शराब मत प्रयोग करो। शराब पीना महापाप है। परन्तु राजा नहीं माना।

रानी की प्रार्थना पर करूणामय (कबीर) साहेब ने राजा को फिर समझाया कि नाम के बिना ये जीवन ऐसे ही व्यर्थ हो जायेगा। आप नाम ले लो। राजा ने फिर कहा कि गुरू जी मुझे नाम के लिए मत कहना। आपकी शिष्या को मैं मना नहीं करूँगा। चाहे कितना दान करे, कितना सत्संग करवाए। साहेब ने कहा कि बेटी इस दो दिन के झूठे सुख को देखकर इसकी बुद्धि भ्रष्ट हो चुकी है। तू प्रभु के चरणों में लगी रह। अपना आत्मकल्याण करवा। मृत्यु के उपरान्त कोई किसी का पति नहीं, कोई किसी की पत्नी नहीं। दो दिन का सम्बन्ध है। अपना कर्म बना बेटी। जब इन्द्रमती 80 वर्ष की वृद्धा हुई (कहाँ 40 साल की उम्र में मर जाना था)। जब शरीर भी हिलने लगा, तब करूणामय साहेब बोले अब बोल इन्द्रमती क्या चाहती है? चलना चाहती है सतलोक? इन्द्रमती ने कहा कि प्रभु तैयार हूँ, बिल्कुल तैयार हूँ दाता! करूणामय साहेब ने कहा कि तेरी पोते या पोती या किसी अन्य सदस्य में कोई ममता तो नहीं है? रानी ने कहा बिल्कुल नहीं साहेब। आपने ज्ञान ही ऐसा निर्मल दे दिया। इस गंदे लोक की क्या इच्छा करूँ ? कबीर साहेब (करूणामय) जी ने कहा कि चल बेटी। रानी प्राण त्याग गई।

परमेश्वर कबीर जी (करूणामय) रानी इन्द्रमती की आत्मा को ऊपर ले गए। इसी ब्रह्मण्ड में एक मानसरोवर है। उस मान सरोवर में इस आत्मा को स्नान कराना होता है। इन्द्रमती को वहाँ पर कुछ समय तक रखा। करूणामय रूप में कबीर परमेश्वर जी ने रानी से पूछा की तेरी कुछ इच्छा तो नहीं यदि इच्छा रही तो दुबारा जन्म लेना पड़ेगा। यदि मन में सन्तान व सम्पत्ति या पति, पत्नी आदि की इच्छा थोड़ी सी भी रह गई तो आत्मा सतलोक नहीं जा सकती। इन्द्रमती ने कहा साहेब आप तो अंतर्यामी हो, कोई इच्छा नहीं है। आपके चरणों की इच्छा है। लेकिन एक मन में शंका बनी हुई है कि मेरा जो पति था, उसने मुझे किसी भी धार्मिक कर्म के लिए कभी मना नहीं किया। नहीं तो आजकल के पति अपनी पत्नियों को बाधा कर देते हैं। यदि वह मुझे मना कर देता तो मंै आपके चरणों में नहीं लग पाती। मेरा कल्याण नहीं होता। उसका इस शुभ कर्म में सहयोग का कुछ लाभ मिलता हो तो कभी उस पर भी दया करना दाता। करूणामय जी ने देखा कि यह नादान इसके पीछे फिर अटक गई। साहेब बोले ठीक है बेटी, अभी तू दो चार वर्ष यहाँ रह।

अब दो वर्ष के बाद राजा भी मरने लगा। क्योंकि नाम ले नहीं रखा था। यम के दूत आए। राजा चैक में चक्कर खाकर गिर गया। यम के दूतों ने उसकी गर्दन को दबाया। राजा की टट्टी और पेशाब निकल गया। करूणायम (कबीर) परमेश्वर ने रानी को कहा कि देख तेरे राजा की क्या हालत हो रही है? वहाँ से कबीर परमेश्वर दिखा रहे हैं। तब रानी ने कहा कि देख लो दाता यदि उसका भक्ति में सहयोग का कोई फल बनता हो तो दया कर लो। रानी को फिर भी थोड़ी-सी ममता बनी थी। परमेश्वर कबीर (करूणामय) ने सोचा की यह फिर काल जाल में फँसेगी। यह सोचकर मानसरोवर से वहाँ गए जहाँ राजा चन्द्रविजय अपने महल में अचेत पड़ा था। यमदूत उसके प्राण निकाल रहे थे। कबीर परमेश्वर जी के आते ही यमदूत ऐसे आकाश में उड़ गए जैसे मुर्दे से गिद्ध उड़ जाते हैं। चन्द्रविजय होश में आ गया। सामने करूणामय रूप में परमेश्वर कबीर जी खड़े थे। केवल चन्द्रविजय को दिखाई दे रहे थे, किसी अन्य को दिखाई नहीं दे रहे थे। चन्द्रविजय चरणों में गिर कर याचना करने लगा मुझे क्षमा कर दो दाता, मेरी जान बचाओ। क्योंकि उसने देखा कि तेरी जान जाने वाली है। (जब इस जीव की आँख खुलती है कि अब तो बात बिगड़ गई) राजा चन्द्र विजय गिड़गिड़ाता हुआ बोला मुझे क्षमा कर दो दाता, मेरी जान बचा लो मालिक। कबीर परमेश्वर ने कहा राजा आज भी वही बात है, उस दिन भी वही बात थी, नाम लेना होगा। राजा ने कहा मैं नाम ले लूँगा जी, अभी ले लूँगा नाम। कबीर परमेश्वर ने नाम उपदेश दिया तथा कहा कि अब मैं तुझे दो वर्ष की आयु दूँगा, यदि इसमें एक स्वांस भी खाली चला गया तो फिर कर्मदण्ड रह जाएगा।

कबीर, जीवन तो थोड़ा भला, जै सत सुमरण हो। लाख वर्ष का जीवना, लेखे धरे ना को।।

शुभ कर्म में सहयोग दिया हुआ पिछला कर्म और साथ में श्रद्धा से दो वर्ष के स्मरण से तथा तीनों नाम प्रदान करके कबीर साहेब चन्द्रविजय को भी पार कर ले गये। बोलो सतगुरु देव की जय ‘‘जय बन्दी छोड़।‘‘

प्रश्नः- धर्मदास जी ने कहा हे कबीर परमेश्वर! हमारे को तो ब्राह्मणों (विद्वानों) ने यही बताया था कि पाण्डवों की अश्वमेघ यज्ञ को श्री कृष्ण भक्त सुदर्शन सुपच ने सफल की थी तथा भगवान कृष्ण जी ने गीता में कहा है कि अर्जुन! युद्ध कर तुझे कोई पाप नहीं लगेगा। ये सर्व योद्धा मेरे द्वारा पहले से मार दिए गए हैं। तू निमित्त मात्र बन जा। यदि तू युद्ध में मारा गया तो स्वर्ग जाएगा, यदि युद्ध में जीत गया तो पृथ्वी के राज्य का सुख भोगेगा।

उत्तरः- कबीर परमेश्वर ने कहा धर्मदास! सुदर्शन सुपच श्री कृष्ण भक्त नहीं था वह पूर्ण ब्रह्म का उपासक था। सुन पाण्डवों के यज्ञ के सम्पूर्ण होने की कथा। कृप्या निम्न पढ़ें पाठक जन परमेश्वर कबीर जी द्वारा बताया पाण्डव यज्ञ का प्रकरण जो धर्मदास जी ने स्वसम वेद के पद्य भाग में लिखा है (लेखक के शब्दों में निम्नः-)

।। पाण्डवों की यज्ञ में सुपच सुदर्शन द्वारा शंख बजाना।।

जैसा कि सर्व विदित है कि महाभारत के युद्ध में अर्जुन ने युद्ध करने से मना कर दिया था तथा शस्त्र त्याग कर युद्ध के मैदान में दोनों सेनाओं के बीच में खड़े रथ के पिछले हिस्से में आंखों से आँसू बहाता हुआ बैठ गया था। तब भगवान कृष्ण के अन्दर प्रवेश काल शक्ति (ब्रह्म) अर्जुन को युद्ध करने की राय देने लगा था। तब अर्जुन ने कहा था कि भगवान यह घोर पाप मैं नहीं करूंगा। इससे अच्छा तो भिक्षा का अन्न भी खा कर गुजारा कर लेंगे। तब भगवान काल श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश करके बोला था कि अर्जुन युद्ध कर। तुझे कोई पाप नहीं लगेगा। देखें गीता जी के अध्याय 11 के श्लोक 33, अध्याय 2 के श्लोक 37, 38 में।

महाभारत में लेख (प्रकरण) आता है कि कृष्ण जी के कहने से अर्जुन ने युद्ध करना स्वीकार कर लिया। घमासान युद्ध हुआ। करोड़ों व्यक्ति व सर्व कौरव युद्ध में मारे गए और पाण्डव विजयी हुए। तब पाण्डव प्रमुख युधिष्ठिर को राज्य सिंहासन पर बैठाने के लिए स्वयं भगवान कृष्ण ने कहा तो युिधष्ठिर ने यह कहते हुए गद्दी पर बैठने से मना कर दिया कि मैं ऐसे पाप युक्त राज्य को नहीं करूंगा। जिसमें करोड़ों व्यक्ति मारे गए थे। उनकी पत्नियाँ विधवा हो गई, करोड़ों बच्चे अनाथ हो गए, अभी तक उनके आँसू भी नहीं सूखे हैं। किसी प्रकार भी बात बनती न देख कर श्री कृष्ण जी ने कहा कि आप भीष्म जी से राय लो। क्योंकि जब व्यक्ति स्वयं फैसला लेने में असफल रहे तब किसी स्वजन से विचार कर लेना चाहिए। युधिष्ठिर ने यह बात स्वीकार कर ली। तब श्री कृष्ण जी युधिष्ठिर को साथ ले कर वहाँ पहुँचे जहाँ पर श्री भीष्म शर (तीरों की) शैय्या (चारपाई) पर अंतिम स्वांस गिन रहे थे, वहाँ जा कर श्री कृष्ण जी ने भीष्म से कहा कि युधिष्ठिर राज्य गद्दी पर बैठने से मना कर रहे हैं। कृपा आप इन्हें राजनीति की शिक्षा दें।

भीष्म जी ने बहुत समझाया परंतु युधिष्ठिर अपने उद्देश्य से विचलित नहीं हुआ। यही कहता रहा कि इस पाप से युक्त रूधिर से सने राज्य को भोग कर मैं नरक प्राप्ति नहीं चाहूँगा। श्री कृष्ण जी ने कहा कि आप एक धर्म यज्ञ करो। जिससे आपको युद्ध में हुई हत्याओं का पाप नहीं लगेगा। इस बात पर युधिष्ठिर सहमत हो गया और एक धर्म यज्ञ की। फिर राज गद्दी पर बैठ गया। हस्तिनापुर का राजा बन गया।

प्रमाण सुखसागर के पहले स्कन्ध के आठवें तथा नौवें अध्याय से सहाभार पृष्ठ नं. 48 से 53 ) कुछ वर्षों पर्यन्त युधिष्ठिर को भयानक स्वपन आने शुरु हो गए। जैसे बहुत सी औरतें रोती-बिलखती हुई अपनी चूड़ियाँ तोड़ रहीं हैं तथा उनके मासूम बच्चे अपनी माँ के पास खड़े कुछ बैठे पिता-पिता कह कर रो रहे हैं मानों कह रहे हो हे राजन्! हमें भी मरवा दे, भेज दे हमारे पिता के पास। कई बार बिना शीश के धड़ दिखाई देते है। किसी की गर्दन कहीं पड़ी है, धड़ कहीं पड़ा है, हा-हा कार मची हुई है। युधिष्ठिर की नींद उचट जाती, घबरा कर बिस्तर पर बैठ कर हाँफने लग जाता। सारी-2 रात बैठ कर या महल में घूम कर व्यतीत करता है। एक दिन द्रौपदी ने बड़े पति की यह दशा देखी परेशानी का कारण पूछा तो युधिष्ठिर कुछ नहीं- कुछ नहीं कह कर टाल गए। जब द्रौपदी ने कई रात्रियों में युधिष्ठिर की यह दुर्दशा देखी तो एक दिन चारों (अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव) को बताया कि आपका बड़ा भाई बहुत परेशान है। कारण पूछो। तब चारों भाईयों ने बड़े भईया से प्रार्थना करके पूछा कि कृप्या परेशानी का कारण बताओ। ज्यादा आग्रह करने पर अपनी सर्व कहानी सुनाई। पाँचों भाई इस परेशानी का कारण जानने के लिए भगवान श्रीकृष्णजी के पास गए तथा बताया कि बड़े भईया युधिष्ठिर जी को भयानक स्वपन आ रहे हैं। जिनके कारण उनकी रात्रि की नींद व दिन का चैन व भूख समाप्त हो गई। कृप्या कारण व समाधान बताएँ। सारी बात सुनकर श्री कृष्ण जी बोले युद्ध में किए हुए पाप परेशान कर रहे हैं। इन पापों का निवारण यज्ञ से होता है।

गीता जी के अध्याय 3 के श्लोक 13 का हिन्दी अनुवाद: यज्ञ में प्रतिष्ठित ईष्ट (पूर्ण परमात्मा) को भोग लगाने के बाद बने प्रसाद को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं जो पापी लोग अपना शरीर पोषण करने के लिये ही अन्न पकाते हैं वे तो पाप को ही खाते हैं अर्थात् यज्ञ करके सर्व पापों से मुक्त हो जाते हैं। और कोई चारा न देख कर पाण्डवों ने श्री कृष्ण जी की सलाह स्वीकार कर ली। यज्ञ की तैयारी की गई। सर्व पृथ्वी के मानव, ऋषि, सिद्ध, साधु व स्वर्ग लोक के देव भी आमन्त्रित करने को, श्री कृष्ण जी ने कहा कि जितने अधिक व्यक्ति भोजन पाएंगें उतना ही अधिक पुण्य होगा। परंतु संतों व भक्तों से विशेष लाभ होता है उनमें भी कोई परम शक्ति युक्त संत होगा वह पूर्ण लाभ दे सकता है तथा यज्ञ पूर्ण होने का साक्षी एक पांच मुख वाला (पंचजन्य) शंख एक सुसज्जित ऊँचे आसन पर रख दिया जाएगा तथा जब इस यज्ञ में कोई परम शक्ति युक्त संत भोजन खाएगा तो यह शंख स्वयं आवाज करेगा। इतनी गूँज होगी की पूरी पृथ्वी पर तथा स्वर्ग लोक तक आवाज सुनाई देगी।

यज्ञ की तैयारी हुई। निश्चित दिन को सर्व आदरणीय आमन्त्रिात भक्तगण, अठासी हजार ऋषि, तेतीस करोड़ देवता, नौ नाथ, चैरासी सिद्ध, ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि पहुँच गए। यज्ञ कार्य शुरु हुआ। बाद में सब ने यज्ञ का बचा प्रसाद (भण्डारा) सर्व उपस्थित महानुभावों व भक्तों तथा जनसाधारण को बरताया (खिलाया)। स्वयं भगवान कृष्ण जी ने भी भोजन खा लिया। परंतु शंख नहीं बजा। शंख नहीं बजा तो यज्ञ सम्पूर्ण नहीं हुई। उस समय युधिष्ठिर ने श्री कृष्ण जी से पूछा - हे मधुसूदन! शंख नहीं बजा। सर्व महापुरुषों व आगन्तुकों ने भोजन पा लिया। कारण क्या है? श्री कृष्ण जी ने कहा कि इनमें कोई पूर्ण सन्त (सतनाम व सारनाम उपासक) नहीं है। तब युधिष्ठिर को बड़ा आश्चर्य हुआ कि इतने महा मण्डलेश्वर जिसमें वशिष्ठ मुनि, मार्कण्डेय, लोमष ऋषि, नौ नाथ (गोरखनाथ जैसे), चैरासी सिद्ध आदि-2 व स्वयं भगवान श्री कृष्ण जी ने भी भोजन खा लिया। परंतु शंख नहीं बजा। इस पर कृष्ण जी ने कहा ये सर्व मान बड़ाई के भूखे हैं। परमात्मा चाहने वाला कोई नहीं तथा अपनी मनमुखी साधना करके सिद्धि दिखा कर दुनियाँ को आकर्षित करते हैं। भोले लोग इनकी वाह-2 करते हैं तथा इनके इर्द-गिर्द मण्डराते हैं। ये स्वयं भी पशु जूनी में जाएंगे तथा अपने अनुयाईयों को नरक ले जाएंगे।

गरीब, साहिब के दरबार में, गाहक कोटि अनन्त। चार चीज चाहै हैं, रिद्धि सिद्धि मान महंत।।
गरीब, ब्रह्म रन्द्र के घाट को, खोलत है कोई एक। द्वारे से फिर जाते हैं, ऐसे बहुत अनेक।।
गरीब, बीजक की बातां कहैं, बीजक नाहीं हाथ। पृथ्वी डोबन उतरे, कह-कह मीठी बात।।
गरीब, बीजक की बातां कहैं, बीजक नाहीं पास। ओरों को प्रमोदही, अपन चले निरास।।

।।प्रमाण के लिए गीता जी के कुछ श्लोक।।

अध्याय 9 का श्लोक 20

त्रैविद्याः, माम्, सोमपाः, पूतपापाः, पूतपापाः, यज्ञैः, इष्टवा, स्वर्गतिम्, प्रार्थयन्ते,
ते, पुण्यम्, आसाद्य, सुरेन्द्रलोकम्, अश्नन्ति, दिव्यान्, दिवि, देवभोगान्।।20।।

अनुवाद: (त्रैविद्याः) तीनों वेदों में विधान (सोमपाः) सोमरस को पीने वाले (पूतपापाः) पाप रहित पुरुष (माम्) मुझको (यज्ञैः) यज्ञोंके द्वारा (इष्टवा) पूज्य देव के रूप में पूज कर (स्वर्गतिम्) स्वर्ग की प्राप्ति (प्रार्थयन्ते) चाहते हैं (ते) वे पुरुष (पुण्यम्) अपने पुण्यों के फलरूप (सुरेन्द्रलोकम्) स्वर्ग लोक को (आसाद्य) प्राप्त होकर (दिवि) स्वर्ग में (दिव्यान्) दिव्य (देवभोगान्) देवताओं के भोगों को (अश्नन्ति) भोगते हैं।

केवल हिन्दी अनुवाद: तीनों वेदों में विधान सोम रस को पीने वाले पाप रहित पुरुष मुझको यज्ञों के द्वारा पूज्य देव के रूप में पूज कर स्वर्ग की प्राप्ति चाहते हैं। वे पुरुष अपने पुण्यों के फलरूप स्वर्ग लोक को प्राप्त होकर स्वर्ग में दिव्य देवताओं के भोगों को भोगते हैं।

अध्याय 9 का श्लोक 21

ते, तम्, भुक्त्वा, स्वर्गलोकम्, विशालम्, क्षीणे, पुण्ये, मत्र्यलोकम्, विशन्ति,
एवम्, त्रयीधर्मम्, अनुप्रपन्नाः, गतागतम्, कामकामाः, लभन्ते।।21।।

अनुवाद: (ते) वे (तम्) उस (विशालम्) विशाल (स्वर्गलोकम्) स्वर्गलोकको (भुक्त्वा) भोगकर (पुण्ये) पुण्य (क्षीणे) क्षीण होनेपर (मत्र्यलोकम्) मृत्युलोकको (विशन्ति) प्राप्त होते हैं। (एवम्) इस प्रकार (त्रयीधर्मम्) तीनों वेदों में कहे हुए पूजा कर्मों का (अनुप्रपन्नाः) आश्रय लेने वाले और (कामकामाः) भोगों की कामनावस (गतागतम्) बार-बार आवागमन को (लभन्ते) प्राप्त होते हैं।

केवल हिन्दी अनुवाद: वे उस विशाल स्वर्ग लोक को भोगकर पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोक को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार तीनों वेदों में कहे हुए पूजा कर्मों का आश्रय लेने वाले और भोगों की कामनावश बार-बार आवागमन को प्राप्त होते हैं।

अध्याय 16 का श्लोक 17

आत्सम्भाविताः, स्तब्धाः, धनमानमदान्विताः, यजन्ते, नामयज्ञैः, ते, दम्भेन, अविधिपूर्वकम्।।17।।

अनुवाद: (ते) वे (आत्मसम्भाविताः) अपने आपको ही श्रेष्ठ मानने वाले (स्तब्धाः) घमण्डी पुरुष (धनमानमदान्विताः) धन और मान के मद से युक्त होकर (नामयज्ञैः) केवल नाममात्र के यज्ञों द्वारा (दम्भेन) पाखण्ड से (अविधिपूर्वकम्) शास्त्रविधि रहित पूजन करते हैं।

केवल हिन्दी अनुवाद: वे अपने आपको ही श्रेष्ठ मानने वाले घमण्डी पुरुष धन और मान के मद से युक्त होकर केवल नाममात्र के यज्ञों द्वारा पाखण्ड से शास्त्रविधि रहित पूजन करते हैं।

अध्याय 16 का श्लोक 18

अहंकारम्, बलम्, दर्पम्, कामम्, क्रोधम्, च, संश्रिताः,
माम्, आत्मपरदेहेषु, प्रद्विषन्तः, अभ्यसूयकाः।।18।।

अनुवाद: (अहंकारम्) अहंकार (बलम्) बल (दर्पम्) घमण्ड (कामम्) कामना और (क्रोधम्) क्रोधादि के (संश्रिताः) परायण (च) और (अभ्यसूयकाः) दूसरों की निन्दा करने वाले पुरुष (आत्मपरदेहेषु) प्रत्येक शरीर में परमात्मा आत्मा सहित तथा (माम्) मुझसे (प्रद्विषन्तः) द्वेष करने वाले होते हैं।

केवल हिन्दी अनुवाद: अहंकार बल घमण्ड कामना और क्रोधादि के परायण और दूसरों की निन्दा करने वाले पुरुष प्रत्येक शरीर में परमात्मा आत्मा सहित तथा मुझसे द्वेष करने वाले होते हैं।

अध्याय 16 का श्लोक 19

तान् अहम्, द्विषतः, क्रूरान्, संसारेषु, नराधमान्,
क्षिपामि, अजस्त्राम्, अशुभान्, आसुरीषु, एव, योनिषु।।19।।

अनुवाद: (तान्) उन (द्विषतः) द्वेष करने वाले (अशुभान्) पापाचारी और (क्रूरान्) क्रूरकर्मी (नराधमान्) नराधमों को (अहम्) मैं (संसारेषु) संसार में (अजस्त्राम्) बार-बार (आसुरीषु) आसुरी (योनिषु) योनियों में (एव) ही (क्षिपामि) डालता हूँ।

केवल हिन्दी अनुवाद: उन द्वेष करने वाले पापाचारी और क्रूरकर्मी नराधमों को मैं संसार में बार-बार आसुरी योनियों में ही डालता हूँ।

अध्याय 16 का श्लोक 20

_आसुरीम्, योनिम्, आपन्नाः, मूढाः, जन्मनि, जन्मनि,
माम् अप्राप्य, एव, कौन्तेय, ततः, यान्ति, अधमाम्, गतिम्।।20।।

अनुवाद: (कौन्तेय) हे अर्जुन! (मूढाः) वे मूर्ख (माम्) मुझको (अप्राप्य) न प्राप्त होकर (एव) ही (जन्मनि) जन्म (जन्मनि) जन्म में (आसुरीम्) आसुरी (योनिम्) योनि को (आपन्नाः) प्राप्त होते हैं फिर (ततः) उससे भी (अधमाम्) अति नीच (गतिम्) गति को (यान्ति) प्राप्त होते हैं अर्थात् घोर नरकों में पड़ते हैं।

केवल हिन्दी अनुवाद: हे अर्जुन! वे मूर्ख मुझको न प्राप्त होकर ही जन्म जन्म में आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं फिर उससे भी अति नीच गति को प्राप्त होते हैं अर्थात् घोर नरकों में पड़ते हैं।

अध्याय 16 का श्लोक 23

यः, शास्त्रविधिम्, उत्सृज्य, वर्तते, कामकारतः,
न, सः, सिद्धिम्, अवाप्रोति, न, सुखम्, न, पराम्, गतिम्।।23।।

अनुवाद: (यः) जो पुरुष (शास्त्रविधिम्) शास्त्र विधि को (उत्सृज्य) त्यागकर (कामकारतः) अपनी इच्छा से मनमाना (वर्तते) आचरण करता है (सः) वह (न) न (सिद्धिम्) सिद्धि को (अवाप्नोति) प्राप्त होता है (न) न (पराम्) परम (गतिम्) गति को और (न) न (सुखम्) सुख को ही।

केवल हिन्दी अनुवाद: जो पुरुष शास्त्रविधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि को प्राप्त होता है, न परम गति को और न सुख को ही।

‘‘शेष कथा‘‘

श्री कृष्ण भगवान ने अपनी शक्ति से युधिष्ठिर को उन सर्व महा मण्डलेश्वरों के आगे होने वाले जन्म दिखाए जिसमें किसी ने कैंचवे का, किसी ने भेड़-बकरी, भैंस व शेर आदि के रूप धारण किए थे। यह सब देख कर युधिष्ठिर ने कहा - हे भगवन! फिर तो पृथ्वी संत रहित हो गई है।। भगवान कृष्ण जी ने कहा जब पृथ्वी संत रहित हो जाएगी तो यहाँ आग लग जाएगी। सर्व जीव-जन्तु आपस में लड़ मरेंगे। यह तो पूरे संत की शक्ति से सन्तुलन बना रहता है। समय-समय पर मैं (भगवान विष्णु) पृथ्वी पर आ कर राक्षस वृत्ति के लोगों को समाप्त करता हूँ जिससे संत सुखी हो जाते है। जिस प्रकार जमींदार अपनी फसल से हानि पहुँचने वाले अन्य पौधों को जो झाड़-खरपतवार आदि को काट-काट कर बाहर डाल देता है तब वह फसल स्वतन्त्राता पूर्वक फलती-फूलती है। यानी ये संत उस फसल में सिचांई का सुख प्रदान करते हैं। पूर्ण संत सबको समान सुख देते हैं। जिस प्रकार वर्षा व सिंचाई का जल दोनों प्रकार के पौधों (फसल व खरपतवार) का पोषण करते हैं। उनमें सर्व जीव के प्रति दया भाव होता है। अब मैं आपको पूर्ण संत के दर्शन करवाता हूँ। एक महात्मा काशी में रहते हैं। उसको बुलवाना है। तब युधिष्ठिर ने कहा कि उस ओर संतों को आमन्त्रिात करने का कार्य भीमसेन को सौंपा था। पूछते हैं कि वह उन महात्मा तक पहुँचा या नहीं। भीमसेन को बुलाकर पूछा तो उसने बताया कि मैं उस से मिला था। उनका नाम स्वपच सुदर्शन है। बाल्मीकि जाति में गृहस्थी संत हैं। एक झौंपड़ी में रहता है। उन्होंने यज्ञ में आने से मना कर दिया। इस पर श्री कृष्ण जी ने कहा कि संत मना नहीं किया करते। सर्व वार्ता जो उनके साथ हुई है वह बताओ।

तब भीम सेन ने आगे बताया कि मैंने उनको आमन्त्रिात करते हुए कहा कि हे संत परवर ! हमारी यज्ञ में आने का कष्ट करना। उनको पूरा पता बताया। उसी समय वे (सुदर्शन संत जी) कहने लगे भीम सैन आप के पाप के अन्न को खाने से संतों को दोष लगेगा। करोड़ों सैनिकों की हत्या करके आपने तो घोर पाप कर रखा है। आज आप राज्य का आनन्द ले रहे हो। युद्ध में वीरगति को प्राप्त सैनिकों की विधवा पत्नी व अनाथ बच्चे रह-रह कर अपने पति व पिता को याद करके फूट-फूट कर घंटों रोते हैं। बच्चे अपनी माँ से लिपट कर पूछ रहे हैं - माँ, पापा छुट्टी नहीं आए? कब आएंगे? हमारे लिए नए वस्त्र लाएंगे। दूसरी लड़की कहती है कि मेरे लिए नई साड़ी लाएंगे। बड़ी होने पर जब मेरी शादी होगी तब मैं उसे बाँधकर ससुराल जाऊँगी। वह लड़का (जो दस वर्ष की आयु का है) कहता है कि मैं अब की बार पापा (पिता जी) से कहूँगा कि आप नौकरी पर मत जाना। मेरी माँ तथा भाई-बहन आपके बिना बहुत दुःख पाते हैं। माँ तो सारा दिन-रात आपकी याद करके जब देखो एकांत स्थान पर रो रही होती है। या तो हम सबको अपने पास बुला लो या आप हमारे पास रहो। छोड़ दो नौकरी को। मैं जवान हो गया हूँ। आपकी जगह मैं फौज में जा कर देश सेवा करूँगा। आप अपने परिवार में रहो। आने दो पिता जी को, बिल्कुल नहीं जाने दूँगा। (उन बच्चों को दुःखी होने से बचाने के लिए उनकी माँ ने उन्हें यह नहीं बताया कि आपके पिता जी युद्ध में मर चुके हैं क्योंकि उस समय वे बच्चे अपने मामा के घर गए हुए थे। केवल छोटा बच्चा जो डेढ़ वर्ष की आयु का था वही घर पर था। अन्य बच्चों को जान बूझ कर नहीं बुलाया था।) इस प्रकार उन मासूम बच्चों की आपसी वार्ता से दुःखी होकर उनकी माता का हृदय पति की

याद के दुःख से भर आया। उसे हल्का करने के लिए (रोने के लिए) दूसरे कमरे में जा कर फूट-फूट कर रोने लगी। तब सारे बच्चे माँ के ऊपर गिरकर रोने लगे। सम्बन्धियों ने आकर शांत करवाया। कहा कि बच्चों को स्पष्ट बताओ कि आपके पिता जी युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गए। जब बच्चों को पता चला कि हमारे पापा (पिता जी) अब कभी नहीं आएंगे तब उस स्वार्थी राजा को कोसने लगे जिसने अपने भाई बटवारे के लिए दुनियाँ के लालों का खून पी लिया। यह कोई देश रक्षा की लड़ाई भी नहीं थी जिसमें हम संतोष कर लेते कि देश के हित में प्राण त्याग दिए हैं। इस खूनी राजा ने अपने ऐशो-आराम के लिए खून की नदी बहा दी। अब उस पर मौज कर रहा है। आगे संत सुदर्शन (सुपच) बता रहे हैं कि भीम ऐसे-2 करोड़ों प्राणी युद्ध की पीड़ा से पीड़ित हैं। उनकी हाय आपको चैन नहीं लेने देगी चाहे करोड़ यज्ञ करो। ऐसे दुष्ट अन्न को कौन खाए ? यदि मुझे बुलाना चाहते हो तो मुझे पहले किए हुए सौ (100) यज्ञों का फल देने का संकल्प करो अर्थात् एक सौ यज्ञों का फल मुझे दो तब मैं आपके भोजन पाऊँ। सुदर्शन जी के मुख से इस बात को सुन कर भीम ने बताया कि मैं बोला आप तो कमाल के व्यक्ति हो, सौ यज्ञों का फल मांग रहे हो। यह हमारी दूसरी यज्ञ है। आपको सौ का फल कैसे दें? इससे अच्छा तो आप मत आना। आपके बिना कौन सी यज्ञ सम्पूर्ण नहीं होगी। जब स्वयं भगवान कृष्ण जी हमारे साथ हैं। तो तेरे न आने से क्या यज्ञ पूर्ण नहीं होगा। सर्व वार्ता सुन कर श्री कृष्ण जी ने कहा भीम संतों के साथ ऐसा आपत्तिजनक व्यवहार नहीं करना चाहिए। सात समुद्रों का अंत पाया जा सकता है परंतु सतगुरु (कबीर साहेब) के संत का पार नहीं पा सकते। उस महात्मा सुदर्शन वाल्मिीकि के एक बाल के समान तीन लोक भी नहीं हैं। मेरे साथ चलो, उस परमपिता परमात्मा के प्यारे हंस को लाने के लिए। तब पाँचों पाण्डव व श्री कृष्ण भगवान स्वपच सुदर्शन की झोंपड़ी की ओर रथ में बैठकर चले। एक योजन अर्थात् 12 किलोमीटर पहले रथ से उतरकर नंगे पैरों चले तथा रथ को खाली लेकर रथवान पीछे-पीछे चला।

उस समय स्वयं कबीर साहेब सुदर्शन सुपच का रूप बना कर झोपड़ी में बैठ गए व सुदर्शन को अपनी गुप्त प्रेरणा से मन में संकल्प उठा कर कहीं दूर के संत या भक्त से मिलने भेज दिया जिसमें आने व जाने में कई रोज लगने थे। तब सुदर्शन के रूप में सतगुरु की चमक व शक्ति देख कर सर्व पाण्डव बहुत प्रभावित हुए। स्वयं श्रीकृष्णजी ने लम्बी दण्डवत् प्रणाम की। तब देखा देखी सर्व पाण्डवों ने भी ऐसा ही किया। कृष्ण जी की तरफ नजर करके सुपच सुदर्शन ने आदर पूर्वक कहा कि - हे त्रिभुवननाथ! आज इस दीन के द्वार पर कैसे? मेरा अहोभाग्य है कि आज दीनानाथ विश्वम्भरनाथ मुझ तुच्छ को दर्शन देने स्वयं चल कर आए हैं। सबको आदर पूर्वक बैठा दिया तथा आने का कारण पूछा। उस समय श्री कृष्ण जी ने कहा कि हे जानी-जान! आप सर्व गति (स्थिति) से परिचित हैं। पाण्डवों ने यज्ञ की है। वह आपके बिना सम्पूर्ण नहीं हो रही है। कृपा इन्हें कृतार्थ करें। उसी समय वहां उपस्थित भीम की ओर संकेत करते हुए सुदर्शन रूप धारी परमेश्वर जी ने कहा कि यह वीर मेरे पास आया था तथा अपनी मजबूरी से इसे अवगत करवाया था। उस समय श्री कृष्ण जी ने कहा कि - हे पूर्णब्रह्म! आपने स्वयं अपनी वाणी में कहा है कि -

‘‘संत मिलन को चालिए, तज माया अभिमान। जो-जो पग आगे धरै, सो-सो यज्ञ समान।।‘‘

आज पांचों पाण्डव राजा हैं तथा मैं स्वयं द्वारिकाधीश आपके दरबार में राजा होते हुए भी नंगे पैरों उपस्थित हूँ। अभिमान का नामों निशान भी नहीं है तथा स्वयं भीम ने भी खड़ा हो कर उस दिन कहे हुए अपशब्दों की चरणों में पड़ कर क्षमा याचना की। श्री कृष्ण जी ने कहा हे नाथ! आज यहाँ आपके दर्शनार्थ आए आपके छः सेवकों के कदमों के यज्ञ समान फल को स्वीकार करते हुए सौ आप रखो तथा शेष हम भिक्षुकों को दान दीजिए ताकि हमारा भी कल्याण हो। इतना आधीन भाव सर्व उपस्थित जनों में देख कर जगतगुरु साहेब करूणामय सुदर्शन रूप में अति प्रसन्न हुए।

कबीर, साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं।
जो कोई धन का भूखा, वो तो साधू नाहिं।।

उठ कर उनके साथ चल पड़े। जब सुदर्शन जी यज्ञशाला में पहुँचे तो चारों ओर एक से एक ऊँचे सुसज्जित आसनों पर विराजमान महा मण्डलेश्वर सुदर्शन जी के रूप व वेश (दोहरी धोती घुटनों से थोड़ी नीचे तक, छोटी-2 दाड़ी, सिर के बिखरे केश न बड़े न छोटे, टूटी-फूटी जूती। मैले से कपड़े, तेजोमय शरीर) को देखकर अपने मन में सोच रहे हैं कि ऐसे अपवित्र व्यक्ति से शंख सात जन्म भी नहीं बज सकता है। यह तो हमारे सामने ऐसे है जैसे सूर्य के सामने दीपक। श्रीकृष्ण जी ने स्वयं उस महात्मा का आसन अपने हाथों लगाया (बिछाया) क्योंकि श्री कृष्ण जी श्रेष्ठ आत्मा हैं। फिर द्रोपदी से कहा कि हे बहन! सुदर्शन महात्मा जी आए हैं, भोजन तैयार करो। बहुत पहुँचे हुए संत हैं। द्रोपदी देख रही है कि संत लक्षण तो एक भी नहीं दिखाई देते हैं। यह तो एक दरिद्र गृहस्थी व्यक्ति है। न तो वस्त्र भगवां, न गले में माला, न तिलक, न सिर पर बड़ी जटा, न मुण्ड ही मुण्डवा रखा और न ही कोई चिमटा, झोली, कमण्डल लिए हुए था। श्री कृष्ण जी के कहते ही स्वादिष्ट भोजन कई प्रकार का बनाकर एक सुन्दर थाल (चांदी का) में परोस कर सुदर्शन जी के सामने रख कर द्रोपदी ने मन में विचार किया कि आज तो यह भक्त भोजन को खाएगा तो ऊँगली चाटता रह जाएगा। जिन्दगी में ऐसा भोजन कभी नहीं खाया होगा।

सुदर्शन जी ने नाना प्रकार के भोजन को थाली में इक्ट्ठा किया तथा खिचड़ी सी बनाई। उस समय द्रौपदी ने देखा कि इसने तो सारा भोजन (खीर, खांड, हलुवा, सब्जी, दही, दही-बड़े आदि) घोल कर एक कर लिया। तब मन में दुर्भावना पूर्वक विचार किया कि इस मूर्ख हब्शी ने तो खाना खाने का भी ज्ञान नहीं। यह काहे का संत? कैसा शंख बजाएगा। (क्योंकि खाना बनाने वाली स्त्री की यह भावना होती है कि मैं ऐसा स्वादिष्ट भोजन बनाऊँ कि खाने वाला मेरे भोजन की प्रशंसा कई जगह करे)। प्रत्येक बहन की यही आशा होती है।

{वह बेचारी एक घंटे तक धुएँ से आँखें खराब करे और मेरे जैसा कह दे कि नमक तो है ही नहीं, तब उसका मन बहुत दुःखी होता है। इसलिए संत जैसा मिल जाए उसे खा कर सराहना ही करते हैं। यदि कोई न खा सके तो नमक कह कर ‘संत‘ नहीं मांगता। संतों ने नमक का नाम राम-रस रखा हुआ है। कोई ज्यादा नमक खाने का अभ्यस्त हो तो कहेगा कि भईया- रामरस लाना। घर वालों को पता ही न चले कि क्या मांग रहा है? क्योंकि सतसंग में सेवा में अन्य सेवक ही होते हैं। न ही भोजन बनाने वालों को दुःख हो। एक समय एक नया भक्त किसी सतसंग में पहली बार गया। उसमें किसी ने कहा कि भक्त जी रामरस लाना। दूसरे ने भी कहा कि रामरस लाना तथा थोड़ा रामरस अपनी हथेली पर रखवा लिया। उस नए भक्त ने खाना खा लिया था। परंतु पंक्ति में बैठा अन्य भक्तों के भोजन पाने का इंतजार कर रहा था कि इकट्ठे ही उठेंगे। यह भी एक औपचारिकता सतसंग में होती है। उसने सोचा रामरस कोई खास मीठा खाद्य पदार्थ होगा। यह सोच कर कहा मुझे भी रामरस देना। तब सेवक ने थोड़ा सा रामरस (नमक) उसके हाथ पर रख दिया। तब वह नया भक्त बोला - ये के कान कै लाना है, चैखा सा (ज्यादा) रखदे। तब उस सेवक ने दो तीन चमच्च रख दिया। उस नए भक्त ने उस बारीक नमक को कोई खास मीठा खाद्य प्रसाद समझ कर फांका मारा। तब चुपचाप उठा तथा बाहर जा कर कुल्ला किया। फिर किसी भक्त से पूछा रामरस किसे कहते हैं? तब उस भक्त ने बताया कि नमक को रामरस कहते हैं। तब वह नया भक्त कहने लगा कि मैं भी सोच रहा था कि कहें तो रामरस परंतु है बहुत खारा। फिर विचार आया कि हो सकता है नए भक्तों पर परमात्मा प्रसन्न नहीं हुए हों। इसलिए खारा लगता हो। मैं एक बार फिर कोशिश करता, अच्छा हुआ जो मैंने आपसे स्पष्ट कर लिया। फिर उसे बताया गया कि नमक को रामरस किस लिए कहते हैं ?}

सुपच सुदर्शन जी ने थाली वाले मिले हुए उस सारे भोजन को पाँच ग्रास बना कर खा लिया। पाँच बार शंख ने आवाज की। उसके पश्चात् शंख ने आवाज नहीं की।

व्यंजन छतीसों परोसिया जहाँ द्रौपदी रानी। बिन आदर सतकार के, कही श्ंख न बानी।।
पंच गिरासी वाल्मिीकि, पंचै बर बोले। आगे शंख पंचायन, कपाट न खोले।।
बोले कृष्ण महाबली, त्रिभुवन के साजा। बाल्मिक प्रसाद से, कण कण क्यों न बाजा।।
द्रोपदी सेती कृष्ण देव, जब एैसे भाखा। बाल्मिक के चरणों की, तेरे न अभिलाषा।।
प्रेम पंचायन भूख है, अन्न जग का खाजा। ऊँच नीच द्रोपदी कहा, शंख कण कण यूँ नहीं बाजा।।
बाल्मिक के चरणों की, लई द्रोपदी धारा। शंख पंचायन बाजीया, कण-कण झनकारा।।

युधिष्ठर जी श्री कृष्ण जी के पास आए तथा कहा हे भगवन्! आप की कृपा से शंख ने आवाज की है हमारा कार्य पूर्ण हुआ। श्री कृष्ण जी ने सोचा कि इन महात्मा सुदर्शन के भोजन खा लेने से भी शंख अखण्ड क्यों नहीं बजा? फिर अपनी दिव्य दृष्टि से देखा ? तो पाया कि द्रोपदी के मन में दोष है जिस कारण से शंख ने अखण्ड आवाज नहीं की केवल पांच बार आवाज करके मौन हो गया है। श्री कृष्ण जी ने कहा युधिष्ठर यह शंख बहुत देर तक बजना चाहिए तब यज्ञ पूर्ण होगी। युधिष्ठर ने कहा भगवन्! अब कौन संत शेष है जिसे लाना होगा। श्री कृष्ण जी ने कहा युधिष्ठर इस सुदर्शन संत से बढ़कर कोई भी सत्यभक्ति युक्त संत नहीं है। इसके एक बाल समान तीनों लोक भी नहीं हैं। अपने घर में ही दोष है उसे शुद्ध करते हैं। श्री कृष्ण जी ने द्रौपदी से कहा - द्रौपदी, भोजन सब प्राणी अपने-2 घर पर रूखा-सूखा खा कर ही सोते हैं। आपने बढ़िया भोजन बना कर अपने मन में अभिमान पैदा कर लिया। बिना आदर सत्कार के किया हुआ धार्मिक अनुष्ठान (यज्ञ, हवन, पाठ) सफल नहीं होता। आपने इस साधारण से व्यक्ति को क्या समझ रखा है? यह पूर्णब्रह्म हैं। इसके एक बाल के समान तीनों लोक भी नहीं हैं। आपने अपने मन में इस महापुरुष के बारे में गलत विचार किए हैं उनसे आपका अन्तःकरण मैला (मलिन) हो गया है। इनके भोजन ग्रहण कर लेने से तो यह शंख की स्वर्ग तक आवाज जाती तथा सारा ब्रह्मण्ड गूंज उठता। यह केवल पांच बार बोला है। इसलिए कि आपका भ्रम दूर हो जाए क्योंकि और किसी ऋषि के भोजन पाने से तो यह टस से मस भी नहीं हुआ। आप अपना मन साफ करके इन्हें पूर्ण परमात्मा समझकर इनके चरणों को धो कर पीओ, ताकी तेरे हृदय का मैल (पाप) साफ हो जाए।

उसी समय द्रौपदी ने अपनी गलती को स्वीकार करते हुए संत से क्षमा याचना की और सुपच सुदर्शन के चरण अपने हाथों धो कर चरणामृत बनाया। रज भरे (धूलि युक्त) जल को पीने लगी। जब आधा पी लिया तब भगवान कृष्ण जी ने कहा द्रौपदी कुछ अमृत मुझे भी दे दो ताकि मेरा भी कल्याण हो। यह कह कर कृष्ण जी ने द्रौपदी से आधा बचा हुआ चरणामृत पीया। उसी समय वही पंचायन शंख इतने जोरदार आवाज से बजा कि स्वर्ग तक ध्वनि सुनि। तब पाण्डवों की वह यज्ञ सफल हुई।

प्रमाण के लिए अमृत वाणी

(पारख का अंग)

गरीब, सुपच शंक सब करत हैं, नीच जाति बिश चूक। पौहमी बिगसी स्वर्ग सब, खिले जो पर्वत रूंख।।
गरीब, करि द्रौपदी दिलमंजना, सुपच चरण पी धोय। बाजे शंख सर्व कला, रहे अवाजं गोय।।
गरीब, द्रौपदी चरणामृत लिये, सुपच शंक नहीं कीन। बाज्या शंख अखंड धुनि, गण गंधर्व ल्यौलीन।।
गरीब, फिर पंडौं की यज्ञ में, शंख पचायन टेर। द्वादश कोटि पंडित जहां, पड़ी सभन की मेर।।
गरीब, करी कृष्ण भगवान कूं, चरणामृत स्यौं प्रीत। शंख पंचायन जब बज्या, लिया द्रोपदी सीत।।
गरीब, द्वादश कोटि पंडित जहां, और ब्रह्मा विष्णु महेश। चरण लिये जगदीश कूं, जिस कूं रटता शेष।।
गरीब, वाल्मिीकि के बाल समि, नाहीं तीनौं लोक। सुर नर मुनि जन कृष्ण सुधि, पंडौं पाई पोष।।
गरीब, वाल्मिीकि बैंकुठ परि, स्वर्ग लगाई लात। शंख पचायन घुरत हैं, गण गंर्धव ऋषि मात।।
गरीब, स्वर्ग लोक के देवता, किन्हैं न पूर्या नाद। सुपच सिंहासन बैठतैं, बाज्या अगम अगाध।।
गरीब, पंडित द्वादश कोटि थे, सहिदे से सुर बीन। संहस अठासी देव में, कोई न पद में लीन।
गरीब, बाज्या शंख स्वर्ग सुन्या, चैदह भवन उचार। तेतीसौं तत्त न लह्या, किन्हैं न पाया पार।।

।। अचला का अंग।।

गरीब, पांचैं पंडौं संग हैं, छठ्ठे कृष्ण मुरारि। चलिये हमरी यज्ञ में, समर्थ सिरजनहार।।97।।
गरीब, सहंस अठासी ऋषि जहां, देवा तेतीस कोटि। शंख न बाज्या तास तैं, रहे चरण में लोटि।।98।।
गरीब, सुपच रूप धरि आईया, सतगुरु पुरुष कबीर। तीन लोक की मेदनी, सुर नर मुनिजन भीर।।99।।
गरीब, पंडित द्वादश कोटि हैं, और चैरासी सिद्ध। शंख न बाज्या तास तैं, पिये मान का मध।।100।।
गरीब, पंडौं यज्ञ अश्वमेघ में, सतगुरु किया पियान। पांचैं पंडौं संग चलैं, और छठा भगवान।।101।।
गरीब, सुपच रूप धरि आईया, सब देवन का देव। कृष्णचन्द्र पग धोईया, करी तास की सेव।।102।।
गरीब, सुपच रूप को देखि करि, द्रौपदी मानी शंक। जानि गये जगदीश गुरु, बाजत नाहीं शंख।।103।।
गरीब, छप्पन भोग संजोग करि, कीनें पांच गिरास। द्रौपदी के दिल दुई हैं, नाहीं दृढ़ विश्वास।।104।।
गरीब, पांचैं पंडौं यज्ञ करी, कल्पवृक्ष की छांहिं। द्रौपदी दिल बंक हैं, कण कण बाज्या नांहि।।105।।
गरीब, छप्पन भोग न भोगिया, कीन्हें पंच गिरास। खड़ी द्रौपदी उनमुनी, हरदम घालत श्वास।।107।।
गरीब, बोलै कृष्ण महाबली, क्यूं बाज्या नहीं शंख। जानराय जगदीश गुरु, काढत है मन बंक।।108।।
गरीब, द्रौपदी दिल कूं साफ करि, चरण कमल ल्यौ लाय। वाल्मिीकि के बाल सम, त्रिलोकी नहीं पाय।।109।।
गरीब, चरण कमल कूं धोय करि, ले द्रौपदी प्रसाद। अंतर सीना साफ होय, जरैं सकल अपराध।।110।।
गरीब, बाज्या शंख सुभान गति, कण कण भई अवाज। स्वर्ग लोक बानी सुनी, त्रिलोकी में गाज।।111।।
गरीब, पंडौं यज्ञ अश्वमेघ में, आये नजर निहाल। जम राजा की बंधि में, खल हल पर्या कमाल।।113।।

‘‘अन्य वाणी सतग्रन्थ से’’

तेतीस कोटि यज्ञ में आए सहंस अठासी सारे। द्वादश कोटि वेद के वक्ता, सुपच का शंख बज्या रे।।

‘‘अर्जुन सहित पाण्डवों को युद्ध में की गई हिंसा के पाप लगे’’

परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी को बताया कि उपरोक्त विवरण से सिद्ध हुआ कि पाण्डवों को युद्ध की हत्याओं का पाप लगा। आगे सुन और सुनाता हूँ:-

दुर्वासा ऋषि के शाप वश यादव कुल आपस में लड़कर प्रभास क्षेत्र में यमुना नदी के किनारे नष्ट हो गया। श्री कृष्ण जी भगवान को एक शिकारी ने पैर में विषाक्त तीर मार कर घायल कर दिया था। उस समय श्री कृष्ण जी ने उस शिकारी को बताया कि आप त्रेता युग में सुग्रीव के बड़े भाई बाली थे तथा मैं रामचन्द्र था। आप को मैंने धोखा करके वृक्ष की ओट लेकर मारा था। आज आपने वह बदला (प्रतिशोध) चुकाया है। पाँचों पाण्डवों को पता चला कि यादव आपस में लड़ मरे हैं वे द्वारिका पहुँचे। वहाँ गए जहाँ पर श्री कृष्ण जी तीर से घायल तड़फ रहे थे। पाँचों पाण्डवों के धार्मिक गुरू श्री कृष्ण जी थे। श्री कृष्ण जी ने पाण्डवों से कहा! आप मेरे अतिप्रिय हो। मेरा अन्त समय आ चुका है। मैं कुछ ही समय का मेहमान हूँ। मैं आपको अन्तिम उपदेश देना चाहता हूँ कृप्या ध्यान पूर्वक सुनों। यह कह कर श्री कृष्ण जी ने कहा (1) आप द्वारिका की स्त्रियों को इन्द्रप्रस्थ ले जाना। यहाँ कोई नर यादव शेष नहीं बचा है (2) आप अति शीघ्र राज्य त्याग कर हिमालय चले जाओ वहाँ अपने शरीर के नष्ट होने तक तपस्या करते रहो। इस प्रकार हिमालय की बर्फ में गल कर नष्ट हो जाओ। युधिष्ठर ने पूछा हे भगवन्! हे गुरूदेव श्री कृष्ण! क्या हम हिमालय में गल कर मरने का कारण जान सकते हैं? यदि आप उचित समझें तो बताने की कृपा करें। श्री कृष्ण ने कहा युधिष्ठर! आप ने युद्ध में जो प्राणियों की हिंसा करके पाप किया है। उस पाप का प्रायश्चित् करने के लिए ऐसा करना अनिवार्य है। इस प्रकार तपस्या करके प्राण त्यागने से आप के महाभारत युद्ध में किए पाप नष्ट हो जाएँगे।

कबीर जी बोले हे धर्मदास! श्री कृष्ण जी के श्री मुख से उपरोक्त वचन सुन कर अर्जुन आश्चर्य में पड़ गया। सोचने लगा श्री कृष्ण जी आज फिर कह रहे हैं कि युद्ध में किए पाप नष्ट इस विधि से होगें। अर्जुन अपने आपको नहीं रोक सका। उसने श्री कृष्ण जी से कहा हे भगवन्! क्या मैं आप से अपनी शंका का समाधान करा सकता हूँ। वैसे तो गुरूदेव! यह मेरी गुस्ताखी है, क्षमा करना क्योंकि आप ऐसी स्थिति में हैं कि आप से ऐसी-वैसी बातें करना उचित नहीं जान पड़ता। यदि प्रभु! मेरी शंका का समाधान नहीं हुआ तो यह शंका रूपी कांटा आयु पर्यन्त खटकता रहेगा। मैं चैन से जी नहीं सकूंगा। श्री कुष्ण ने कहा हे अर्जून! तू जो पूछना चाहता है निःसंकोच होकर पूछ। मैं अन्तिम स्वांस गिन रहा हूँ जो कहूंगा सत्य कहूंगा। अर्जुन बोला हे श्री कृष्ण! आपने श्री मद्भगवत् गीता का ज्ञान देते समय कहा था कि अर्जुन! तू युद्ध कर तुझे युद्ध में मारे जाने वालों का पाप नहीं लगेगा तू केवल निमित्त मात्र बन जा ये सर्व योद्धा मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं (प्रमाण गीता अध्याय 11 श्लोक 32-33) आपने यह भी कहा कि अर्जुन युद्ध में मारा गया तो स्वर्ग को चला जाएगा, यदि युद्ध जीत गया तो पृथ्वी के राज्य का सुख भोगेगा। तेरे दोनों हाथों में लड्डू हैं। (प्रमाण श्री मदभगवत् गीता अध्याय 2 श्लोक 37) तू युद्ध के लिए खड़ा हो जो जय-पराजय की चिन्ता छोड़कर युद्ध कर इस प्रकार तू पाप को प्राप्त नहीं होगा (गीता अध्याय 2 श्लोक 38)

जिस समय बड़े भईया को बुरे-2 स्वपन आने लगे हम आप के पास कष्ट निवारण के लिए विधि जानने गए तो आपने बताया कि जो युद्ध में बन्धुघात अर्थात् अपने नातियों (राजाओं, सैनिकों, चाचा, भतीजा आदि) की हत्या का पाप दुःखी कर रहा है। मैं (अर्जुन) उस समय भी आश्चर्य में पड़ गया था कि भगवन् गीता ज्ञान में कह रहे थे कि तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा युद्ध करो। आज कह रहे है कि युद्ध में की गई हिंसा का पाप दुःखी कर रहा है। आपने पाप नाश होने का समाधान बताया ‘‘अश्वमेघ यज्ञ’’ करना जिसमें करोड़ों रूपये का खर्च हुआ। उस समय मैं अपने मन को मार कर यह सोच कर चुप रहा कि यदि मैं आप (श्री कृष्ण जी) से वाद-विवाद करूँगा कि आप तो कह रहे थे तुम्हें युद्ध में होने वाली हत्याओं का कोई पाप नहीं लगेगा। आज कह रहे हो तुम्हें महाभारत युद्ध में की हत्याओं का पाप दुःख दे रहा है। कहाँ गया आप का वह गीता वाला ज्ञान। किसलिए हमारे साथ धोखा किया, गुरू होकर विश्वासघात किया। तो बड़े भईया (युधिष्ठर जी) यह न सोच लें कि मेरी चिकित्सा में धन लगना है।

इस कारण अर्जुन वाद-विवाद कर रहा है। यह (अर्जुन) मेरे कष्ट निवारण में होने वाले खर्च के कारण विवाद कर रहा है यह नहीं चाहता कि मैं (युधिष्ठर) कष्ट मुक्त हो जाऊं। अर्जुन को भाई के जीवन से धन अधिक प्रिय है। उपरोक्त विचारों को ध्यान में रखकर मैंने सोचा था कि यदि युधिष्ठर भईया को थोड़ा सा भी यह आभास हो गया कि अर्जुन! इस दृष्टि कोण से विवाद कर रहा है तो भईया! अपना समाधान नहीं कराएगा। आजीवन कष्ट को गले लगाए रहेगा। हे कृष्ण! आप के कहे अनुसार हमने यज्ञ किया। आज फिर आप कह रहे हो कि तुम्हें युद्ध की हत्याओं का पाप लगा है उसे नष्ट करने के लिए शीघ्र राज्य त्याग कर हिमालय में तपस्या करके गल मरो। आपने हमारे साथ यह विश्वास घात किसलिए किया? यदि आप जैसे सम्बन्धी व गुरू हों तो शत्रुओं की आवश्यकता ही नहीं। हे कृष्ण हमारे हाथ में तो एक भी लड्डू नहीं रहा न तो युद्ध में मर कर स्वर्ग गए न पृथ्वी के राज्य का सुख भोग सके। क्योंकि आप कह रहे हो कि राज्य त्याग कर हिमालय में गल मरो।

आँसू टपकाते हुए अर्जुन के मुख से उपरोक्त वचन सुनकर युधिष्ठर बोला, अर्जुन! जिस परिस्थिति में भगवान है। इस समय ये शब्द बोलना शोभा नहीं देता। श्री कृष्ण जी बोले हे अर्जुन! सुन मैं आप को सत्य-2 बताता हूँ। गीता के ज्ञान में मैंने क्या कहा था मुझे कुछ भी ज्ञान नहीं। यह जो कुछ भी हुआ है यह होना था इसे टालना मेरे वश नहीं था। कोई अन्य शक्ति है जो आप और हम को कठपुतली की तरह नचा रही है। वह तेरे वश न मेरे वश। परन्तु जो मैं आपको हिमालय में तपस्या करके शरीर अन्त करने की राय दे रहा हूँ। यह आप को लाभदायक है। आप मेरे इस वचन का पालन अवश्य करना। यह कह कर श्री कृष्ण जी शरीर त्याग गए। जहाँ पर उनका अन्तिम संस्कार किया गया। उस स्थान पर यादगार रूप में श्री कृष्ण जी के नाम पर द्वारिका में द्वारिकाधीश मन्दिर बना है।

श्री कृष्ण ने पाण्डवों से कहा था कि मेरे शरीर का संस्कार करके राख तथा अधजली अस्थियों को एक काष्ठ के संदूक (ठवग) में डालकर उसको पूरी तरह से बंद करके यमुना में प्रवाह कर देना। पाण्डवों ने वैसा ही किया। वह संदूक बहता हुआ समुद्र में उस स्थान पर चला गया जिस स्थान पर उड़ीसा प्रान्त में जगन्नाथ का मंदिर बना है। एक समय उड़ीसा का राजा इन्द्रदमन था जो श्री कृष्ण जी का परम भक्त था। स्वपन में श्री कृष्ण जी ने बताया कि एक काष्ठ के संदूक में मेरे कृष्ण वाले शरीर की अस्थियाँ हैं। उस स्थान पर वह संदूक बहकर आ चुका है। उसी स्थान पर उनको जमीन में दबाकर एक मंदिर बनवा दें। राजा ने स्वपन अपनी धार्मिक पत्नी तथा मंत्रियों के साथ साझा किया और उस स्थान पर गए तो वास्तव में एक लकड़ी का संदूक मिला। उसको जमीन में दबाकर जगन्नाथ नाम से मंदिर बनवाया। संपूर्ण जानकारी पढ़ें इसी पुस्तक ‘‘कबीर बड़ा या कृष्ण’’ में पृष्ठ 389 पर।

धर्मदास जी को परमेश्वर कबीर जी ने बताया। हे धर्मदास! सर्व (छप्पन करोड़) यादव का जो आपस में लड़कर मर गए थे, अन्तिम संस्कार करके अर्जुन को द्वारिका में छोड़ कर चारों भाई इन्द्रप्रस्थ चले गए। अकेला अर्जुन द्वारिका की स्त्रियों तथा श्री कृष्ण जी की गोपियों को लेकर आ रहे थे। रास्ते में जंगली लोगों ने अर्जुन को पकड़ कर पीटा। अर्जुन के पास अपना गांडीव धनुष भी था जिस से महाभारत का युद्ध जीता था। परन्तु उस समय अर्जुन से वही धनुष नहीं चला। अपने आप को शक्तिहीन जानकर अर्जुन कायरों की तरह सब देखता रहा। वे जंगली व्यक्ति स्त्रियों के गहने लूट ले गए तथा कुछ स्त्रियों को भी अपने साथ ले गए। शेष स्त्रियों को साथ लेकर अर्जुन ने इन्द्रप्रस्थ को प्रस्थान किया तथा मन में विचार किया कि श्री कृष्ण जी महाधोखेबाज (विश्वासघाती) था। जिस समय मेरे से युद्ध कराना था तो शक्ति प्रदान कर दी। उसी धनुष से मैंने लाखों व्यक्तियों को मौत के घाट उतार दिया। आज मेरा बल छीन लिया, मैं कायरों की तरह पिटता रहा मेरे से वही धनुष नहीं चला। कबीर परमेश्वर जी ने बताया धर्मदास! श्री कृष्ण जी छलिया नहीं था। वह सर्व कपट काल ब्रह्म ने किया है जो ब्रह्मा-विष्णु व शिव का पिता है। जिसके समक्ष श्री विष्णु (कृष्ण) तथा श्री शिव आदि की कुछ पेश नहीं चलती।

उपरोक्त कथा सुनकर धर्मदास जी ने प्रश्न किया:- धर्मदास ने कहा हे परमेश्वर कबीर बन्दी छोड़ जी! आप ने तो मेरी आँखे खोल दी हे प्रभु! हिमालय में तपस्या कर युधिष्ठर का तो केवल एक पैर का पंजा ही बर्फ से नष्ट हुआ तथा अन्य के शरीर गल गए थे। सुना है वे सर्व पापमुक्त होकर स्वर्ग चले गए?

उत्तरः- परमेश्वर कबीर जी ने कहा हे धर्मदास! हिमालय में जो तप पाण्डवों ने किया वह शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण (पूजा) होने के कारण व्यर्थ प्रयत्न था। (प्रमाण-गीता अध्याय 16 श्लोक 23 तथा गीता अध्याय 17 श्लोक 5-6 में कहा है कि जो मनुष्य शास्त्रविधि से रहित केवल कल्पित घोर तप को तपते हैं वे शरीरस्थ परमात्मा को कृश करने वाले हैं उन अज्ञानियों को नष्ट हुए जान।) क्योंकि जैसी तपस्या पाण्डवों ने की वह गीता जी व वेदों में वर्णित नहीं है अपितु ऐसे शरीर को पीड़ा देकर साधना करना व्यर्थ बताया है। यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्रा 15 में कहा है ओम् (ॐ) नाम का जाप कार्य करते-2 कर, विशेष कसक के साथ कर मनुष्य जन्म का मुख्य कत्र्तव्य जान के कर। यही प्रमाण गीता अध्याय 8 श्लोक 7 व 13 में कहा है कि मेरा तो केवल ॐ नाम है इस का जाप अन्तिम सांस तक करने से लाभ होता है इसलिए अर्जुन! तू युद्ध भी कर तथा स्मरण (भक्ति जाप) भी कर अतः हे धर्मदास

जैसी तपस्या पाण्डवों ने की वह व्यर्थ सिद्ध हुई।

गीता अध्याय 3 श्लोक 6 से 8 में कहा है कि जो मूढ़ बुद्धि मनुष्य समस्त कर्म इन्द्रयों को रोककर अर्थात् हठ योग द्वारा एक स्थान पर बैठ कर या खड़ा होकर साधना करता है। वह मन से इन्द्रियों का चिन्तन करता रहता है। जैसे सर्दी लगी तो शरीर की चिन्ता, सर्दी का चिन्तन, भूख लगी तो भूख का चिन्तन आदि होता रहता है। वह हठ से तप करने वाला मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है। कार्य न करने अर्थात् एक स्थान पर बैठ या खड़ा होकर साधना करने की अपेक्षा कर्म करना तथा भक्ति भी करना श्रेष्ठ है। यदि कर्म नहीं करेगा तो तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा।

विशेष विचार:- श्री मद्भगवत गीता में ज्ञान दो प्रकार का है। एक तो वेदों वाला तथा दूसरा काल ब्रह्म द्वारा सुनाया लोक वेद वाला। यह ज्ञान (गीता अध्याय 3 श्लोक 6 से 8 वाला ज्ञान) वेदों वाला ज्ञान ब्रह्म काल ने बताया है। श्री कृष्ण जी द्वारा भी काल ब्रह्म ने पाण्डवों को लोक वेद सुनाया जिस से तप हो जाता है। तप से फिर कभी राजा बन जाता है कुछ सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। मोक्ष नहीं होता तथा न पाप ही नष्ट होते हैं।

हे धर्मदास! पाँचों पाण्डवों ने विचार करके अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को राज तिलक कर दिया। द्रोपदी, कुन्ती (अर्जुन, भीम व युधिष्ठर की माता) तथा पाँचों पाण्डव श्री कृष्ण जी के आदेशानुसार हिमालय पर्वत पर जाकर तप करने लगे कुछ ही दिनों में आहार अभाव से उनके शरीर समाप्त हो गए। केवल युधिष्ठर का शरीर शेष रहा। उसके पैर का एक पंजा बर्फ में गल पाया था। युधिष्ठर ने देखा कि उस के परिजन मर चुके है। उनके शरीर की आत्माऐं निकल चुकी हैं सूक्ष्म शरीर युक्त आकाश को जाने लगी। तब युधिष्ठर ने भी अपना शरीर त्याग दिया तथा सूक्ष्म शरीर युक्त युधिष्ठर कर्मों के संस्कार वश अपने पिता धर्मराज के लोक में गया। धर्मराज ने अपने पुत्र को बहुत प्यार किया तथा उसको रहने का मकान बताया। कुछ समय पश्चात् काल ब्रह्म ने युधिष्ठर में प्रेरणा की। उसे अपने भाईयों व पत्नी द्रोपदी तथा माता कुन्ती की याद सताने लगी। युधिष्ठर ने अपने पिता धर्मराज से कहा हे धर्मराज! मुझे मेरे परिजनों से मिलाईए मुझे उनकी बहुत याद सता रही है। धर्मराज ने कहा युधिष्ठर! वह तेरा परिवार नहीं था। तेरा परिवार तो यह है। तू मेरा पुत्र है। अर्जुन-स्वर्ग के राजा इन्द्र का पुत्र है, भीम-पवन देव का पुत्र है, नकुल-नासत्य का पुत्र है तथा सहदेव-दस्र का पुत्र है। {नासत्य तथा दस्र ये दोनों अश्वनी कुमार हैं जो अश्व रूप धारी सूर्य देव तथा अश्वी (घोड़ी) रूप धारी सूर्य की पत्नी संज्ञा के सम्भोग से उत्पन्न हुए थे। सूर्य को घोड़े रूप में न पहचान कर सूर्य पत्नी जो घोड़ी रूप धार कर जंगल में तप कर रही थी अपने धर्म की रक्षा के लिए घोड़ा रूपधारी सूर्य को पृष्ठ भाग (पीछे) की ओर नहीं जाने दिया वह उस घोड़े से अभिमुख रही। कामवासना वश घोड़ा रूपधारी सूर्य घोड़ी रूपधारी अपनी पत्नी (विश्वकर्मा की पुत्री) के मुख की ओर चढ़कर सम्भोग करने के कारण वीर्य का कुछ अंश घोड़ी रूपधारी सूर्य की पत्नी के पेट में मुख द्वारा प्रवेश कर गया जिससे दो लड़कों (नासत्य तथा दस्र) का जन्म घोड़ी रूपी सूर्य पत्नी के मुख से हुआ जिस कारण ये दोनों बच्चे अश्विनी कुमार कहलाए। यह पुराण कथा है।}

धर्मराज ने अपने पुत्र युधिष्ठर को बताया कि आप सब का वहाँ पृथ्वी लोक में इतना ही संयोग था। वह समाप्त हो चुका है। वे सर्व युद्ध में किए पाप कर्मों तथा अन्य जीवन में किए पाप कर्मों का फल भोगने के लिए नरक में डाल रखे हैं। आप के पुण्य अधिक है इसलिए आप नरक में नहीं डाल रखे हैं। अतः आप उन से नहीं मिल सकते काल ब्रह्म कि प्रबल प्रेरणा वश होकर युधिष्ठर ने उन सर्व (भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, द्रोपदी तथा कुन्ती) को मिलने का हठ किया। धर्मराज ने एक यमदूत से कहा आप युधिष्ठर को इसके परिवार से मिला कर शीघ्र लौटा लाना। यमदूत युधिष्ठर को लेकर नरक में प्रवेश हुआ। वहाँ पर आत्माऐं हा-हाकार मचा रहे थे, कह रहे थे, हे युधिष्ठर हमें नरक से निकलवा दो। मैं अर्जुन हूँ ,कोई कह रहा था, मैं भीम हूँ, मैं नकुल, मैं सहदेव हूँ, मैं कुन्ती, मैं द्रोपदी हूँ। इतने में यमदूत ने कहा हे युधिष्ठर अब आप लौट चलिए। युधिष्ठर ने कहा मैं भी अपने परिवार जनों के साथ यहीं नरक में ही रहूँगा। तब धर्मराज ने आवाज लगाई युधिष्ठर यहाँ आओ मैं तेरे को एक युक्ति बताता हूँ। यह आवाज सुन कर युधिष्ठर अपने पिता धर्मराज के पास लौट आया।

धर्मराज ने युधिष्ठर को समझाया कि बेटा आपने एक झूठ बोला था कि अश्वथामा मर गया फिर दबी आवाज में कहा था पता नहीं मनुष्य था या हाथी। जबकि आप को पता था कि हाथी मरा है। उस झूठ बोलने के पाप का कर्मदण्ड देने के लिए आप को कुछ समय इसी बहाने नरक में रखना पड़ा नहीं तो वह युक्ति मैं पहले ही आप को बता देता। युधिष्ठर ने कहा कृप्या आप वह विधि बताईए जिस से मेरे परिजन नरक से निकल सकें। धर्मराज ने कहा उनको एक शर्त पर नरक से निकाला जा सकता है कि आप अपने कुछ पुण्य उनको संकल्प कर दो। युधिष्ठर ने कहा मुझे स्वीकार है। यह कह कर युधिष्ठर अपने आधे पुण्य उन छः के निमित्त संकल्प कर दिए। वे छःओं नरक से बाहर आकर धर्मराज के पास जहाँ युधिष्ठर खड़ा था उपस्थित हो गए। उसी समय इन्द्र देव आया अपने पुत्र अर्जुन को साथ लेकर चला गया, पवन देवता आया अपने पुत्र भीम को साथ लेकर चला गया। इसी प्रकार अश्विनी कुमार (नासत्य, दस्र) आए नकुल व सहदेव को लेकर चले गए। कुन्ती स्वर्ग में चली गई तथा देखते-2 द्रोपदी ने दुर्गा रूप धारण किया तथा आकाश को उड़ चली कुछ ही समय में सर्व की आँखों से ओझल हो गई। वहाँ अकेला युधिष्ठर अपने पिता धर्मराज के पास रह गया। परमेश्वर कबीर जी ने अपने शिष्य धर्मदास जी को उपरोक्त कथा सुनाई तत्पश्चात् इस सर्व काल के जाल को समझाया।

कबीर परमेश्वर जी ने बताया हे धर्मदास! काल ब्रह्मकी प्रेरणा से इक्कीस ब्रह्मण्डों के प्राणी कर्म करते हैं। जैसा आपने सुना युधिष्ठर पुत्र धर्मराज, अर्जुन पुत्र इन्द्र, भीम पुत्र पवन देव, नकुल पुत्र नासत्य तथा सहदेव पुत्र दस्र थे। द्रोपदी शापवश दुर्गा की अवतार थी जो अपना कर्म भोगने आई थी तथा कुन्ती भी दुर्गा लोक की पुण्यात्मा थी। ये सर्व काल प्रेरणा से पृथ्वी पर एक फिल्म (चलचित्र) बनाने गए थे। जैसे एक करोड़पति का पुत्र किसी फिल्म में रिक्शा चालक का अभिनय करता है। फिल्म निर्माण के पश्चात् अपनी 20 लाख की कार गाड़ी में बैठ कर आनन्द करता है। भोले-भाले सिनेमा दर्शक उसे रिक्शा चालक मान कर उस पर दया करते हैं। उसके बनावटी अभिनय को देखने के लिए अपना बहुमूल्य समय तथा धन नष्ट करते हैं। ठीक इसी प्रकार उपरोक्त पात्रों (युधिष्ठर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, द्रोपदी तथा कुन्ती) द्वारा बनाई फिल्म महाभारत के इतिहास को पढ़-2 कर पृथ्वी लोक के प्राणी अपना समय व्यर्थ करते हैं। तत्त्वज्ञान को न सुनकर मानव शरीर को व्यर्थ कर जाते हैं। काल ब्रह्म यही चाहता है कि मेरे अन्तर्गत जितने भी जीव हैं। वे तत्त्वज्ञान से अपरिचित रहे तथा मेरी प्रेरणा से मेरे द्वारा भेजे गुरूओं द्वारा शास्त्रविधि विस्द्ध साधना प्राप्त करके जन्म-मृत्यु के चक्र में पड़े रहे। काल ब्रह्म की प्रेरणा से तत्त्वज्ञान हीन सन्तजन व ऋषिजन कुछ वेद ज्ञान अधिक लोक वेद के आधार से ही सत्संग वचन श्रद्धालुओं को सुनाते हैं। जिस कारण से साधक पूर्ण मोक्ष प्राप्त न करके काल के जाल में ही रह जाते हैं।

हे धर्मदास! मैं पूर्ण परमात्मा की आज्ञा लेकर तत्त्वज्ञान बताने काल लोक में कलयुग में आया हूँ।

‘‘क्या पाण्डव सदा स्वर्ग में ही रहेंगे?’’

धर्मदास जी ने बन्दी छोड़ कबीर परमेश्वर जी के चरण पकड़ कर कहा हे परमेश्वर! आप स्वयं सत्यपुरूष हो धर्मदास जी ने अति विनम्र होकर आधीन भाव से प्रश्न किया।

प्रश्नः- हे बन्दी छोड़ कबीर परमेश्वर जी! क्या पाण्डव अब सदा स्वर्ग में ही रहेगें?

उत्तरः- नहीं धर्मदास! जो पुण्य युधिष्ठर ने उनको प्रदान किए हैं। उन पुण्यों का तथा स्वयं किए यज्ञ आदि धार्मिक अनुष्ठानों का पुण्य जब स्वर्ग में समाप्त हो जाएगा तब सर्व पुनः नरक में डाले जाऐंगे। युद्ध में किए पाप कर्म तथा उस जीवन में किए पाप कर्म तथा संचित पाप कर्मों के फल को भोगने के लिए नरक में अवश्य गिरना होगा। युधिष्ठर भी अपने आधे पुण्य दान करके पुण्यहीन हो गया है। वह भी शेष पुण्यों को स्वर्ग में समाप्त करके संचित पाप कर्मों के आधार से अवश्य नरक में डाला जाएगा भले ही पाप कर्म कम होने के कारण नरक समय थोड़ा ही भोगना पड़े परन्तु नरक में अवश्य जाना पड़ेगा। जैसे युधिष्ठर ने अश्वथामा मरने की झूठ बोली थी उसका भी पाप कर्मदण्ड भोगने के लिए नरक में कुछ समय के लिए उसी समय ही जाना पड़ा।

इसी प्रकार पूर्व जन्मों के संचित पाप कर्मों का दण्ड नरक में भोगना पड़ेगा। पश्चात् पृथ्वी पर सर्व को अन्य प्राणियों की योनियों में भी जाना होगा। यह काल ब्रह्म का अटल विद्यान है। परन्तु हे धर्मदास! जो साधक पूर्ण परमात्मा की भक्ति पूर्ण गुरू से उपदेश प्राप्त करके आजीवन मर्यादा में रह कर करता है उसके सर्व पाप कर्म ऐसे नष्ट हो जाते है जैसे सुखे घास के बहुत बड़े ढेर को अग्नि की छोटी सी चिंगारी जला कर भस्म कर देती है। उसकी राख को हवा उड़ा कर इधर-उधर कर देती है ठीक इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा की भक्ति का सत्यनाम मन्त्रा रूपी अग्नि घास के ढेर रूपी पाप कर्मों को भस्म कर देता है।

कबीर, जब ही सत्यनाम हृदय धरा, भयो पाप का नाश।
मानो चिंगारी अग्नि की, पड़ी पुराने घास।।

‘‘क्या द्रोपदी भी नरक जाएगी तथा अन्य प्राणियों के शरीर धारण करेगी?’’

प्रश्न:- हे सद्गुरू! क्या द्रोपदी भी पुनः नरक व अन्य योनियों में जाएगी (धर्मदास जी ने परमेश्वर कबीर जी से प्रश्न किया)?

उत्तर:- हाँ धर्मदास! द्रोपदी, दुर्गा का अंश है। अंश का अर्थ है कि दुर्गा के शब्द से शरीर धारण करने वाली आत्मा, द्रोपदी, दुर्गा से अन्य आत्मा है परन्तु जो कष्ट द्रोपदी को होता है उसका प्रभाव दुर्गा को भी होता है। जैसे किसी की बेटी दुःखी होती है तो माता अत्यधिक दुःखी होती है। इस प्रकार द्रोपदी अब दुर्गा लोक में विशेष स्थान पर है। पुण्य समाप्त होने पर फिर नरक तथा अन्य प्राणियों के शरीर अवश्य धारण करेगी। यही दशा कुन्ती वाली आत्मा की होगी।

‘‘कबीर परमेश्वर जी का कलयुग में अवतरण’’

लेखक (अनुवादक) के शब्दों में:- बन्दी छोड़ कबीर परमेश्वर जी ने द्वापर युग में अपने प्रिय शिष्य सुदर्शन वाल्मिीकि जी को शरण में लिया था। भक्त सुदर्शन जी के माता-पिता ने परमेश्वर कबीर जी के ज्ञान को स्वीकार नहीं किया था जिनके नाम थे पिता जी का नाम ‘‘भीखू राम’’ तथा माता जी का नाम ‘‘सुखवन्ती’’। जिस समय दोनों (माता तथा पिता) शरीर त्याग गए तो भक्त सुदर्शन जी अत्यन्त व्याकुल रहने लगे। भक्ति भी कम करते थे। अन्तर्यामी करूणामय जी (द्वापर युग में कबीर परमेश्वर करूणामय नाम से लीला कर रहे थे) ने अपने भक्त के मन की बात जान कर पूछा हे भक्त सुदर्शन! आप को कौन सी चिन्ता सता रही है। क्या माता-पिता का वियोग सता रहा है? या कोई अन्य पारिवारिक परेशानी है ? मुझे बताईए।

भक्त सुदर्शन जी ने कहा हे बन्दी छोड़! हे अन्तर्यामी! आप सर्वज्ञ हैं आप बाहर-भीतर की सर्व स्थिति से परिचित है। हे प्रभु! मुझे मेरे माता-पिता के निधन का दुःख नहीं है क्योंकि वे बहुत वृद्ध हो चुके थे। आप ने बताया है कि यह पाँच तत्त्व का पुतला एक दिन नष्ट होना है। मुझे चिन्ता सता रही है कि मेरे माता-पिता अत्यन्त पुण्यात्मा, दयालु तथा धर्मात्मा थे। उन्होंने अपनी भक्ति लोकवेद अनुसार की थी। जो शास्त्रविधि के विरूद्ध थी। जिस कारण से उनका मानव जीवन व्यर्थ गया। अब पता नहीं किस प्राणी की योनी में कष्ट उठा रहे होंगे? आप से नम्र निवेदन आप का दास करता है कि कभी मेरे माता-पिता मानव शरीर प्राप्त करें तो उन्हें अपनी शरण में लेना परमेश्वर तथा उन्हें भी भवसागर से (काल ब्रह्म के लोक से) पार करना मेरे दाता ! मुझे यही चिन्ता सता रही है। परमेश्वर कबीर जी ने सोचा कि यह भोला भक्त सुदर्शन माता-पिता के मोह में फंस कर काल जाल में ही रहेगा। काल ब्रह्म ने मोह रूपी पाश बहुत दृढ़ बना रखा है। यह विचार कर परमेश्वर कबीर जी ने कहा हे भक्त सुदर्शन ! आप चिन्ता मत करो मैं आप के माता-पिता को अवश्य शरण में लूंगा तथा पार करके ही दम लूंगा। आप सत्य लोक जाओ। यह चिन्ता छोड़ो। परमेश्वर कबीर जी के आश्वासन के पश्चात् भक्त सुदर्शन जी सत्य साधना करके सत्यलोक को गया। पूर्ण मोक्ष प्राप्त किया।

‘‘भक्त सुदर्शन के माता-पिता वाले जीवों के कलयुग के अन्य मानव जन्मों की जानकारी’’

प्रथम बार कुलपति ब्राह्मण (पिता) तथा महेश्वरी (माता) रूप में जन्में। दोनों का विवाह हुआ। संतान नहीं हुई। एक दिन महेश्वरी जी सूर्य की उपासना करते हुए हाथ फैलाकर पुत्र माँग रही थी। उसी समय कबीर परमेश्वर जी उसके हाथों में बालक रूप बनाकर प्रकट हो गए। सूर्य का पारितोष (तोहफा) जानकर बालक को घर ले गई। वे बहुत निर्धन थे। उनको प्रतिदिन एक तोला सोना परमात्मा के बिछौने के नीचे मिलने लगा। यह भी उन्होंने सूर्यदेव की कृपा माना। पाँच वर्ष की आयु का होने पर उनको भक्ति बताई, परंतु बालक जानकर उनको परमात्मा की एक बात पर भी विश्वास नहीं हुआ। उस जन्म में उन्होंने परमात्मा को नहीं पहचाना। जिस कारण से परमेश्वर कबीर जी बालक रूप अंतध्र्यान हो गए। दोनों पति-पत्नी पुत्र मोह में व्याकुल हुए। परमात्मा की सेवा के फलस्वरूप उनको अगला जन्म भी मानव का मिला। चन्दवारा शहर में पुरूष का नाम चंदन तथा स्त्री का नाम उद्धा था। ब्राह्मण कुल में जन्म हुआ। दोनों निःसंतान थे। एक दिन उद्धा सरोवर पर स्नान करने गई। वहाँ कबीर परमेश्वर जी कमल के फूल पर शिशु रूप धारण करके विराजमान हुए। उद्धा बालक कबीर जी को उठाकर घर ले गई। लोकलाज के कारण चन्दन ने पत्नी से कहा कि इस बालक को जहाँ से लाई थी, वहीं छोड़कर आ। कुल के लोग मजाक करेंगे। दोनों पति-पत्नी परमात्मा को लेकर जल में डालने चले तो परमात्मा उनके हाथों से गायब हो गए। दोनों बहुत व्याकुल हुए। परमात्मा का पारितोष न लेने के भय से सारी आयु रोते रहे। अगला जन्म भी मानव का हुआ। कथा इस प्रकार है:-

भक्त सुदर्शन वाल्मीकि के माता-पिता वाले जीवों को कलयुग में तीसरा भी मानव शरीर प्राप्त हुआ। भारत वर्ष के काशी शहर में सुदर्शन के पिता वाले जीव ने एक ब्राह्मण के घर जन्म लिया तथा गौरीशंकर नाम रखा गया तथा सुदर्शन जी की माता वाले जीव ने भी एक ब्राह्मण के घर कन्या रूप में जन्म लिया तथा सरस्वती नाम रखा। युवा होने पर दोनों का विवाह हुआ। गौरी शंकर ब्राह्मण भगवान शिव का उपासक था तथा शिव पुराण की कथा करके भगवान शिव की महिमा का गुणगान किया करता। गौरीशंकर निर्लोभी था। कथा करने से जो धन प्राप्त होता था उसे धर्म में ही लगाया करता था। जो व्यक्ति कथा कराते थे तथा सुनते थे सर्व गौरी शंकर ब्राह्मण के त्याग की प्रसंशा करते थे।

जिस कारण से पूरी काशी में गौरी शंकर की प्रसिद्धि हो रही थी। अन्य स्वार्थी ब्राह्मणों का कथा करके धन इकत्रित करने का धंधा बन्द हो गया। इस कारण से वे ब्राह्मण उस गौरीशंकर ब्राह्मण से ईष्र्या रखते थे। इस बात का पता मुसलमानों को लगा कि एक गौरीशंकर ब्राह्मण काशी में हिन्दू धर्म के प्रचार को जोर-शोर से कर रहा है। इसको किस तरह बन्द करें। मुसलमानों को पता चला कि काशी के सर्व ब्राह्मण गौरीशंकर से ईष्र्या रखते हैं। इस बात का लाभ मुसलमानों ने उठाया। गौरीशंकर व सरस्वती के घर के अन्दर अपना पानी छिड़क दिया। अपना झूठा पानी उनके मुख पर लगा दिया। कपड़ों पर भी छिड़क दिया तथा आवाज लगा दी कि गौरीशंकर तथा सरस्वती मुसलमान बन गए हैं।

पुरूष का नाम नूरअली उर्फ नीरू तथा स्त्री का नाम नियामत उर्फ नीमा रखा। अन्य स्वार्थी ब्राह्मणों को पता चला तो उनका दाव लग गया। उन्होंने तुरन्त ही ब्राह्मणों की पंचायत बुलाई तथा फैसला कर दिया कि गौरीशंकर तथा सरस्वती मुसलमान बन गए हैं अब इनका ब्राह्मण समाज से कोई नाता नहीं रहा है। इनका गंगा में स्नान करने, मन्दिर में जाने तथा हिन्दू ग्रन्थों को पढ़ने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है। गौरीशंकर (नीरू) जी कुछ दिन तो बहुत परेशान रहे। जो कथा करके धन आता था उसी से घर का निर्वाह चलता था। उसके बन्द होने से रोटी के भी लाले पड़ गए। नीरू ने विचार करके अपने निर्वाह के लिए कपड़ा बुनने का कार्य प्रारम्भ किया। जिस कारण से जुलाहा कहलाया। कपड़ा बुनने से जो मजदूरी मिलती थी उसे अपना तथा अपनी पत्नी का पेट पालता था। जिस समय धन अधिक आ जाता तो उसको धर्म में लगा देता था। विवाह को कई वर्ष बीत गए थे। उनको कोई सन्तान नहीं हुई। दोनों पति-पत्नी ने बच्चे होने के लिए बहुत अनुष्ठान किए। साधु सन्तों का आशीर्वाद भी लिया परन्तु कोई सन्तान नहीं हुई। हिन्दुओं द्वारा उन दोनों का गंगा नदी में स्नान करना बन्द कर दिया गया था। उनके निवास स्थान से लगभग चार कि.मी. दूर एक लहर तारा नामक सरोवर था जिस में गंगा नदी का ही जल लहरों के द्वारा नीची पटरी के ऊपर से उछल कर आता था। इसलिए उस सरोवर का नाम लहरतारा पड़ा। उस तालाब में बड़े-2 कमल के फूल उगे हुए थे। मुसलमानों ने गौरीशंकर का नाम नूर अल्ली रखा जो उर्फ नाम से नीरू कहलाया तथा पत्नी का नाम नियामत रखा जो उर्फ नाम से नीमा कहलाई। नीरू-नीमा भले ही मुसलमान बन गए थे परन्तु अपने हृदय से साधना भगवान शंकर जी की ही करते थे तथा प्रतिदिन सवेरे सूर्योदय से पूर्व लहरतारा तालाब में स्नान करने जाते थे।

’’नीरू-नीमा को कबीर परमात्मा की लहरतारा सरोवर में प्राप्ति‘‘

ज्येष्ठ मास की शुक्ल पूर्णमासी विक्रमी संवत् 1455 (सन् 1398) सोमवार को भी ब्रह्म मुहूर्त (ब्रह्म मुहूर्त का समय सूर्योदय से लगभग डेढ़ घण्टा पहले होता है) में स्नान करने के लिए जा रहे थे। नीमा रास्ते में भगवान शंकर से प्रार्थना कर रही थी कि हे दीनानाथ! आप अपने दासों को भी एक बच्चा-बालक दे दो आप के घर में क्या कमी है प्रभु ! हमारा भी जीवन सफल हो जाएगा। दुनिया के व्यंग्य सुन-2 कर आत्मा दुःखी हो जाती है। मुझ पापिन से ऐसी कौन सी गलती किस जन्म में हुई है जिस कारण मुझे बच्चे का मुख देखने को तरसना पड़ रहा है। हमारे पापों को क्षमा करो प्रभु! हमें भी एक बालक दे दो।

यह कह कर नीमा फूट-2 कर रोने लगी तब नीरू ने धैर्य दिलाते हुए कहा हे नीमा! हमारे भाग्य में सन्तान नहीं है यदि भाग्य में सन्तान होती तो प्रभु शिव अवश्य प्रदान कर देते। आप रो-2 कर आँखे खराब कर लोगी। बालक भाग्य में है नहीं जो वृद्ध अवस्था में ऊंगली पकड़ लेता। आप मत रोओ आप का बार-2 रोना मेरे से देखा नहीं जाता। यह कह कर नीरू की आँखे भी भर आई। इसी तरह प्रभु की चर्चा व बालक प्राप्ति की याचना करते हुए उसी लहरतारा तालाब पर पहुँच गए। प्रथम नीमा ने प्रवेश किया, पश्चात् नीरू ने स्नान करने को तालाब में प्रवेश किया। सुबह का अंधेरा शीघ्र ही उजाले में बदल जाता है। जिस समय नीमा ने स्नान किया था उस समय तक तो अंधेरा था। जब कपड़े बदल कर पुनः तालाब पर उस कपड़े को धोने के लिए गई, जिसे पहन कर स्नान किया था, उस समय नीरू तालाब में प्रवेश करके गोते लगा-2 कर मल मल कर स्नान कर रहा था।

नीमा की दृष्टि एक कमल के फूल पर पड़ी जिस पर कोई वस्तु हिल रही थी। प्रथम नीमा ने जाना कोई सर्प है जो कमल के फूल पर बैठा अपने फन को उठा कर हिला रहा है। उसने सोचा कहीं यह सर्प मेरे पति को न डस ले नीमा ने उसको ध्यानपूर्वक देखा वह सर्प नहीं है कोई बालक था। जिसने एक पैर अपने मुख में ले रखा था तथा दूसरे को हिला रहा था। नीमा ने अपने पति से ऊँची आवाज में कहा देखियो जी! एक छोटा बच्चा कमल के फूल पर लेटा है। वह जल में डूब न जाए। नीरू स्नान करते-2 उस की ओर न देख कर बोला नीमा! बच्चों की चाह ने तुझे पागल बना दिया है। अब तुझे जल में भी बच्चे दिखाई देने लगे हैं। नीमा ने अधिक तेज आवाज में कहा मैं सच कह रही हूँ, देखो सचमुच एक बच्चा कमल के फूल पर, वह रहा, देखो! देखो--- नीमा की आवाज में परिवर्तन व अधिक कसक देखकर नीरू ने उस ओर देखा जिस ओर नीमा हाथ से संकेत कर रही थी। कमल के फूल पर नवजात शिशु को देखकर नीरू ने आव देखा न ताव झपट कर कमल के फूल सहित बच्चा उठाकर अपनी पत्नी को दे दिया।

नीमा ने परमेश्वर कबीर जी को सीने से लगाया, मुख चूमा, पुत्रवत् प्यार किया जिस परमेश्वर की खोज में ऋषि-मुनियों ने जीवन भर शास्त्रविधि विरूद्ध साधना की उन्हें नहीं मिला। वही परमेश्वर भक्तमति नीमा की गोद में खेल रहा था। जिस शान्तिदायक परमेश्वर को आन्नद की प्राप्ति के लिए प्राप्त करने की इच्छा से साधना की जाती है वही परमेश्वर नीमा के हाथों में सीने से लगा हुआ था। उस समय जो शीतलता व आनन्द का अनुभव भक्तमति नीमा को हो रहा होगा उस की कल्पना ही की जा सकती है। नीरू स्नान करके जल से बाहर आया। नीरू ने सोचा यदि हम इस बच्चे को नगर में ले जाऐंगे तो शहर वासी हम पर शक करेंगे सोचेंगे कि ये किसी के बच्चे को चुरा कर लाए हैं। कहीं हमें नगर से निकाल दें। इस डर से नीरू ने अपनी पत्नी से कहा नीमा! इस बच्चे को यहीं छोड़ दे इसी में अपना हित है। नीमा बोली हे पति देव ! यह भगवान शंकर का दिया खिलौना है। इस बच्चे ने पता नहीं मुझ पर क्या जादू कर दिया है कि मेरा मन इस बच्चे के वश हो गया है। मैं इस बच्चे को नहीं त्याग सकती। नीरू ने नीमा को अपने मन की बात से अवगत करवाया। बताया कि यह बच्चा नगर वासी हम से छीन लेगें, पूछेंगे कहाँ से लाए हो? हम कहेंगे लहरतारा तालाब में कमल के फूल पर मिला है। हमारी बात पर कोई भी विश्वास नहीं करेगा। हो सकता है वे हमें नगर से भी निकाल दें। तब नीमा ने कहा मैं इस बालक के साथ देश निकाला भी स्वीकार कर लूँगी। परन्तु इस बच्चे को नहीं त्याग सकती। मैं अपनी मृत्यु को भी स्वीकार कर लूँगी। परन्तु इस बच्चे से भिन्न नहीं रह सकूँगी।

नीमा का हठ देख कर नीरू को क्रोध आ गया तथा अपने हाथ को थप्पड़ मारने की स्थिति में उठा कर आँखों में आँसू भरकर करूणाभरी आवाज में बोला नीमा मैंने आज तक तेरी किसी भी बात को नहीं ठुकरवाया। यह जान कर कि हमारे कोई बच्चा नहीं है मैंने तुझे पति तथा पिता दोनों का प्यार दिया है। तू मेरे नम्र स्वभाव का अनुचित लाभ उठा रही है। आज मेरी स्थिति को न समझ कर अपने हठी स्वभाव से मुझे कष्ट दे रही है। विवाहित जीवन में नीरू ने प्रथम बार अपनी पत्नी की ओर थप्पड़ मारने के लिए हाथ उठाया था तथा कहा कि या तो इस बच्चे को यहीं रख दे वरना आज मैं तेरी बहुत पिटाई करूँगा। उसी समय नीमा के सीने से चिपके बालक रूपधारी परमेश्वर बोले हे नीरू! आप मुझे अपने घर ले चलो आप पर कोई आपत्ति नहीं आएगी। मैं सतलोक से चलकर तुम्हारे हित के लिए यहाँ आया हूँ। नवजात शिशु के मुख से उपरोक्त वचन सुनकर नीरू (नूर अल्ली) डर गया कहीं यह कोई देव या पितर या कोई सिद्ध पुरूष न हो और मुझे शाप न दे दे। इस डर से नीरू कुछ नहीं बोला घर की ओर चल पड़ा। पीछे-2 उसकी पत्नी परमेश्वर को प्यार करती हुई चल पड़ी।

’’कबीर जी के सशरीर सत्यलोक से आने का साक्षी‘‘

प्रतिदिन की तरह ज्येष्ठ मास की पूर्णमासी विक्रमी संवत् 1455 (1398ई.) सोमवार को भी एक अष्टानन्द नामक ऋषि, जो स्वामी रामानन्द ऋषि जी के शिष्य थे काशी शहर से बाहर बने लहरतारा तालाब के स्वच्छ जल में स्नान करने के लिए प्रतिदिन की तरह गए। ब्रह्म मुहूर्त का समय था (ब्रह्म मुहूर्त का समय सूर्योदय से लगभग डेढ़ घण्टा पूर्व का होता है) ऋषि अष्टानन्द जी ने लहरतारा तालाब में स्नान किया। वे प्रतिदिन वहीं बैठ कर कुछ समय अपनी पाठ पूजा किया करते थे। ऋषि अष्टानन्द जी ध्यान मग्न होने की चेष्टा कर ही रहे थे उसी समय आकाश से एक प्रकाश पुंज नीचे की ओर आता दिखाई दिया। वह इतना तेज प्रकाश था उसे ऋषि जी की चर्म दृष्टि सहन नहीं कर सकी। जिस प्रकार आँखें सूर्य की रोशनी को सहन नहीं कर पाती। सूर्य के प्रकाश को देखने के पश्चात् आँखे बन्द करने पर सूर्य का आकार दिखाई देता है उसमें प्रकाश अधिक नहीं होता।

इसी प्रकार प्रथम बार परमेश्वर के प्रकाश को देखने से ऋषि जी की आँखे बन्द हो गई बन्द आँखों में शिशु को देख कर फिर से आँखे खोली। ऋषि अष्टानन्द जी ने देखा कि वह प्रकाश लहरतारा तालाब पर उतर गया। जिससे पूरा सरोवर प्रकाश मान हो गया तथा देखते ही देखते वह प्रकाश जलाशय के एक कोने में सिमट गया। ऋषि अष्टानन्द जी ने सोचा यह कैसा दृश्य मैंने देखा? यह मेरी भक्ति की उपलब्धि है या मेरा दृष्टिदोष है? इस के विषय में गुरूदेव, स्वामी रामानन्द जी से पूछूँगा। यह विचार करके ऋषि अष्टानन्द जी अपनी शेष साधना को छोड़ कर अपने पूज्य गुरूदेव के पास गए। स्वामी रामानन्द जी को सर्व घटनाक्रम बताकर पूछा हे गुरूदेव! यह मेरी भक्ति की उपलब्धि है या मेरी भ्रमणा है? मैंने प्रकाश आकाश से नीचे की ओर आते देखा जिसे मेरी आँखे सहन नहीं कर सकी। आँखे बन्द हुई तो नवजात शिशु दिखाई दिया। पुनः आँखें खोली तो उस प्रकाश से पूरा जलाशय ही जगमगा गया, पश्चात् वह प्रकाश उस तालाब के एक कोने में सिमट गया। मैं आप से कारण जानने की इच्छा से अपनी साधना बीच में ही छोड़ कर आया हूँ। कृप्या मेरी शंका का समाधान कीजिए।

ऋषि रामानन्द स्वामी जी ने अपने शिष्य अष्टानन्द से कहा हे ब्राह्मण! यह न तो तेरी भक्ति की उपलब्धि है न आप का दृष्टिदोष ही है। इस प्रकार की घटनाऐं उस समय होती हैं। जिस समय ऊपर के लोकों से कोई देव पृथ्वी पर अवतार धारण करने के लिए आते हैं। वह किसी स्त्री के गर्भ में निवास करता है। फिर बालक रूप धारण करके नर लीला करके अपना अपेक्षित कार्य पूर्ण करता है। कोई देव ऊपर के लोकों से आया है। वह काशी नगर में किसी के घर जन्म लेकर अपना प्रारब्ध पूरा करेगा। उपरोक्त वचनों द्वारा ऋषि रामानन्द स्वामी जी ने अपने शिष्य अष्टानन्द की शंका का समाधान किया। उन ऋषियों की यही धारणा थी की सर्व अवतार गण माता के गर्भ से ही जन्म लेते हैं।

बालक को लेकर नीरू तथा नीमा अपने घर जुलाहा मोहल्ला (काॅलोनी) में आए। जिस भी नर व नारी ने नवजात शिशु रूप में परमेश्वर कबीर जी को देखा वह देखता ही रह गया। परमेश्वर का शरीर अति सुन्दर था। आँख जैसे कमल का फूल हो, घुँघराले बाल, लम्बे हाथ। लम्बी-2 अँगुलियाँ शरीर से मानो नूर झलक रहा हो। पूरी काशी नगरी में ऐसा अद्धभुत बालक नहीं था। जो भी देखता वहीं अन्य को बताता कि नूर अली को एक बालक तालाब पर मिला है आज ही उत्पन्न हुआ शिशु है। डर के मारे लोक लाज के कारण किसी विधवा ने डाला होगा। बालक को देखने के पश्चात् उसके चेहरे से दृष्टि हटाने को दिल नहीं करता, आत्मा अपने आप खिंची जाती है। पता नहीं बालक के मुख पर कैसा जादू है? पूरी काशी परमेश्वर के बालक रूप को देखने को उमड़ पड़ी। स्त्री-पुरूष झुण्ड के झुण्ड बना कर मंगल गान गाते हुए, नीरू के घर बच्चे को देखने को आए।

बच्चे (कबीर परमेश्वर) को देखकर कोई कह रहा था, यह बालक तो कोई देवता का अवतार है, कोई कह रहा था। यह तो साक्षात् विष्णु जी ही आए लगते हैं। कोई कह रहा था यह भगवान शिव ही अपनी काशी नगरी को कृत्तार्थ करने को उत्पन्न हुए हैं। कोई कह रहा था। यह तो किन्नर का अवतार है, कोई कह रहा था। यह पितर नगरी से आया है। यह सर्व वार्ता सुनकर नीमा अप्रसन्न हो कर कहती थी कि मेरे बच्चे के विषय में कुछ मत कहो। हे अल्लाह ! मेरे बच्चे की इनकी नजर से रक्षा करना। तुमने कभी बच्चा देखा भी है कि नहीं। ऐसे समूह के समूह मेरे बालक को देखने आ रहे हो। आने वाले स्त्री-पुरूष बोले हे नीमा। हमने बालक तो बहुत देखे हैं परन्तु आप के बालक जैसा नहीं देखा। इसीलिए हम इसे देखने आए हैं। ऊपर अपने-2 लोकों से श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शिवजी भी झांक कर देखने लगे। काशी के वासियों के मुख से अपने में से (श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा शिव में से) एक यह बालक होने की बात सुनकर बोले कि यह बालक तो किसी अन्य लोक से आया है। इस के मूल स्थान से हम भी अपरिचित हैं परन्तु है बहुत शक्ति युक्त कोई सिद्ध पुरूष है।

‘‘शिशु कबीर परमेश्वर का नामांकन’’

नीरू (नूर अल्ली) तथा नीमा पहले हिन्दू ब्राह्मण-ब्राह्मणी थे। इस कारण लालच वश ब्राह्मण लड़के का नाम रखने आए। उसी समय काजी मुसलमान अपनी पुस्तक र्कुआन शरीफ को लेकर लड़के का नाम रखने के लिए आ गए। उस समय दिल्ली में मुगल बादशाहों का शासन था जो पूरे भारतवर्ष पर शासन करते थे। जिस कारण हिन्दू समाज मुसलमानों से दबता था। काजियों ने कहा लड़के का नाम करण हम मुसलमान विधि से करेंगे अब ये मुसलमान हो चुके हैं। यह कहकर काजियों में मुख्य काजी ने र्कुआन शरीफ पुस्तक को कहीं से खोला। उस पृष्ठ पर प्रथम पंक्ति में प्रथम नाम ‘‘कबीरन्’’ लिखा था। काजियों ने सोचा ‘‘कबीर’’ नाम का अर्थ बड़ा होता है। इस छोटे जाति (जुलाहे अर्थात् धाणक) के बालक का नाम कबीर रखना शोभा नहीं देगा। यह तो उच्च घरानों के बच्चों के नाम रखने योग्य है। शिशु रूपधारी परमेश्वर काजियों के मन के दोष को जानते थे। काजियों ने पुनः पवित्र कुरान शरीफ को नाम रखने के उद्देश्य से खोला। उन दोनों पृष्ठों पर कबीर-कबीर-कबीर अखर लिखे थे अन्य लेख नहीं था। काजियोंने फिर र्कुआन शरीफ को खोला उन पृष्ठों पर भी कबीर-कबीर-कबीर अक्षर ही लिखा था। काजियों ने पूरी र्कुआन का निरीक्षण किया तो उनके द्वारा लाई गई र्कुआन शरीफ में सर्व अक्षर कबीर-कबीर-कबीर-कबीर हो गए काजी बोले इस बालक ने कोई जादू मन्त्रा करके हमारी र्कुआन शरीफ को ही बदल डाला। तब कबीर परमेश्वर शिशु रूप में बोले हे काशी के काजियों। मैं कबीर अल्ला अर्थात् अल्लाहुअकबर, हूँ। मेरा नाम ‘‘कबीर’’ ही रखो। काजियों ने अपने साथ लाई कुरान को वहीं पटक दिया तथा चले गए। बोले इस बच्चे में कोई प्रेत आत्मा बोलती है।

‘‘शिशु कबीर देव द्वारा कुँवारी गाय का दूध पीना’’

बालक कबीर को दूध पिलाने की कोशिश नीमा ने की तो परमेश्वर ने मुख बन्द कर लिया। सर्व प्रयत्न करने पर भी नीमा तथा नीरू बालक को दूध पिलाने में असफल रहे। 25 दिन जब बालक को निराहार बीत गए तो माता-पिता अति चिन्तित हो गए। 24 दिन से नीमा तो रो-2 कर विलाप कर रही थी। सोच रही थी यह बच्चा कुछ भी नहीं खा रहा है। यह मरेगा, मेरे बेटे को किसी की नजर लगी है। 24 दिन से लगातार नजर उतारने की विधि भिन्न भिन्न-2 स्त्री-पुरूषों द्वारा बताई प्रयोग करके थक गई। कोई लाभ नहीं हुआ। आज पच्चीसवाँ दिन उदय हुआ। माता नीमा रात्रि भर जागती रही तथा रोती रही कि पता नहीं यह बच्चा कब मर जाएगा। मैं भी साथ ही फाँसी पर लटक जाऊँगी। मैं इस बच्चे के बिना जीवित नहीं रह सकती बालक कबीर का शरीर पूर्ण रूप से स्वस्थ था तथा ऐसे लग रहा था जैसे बच्चा प्रतिदिन एक किलो ग्राम (एक सेर) दूध पीता हो। परन्तु नीमा को डर था कि बिना कुछ खाए पीए यह बालक जीवित रह ही नहीं सकता। यह कभी भी मृत्यु को प्राप्त हो सकता है। यह सोच कर फूट-2 कर रो रही थी। भगवान शंकर के साथ-साथ निराकार प्रभु की भी उपासना तथा उससे की गई प्रार्थना जब व्यर्थ रही तो अति व्याकुल होकर रोने लगी।

भगवान शिव, एक ब्राह्मण (ऋषि) का रूप बना कर नीरू की झोंपड़ी के सामने खड़े हुए तथा नीमा से रोने का कारण जानना चाहा। नीमा रोती रही हिचकियाँ लेती रही। सन्त रूप में खड़े भगवान शिव जी के अति आग्रह करने पर नीमा रोती-2 कहने लगी हे ब्राह्मण ! मेरे दुःख से परिचित होकर आप भी दुःखी हो जाओगे। फकीर वेशधारी शिव भगवान बोले हे माई! कहते है अपने मन का दुःख दूसरे के समक्ष कहने से मन हल्का हो जाता है। हो सकता है आप के कष्ट को निवारण करने की विधि भी प्राप्त हो जाए। आँखों में आँसू जिव्हा लड़खड़ाते हुए गहरे साँस लेते हुए नीमा ने बताया हे महात्मा जी! हम निःसन्तान थे। पच्चीस दिन पूर्व हम दोनों प्रतिदिन की तरह काशी में लहरतारा तालाब पर स्नान करने जा रहे थे। उस दिन ज्येष्ठ मास की शुक्ल पूर्णमासी की सुबह थी। रास्ते में मैंने अपने इष्ट भगवान शंकर से पुत्र प्राप्ति की हृदय से प्रार्थना की थी मेरी पुकार सुनकर दीनदयाल भगवान शंकर जी ने उसी दिन एक बालक लहरतारा तालाब में कमल के फूल पर हमें दिया। बच्चे को प्राप्त करके हमारे हर्ष का कोई ठिकाना नहीं रहा। यह हर्ष अधिक समय तक नहीं रहा। इस बच्चे ने दूध नहीं पीया। सर्व प्रयत्न करके हम थक चुके हैं। आज इस बच्चे को पच्चीसवां दिन है कुछ भी आहार नहीं किया है। यह बालक मरेगा। इसके साथ ही मैं आत्महत्या करूँगी। मैं इसकी मृत्यु की प्रतिक्षा कर रही हूँ। सर्व रात्रि बैठ कर तथा रो-2 व्यतीत की है। मैं भगवान शंकर से प्रार्थना कर रही हूँ कि हे भगवन्! इससे अच्छा तो यह बालक न देते। अब इस बच्चे में इतनी ममता हो गई है कि मैं इसके बिना जीवित नहीं रह सकूंगी। नीमा के मुख से सर्वकथा सुनकर साधु रूपधारी भगवान शंकर ने कहा। आप का बालक मुझे दिखाईए। नीमा ने बालक को पालने से उठाकर ऋषि के समक्ष प्रस्तुत किया। दोनों प्रभुओं की आपस में दृष्टि मिली। भगवान शंकर जी ने शिशु कबीर जी को अपने हाथों में ग्रहण किया तथा मस्तिष्क की रेखाऐं व हस्त रेखाऐं देख कर बोले नीमा! आप के बेटे की लम्बी आयु है यह मरने वाला नहीं है। देख कितना स्वस्थ है। कमल जैसा चेहरा खिला है। नीमा ने कहा हे विप्रवर! बनावटी सांत्वना से मुझे सन्तोष होने वाला नहीं है। बच्चा दूध पीएगा तो मुझे सुख की साँस आएगी। पच्चीस दिन के बालक का रूप धारण किए परमेश्वर कबीर जी ने भगवान शिव जी से कहा हे भगवन्! आप इन्हें कहो एक कुँवारी गाय लाऐं। आप उस कंवारी गाय पर अपना आशीर्वाद भरा हस्त रखना, वह दूध देना प्रारम्भ कर देगी। मैं उस कुँवारी गाय का दूध पीऊँगा। वह गाय आजीवन बिना ब्याए (अर्थात् कुँवारी रह कर ही) दूध दिया करेगी उस दूध से मेरी परवरिश होगी। परमेश्वर कबीर जी तथा भगवान शंकर (शिव) जी की सात बार चर्चा हुई।

शिवजी ने नीमा से कहा आप का पति कहाँ है? नीमा ने अपने पति को पुकारा वह भीगी आँखों से उपस्थित हुआ तथा ब्राह्मण को प्रणाम किया। ब्राह्मण ने कहा नीरू! आप एक कुँवारी गाय लाओ। वह दूध देवेगी। उस दूध को यह बालक पीएगा। नीरू कुँवारी गाय ले आया तथा साथ में कुम्हार के घर से एक ताजा छोटा घड़ा (चार कि.ग्रा. क्षमता का मिट्टी का पात्र) भी ले आया। परमेश्वर कबीर जी के आदेशानुसार विप्ररूपधारी शिव जी ने उस कंवारी गाय की पीठ पर हाथ मारा जैसे थपकी लगाते हैं। गऊ माता के थन लम्बे-2 हो गए तथा थनों से दूध की धार बह चली। नीरू को पहले ही वह पात्र थनों के नीचे रखने का आदेश दे रखा था। दूध का पात्र भरते ही थनों से दूध निकलना बन्द हो गया। वह दूध शिशु रूपधारी कबीर परमेश्वर जी ने पीया। नीरू नीमा ने ब्राह्मण रूपधारी भगवान शिव के चरण लिए तथा कहा आप तो साक्षात् भगवान शिव के रूप हो। आपको भगवान शिव ने ही हमारी पुकार सुनकर भेजा है। हम निर्धन व्यक्ति आपको क्या दक्षिणा दे सकते हैं? हे विप्र! 24 दिनों से हमने कोई कपड़ा भी नहीं बुना है। विप्र रूपधारी भगवान शंकर बोले! साधु भूखा भाव का, धन का भूखा नाहीं। जो है भूखा धन का, वह तो साधु नाहीं। यह कहकर विप्र रूपधारी शिवजी ने वहाँ से प्रस्थान किया।

विशेष वर्णन अध्याय ’’ज्ञान सागर‘‘ के पृष्ठ 74 तथा ’’स्वसमबेद बोध‘‘ के पृष्ठ 134 पर भी है जो इस प्रकार है:-

’’कबीर सागर के ज्ञान सागर के पृष्ठ 74 पर‘‘

सुत काशी को ले चले, लोग देखन तहाँ आय। अन्न-पानी भक्ष नहीं, जुलहा शोक जनाय।।
तब जुलहा मन कीन तिवाना, रामानन्द सो कहा उत्पाना।। मैं सुत पायो बड़ा गुणवन्ता। कारण कौण भखै नहीं सन्ता।
रामानन्द ध्यान तब धारा। जुलहा से तब बचन उच्चारा।।।
पूर्व जन्म तैं ब्राह्मण जाती। हरि सेवा किन्ही भलि भांति।।
कुछ सेवा तुम हरि की चुका। तातैं भयों जुलहा का रूपा।।
प्रति प्रभु कह तोरी मान लीन्हा। तातें उद्यान में सुत तोंह दिन्हा।।

नीरू वचन

हे प्रभु जस किन्हो तस पायो। आरत हो तव दर्शन आयो।।
सो कहिए उपाय गुसाई। बालक क्षुदावन्त कुछ खाई।।

रामानन्द वचन

रामानन्द अस युक्ति विचारा। तव सुत कोई ज्ञानी अवतारा।।
बछिया जाही बैल नहीं लागा। सो लाई ठाढ़ करो तेही आगै।।
साखी = दूध चलै तेहि थन तें, दूध्हि धरो छिपाई।
क्षूदावन्त जब होवै, तबहि दियो पिलाई।।

चैपाई

जुलहा एक बछिया लै आवा। चल्यो दूत (दूध) कोई मर्म न पावा।।
चल्यो दूध, जुलहा हरषाना। राखो छिपाई काहु नहीं जाना।।।
पीवत दूध बाल कबीरा। खेलत संतों संग जो मत धीरा।।

ज्ञान सागर पृष्ठ 73 पर चैपाई

’’भगवान शंकर तथा कबीर बालक की चर्चा’’

{नोटः- यह प्रकरण अधूरा लिखा है। फिर भी समझने के लिए मेरे ऊपर कृपा है परमेश्वर कबीर जी की। पहले यह वाणी पढ़ें जो ज्ञान सागर के पृष्ठ 73 पर लिखी है, फिर अन्त में सारज्ञान यह दास (रामपाल दास) बताएगा।}

चैपाई

घर नहीं रहो पुरूष (नीरू) और नारी (नीमा)। मैं शिव सों अस वचन उचारी।।
आन के बार बदत हो योग। आपन नार करत हो भोग।।

नोटः- जो वाणी कोष्ठक { } में लिखी हैं, वे वाणी ज्ञान सागर में नहीं लिखी गई हैं जो पुरातन कबीर ग्रन्थ से ली हैं।

{ऐसा भ्रम जाल फलाया। परम पुरूष का नाम मिटाया।}
काशी मरे तो जन्म न होई। {स्वर्ग में बास तास का सोई}
{ मगहर मरे सो गधा जन्म पावा, काशी मरे तो मोक्ष करावा}
और पुन तुम सब जग ठग राखा। काशी मरे हो अमर तुम भाखा
जब शंकर होय तव काला, {ब्रह्मण्ड इक्कीस हो बेहाला}
{तुम मरो और जन्म उठाओ, ओरेन को कैसे अमर कराओ}
{सुनों शंकर एक बात हमारी, एक मंगाओ धेनु कंवारी}
{साथ कोरा घट मंगवाओ। बछिया के पीठ हाथ फिराओ}
{दूध चलैगा थनतै भाई, रूक जाएगा बर्तन भर जाई}
{सुनो बात देवी के पूता। हम आए जग जगावन सूता}
{पूर्ण पुरूष का ज्ञान बताऊँ। दिव्य मन्त्रा दे अमर लोक पहुँचाऊँ}
{तब तक नीरू जुलहा आया। रामानन्द ने जो समझाया}
{रामानन्द की बात लागी खारी। दूध देवेगी गाय कंवारी}
{जब शंकर पंडित रूप में बोले, कंवारी धनु लाओ तौले}
{साथ कोरा घड़ा भी लाना, तास में धेनु दूधा भराना}
{तब जुलहा बछिया अरू बर्तन लाया, शंकर गाय पीठ हाथ लगाया}
{दूध दिया बछिया कंवारी। पीया कबीर बालक लीला धारी}
{नीरू नीमा बहुते हर्षाई। पंडित शिव की स्तुति गाई}
{कह शंकर यह बालक नाही। इनकी महिमा कही न जाई}
{मस्तक रेख देख मैं बोलूं। इनकी सम तुल काहे को तोलूं}
{ऐस नछत्र देखा नाहीं, घूम लिया मैं सब ठाहीं।}
{इतना कहा तब शंकर देवा, कबीर कहे बस कर भेवा}
{मेरा मर्म न जाने कोई। चाहे ज्योति निरंजन होई}
{हम है अमर पुरूष अवतारा, भवसैं जीव ऊतारूं पारा}
{इतना सुन चले शंकर देवा, शिश चरण धर की नीरू नीमा सेवा}
हे स्वामी मम भिक्षा लीजै, सब अपराध क्षमा (हमरे) किजै
{कह शंकर हम नहीं पंडित भिखारी, हम है शंकर त्रिपुरारी।}
{साधु संत को भोजन कराना, तुमरे घर आए रहमाना}
{ज्ञान सुन शंकर लजा आई, अद्भुत ज्ञान सुन सिर चक्राई।}
{ऐसा निर्मल ज्ञान अनोखा, सचमुच हमार है नहीं मोखा}

कबीर सागर अध्याय ‘‘स्वसम वेद बोध‘‘ पृष्ठ 132 से 134 तक परमेश्वर कबीर जी की प्रकट होने वाली वाणी है, परंतु इसमें भी कुछ गड़बड़ कर रखी है। कहा कि जुलाहा नीरू अपनी पत्नी का गौना (यानि विवाह के बाद प्रथम बार अपनी पत्नी को उसके घर से लाना को गौना अर्थात् मुकलावा कहते हैं।) यह गलत है। जिस समय परमात्मा कबीर जी नीरू को मिले, उस समय उनकी आयु लगभग 50 वर्ष थी। विचार करें गौने से आते समय कोई बालक मिल जाए तो कोई अपने घर नहीं रखता। वह पहले गाँव तथा सरकार को बताता है। फिर उसको किसी निःसंतान को दिया जाता है यदि कोई लेना चाहे तो। नहीं तो राजा उसको बाल ग्रह में रखता है या अनाथालय में छोड़ते हैं। नीमा ने तो बच्चे को छोड़ना ही नहीं चाहा था। फिर भी जो सच्चाई वह है ही, हमने परमात्मा पाना है। उसको कैसे पाया जाता है, वह विधि सत्य है तो मोक्ष सम्भव है, ज्ञान इसलिए आवश्यक है कि विश्वास बने कि परमात्मा कौन है, कहाँ प्रमाण है? वह चेष्टा की जा रही है। अब केवल ’’बालक कबीर जी ने कंवारी गाय का दूध पीया था, वे वाणी लिखता हूँ’’।

स्वसम वेद बोध पृष्ठ 134 से

पंडित निज निज भौन सिधारा। बिन भोजन बीते बहु बारा (दिन)।।
बालक रूप तासु (नीरू) ग्रह रहेता। खान पान नाहीं कुछ गहते।
जोलाहा तब मन में दुःख पाई। भोजन करो कबीर गोसांई।।
जोलाहा जोलाही दुखित निहारी। तब हम तिन तें बचन उचारी।।
कोरी (कंवारी) एक बछिया ले आवो। कोरा भाण्डा एक मंगाओ।।
तत छन जोलाहा चलि जाई। गऊ की बछिया कोरी (कंवारी) ल्याई।।
कोरा भाण्डा एक गहाई (ले आई)। भांडा बछिया शिघ्र (दोनों) आई।।
दोऊ कबीर के समुख आना। बछिया दिशा दृष्टि निज ताना।।
बछिया हेठ सो भाण्डा धरेऊ। ताके थनहि दूधते भरेऊ।
दूध हमारे आगे धरही, यहि विधि खान-पान नित करही।।

  1. ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 1 मंत्र 9

अभी इमं अध्न्या उत श्रीणन्ति धेनवः शिशुम्। सोममिन्द्राय पातवे।।9।।

अभी इमम्-अध्न्या उत श्रीणन्ति धेनवः शिशुम् सोमम् इन्द्राय पातवे।

(उत) विशेष कर (इमम्) इस (शिशुम्) बालक रूप में प्रकट (सोमम्) पूर्ण परमात्मा अमर प्रभु की (इन्द्राय) सुखदायक सुविधा के लिए जो आवश्यक पदार्थ शरीर की (पातवे) वृद्धि के लिए चाहिए वह पूर्ति (अभी) पूर्ण तरह (अध्न्या धेनवः) जो गाय, सांड द्वारा कभी भी परेशान न की गई हों अर्थात् कुँवारी गायों द्वारा (श्रीणन्ति) परवरिश की जाती है।

भावार्थ - पूर्ण परमात्मा अमर पुरुष जब लीला करता हुआ बालक रूप धारण करके स्वयं प्रकट होता है सुख-सुविधा के लिए जो आवश्यक पदार्थ शरीर वृद्धि के लिए चाहिए वह पूर्ति कुँवारी गायों द्वारा की जाती है अर्थात् उस समय (अध्नि धेनु) कुँवारी गाय अपने आप दूध देती है जिससे उस पूर्ण प्रभु की परवरिश होती है।

‘‘नीरू को धन की प्राप्ति’’

बालक की प्राप्ति से पूर्व दोनों जने (पति-पत्नी) मिलकर कपड़ा बुनते थे। 25 दिन बच्चे की चिन्ता में कपड़ा बुनने का कोई कार्य न कर सके। जिस कारण से कुछ कर्ज नीरू को हो गया। कर्ज मांगने वाले भी उसी पच्चीसवें दिन आ गए तथा बुरी भली कह कर चले गए। कुछ दिन तक कर्ज न चुकाने पर यातना देने की धमकी सेठ ने दे डाली। दोनों पति -पत्नी अति चिन्तित हो गए। अपने बुरे कर्मों को कोसने लगे। एक चिन्ता का समाधान होता है, दूसरी तैयार हो जाती है। माता-पिता को चिन्तित देख बालक बोला हे माता-पिता! आप चिन्ता न करो। आपको प्रतिदिन एक सोने की मोहर (दस ग्राम स्वर्ण) पालने के बिछौने के नीचे मिलेगी। आप अपना कर्ज उतार कर अपना तथा गऊ का खर्च निकाल कर शेष बचे धन को धर्म कर्म में लगाना। उस दिन के पश्चात् दस ग्राम स्वर्ण प्रतिदिन नीरू के घर परमेश्वर कबीर जी की कृपा से मिलने लगा। यह क्रिया एक वर्ष तक चलती रही। परमेश्वर कबीर जी ने मुहर (सोने का सिक्का) मिलने वाली लीला को गुप्त रखने को कहा था एक दिन नीमा की प्रिय सखी उसी समय नीरू के घर पर आई जिस समय वह कबीर जी को जगाने का प्रयत्न कर रही थी। नीमा की सखी ने वह स्वर्ण मुहर देख ली तथा बोली इतना सोना आपके पास कैसे आया। नीमा ने अपनी प्रिय सखी से सर्व गुप्त भेद कह सुनाया कि हमें तो एक वर्ष से यह मुहर प्रतिदिन प्राप्त हो रही है। हमारे घर पर भाग्यशाली लड़का कबीर जब से आया है। हम तो आनन्द से रहते हैं। अगले दिन ही सोना मिलना बंद हो गया। नीरू तथा नीमा दोनों मिलकर कपड़ा बुनकर अपने परिवार का पालन पोषण करने लगे। बड़ा होकर बालक कबीर भी पिता के काम में हाथ बटाने लगा। थोड़े ही समय में अधिक बुनाई करने लगा।

‘‘ऋषि रामानन्द, सेऊ, सम्मन तथा नेकी व कमाली के पूर्व जन्मों का ज्ञान’’

ऋषि रामानन्द जी का जीव सत्ययुग में विद्याधर ब्राह्मण था जिसे परमेश्वर सत्य सुकृत नाम से मिले थे। त्रेता युग में वह वेदविज्ञ नामक ऋषि था जिसको परमेश्वर मुनिन्द्र नाम से शिशु रूप में प्राप्त हुए थे तथा कमाली वाली आत्मा सत्य युग में विद्याधर की पत्नी दीपिका थी। त्रेता युग में सूर्या नाम की वेदविज्ञ ऋषि की पत्नी थी। उस समय इन्होनें परमेश्वर को पुत्रवत् पाला तथा प्यार किया था। उसी पुण्य के कारण ये आत्माऐं परमात्मा को चाहने वाली थी। कलयुग में भी इनका परमेश्वर के प्रति अटूट विश्वास था। ऋषि रामानन्द व कमाली वाली आत्माऐं ही सत्ययुग में ब्राह्मण विद्याधर तथा ब्राह्मणी दीपीका वाली आत्माऐं थी जिन्हें ससुराल से आते समय कबीर परमेश्वर एक तालाब में कमल के फूल पर शिशु रूप में मिले थे। यही आत्माऐं त्रेता युग में (वेदविज्ञ तथा सूर्या) ऋषि दम्पति थे। जिन्हें परमेश्वर शिशु रूप में प्राप्त हुए थे। सम्मन तथा नेकी वाली आत्माऐं द्वापर युग में कालू वाल्मीकि तथा उसकी पत्नी गोदावरी थी। जिन्होंने द्वापर युग में परमेश्वर कबीर जी का शिशु रूप में लालन-पालन किया था। उसी पुण्य के फल स्वरूप परमेश्वर ने उन्हें अपनी शरण में लिया था। सेऊ (शिव) वाली आत्मा द्वापर में ही एक गंगेश्वर नामक ब्राह्मण का पुत्र गणेश था। जिसने अपने पिता के घोर विरोध के पश्चात् भी मेरे उपदेश को नहीं त्यागा था तथा गंगेश्वर ब्राह्मण वाली आत्मा कलयुग में शेख तकी बना। वह द्वापर युग से ही परमेश्वर का विरोधी था। गंगेश्वर वाली आत्मा शेख तकी को काल ब्रह्म ने फिर से प्रेरित किया। जिस कारण से शेख तकी (गंगेश्वर) परमेश्वर कबीर जी का शत्रु बना। भक्त श्री कालू तथा गोदावरी का गणेश माता-पिता तुल्य सम्मान करता था। रो-2 कर कहता था काश आज मेरा जन्म आप (वाल्मीकि) के घर होता। मेरे (पालक) माता-पिता (कालू तथा गोदावरी) भी गणेश से पुत्रवत् प्यार करते थे। उनका मोह भी उस बालक में अत्यधिक हो गया था। इसी कारण से वे फिर से उसी गणेश वाली आत्मा अर्थात् सेऊ के माता-पिता (नेकी तथा सम्मन) बने। सम्मन की आत्मा ही नौशेरवाँ शहर में नौशेरखाँ राजा बना। फिर बलख बुखारे का बादशाह अब्राहिम अधम सुलतान हुआ तब उसको पुनः भक्ति पर लगाया।

‘‘शिशु कबीर की सुन्नत करने का असफल प्रयत्न’’

शिशु रूपधारी कबीर देव की सुन्नत करने का समय आया तो पूरा जन समूह सम्बन्धियों का इकट्ठा हो गया। नाई जब शिशु कबीर जी के लिंग को सुन्नत करने के लिए कैंची लेकर गया तो परमेश्वर ने अपने लिंग के साथ एक लिंग और बना लिया। फिर उस सुन्नत करने को तैयार व्यक्ति की आँखों के सामने तीन लिंग और बढ़ते दिखाए कुल पाँच लिंग एक बालक के देखकर वह सुन्नत करने वाला आश्चर्य में पड़ गया। तब कबीर जी शिशु रूप में बोले भईया एक ही लिंग की सुन्नत करने का विधान है ना मुसलमान धर्म में। बोल शेष चार की सुन्नत कहाँ करानी है? जल्दी बोल! शिशु को ऐसे बोलते सुनकर तथा पाँच लिंग बालक के देख कर नाई ने अन्य उपस्थित व्यक्तियों को बुलाकर वह अद्धभुत दृश्य दिखाया।

सर्व उपस्थित जन समूह यह देखकर अचम्भित हो गया। आपस में चर्चा करने लगे यह अल्लाह का कैसा कमाल है एक बच्चे को पाँच पुरूष लिंग। यह देखकर बिना सुन्नत किए ही चला गया। बच्चे के पाँच लिंग होने की बात जब नीरू व नीमा को पता चला तो कहने लगे आप क्या कह रहे हो। यह नहीं हो सकता। दोनों बालक के पास गए तो शिशु को केवल एक ही पुरूष लिंग था पाँच नहीं थे। तब उन दोनों ने उन उपस्थित व्यक्तियों से कहा आप क्या कह रहे थे देखो कहाँ हैं बच्चे के पाँच लिंग केवल एक ही है। उपस्थित सर्व व्यक्तियों ने पहले आँखों देखे थे पांच पुरूष लिंग तथा उस समय केवल एक ही लिंग (पेशाब इन्द्री) को देखकर आश्चर्य चकित हो गए। तब शिशु रूप धारी परमेश्वर बोले है भोले लोगो! आप लड़के का लिंग किसलिए काटते हो? क्या लड़के को बनाने में अल्लाह (परमेश्वर) से चूक रह गई जिसे आप ठीक करते हो। क्या आप परमेश्वर से भी बढ़कर हो? यदि आप लड़के के लिंग की चमड़ी आगे से काट कर (सुन्नत करके) उसे मुसलमान बनाते हो तो लड़की को मुसलमान कैसे बनाओगे। यदि मुसलमान धर्म के व्यक्ति अन्य धर्मों के व्यक्तियों से भिन्न होते तो परमात्मा ही सुन्नत करके लड़के को जन्म देता। हे भोले इन्सानों! परमेश्वर के सर्व प्राणी हैं। कोई वर्तमान में मुसलमान समुदाय में जन्मा है तो वह मृत्यु उपरान्त हिन्दू या ईसाई धर्म में भी जन्म ले सकता है। इसी प्रकार अन्य धर्मों में जन्में व्यक्ति भी मुसलमान धर्म व अन्य धर्म में जन्म लेते हैं। ये धर्म की दिवारे खड़ी करके आपसी भाई चारा नष्ट मत करो। यह सर्व काल ब्रह्म की चाल है। कलयुग से पहले अन्य धर्म नहीं थे। केवल एक मानव धर्म (मानवता धर्म) ही था। अब कलयुग में काल ब्रह्म ने भिन्न-2 धर्मों में बांट कर मानव की शान्ति समाप्त कर दी है। सुन्नत के समय उपस्थित व्यक्ति बालक मुख से सद्उपदेश सुनकर सर्व दंग रह गए। माता-नीमा ने बालक के मुख पर कपड़ा ढक दिया तथा बोली घना मत बोल। काजी सुन लेंगे तो तुझे मार डालेंगे वो बेरहम हैं बेटा। परमेश्वर कबीर जी माता के हृदय के कष्ट से परिचित होकर सोने का बहाना बना कर खराटे भरने लगे। तब नीमा ने सुख की सांस ली तथा अपने सर्व सम्बन्धियों से प्रार्थना की आप किसी को मत बताना कि कबीर ने कुछ बोला है। कहीं मुझे बेटे से हाथ धोने पड़ें। छः महीने की आयु में परमेश्वर पैरों चलने लगे।

‘‘ऋषि रामानन्द का उद्धार करना’’

‘‘ऋषि रामानन्द स्वामी को गुरु बना कर शरण में लेना’’

स्वामी रामानन्द जी अपने समय के सुप्रसिद्ध विद्वान कहे जाते थे। वे द्राविड़ से काशी नगर में वेद व गीता ज्ञान के प्रचार हेतु आए थे। उस समय काशी में अधिकतर ब्राह्मण शास्त्रविरूद्ध भक्तिविधि के आधार से जनता को दिशा भ्रष्ट कर रहे थे। भूत-प्रेतों के झाड़े जन्त्रा करके वे काशी शहर के ब्राह्मण अपना स्वार्थ सिद्ध कर रहे थे। स्वामी रामानन्द जी ने काशी शहर में वेद ज्ञान व गीता जी तथा पुराणों के ज्ञान को अधिक महत्त्व दिया तथा वह भूत-प्रेत उतारने वाली पूजा का अन्त किया अपने ज्ञान के प्रचार के लिए चैदह सौ ऋषि बना रखे थे। {स्वामी रामानन्द जी ने कबीर परमेश्वर जी की शरण में आने के पश्चात् चैरासी शिष्य और बनाए थे जिनमें रविदास जी नीरू-नीमा, गीगनौर (राजस्थान) के राजा पीपा ठाकुर आदि थे कुल शिष्यों की संख्या चैदह सौ चैरासी कही जाती है } वे चैदह सौ ऋषि विष्णु पुराण, शिव पुराण तथा देवी पुराण आदि मुख्य-2 पुराणों की कथा करते थे। प्रतिदिन बावन (52) सभाऐं ऋषि जन किया करते थे। काशी के क्षेत्र विभाजित करके मुख्य वक्ताओं को प्रवचन करने को स्वामी रामानन्द जी ने कह रखा था। स्वयं भी उन सभाओं में प्रवचन करने जाते थे। स्वामी रामानन्द जी का बोल बाला आस-पास के क्षेत्र में भी था। सर्व जनता कहती थी कि वर्तमान में महर्षि रामानन्द स्वामी तुल्य विद्वान वेदों व गीता जी तथा पुराणों का सार ज्ञाता पृथ्वी पर नहीं है। परमेश्वर कबीर जी ने अपने स्वभाव अनुसार अर्थात् नियमानुसार रामानन्द स्वामी को शरण में लेना था। कबीर जी ने सन्त गरीबदास जी को अपना सिद्धान्त बताया है जो सन्त गरीबदास जी (बारहवें पंथ प्रवर्तक, छुड़ानी धाम, हरियाणा वाले) ने अपनी वाणी में लिखा हैः-

गरीब जो हमरी शरण है, उसका हूँ मैं दास। गेल-गेल लाग्या फिरूं जब तक धरती आकाश।।
गोता मारूं स्वर्ग में जा पैठू पाताल। गरीबदास ढूढत फिरूं अपने हीरे माणिक लाल।
हरदम संगी बिछुड़त नाहीं है महबूब सल्लौना वो। एक पलक में साहेब मेरा फिरता चैदह भवना वो।
ज्यों बच्छा गऊ की नजर में यूं साई कूँ सन्त। भक्तों के पीछे फिरै भक्त वच्छल भगवन्त।
कबीर कमाई आपनी कबहूँ न निष्फल जायें। सात समुन्दर आढे पड़ैं मिले अगाऊ आय।।

सतयुग में विद्याधर नामक ब्राह्मण के रूप में तथा त्रेतायुग में वेदविज्ञ ऋषि के रूप में जन्में स्वामी रामानन्द जी वाले जीव ने परमेश्वर कबीर जी को बालक रूप में प्राप्त किया था। भक्तमति कमाली वाला जीव उस समय दीपिका नाम की विद्याधर ब्राह्मण की पत्नी थी। वही दीपिका वाली आत्मा वेदविज्ञ ब्राह्मण की पत्नी सूर्या थी। जो कलयुग में कमाली बनी। यही दोनों आत्माऐं त्रेता युग में ऋषि दम्पति (वेदविज्ञ तथा सूर्या) था। उस समय भी परमेश्वर कबीर बन्दी छोड़ जी शिशु रूप में इन्हें मिले थे। इस के पश्चात् भी इन दोनों जीवों को अनेकों जन्म व स्वर्ग प्राप्ति भी हुई थी। वही आत्माऐं कलयुग में परमेश्वर कबीर जी के समकालीन हुई थी। पूर्व जन्म के सन्त सेवा के पुण्य अनुसार परमेश्वर कबीर जी ने उन पुण्यात्माओं को शरण में लेने के लिए लीला की।

स्वामी रामानन्द जी की आयु 104 वर्ष थी उस समय कबीर देव जी के लीलामय शरीर की आयु 5 (पाँच) वर्ष थी। स्वामी रामानन्द जी महाराज का आश्रम गंगा दरिया के आधा किलो मीटर दूर स्थित था। स्वामी रामानन्द जी प्रतिदिन सूर्योदय से पूर्व गंगा नदी के तट पर बने पंचगंगा घाट पर स्नान करने जाते थे। पाँच वर्षीय कबीर देव ने अढ़ाई (दो वर्ष छः महीने) वर्ष के बच्चे का रूप धारण किया तथा पंच गंगा घाट की पौड़ियों (सीढ़ियों) में लेट गए। स्वामी रामानन्द जी प्रतिदिन की भांति स्नान करने गंगा दरिया के घाट पर गए। अंधेरा होने के कारण स्वामी रामानन्द जी बालक कबीर देव को नहीं देख सके। स्वामी रामानन्द जी के पैर की खड़ाऊ (लकड़ी का जूता) सीढ़ियों में लेटे बालक कबीर देव के सिर में लगी। बालक कबीर देव लीला करते हुए रोने लगे जैसे बच्चा रोता है। स्वामी रामानन्द जी को ज्ञान हुआ कि उनका पैर किसी बच्चे को लगा है जिस कारण से बच्चा पीड़ा से रोने लगा है। स्वामी जी बालक को उठाने तथा चुप करने के लिए शीघ्रता से झुके तो उनके गले की माला (एक रूद्राक्ष की कण्ठी माला) बालक कबीर देव के गले में डल गई। जिसे स्वामी रामानन्द जी नहीं देख सके। स्वामी रामानन्द जी ने बच्चे को प्यार से कहा बेटा राम-राम बोल राम नाम से सर्व कष्ट दूर हो जाता है। ऐसा कह कर बच्चे के सिर को सहलाया। आशीर्वाद देते हुए सिर पर हाथ रखा। बालक कबीर परमेश्वर अपना उद्देश्य पूरा होने पर चुप होकर पौड़ियों पर बैठ गए तथा एक शब्द गाया और चल पड़े:-

(यह शब्द अगम निगम बोध के पृष्ठ 34 पर लिखा है।)

गुरू रामानंद जी समझ पकड़ियो मोरी बाहीं।। जो बालक रून झुनियां खेलत सो बालक हम नाहीं।।
हम तो लेना सत का सौद हम ना पाखण्ड पूजा चाहीं।। बांह पकड़ो तो दृढ़ का पकड़ बहुर छुट न जाई।।
जो माता से जन्मा वह नहीं इष्ट हमारा।। राम-कृष्ण मरै विष्णु साथै जामण हारा।।
तीन गुण हैं तीनों देवता, निरंजन चैथा कहिए। अविनाशी प्रभु इस सब से न्यारा, मोकूं वह चाहिए।।
पांच तत्त्व की देह ना मेरी, ना कोई माता जाया। जीव उदारन तुम को तारन, सीधा जग में आया।।
राम-राम और ओम् नाम यह सब काल कमाई। सतनाम दो मोरे सतगुरू तब काल जाल छुटाई।।
सतनाम बिन जन्में-मरें परम शान्ति नाहीं। सनातन धाम मिले न कबहु, भावें कोटि समाधि लाई।।
सार शब्द सरजीवन कहिए, सब मन्त्रन का सरदारा। कह कबीर सुनो गुरू जी या विधि उतरें पारा।।_

स्वामी रामानन्द जी ने विचार किया कि वह बच्चा रात्रि में रास्ता भूल जाने के कारण यहाँ आकर सो गया होगा। इसे अपने आश्रम में ले जाऊँगा। वहाँ से इसे इनके घर भिजवा दूँगा। ऐसा विचार करके स्नान करने लगे। परमेश्वर कबीर जी वहाँ से अन्तध्र्यान हुए तथा अपनी झोंपड़ी में सो गए। कबीर परमेश्वर ने इस प्रकार स्वामी रामानन्द जी को गुरु धारण किया।

‘‘ऋषि विवेकानन्द जी से ज्ञान चर्चा’’

स्वामी रामानन्द जी का एक शिष्य ऋषि विवेकानन्द जी बहुत ही अच्छे प्रवचन कत्र्ता रूप में प्रसिद्ध था। ऋषि विवेकानन्द जी को काशी शहर के एक क्षेत्र का उपदेशक नियुक्त किया हुआ था। उस क्षेत्र के व्यक्ति ऋषि विवेकानन्द जी के धारा प्रवाह प्रवचनों को सुनकर उनकी प्रसंशा किये बिना नहीं रहते थे। उसकी कालोनी में बहुत प्रतिष्ठा बनी थी। प्रतिदिन की तरह ऋषि विवेकानन्द जी विष्णु पुराण से कथा सुना रहे थे। कह रहे थे, भगवान विष्णु सर्वेश्वर हैं, अविनाशी, अजन्मा हैं। सर्व सृष्टि रचनहार तथा पालन हार हैं। इनके कोई जन्मदाता माता-पिता नहीं है। ये स्वयंभू हैं। ये ही त्रेतायुग में अयोध्या के राजा दशरथ जी के घर माता कौशल्या देवी की पवित्र कोख से उत्पन्न हुए थे तथा श्री रामचन्द्र नाम से प्रसिद्ध हुए। समुद्र पर सेतु बनाया, जल पर पत्थर तैराए। लंकापति रावण का वध किया। श्री विष्णु भगवान ही ने द्वापर युग में श्री कृष्णचन्द्र भगवान का अवतार धार कर वासुदेव जी के रूप में माता देवकी के गर्भ से जन्म लिया तथा कंस, केशि,शिशुपाल, जरासंध आदि दुष्टों का संहार किया। पाँच वर्षीय बालक कबीर देव जी भी उस ऋषि विवेकानन्द जी का प्रवचन सुन रहे थे तथा सैंकड़ों की संख्या में अन्य श्रोता गण भी उपस्थित थे। ऋषि विवेकानन्द जी ने अपने प्रवचनों को विराम दिया तथा उपस्थित श्रोताओं से कहा यदि किसी को कोई प्रश्न करना है तो वह निःसंकोच अपनी शंका का समाधान करा सकता है।

बालक कबीर परमेश्वर खड़े हुए तथा ऋषि विवेकानन्द जी से करबद्ध होकर प्रार्थना कि हे ऋषि जी ! आपने भगवान विष्णु जी के विषय में बताया कि ये अजन्मा हैं, अविनाशी है। इनके कोई माता-पिता नहीं हैं। एक दिन एक ब्राह्मण श्री शिव पुराण के रूद्र संहिता अध्याय 6, 7 को पढ़ कर श्रोताओं को सुना रहे थे, यह दास भी उस सत्संग में उपस्थित था। शिव पुराण में लिखा है कि निराकार परमात्मा आकार में आया वह सदाशिव, काल रूपी ब्रह्म कहलाया। उसने अपने अन्दर से एक स्त्री प्रकट की जो प्रकृति देवी, अष्टांगी, त्रिदेव जननी, शिवा आदि नामों से जानी जाती है। काल रूपी ब्रह्म ने एक काशी नामक सुन्दर स्थान बनाया वहाँ दोनों शिव तथा शिवा अर्थात् काल रूपी ब्रह्म तथा दुर्गा पति-पत्नी रूप में निवास करने लगे। कुछ समय पश्चात् दोनों के सम्भोग से एक लड़का उत्पन्न हुआ। उसका नाम विष्णु रखा। इसी प्रकार दोनों के रमण करने से एक पुत्र उत्पन्न हुआ उसका नाम ब्रह्मा रखा तथा कमल के फूल पर डाल कर अचेत कर दिया। फिर अध्याय 9 के अन्त में लिखा है कि ‘‘ब्रह्मा रजगुण है, विष्णु सतगुण है तथा शंकर तमगुण है परन्तु सदा शिव इनसे भिन्न है वह गुणातीत है। यहाँ पर सदाशिव के अतिरिक्त तीन देव श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री शिवजी भी है। इससे सिद्ध हुआ कि इन त्रिदेवों की जननी दुर्गा अर्थात् प्रकृति देवी है तथा पिता काल ब्रह्म है। इन तीनों प्रभुओं विष्णु आदि का जन्म हुआ है इनके माता-पिता भी है।

एक दिन मैंने एक ब्राह्मण द्वारा श्री देवी पुराण के तीसरे स्कंद में अध्याय 4-5 में सुना था कि जिसमें भगवान विष्णु ने कहा है ‘‘इन प्रकृति देवी अर्थात् दुर्गा को मैंने पहले भी देखा था मुझे अपने बचपन की याद आई है। मैं एक वट वृक्ष के नीचे पालने में लेटा हुआ था। यह मुझे पालने में झूला रही थी। उस समय में बालक रूप में था। प्रकृति देवी के निकट जाकर तीनों देव (त्रिदेव) श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री शिवजी करबद्ध होकर खड़े हो गए। भगवान विष्णु ने देवी की स्तुति की ‘‘तुम शुद्ध स्वरूपा हो, यह संसार तुम ही से उद्भाषित हो रहा है। हमारा अविर्भाव अर्थात् जन्म तथा तिरोभाव अर्थात् मृत्यु होती है। हम अविनाशी नहीं है। तुम अविनाशी हो। प्रकृति देवी हो। भगवान शंकर बोले, हे माता! यदि आप ही के गर्भ से भगवान विष्णु तथा भगवान ब्रह्मा का जन्म हुआ है तो क्या मैं तमोगुणी लीला करने वाला शंकर आपका पुत्र नहीं हुआ? अर्थात् मुझे भी जन्म देने वाली तुम ही हो।

हे ऋषि विवेकानन्द जी! आप कह रहे हो कि पुराणों में लिखा है कि भगवान विष्णु के तो कोई माता-पिता नहीं। ये अविनाशी हैं। इन पुराणों का ज्ञान दाता एक श्री ब्रह्मा जी हैं तथा लेखक भी एक ही श्री व्यास जी हैं। जबकि पुराणों में तो भगवान विष्णु नाशवान लिखे हैं। इनके माता-पिता का नाम भी लिखा है। क्यों जनता को भ्रमित कर रहे हो।

कबीर, बेद पढे पर भेद ना जाने, बाचें पुराण अठारा। जड़ को अंधा पान खिलावें, भूले सिर्जन हारा।।

कबीर परमेश्वर जी के मुख कमल से उपरोक्त पुराणों में लिखा उल्लेख सुनकर ऋषि विवेकानन्द अति क्रोधित हो गया तथा उपस्थित श्रोताओं से बोले यह बालक झूठ बोल रहा है। पुराणों में ऐसा नहीं लिखा है। उपस्थित श्रोताओं ने भी सहमति व्यक्त की कि हे ऋषि जी आप सत्य कह रहे हो यह बालक क्या जाने पुराणों के गूढ़ रहस्य को? आप विद्वान पुरूष परम विवेकशील हो। आप इस बच्चे की बातों पर ध्यान न दो। ऋषि विवेकानन्द जी ने पुराणों को उसी समय देखा जिसमें सर्व विवरण विद्यमान था। परन्तु मान हानि के भय से अपने झूठे व्यक्तव्य पर ही दृढ़ रहते हुए कहा हे बालक तेरा क्या नाम है? तू किस जाति में जन्मा है। तूने तिलक लगाया है। क्या तूने कोई गुरु धारण किया है? शीघ्र बताइए।

कबीर परमेश्वर जी ने बोलने से पहले ही श्रोता बोले हे ऋषि जी! इसका नाम कबीर है, यह नीरू जुलाहे का पुत्र है। कबीर जी बोले ऋषि जी मेरा यही परिचय है जो श्रोताओं ने आपको बताया। मैंने गुरु धारण कर रखा है। ऋषि विवेकानन्द जी ने पूछा क्या नाम है तेरे गुरुदेव का? परमेश्वर कबीर जी ने कहा मेरे पूज्य गुरुदेव वही हैं जो आपके गुरुदेव हैं। उनका नाम है पंडित रामानन्द स्वामी। जुलाहे के बालक कबीर परमेश्वर जी के मुख कमल से स्वामी रामानन्द जी को अपना गुरु जी बताने से ऋषि विवेकानन्द जी ने ज्ञान चर्चा का विषय बदल कर परमेश्वर कबीर जी को बहुत बुरा-भला कहा तथा श्रोताओं को भड़काने व वास्तविक विषय भूलाने के उद्देश्य से कहा देखो रे भाईयो! यह कितना झूठा बालक है। यह मेरे पूज्य गुरुदेव श्री 1008 स्वामी रामानन्द जी को अपना गुरु जी कह रहा है। मेरे गुरु जी तो इन अछूतों के दर्शन भी नहीं करते। शुद्रों का अंग भी नहीं छूते। अभी जाता हूँ गुरु जी को बताता हूँ। भाई श्रोताओ! आप सर्व कल स्वामी जी के आश्रम पर आना सुबह-2। इस झूठे की कितनी पिटाई स्वामी रामानन्द जी करेगें? इसने हमारे गुरुदेव का नाम मिट्टी में मिलाया है। सर्व श्रोता बोले यह बालक मूर्ख, झूठा, गंवार है आप विद्वान हो। कबीर जी ने कहाः-

निरंजन धन तेरा दरबार-निरंजन धन तेरा दरबार। जहां पर तनिक ना न्याय विचार। (टेक)
वैश्या ओढे मल-मल खासा गल मोतियों का हार। पतिव्रता को मिले न खादी सूखा निरस आहार।।
पाखण्डी की पूजा जग में सन्त को कहे लबार। अज्ञानी को परम विवेकी, ज्ञानी को मूढ गंवार।।
कह कबीर सुनो भाई साधो सब उल्टा व्यवहार। सच्चों को तो झूठ बतावें, इन झूठों का एतबार।।

बन्दी छोड़ कबीर परमेश्वर जी अपने घर चले गए। वह ऋषि विवेकानन्द अपने गुरु रामानन्द स्वामी जी के आश्रम में गया तथा सर्व घटना की जानकारी बताई। हे स्वामी जी! एक छोटी जाति का जुलाहे का लड़का कबीर अपने आप को बड़ा विद्वान् सिद्ध करने के लिए भगवान् विष्णु जी को नाशवान बताता है। हे ऋषि जी! उसने तो हम ब्रह्मणों का घर से निकलना भी दूभर कर दिया है। हमारी नाक काट डाली अर्थात् हमें महा शर्मिन्दा (लज्जित) होना पड़ रहा है। उसने कल भरी सभा में कहा है कि पंड़ित रामानन्द स्वामी मेरे गुरु जी हैं। मैंने उनसे दिक्षा ले रखी है। उस कबीर ने तिलक भी लगा रखा था जैसा हम वैष्णव सन्त लगाते है। अपने शिष्य विवेकानन्द की बात सुनकर स्वामी रामानन्द जी बहुत क्रोधित होकर बोले हे विवेकानन्द कल सुबह उसे मेरे सामने उपस्थित करो। देखना सर्व के समक्ष उसकी झूठ का पर्दाफाश करूँगा।

‘‘कबीर जी द्वारा स्वामी रामानन्द के मन की बात बताना’’

दूसरे दिन विवेकानन्द ऋषि अपने साथ नौ व्यक्तियों को लेकर जुलाहा काॅलोनी में नीरू के मकान के विषय में पूछने लगा कि नीरू का मकान कौन सा है? कालोनी के एक व्यक्ति को उनके आव-भाव से लगा कि ये कोई अप्रिय घटना करने के उद्देश्य से आए हैं। उसने शीघ्रता से नीरू को जाकर बताया कि कुछ ब्राह्मण आपके घर आ रहे हैं। उनकी नीयत झगड़ा करने की है। नीमा भी वहीं खड़ी उस व्यक्ति की बातें सुन रही थी उसी समय वे ब्राह्मण गली में नीरू के मकान की ओर आते दिखाई दिए। नीमा समझ गई कि अवश्य कबीर ने इन ब्राह्मणों से ज्ञान चर्चा की है। वे ईष्र्यालु व्यक्ति मेरे बेटे को मार डालेगें। इतना विचार करके सोए हुए बालक कबीर को जगाया तथा अपनी झोंपड़ी के पीछे ले गई वहाँ लेटा कर रजाई डाल दी तथा कहा बेटा बोलना नहीं है। कुछ व्यक्ति झगड़ा करने के उद्देश्य से अपने घर आ रहे हैं। नीमा अपने घर के द्वार पर गली में खड़ी हो गई। तब तक वे ब्राह्मण घर के निकट आ चुके थे। उन्होंने पूछा क्या नीरू का घर यही है ? नीमा ने उत्तर दिया हाँ ऋषि जी! यही है कहो कैसे आना हुआ। ऋषि विवेकानन्द बोला कहाँ है तुम्हारा शरारती बच्चा कबीर? कल उसने भरी सभा में मेरे गुरुदेव का अपमान किया है। आज उस की पिटाई गुरु जी सर्व के समक्ष करेंगे। इसको सबक सिखाऐंगे। नीमा बोली मेरा बेटा निर्दोष है वह किसी का अपमान नहीं कर सकता। आप मेरे बेटे से ईष्र्या रखते हो। कभी कोई ब्राह्मण उलहाने (शिकायत) लेकर आता है कभी कोई तो कभी कोई आता है। आप मेरे बेटे की जान के शत्रु क्यों बने हो? लौट जाइए।

सर्व ब्राह्मण बलपूर्वक नीरू की झोंपड़ी में प्रवेश करके कपड़ों को उठा-2 कर बालक को खोजने लगे। चारपाइयों को भी उल्ट कर पटक दिया। जोर-2 से ऊंची आवाज में बोलने लगे। मात-पिता को दुःखी जानकर बालक रूपधारी कबीर परमेश्वर जी रजाई से निकल कर खड़े हो गए तथा कहा ऋषि जी मैं झोपड़ी के पीछे छुपा हूँ। बच्चे की आवाज सुनकर सर्व ब्राह्मण पीछे गए। वहाँ खड़े कबीर जी को पकड़ कर अपने साथ ले जाने लगे। नीमा तथा नीरू ने विरोध किया। नीमा ने बालक कबीर जी को सीने से लगाकर कहा मेरे बच्चे को मत ले जाओ। मत ले जाओ----- ऐसे कह कर रोने लगी। निर्दयों ने नीमा को धक्का मार कर जमीन पर गिरा दिया। नीमा फिर उठ कर पीछे दौड़ी तथा बालक कबीर जी का हाथ उनसे छुटवाने का प्रयत्न किया। एक व्यक्ति ने ऐसा थप्पड़ मारा नीमा के मुख व नाक से रक्त टपकने लगा। नीमा रोती हुई गली में अचेत हो गई। नीरू ने भी बच्चे को छुड़वाने की कोशिश की तो उसे भी पीट-2 कर मृत सम कर दिया। काॅलोनी वाले उठाकर उनके घर ले गए। बहुत समय पश्चात् दोनों सचेत हुए। बच्चे के वियोग में रो-2 कर दोनों का बुरा हाल था। नीरू चोट के कारण चल-फिरने में असमर्थ जमीन पर गिर कर विलाप कर रहा था। कभी चुप होकर भयभीत हुआ गली की ओर देख रहा था। मन में सोच रहा था कि कहीं वे लौट कर ना आ जाऐं तथा मुझे जान से न मार डालें। फिर बच्चे को याद करके विलाप करने लगता। मेरे बेटे को मत मारो-मत मारो इसने क्या बिगाड़ा है तुम्हारा। ऐसे पागल जैसी स्थिति नीरू की हो गई थी। नीमा होश में आती थी फिर अपने बच्चे के साथ हो रहे अत्याचार की कल्पना कर बेहोश (अचेत) हो जाती थी। मोहल्ले (काॅलोनी) के स्त्री पुरूष उनकी दशा देखकर अति दुःखी थे।

प्रातःकाल का समय था। स्वामी रामानन्द जी गंगा नदी पर स्नान करके लौटे ही थे। अपनी कुटिया (भ्नज) में बैठे थे। जब उन्हें पता चला कि उस बालक कबीर को पकड़ कर ऋषि विवेकानन्द जी की टीम ला रही है तो स्वामी रामानन्द जी ने अपनी कुटिया के द्वार पर कपड़े का पर्दा लगा लिया। यह दिखाने के लिए कि मैं पवित्र जाति का ब्राह्मण हूँ तथा शुद्रों को दीक्षा देना तो दूर की बात है, सुबह-2 तो दर्शन भी नहीं करता।

ऋषि विवेकानन्द जी ने बालक कबीर देव जी को कुटिया के समक्ष खड़ा करके कहा हे गुरुदेव। यह रहा वह झूठा बच्चा कबीर जुलाहा। उस समय ऋषि विवेकानन्द जी ने अपने प्रचार क्षेत्र के व्यक्तियों को विशेष कर बुला रखा था। यह दिखाने के लिए कि यह कबीर झूठ बोलता है। स्वामी रामानन्द जी कहेंगे मैंने इसको कभी दीक्षा नहीं दी। जिससे सर्व उपस्थित व्यक्तियों को यह बात जचेगी कि कबीर पुराणों के विषय में भी झूठ बोल रहा था जिन के बारे में कबीर जी ने लिखा बताया था कि श्री विष्णु जी, श्री शिव जी तथा ब्रह्मा जी नाशवान हैं। इनका जन्म होता है तथा मृत्यु भी होती है तथा इनकी माता का नाम प्रकृति देवी (दुर्गा) है तथा पिता का नाम सदाशिव अर्थात् काल ब्रह्म है। जिन हाथों से कबीर परमेश्वर को पकड़ कर लाए थे। उन सर्व व्यक्तियों ने अपने हाथ मिट्टी से रगड़-रगड़ कर धोए तथा सर्व उपस्थित व्यक्तियों के समक्ष बाल्टी में जल भर कर स्नान किया सर्व वस्त्र जो शरीर पर पहन रखे थे वे भी कूट-2 कर धोए।

स्वामी रामानन्द जी ने अपनी कुटिया के द्वार पर खड़े पाँच वर्षीय बालक कबीर से ऊँची आवाज में प्रश्न किया। हे बालक ! आपका क्या नाम है? कौन जाति में जन्म है? आपका भक्ति पंथ (मार्ग) कौन है? उस समय लगभग हजार की संख्या में दर्शक उपस्थित थे। बालक कबीर जी ने भी आधीनता से ऊँची आवाज में उत्तर दिया:-

जाति मेरी जगत्गुरु, परमेश्वर है पंथ। गरीबदास लिखित पढे, मेरा नाम निरंजन कंत।।
हे स्वामी सृष्टा मैं सृष्टि मेरे तीर। दास गरीब अधर बसूँ अविगत सत् कबीर।
गोता मारूं स्वर्ग में जा पैठंू पाताल। गरीब दास ढूंढत फिरू हीरे माणिक लाल।

भावार्थ:- कबीर जी ने कहा हे स्वामी रामानन्द जी! परमेश्वर के घर कोई जाति नहीं है। आप विद्वान पुरूष होते हुए वर्ण भेद को महत्त्व दे रहे हो। मेरी जाति व नाम तथा भक्ति पंथ जानना चाहते हो तो सुनों। मेरा नाम वही कविर्देव है जो वेदों में लिखा है जिसे आप जी पढ़ते हो। मैं वह निरंजन (माया रहित) कंत (सर्व का पति) अर्थात् सबका स्वामी हूँ। मैं ही सर्व सृष्टि रचनहार (सृष्टा) हूँ। यह सृष्टि मेरे ही आश्रित (तीर यानि किनारे) है। मैं ऊपर सतलोक में निवास करता हूँ। मैं वह अमर अव्यक्त (अविगत सत्) कबीर हूँ। जिसका वर्णन गीता अध्याय 8 श्लोक सं.20 से 22 में है। हे स्वामी जी गीता अध्याय 7 श्लोक 24 में गीता ज्ञान दाता अर्थात् काल ब्रह्म (क्षर पुरूष) अपने विषय में बताता है कि! यह मूर्ख मनुष्य समुदाय मुझ अव्यक्त को कृष्ण रूप में व्यक्ति मान रहे हैं। मैं सबके समक्ष प्रकट नहीं होता। यह मनुष्य समुदाय मेरे इस अश्रेष्ठ अटल नियम से अपरिचित हैं (24) गीता अ. 7 श्लोक 25 में कहा है कि मैं (गीता ज्ञान दाता) अपनी योगमाया (सिद्धिशक्ति) से छिपा हुआ अपने वास्तविक रूप में सबके समक्ष प्रत्यक्ष नहीं होता। यह अज्ञानी जन समुदाय मुझ कृष्ण व राम आदि की तरह माता से जन्म न लेने वाले प्रभु को तथा अविनाशी (जो अन्य अव्यक्त परमेश्वर है) को नहीं जानते।

हे स्वामी रामानन्द जी गीता अध्याय 7 श्लोक 24-25 में गीता ज्ञान दाता काल ब्रह्म (क्षर पुरूष) ने अपने को अव्यक्त कहा है यह प्रथम अव्यक्त प्रभु हुआ। अब सुनो दूसरे तथा तीसरे अव्यक्त प्रभुओं के विषय में। गीता अध्याय 8 श्लोक 18-19 में गीता ज्ञान दाता ने अपने से अन्य अव्यक्त परमात्मा का वर्णन किया है कहा है:- यह सर्व चराचर प्राणी दिन के समय अव्यक्त परमात्मा से उत्पन्न होते है रात्रि के समय उसी में लीन हो जाते हैं। यह जानकारी काल ब्रह्म ने अपने से अन्य अव्यक्त प्रभु (परब्रह्म) अर्थात् अक्षर ब्रह्म के विषय में दी है। यह दूसरा अव्यक्त (अविगत) प्रभु हुआ तीसरे अव्यक्त (अविगत) परमात्मा अर्थात् परम अक्षर ब्रह्म के विषय में गीता अध्याय 8 श्लोक 20 से 22 में कहा है कि जिस अव्यक्त प्रभु का गीता अध्याय 8 श्लोक 18-19 में वर्णन किया है वह पूर्ण प्रभु नहीं है। वह भी वास्तव में अविनाशी प्रभु नहीं है। परन्तु उस अव्यक्त (जिसका विवरण उपरोक्त श्लोक 18-19 में है) से भी अति परे दूसरा जो सनातन अव्यक्त भाव है वह परम दिव्य परमेश्वर सब भूतों (प्राणियों) के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता। वह अक्षर अव्यक्त अविनाशी अविगत अर्थात् वास्तव में अविनाशी अव्यक्त प्रभु इस नाम से कहा गया है। उसी अक्षर अव्यक्त की प्राप्ति को परमगति कहते हैं। जिस दिव्य परम परमात्मा को प्राप्त होकर साधक वापस लौट कर इस संसार में नहीं आते (इसी का विवरण गीता अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 तथा श्लोक 16-17 में भी है) वह धाम अर्थात् जिस लोक (धाम) में वह अविनाशी (अव्यक्त) परमात्मा रहता है वह धाम (स्थान) मेरे वाले लोक (ब्रह्मलोक) से श्रेष्ठ है। हे पार्थ! जिस अविनाशी परमात्मा के अन्तर्गत सर्व प्राणी हैं। जिस सच्चिदानन्द घन परमात्मा से यह समस्त जगत परिपूर्ण है, वह सनातन अव्यक्त परमेश्वर तो अनन्य भक्ति से प्राप्त होने योग्य है (गीता अ. 8/मं.20, 21, 22) हे स्वामी रामानन्द जी मैं वही तीसरी श्रेणी वाला अविगत (अव्यक्त) सत् (सनातन अविनाशी भाव वाला परमेश्वर) कबीर हूँ। जिसे वेदों में कविर्देव कहा है वही कबीर देव मैं कहलाता हूँ।

हे स्वामी रामानन्द जी! सर्व सृष्टि को रचने वाला (सृष्टा) मैं ही हूँ। मैं ही आत्मा का आधार जगतगुरु जगत् पिता, बन्धु तथा जो सत्य साधना करके सत्यलोक जा चुके हैं उनको सत्यलोक पहुँचाने वाला मैं ही हूँ। काल ब्रह्म की तरह धोखा न देने वाले स्वभाव वाला कबीर देव (कर्विदेव) मैं ही हूँ। जिसका प्रमाण अर्थववेद काण्ड 4 अनुवाक 1 मन्त्रा 7 में लिखा है।

काण्ड नं. 4 अनुवाक नं. 1 मंत्र 7

योऽथर्वाणं पित्तरं देवबन्धुं बृहस्पतिं नमसाव च गच्छात्।
त्वं विश्वेषां जनिता यथासः कविर्देवो न दभायत् स्वधावान्।।7।।

यः अथर्वाणम् पित्तरम् देवबन्धुम् बृहस्पतिम् नमसा अव च गच्छात् त्वम् विश्वेषाम् जनिता यथा सः कविर्देवः न दभायत् स्वधावान्

अनुवाद:- (यः) जो (अथर्वाणम्) अचल अर्थात् अविनाशी (पित्तरम्) जगत पिता (देव बन्धुम्) भक्तों का वास्तविक साथी अर्थात् आत्मा का आधार (बृहस्पतिम्) बड़ा स्वामी अर्थात् परमेश्वर व जगत्गुरु (च) तथा (नमसाव) विनम्र पुजारी अर्थात् विधिवत् साधक को सुरक्षा के साथ (गच्छात्) सतलोक गए हुओं को यानि जो मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं, उनको सतलोक ले जाने वाला (विश्वेषाम्) सर्व ब्रह्मण्डों की (जनिता) रचना करने वाला जगदम्बा अर्थात् माता वाले गुणों से भी युक्त (न दभायत्) काल की तरह धोखा न देने वाले (स्वधावान्) स्वभाव अर्थात् गुणों वाला (यथा) ज्यों का त्यों अर्थात् वैसा ही (सः) वह (त्वम्) आप (कविर्देवः/ कविर्देवः) कविर्देव है अर्थात् भाषा भिन्न इसे कबीर परमेश्वर भी कहते हैं।

केवल हिन्दी अनुवाद:- जो अचल अर्थात् अविनाशी जगत पिता भक्तों का वास्तविक साथी अर्थात् आत्मा का आधार बड़ा स्वामी अर्थात् परमेश्वर व जगत्गुरु तथा विनम्र पुजारी अर्थात् विधिवत् साधक को सुरक्षा के साथ सतलोक गए हुओं को यानि जो मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं, उनको सतलोक ले जाने वाला सर्व ब्रह्मण्डों की रचना करने वाला जगदम्बा अर्थात् माता वाले गुणों से भी युक्त काल की तरह धोखा न देने वाले स्वभाव अर्थात् गुणों वाला ज्यों का त्यों अर्थात् वैसा ही वह आप कविर्देव है अर्थात् भाषा भिन्न इसे कबीर परमेश्वर भी कहते हैं।

भावार्थ:- इस मंत्र में यह भी स्पष्ट कर दिया कि उस परमेश्वर का नाम कविर्देव अर्थात् कबीर परमेश्वर है, जिसने सर्व रचना की है।

जो परमेश्वर अचल अर्थात् वास्तव में अविनाशी (गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 में भी प्रमाण है) जगत् गुरु, परमेश्वर आत्माधार, जो पूर्ण मुक्त होकर सत्यलोक गए हैं यानि जो मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं, उनको सतलोक ले जाने वाला, सर्व ब्रह्मण्डों का रचनहार, काल (ब्रह्म) की तरह धोखा न देने वाला ज्यों का त्यों वह स्वयं कविर्देव अर्थात् कबीर प्रभु है। यही परमेश्वर सर्व ब्रह्मण्डों व प्राणियों को अपनी शब्द शक्ति से उत्पन्न करने के कारण (जनिता) माता भी कहलाता है तथा (पित्तरम्) पिता तथा (बन्धु) भाई भी वास्तव में यही है तथा (देव) परमेश्वर भी यही है। इसलिए इसी कविर्देव (कबीर परमेश्वर) की स्तुति किया करते हैं। त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धु च सखा त्वमेव, त्वमेव विद्या च द्रविणंम त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम् देव देव। इसी परमेश्वर की महिमा का पवित्र ऋग्वेद मण्डल नं. 1 सूक्त नं. 24 में विस्तृत विवरण है।

पाँच वर्षीय बालक के मुख से वेदो व गीता जी के गूढ़ रहस्य को सुनकर ऋषि रामानन्द जी आश्चर्य चकित रह गए तथा क्रोधित होकर अपशब्द कहने लगे। वाणीः-

रामानंद अधिकार सुनि, जुलहा अक जगदीश। दास गरीब बिलंब ना, ताहि नवावत शीश।।407।।
रामानंद कूं गुरु कहै, तनसैं नहीं मिलात। दास गरीब दर्शन भये, पैडे लगी जुं लात।।408।।
पंथ चलत ठोकर लगी, रामनाम कहि दीन। दास गरीब कसर नहीं, सीख लई प्रबीन।।409।।
आडा पड़दा लाय करि, रामानंद बूझंत। दास गरीब कुलंग छबि, अधर डांक कूदंत।।410।।
कौन जाति कुल पंथ है, कौन तुम्हारा नाम। दास गरीब अधीन गति, बोलत है बलि जांव।।411।।
जाति हमारी जगतगुरु, परमेश्वर पद पंथ। दास गरीब लिखति परै, नाम निंरजन कंत।।412।।
रे बालक सुन दुर्बद्धि, घट मठ तन आकार। दास गरीब दरद लग्या, हो बोले सिरजनहार।।413।।
तुम मोमन के पालवा, जुलहै के घर बास। दास गरीब अज्ञान गति, एता दृढ़ विश्वास।।414।।
मान बड़ाई छाड़ि करि, बोलौ बालक बैंन। दास गरीब अधम मुखी, एता तुम घट फैंन।।415।।
तर्क तलूसैं बोलतै, रामानंद सुर ज्ञान। दास गरीब कुजाति है, आखर नीच निदान।।423।।

परमेश्वर कबीर जी (कविर्देव) ने प्रेमपूर्वक उत्तर दिया -

महके बदन खुलास कर, सुनि स्वामी प्रबीन। दास गरीब मनी मरै, मैं आजिज आधीन।।428।।
मैं अविगत गति सैं परै, च्यारि बेद सैं दूर। दास गरीब दशौं दिशा, सकल सिंध भरपूर।।429।।
सकल सिंध भरपूर हूँ, खालिक हमरा नाम। दासगरीब अजाति हूँ, तैं जो कह्या बलि जांव।।430।।
जाति पाति मेरे नहीं, नहीं बस्ती नहीं गाम। दासगरीब अनिन गति, नहीं हमारै चाम।।431।।
नाद बिंद मेरे नहीं, नहीं गुदा नहीं गात। दासगरीब शब्द सजा, नहीं किसी का साथ।।432।।
सब संगी बिछरू नहीं, आदि अंत बहु जांहि। दासगरीब सकल वंसु, बाहर भीतर माँहि।।433।।
ए स्वामी सृष्टा मैं, सृष्टि हमारै तीर। दास गरीब अधर बसूं, अविगत सत्य कबीर।।434।।
पौहमी धरणि आकाश में, मैं व्यापक सब ठौर। दास गरीब न दूसरा, हम समतुल नहीं और।।436।।
हम दासन के दास हैं, करता पुरुष करीम। दासगरीब अवधूत हम, हम ब्रह्मचारी सीम।।439।।
सुनि रामानंद राम हम, मैं बावन नरसिंह। दास गरीब कली कली, हमहीं से कृष्ण अभंग।।440।।
हमहीं से इंद्र कुबेर हैं, ब्रह्मा बिष्णु महेश। दास गरीब धर्म ध्वजा, धरणि रसातल शेष।।447।।
सुनि स्वामी सती भाखहूँ, झूठ न हमरै रिंच। दास गरीब हम रूप बिन, और सकल प्रपंच।।453।।
गोता लाऊं स्वर्ग सैं, फिरि पैठूं पाताल। गरीबदास ढूंढत फिरूं, हीरे माणिक लाल।।476।।
इस दरिया कंकर बहुत, लाल कहीं कहीं ठाव। गरीबदास माणिक चुगैं, हम मुरजीवा नांव।।477।।
मुरजीवा माणिक चुगैं, कंकर पत्थर डारि। दास गरीब डोरी अगम, उतरो शब्द अधार।।478।।

स्वामी रामानन्द जी ने कहाः- अरे कुजात! अर्थात् शुद्र! छोटा मुंह बड़ी बात, तू अपने आपको परमात्मा कहता है। तेरा शरीर हाड़-मांस व रक्त निर्मित है। तू अपने आपको अविनाशी परमात्मा कहता है। तेरा जुलाहे के घर जन्म है फिर भी अपने आपको अजन्मा अविनाशी कहता है तू कपटी बालक है। परमेश्वर कबीर जी ने कहाः-

ना मैं जन्मु ना मरूँ, ज्यों मैं आऊँ त्यों जाऊँ। गरीबदास सतगुरु भेद से लखो हमारा ढांव।।
सुन रामानन्द राम मैं, मुझसे ही बावन नृसिंह। दास गरीब युग-2 हम से ही हुए कृष्ण अभंग।।

भावार्थः- कबीर जी ने उत्तर दिया हे रामानन्द जी, मैं न तो जन्म लेता हूँ ? न मृत्यु को प्राप्त होता हूँ। मैं चैरासी लाख प्राणियों के शरीरों में आने (जन्म लेने) व जाने (मृत्यु होने) के चक्र से भी रहित हूँ। मेरी विशेष जानकारी किसी तत्त्वदर्शी सन्त (सतगुरु) के ज्ञान को सुनकर प्राप्त करो। गीता अध्याय 4 श्लोक 34 तथा यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 10-13 में वेद ज्ञान दाता स्वयं कह रहा है कि उस पूर्ण परमात्मा के तत्व (वास्तविक) ज्ञान से मैं अपरिचित हूँ। उस तत्त्वज्ञान को तत्त्वदर्शी सन्तों से सुनों उन्हें दण्डवत् प्रणाम करो, अति विनम्र भाव से परमात्मा के पूर्ण मोक्ष मार्ग के विषय में ज्ञान प्राप्त करो, जैसी भक्ति विधि से तत्त्वदृष्टा सन्त बताऐं वैसे साधना करो। गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में लिखा है कि श्लोक 16 में जिन दो पुरूषों (भगवानों) 1) क्षर पुरूष अर्थात् काल ब्रह्म तथा 2) अक्षर पुरूष अर्थात् परब्रह्म का उल्लेख है, वास्तव में अविनाशी परमेश्वर तथा सर्व का पालन पोषण व धारण करने वाला परमात्मा तो उन उपरोक्त दोनों से अन्य ही है। हे स्वामी रामानन्द जी! वह उत्तम पुरूष अर्थात् सर्व श्रेष्ठ प्रभु मैं ही हूँ। इस बात को सुनकर स्वामी रामानन्द जी बहुत क्षुब्ध हो गए तथा कहा कि रे बालक! तू निम्न जाति का और छोटा मुँह बड़ी बात कर रहा है। तू अपने आप भगवान बन बैठा। बुरी गालियाँ भी दी। कबीर साहेब बोले कि गुरुदेव! आप मेरे गुरुजी हैं। आप मुझे गाली दे रहे हो तो भी मुझे आनन्द आ रहा है। लेकिन मैं जो आपको कह रहा हूँ, मैं ज्यों का त्यों पूर्णब्रह्म ही हूँ, इसमें कोई संशय नहीं है। इस बात को सुनकर रामानन्द जी ने कहा कि ठहर जा तेरी तो लम्बी कहानी बनेगी, तू ऐसे नहीं मानेगा। मैं पहले अपनी पूजा कर लेता हूँ। रामानन्द जी ने कहा कि इसको बैठाओ। मैं पहले अपनी कुछ क्रिया रहती है वह कर लेता हूँ, बाद में इससे निपटूंगा।

स्वामी रामानन्द जी क्या क्रिया करते थे?

भगवान विष्णु जी की एक काल्पनिक मूर्ति बनाते थे। सामने मूर्ति दिखाई देने लग जाती थी (जैसे कर्मकाण्ड करते हैं, भगवान की मूर्ति के पहले वाले सारे कपड़े उतार कर, उनको जल से स्नान करवा कर, फिर स्वच्छ कपड़े भगवान ठाकुर को पहना कर गले में माला डालकर, तिलक लगा कर मुकुट रख देते हैं।) रामानन्द जी कल्पना कर रहे थे। कल्पना करके भगवान की काल्पनिक मूर्ति बनाई। श्रद्धा से जैसे नंगे पैरों जाकर आप ही गंगा जल लाए हों, ऐसी अपनी भावना बना कर ठाकुर जी की मूर्ति के कपड़े उतारे, फिर स्नान करवाया तथा नए वस्त्र पहना दिए। तिलक लगा दिया, मुकुट रख दिया और माला (कण्ठी) डालनी भूल गए। कण्ठी न डाले तो पूजा अधूरी और मुकुट रख दिया तो उस दिन मुकुट उतारा नहीं जा सकता। उस दिन मुकुट उतार दे तो पूजा खण्डित। स्वामी रामानन्द जी अपने आपको कोस रहे हैं कि इतना जीवन हो गया मेरा कभी, भी ऐसी गलती जिन्दगी में नहीं हुई थी। प्रभु आज मुझ पापी से क्या गलती हुई है? यदि मुकुट उतारूँ तो पूजा खण्डित। उसने सोचा कि मुकुट के ऊपर से कण्ठी (माला) डाल कर देखता हूँ (कल्पना से कर रहे हैं कोई सामने मूर्ति नहीं है और पर्दा लगा है कबीर साहेब दूसरी ओर बैठे हैं)। मुकुट में माला फँस गई है आगे नहीं जा रही थी। जैसे स्वपन देख रहे हों। रामानन्द जी ने सोचा अब क्या करूं? हे भगवन्! आज तो मेरा सारा दिन ही व्यर्थ गया। आज की मेरी भक्ति कमाई व्यर्थ गई (क्योंकि जिसको परमात्मा की कसक होती है उसका एक नित्य नियम भी रह जाए तो उसको दर्द बहुत होता है। जैसे इंसान की जेब कट जाए और फिर बहुत पश्चाताप करता है। प्रभु के सच्चे भक्तों को इतनी लगन होती है।) इतने में बालक रूपधारी कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि स्वामी जी माला की घुण्डी खोलो और माला गले में डाल दो। फिर गाँठ लगा दो, मुकुट उतारना नहीं पड़ेगा। रामानन्द जी काहे का मुकुट उतारे था, काहे की गाँठ खोले था। कुटिया के सामने लगा पर्दा भी स्वामी रामानन्द जी ने अपने हाथ से फैंक दिया और ब्राह्मण समाज के सामने उस कबीर परमेश्वर को सीने से लगा लिया। रामानन्द जी ने कहा कि हे भगवन् ! आपका तो इतना कोमल शरीर है जैसे रूई हो। आपके शरीर की तुलना में मेरा तो पत्थर जैसा शरीर है। एक तरफ तो प्रभु खड़े हैं और एक तरफ जाति व धर्म की दीवार है। प्रभु चाहने वाली पुण्यात्माऐं धर्म की बनावटी दीवार को तोड़ना श्रेयकर समझते हैं। वैसा ही स्वामी रामानन्द जी ने किया। सामने पूर्ण परमात्मा को पा कर न जाति देखी न धर्म देखा, न छूआ-छात, केवल आत्म कल्याण देखा। इसे ब्राह्मण कहते हैं।

बोलत रामानंद जी, हम घर बड़ा सुकाल। गरीबदास पूजा करैं, मुकुट फही जदि माल।।
सेवा करौं संभाल करि, सुनि स्वामी सुर ज्ञान। गरीबदास शिर मुकुट धरि,माला अटकी जान।।
स्वामी घुंडी खोलि करि, फिरि माला गल डार। गरीबदास इस भजन कूं, जानत है करतार।।
ड्यौढी पड़दा दूरि करि, लीया कंठ लगाय। गरीबदास गुजरी बौहत, बदनैं बदन मिलाय।।
मनकी पूजा तुम लखी, मुकुट माल परबेश। गरीबदास गति को लखै, कौन वरण क्या भेष।।
यह तौ तुम शिक्षा दई, मानि लई मनमोर। गरीबदास कोमल पुरूष, हमरा बदन कठोर।।

‘‘कबीर देव द्वारा ऋषि रामानन्द के आश्रम में दो रूप धारण करना’’

स्वामी रामानन्द जी ने परमेश्वर कबीर जी से कहा कि ‘‘आपने झूठ क्यों बोला?’’ कबीर परमेश्वर जी बोले! कैसा झूठ स्वामी जी? स्वामी रामानन्द जी ने कहा कि आप कह रहे थे कि आपने मेरे से नाम ले रखा है। आपने मेरे से उपदेश कब लिया? बालक रूपधारी कबीर परमेश्वर जी बोले एक समय आप स्नान करने के लिए पँचगंगा घाट पर गए थे। मैं वहाँ लेटा हुआ था। आपके पैरों की खड़ाऊँ मेरे सिर में लगी थी! आपने कहा था कि बेटा राम नाम बोलो। रामानन्द जी बोले-हाँ, अब कुछ याद आया। परन्तु वह तो बहुत छोटा बच्चा था (क्योंकि उस समय पाँच वर्ष की आयु के बच्चे बहुत बड़े हो जाया करते थे तथा पाँच वर्ष के बच्चे के शरीर तथा ढ़ाई वर्ष के बच्चे के शरीर में दुगुना अन्तर हो जाता है)। कबीर परमेश्वर जी ने कहा स्वामी जी देखो, मैं ऐसा था। स्वामी रामानन्द जी के सामने भी खड़े हैं और एक ढाई वर्षीय बच्चे का दूसरा रूप बना कर किसी सेवक की वहाँ पर चारपाई बिछी थी उसके ऊपर विराजमान हो गए।

रामानन्द जी ने छः बार तो इधर देखा और छः बार उधर देखा। फिर आँखें मलमल कर देखा कि कहीं तेरी आँखें धोखा तो नहीं खा रही हैं। इस प्रकार देख ही रहे थे कि इतने में कबीर परमेश्वर जी का छोटे वाला रूप हवा में उड़ा और कबीर परमेश्वर जी के बड़े पाँच वर्ष वाले स्वरूप में समा गया। पाँच वर्ष वाले स्वरूप में कबीर परमेश्वर जी रह गए।

रामानन्द जी बोले कि मेरा संशय मिट गया कि आप ही पूर्ण ब्रह्म हो। हे परमेश्वर! आपको कैसे पहचान सकते हैं। आप किस जाति में उत्पन्न तथा कैसी वेश भूषा में खड़े हो। हम नादान प्राणी आप के साथ वाद-विवाद करके दोषी हो गए, क्षमा करना परमेश्वर कविर्देव, मैं आपका अनजान बच्चा हूँ। रामानन्द जी ने फिर अपनी अन्य शंकाओं का निवारण करवाया।

शंका:- हे कविर्देव! मैं राम-राम कोई मन्त्रा शिष्यों को जाप करने को नहीं देता। यदि आपने मुझसे दीक्षा ली है तो वह मन्त्रा बताईए जो मैं शिष्य को जाप करने को देता हूँ।

उत्तर कबीर देव का:- हे स्वामी जी! आप ओम् नाम जाप करने को देते हो तथा ओ3म् भगवते वासुदेवाय नमः का जाप तथा विष्णु स्त्रोत की आवर्ती की भी आज्ञा देते हो।

शंका:- आपने जो मन्त्रा बताया यह तो सही है। एक शंका और है उसका भी निवारण कीजिए। मैं जिसे शिष्य बनाता हूँ उसे एक चिन्ह देता हूँ। वह आपके पास नहीं है।

उत्तर:- बन्दी छोड़ कबीर देव बोले हे गुरुदेव! आप तुलसी की लकड़ी के एक मणके की कण्ठी (माला) गले में पहनने के लिए देते हो। यह देखो गुरु जी उसी दिन आपने अपनी कण्ठी गले से निकाल कर मेरे गले में पहनाई थी। यह कहते हुए कविर्देव ने अपने कुर्ते के नीचे गले में पहनी वही कण्ठी (माला) सार्वजनिक कर दी। रामानन्द जी समझ गए यह कोई साधारण बच्चा नहीं है। यह प्रभु का भेजा हुआ कोई तत्त्वदर्शी आत्मा है। इस से ज्ञान चर्चा करनी चाहिए। चर्चा के विषय को आगे बढ़ाते हुए स्वामी रामानन्द जी बोले हे बालक कबीर! आप अपने आपको परमेश्वर कहते हो परमात्मा ऐसा अर्थात् मनुष्य जैसा थोड़े ही है।

हे कबीर जी! उस स्थान (परम धाम) को यदि एक बार दिखा दे तो मन शान्त हो जाएगा। मैं वर्षों से ध्यान योग अर्थात् हठयोग करता हूँ। मैं समाधिस्थ होकर आकाश में बहुत ऊपर तक सैर कर आता हूँ। परमेश्वर कबीर जी ने कहा है स्वामी जी! आप समाधिस्थ होइए।

स्वामी रामानन्द जी का हठयोग ध्यान (मैडिटेशन) करना नित्य का अभ्यास था तुरन्त ही समाधिस्थ हो गए। समाधि दशा में स्वामी जी की सूरति (ध्यान) त्रिवेणी तक जाती थी। त्रिवेणी पर तीन रास्ते हो जाते हैं। बाँया रास्ता धर्मराज के लोक तथा ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव जी के लोकों तथा स्वर्ग लोक आदि को जाता है। दायाँ रास्ता अठासी हजार खेड़ों (नगरियों) की ओर जाता है। सामने वाला रास्ता ब्रह्म लोक को जाता है। वह ब्रह्मरंद्र भी कहा जाता है। स्वामी रामानन्द जी कई जन्मों से साधना करते हुए आ रहे थे। इस कारण से इनका ध्यान तुरन्त लग जाता था। बालक रूपधारी परमेश्वर कबीर जी स्वामी रामानन्द जी को ध्यान में आगे मिले तथा वहाँ का सर्व भेद रामानन्द जी को बताया। हे स्वामी जी! आप की भक्ति साधना कई जन्मों की संचित है। जिस समय आप शरीर त्याग कर जाओगे इस बाऐं रास्ते से जाओगे इस रास्ते में स्वचालित द्वार (एटोमैटिक खुलने वाले गेट) लगे है। जिस साधक की जिस भी लोक की साधना होती है। वह धर्मराय के पास जाकर अपना लेखा (।बबवनदज) करवाकर इसी रास्ते से आगे चलता है। उसी लोक का द्वार अपने आप खुल जाता है। वह द्वार तुरन्त बन्द हो जाता है। वह प्राणी पुनः उस रास्ते से लौट नहीं सकता। उस लोक में समय पूरा होने के पश्चात् पुनः उसी मार्ग से धर्मराज के पास आकर अन्य जीवन प्राप्त करता है।

धर्मराय का लोक भी उसी बाई और जाने वाले रास्ते में सर्व प्रथम है। उस धर्मराज के लोक में प्रत्येक की भक्ति अनुसार स्थान तय होता है। आप (स्वामी रामानन्द) जी की भक्ति का आधार विष्णु जी का लोक है। आप अपने पुण्यों को इस लोक में समाप्त करके पुनः पृथ्वी लोक पर शरीर धारण करोगे। यह हरहट के कूएं जैसा चक्र आपकी साधना से कभी समाप्त नहीं होगा। यह जन्म मृत्यु का चक्र तो केवल मेरे द्वारा बताए तत्त्वज्ञान द्वारा ही समाप्त होना सम्भव है। परमेश्वर कबीर जी ने फिर कहा हे स्वामी जी! जो सामने वाला द्वार है यह ब्रह्मरन्द्र है। यह वेदों में लिखे किसी भी मन्त्रा जाप से नहीं खुलता यह तो मेरे द्वारा बताए सत्यनाम (जो दो मन्त्रा का होता है एक ॐ मन्त्र तथा दूसरा तत् यह तत् सांकेतिक है वास्तविक नाम मन्त्रा तो उपदेश लेने वाले को बताया जाएगा) के जाप से खुलता है। ऐसा कह कर परमेश्वर कबीर जी ने सत्यनाम (दो मन्त्रों के नाम) का जाप किया। तुरन्त ही सामने वाला द्वार (ब्रह्मरन्द्र) खुल गया। परमेश्वर कबीर जी अपने साथ स्वामी रामानन्द जी की आत्मा को लेकर उस ब्रह्मरन्द्र में प्रवेश कर गए। पश्चात् वह द्वार तुरन्त बन्द हो गया। उस द्वार से निकल कर लम्बा रास्ता तय किया ब्रह्मलोक में गए आगे फिर तीन रास्ते हैं। बाई ओर एक रास्ता महास्वर्ग में जाता है। उस महास्वर्ग में नकली (क्नचसपबंजम) सत्यलोक, अलख लोक, अगम लोक तथा अनामी लोकों की रचना काल ब्रह्म ने अपनी पत्नी दुर्गा से करा रखी है। प्राणियों को धोखा देने के लिए। उन सर्व नकली लोकों को दिखा कर वापस आए। दाई और सप्तपुरी, ध्रुव लोक आदि हैं। सामने वाला द्वार वहाँ जाता है जहाँ पर गीता ज्ञान दाता काल ब्रह्म अपनी योग माया से छुपा रहता है। वहाँ तीन स्थान बनाए हैं। एक रजोगुण प्रधान क्षेत्र है। जिसमें काल ब्रह्म तथा दुर्गा (प्रकृति) देवी पति-पत्नी रूप में साकार रूप में रहते हैं। उस समय जिस पुत्र का जन्म होता है वह रजोगुण युक्त होता है। उसका नाम ब्रह्मा रख देता है उस बालक को युवा होने तक अचेत रखकर परवरिश करते हैं। युवा होने पर काल ब्रह्म स्वयं विष्णु रूप धारण करके अपनी नाभी से कमल का फूल प्रकट करता है। उस कमल के फूल पर युवा अवस्था प्राप्त होने पर ब्रह्मा जी को रख कर सचेत कर देता है। इसी प्रकार एक सतोगुण प्रधान क्षेत्र बनाया है। उसमें दोनों (दुर्गा व काल ब्रह्म) पति-पत्नी रूप में रह कर अन्य पुत्र सतोगुण प्रधान उत्पन्न करते हैं। उसका नाम विष्णु रखते हैं। उसे भी युवा होने तक अचेत रखते हैं। शेष शय्या पर सचेत करते हैं। अन्य शेषनाग ब्रह्म ही अपनी शक्ति से उत्पन्न करता है। इसी प्रकार एक तमोगुण प्रधान क्षेत्र बनाया है। उस में वे दोनों (दुर्गा तथा काल ब्रह्म) पति-पत्नी व्यवहार से तमोगुण प्रधान पुत्र उत्पन्न करते हैं। उसका नाम शिव रखते हैं। उसे भी युवा अवस्था प्राप्त होने तक अचेत रखते हैं। युवा होने पर तीनों को सचेत करके इनका विवाह, प्रकृति (दुर्गा) द्वारा उत्पन्न तीनों लड़कियों से करते हैं। इस प्रकार यह काल ब्रह्म अपना सृष्टि चक्र चलाता है।

परमेश्वर कबीर जी ने स्वामी रामानन्द जी को वह रास्ता दिखाया तथा इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में फिर तीन रास्ते है बाई ओर फिर नकली सतलोक, अलख लोक, अगम लोक तथा अनामी लोक की रचना की हुई है। दाई ओर बारह भक्तों का निवास स्थान बनाया है, जिनको अपना ज्ञान प्रचारक बनाकर जनता को शास्त्रविरूद्ध ज्ञान पर आधारित करवाता है। सामने वाला द्वार तप्त शिला की ओर जाता है। जहाँ पर यह काल ब्रह्म एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों के सुक्ष्म शरीरों को तपाकर उनसे मैल निकाल कर खाता है। उस काल ब्रह्म के उस लोक के ऊपर एक द्वार है जो परब्रह्म (अक्षर पुरूष) के सात शंख ब्रह्मण्डों में खुलता है। परब्रह्म के ब्रह्मण्डों के अन्तिम सिरे पर एक द्वार है जो सत्यपुरूष (परम अक्षर ब्रह्म) के लोक सत्यलोक की भंवर गुफा में खुलता है। फिर आगे सत्यलोक है जो वास्तविक सत्यलोक है। सत्यलोक में पूर्ण परमात्मा कबीर जी अन्य तेजोमय मानव सदृश शरीर में एक गुबन्द (गुम्मज) में एक ऊँचे सिंहासन पर विराजमान हैं। वहाँ सत्यलोक की सर्व वस्तुऐं तथा सत्यलोक वासी सफेद प्रकाश युक्त हैं। सत्यपुरूष के शरीर का प्रकाश अत्यधिक सफेद है। सत्यपुरूष के एक रोम (शरीर के बाल) का प्रकाश एक लाख सूर्यों तथा इतने ही चन्द्रमाओं के मिलेजुले प्रकाश से भी अधिक है। परमेश्वर कबीर जी स्वामी रामानन्द जी की आत्मा को साथ लेकर सत्यलोक में गए। वहाँ सर्व आत्माओं का भी मानव सदृश शरीर है। उनके शरीर का भी सफेद प्रकाश है। परन्तु सत्यलोक निवासियों के शरीर का प्रकाश सोलह सूर्यों के प्रकाश के समान है। बालक रूपधारी कविर्देव ने अपने ही अन्य स्वरूप पर चंवर किया। जो स्वरूप अत्यधिक तेजोमय था तथा सिंहासन पर एक सफेद गुबन्द में विराज मान था। स्वामी रामानन्द जी ने सोचा कि पूर्ण परमात्मा तो यह है जो तेजोमय शरीर युक्त है। यह बाल रूपधारी आत्मा कबीर यहाँ का अनुचर अर्थात् सेवक होगा। स्वामी रामानन्द जी ने इतना विचार ही किया था। उसी समय सिंहासन पर विराजमान तेजोमय शरीर युक्त परमात्मा सिंहासन त्यागकर खड़ा हो गया तथा बालक कबीर जी को सिंहासन पर बैठने के लिए प्रार्थना की नीचे से रामानन्द जी के साथ गया बालक कबीर जी उस सिंहासन पर विराजमान हो गए तथा वह तेजोमय शरीर धारी प्रभु बालक के सिर पर श्रद्धा से चंवर करने लगा। रामानन्द जी ने सोचा यह परमात्मा इस बच्चे पर चंवर करने लगा। यह बालक यहां का नौकर (सेवक) नहीं हो सकता। इतने में तेजोमय शरीर वाला परमात्मा उस बालक कबीर जी के शरीर में समा गया। बालक कबीर जी का शरीर उसी प्रकार उतने ही प्रकाश युक्त हो गया जितना पहले सिंहासन पर बैठे पुरूष (परमेश्वर) का था। इतनी लीला करके स्वामी रामानन्द जी की आत्मा को वापस शरीर में भेज दिया। महर्षि रामानन्द जी ने आँखे खोल कर देखा तो बालक रूपधारी परमेश्वर कबीर जी को सामने भी बैठा पाया। महर्षि रामानन्द जी को पूर्ण विश्वास हो गया कि यह बालक कबीर जी ही परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् वासुदेव (कुल का मालिक) है। दोनों स्थानों (ऊपर सत्यलोक में तथा नीचे पृथ्वी लोक में) पर स्वयं ही लीला कर रहा है। यही परम दिव्य पुरूष अर्थात् आदि पुरूष है। सत्यलोक में जहाँ पर यह परमात्मा मूल रूप में निवास करता है वह सनातन परमधाम है। परमेश्वर कबीर जी ने इसी प्रकार सन्त गरीबदास जी महाराज छुड़ानी (हरयाणा) वाले को सर्व ब्रह्मण्डों को प्रत्यक्ष दिखाया था। उनका ज्ञान योग खोल दिया था तथा परमेश्वर ने गरीबदास जी महाराज को स्वामी रामानन्द जी के विषय में बताया था कि किस प्रकार मैंने स्वामी जी को शरण में लिया था। महाराज गरीबदास जी ने अपनी अमृतवाणी में उल्लेख किया है।

तहाँ वहाँ चित चक्रित भया, देखि फजल दरबार। गरीबदास सिजदा किया, हम पाये दीदार।।
बोलत रामानन्द जी सुन कबिर करतार। गरीबदास सब रूप में तुमही बोलनहार।।
दोहु ठोर है एक तू, भया एक से दोय। गरीबदास हम कारणें उतरे हो मग जोय।।
तुम साहेब तुम सन्त हो तुम सतगुरु तुम हंस। गरीबदास तुम रूप बिन और न दूजा अंस।।
तुम स्वामी मैं बाल बुद्धि भर्म कर्म किये नाश। गरीबदास निज ब्रह्म तुम, हमरै दृढ विश्वास।।
सुन बे सुन से तुम परे, ऊरै से हमरे तीर। गरीबदास सरबंग में, अविगत पुरूष कबीर।।
कोटि-2 सिजदा किए, कोटि-2 प्रणाम। गरीबदास अनहद अधर, हम परसे तुम धाम।।
बोले रामानन्द जी, सुनों कबीर सुभान। गरीबदास मुक्ता भये, उधरे पिण्ड अरू प्राण।।

उपरोक्त वाणी का भावार्थ:- सत्यलोक में तथा काशी नगर में पृथ्वी पर दोनों स्थानों पर परमात्मा कबीर जी को देख कर स्वामी रामानन्द जी ने कहा है कबीर परमात्मा आप दोनों स्थानों पर लीला कर रहे हो। आप ही निज ब्रह्म अर्थात् गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा है कि उत्तम पुरूष अर्थात् वास्तविक परमेश्वर तो क्षर पुरूष (काल ब्रह्म) तथा अक्षर पुरूष (परब्रह्म) से अन्य ही है। वही परमात्मा कहा जाता है। जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण पोषण करता है वह परम अक्षर ब्रह्म आप ही हैं। आप ही की शक्ति से सर्व प्राणी गति कर रहे हैं। मैंने आप का वह सनातन परम धाम आँखों देखा है तथा वास्तविक अनहद धुन तो ऊपर सत्यलोक में है। ऐसा कह कर स्वामी रामानन्द जी ने कबीर परमेश्वर के चरणों में कोटि-2 प्रणाम किया तथा कहा आप परमेश्वर हो, आप ही सतगुरु तथा आप ही तत्त्वदर्शी सन्त हो आप ही हंस अर्थात् नीर-क्षीर को भिन्न-2 करने वाले सच्चे भक्त के गुणों युक्त हो। कबीर भक्त नाम से यहाँ पर प्रसिद्ध हो वास्तव में आप परमात्मा हो। मैं आपका भक्त आप मेरे गुरु जी। परमेश्वर कबीर जी ने कहा हे स्वामी जी ! गुरु जी तो आप ही रहो। मैं आपका शिष्य हूँ। यह गुरु परम्परा बनाए रखने के लिए अति आवश्यक है। यदि आप मेरे गुरु जी रूप में नहीं रहोगे तो भविष्य में सन्त व भक्त कहा करेंगे कि गुरु बनाने की कोई अवश्यकता नहीं है। सीधा ही परमात्मा से ही सम्पर्क करो। ‘‘कबीर’’ ने भी गुरु नहीं बनाया था।

हे स्वामी जी! काल प्रेरित व्यक्ति ऐसी-2 बातें बना कर श्रद्धालुओं को भक्ति की दिशा से भ्रष्ट किया करेंगे तथा काल के जाल में फाँसे रखेंगे। इसलिए संसार की दृष्टि में आप मेरे गुरु जी की भूमिका कीजिये तथा वास्तव में जो साधना की विधि मैं बताऊँ आप वैसे भक्ति कीजिए। स्वामी रामानन्द जी ने कबीर परमेश्वर जी की बात को स्वीकार किया। कबीर परमेश्वर जी एक रूप में स्वामी रामानन्द जी को तत्त्वज्ञान सुना रहे थे तथा अन्य रूप धारण करके कुछ ही समय उपरान्त अपने घर पर आ गए। क्योंकि वहाँ नीरू तथा नीमा अति चिन्तित थे। बच्चे को सकुशल घर लौट आने पर नीरू तथा नीमा ने परमेश्वर का शुक्रिया किया। अपने बच्चे कबीर को सीने से लगा कर नीमा रोने लगी तथा बच्चे को अपने पति नीरू के पास ले गई। नीरू ने भी बच्चे कबीर से प्यार किया। नीरू ने पूछा बेटा! आपको उन ब्राह्मणों ने मारा तो नहीं? कबीर जी बोले नहीं पिता जी! स्वामी रामानन्द जी बहुत अच्छे हैं। मैंने उनको गुरु बना लिया है। उन्होंने मुझको सर्व ब्राह्मण समाज के समक्ष सीने से लगा कर कहा यह मेरा शिष्य है। आज से मैं सर्व हिन्दू समाज के सर्व जातियों के व्यक्तियों को शिष्य बनाया करूँगा। माता-पिता (नीरू तथा नीमा) अति प्रसन्न हुए तथा घर के कार्य में व्यस्त हो गए।

स्वामी रामानन्द जी ने कहा हे कबीर जी! हम सर्व की बुद्धि पर पत्थर पड़े थे आपने ही अज्ञान रूपी पत्थरों को हटाया है। बड़े पुण्यकर्मों से आपका दर्शन सुलभ हुआ है।

(यह शब्द अगम निगम बोध के पृष्ठ 38 पर लिखा है।)

मेरा नाम कबीरा हूँ जगत गुरू जाहिरा।(टेक)
तीन लोक में यश है मेरा, त्रिकुटी है अस्थाना। पाँच-तीन हम ही ने किन्हें, जातें रचा जिहाना।।
गगन मण्डल में बासा मेरा, नौवें कमल प्रमाना। ब्रह्म बीज हम ही से आया, बनी जो मूर्ति नाना।।
संखो लहर मेहर की उपजैं, बाजै अनहद बाजा। गुप्त भेद वाही को देंगे, शरण हमरी आजा।।
भव बंधन से लेऊँ छुड़ाई, निर्मल करूं शरीरा। सुर नर मुनि कोई भेद न पावै, पावै संत गंभीरा।।
बेद-कतेब में भेद ना पूरा, काल जाल जंजाला। कह कबीर सुनो गुरू रामानन्द, अमर ज्ञान उजाला।।

अब विश्व की उत्पत्ति (सृष्टि रचना) का ज्ञान कराता हूँ जो स्वयं परमेश्वर ने अपने द्वारा रचे जगत का ज्ञान बताया है। आगे पढ़ें अध्याय 3 में।

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