सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग में परमेश्वर का आगमन
धर्मदास जी ने विनम्रता से करबद्ध होकर प्रश्न किया। हे जिन्दा महात्मा जी! क्या आप सतयुग में भी आए थे?
कबीर देव (कबीर परमेश्वर) ने उत्तर दिया:-
सतयुग में सत्सुकृत अवतारा, त्रोता नाम मुनिन्द्र मेरा।
द्वापर में करूणामय कहाया, कलयुग में कबीर कह टेरा।।
चारों युग में हम पुकारे, कूक कहा हम हेल रे।
हीरे माणिक मोती बर्षें, यह जग चुगता ढेल रे।।
सतयुग में मनु समझाया,काल वश रहा मार्ग नहीं पाया।
उल्टा दोष मोही पर लगाया, वामदेव मेरा नाम धराया।।
त्रोता में नल नील चेताया, लंका में चन्द्र विजय समझाया।
सीख मन्दोदरी रानी मानी, समझा नहीं रावण अभिमानी।।
विभिषण किन्ही सेव हमारी, तातें हुआ लंका छत्तरधारी।
हार गए थे जब त्रिभुवन राया, समुद्र पर सेतु मैं ही बनवाया।।
तीन दिवश राम अर्ज लगाई, समुद्र प्रकट्या युक्ति बताई।
नल नील की शक्ति बताई, नल नील में मस्ती छाई।।
उन नहीं किन्हा याद गुरूदेव, तातें हम शक्ति छीन लेव।
नल नील को लगी अंघाई, तातें पत्थर तिरे नहीं भाई।।
मैं किन्हें हल्के वे पत्थर भारी, सेतु बांध रघुवर सेना तारी।
लीन्हें चरण राम जब मोरे, लक्ष्मण ने दोहों कर जोरे।।
दोनों बोले एक बिचार, ऋषिवर तुम्हरी शक्ति अपार।
हनुमान नत मस्तक होया, अंगद सुग्रीव ने माना लोहा।।
सेतु बन्ध का भेद न जाने भाई, सुकी दीन्हीं राम बड़ाई।
रामचन्द्र कह कोई शक्ति न्यारी, जिन्ह यह रचि सृष्टि सारी।।
अज्ञानी कहें रामचन्द्र रचनेहारा, जिने दशरथ घर लीन्हा अवतारा।
एैसी भूल पड़ी धर्मदासा, यथार्थ ज्ञान न किस ही पासा।।
ऊवाबाई बकें ब्रह्मज्ञानी, तत्वज्ञान की सार न जानी।
द्वापर पाण्डव यज्ञ पूर्ण किन्हीं, हो गई थी सबन की हीनि।।
संहस अठासी बैठे ऋषि जन, सब ही खा लिया था भोजन।
तेतीस कोटि देवता सारे, शंख नहीं बजा रहे सब हारे।।
द्वादश करोड़ ब्राह्मण आए। बैठे सबी मुंह लटकाए।
ब्रह्मा, विष्णु, शिव गुप्त यज्ञ मांहे, बजा न शंख भोजन खाऐं।
छप्पन करोड़ यादव आरे, देख रहे तमासा सारे।
कष्ण चन्द्र पर लगी आशा भारी, नहीं बजा सके शंख बाल बिहारी।।
एक बाल्मीक साधक म्हारा, उन समझा ज्ञान तत् सारा।
श्री कृष्ण जब ध्यान लगाया, निरंजन ने गुप्त भेद बताया।।
कृष्ण चन्द्र पाण्डव समझाया, एक सुदर्शन भक्त बताया।
वह यज्ञ में आवै भाई, तब यह शंख आवाज कराही।।
बाल्मीकी है साधक पूरा, पूर्ण प्रभु के चरण हजूरा।
पांचों पाण्डव चले सुदर्शन पासा, मैं किन्हा एक अजब तमासा।।
भेज दिया सुदर्शन केही ठोरा, सुदर्शन रूपधरि बन बैठा में भोरा(भोला)।
छः जनों मोहे साष्टांग लगाई, तब में वाकेसंग यज्ञ महि आई।।
मोहे देख मन में सबन हंसी आई, यह शुद्रकैसेशंख बजाई।
द्रोपदीभोजनधरलाईथारी, खीर सब्जीओरहलवापुरीन्यारी न्यारी।।
मैं किन्ही सब एकम्-एका, द्रोपदी ने यह सब देखा।
अन्दर रोष किया द्रोपदी रानी, यह शुद्र महा अज्ञानी।।
जिने नहीं भोजन खाना आय, कैसे दे यह शंख बजाय।
घुवें आंख फुटि भोजन बनाया, अनाड़ी ने सर्व मिलाया।।
फूट गये हैं भाग हमारे, एैसे मूर्ख घर पधारे।
द्रोपदी के दिल की बातां, जान गए हम फिर खाई भातां।।
पांच ग्रास भोजन खाया, पांच बार की आवाज शंख राया।
कृष्ण को मैं प्रेरणा दिन्हीं, तब वह जाना मेरी माया झिनी।।
कृष्ण कहा यह पूर्ण करतारा, इनसे बाजे संख तुम्हारा।
कृष्ण चन्द्र ने द्रोपदी को समझाया, तब मेरे चरण धोए चरणामृत बनाया।।
पीया द्रोपदी हो आधीन अपारा, शेष पिया श्री कृष्ण सारा।
बाजासंखअखण्डधुनलाई, पूरी पृथ्वी परआवाजसुनाई।।
तीनोंलोकोंमेंसुनिशंखआवाज,तुमसुदर्शनसन्तनसिरताज।
ताको सतभक्ति समझाई, अपनी महिमा आप बताई।।
मेरे गुरूकरूणामयतत्वज्ञानी,येसबऋषिदेव हैअभिमानी।
उनसे दिक्षा लो चल सब भाई, तातें तुमरा कल्याण ह्नजाई।।
माने नहीं मती के हीना, कृष्ण बोले बचन अधिना।
हम पर कृपा तुम बहु किन्ही, हमरी लज्जा रख तुम लिन्हीं।।
कृष्ण कह तुझे स्थान पहुँचाऊँ, रथ-घोड़े जोड़ शीघ्र मंगाऊं।
एता कष्ट ना करो सुजाना, तब हम हुए अन्तर्धाना।।
अब मैं कलयुग में लीन्हा अवतारा, काशी नगर है अस्थान हमारा।
कबीर नाम है मेरा भाई,ऋषि रामानन्द से दिक्षा पाई।।
मात-पिता मेरे नहीं बालक रूप प्रकट्ाया।
लहरतारा तालाब कमल पर, तहाँ जुलाहे ने पाया।।
आया जगत् भव सागर तारण, साचि कहूं जग लागै मारन।
जो कोई माने कहा हमारा, फिर नहीं होवे जन्म दुबारा।।
ऐसा ज्ञान सुना जब दोई, चरण पकड़ दम्पत्ति रोई।
हमें ज्ञान सुनाओ जिन्दा, काटो जन्म मरण गल फंदा।।
उपरोक्त अद्वितीय ज्ञान का संकेत सुनकर दोनों (धर्मदास तथा आमिनी) ने परमेश्वर से पूर्ण ज्ञान सुनाने की प्रार्थना की। परमेश्वर कबीर जी ने सृष्टि रचना पुनः सुनाई:- (कृप्या पाठकजन पढ़े सृष्टि रचना इसी पुस्तक के पृष्ठ 250 से 269 पर) तत्वज्ञान को परमेश्वर के मुख कमल से सुनकर दोनों श्रद्धालु (धर्मदास व आमिनी) अति प्रसन्न हुए व प्रत्येक प्रत्यक्ष प्रमाण को अपने ही सद्ग्रन्थों में देख कर निरूत्तर हो गए। दोनों ने परमेश्वर से उपदेश (दीक्षा) प्राप्त किया। परमेश्वर कबीर जी ने प्रथम मन्त्र दिया {जो मन्त्र यह दास (संत रामपाल दास) देता है} एक दिन ज्ञान चर्चा करते समय धर्म दास जी ने कहा हे परवरदीगार! आप का ज्ञान अद्वितीय है परन्तु आज तक किसी ने नहीं बताया कि श्री ब्रह्माजी, श्री विष्णु जी तथा शिवजी से भी अन्य परम ईश्वर है। यदि आप अपने धाम (सतलोक) की एक झलक मुझ दास को दिखा दें तो मेरा मन मुझे भ्रमित नहीं करेगा।
परमेश्वर कबीर जी ने कहा अच्छा भक्त आप को सतलोक लिए चलता हूँ। यह कह कर धर्मदास की आत्मा को शरीर से भिन्न करके परमेश्वर कबीर जी अपने साथ ले गए। धर्मदास जी अचेत हो गए अर्थात् धर्मदास जी का शरीर रह गया। जो अचेत अवस्था में नजर आ रहा था परन्तु मृतक नजर नहीं आ रहा था। पूर्ण परमात्मा ने भक्त धर्मदास जी को एक ब्रह्मण्ड की सर्व व्यवस्था दिखाई, तीनों देवताओं (ब्रह्मा, विष्णु व शिवजी) के लोक तथा स्वर्ग-नरक तथा इन्द्र का लोक, धर्मराज का लोक उस के ऊपर ब्रह्मलोक तथा ब्रह्मलोक में बने नकली सतलोक, अलख लोक, अगम लोक तथा अनामी लोक दिखाए जो काल रूपी ब्रह्म का माया जाल है। जो जीव को धोखा देने के लिए बनाया है । क्योंकि उस को पता है कि परमेश्वर अपनी आत्माओं को लेने के लिए अपने किसी पुत्र को भेजेगा तथा वह ऊपर की जानकारी देगा। उसके ज्ञान को जान कर जीवात्मा इस नकली सतलोक में आकर अपने आप को पूर्ण मुक्त समझेंगे तथा मेरे (काल के) जाल में फंसे रहेंगे।
इसके पश्चात् ब्रह्मलोक के सर्वोपरि स्थान पर इसी काल रूपी ब्रह्म ने तीन गुप्त स्थान बनाए है। जहाँ पर यह अपनी पत्नी दुर्गा के साथ साकार में रहता है। इसी ब्रह्मलोक में एक दुर्गा का लोक भिन्न भी है। इसके पश्चात् काल के इक्कीस ब्रह्मण्डों का भेद दिखा व बताकर परमेश्वर कबीर देव जी अपनी प्यारी आत्मा धर्मदास जी को परब्रह्म के सात संख ब्रह्माण्डों से पार अपने सतलोक में ले गए। भंवर गुफा के तुरन्त पश्चात् सतलोक प्रारम्भ हो जाता है। धर्मदास जी सतलोक में पहुँच कर अति प्रसन्न हुआ। वहाँ के हंस आत्माओं से मिला तथा काल जाल में फंसने के कारण से परिचित हुआ।
धर्मदास जी ने देखा कि एक बहुत बड़े गुम्बद में एक श्वेत आसन पर परमेश्वर विराजमान हैं। परमेश्वर के शरीर से अत्यधिक प्रकाश निकल रहा है। धर्मदास जी को साथ लेकर गया था वह जिन्दा सन्त गुम्बद में प्रविष्ट हुआ तथा परमेश्वर के सिर पर चंवर ढुराने लगा। धर्मदास जी ने सोचा कि सर्व सृष्टि रचनहार, पूर्ण परमात्मा तो सिंहासन पर विराजमान है तथा यह जिन्दा सन्त यहाँ का सेवक लगता है जो परमेश्वर पर चंवर कर रहा है। उसी समय धर्मदास ने देखा कि, तख्त (सिंहासन) पर बैठे तेजोमय शरीर युक्त परमेश्वर ने आसन छोड़ दिया तथा जिन्दा सन्त उस सिंहासन पर बैठ गया तथा परमेश्वर जिन्दा पर चंवर करने लगा। धर्मदास को अनोखा लगा कि एक सेवक पर परमेश्वर चंवर किसलिए कर रहे हैं ? देखते ही देखते तेजोमय शरीर युक्त परमेश्वर सिहांसन पर विराजमान जिन्दा सन्त के शरीर में समा गए अकेले जिन्दा सन्त तख्त (सिंहासन) पर विराजमान थे। तब धर्मदास को ज्ञान हुआ कि यह जिन्दा कोई साधारण सेवक या सन्त नहीं है। ये तो पूर्ण परमात्मा है।
धर्मदास जी से कबीर परमेश्वर ने कहा धर्मदास मैं! वर्तमान में बनारस (काशी) शहर में कबीर जुलाहे की भूमिका करने गया हुआ हूँ। वहाँ पर काल द्वारा फैलाए अज्ञान को समाप्त करने के लिए तत्व ज्ञान प्रचार कर रहा हूँ। गुरू मर्यादा बनाए रखने के लिए मैंने स्वामी रामानन्द महाराज जी को गुरू बनाया है। उनको भी मैं यहीं (सतलोक में) लाया था तब स्वामी रामानन्द जी का संशय नष्ट हुआ था तथा अब वे मेरे द्वारा बताए तत्वज्ञान के आधार से भक्ति कर रहे हैं तथा पूर्व वाली साधना त्याग दी है। अब आप लौट कर अपने घर जाओ आप का परिवार आप को अचेत देख कर तीन दिन से दुःखी है। धर्मदास जी ने परमेश्वर कबीर जी से विनय की हे परमेश्वर! मुझे यहीं अपने पास सत्यलोक में रख लो उस काल लोक में मत भेजो। वहां तो प्रत्येक प्राणी महाकष्ट भोग रहा है। सर्व प्राणी काल रूपी ब्रह्म को ही परमेश्वर मान कर उसी की साधना करके जन्म-मृत्यु-नरक व स्वर्ग में हरहट के कुएं की तरह चक्र लगा रहे हैं।
मोहे राख लियो महाराज हम से बिगड़ी है।टेक।
बिगड़ी है महाराज हम से बिगड़ी है।।
हम जाने वह परिवार हमारा, वह तो सब काल का चारा।
मत भेजो महाराज काल की नगरी है (मोहे राख लियो------)
धर्म-कर्म की सार न जानी, बना फिरूं था महा अभिमानी।
बचा लियो महाराज, आग सी लगरी है (मोहे राख लियो-----)
सतलोक है निज घर हमारा, काल बली ने जाल पसारा।
भूल हुई महाराज हम से तगड़ी है (मोहे राख लियो--------)
धर्मदास है दास तुम्हारा, मत धका दो हे करतार।
दया करो महाराज पाप की गठरी है (मोहे राख लियो-------)
परमेश्वर ने कहा हे प्रिय आत्मा धर्मदास! जितनी भी आत्माऐं काल के लोक में गई हैं। वे स्वइच्छा से गऐ हैं। जितनी प्रबल इच्छा से काल ब्रह्म (ज्योति निरंजन) के साथ आत्माऐं गई हैं उतनी ही प्रबल इच्छा सतलोक आने की उत्पन्न होगी तब ही यहां सत्यलोक में प्रवेश हो सकेगा। उस से पूर्व आप सर्व आत्माओं ने सत्य साधना करके भक्ति के धनी होना है तथा काल के लोक का ऋण भी चुकाना है। वह तब ही तुम्हें मुक्त करेगा।
{विशेष:- यही प्रमाण गीता अध्याय 18 श्लोक 62 व 66 में है गीता ज्ञान दाता काल रूपी ब्रह्म ने श्लोक 62 में कहा है कि हे अर्जुन (भारत) तू सर्वभाव से उस परमेश्वर की शरण में जा (जो गीता ज्ञान दाता से अन्य है) उस परमात्मा की कृपा से ही तू परम शान्ति को तथा सनातन (सदा रहने वाले अर्थात सत्य) स्थान (लोक) को प्राप्त होगा। (गी.18/मं.62) गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में ओम्-तत्-सत् मन्त्र के जाप को पूर्ण परमात्मा प्राप्ति का कहा है तथा गीता अध्याय 8 श्लोक 13 में कहा है कि ओम् यह एक अक्षर मुझ ब्रह्म (गीता ज्ञान दाता) का नाम मन्त्र है जो अन्तिम स्वांस तक जाप करने का है। इसकी नाम जाप की कमाई करनी है। तत् मन्त्र यह सांकेतिक है। इसका जाप परब्रह्म की कमाई का है। सत मन्त्र यह भी सांकेतिक है। जो पूर्ण ब्रह्म की कमाई का है। जो साधक तीन मन्त्र (ओम्-तत्-सत्) का जाप आजीवन करता है तथा शरीर त्याग कर जाता है। तो ब्रह्म अर्थात् काल के ॐ नाम के जाप की कमाई तथा यज्ञ आदि सर्व धार्मिक पूजाऐं ब्रह्म (गीता ज्ञान दाता) को त्याग देता है। इस ब्रह्म की धार्मिक पूजाओं का लाभ काल लोक में प्राप्त नहीं करता {ॐ नाम की साधना की कमाई से साधक ब्रह्मलोक में बने नकली सत्यलोक में चला जाता है। वहाँ अपने पुण्यों को समाप्त करके पाप कर्मों का फल नरक में भोगता है पश्चात् पूनर् जन्म पृथ्वी लोक पर कर्माधार से प्राप्त करके काल जाल में फंसकर रह जाता है परमशान्ति अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। तत्वदर्शी सन्त के बताए मार्ग अनुसार साधक ॐ नाम के जाप की भक्ति कमाई का प्रतिफल प्राप्त नहीं करता} उसे ब्रह्म (काल रूपी ब्रह्म अर्थात् गीता व वेद ज्ञान दाता) को दे देता है। जिस कारण से साधक ब्रह्म काल के (पाप कर्मों रूपी) ऋण से मुक्त होकर आगे सत्यलोक को प्रस्थान कर देता है तथा तत् मन्त्र (जो सांकेतिक है अक्षर पुरूष अर्थात् परब्रह्म का जाप है) की भक्ति कमाई को परब्रह्म को दे देता है जिस कारण से परब्रह्म के लोक से पार जाने का ऋण उतर जाता है। सत् मन्त्र (जो परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् पूर्ण ब्रह्म का नाम जाप है जिसके जाप की कमाई से सत्यलोक में स्थाई स्थान प्राप्त करता है) के जाप की कमाई को साथ लेकर त्री नाम साधक सत्यलोक में उस परमेश्वर (सत्य पुरूष) के पास चला जाता है तथा सनातन स्थान अर्थात् सत्यलोक प्राप्त करता है तथा परमशान्ति (पूर्ण मोक्ष) को प्राप्त करता है। उसके पश्चात् साधक लौटकर इस संसार में कभी नहीं आते अर्थात् उनका पुनःजन्म नहीं होता। गीता अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 में भी प्रमाण है। इसलिए गीता अध्याय 18 श्लोक 66 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में जिस अन्य उस परमेश्वर की शरण में जाने को कहा है उस की विधि है कि:-
गीता अध्याय 18 श्लोक 66 का हिन्दी अनुवादः-
सर्वधर्मान् परित्यज्यमाम् एकम् शरणम् व्रज।
अहम् त्वा सर्व पापेभ्यः मोक्षिष्यामि मा शुचः।।
अनुवादः मेरी (सर्वधर्मान्) सर्व धार्मिक पुजाओं, अर्थात् ॐ नाम के जाप की कमाई व यज्ञादि को (माम्) मुझ गीता ज्ञान दाता में (परित्यज्य) त्यागकर (एकम्) उस एक सर्वशक्तिमान परमेश्वर की (शरणम्) शरण में (व्रज) जा (अहम्) मैं अर्थात् गीता ज्ञान दाता (त्वा) तुझे (सर्वपापेभ्यः) सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूंगा (मा शुचः) तू शोक मत कर (गीता अ.18/मं.66)
नोट विशेष:- आज (सन् 2014) तक जितने भी गीता जी के अनुवाद कर्ताओं ने गीता जी के अनुवाद में व्रज शब्द का अर्थ आना किया है जबकि व्रज शब्द का अर्थ जाना, चले जाना, दूर जाना, गमन करना है। तत्व ज्ञान के अभाव से ही श्री मद् भगवत गीता जी के ज्ञान का अपने हिन्दी अनुवाद में अज्ञान किया है। जैसे अंग्रेजी के शब्द हव का अर्थ जाना होता है यदि हव का अर्थ कहीं आना किया हो तो वह उचित नहीं है। उपरोक्त इस विशेष विवरण का भावार्थ है कि पूर्ण परमात्मा कोई अन्य ही है जिसका उल्लेख गीता अध्याय 15 श्लोक 16.17 में भी है। जिस पूर्ण ब्रह्म की शरण में जाने से ही जीवात्मा पूर्ण मोक्ष (परमशान्ति) को प्राप्त करता है। उस के पास जाने का मार्ग तत्वदर्शी सन्त बताएगा (गीता अध्याय 4/मं. 34 में तत्वदर्शी सन्त का उल्लेख है) तीन नाम की भक्ति करके प्रथम मन्त्र ओम् अक्षर के जाप की कमाई व यज्ञादि क्रियाओं का पुण्य ब्रह्मकाल (ज्योति निरंजन) में त्याग देने के पश्चात् ऋण मुक्त होकर जीवात्मा निष्पाप होकर सत्यलोक में उस परमेश्वर (तत् ब्रह्म) के पास चला जाएगा उस परम अक्षर ब्रह्म (पूर्ण परमात्मा) की कृपा से ही प्राणी परमशान्ति अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त करेगा। इसीलिए भक्त धर्मदास जी आप को काल के ऋण से मुक्त होना है उस की विधि उपरोक्त है।}
धर्मदास जी ने नम्रता से विनय पूर्वक कहा कि हे परमेश्वर! ब्रह्म (काल) के ऋण से मुक्त होने की विधि क्या है? कृपा मुझ अपराधी को बताईए। परमेश्वर ने कहा हे धर्मदास! मैं काशी शहर में (भारत वर्ष की पवित्र जमीं पर) ‘‘कबीर’’ नाम धारण करके जुलाहे का कार्य करने का अभिनय करके तत्वदर्शी सन्त की भूमिका करने गया हुआ हूँ। मैंने काशी शहर के लहर तारा नामक जलाशय में एक कमल के फूल पर शिशु रूप धारण किया था। उस दिन नीरू नामक जुलाहा अपनी पत्नी नीमा के साथ उस तालाब में स्नान करने को आया था। वह निःसन्तान था। मुझे बालक रूप में प्राप्त करके उस की पत्नी नीमा का मेरे प्रति अति वात्सल्य हो गया। वे मुझे अपने घर ले गए तथा पुत्र रूप से मेरा पालन किया। मैंने कंवारी गाय का दूध बचपन में पीया था जो मेरी कृपा से ही सम्भव हो सका था। मै जब भी जिस युग में प्रकट होता हूँ तथा एक मानव जीवन जैसी पूर्ण लीला करने जाता हूँ तो उस समय शिशु रूप ही धारण करता हूँ। तब मेरी परवरिश (पालन) लीला कंवारी गायों से ही होती है।
{विशेषः- यही प्रमाण ‘‘ऋग्वेद’’ मण्डल 9 सुक्त 1 मन्त्र 9 तथा मण्डल 9 सुक्त 96 मन्त्र 16 से 20 तक भी है।
हे धर्मदास! काल ब्रह्म ने सर्व आत्माओं को जीवरूप प्रदान कर दिया है तथा तत्वज्ञान को छुपा कर लोकवेद (कहे-सुने ज्ञान) पर आरूढ़ किया हुआ है। इसलिए तत्वज्ञान बताने के लिए मैं (कविर्देव) वहाँ तत्वदर्शी सन्त की भूमिका करके एक पूर्ण जीवन (जो मानव का होता है) पृथ्वी पर रहता हूँ। मुझे प्रसिद्ध कवि की उपाधि भी जनता द्वारा दी जाती है वे मुझ पर विश्वास नहीं करते। भोले श्रद्धालु मुझ परमेश्वर को जान नहीं पाते क्योंकि काल ब्रह्म के लोक वेद के आधार से सर्व काल के दूतों (सन्तों) ने परमेश्वर को निराकार बताया होता है तथा समाधी में उसका प्रकाश शरीर में देखना ही अन्तिम उपलब्धि अर्थात् प्रभु प्राप्ति बताई होती है। जब की चारों वेद साक्षी है कि परमेश्वर सशरीर है। मानव सदृश साकार है। यजुर्वेद अध्याय 5 श्लोक 1 में मेरी दोनों स्थिति में सशरीर साकार होने का प्रमाण है। फिर भी ज्ञानहीन ऋषिजन काल द्वारा हरि गई बुद्धि के कारण लोक वेद को ही उत्तम मानते रहते हैं तथा यही लोक वेद जनता में प्रचार करके दिगभ्रष्ट (गुमराह) करते रहते हैं।
यजुर्वेद अध्याय 5 मन्त्र 1 में लिखा है
अग्नेः तनुः असि। विष्णवे त्वा सोमस्य तनूः असि। विष्णवे त्वा अतिथ्येः अतिथ्यम् असि विष्णवेत्वा श्येनाय त्वा सोम भृते विष्णवे त्वा अग्नये त्वा रायः पोषदे विष्णवे त्वा (1)
अनुवाद (हिन्दी में):- (अग्नेः) हे परमेश्वर आपका (तनूः) शरीर (असि) हे अर्थात् हे परमेश्वर आप सशरीर हैं। (विष्णवे) सर्व का पालन करने के लिए (त्वा) उस (सोमस्य) अमर परमेश्वर का (तनूः) शरीर (असी) है। (त्वा) वह परमेश्वर
(विष्णवे) तत्व ज्ञान से परिपूर्ण करने के लिए अर्थात् तत्व ज्ञान से आत्माओं का पोषण करने के लिए (अतिथ्ये) अतिथि रूप में आता है उस अतिथि रूप में आए परमेश्वर का (अतिथ्यम्) अतिथि सत्कार करना योग्य है अर्थात् वही तत्वदर्शी सन्त रूप में प्रकट परमेश्वर पूज्य है। (त्वा) वह परमेश्वर (विष्णवे) तत्व ज्ञान द्वारा आत्माओं को पोषण करने के लिए (श्येनाय) अलल पक्षी की तरह शीघ्र गामी होकर यहाँ आकर अज्ञान निन्द्रा में सोए हुओं को जगाने वाला है। (त्वा) वह परमेश्वर आप (सोमभृते) सतपुरूष की भक्तिरूपी अमृत से परिपूर्ण करने वाला (त्वा) वह परमेश्वर स्वयं ही (विष्णवे) पालन के लिए विष्णु रूप से प्रसिद्ध है। (अग्नेय) परमेश्वर के लिए कोई भी कार्य असम्भव नहीं है वह परमेश्वर (त्वा) आप (रायःपोषदे) भक्ति रूपी धन से परिपूर्ण करने वाला (विष्णवे) व पालन करने के लिए पालन कत्र्ता है।
भावार्थः- इस मन्त्र में वेद ज्ञान दाता ने पूर्ण परमात्मा की महिमा व स्थिति बताई है। इसमें दो बार साक्षी दी है कि परमेश्वर सशरीर है। उस परमेश्वर अर्थात् अमर पुरूष का अन्य शरीर भी है जिसको धारण करके इस लोक में अतिथी अर्थात् मेहमान रूप में आता है। अतिथि का अर्थ है जिस के आने की तिथि पूर्व निर्धारित न हो। बिना निर्धारित तिथि को आने वाले को अतिथि कहते हैं। वह परमात्मा अतिथि रूप में सन्त रूप धारण करके तत्वज्ञान द्वारा सर्व आत्माओं को यर्थाथ भक्ति साधना बता कर भक्तिरूपी धन से धनी बनाता है। वह अलल पक्षी की तरह शीघ्र गामी है। वही पूजा के योग्य है। यही प्रमाण ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 86 मंत्र 26-27 सुक्त 82 मंत्र 1 से 3 में भी है}
परमेश्वर ने कहा हे धर्मदास! आप काशी में आइए आप को द्वितीय मन्त्र अर्थात् सतनाम प्रदान करूंगा तत् पश्चात् आप की भक्ति कमाई देखकर सारनाम (जो तीन मन्त्र का होता है) प्रदान करके पूर्ण मोक्ष का अधिकारी बनाऊँगा। आप लौट जाओ। चिन्ता मत कर मैं तेरे साथ-2 रहूँगा। काल के द्वारा दी जाने वाली प्रत्येक पीड़ा से तेरी रक्षा करूंगा। तीसरे दिन धर्मदास जी सचेत हुआ अर्थात होश में आया। अपने पास बैठे परिजनों को देखकर आश्चर्य हुआ कि वास्तव में मैं सतलोक की सैर करके आया हूँ। यदि धर्मदास जी को यह सर्व सतलोक की सैल एक रात्रि में हो जाती तो वह इसे स्वपन मात्र मानता। धर्मदास जी के होश में आने से सर्व परिजनों के हृदय में खुशी की लहर दौड़ गई। धर्मदास जी पृथ्वी पर आकर अति दुःखी हो गए। अपनी पत्नी आमिनी को बताया कि जो जिन्दा महात्मा रूप में अपने घर आए थे वे पूर्ण परमात्मा हैं। उनकी महिमा को मैं आँखों देखकर आया हूँ। वे मुझे अपने साथ सतलोक में लेकर गए थे। आज वापिस भेजा है। यह तो काल का भयंकर लोक है। वह परमेश्वर बनारस (काशी) में कबीर नाम से प्रकट है तथा जुलाहे का कार्य करते हैं। मैं काशी शहर में जाकर परमेश्वर के दर्शन करूंगा। दूसरे दिन धर्मदास जी
ने काशी शहर को प्रस्थान किया। काशी शहर में कबीर परमेश्वर का वही रूप जो सत्यलोक में जिन्दा रूप में सिंहासन पर विराजमान देखा था बनारस में देखकर उनके चरणों में गिर गया तथा ध्यान पूर्व देखता रहा। तब परमेश्वर ने बिना नाम पूछे ही कहा आओ धर्मदास मैं आप ही की प्रतिक्षा कर रहा था। परमेश्वर के मुख से अपना नाम सुन कर निःसंशय हो गया कि ये वही परमेश्वर हैं। धर्मदास जी ने आँखों में पानी भर कर रूंधेकण्ठ से कहा हे दीनदयाल! आप हम पापीयों के लिए अपना सुखदाई स्थान त्याग कर कष्ठ उठाने आए हो। परमेश्वर बोले, हे प्रिय आत्मा धर्मदास! मैं सर्व प्राणियों का पिता हूँ पिता अपनी सन्तान को सुखी करने के लिए स्वयं अनेकों कष्ट उठाकर भी कष्ट महसूस नहीं करता। परन्तु इस काल ब्रह्म ने मेरी आत्माओं को विपरीत ज्ञान से भ्रमित कर रखा है। जिस कारण से ये मुझे पहचान नहीं पा रहे। आपको इसलिए सतलोक के दर्शन कराए हंै कि आप मेरे ज्ञान के गवाह (साक्षी) बन सको। आने वाले समय में आपको मेरा साक्षी माना जाएगा।
मैं रोवत हूँ सृष्टि को, सृष्टि रोवत मोहे।
कहे कबीर इस वियोग को, जान न सकता कोए।।
भावार्थः-कबीर परमेश्वर ने कहा मैं अपनी आत्माओं के लिए रोता हूँ कि मुझे पहचानों और सतलोक चलो। आत्माऐं सुखदायक परमेश्वर को खोज रहे हैं परमशान्ति प्रदान करने वाले परमेश्वर के लिए रोते हैं। मैं कहता हूँ कि मैं पूर्ण परमात्मा हूँ। ये काल ब्रह्म द्वारा भ्रमित आत्माऐं कहती हैं कि तु जुलाहा कैसे पूर्ण परमात्मा हो सकता है। इस प्रकार हमारे वियोग को कोई नहीं समझ रहा। आप जैसे पुण्यात्माओं के द्वारा इनका भ्रम निवारण करके तत्वज्ञान प्रदान करूंगा तथा सत्य साधना बता करके भक्ति के धनी बनाऊंगा। जिससे ये सर्व साधक काल ब्रह्म के ऋण से मुक्त होकर पूर्ण मोक्ष प्राप्त करके मेरे पास सत्यलोक में आनन्द से रहेंगे।