द्वितीय किस्त
राधा स्वामी पंथ की कहानी-उन्हीं की जुबानी: जगत गुरु (धन-धन सतगुरु, सच्चा सौदा तथा जय गुरुदेव पंथ भी राधास्वामी की शाखाएं हैं)
(द्वितीय किस्त)
(12 मार्च 2006 को पंजाब केसरी में प्रकाशित)
भक्त कृष्ण सिंह लाठर ट्रस्टी ने बताया कि सतलोक आश्रम करौंथा में संत गरीबदास जी महाराज के बोध दिवस के उपलक्ष में चल रहे सात दिवसीय सत्संग समारोह में जगत गुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज ने श्रद्धालुओं की शंकाओं का समाधान किया तथा शास्त्रों में छुपी सच्चाई को तथा अन्य संतों व पंथों की पुस्तकों को प्रोजैक्टर के द्वारा पर्दे पर दिखा कर श्रद्धालुओं को सत्य से अवगत कराया।
शंका समाधान:- वास्तव में आदरणीय श्री शिवदयाल जी महाराज (राधास्वामी) जी पूर्व जन्म के भक्ति युक्त पुण्य आत्मा थे। वर्तमान में उन्हें शास्त्र अनुकूल सत्य भक्ति नहीं मिली। जिस कारण से वे अपनी पूर्व जन्म की कमाई के आधार से ही भक्ति के प्यासे थे। 5-6 वर्ष की आयु में बचपन से ही स्वयं समाधिस्थ हो जाते थे। अपनी पूर्व जन्म की कमाई को समाप्त कर गए इसलिए अपनी प्रिय शिष्या बुक्की में प्रवेश हो कर बातें करते थे। श्री प्रताप सिंह जी ने ‘‘जीवन चरित्र हजूर स्वामी जी महाराज पृष्ठ 54-55-56 वचन 65 में लिखा है कि मैं (प्रताप जी) तथा श्री सालगराम राय साहेब भी कई बार उनसे आदेश प्राप्त करते थे। फिर बुक्की के मुख से स्वामी शिवदयाल जी के प्राप्त आदेश का पालन करते थे। इससे सिद्ध है कि श्री शिवदयाल जी (राधास्वामी) ही अपनी प्रिय शिष्या बुक्की में प्रवेश (प्रकट) होकर बोलते थे। उस आदेश का पालन श्री राय साहब सालगराम जी (जिसने राधास्वामी पंथ चलाया) तथा श्री प्रताप सिंह जी (जो हजूर स्वामी शिवदयाल जी के सगे भाई थे) करते थे। कृप्या देखें फोटो कापी पृष्ठ 54-55-56 वचन सं. 65 (जीवन चरित्र हजूर स्वामी जी महाराज) इसी पुस्तक (सच्चखण्ड का संदेश) के पृष्ठ 80 से 83 पर।
उपरोक्त वचन 65 की फोटो कापी में स्पष्ट है कि
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स्वामी शिवदयाल जी अपनी शिष्या बुक्की में प्रवेश (प्रकट हो) कर भक्तमति बुक्की के मुख द्वारा आदेश देते थे तथा मृत्यु के पश्चात् भी हुक्का व भोग की सेवा अपनी शिष्या बुक्की जी द्वारा ग्रहण करते थे और बुक्की जी में उसकी मृत्यु तक प्रकट (प्रवेश) रहे।
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स्वामी शिवदयाल जी हुक्का पीते थे। विचार करें: ऐसी स्थिति तो पितरों तथा प्रेतों की होती है। किसी भी मोक्ष प्राप्त संत के इतिहास में नहीं मिलती। जब जिस पंथ के मुखिया ही विकार नहीं त्याग सके तो अन्य अनुयाई कैसे विकार रहित हो सकते हैं। इसलिए उस पंथ के भक्ति मार्ग से मोक्ष प्राप्ति की बात कहना ही व्यर्थ है।
जैसे इनवर्टर की बैट्री चार्जड होती है वह सर्व लाभ(पंखा चला देती है, बल्ब जगा देती है) देती रहती है। यदि चार्जर ठीक नहीं होता है तो डीस्चार्ज होने के पश्चात वह लाभ नहीं देती। इसी प्रकार पूर्व जन्म की भक्ति से सम्पन्न हुए भक्त वर्तमान में अच्छे साधक लगते हैं। परन्तु साधना शास्त्रविरूद्ध होने के कारण भविष्य की भक्ति कमाई से वंचित रह जाते हैं। फिर वे पितर या प्रेत बन जाते हैं। फिर अन्य के शरीर में बोलते हैं।
यहाँ सतलोक आश्रम करौंथा में बहुत से व्यक्ति प्रेतों से पीड़ित भी आते हैं। वे नाम प्राप्त करके स्वस्थ हो जाते हैं तथा उनका आत्मकल्याण भी हो जाता है। प्रश्नः एक श्रद्धालु ने प्रश्न पूछा तथा एक घटना का वर्णन किया। भक्त ने बताया कि मेरा चाचा भला व्यक्ति था। सुबह-शाम दो-दो घण्टे नित्य साधना करता था। मृत्यु के पश्चात वह अपनी पुत्रवधु में बोलता था। जब कोई आपत्ति आती तो उससे पूछते थे और जो समाधान बताता था वह सही हो जाता था। मृत्यु से पूर्व मेरा चाचा हुक्का पीता था तथा चूरमा (घी, खाण्ड, रोटी से बनाया जाता है) खाया करता था। जो उसे बहुत पसंद था। उसकी पुत्र वधू प्रतिदिन उसके कमरे में (जिसमें वह साधना किया करता था) हुक्का भर कर रखती थी तथा चूरमा भी बना कर रखती थी। वह स्वयं हुक्का पीती तथा चूरमा खाती थी। जब कभी नहीं रख पाती थी तो वह उस के मुख से बोलता तथा अन्य को कहता था तुम्हारी ईंट से ईंट बजा दूंगा। फिर हम डरते ऐसा करते थे। कई बार हमारे घर में होने वाली लाभ-हानि को अपनी पुत्र वधू में प्रकट (प्रवेश) होकर पूर्व ही बता देता था। वह सत्य होती थी। एक ब्राह्मण ने बताया था कि वह पितर बना हुआ है। अब आपसे उपदेश लेने के पश्चात् पीछा छूटा है। मेरा चाचा जी भक्ति भी करता था फिर भी पितर या प्रेत बन गया। क्या कारण है ?
उत्तरः- जो पुण्यात्मा पूर्व जन्म में किसी सन्त की शरण में सत्य साधना किया करता था। वह कुछ भक्ति कमाई तो स्वर्ग में समाप्त कर देता है। शेष पुण्यों के आधार से उसे मानव शरीर प्राप्त हो जाता है। मानव जन्म में भी पूर्व जन्म की कमाई के प्रभाव से भक्ति की प्रेरणा से वह व्यक्ति साधना अवश्य करता है। शास्त्रविधि रहित साधना करने के कारण उसकी पूर्व जन्म की शेष कमाई मानव जन्म में समाप्त हो जाती है। जिस कारण से वह साधक मृत्यु उपरान्त पितर योनि को प्राप्त होता है फिर प्रेत योनि में जाता है। फिर नरक तथा अन्य प्राणियों की योनियां भोगता है। यह प्रभु का विधान है।
इसलिए पवित्र गीता जी अध्याय 16 श्लोक 23 में कहा है कि जो व्यक्ति शास्त्रविधि त्याग कर मनमाना आचरण(पूजा) करता है। उसे न तो कोई सुख प्राप्त होता है न उसकी गति होती है न कोई सिद्धी अर्थात प्रभु प्राप्ति का कार्य भी सिद्ध नहीं होता।
फिर श्लोक 24 में कहा है कि भक्ति मार्ग की साधना ग्रहण करने तथा त्यागने के लिए शास्त्रों को ही आधार मानें, किसी सन्त के कहने मात्र से विश्वास न करें।
शंका प्रश्न:- आपने प्रथम किस्त में लिखा है कि राधा जी श्री शिवदयाल जी की धर्म पत्नी थी। आपके पास क्या प्रमाण है ? हमें तो बताया गया है कि राधा सुरत को कहते हैं तथा स्वामी शब्द को।
उत्तर:- प्रिय श्रद्धालु आपने वचन संख्या 4 में पढ़ा। जिसमें लिखा है कि राधास्वामी सबसे ऊंचा स्थान है। फिर लिखा है कि यह मालिक का नाम है। फिर लिखा है कि यह ला मकान है अर्थात् स्थान भी नहीं कह सकते। आप ही विचार करें कि इनकी कौनसी बात को सत्य मानोगे। कृप्या पढो प्रमाण पुस्तक ‘‘उपदेश राधास्वामी‘‘, प्रकाशक - एस.एल. सोंधी, सेक्रेटरी राधास्वामी सत्संग, ब्यास, जिला अमृतसर (पंजाब) की फोटो काॅपी पृष्ठ 30.31 तथा यही प्रमाण पुस्तक ‘‘जीवन चरित्र बाबा जयमल सिंह जी‘‘, लेखक श्री कृपाल सिंह जी के पृष्ठ 56 की फोटो काॅपी इसी पुस्तक (सच्चखण्ड का संदेश) के पृष्ठ 82 पर और स्वयं निर्णय करें सत्य और असत्य का।
शंका प्रश्न: आपने प्रथम किस्त में यह भी लिखा है कि तुलसी साहेब हाथरस वाले ने पांचों नाम काल के कहे हैं। क्या प्रमाण है ? यदि सचमुच ऐसा है तो हमारे साथ धोखा हुआ है।
उत्तर:- प्रिय श्रद्धालु कृप्या पढ़ो फोटो काॅपी घट रामायण पहिला भाग पृष्ठ 27 की। इसी पुस्तक (सच्चखण्ड का संदेश) के पृष्ठ 84 पर जिसमें स्पष्ट किया है कि पांचों नाम तो काल के हैं। इन पांचो नामों से भिन्न दो नाम अन्य हैं - 1. आदिनाम जिसे सारनाम भी कहते हैं। वह कोई और मन्त्र है जो उपदेशी को गुरु द्वारा दिया जाता है। दूसरा सतनाम है। (सतनाम कहते हैं सच्चे नाम को। सतनाम-सतनाम जाप करने का नहीं है।) जिन दोनों नामों आदिनाम अर्थात् सारनाम तथा सतनाम (जो दो मंत्रों का योग है) का राधास्वामी पंथ तथा धन-धन सतगुरु अर्थात् सच्चा सौदा पंथ वाले संतों को पता नहीं है। इसलिए तो पुस्तक सार वचन वार्तिक पृष्ठ 3 पर सत्संग वचन 4 में स्वयं श्री शिवदयाल जी महाराज (राधास्वामी) सतनाम, सारशब्द अर्थात् आदिनाम तथा सतशब्द, सतपुरुष, सतलोक को एक बताया है। यह भी कहा है कि राधास्वामी पद सबसे ऊंचा मुकाम (स्थान) है। यही सच्चे मालिक का नाम है। इसे ला मकान जिसका कोई स्थान भी नहीं कह सकते फिर लिखा है इसी को कहते हैं। विचार: प्रिय पाठक स्वयं विचार करें। क्या यह पूरे संतों के विचार हैं? यह तो ऐसा है जैसे किसी ने जीवन में कभी न कार देखी, न पैट्रोल, न शहर, न सड़क और न ड्राईवर का ज्ञान हो। वह कहे कि मैं कार की सवारी करने शहर में जाता हूँ। वह पैट्रोल व ड्राईवर से सड़क पर चलती है।
फिर कहे कार चलती थोड़े ही है। कार बताऊँ किसे कहते हैं। कार को पैट्रोल, ड्राईवर, सड़क तथा शहर कहा जाता है। वास्तव में कार है ही नहीं जिसे कार कहा जाए। एैसे विचार हैं श्री शिवदयाल जी महाराज (राधास्वामी) जी के इससे सिद्ध है कि राधास्वामी पंथा तथा धन-धन सतगुरु व सच्चा सौदा पंथ के मुख्य मार्ग दर्शक श्री शिवदयाल जी(राधास्वामी) को भक्ति का क-ख भी ज्ञान नहीं था तो उनके अनुयाईयों का क्या हाल होगा ? जिन की थ्यूरी ही ठीक नहीं है तो प्रैक्टीकल कैसे ठीक हो सकता है? उनका लिखित अनुभव ही कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा है तो साधना भी व्यर्थ है।
हजूर स्वामी जी महाराज श्री शिवदयाल जी (राधास्वामी) का कोई गुरु नहीं था। कृप्या देखें फोटो काॅपी पुस्तक ‘‘जीवन चरित्र हजूर स्वामी जी महाराज‘‘ लेखक प्रताप सिंह जी के पृष्ठ 19 पर वचन संख्या 31 इसी पुस्तक (सच्चखण्ड का संदेश) में पृष्ठ 84 पर।
विशेष विचारः-सर्व पाठकों से प्रार्थना है कि सर्व प्रमाणों को पढ़ें तथा निष्पक्ष निर्णय करें। सत्य साधना केवल मुझ दास (रामपाल दास) के पास है। वर्तमान में यह साधना किसी के पास नहीं है।
राधास्वामी तथा सच्चा सौदा सिरसा तथा जगमालवाली (धन धन सतगुरू) वाले कहते हैं कि हमारा ज्ञान तो गीता जी तथा वेदों से भी आगे है वेद तथा गीता ज्ञान को हम नहीं मानते।
विचार करेंः- पवित्र गीता जी व पवित्र वेदों का ज्ञान ब्रह्म तक की साधना का श्रेष्ठ ज्ञान है इसे ऐसा जानो जैसे दसवीं कक्षा तक पाठ्यक्रम है। सुक्ष्म वेद(कबीर वाणी) पूर्ण परमात्मा की भक्ति का श्रेष्ठ ज्ञान है। यह ग्यारहवीं कक्षा से एम. ए. तथा पी. एच. डी तक का सम्पूर्ण पाठ्यक्रम का ज्ञान जानो।
जो कोई कहे कि हम तो सीधे एम. ए. की पढाई कर रहे हैं। हम दसवीं तक की पुस्तकों को नहीं मानते। हमें दसवीं कक्षा पास करने की आवश्यकता नहीं है। क्या वह व्यक्ति ठीक विचार व्यक्त कर रहा है ? यही दशा राधास्वामी तथा उसकी शाखाओं (धन धन सतगुरू-सच्चा सौदा) की है। पाठकों को प्रथम किस्त ‘‘राधास्वामी पंथ की कहानी-उन्हीं की जुबानी’’ में श्री शिवदयाल (राधास्वामी) के सत्संग वचनों की फोटो कापी से स्पष्ट हुआ कि उस पंथ में क्या ज्ञान प्रचार किया जा रहा है। उनका अपना ज्ञान सर्व निराधार है। गीता जी तथा वेदों के ज्ञान को स्वीकार नहीं करते सर्व अनुयाईयों का जीवन व्यर्थ कर रहे हैं। जो थोड़ा बहुत लाभ हवन यज्ञ (देशी घी की ज्योति जो सर्व घरों में जलाई जाती थी) से होता था। वह भी बंद करवा दी तथा कहते हैं कि हम तो शरीर (पिण्ड) में वास्तविक ज्योति जगाते हैं। बाहर की ज्योति(हवन) की आवश्यकता नहीं।
इस प्रकार के विचार प्रकट करके सर्व अनुयाईयों को पुण्यहीन बना रहे हैं। प्रिय श्रद्धालु, संतमता स्वयं पूर्ण परमात्मा कविर्देव (कबीर परमेश्वर) जी ने चलाया है। श्री तुलसी साहेब हाथरस वाले ने परमेश्वर कबीर जी की वाणी को पढ़ा। फिर अपनी चतुराई से निष्कर्ष निकाल कर सतलोक, आदि लोकों का वर्णन करने लगा। ‘‘घट रामायण’’ जो उनके द्वारा लिखी है भाग पहला पृष्ठ सं. 30 पर लिखा है कि शरीर(घट) अर्थात् पिण्ड में ही सोलह द्वार हैं। सर्व वस्तु जो देखी हैं वे पिण्ड (घट) में ही हैं। जबकि पूज्य कबीर परमेश्वर जी शब्द ‘‘कर नैनों दिदार महल में प्यारा है’’ की कली सं. 31-32 में कहा है कि यह जो पिण्ड (घट) में दिखाई दे रहा है। यह नकली सतलोक आदि है। यह तो माया ने ऊपर के लोकों की नकल की है, जो झूठी है। हमारा वास्तविक सतलोक आदि तो पिण्ड (घट/शरीर) अर्थात अण्ड से पार अर्थात बाहर है (यह शब्द आपके पंथ की पुस्तक सन्तमत प्रकाश भाग-1 में प्रथम पृष्ठ पर लिखा है)।
(जिसे ब्रह्माण्ड भी कहते हैं क्योंकि एक ब्रह्माण्ड का चित्र शरीर अर्थात पिण्ड में है। ब्रह्मण्ड का आकार अण्डे जैसा है। इसलिए ब्रह्मण्ड को ही अण्ड कहा जाता है। जब की राधास्वामी पंथ वाले पिण्ड अलग बताते हैं ब्रह्माण्ड अलग बताते हैं तथा अण्ड भिन्न बताते हैं)
विचारणीय बात है कि श्री तुलसी साहेब हाथरस वाले की आत्मा पूर्व जन्म में वही थी जिसने त्रिलोकी भगवान रामचन्द्र जी की जीवनी ‘‘रामचरित्र मानस’’ अर्थात ‘‘रामायण’’ रूप में लिखी थी। इसलिए श्री तुलसी दास हाथरस वाले को सतलोक आदि का ज्ञान कैसे हो सकता है ? जबकि उनका कोई वक्त गुरू भी नहीं है। फिर शिवदयाल जी महाराज ने भी श्री तुलसी साहेब हाथरस वालों के विचार सुने हैं। श्री शिवदयाल जी महाराज (जो राधा स्वामी पंथ के मुखिया व प्रवर्तक कहे जाते हैं) का भी कोई गुरू नहीं है। इसलिए इनको भी सतलोक व सतपुरूष का ज्ञान नहीं हो सकता। फिर अन्य सालगराम आदि का तो नम्बर ही कहाँ हो सकता है जिन्होंने राधास्वामी पंथ चलाया है।
राधा स्वामी पंथ में पांच नाम दान करते हैं। जिन पांचों नामों को श्री तुलसीदास हाथरस वाले भी काल के नाम बताते हैं तथा इनसे अतिरिक्त दो सतनाम तथा सतशब्द से ही सतलोक जाने की विधि बताई है जो श्री शिवदयाल जी (राधास्वामी) को ज्ञान नहीं। क्योंकि स्वयं श्री शिवदयाल जी(राधास्वामी) को यही पता नहीं कि सतनाम कोई स्थान है या सतलोक है या सतपुरूष है या सतशब्द है या सारशब्द है। इसलिए सतलोक जाने की विधि से राधास्वामी पंथ वाले श्रद्धालु पूर्ण रूप से वंचित हैं। श्री शिवदयाल जी के शिष्य श्री जयमल सिंह जी महाराज हैं (जिन्होंने राधास्वामी डेरा ब्यास जि. अमृतसर पंजाब में स्थापित किया है)श्री जयमल सिंह जी के उतराधिकारी श्री सावन सिंह जी महाराज हुए हैं। श्री सावन सिंह से दो अन्य साखाऐं निकली हैं। एक सच्चा सौदा सिरसा:-
श्री खेमामल उर्फ बिलोचिस्तानी शाह मस्ताना जी, जो श्री सावन सिंह जी महाराज के शिष्य थे। जिन्हें श्री सावन सिंह जी द्वारा नाम दान का आदेश नहीं दिया गया। क्योंकि सन्त केवल एक ही उतराधिकारी बनाते हैं जो श्री जगत सिंह को अपना उतराधिकारी श्री सावन जी सिंह जी ने बना दिया था। श्री खेमामल उर्फ शाहमस्ताना जी ने बेगु रोड़, सिरसा में अलग नाम से पंथ स्थापित कर दिया। ज्ञान श्री शिवदयाल जी वाला ही है। वही पांच नाम देते थे। बाद में श्री सतनाम दास जी ने तीन नाम दान करने प्रारम्भ कर दिए जो श्री शाहमस्ताना जी की आज्ञा का उलंघन है। नाम हैं:- 1.) सतपुरुष, 2.) अकाल मूर्त, 3.) शब्द स्वरूपी राम ये तीन नाम किसी सन्त के इतिहास में नहीं है।
दूसरी शाखा: श्री सावन कृपाल रूहानी मिशन दिल्ली में श्री कृपाल सिंह महाराज ने स्थापित किया जो श्री सावन सिंह जी के शिष्य थे। परंतु उत्तराधिकारी न बनाने के कारण स्वयं ही अलग शाखा खोल ली। श्री कृपाल सिंह जी को श्री सावन सिंह जी महाराज की ओर से नामदान का कोई आदेश नहीं था। (क्योंकि संत केवल एक ही उतराधिकारी बनाते हैं।)
तीसरी शाखा: डेरा व्यास, पंजाब में श्री जगत सिंह महाराज को उत्तराधिकारी बनाया। श्री कृपाल सिंह जी के शिष्य श्री ठाकुर सिंह ने अलग शाखा चलाई। वही पांच नाम ही दान करते हैं जिनको श्री कृपाल सिंह जी महाराज की ओर से नामदान करने का आदेश नहीं था। आगरा से शिवदयाल जी वाली परम्परा से श्री घूरेलाल जी के शिष्य ने ‘‘जय गुरुदेव‘‘ नाम से मथुरा में अन्य पंथ की स्थापना की। श्री घूरेलाल जी वाला मथुरा में जयगुरूदेव पंथ के सन्त भी वही पांच नामदान करते हैं।
नोट:- इससे सिद्ध हुआ कि (1) राधास्वामी पंथ, डेरा ब्यास पंजाब (2) श्री कृपाल सिंह जी वाला राधास्वामी पंथ दिल्ली वाला (3) श्री ठाकुर सिंह जी वाला राधास्वामी पंथ तथा जयगुरुदेव मथुरा में। सर्व शास्त्र विधि अनुसार साधना से वंचित हैं तथा गुरू मर्यादा की धज्जियाँ उड़ाते गए हैं। अपनी-2 मर्जी से नए-2 स्थानों पर शिवदयाल जी वाला कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा अर्थात मनघड़ंत ज्ञान प्रचार किया है। नामदान भी काल तक के देते हैं। सतनाम, सारनाम, सारशब्द का कोई ज्ञान नहीं जिनके बिना सतलोक वास तथा सतपुरुष की प्राप्ति नहीं हो सकती। करोड़ों की संख्या में श्रद्धालुओं के अनमोल जीवन को बर्बाद कर रहे हैं।
यह भी सिद्ध हुआ कि सच्चा सौदा सिरसा तथा धन-धन सतगुरु पंथ जगमाल वाली जिला सिरसा वाले भी सतलोक तथा सतपुरुष की प्राप्ति की विधि से वंचित हैं। क्योंकि जगमालवाली में मैनेजर साहब नाम से प्रसिद्ध संत जी ने अलग से स्वयं ही पंथ चला लिया जो पूर्ण रूप से सत्य साधना से वंचित है।
आगरा के राधास्वामी पंथ से एक श्री रामसिंह जी अध्यापक के शिष्य श्री ताराचन्द जी ने भिवानी जिले के दिनोद गांव में राधास्वामी पंथ की अलग से स्थापना कर ली। केवल एक नाम ‘‘राधास्वामी‘‘ दान किया जाता है जो पूर्ण रूप से शास्त्र विरुद्ध है। परमात्मा प्राप्ति का नहीं है। यह राधास्वामी नाम तो शिवदयाल जी का जानों जो प्रेत बन कर अपनी शिष्या बुक्की में प्रवेश हुआ। राधा स्वामी नाम का जप तो एक प्रेत का जाप हुआ। अन्य क्रियाएँ भी जैसे कान बंद करके धुन सुनना, आंखे बंद करके हठ योग करना तथा प्रकाश देखना वही है जो संतमत के विरुद्ध है।
कबीर परमेश्वर कहते हैं - ‘‘कोई सतगुरु संत कहावै, जो नैनन अलख लखावै।
आँख ना मूंदे, कान ना रूंधै ना अनहद उलझावै। जो सहज समाधी बतावै।।‘‘
मनघड़ंत ज्ञान व शास्त्र विधि रहित साधना बताकर भोले-भाले श्रद्धालुओं के अनमोल जीवन के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। वास्तविक भक्ति विधि सतलोक तथा सतपुरुष प्राप्ति की शास्त्रनुसार मुझ दास (रामपाल दास) के पास उपलब्ध है, कृप्या निःशुल्क तथा अविलम्ब प्राप्त करें तथा अपना मानव जीवन सफल करें। झूठे गुरु को त्याग देने से कोई पाप नहीं होता। जैसे एक वैद्य (डाॅक्टर) से ईलाज नहीं हो रहा है तो उसे त्याग कर अन्य वैद्य से ईलाज करवाना हितकर होता है। ऐसे ही शास्त्र विधि विरूद्ध साधना बताने वाले गुरु को त्याग कर पूर्ण संत से उपदेश प्राप्त करना लाभदायक तथा न्याय संगत है।
शेष अगले अंक में ------
(पुस्तक ‘‘जीवन चरित्र हजूर स्वामी जी महाराज (शिवदयाल जी) पृष्ठ 54 की फोटो काॅपी)
(पुस्तक ‘‘जीवन चरित्र हजूर स्वामी जी महाराज (शिवदयाल जी) पृष्ठ 55 की फोटो काॅपी)
(पुस्तक ‘‘जीवन चरित्र हजूर स्वामी जी महाराज (शिवदयाल जी) पृष्ठ 56 की फोटो काॅपी)
(पुस्तक ‘‘जीवन चरित्र बाबा जयमल सिंह जी‘‘ पृष्ठ 56 की फोटो काॅपी)
(पुस्तक ‘‘उपदेश राधास्वामी‘‘ पृष्ठ 30 की फोटो काॅपी)
(पुस्तक ‘‘उपदेश राधास्वामी‘‘ पृष्ठ 31 की फोटो काॅपी)
(पुस्तक ‘‘घट रामायण‘‘ पहला भाग के पृष्ठ 27 की फोटो काॅपी)
(पुस्तक ‘‘जीवन चिरत्र हजूर स्वामी जी महाराज‘‘ लेखक प्रताप सिंह जी के पृष्ठ 19 पर वचन सं. 31की फोटो कापी)