काफिर बोध
अध्याय ‘‘काफिर बोध’’ का सारांश
कबीर सागर में 15वां अध्याय ‘‘काफिर बोध‘‘ पृष्ठ 26 (746) पर है।
काफिर का अर्थ है ‘‘दुष्ट इंसान‘‘।
मुसलमान कहते हैं कि हिन्दु काफिर हैं क्योंकि ये देवी-देवताओं की पूजा करते हैं। मंदिर में मूर्ति रखकर पूजा करते हैं। सूअर का माँस खाते हैं। हिन्दु कहते हैं कि मुसलमान काफिर हैं क्योंकि ये माँस खाते हैं, गाय को मारते हैं। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि काफिर कोई समुदाय नहीं होता। काफिर वह है जो गलत काम करता है। कबीर सागर में बहुत कुछ फेर-बदल है। इसकी पूर्ति संत गरीबदास जी द्वारा परमेश्वर कबीर जी ने करवाई है।
कृपया पढ़ें काफिर बोध वाणी:-
‘‘काफिर बोध‘‘
कबीर, गला काट बिसमल करें, वे काफिर बे बूझं।
ओरा काफिर बताबही, अपना कुफुर ना सूझ।।
काफिर बोध सुनो रे भाई। दोहूं दीन बीच राम खुदाई।।(1)
काफिर सो माता दैं गारी, वै काफिर जो खेलैं सारी।।(2)
काफिर दान यज्ञ नहीं करहीं, काफिर साधु संत सैं अरहीं।।(3)
काफिर तीरथ ब्रत उठावैं, सत्यवादी जन नाम लौ लावैं।।।(4)
काफिर पिता बचन उलटांहीं, इतनें काफिर दोजिख जांहीं।।(5)
वे काफिर जो बड़ बड़ बोलैं, काफिर कहौ घाटि जो तोलैं।।(6)
वै काफिर ऋणि हत्या राखैं, वै काफिर परदारा ताकैं।।(7)
काफिर स्वाल सूखन कूं मोड़ैं, काफिर प्रीति नीचसूं जोड़ैं।।(8)
दोहा- काफिर काफिर छाड़ि हूं, सत्यवादी सैं नेह।
गरीबदास जुग जुग पड़ै, काफिर कै मुख खेह।।(9)
वै काफिर जो कन्या मारैं, वै काफिर जो बन खंड जारैं।।(10)
वै काफिर जो नारि हितांही, वै काफिर जो तोरैं बांही।।(11)
वै काफिर जो अंतर काती, वै काफिर जो देवल जाती।।(12)
वै काफिर जो डाक बजावैं, वै काफिर जो शीश हलावैं।।(13)
वै काफिर जो करैं कंदूरी, वै काफिर जिन नहीं सबूरी।।(14)
वै काफिर जो बकरे खांही, वै काफिर नहीं साधू जिमांही।।(15)
वै काफिर जो मांस मसाली, वै काफिर जो मारें हाली।।(16)
वै काफिर जो खेती चोरं, वै काफिर जो मारैं मोरं।।(17)
वै काफिर अन भावत खांही, काफिर गणिका सूं गल बांही।।(18)
काफिर अर्ध बिंब सैं संगा, काफिर सो जो फिरै बिनंगा।।(19)
काफिर सो जो मही तनावैं, जाका दूध रुधिर घर ल्यावैं।।(20)
काफिर जो भल भदर भेषा, जाके शिर पर बाल न एका।।(21)
काफिर सो जो मुरगी काटैं, वै काफिर जो सीनां चाटैं।।(22)
काफिर गूदा घतैं सलाई, काफिर हुका पीवैं अन्याई।।(23)
काफिर भांग भसौड़ी भरहीं, काफिर हुक्के कूं सर करहीं।।(24)
काफिर घट में धूमां देहीं, काफिर नास नाक में लेहीं।।(25)
काफिर कथ सुपारी चूना, पांन लपेटि मुख में थूंनां।।(26)
काफिर मालनि कूं डर पावैं, बिनहीं कीनैं भाजी खावैं।।(27)
काफिर सो एक अंब चिचोरैं, मजलसि बैठें मुख निपोरैं।।(28)
काफिर सो जो कानी देही, काफिर सो कन्या धन लेही।।(29)
काफिर सो साली सैं साखा, काफिर बचन पलटै माका।।(30)
काफिर सो जो विद्या चुरावैं, काफिर भैरव भूत पूजावै।।(31)
साखी- पूजैं देई धाम कूं, शीश हलावै जोय।
गरीबदास साची कहैं, हदि काफिर है सोय।।(32)
काफिर तोरै बनज ब्योहारं, काफिर सो जो चोरी यांर।।(33)
काफिर सो जो बाग उपारं, काफिर सो बिन सतनाम अधारं।।(34)
काफिर आंन देवकूं मानैं, काफिर गुड़कुं दूधैं सानैं।।(35)
वै काफिर जो अनरुचि खांही, वै काफिर जो भूले सांई।।(36)
वै काफिर जो अंडा फोरैं, काफिर सूर गऊ कूं तोरैं।।(37)
वै काफिर जो मिरगा मारैं, काफिर उदर क्रदसे पारैं।।(38)
काफिर पीवत गऊ हटावैं, काफिर कूवे की मणि ढांहवैं।।(39)
काफिर भेष भेष कूं मारै, काफिर कूड़ा ज्ञान पसारै।।(40)
दोहा- गरीब काफिर कीर्ति ना लखै, धर्म दया ब्यवहार।
गरीबदास कैसैं बचै, जाना जम दरबार।।(41)
भावार्थ:- काफिर उसको जानो जो माता को गाली देता है, चोरी करता है, जारी (व्यभिचार) करता है। माँस खाता है, दान-धर्म नहीं करता। शास्त्राविधि त्यागकर मनमाना आचरण करता है।
‘‘गरीब हिन्दु हदीरे (यादगार) पूजहीं, मुसलिम पूजैं घोर (कब्र)।
कह कबीर दोनों दीन की, अकल को ले गए हैं चोर।।
शब्दार्थ:- कबीर जी ने कहा है कि हिन्दू तो एक यादगार मन्दिर में मूर्ति पूजा करते हैं। मुसलमान घोर यानि कब्रों को तथा मदीना में पत्थर को सिजदा करते हैं। दोनों धर्म के व्यक्तियों की बुद्धि चोरों ने छीन रखी है। स्वयं वही गलती करते हैं। एक-दूसरे को काफिर बताते हैं। कबीर सागर के अध्याय ‘‘काफिर बोध‘‘ का सारांश सम्पूर्ण हुआ।
।।सत साहेब।।