पारख का अंग (61-113)

Parakh Ka Ang

पारख के अंग की वाणी नं. 61-62:-

गरीब, पीपा धनां रैदास थे, सदन कसाई कौनि। अबिगत पूरण ब्रह्म कूं, कहा करी अनहौनि।।61।।
गरीब, रंका बंका तिरगये, नामा छींपा नेह। ऊंचे कुल कूं कोसना, जहाँ भक्ति नहीं प्रवेह।।62।।

सरलार्थ:– परमात्मा की भक्ति किसी भी जाति व धर्म का स्त्राी-पुरूष कर सकता है। जो ब्राह्मण लोग यह कहते थे कि शुद्र जाति वाले मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकते। ग्रन्थ को हाथ नहीं लगा सकते। उनके द्वारा फैलाए भर्म का निवारण करते हुए कहा है कि नागौर शहर (राजस्थान) का राजा पीपा सिंह ठाकुर था जो भक्त बना। राजस्थान प्रदेश में भक्त धन्ना था जो जाट जाति से था, भक्त बना। भक्त रविदास चमार जाति से था जो भक्त बना। सदना कसाई का कार्य करता था। ज्ञान हुआ, भक्त बना। पाप करना त्याग दिया। भक्त रंका तथा उसकी धर्मपत्नी बंका दोनों भक्त बने जो अति निर्धन थे। कथा सुमरण के अंग की वाणी नं. 108 के सरलार्थ में है। जो ऊँचे कुल में जन्में हैं और परमात्मा की भक्ति नहीं करते, उस ऊँचे कुल को धिक्कार है।

वाणी नं. 63-66 का सरलार्थ पहले पाण्डव यज्ञ के प्रकरण में कर दिया है।

वाणी नं. 67-76:-

गरीब, च्यार बर्ण षट आश्रम, बिडरे दोनौं दीन। मुक्ति खेत कूं छाड़ि करि, मघर भये ल्यौलीन।।67।।
गरीब, नौलख बोडी बिसतरी, बटक बीज बिस्तार। केशो कल्प कबीर की, दूजा नहीं गंवार।।68।।
गरीब, मगहर मोती बरषहीं, बनारस कुछ भ्रान्त। कांसी पीतल क्या करै, जहां बरसै पारस स्वांति।।69।।
गरीब, मगहर मेला पूर्ण ब्रह्मस्यौं, बनारस बन भील। ज्ञानी ध्यानी संग चले, निंद्या करैं कुचील।।70।।
गरीब, मुक्ति खेत कूं तजि गये, मघहर में दीदार। जुलहा कबीर मुक्ति हुआ, ऊंचा कुल धिक्कार।।71।।
गरीब, च्यार बर्ण षट आश्रम, कल्प करी दिल मांहि। काशी तजि मघहर गये, ते नर मुक्ति न पांहि।।72।।
गरीब, भूमि भरोसै बूड़ि है, कलपत हैं दहूं दीन। सब का सतगुरु कुल धनी, मघहर भये ल्यौलीन।।73।।
गरीब, काशी मरै सौ भूत होय, मघहर मरै सो प्रेत। ऊंची भूमि कबीरकी, पौढैं आसन श्वेत।।74।।
गरीब, काशी पुरी कसूर क्या, मघहर मुक्ति क्यौं होय। जुलहा शब्द अतीत थे, जाति बर्ण नहीं कोय।।75।।
गरीब, काशी पुरी कसूर योह, मुक्ति होत सब जाति। काशी तजि मघहर गये, लगी मुक्ति शिर लात।।76।।

इन वाणियों का संक्षिप्त वर्णन इसी पारख के अंग की वाणी नं. 28 के सरलार्थ में कर दिया है।

सरलार्थ:– जो कहते हैं कि काशी में मरने वाले मुक्ति प्राप्त करते हैं और मगहर में मरने वाले नरक जाते हैं, यह गलत है। सबका मालिक कुल धनी यानि पूर्ण परमात्मा कबीर जी मगहर से सतलोक गए। भूमि के कारण मुक्ति की इच्छा के (भरोसे) विश्वास पर जीवन नष्ट कर जाते हैं।

पारख के अंग की वाणी नं. 77-84:–

गरीब, मुक्ति खेत मथुरा पुरी, कीन्हां कष्ण किलोल। कंश केशि चानौरसे, वहां फिरते डामांडोल।। 77।।
गरीब, जगन्नाथ जगदीश कै, उध्र्व मुखी है ग्यास। मसक बंधी मन्दिर पड़ी, झूठी सकल उपास।78।।
गरीब, एकादशी अजोग है, एकादश दर है सार। द्वादश दर मध्य मिलाप है, साहिब का दीदार।।79।।
गरीब, माह महातम न्हात हैं, ब्रह्म महूरत मांहि। काशी गया प्रयाग मध्य, सतगुरु शरणा नांहि।।80।।
गरीब, कोटि जतन जीव करत हैं, दुबिध्या द्वी न जाय। साहिब का शरणा नहीं, चालैं अपनै भाय।।81।।
गरीब, जीव जिवांसे ज्यौं जल्या, जलकै मांही सूक। सतगुरु पुरुष कबीर से, रहे अनंत जुग कूक।।82।।
गरीब, जीव जिवांसे ज्यौं जल्या, जलसैं मान्या दोष। सकल अविद्या विष भर्या, अगनि परै तब पोष।।83।।
गरीब, राम रमे सो राम हैं, देवत रमे स देव। भूतौं रमे सो भूत हैं, सुनौं संत सुर भेव।।84।।

सरलार्थ:– जो कहते हैं कि मथुरा-वृंदावन में जाने से मुक्ति होती है। वे सुनो! उसी मथुरा में जहाँ श्री कृष्ण लीला किया करते थे। आप उस स्थान पर जाने मात्रा से मोक्ष मानते हो। उसी मथुरा में कंस, केसी (राक्षस) तथा चाणूर (पहलवान) भी रहते थे जो श्री कृष्ण ने ही मारे थे। इसलिए सत्य साधना करो और जीव कल्याण कराओ जो यथार्थ मार्ग है। कोई जगन्नाथ के दर्शन करके और एकादशी का व्रत करके मोक्ष मानता है, यह गलत है। शास्त्र विरूद्ध है। कोई काशी नगर में, कोई गया नगर में जाने से मोक्ष कहते हैं। वे भूल में हैं। यदि पूर्ण सतगुरू की शरण नहीं मिली है तो मोक्ष बिल्कुल नहीं होगा। जब तक तत्त्वदर्शी सतगुरू नहीं मिलेगा, शंका समाप्त नहीं होगी। सब अपने स्वभाववश भक्ति मार्ग पर चल रहे हैं जो व्यर्थ है। (77-81)

एक जंवासे का पौधा है। वह बारिश के दिनों में यानि जल से सूख जाता है। सब पौधे जल से हरे-भरे होते हैं, परंतु जंवासा का पौधा जल से नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार कर्महीन व्यक्ति सत्यज्ञान सुनकर जल मरते हैं। झगड़ा करते हैं। बिल्कुल नहीं मानते। अन्य पुण्यात्माएँ सत्य ज्ञान सुनकर गदगद होते हैं। कल्याण करवा लेते हैं। (82-83)

गीता अध्याय 9 श्लोक 25 वाला प्रकरण है। जिसमें कहा है कि:-

यान्ति देवव्रताः देवान् पितृन् यान्ति पितृव्रताः। भूतानि यान्ति भूतेज्याः यान्ति मद्याजिनः अपि माम्।।

अर्थात् (देवव्रताः) देवताओं को पूजने वाले (देवान्) देवताओं को (यान्ति) प्राप्त होते हैं। (पितृव्रताः) पित्तरों को पूजने वाले (पितृन्) पित्तरों को (यान्ति) प्राप्त होते हैं। (भूतेज्याः) भूतों को पूजने वाले (भूतानि) भूतों को (यान्ति) प्राप्त होते हैं। (मत्) मेरा (याजिन्) पूजन करने वाले (अपि) भी (माम्) मुझे (यान्ति) प्राप्त करते हैं।

गरीब, राम रमे सो राम हैं, देवत रमे स देव। भूतौं रमे सो भूत हैं, सुनौं संत सुर भेव।।84।।

अर्थात् जो परमात्मा की भक्ति करते हैं। वे परमात्मा जैसे गुणों वाला अमर पद प्राप्त करते हैं अर्थात् परमात्मा कबीर जी को प्राप्त होते हैं। जो देवताओं की भक्ति करते हैं, वे देवताओं जैसे गुण वाले हो जाते हैं। जन्म-मरण सदा रहता है। स्वर्ग जाते हैं। पुण्यों को खर्च कर पुनः जन्म-मरण के चक्र में गिरते हैं। जो भूतों की पूजा करते हैं, श्राद्ध निकालते हैं, पिंडदान करते हैं, अस्थि उठाकर गंगा पर मुक्ति हेतु ले जाते हैं। तेरहवीं, महीना आदि क्रियाकर्म करते हैं, पित्तर बनते हैं और महाकष्ट उठाते हैं। फिर नरक में जाते हैं। चैरासी लाख प्रकार के प्राणियों के शरीरों में कष्ट भोगते हैं। (84)

वाणी नं. 85-95:–

गरीब, कली कलीका रसलिया, भंवर कंवल कूं सोधि। ज्ञान गदहरे परि चढे, पढे अठारह बोध।।85।।
गरीब, जैसी याह मकरंद है, कंवल केतगी बास। प्रान तजे हरि ना भजे, यौ जग गया निराश।।86।।
गरीब, मलागीर में गुण कहा, भवंग लिपटे आय। शीतल पून्यौं चन्द्र ज्यौं, तपति बुझावै ताहि।।87।।
गरीब, सलिल सलौने संत हैं, आठौं कंवल समाधि। दिल दरपन मन मुसकला, रिंचक नहीं उपाधि।।88।।
गरीब, श्वेत वर्ण शुभ रंग हैं, जहां लगाये नैंन। दूजे की आशा नहीं, चढे रहत हैं गैंन।।89।।
गरीब, गैंन गगन में चढि रहे, श्वेत भूमि का भीर। सीप नहीं सायर नहीं, मोती बिनही नीर।।90।।
गरीब, सुरति निशाना नैंन में, मन मंजन करि घोटि। निरति निरंतन लगि रही, करै लाख में चोट।।91।।
गरीब, मुकर खुल्या मालिक मिल्या, नैंन बैंन बिलास। धरनि चलैं सेवन भलैं, चढे रहैं आकाश।।92।।
गरीब, जै कोई रमै सो गगनि में, धरणी धरै न पांव। सबही भूले भर्म में, कहा रंक कहा राव।।93।।
गरीब, कंवल कली दर चोज हैं, रिमझिम रिमझिम होय। गगनि फुहारे छुटि रहे, तहां संत मुख धोय।।94।।
गरीब, योह है पंथ कबीर का, सतलोक कूं सैल। अनंत कोटि कुल पंथ है, कोई न पावै गैल।।95।।

सरलार्थ:– जो विकार करते रहते हैं। तरह-तरह के गाने-बजाने, शराब आदि का नशा करते हैं। परस्त्राी भोग पुरूष करते हैं। परपुरूष भोग स्त्राी करती हैं। भक्ति करते नहीं। वे उस तरह विकारों के वश होकर फँसकर मर जाते हैं जैसे भंवरा भिन्न-भिन्न फूलों का आनंद लेता रहता है। शाम के समय फूल बंद हो जाता है। भंवरा उसमें फँसकर मर जाता है।

संतों की संगत करने से जीव को शान्ति मिलती है। मोक्ष मिलता है। जैसे चंदन के वृक्ष के तने में शीतलता होती है। सर्प को विष के कारण गर्मी लगती है। गर्मी के मौसम में चंदन के वृक्ष के तने के चारों ओर सर्प लिपटे रहते हैं। (मलागीर) चंदन में शीतल करने का गुण है। चाँद में भी रात्रि में शीतलता का आभास होता है। ऐसे (सलिल) शांत संत हैं जो शरणागत की तपत बुझाते हैं।

साधक का ध्यान सदा ऊपर परमात्मा के सुख सागर सतलोक में रहता है। वे पृथ्वी पर इधर-उधर भ्रमण नहीं करते। तीर्थों-धामों पर नहीं जाते। सत्य साधना करते हैं।

परमात्मा कबीर जी का यह (पंथ) भक्ति मार्ग है। जीव सत्यलोक की सैल करता है। इसके अतिरिक्त अनेकों पंथ तथा उनके कुल यानि गद्दी परंपरा हैं। किसी को सतलोक वाली (गैल) गली अर्थात् मार्ग का ज्ञान नहीं।

वाणी नं. 96:-

गरीब, त्रिलोकी का राज सब, जै जीव कूं कोई देय। लाख बधाई क्या करै, नहीं सतनाम सें नेह।।96।।

सरलार्थ:– यदि कोई सत्य साधना परम पिता परमेश्वर कबीर जी की नहीं करता है। यदि उस जीव को तीन लोक का राज्य में मिल जाए तो उसे चाहे लाख बार बधाई दी जाए, नरक में जाएगा। उसका भविष्य अंधकारमय है। (96)

वाणी नं. 97:-

गरीब, रतन जडाऊ मन्दिर है, लख जोजन अस्थान। साकट सगा न भेटिये, जै होय इन्द्र समान।।97।।

सरलार्थ:– जो रिश्तेदार साकट हैं यानि नास्तिक हैं। उसका एक लाख योजन में स्थान यानि पृथ्वी का मालिक हो। उसके (मंदिर) महलों में रत्न जड़े हों। चाहे वह स्वर्ग के राजा इन्द्र जैसा ऐश्वर्यवान हो। वह (सगा) रिश्तेदार कभी ना मिले जो परमात्मा से दूर है। उसके प्रभाव में आकर कच्चा भक्त भक्ति त्यागकर नरक का भागी बन जाता है। (97)

वाणी नं. 98-99:-

गरीब, संख कल्प जुग जीवना, तत्त न दरस्या रिंच। आन उपासा करते हैं, ज्ञान ध्यान परपंच।।98।।
गरीब, मारकंड की उम्र है, रब सें जुर्या न तार। पीव्रत सें खाली गये, साहिब कै दरबार।।99।।

सरलार्थ:- यदि कोई संख कल्प तक जीवित रहे। ज्ञान जरा-सा भी नहीं है। तत्त्वज्ञान हीन है। सत्य भक्ति से वंचित है तो वह लंबा जीवन भी व्यर्थ है।(एक कल्प में एक हजार आठ चतुर्युग होते हैं यानि ब्रह्मा का एक दिन) (98)

मार्कण्डेय ऋषि की लंबी आयु थी। यदि मार्कण्डेय ऋषि जितनी लंबी आयु है। परमात्मा से सम्पर्क हुआ नहीं यानि सत्य साधना की नहीं तो व्यर्थ है। प्रियवत नाम का राजा था। उसने ग्यारह अरब वर्ष तक तप किया यानि शास्त्रा विधि त्यागकर मनमाना आचरण किया। तप के बदले ग्यारह अरब वर्ष का राज्य सुख भोगकर परमात्मा के दरबार (कार्यालय) में खाली होकर गया। नरक में डाला। (99) {एक योजन बारह किलोमीटर का होता है।}

वाणी नं. 100-107:-

गरीब, कल्प करी करुणामई, सुपच दिया उपदेश। सतगुरु गोरख नाथ गति, काल कर्म भये नेस।।100।।
गरीब, सबरी भी भक्ति करी, गौरि के दिल मांहि। उभय महूरत षट दलीप, तिहूवां शांशां नांहि।।101।।
गरीब, परिक्षत को शुकदे मिले, सात बार प्रचार। दुरवासा भगवान गुरु, लगे कुचैं की लार।।102।।
गरीब, पूर्ण पुरूष कबीर कूं, तारे गीध ब्याध कुल हीन। गणिका चढी बिवान में, महिमा विष्णु लीन।।103।।
गरीब, संख स्वर्ग सें है परै, संख पतालो सैल। एता बड़ा इलाम है, अलफ सींग रज बैल।।104।।
गरीब, बावन बढ्या सो देख ले, गज ग्राह उबरंत। सुक्ष्म रूप कबीर धरै, द्रोपदि चीर बढंत।।105।। गरीब, कबीर पुरूष झिलमिला, उधरे गज अरु ग्राह। गगनि मंडल सें ऊतरे, कीन्हां आनि सहाय।।106।।
गरीब, ररंकार मुख ऊचरैं, टूटी गज की धीर। सर्ब लोक सब ठौर हैं, अबिगत अलख कबीर।।107।।

सरलार्थ:– परमात्मा कबीर जी द्वापर युग में करूणामय नाम से प्रकट थे। तब सुपच सुदर्शन बाल्मीकि को उपदेश देकर पार किया। गोरख नाथ को भी समझाया।

जिन-जिन साधकों ने जिस स्तर की साधना तन-मन से की तो उनको उस-उस स्तर का लाभ मिला। जैसे भिलनी, गौरी (पार्वती) तथा षट् दलीप जो दशरथ राजा का पिता था, रामचन्द्र का दादा था। उसको पता चला कि मेरी केवल दो मुहूर्त आयु शेष है। उसने (उभय) दो मुहूर्त (घड़ी) सच्ची लगन से सच्ची तड़फ से साधना की तो स्वर्ग गया। इस प्रकार शबरी भीलनी, पार्वती तथा षट्दलीप ने जैसी भक्ति की, वैसा फल मिला। तीनों को कोई शंका नहीं।

राजा परीक्षित को सात दिन शुकदेव ऋषि ने भागवत सुधा सागर सुनाई थी। स्वर्ग तक गए। दुर्वासा ऋषि भगवान श्री कृष्ण के गुरू थे। वे स्वर्ग में तो चले गए। वहाँ उर्वशी की दूधी (स्तन) को भंवरा बनकर अश्लील हरकत करके काट लिया। अपना धर्म नष्ट कर लिया। चोरी और सीना जोरी। उस नृतका को भंवरे के काटने का दर्द हुआ। हाथ से भूंड को दूर फैंका तो स्वर्ग की धरती पर पटाक से गिरा तो अपनी बेइज्जती मानकर उर्वशी (स्वर्ग की अप्सरा) को श्राप दे दिया कि तू पृथ्वी पर गधी बनेगी। इतना दुष्ट था दुर्वासा और ऋषि की पदवी प्राप्त था। श्राप देने का उद्देश्य यह था कि तूने मेरे से तो मिलन नहीं किया, अब गधी बनेगी और गधों से मिलन किया करेगी। तब तेरी इज्जत कहाँ जाएगी जो तूने मुझे नकार दिया। सभा में अपनी बेइज्जती मानकर ऐसा किया। पृथ्वी पर दुर्वासा ऋषि ब्रह्मचारी बना फिरता था। स्वर्ग जाकर पकड़ा गया। जो उस उर्वशी को श्राप दिया, उसका दण्ड भी दुर्वासा को मिलेगा।

पूर्ण परमात्मा कबीर जी ने गिद्ध तथा ब्याध को उनकी भक्ति अनुसार लाभ दिया। गणिका (वैश्या) का उद्धार किया।

बली राजा की यज्ञ में बावना बने। फिर विशाल रूप किया। गज तथा मगरमच्छ युद्ध कर रहे थे तो उनकी भी गति भक्ति अनुसार की। द्रोपदी का चीर भी परमात्मा कबीर जी ने बढ़ाया। द्रोपदी श्री कृष्ण की भक्त थी। इसलिए बड़ाई कृष्ण को मिली।

परमात्मा कबीर जी सर्व लोकों में सब स्थानों में विद्यमान हैं।

वाणी नं. 108-111:–

गरीब, सहंस अठासी छिक गये, साग पत्र किया भेट। सब साहन पति साह है, कबीर जगतं सेठ।।108।।
गरीब, देही मांहि बिदेह है, साहिब नर स्वरूप। अनंत लोक में रम रह्यी, शक्ति कै रंग न रूप।।109।।
गरीब, लघु दीर्घ देवा पुरुष, नर जैसा उनमान। सतगुरु सोई जानिये, मुक्ति करत हैं प्राण।।110।।
गरीब, सत भक्ति परम पुरूष की, जे कर जाने कोय। सतनाम तारी लगै, दिल दर्पण को धोय।।111।।

सरलार्थ:- जिस समय ऋषि दुर्वासा राजा दुर्योधन की बात मानकर पांडव जो 12 वर्ष का बनवास काट रहे थे, उनको श्राप देने के लिए अठासी हजार साथी ऋषियों को लेकर वन में गए। तब परमात्मा कबीर जी श्री विष्णु रूप बनाकर पांडवों के डेरे में गए थे। साक पत्र (बथुए के साग का पत्ता) भोजन के पात्रा में शेष बचा था। उसको पानी में डालकर घोलकर वह पानी पीया। अठासी हजार ऋषि, दुर्वासा ऋषि समेत इतने छके कि पेट में अफारा आ गया। जैसे गधे लेट लगाते हैं ऐसे सब ऋषिजन व दुर्वासा ऋषि भोजन हजम करने के लिए लेट लगा रहे थे। भोजन का स्वाद बता रहा था कि खीर, हलवा, मांडे (पतली रोटी), फल, मेवे सब छिक-छिककर खाए हैं। कबीर परमेश्वर जगत सेठ हैं यानि संसार में सबसे धनी हैं। सब शाह यानि शाहूकारों का शाहूकार है। (108)

परमात्मा की शक्ति सर्वव्यापक है। वह निराकार है। परमात्मा नराकार है। परमात्मा की शक्ति कण-कण में समाई है। (109)

परमात्मा (लघु) छोटा तथा दीर्घ (बड़ा) जिस भी रूप में है, वह नर जैसे आकार का है। सतगुरू वही है जिसकी बताई साधना से साधक का मोक्ष होता है। (110)

यदि कोई मोक्ष चाहता है तो सतपुरूष (परम दिव्य पुरूष) की सत्य भक्ति शास्त्रों में वर्णित करे। यदि जो कोई सत्य साधना का ज्ञान रखता है तो परम पुरूष की भक्ति करो। सत्य नाम के स्मरण में लगन लगाकर स्मरण करके दिल के दर्पण यानि अंतःकरण को साफ करे। (111)

वाणी नं. 112-113:-

गरीब, शिब का गण सेवन करैं, मुर्गलील तिस नाम। बहु उतपात करत है, पल पल आठौं जाम।।112।।
गरीब, सिद्धी शक्ति दिखाय कर, कोटि नगर नष्ट कर देत। किरंच नाम एक संत की, लगी तास कै फेट।।113।।

सरलार्थ:– काल द्वारा भ्रमित साधक शास्त्रा विरूद्ध साधना करते हैं जिससे सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। उनसे चमत्कार दिखाकर जनता में प्रशंसा के पात्रा बन जाते हैं। सिद्धियों द्वारा हानि करके पूज्य बन जाते हैं। एक साधक शिवजी की साधना करके शिवजी के लोक में गण की उपाधि प्राप्त था। उसने सिद्धि-शक्ति से बहुत उत्पात मचा रखा था। उसका मुर्गलील नाम था। उसने अनेकों (पटण) नगर सिद्धि से नष्ट कर दिये थे। एक किरंच नाम के संत ने उसकी सिद्धि विद्या काटकर उसे अचेत कर दिया। सचेत होकर क्षमा याचना की।

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