स्वामी प्रभुपाद जी की गलती

प्रमाण के लिए पेश है फोटोकाॅपी गीता अध्याय 18 श्लोक 66 की जिसके अनुवादक हैं स्वामी प्रभुपाद जी तथा भक्तिवेदान्त बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित है:-

Gita 18:66 ISKCON Prabhupada

इस फोटोकाॅपी में स्पष्ट है कि ऊपर शब्दों के अर्थ में तो ‘‘व्रज’’ का अर्थ तो जाना (जाओ) ठीक किया है, परंतु अनुवाद में आना (आओ) कर दिया जिससे गीता के सब ज्ञान का अज्ञान बना दिया। कारण यही रहा कि इन गुरूजनों को श्री कृष्ण से आगे का ज्ञान ही नहीं है। इनको अपने सद्ग्रन्थों का भी ज्ञान नहीं है। इसलिए लिख दिया कि ‘‘मेरी शरण में आ जा।’’ गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में ‘‘गच्छ’’ शब्द है जिसका अर्थ भी ‘‘जाना’’ है, वहाँ ठीक कर दिया। जब श्लोक 62 में गीता ज्ञान दाता अपने से अन्य उस परमेश्वर (तत् ब्रह्म यानि परम अक्षर ब्रह्म) की शरण में जाने को कह रहा है। श्लोक 66 में अपनी शरण में आने को नहीं कहा है क्योंकि गीता अध्याय 2 श्लोक 7 में अर्जुन ने कहा है कि मैं आपकी शरण हूँ यानि अर्जुन शरण में तो पहले ही था। फिर यह कहना कि मेरी शरण में आ, न्याय संगत भी नहीं है। यह अध्यात्म ज्ञान का टोटा है। पेश है लेखक द्वारा किया इस श्लोक का यथार्थ अनुवाद:-

गीता अध्याय 18 श्लोक 66 का यथार्थ अनुवाद:-

सर्वधर्मान् परित्यज्य, माम्, एकम् शरणम् व्रज।
अहम्, त्वा, सर्व पापेभ्यः, मोक्षयिष्यामि, मा, शुचः।।66।।

अनुवाद:- गीता ज्ञान देने वाले ने कहा है कि (सर्वधर्मान् माम्) मेरे स्तर के जितने भी धार्मिक कर्म हैं, उन सबको मुझमें (परित्यज्य) त्यागकर (एकम्) उस एक सर्व शक्तिमान परम अक्षर ब्रह्म की (शरणम्) शरण में (व्रज) जा। (अहम्) मैं (त्वा) तेरे को (सर्व पापेभ्यः) सब पापों से (मोक्षयिष्यामि) मुक्त कर दूँगा (मा शुचः) शोक न कर।

विशेष:- इस श्लोक में एकम् = एक शब्द है। इसका अर्थ एक यानि अद्वितीय परमेश्वर है। गीता अध्याय 13 श्लोक 30 में भी ’’एकस्थ‘‘ शब्द है जिसका अर्थ ’’उस एक परमात्मा में स्थित‘‘ किया है। जो गीता ज्ञान दाता से अन्य है। गीता अध्याय 13 श्लोक 27-28 तथा 30 में भी गीता ज्ञान देने वाले काल ब्रह्म ने अपने से अन्य परमेश्वर की जानकारी दी है। कहा है कि:-

गीता अध्याय 13 श्लोक 27:- (यः) जो साधक (विनश्यत्सु) नष्ट होते हुए (सर्वेषु भूतेषु) सब प्राणियों में (परमेश्वरम्) परमेश्वर यानि परम अक्षर ब्रह्म को (अविनश्यन्तम्) अविनाशी तथा (समम्) समभाव से (पश्यति) देखता है, (सः) वह परमेश्वर को (पश्यति) सही रूप में देखता है यानि वह उस परमेश्वर को ठीक से समझा है। गीता अध्याय 13 श्लोक 28 में कहा है कि:- (हि) क्योंकि जो साधक (सर्वत्रा) सब स्थान पर (समवस्थितम्) समान भाव से स्थित (ईश्वरम्) परमेश्वर को (समम्) समान (पश्यन्) देखता हुआ (आत्मना) अपने द्वारा (आत्मानम्) अपने को (न हिनस्ति) नष्ट नहीं करता यानि सत्य भाव से उस गीता ज्ञान दाता काल ब्रह्म से अन्य परम अक्षर ब्रह्म को जानकर उसी की भक्ति करके (पराम्) गीता ज्ञान देने वाले काल ब्रह्म से मिलने वाली गति यानि मोक्ष जो गीता अध्याय 8 श्लोक 13 में बताई है, उससे अन्य (गतिम्) परम गति को (याति) प्राप्त होता है। यही प्रसंग गीता अध्याय 13 श्लोक 30 में चला है। कहा है (यदा) ’’जिस समय साधक (भूतपृथग्भावम्) प्राणियों के पृथक-पृथक भाव को (एकस्थम्) उस अद्वितीय एक परमात्मा से (एव) ही (विस्तारम्) सब प्राणियों का विस्तार यानि उत्पत्ति (अनुपश्यति) होना देखता है यानि जानता है। (तदा) उस समय (ब्रह्म) उस परमेश्वर को (सम्पद्यते) पूजकर उसी को प्राप्त हो जाता है।

इससे सिद्ध हो जाता है कि गीता अध्याय 18 श्लोक 66 में ’’एकम् शरणं व्रज‘‘ का अर्थ भी उस परम अक्षर ब्रह्म की शरण में जाओ ही सही है। (प्रमाण के लिए पढ़ें गीता अध्याय 13 श्लोक 27-28 तथा 30 की फोटोकाॅपी इसी पुस्तक के पृष्ठ 278-280 पर।)

’’पेश हैं गीता अध्याय 18 श्लोक 66 की अन्य अनुवादकों की फोटोकाॅपियाँ।‘‘

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