सुखदेव की उत्पत्ति की कथा

सुमिरन का अंग (70)

वाणी नं. 70:-

गरीब, सुकदेव सुखमें ऊपजे, राई सींग समोइ। नवनाथ अरु सिद्ध चैरासी, संगि उपजेथे दोइ।।70।।

सुखदेव की उत्पत्ति की कथा

सरलार्थ:– जिस समय भगवान शिव जी ने पार्वती जी को अमर मंत्र दिया। उस समय एक स्थान पर सूखा वृक्ष था। उसके नीचे आसन लगाया। कारण यह था कि इस अमर नाम को कोई अन्य जीव सुन ले और वह भी अमर हो जाए और बुरे स्वभाव का जीव यदि आध्यात्मिक शक्ति सम्पन्न हो जाएगा तो वह उसका दुरूपयोग करके भले व्यक्तियों को सताएगा। इसलिए सब गुरूजन एकान्त स्थान पर केवल उपदेश देने योग्य हुए व्यक्तियों को ही बैठाकर नाम देते हैं। भगवान शंकर जी ने अपने हाथों से ताली बजाई जिसका भयंकर नाद (शोर-आवाज) हुआ। आसपास के पशु तथा पक्षी डरकर दूर चले गए। सूखा वृक्ष इसलिए चुना था कि कोई पक्षी आएगा तो तुरंत दिखाई देगा। उस वृक्ष की खोखर (वृक्ष के थोथे तने) में मादा तोते ने अण्डे पैदा कर रखे थे। एक अण्डा अस्वस्थ था, अन्य स्वस्थ थे। वे शंकर जी की ताली (हाथों से की आवाज) से ही पक्षी बनकर उड़ गए। वह खराब (गन्दा हुआ) अण्डा रह गया। जिस जीव को वह अण्डा प्राप्त हुआ था, वह उस अण्डे में बैठा था। उसके परिपक्व होने तथा स्वयं को शरीर प्राप्त करने का इंतजार कर रहा था।

जैसे बच्चा गर्भ में आने से ही माता-पिता उसे अपना मान बैठते हैं। इसी प्रकार जीव जिस शरीर या अण्डे में प्रवेश होता है तो उसे अपना मान लेता है। मृत्यु के उपरांत शमशान घाट पर अंतिम संस्कार के पश्चात् बची हुई हड्डियों के टुकड़ों को उठाकर किसी अथाह दरिया में बहा देते हैं जिसको अस्थियाँ उठाना या फूल उठाना कहते हैं। उसका कारण यह कि जो जीव उस मानव शरीर (स्त्राी या पुरूष) में रहा है, उसका उस शरीर में अधिक मोह हो जाता है। जैसे मानव को कोई असाध्य रोग हो जाता है तो अपने शरीर की रक्षार्थ सर्व धन लगा देता है। शरीर इतना प्रिय लगता है। मृत्यु के उपरांत यदि उस प्राणी को अन्य शरीर नहीं मिला तो वह प्रेत योनि में जाता है। भूत बनकर सूक्ष्म शरीर में रहता है। वह धर्मराज के दरबार (office) से हिसाब करवाता है। यदि प्रेत योनि प्राप्त करता है तो अपने घर आता है। अपने परिवार के व्यक्तियों से मिलकर बातें करने की कोशिश करता है। कहता है कि क्यों रो रहे हो? मैं आ गया हूँ। परंतु सूक्ष्म शरीर होने के कारण परिवार के व्यक्ति न उसे देख पाते हैं और न उसकी आवाज सुनते हैं। तब उसको अन्य प्रेत बताते हैं कि ये तेरे को देख नहीं पा रहे हैं क्योंकि तेरा स्थूल शरीर नहीं रहा। फिर वह प्रेत अपने शरीर की खोज में शमशान घाट पर जाता है। वहाँ शरीर जला दिया गया होता है। अपने शरीर की शेष बची अस्थियों को अपनी मानता है। उनसे चिपककर रहता है। जब उन अस्थियों को उठाकर दरिया में बहाने जाते हैं तो भी वह जीव उनसे चिपका रहता है। जब दरिया में डाल देते हैं तो वह उनसे अलग हो जाता है। अधिकतर प्रेत वहीं रह जाते हैं, कुछ एक उन परिवार वालों के साथ घर आ जाते हैं। यदि अस्थियाँ न उठाई जाएँ तो वह प्रेत बनकर शमशान घाट पर डेरा डाल लेता है, परंतु जिन्होंने परमेश्वर कबीर जी की शरण ले रखी है, वे प्रेत नहीं बनते। अनुपदेशी जिन्होंने गुरू से नाम लेकर भक्ति नहीं की, वे प्रेत बनकर कभी शमशान पर, कभी घर या खेतों में या जो भी कारोबार होता है, उसके आसपास घूमते रहते हैं। परिवार के सदस्यों को या अन्य को परेशान करते हैं। इसलिए नकली गुरूओं की बताई भक्ति से प्रेत बना। फिर उसको ठिकाने लगाने के लिए अस्थियाँ उठाकर दरिया में डालने की रीति (परम्परा) शुरू कर दी। यदि कोई हरिद्वार हर की पौड़ी से वापिस आ जाता और परिवार को परेशान करता तो उसकी गति कराने की परम्परा प्रारम्भ कर दी। तेरहवीं, सतरहवीं, महीना, छः माही, फिर बरसी मनाने लगे। फिर भी बात नहीं बनी।

भूत तंग करता रहता तो उसके श्राद्ध प्रारम्भ किए कि अब यह पित्तर बन गया है। उसकी गति के लिए पिण्ड भरवाओ आदि-आदि क्रियाएँ परिवारजनों पर थोंपी गई। उसी स्वभाव से अण्डे से एक जीव चिपका था। श्री शिव जी ने पार्वती जी को पूर्ण परमात्मा की कथा सुनाई जो परमेश्वर कबीर जी से सुनी थी। फिर प्रथम मंत्र देवी पार्वती जी को सुनाया। कमलों का भेद बताने लगे। पार्वती जी समाधिस्थ हो गई। पहले तो हाँ-हाँ-हूँ कर रही थी। बाद में वह गंदा (खराब) अण्डा स्वस्थ होकर उसमें तोते का बच्चा बन गया और हाँ-हाँ करने लगा। आवाज में अंतर जानकर शिव जी ने पार्वती की ओर देखा तो वह तो समाधि में थी। अंतर दृष्टि से देखा तो एक तोता सर्व ज्ञान सुन चुका था। शिव जी उस तोते को मारने के लिए उठे तो वह तोता उड़ चला। शिव जी भी आकाश मार्ग से उसका पीछा करने लगे। वेदव्यास ऋषि जी की पत्नी ने जम्भाई ली तो उसके मुख के द्वारा तोते वाला जीव उस ऋषि की पत्नी के शरीर में गर्भ में चला गया। तोते वाला शरीर वहीं त्याग दिया। शिव जी सब देख रहे थे। शिव जी ने वेदव्यास जी की पत्नी से कहा कि आपके गर्भ में मेरे ज्ञान व भक्ति मंत्र का चोर है। उसने अमर कथा सुन ली है। वह भी अमर हो गया है। (जितना अमरत्व उस मंत्र से होता है) व्यास जी भी वहीं आ गए तथा शिव जी को प्रणाम किया। आने का कारण जाना तो कहा कि हे भोलेनाथ! आप कह रहे हो कि वह अमर हो गया है। यदि वह जीव अमर हो गया है तो आप मार नहीं सकते। अब गर्भ में तो आप उसको बिल्कुल भी नहीं मार पाओगे। यह सुनकर शिव जी चले गए। पार्वती जी को समाधि से जगाया और अपने निवास पर चले गए। जिस स्थान पर शिव जी ने पार्वती जी को अमर मंत्र दिया था, उस स्थान को ‘‘अमरनामथ’’ के नाम से जाना जाता है। 12 (बारह) वर्ष तक व्यास जी की पत्नी को बच्चा उत्पन्न नहीं हुआ। तीनों देवता (श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शिव जी) व्यास ऋषि की कुटी पर आए और गर्भ में बैठे जीव से कहा कि आप जन्म लो, बाहर आओ। गर्भ में जीव को अपने पूर्व के जन्मों का ज्ञान होता है। जीव ने कहा, स्वामियो! बाहर आते ही आपकी माया (गुणों का प्रभाव) जीव को भूल पैदा कर देती है। जीव अपना उद्देश्य भूल जाता है। आप अपनी माया को कुछ देर रोको तो मैं बाहर आऊँ। व्यास जी की पत्नी ने कहा कि मेरे गर्भ में लड़का है। मुझे किसी प्रकार का कष्ट नहीं है। इस लड़के ने सुख दिया है। इसका नाम मैं सुखदेव रखूँगी। तीनों देवताओं ने उसको शुकदेव नाम दिया क्योंकि वह शुक (तोते) के शरीर में भक्ति-शक्ति युक्त हुआ था। तीनों देवों ने कहा कि हे शुकदेव! हम अपनी गुण शक्ति को केवल इतनी देर तक रोक सकते हैं, जितनी देर गाय या भैंसे के सींग पर राई का दाना टिक सकता है यानि रखते ही गिर जाता है। शुकदेव ने कहा कि ऐसा ही करो।

तीनों देवों ने अपनी गुण शक्ति को एक क्षण (second) के लिए रोका। शुकदेव गर्भ से बाहर आया। तीनों देव चले गए। उस समय में 93 (तिरानवें) अन्य बच्चों का जन्म हुआ। उन सबको तथा शुकदेव को अपने उद्देश्य का ज्ञान रहा। वे सब महान भक्त-संत, सिद्ध बने। उनमें से 9 (नौ) तो नाथ प्रसिद्ध हुए तथा 84 (चैरासी) सिद्ध बने और एक शुकदेव ऋषि बना। सुखदेव के गर्भ से बाहर आते ही बारह वर्ष का शरीर बन गया। वह उठकर अपनी ओरनाल को (जो नली माता की नाभि से बच्चे की नाभि से जुड़ी होती है। उसके माध्यम से माता के शरीर से बच्चे की परवरिश होती है। उसकी लंबाई लगभग 1) फुट तक होती है।) अपने कंधे पर डालकर चल पड़ा। यह विचार किया कि कहीं दूर जाकर काट फेंकूंगा। कारण यह था कि सुखदेव जी नहीं चाहते थे कि मेरा परिवार में मोह बढ़े और मैं भक्ति नहीं कर पाऊँगा। दूसरी ओर व्यास ऋषि ने कहा कि बेटा हमने तेरे उत्पन्न होने की बारह वर्ष प्रतिक्षा की है। आप जाने की तैयारी कर रहे हो। हमने बेटे का क्या सुख देखा? आप घर त्यागकर ना जाओ। सुखदेव ने कहा, ऋषि जी! आप वेद-शास्त्रों के ज्ञाता विद्वान होकर भी मोह के दलदल में फँसे हो। मुझे भी फँसाने का प्रयत्न कर रहे हो। मेरे को अपने पूर्व जन्मों का ज्ञान है। अनेकों बार आप मेरे पिता बने। अनेकों बार मैं आपका पिता बना। अनेकों बाहर हमने चैरासी लाख प्राणियों के शरीरों में कष्ट उठाए। अबकी बार मुझे मेरे लक्ष्य का ज्ञान है। मैं भक्ति करके अपना जन्म सफल करूँगा। यह वार्ता सुखदेव जी ने अपने माता-पिता की ओर पीठ करके की और आकाश में उड़ गए। पूर्व जन्म की भक्ति से प्राप्त सिद्धि-शक्ति बची थी, उससे उड़ गया। उसी के अभिमान से कोई गुरू नहीं किया। फिर श्री विष्णु जी ने अपने लोक वाले स्वर्ग से निकाल दिया और कहा कि यदि यहाँ स्थान चाहते हो तो राजा जनक मिथिलेश से दीक्षा लो और भक्ति करके आओ। सुखदेव जी ने वैसा ही किया।

सुमिरन का अंग (71-87)

सुमरण के अंग की वाणी नं. 71 से 76:-

गरीब, ऐसा राम अगाध है, अविनासी गहिर गंभीर। हदि जीवों सें दूर हैं, बे हदियों के तीर।।71।।
गरीब, ऐसा राम अगाध है, बे कीमत करतार। सेस सहसंफुनि रटत है, अजहुं न पाया पार।।72।।
गरीब, ऐसा राम अगाध है, अपरंपार अथाह। उरमें किरतम ख्याल है, मौले अलख अल्लाह।।73।।
गरीब, ऐसा राम अगाध है, निरभय निहचल थीर। अनहद नाद अखंड धुनि, नाड़ी बिना सरीर।।74।।
गरीब, ऐसा राम अगाध है, बाजीगर भगवंत। निरसंध निरमल देखिया, वार पार नहिं अंत।।75।।
गरीब, पारब्रह्म बिन परख है, कीमत मोल न तोल। बिना उजन अनुराग है, बहुरंगी अनमोल।।76।।

सरलार्थ:– जो पूर्ण परमात्मा है। वह ऐसा अगाध राम है यानि सबसे आगे वाला (अगाध) सर्वोपरी है। अविनाशी तथा गहर गम्भीर (समुद्र की तरह शक्ति से भरा गहरा) है। वह हद जीवों (जो काल की सीमा वाले हैं। उसी काल ब्रह्म पर आश्रित हैं, उन जीवों) से दूर है। उनको उसका ज्ञान नहीं है। इसलिए उनको उस अविनाशी परमेश्वर से कोई लाभ प्राप्त नहीं होता। जो बेहद के हैं यानि जिन्होंने उस असीम शक्तियुक्त परमात्मा को जान लिया है, वह परमात्मा उनके साथ है। (71)

वह परमात्मा पारस पत्थर की तरह अनमोल (बेकीमत) है। उस परमात्मा की प्राप्ति के लिए शास्त्रविधि रहित नाम यानि राम का जाप शेष नाग जी हजार (संहस्र) मुखों से जप रहा है। आज तक उनको भी अविनाशी परमात्मा का पार (अंत) नहीं पाया है। (72)

परमेश्वर अपरमपार अथाह यानि समन्दर की तरह अमित शक्ति संपन्न है। तत्त्वज्ञान के अभाव से प्रत्येक ऋषि-देव अपने उर (हृदय) में किरतम यानि कृत्रिम (मन कल्पित) ख्याल (विचार) से मौला (परमात्मा) अलख अल्लाह (निराकार-दिखाई न देने वाला) मानते हैं। (73)

वह परमेश्वर अचल (निश्चल) यानि अविनाशी है, निर्भय है। थीर का अर्थ भी स्थिर यानि निश्चल होता है। पद्य भाग में पदों की तथा रागों को पूर्ण करने के कारण ऐसे दोहरे शब्दों का प्रयोग किया जाता है। उस परमेश्वर के लोक में अखण्ड धुन बज रही है। उस परमेश्वर का शरीर पाँच तत्त्व से बने नाड़ी वाला नहीं है। (74)

वह परमेश्वर बाजीगर की तरह अद्भुत चमत्कार करता है। निरसंध (जिसकी शक्ति की सीमा नहीं) तथा पवित्र है। वह अपरमपार शक्ति वाला है। जिस सतपुरूष को अन्य गुरूजन व ऋषिगण अलख अल्लाह (निराकार प्रभु) कहते हैं। उनको परमात्मा प्राप्ति नहीं हुई है। यह मैंने (संत गरीबदास जी ने) देखा है। (75)

पारब्रह्म परमात्मा की परख (पहचान) किसी को नहीं है। उसकी कीमत (मूल्य) तथा तोल (वजन) का क्या वर्णन किया जा सकता है? उसकी महिमा सुनकर उसके प्रति अनुराग (प्राप्ति का प्रेम) मेरे को है। वह बहुरंगी है। जैसे काशी में जुलाहा (धाणक) बना। मेरे को (संत गरीबदास जी को) जिन्दा बाबा के रूप में मिला तथा सतलोक में सतपुरूष रूप में बैठा देखा, इस प्रकार बहुरंगी यानि बहुरूपिया कहा है। (76)

वाणी नं. 77 से 87:-

गरीब, महिमा अबिगत नाम की, जानत बिरले संत। आठ पहर धुनि ध्यान है, मुनि जन रटैं अनंत।।77।।
गरीब, चन्द सूर पानी पवन, धरनी धौल अकास। पांच तत्त हाजरि खड़े, खिजमतिदार खवास।।78।।
गरीब, काल करम करै बदंगी, महाकाल अरदास। मन माया अरु धरमराय, सब सिर नाम उपास।।79।।
गरीब, काल डरै करतार सै, मन माया का नास। चंदन अंग पलटे सबै, एक खाली रह गया बांस।।80।।
गरीब, सजन सलौना राम है, अबिगत अन्यत न जाइ। बाहिर भीतर एक है, सब घट रह्या समाइ।।81।।
गरीब, सजन सलौना राम है, अचल अभंगी एक। आदि अंत जाके नहीं, ज्यूं का त्यूंही देख।।82।।
गरीब, सजन सलौना राम है, अचल अभंगी ऐंन। महिमा कही न जात है, बोले मधुरै बैन।।83।।
गरीब, सजन सलौना राम है, अचल अभंगी आदि। सतगुरु मरहम तासका, साखि भरत सब साध।।84।।
गरीब, सजन सलौना राम है, अचल अभंगी पीर। चरण कमल हंसा रहे, हम हैं दामनगीर।।85।।
गरीब, सजन सलौना राम है, अचल अभंगी आप। हद बेहद सें अगम है, जपो अजपा जाप।।86।।
गरीब, ऐसा भगली जोगिया, जानत है सब खेल। बीन बजावें मोहिनी, जुग जंत्र सब मेल।।87।।

सरलार्थ:– उस परमात्मा को प्राप्त करने के लिए अनन्त मुनिजन मनमाने नामों की रटना लगा रहे हैं(जाप कर रहे हैं), परंतु अविगत नामों (दिव्य मंत्रों) को तथा उनकी महिमा को बिरला संत ही जानता है। (77)

उस परमात्मा के आदेश से पाँचों तत्त्व (आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी) कार्य करते हैं। वे तो परमेश्वर कबीर जी की खिदमतदार यानि सेवा करने वाले (सेवक) दास हैं। (78)

उस परमेश्वर की बंदगी यानि प्रणाम करके नम्र भाव से स्तूति ब्रह्म काल (करम) दया की याचना करते हैं तथा महाकाल (अक्षर पुरूष) भी उस परमेश्वर से अरदास यानि प्रार्थना करके अपने-अपने लोक चला रहे हैं। मन (काल ब्रह्म), माया (देवी दुर्गा) और धर्मराय (काल का न्यायधीश) सबके सिर पर नाम उपासना है यानि सबको भक्ति करना अनिवार्य है, तब उनका पद सुरक्षित रहता है। (79)

(नोट:– अक्षर पुरूष को महाकाल इसलिए कहा है क्योंकि जब इसका एक दिन जो एक हजार युग कहा है, पूरा होता है तो काल ब्रह्म-दुर्गा सहित एक ब्रह्माण्ड का विनाश हो जाता है। सर्व प्राणी अक्षर पुरूष के लोक में रखे जाते हैं। ज्योति निरंजन जब इक्कीसवें ब्रह्माण्ड में होता है, उस समय यह भी महाकाल कहा जाता है।)

ज्योति निरंजन काल भी परमेश्वर कबीर जी से भय मानता है। उस परमेश्वर के दिव्य मंत्रों के जाप से मन में विकार उत्पन्न नहीं होते तथा माया का नाश हो जाता है यानि सांसारिक पदार्थों का संग्रह करने वाला स्वभाव समाप्त हो जाता है। परमात्मा के आध्यात्म ज्ञान के प्रवचनों का प्रभाव अच्छी आत्माओं यानि पूर्व जन्म में शुभ संस्कारी प्राणियों पर ही पड़ता है। जो अन्य प्राणियों के शरीरों (कुत्ते-गधे, सूअर के शरीरों) को त्यागकर मानव शरीर प्राप्त करते हैं। उन पर सत्संग वचन का प्रभाव शीघ्र नहीं पड़ता। उदाहरण दिया है कि जैसे वन में चंदन के वृक्ष होते हैं। उनके आसपास अन्य नीम, बबूल, आम, शीशम आदि-आदि वृक्ष भी होते हैं और बाँस भी उगा होता है। चंदन की महक आसपास के अन्य वृक्ष ग्रहण कर लेते हैं और चंदन की तरह खुशबूदार बन जाते हैं, परंतु बाँस के ऊपर चंदन की महक का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। (80)

वाणी नं. 81 से 87 तक एक जैसा ही ज्ञान है। परमेश्वर की महिमा सामान्य रूप में बताई है कि वह परमात्मा सज्जन यानि नेक मानव जैसा है। अविगत यानि दिव्य है। (अन्यत न जाई) उसकी खोज में अनेकों स्थानों पर ना जाएँ, उसकी प्राप्ति सतगुरू द्वारा होगी। उस परमात्मा की शक्ति बाहर यानि शरीर से बाहर तथा भीतर यानि शरीर के अंदर एक समान है। सबके घट (शरीर रूपी घड़े) में (रहा समाई) व्यापक है। (81)

अचल (स्थिर-स्थाई) अभंगी (जो कभी नहीं टूटे यानि अविनाशी) वह तो एक ही प्रभु (परम अक्षर ब्रह्म) है। उसका आदि (जन्म अर्थात् प्रारम्भ) तथा अंत (मृत्यु) नहीं है। वह तो सदा से ज्यों का त्यों ही दिखाई देता है। आप भी साधना करके उसे देखो। (82)

उस अविनाशी सज्जन परमात्मा की महिमा सम्पूर्ण रूप से कोई नहीं कह सकता क्योंकि वह अचल (स्थिर) तथा अभंगी एँन यानि वास्तव में अविनाशी स्थाई परमात्मा है। वह जब मुझे (संत गरीबदास जी को) मिला था तो बहुत प्रिय भाषा बोली थी। (मधुरे माने मीठे, बैन माने वचन।) (83)

उस अचल अभंगी राम का महरम यानि गूढ़ ज्ञान केवल सतगुरू यानि तत्त्वदर्शी संत ही जानता है। इस बात के साक्षी सब साध (संत जन) हैं। (84)

उस सज्जन सलौने (शुभदर्शी यानि जिसके दर्शन से आनन्द हो) अचल अभंगी राम जो पीर यानि गुरू रूप में प्रकट होते हैं, के चरण कमल (शरण) में हंसा (मोक्ष प्राप्त भक्त) रहते हैं। हम (संत गरीबदास जी) उस परमात्मा के साथ ऐसे हैं (दामनगीर) जैसे चोली-दामन का साथ होता है यानि हम उस परमेश्वर के अत्यंत निकट हैं। (85)

वह अचल अभंगी सज्जन सलौना (शुभदर्शी) राम (परमेश्वर कबीर) हद (काल की सीमा) बेहद (सत्यलोक की सीमा) के पार अकह लोक में मूल रूप से रहता है। उसकी प्राप्ति के लिए सतगुरू जी से दीक्षा लेकर अजपा (श्वांस-उश्वांस से) जाप जपो (स्मरण) करो। (86)

वह परमेश्वर ऐसा भगली (जादूगर) जोगिया (योगी=साधु रूप में प्रकट होने वाला) है। जो सब खेल जानता है कि कैसे जीव की रचना हुई? कैसे यह काल जाल में फँसा? कैसे काल ब्रह्म ने इसको अज्ञान में अंधा कर रखा है? काल का जीव को अपने जाल में फँसाए रखने का क्या उद्देश्य है? (उसको एक लाख मानव शरीरधारी प्राणियों को नित खाना पड़ता है) कैसे जीव को काल जाल से छुड़वाया जा सकता है? बीन बजावैं मोहिनी यानि काल प्रेरित सुंदर स्त्रिायाँ भक्तों को कैसे मधुर वाणी बोलकर आकर्षित करती हैं। बीन बजाने का भावार्थ यह है कि जैसे सपेरा बीन यंत्र बजाकर सर्प को वश में करता है। ऐसे ही काल के आदेश से सुंदर परियाँ सुरीले गाने गाकर साधकों को अपने जाल में फँसाती हैं। वे सब जोग यानि सब विधि (जुगत से) तथा जंत्र यानि अन्य अदाओं के जंत्र से अपनी ओर खींचती हैं यानि सब आकर्षणों को मिलाकर जीव को फँसाती हैं। (87)

(जोग जुगत का अर्थ है योग युक्त करना यानि अपने साथ जोड़ने की युक्ति लगाती है। जंत्र का अर्थ है आध्यात्मिक क्रिया भी करती हैं, इसे जन्त्र-मन्त्र करना भी कहते हैं।)

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