धर्मदास का गीता का पाठ अनुवाद सहित सुनाना

(उग्र गीता)

धर्मदास जी को ज्ञान था कि जिन्दा वेशधारी मुसलमान संत होते हैं जबकि मुसलमान नहीं मानते कि पुनर्जन्म होता है। इसलिए पहले उसी प्रकरण वाले श्लोक सुनाए।

(गीता अध्याय 2 श्लोक 12 व 17, अध्याय 4 श्लोक 5 व 9)

हे अर्जुन आपन जन्म-मरण बहुतेरे। तुम ना जानत याद है मेरे।।
नाश रहित प्रभु कोई और रहाई। जाको कोई मार सकता नाहीं।।

फिर गीता अध्याय 8 श्लोक 1 से 10 सुनाए:-

अर्जुन मन जो शंका आई। कृष्ण से पूछा विनय लाई।।
हे कृष्ण तुम तत् ब्रह्म बताया। अध्यात्म अधिभूत जनाया।।
वाका भेद बताओ दाता। मन्द मति हूँ देवो ज्ञान विधाता।।
(गीता अ. 8 श्लोक 1-2)

कृष्ण अस बोले बानी। दिव्य पुरूष की महिमा बखानी।।
तत् ब्रह्म परम अक्षर ब्रह्म कहाया। जिन सब ब्रह्माण्ड बनाया।।
मम भक्ति करो मोकूं पाई। यामै कछु संशय नाहीं।।
(गीता अ. 8 श्लोक 5, 7)

जहाँ आशा तहाँ बाशा होई। मन कर्म बचन सुमरियो सोई।। (गीता अ. 8 श्लोक 6)

जोहै सनातन अविनाशी भगवाना। वाकि भक्ति करै वा पर जाना।।
जैसे सूरज चमके आसमाना। ऐसे सत्यपुरूष सत्यलोक रहाना।।
वाकी भक्ति करे वाको पावै। बहुर नहीं जग में आवै।।
(गीता अ. 8 श्लोक 8-9-10)

मम मंत्र है ओम् अकेला। (गीता अ. 8 श्लोक 13)

ताका ओम् तत् सत् दूहेला।। (गीता अ. 17 श्लोक 23)

तुम अर्जुन जावो वाकी शरणा। सो है परमेश्वर तारण तरणा।। (गीता अ. 18 श्लोक 62, 66)

वाका भेद परम संत से जानो। तत ज्ञान में है प्रमाणो।। (गीता अ. 4 श्लोक 34)

वह ज्ञान वह बोलै आपा। ताते मोक्ष पूर्ण हो जाता।। (गीता अ. 4 श्लोक 32)

सब पाप नाश हो जाई। बहुर नहीं जन्म-मरण में आई।।
मिले संत कोई तत्त्वज्ञानी। फिर वह पद खोजो सहिदानी।।
जहाँ जाय कोई लौट न आया। जिन यह संसार वृक्ष निर्माया।।
(गीता अ. 15 श्लोक 4)

अब अर्जुन लेहू विचारी। कथ दीन्ही गीता सारी।। (गीता अ. 18 श्लोक 63)

गुप्त भेद बताया सारा। तू है मोकूं आजीज पियारा।। (गीता अ. 18 श्लोक 63)

अति गुप्त से गुप्त भेद और बताऊँ। मैं भी ताको इष्ट मनाऊँ।। (गीता अ. 18 श्लोक 64)

जे तू रहना मेरी शरणा। कबहु ना मिट है जन्म रू मरणा।।
नमस्कार कर मोहे सिर नाई। मेरे पास रहेगा भाई।।
(गीता अ. 18 श्लोक 65)

बेसक जा तू वाकी शरणा। मम धर्म पूजा मोकूं धरणा।।
फिर ना मैं तू कूं कबहूं रोकूं। ना मन अपने कर तू शोकूं।।
(गीता अ. 18 श्लोक 66)

और अनेक श्लोक सुनाया। सुन जिन्द एक प्रश्न उठाया।।

जिन्दा बाबा (कबीर जी) वचन

हे वैष्णव! तव कौन भगवाना। काको यह गीता बखाना।।

धर्मदास वचन

राम कृष्ण विष्णु अवतारा। विष्णु कृष्ण है भगवान हमारा।।
श्री कृष्ण गीता बखाना। एक एक श्लोक है प्रमाणा।।
जे तुम चाहो मोक्ष कराना। भक्ति करो अविनाशी भगवाना।।
विष्णु का कबहु नाश न होई। सब जगत के कर्ता सोई।।
तीर्थ वरत करूँ मन लावो। पिण्ड दान और श्राद्ध करावो।।
यह पूजा है मुक्ति मार्ग। और सब चले कुमार्ग।।

जिन्दा बाबा (कबीर जी) वचन

जै गीता विष्णु रूप में कृष्ण सुनाया। कह कई बार मैं नाश में आया।।1।।
अविनाशी है कोई और विधाता। जो उत्तम परमात्मा कहाता।।2।।
वह ज्ञान मोकूं नाहीं। वाको पूछो संत शरणाई।।3।।
अविनाशी की शरण में जाओ। पुनि नहीं जन्म-मरण में आओ।।4।।
मैं भी इष्ट रूप ताही पूजा। अविनाशी कोई है मोते दूजा।।5।।
मम भक्ति मंत्र ओम् अकेला। वाका ओम् तत् सत् दुहेला।।6।।
मैं तोकूं पूछूं गोसांई। तेरे भगवान मरण के माहीं।।7।।
हम भक्ति वाकी चाहैं। जो नहीं जन्म-मरण में आहै।।8।।
जे तुम पास वह मंत्र होई। तो मैं पक्का चेला होई।।9।।
यही बात एक संत सुनाई। राम कृष्ण सब मरण के माहीं।।10।।
अविनाशी कोई और दाता। वाकी भक्ति मैं बताता।।11।।
वो कह में वाही लोक से आया। मैं ही हूँ वह अविगत राया।।12।।
आज तुम गीता में फरमाया। फिर तो वह संत साच कहाया।।13।।
हे वैष्णव! तुम भी धोखे माहीं। बर्था आपन जन्म नशाहीं।।14।।
जो तू चाहो भवसागर तिरणा। जा के गहो वाकी शरणा।।15।।

कबीर परमेश्वर जी ने धर्मदास जी को गीता से ही प्रश्न तथा उत्तर देकर सत्य ज्ञान समझाया। उपरोक्त वाणी सँख्या 1 में गीता अध्याय 4 श्लोक 5, अध्याय 2 श्लोक 12 वाला वर्णन बताया जिसमें गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं। तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। वाणी सँख्या 2 में गीता अध्याय 15 श्लोक 17 वाला वर्णन बताया है। वाणी सँख्या 3 में गीता अध्याय 4 श्लोक 34 वाला ज्ञान बताया है। वाणी सँख्या 4 में गीता अध्याय 18 श्लोक 62, 66 तथा अध्याय 15 श्लोक 4 वाला वर्णन बताया है। वाणी सँख्या 5 में गीता अध्याय 18 श्लोक 64 का वर्णन है जिसमें काल कहता है कि मेरा इष्ट देव भी वही है। वाणी सँख्या 6 में गीता अध्याय 8 श्लोक 13 तथा अध्याय 17 श्लोक 23 वाला ज्ञान है। आगे की वाणियों में कबीर परमेश्वर जी ने अपने आपको छुपाकर अपने ही विषय में बताया है।

धर्मदास वचन

विष्णु पूर्ण परमात्मा हम जाना। जिन्द निन्दा कर हो नादाना।।
पाप शीश तोहे लागे भारी। देवी देवतन को देत हो गारि।।

जिन्दा (कबीर जी) वचन

जे यह निन्दा है भाई। यह तो तोर गीता बतलाई।।
गीता लिखा तुम मानो साचा। अमर विष्णु है कहा लिख राखा।।
तुम पत्थर को राम बताओ। लडूवन का भोग लगाओ।।
कबहु लड्डू खाया पत्थर देवा। या काजू किशमिश पिस्ता मेवा।।
पत्थर पूज पत्थर हो गए भाई। आखें देख भी मानत नाहीं।।
ऐसे गुरू मिले अन्याई। जिन मूर्ति पूजा रीत चलाई।।
इतना कह जिन्द हुए अदेखा। धर्मदास मन किया विवेका।।

धर्मदास वचन

यह क्या चेटक बिता भगवन। कैसे मिटे आवा गमन।।
गीता फिर देखन लागा। वही वृतान्त आगे आगा।।
एक एक श्लोक पढ़ै और रौवै। सिर चक्रावै जागै न सोवै।।
रात पड़ी तब न आरती कीन्हा। झूठी भक्ति मैं मन दीन्हा।।
ना मारा ना जीवित छोड़ा। अधपका बना जस फोड़ा।।
यह साधु जे फिर मिल जावै। सब मानू जो कछु बतावै।।
भूल के विवाद करूं नहीं कोई। आधीनी से सब जानु सोई।।
उठ सवेरे भोजन लगा बनाने। लकड़ी चुल्हा बीच जलाने।।
जब लकड़ी जलकर छोटी होई। पाछलो भाग में देखा अनर्थ जोई।।
चटक-चटक कर चींटी मरि हैं। अण्डन सहित अग्न में जर हैं।।
तुरंत आग बुझाई धर्मदासा। पाप देख भए उदासा।।
ना अन्न खाऊँ न पानी पीऊँ। इतना पाप कर कैसे जीऊँ।।
कराऊँ भोजन संत कोई पावै। अपना पाप उतर सब जावै।।
लेकर थार चले धर्मनि नागर। वृक्ष तले बैठे सुख सागर।।
साधु भेष कोई और बनाया। धर्मदास साधु नेड़े आया।।
रूप और पहचान न पाया। थाल रखकर अर्ज लगाया।।
भोजन करो संत भोग लगाओ। मेरी इच्छा पूर्ण कराओ।।
संत कह आओ धर्मदासा। भूख लगी है मोहे खासा।।
जल का छींटा भोजन पे मारा। चींटी जीवित हुई थाली कारा।।
तब ही रूप बनाया वाही। धर्मदास देखत लज्जाई।।
कहै जिन्दा तुम महा अपराधी। मारे चीटी भोजन में रांधी।।
चरण पकड़ धर्मनि रोया। भूल में जीवन जिन्दा मैं खोया।।
जो तुम कहो मैं मानूं सबही। वाद विवाद अब नहीं करही।।
और कुछ ज्ञान अगम सुनाओ। कहां वह संत वाका भेद बताओ।।

जिन्द (कबीर) वचन

हे वैष्णव तुम पिण्ड भरो और श्राद्ध कराओ। गीता पाठ सदा चित लाओ।।
भूत पूजो बनोगे भूता। पितर पूजै पितर हुता।।
देव पूज देव लोक जाओ। मम पूजा से मोकूं पाओ।।
यह गीता में काल बतावै। जाकूं तुम आपन इष्ट बतावै।।(गीता अ. 9:25)
इष्ट कह करै नहीं जैसे। सेठ जी मुक्ति पाओ कैसे।।)

धर्मदास वचन

हम हैं भक्ति के भूखे। गुरू बताए मार्ग कभी नहीं चुके।।
हम का जाने गलत और ठीका। अब वह ज्ञान लगत है फीका।।
तोरा ज्ञान महा बल जोरा। अज्ञान अंधेरा मिटै है मोरा।।
हे जिन्दा तुम मोरे राम समाना। और विचार कुछ सुनाओ ज्ञाना।।

जिन्द (कबीर) वचन

मार्कण्डे एक पुराण बताई। वामें एक कथा सुनाई।।
रूची ऋषी वेद को ज्ञानी। मोक्ष मुक्ति मन में ठानी।।
मोक्ष की लगन ऐसी लगाई। न कोई आश्रम न बीवाह सगाई।।
दिन एक पितर सामने आए। उन मिल ये वचन फरमाए।।
बेटा रूची हम महा दुःख पाए। क्यों नहीं हमरे श्राद्ध कराए।।
रूची कह सुनो प्राण पियारो। मैं बेद पढ़ा और ज्ञान विचारो।।
बेद में कर्मकाण्ड अविद्या बताई। श्राद्ध करे पितर बन जाई।।
ताते मैं मोक्ष की ठानी। वेद ज्ञान सदा प्रमानी।।
पिता, अरू तीनों दादा। चारों पंडित नहीं बेद विधि अराधा।।
तातें भूत योनि पाया। अब पुत्र को आ भ्रमाया।।
कहें पितर बात तोरी सत है। वेदों में कर्मकाण्ड अविद्या कथ है।।
तुम तो मोक्ष मार्ग लागे। हम महादुःखी फिरें अभागे।।
विवाह कराओ अरू श्राद्ध कराओ। हमरा जीवन सुखी बनाओ।।
रूची कह तुम तो डूबे भवजल माहीं। अब मोहे वामें रहे धकाई।।
चतवारिस (40) वर्ष आयु बड़ेरी। अब कौन करै सगाई मेरी।।
पितर पतन करवाया आपन। लगे रूची को थापना थापन।।
विचार करो धर्मनी नागर। पीतर कहें वेद है सत्य ज्ञान सागर।।
वेद विरूद्ध आप भक्ति कराई। तातें पितर जूनी पाई।।
रूची विवाह करवाकर श्राद्ध करवाया। करा करवाया सबै नाशाया।।
यह सब काल जाल है भाई। बिन सतगुरू कोई बच है नाहीं।।
या तो बेद पुराण कहो है झूठे। या पुनि तुमरे गुरू हैं पूठे।।
शास्त्रा विरूद्ध जो ज्ञान बतावै। आपन बूडै शिष डूबावै।।
डूब मरै वो ले चुलु भर पाणी। जिन्ह जाना नहीं सारंगपाणी।।

दोहा:- सारंग कहें धनुष, पाणी है हाथा। सार शब्द सारंग है और सब झूठी बाता।।

सारंगपाणी काशी आया। अपना नाम कबीर बताया।।
हम तो उनके चेले आही। गरू क्या होगा समझो भाई।।

धर्मदास वचन

जिन्दा एक अचरज है मोकूं। तुर्क धर्म और वेद पुराण ज्ञान है ताकूं।।
तुम इंसान नाहीं होई। हो अजब फरिश्ता कोई।।
और ज्ञान मोहे बताओ। युगों युगों की कथा सुनाओ।।

जिन्दा (कबीर) वचन

सुनो धर्मनि सृष्टि रचना। सत्य कहूँ नहीं कल्पना।।
जब हम जगत रचना बताई। धर्मदास को अचरज अधिकाई।।

धर्मदास बचन

यह ज्ञान अजीब सुनायो। तुम को यह किन बतायो।।
कहाँ से बोलत हो ऐसी बाता। जानो तुम आप विधाता।।
विधाता तो निराकार बताया। तुम को कैसे मानु राया।।
तुम जो लोक मोहे बतायो। सृष्टि की रचना सुनायो।।
आँखों देखूं मन धरै धीरा। देखूं कहा रहत प्रभु अमर शरीरा।।
(तब हम गुप्त पुनै छिपाई। धर्मदास को मूर्छा आई।।)

‘‘कबीर परमेश्वर जी का अन्य वेश में छटे दिन मिलना’’

चौपाई

दिवस पाँच जब ऐसहि बीता। निपट विकल हिय व्यापेउ चिन्ता।।
छठयें दिन अस्नान कहँ गयऊ। करि अस्नान चिंतवन कियऊ।।
पुहुप वाटिका प्रेम सोहावन। बहु शोभा सुन्दर शुठि पावन।।
तहां जाय पूजा अनुसारा। प्रतिमा देव सेव विस्तारा।।
खोलि पेटारी मूर्ति निकारी। ठाँव ठाँव धरि प्रगट पसारी।।
आनेउ तोरि पुहुप बहु भाँती। चौका विस्तार कीन्ही यहि भाँती।।
भेष छिपाय तहाँ प्रभु आये। चौका निकटहिं आसन लाये।।
धर्मदास पूजा मन लाये। निपट प्रीति अधिक चित चाये।।
मन अनुहारि ध्यान लौलावई। कहि कहि मंत्र पुहुप चढ़ावई।।
चन्दन पुष्प अच्छत कर लेही। निमित होय प्रतिमा पर देही।।
चवर डोलावहिं घण्ट बजायी। स्तुति देव की पढ़ैं चित लायी।।
करि पूजा प्रथमहि शिर नावा। डारि पेटारी मूर्ति छिपावा।।

सतगुरू बचन

अहो सन्त यह का तुम करहूँ। पौवा सेर छटंकी धरहूँ।।
केहि कारण तुम प्रगट खिडायहु। डारि पेटारी काहे छिपायेहु।।

धर्मदास बचन

बुद्धि तुम्हार जान नहि जाई। कस अज्ञानता बोलहु भाई।।
हम ठाकुर कर सेवा कीन्हा। हम कहँ गुरू सिखावन दीन्हा।।
ता कहँ सेर छटंकी कहहूँ। पाहन रूप ना देव अनुसरहूँ।।

सतगुरू बचन

अहो संत तुम नीक सिखावा। हमरे चित यक संशय आवा।।
एक दिन हम सुनेउ पुराना। विप्रन कहे ज्ञान सुनिधाना।।
वेद वाणि तिन्ह मोहि सुनावा। प्रभु कै लीला सुनि मन भावा।।
कहे प्रभु वह अगम अपारा। अगम गहे नहि आव अकारा।।
सुनेउँ शीश प्रभुकेर अकाशा। पग पताल तेहि अपर निवाशा।।
एकै पुरूष जगत कै ईसा। अमित रूप वह लोचन अमीसा।।
सोकित पोटली माहि समाहीं। अहो सन्त यह अचरज आहीं।।
औ गुरू गम्य मैं सुना रे भाई। अहैं संग प्रभु लखौ न जाई।।
अहो सन्त मैं पूछहुँ तोहीं। बात एक जो भाषो मोहीं।।
यहि घटमहँ को बोलत आही। ज्ञानदृष्टि नहि सन्त चिन्हाही।।
जौ लगि ताहि न चीन्हहुँ भाई। पाहन पूजि मुक्ति नहिं पाई।।
कोटि कोटि जो तीर्थ नहाओ। सत्यनाम विन मुक्ति न पाओ।।
जिन सुन्दर यह साज बनाया। नाना रंग रूप उपजाया।।
ताहि न खोजहु साहु के पूता। का पाहन पूजहु अजगूता।।
धर्मदास सुनि चक्रित भयऊ। पूजा पाती बिसरि सब गयऊ।।
एक टक मुख जो चितवत रहाई। पलकौ सुरति ना आनौ जाई।।
प्रिय लागै सुनि ब्रह्मका ज्ञाना। विनय कीन्ह बहु प्रीति प्रमाना।।

धर्मदास वचन (ज्ञान प्रकाश पृष्ठ 16)

अहो साहब तब बात पियारी। चरण टेकि बहु विनय उचारी।।
अहो साहब जस तुम्ह उपदेशा। ब्रह्मज्ञान गुरू अगम संदेशा।।
छठयें दिवस साधु एक आये। प्रीय बात पुनि उनहु सुनाये।।
अगम अगाधि बात उन भाखा। कृत्रिम कला एक नहिं राखा।।
तीरथ व्रत त्रिगुण कर सेवा। पाप पुण्य वह करम करेवा।।
सो सब उन्हहि एक नहिं भावै। सबते श्रेष्ठ जो तेहि गुण गावै।।
जस तुम कहेहु बिलोई बिलोई। अस उनहूँ मोहि कहा सँजोई।।
गुप्त भये पुनि हम कहँ त्यागी। तिन्ह दरशन के हम बैरागी।।
मोरे चित अस परचै आवा। तुम्ह वै एक कीन्ह दुइ भावा।।
तुम कहाँ रहो कहो सो बाता। उन्ह साहब कहँ जानहु ताता।।
केहि प्रभु कै तुम सुमिरण करहू। कहहु बिलोइ गोइ जनि धरहू।।

सतगुरू वचन

अहो धर्मदास तुम सन्त सयाना। देखौ तोहि में निरमल ज्ञाना।।
धर्मदास मैं उनकर सेवक। जहँहि सो भव सार पद भेवक।।
जिन कहा तुमहिं अस ज्ञाना। तिन साहेब कै मोहि सहिदाना।।
वे प्रभु सत्यलोकके वासी। आये यहि जग रहहि उदासी।।
नहिं वौ भग दुवार होइ आये। नहिं वो भग माहिं समाये।।
उनके पाँच तत्त्व तन नाहीं। इच्छा रूप सो देह नहिं आहिं।।
निःइच्छा सदा रहँहीं सोई। गुप्त रहहिं जग लखै न कोई।।
नाम कबीर सन्त कहलाये। रामानन्द को ज्ञान सुनाये।।
हिन्दू तुर्क दोउ उपदेशैं। मेटैं जीवन केर काल कलेशैं।।
माया ठगन आइ बहु बारी। रहैं अतीत माया गइ हारी।।
तिनहि पठवा मोहे तोहि पाही। निश्चय उन्ह सेवक हम आही।।
अहो सन्त जो तुम कारज चहहू। तो हमार सिखावन चित दे गहहू।।
उनकर सुमिरण जो तुम करिहौ। एकोतर सौ वंशा लै तरिहौ।।
वो प्रभु अविगत अविनाशी। दास कहाय प्रगट भे काशी।।
भाषत निरगुण ज्ञान निनारा। वेद कितेब कोइ पाव न पारा।।
तीन लोक महँ महतो काला। जीवन कहँ यम करै जंजाला।।
वे यमके सिर मर्दन हारे। उनहि गहै सो उतरै पारे।।
जहाँ वो रहहि काल तहँ नाहीं। हंसन सुखद एक यह आही।।

धर्मदास वचन (पृष्ठ 17)

अहो साहब बलि बलि जाऊँ। मोहिं उनके सँदेश सुनाऊँ।।
मोरे तुम उनहीं सम आही। तुम वै एक नाहिं बिलगाई।।
नाम तुम्हार काह है स्वामी। सो भाषहु प्रभु अन्तर्यामी।।

सतगुरू वचन

धर्मनि नाम साधु मम आही। सन्तन माँह हम सदा रहाही।।
साधु संगति निशिदिन मन भावै। सन्त समागम तहाँ निश्चय जावै।।
जो जिव करै साधु सेवकाई। सो जिव अति प्रिय लागै भाई।।
हमरे साहिब की ऐसन रीति। सदा करहिं सन्त समागम सो प्रीती।।
जो जिव उन्हकर दीक्षा लेहीं। साधू सेव सिखावन देहीं।।
जीव दया पर आतम पूजा। सद्गुरू भक्ति देव नहिं दूजा।।
सद्गुरू संकट मोचक आहीं। सच्चि भक्ति छुवैं यम नाहीं।।

धर्मदास बचन (ज्ञान प्रकाश पृष्ठ 18)

अहो साहब तुम्ह अविगत अहहू। अमृत वचन तुम निश्चय कहहू।।
हे प्रभु पूछेऊँ बात दुइ चारा। अब मैं परिचय भेद विचारी।।
सो तो हम नहिं जानहिं स्वामी। तुम कहहु प्रभु अंतरयामी।।

सतगुरू वचन

अहो धर्मदास तुम्ह भल यह भाखो। कहो सो जो प्रतीति तुम राखो।।
अहहु निगुरा कि गुरू किहुँ भाई। तौन बात मोहि कहहु बुझाई।।

धर्मदास वचन

समर्थ गुरू हमने कीन्हा। यह परिचे गुरू मोहि न दीन्हा।।
रूपदास विठलेश्वर रहहीं। तिनकर शिष्य सुनहुँ हम अहहीं।।
उन मोहिं इहे भेद समुझावा। पूजहु शालिग्राम मन भावा।।
गया गोमती काशी परागा। होइ पुण्य शुद्ध जनम अनुरागा।।
लक्ष्मी नारायण शिला कै दीन्हा। विष्णु पंजर पुनि गीता चीन्हा।।
जगन्नाथ बलभद्र सहोद्रा। पंचदेव औरो योगीन्द्रा।।
बहुतैं कही प्रमोध दृढ़ाई। विष्णुहिं सुमिरि मुक्ति होइ भाई।।
गुरू के वचन शीश पर राखा। बहुतक दिन पूजा अभिलाखा।।
तुम्हरे भेष मिले प्रभु जबते। तुम बानी प्रिय लागी तबते।।
वे गुरू तुम्हहीं सतगुरू अहहू। सारभेद मोहिं प्रभु कहहू।।
तुम्हरा दास कहाउब स्वामी। यमते छोड़ावहु अन्तरयामी।।
उनहूँ कर नाहीं निन्द करावै। अस विश्वास मोरे मन आवै।।
वह गुरू सर्गुण निर्गुण पसारा। तुमहौ यमते छोड़ावनहारा।।

सतगुरू वचन

सुनु धर्मनि जो तव मन इच्छा। तौ तोहिं देउँ सार पद दिच्छा।।
दो नाव पर जो होय असवारा। गिरे दरिया में न उतरे पारा।।
तुम अब निज भवन चलि जाऊ। गुरू परीक्षा जाइ कराऊ।।
अब तुम रूपदास पै जाओ। अपना संसा दूर कराओ।।
जो गुरू तुम्हैं न कहैं सँदेशा। तब हम तुम्ह कहँ देवें उपदेशा।।

धर्मदास वचन

(ज्ञान प्रकाश पृष्ठ 19)

हे साहेब एक आज्ञा चाहों। दया करो कछु प्रसाद लै आवों।।

सतगुरू वचन

हे धर्मदास मोहि इच्छा नाहीं। छुधा न व्यापै सहज रहाहीं।।
सत्यनाम है मोर अधारा। भक्ति भजन सतसंग सहारा।।

धर्मदास वचन

अहो साहब जो अन्न न खाहू। तो मोरे चितकर मिटै न दाहू।।

सतगुरू वचन

तुमरी इच्छा तो ल्यावहु भाई। अन्न खायें तब हम जाई।।
धर्मदास उठि हाट सिधाये। बतासा पेड़ा रूचि लै आये।।
आनि धरेउ आगे प्रभुकेरा। विनय भाव कीन्ह बहुतेरा।।
अहो साहु अब अज्ञा देहू। गुरू पहँ जाय मैं आशिष लेहू।।

धर्मदास वचन

करि दण्डवत धर्मनि कर जोरी। अब कब सुदिन होई मोरी।।
तेहि दिन सुदिन लेखे प्रभुराई। जेहि दिन तुव पुनः दरशन पाई।।
हम कहँ निज चेरा करि जानो। सत्य कहौं निश्चय करि मानो।।
आशिष दै प्रभु चले तुरन्ता। अबिगति लीला लखे को अन्ता।।
धर्मदास चितवहिं मगु ठाढो। उपजा प्रेम हृदय अति गाढो।।

भावार्थ:- धर्मदास जी ने परमेश्वर कबीर जी से कहा कि हे प्रभु! आपकी आज्ञा हो तो कुछ प्रसाद खाने को लाऊँ। परमात्मा ने कहा कि मुझे क्षुधा (भूख) नहीं लगती। मैं सतनाम स्मरण के आधार रहता हूँ। धर्मदास जी ने कहा कि यदि आप मेरा अन्न नहीं खाओगे तो मेरी दाह यानि तड़फ समाप्त नहीं होगी। आप अवश्य कुछ भोग लगाओ। तब परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि जो तेरी इच्छा है, ले आ। धर्मदास बतासे और पेड़े ले आया। परमात्मा जी ने भोग लगाया। फिर कहा कि हे साहु (सेठ) धर्मदास! मुझे आज्ञा दे, मैं अपने गुरू जी के पास काशी में जाकर आशीर्वाद ले लुँ। धर्मदास जी ने कहा कि प्रभु! अब पुनः मेरे कब अच्छे दिन आऐंगे? मेरे वह सुदिन लेखे में होंगे जब आप पुनः मुझे मिलोगे। आप मुझे अपना दास मान लो, मैं विश्वास के साथ कह रहा हूँ। प्रभु कबीर जी धर्मदास को आशीष देकर चल पड़े। धर्मदास उस रास्ते को देखता रहा और हृदय में परमात्मा के प्रति विशेष प्रेम उमड़ रहा था।

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