अजामेल के उद्धार की कथा

सुमिरन का अंग (39)

वाणी नं. 39 की एक पंक्ति का सरलार्थ हुआ है।

गरीब, राम नाम सदने पीया, बकरे के उपदेश। अजामेल से उधरे, भक्ति बंदगी पेश।।

अजामेल के उद्धार की कथा

काशी शहर में एक अजामेल नामक ब्राह्मण शराब पीता था। वैश्या के पास जाता था। वैश्या का नाम मैनका था, बहुत सुंदर थी। परिवार तथा समाज के समझाने पर भी अजामेल नहीं माना तो उन दोनों को नगर से निकाल दिया। वे उसी शहर से एक मील (1.7 km) दूर वन में कुटिया बनाकर रहने लगे। दोनों ने विवाह कर लिया। अजामेल स्वयं शराब तैयार करता था। जंगल से जानवर मारकर लाए और मौज-मस्ती करता था।

वशेष:– अजामेल पूर्व जन्म में विष्णु जी का परम भक्त था। ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करता था। साधक समाज में पूरी इज्जत थी। बचपन से ही घर त्यागकर साधुओं में रहता था। वैश्या भी पूर्व जन्म में विष्णु जी की परम भक्त थी। ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करती थी। पर पुरूष की ओर कभी दोष दृष्टि से नहीं देखती थी। इस लक्षण से साधक समाज में विशेष सम्मान था।

साधकों में ध्यान समाधि लगाने का विशेष प्रचलन है जो केवल काल प्रेरणा है। हठ योग है जो गीता तथा वेदों में मना किया है। एक दिन श्याम सुंदर (अजामेल का पूर्व जन्म का नाम) लेटकर समाधि लगाए हुए था। शरीर पर केवल एक कोपीन (लंगोट जो एक छः इंच चैड़ा तथा दो फुट लंबा कपड़े का टुकड़ा होता है जो केवल गुप्तांग को ढ़कता है। तागड़ी में लपेटा जाता है। तागड़ी=बैल्ट की तरह एक मोटा धागा बाँधा जाता है, उसे तागड़ी कहते हैं।) पहने हुए था। सर्दी का मौसम था। दिन के समय धूप थी। उस समय श्याम सुंदर वैष्णव ने समाधि लगाई थी। रात्रि तक समाधि नहीं खुली। उस समय एक तीर्थ पर मेला लगा था। राम बाई (मैनका का पूर्व जन्म का नाम) ने देखा, यह साधु इतनी सर्दी में निःवस्त्र सोया है, नींद में ठण्ड न लग जाए। यह मर न जाए। यह विचार करके उसके ऊपर लेट गई और अपने कम्बल से अपने ऊपर से उस साधु को भी ढ़क लिया। अन्य व्यक्तियों को लगा कि कोई अकेला सो रहा है। भोर भऐ (सूर्य उदय होते-होते) श्याम सुंदर की समाधि खुली। उसने उठने की कोशिश की, तब रामबाई उठ खड़ी हुई। उस समय एक कम्बल से स्त्री-पुरूष निकले देखकर अन्य साधक भी उस ओर ध्यान से देखने लगे। श्याम सुंदर ने साधक समाज में अपने मान-सम्मान पर ठेस जानकर अपने को पाक-साफ सिद्ध करने के लिए राम बाई से कहा कि हे रंडी (वैश्या)! तूने मेरा धर्म नष्ट किया है। मैं तो अचेत था, तूने उसका लाभ उठा लिया। तू वैश्या बनेगी। अन्य साधु भी निकट आकर उनकी बातें सुनने लगे।

रामबाई ने कहा कि हे भाई जी! शाॅप देने से पहले सच्चाई तो जान लेते। आप निःवस्त्र सर्दी में ठिठुर रहे थे। आप अचेत थे। आपके जीवन की रक्षा के लिए मैंने आपको ताप (गर्मी) देने के लिए मैं आपके ऊपर लेटी थी। कम्बल बहुत पतला है, चद्दर से भी पतला है। इसलिए मुझे इस पर विश्वास नहीं हुआ। एक बहन ने भाई की रक्षा के लिए यह बदनामी मोल ली है। आपने इसके फल में मुझे बद्दुआ (शाॅप) दी है। सुन ले! तू अगले जन्म में भडु़वा बनेगा। वैश्याओं के पास जाया करेगा। दोनों ने एक-दूसरे को शाॅप देकर अपनी भक्ति का नाश कर लिया। जब श्याम संुदर को सच्चाई पता चली और अपना अंग देखा, सुरक्षित था तो रामबाई से बहुत हमदर्दी हो गई। अपनी गलती की क्षमा याचना की। विशेष प्रेम करने लगा। अधिक मोह हो गया। रामबाई भी श्यामसुंदर से विशेष प्यार करने लगी। वह प्यार एक मित्रवत था, परंतु मोह भी एक जंजीर (बंधन) है। मृत्यु उपरांत दोनों का जन्म काशी नगर में हुआ। श्याम संुदर का नाम अजामेल था। ब्राह्मण कुल में जन्म हुआ।

रामबाई का जन्म भी ब्राह्मण कुल में हुआ। उसका नाम मैनका था। शाॅप संस्कारवश चरित्रहीन हो गई। वैश्या बन गई। शाॅप संस्कारवश अजामेल शराब का आदी हो गया।

वैश्या मैनका के पास जाने लगा। दोनों को नगर से निकाल दिया गया। दोनों लगभग 40 – 45 वर्ष की आयु के हो गए थे। संतान कोई नहीं थी। परमेश्वर कबीर जी कहते हैं, गरीबदास जी ने बताया है:-

गोता मारूं स्वर्ग में, जा पैठूं पाताल। गरीबदास ढूंढ़त फिरूं, हीरे मानिक लाल।।
कबीर, भक्ति बीज विनशै नहीं, आय पड़ो सो झोल। जे कंचन बिष्टा पड़े, घटै न ताका मोल।।

भावार्थ:– कबीर परमेश्वर जी ने संत गरीबदास जी को बताया कि मैं अपनी अच्छी आत्माओं को खोजता फिरता हूँ। स्वर्ग, पृथ्वी तथा पाताल लोक में कहीं भी मिले, मैं वहीं पहुँच जाता हूँ। उनको पुनः भक्ति की प्रेरणा करता हूँ। मनुष्य जन्म के भूले उद्देश्य की याद दिलाकर भक्ति करने को कहता हूँ। वे अच्छी आत्माएँ पूर्व के किसी जन्म में मेरी शरण में आई होती हैं, परंतु पुनः जन्म में कोई संत न मिलने के कारण वे भक्ति न करके या तो धन संग्रह करने में व्यस्त हो जाती हैं या बुराईयों में फँसकर शराब, माँस खाने-पीने में जीवन नष्ट कर देती हैं या फिर अपराधी बनकर जनता के लिए दुःखदाई बनकर बेमौत मारी जाती हैं। उनको उस दलदल से निकालने के लिए मैं कोई न कोई कारण बनाता हूँ। वे आत्माएँ तत्त्वज्ञान के अभाव से बुराईयों रूपी कीचड़ में गिर तो जाती हैं, परंतु जैसे कंचन (स्वर्ण यानि ळवसक) टट्टी में गिर जाए तो उसका मूल्य कम नहीं होता। टट्टी (बिष्टा) से निकालकर साफ कर ले। उसी मोल बिकता है। इसी प्रकार जो जीव मानव शरीर में एक बार मेरी (कबीर परमेश्वर जी की) शरण में किसी जन्म में आ जाता है। प्रथम, द्वितीय या तीनों मंत्रों में से कोई भी प्राप्त कर लेता है। किसी कारण से नाम खंडित हो जाता है, मृत्यु हो जाती है तो उसको मैं नहीं छोडूंगा। कलयुग में सब जीव पार होते हैं। यदि कलयुग में भी कोई उपदेशी रह जाता है तो सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग में उन्हीं की भक्ति से मैं बिना नाम लिए, बिना धर्म-कर्म किए आपत्ति आने पर अनोखी लीला करके रक्षा करता हूँ। उसको फिर भक्ति पर लगाता हूँ। उनमें परमात्मा के प्रति आस्था बनाए रखता हूँ।

कलयुग में सत्ययुग

विशेष:– वर्तमान में (सन् 1997 से) कलयुग की बिचली पीढ़ी चल रही है यानि कलयुग का दूसरा (मध्य वाला) चरण चल रहा है। इस समय कलयुग 5505 वर्ष बीत चुका है। कुछ वर्षों में परमेश्वर कबीर जी के ज्ञान का डंका सर्व संसार में बजेगा यानि कबीर जी के ज्ञान का बोलबाला होगा, खरबों जीव सतलोक जाएंगे। यह भक्ति युग एक हजार वर्ष तक तो निर्बाध चलेगा, उसके पश्चात् दो लाख वर्ष तक भक्ति में 50 प्रतिशत आस्था व्यक्तियों में रहेगी, भक्ति मंत्र यही रहेंगे। फिर एक लाख तीस हजार (130000) वर्ष तक तीस प्रतिशत व्यक्तियों में भक्ति की लगन रहेगी। यहाँ तक यानि (5505 + 1000 + 200000 + 130000 = 336505 वर्ष) तीन लाख छत्तीस हजार पाँच सौ पाँच वर्ष तक कलयुग का दूसरा चरण चलेगा। इसके पश्चात् कलयुग का अंतिम चरण चलेगा। पाँच सौ (500) वर्षों में भक्ति चाहने वाले व्यक्ति मात्र 5% रह जाएंगे। तीसरे चरण का समय पचानवे हजार चार सौ पचानवे (95495) वर्ष रह जाएगा। फिर भक्ति चाहने वाले तो होगें, परंतु यथार्थ भक्तिविधि समाप्त हो जाएगी। जो व्यक्ति हजार वर्ष वाले समय में तीनों मंत्र लेकर पार नहीं हो पाएंगे। वे ही 50% तथा 30%, 5%, उस समय की जनसँख्या में भक्ति चाहने वाले रहेंगे। वे पार नहीं हो पाते, परंतु उनकी भक्ति (तीनों मंत्रों) की कमाई अत्यधिक हो जाती है। वे सँख्या में अरबों होते हैं। वे ही सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग में ऋषि-महर्षि, प्रसिद्ध सिद्ध तथा देवताओं की पदवी प्राप्त करते हैं। उनका भक्ति कर्मों के अनुसार सत्ययुग में जन्म होता है। वे भक्ति ब्रह्म तक की करते हैं, परंतु सिद्धियाँ गजब की होती हैं। वे पूर्व जन्म की भक्ति की शक्ति से होती हैं। कलयुग में वे ही ब्राह्मण-ऋषि उन्हीं वेदों को पढ़ते हैं। ब्रह्म की भक्ति ओउम् (om नाम जाप करके करते हैं, परंतु कुछ भी चमत्कार नहीं होते। कारण है कि वे तीनों युगों में अपनी पूर्व जन्म की भक्ति शक्ति को शाॅप-आशीर्वाद देकर सिद्धियों का प्रदर्शन करके समाप्त करके सामान्य प्राणी रह जाते हैं, परंतु उनमें परमात्मा की भक्ति की चाह विद्यमान रहती है। कलयुग में काल सतर्क हो जाता है। वेदविरूद्ध ज्ञान का प्रचार करवाता है। अन्य देवताओं की भक्ति में आस्था दृढ़ करा देता है। जैसे 1997 से 2505 वर्ष पूर्व (यानि ईशा मसीह से 508 वर्ष पूर्व) आदि शंकराचार्य जी का जन्म हुआ था। वे कुल तीस वर्ष जीवित रहे। उन्होंने 20 वर्ष की आयु में अपना मत दृढ़ कर दिया कि श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री शिव जी, माता दुर्गा तथा गणेश आदि-आदि की भक्ति करो। विशेषकर तम् गुण भगवान शिव की भक्ति को अधिक दृढ़ किया क्योंकि वे {आदि शंकराचार्य जी (शिवलोक से आए थे)} शिव जी के गण थे। इसलिए शंकर जी के मार्ग के आचार्य यानि गुरू (शंकराचार्य) कहलाए। वर्तमान तक राम, कृष्ण, विष्णु, शिव तथा अन्य देवी-देवताओं की भक्ति का रंग चढ़ा है। संसार में अरबों मानव भक्ति चाहने वाले हैं। वे किसी न किसी धर्म या पंथ से गुरू से जुड़े हैं। परंतु भक्ति शास्त्रविरूद्ध कर रहे हैं। परमेश्वर वि.संवत् 1455 यानि सन् 1398 में प्रकट हुए। पाँच वर्ष की आयु में स्वामी रामानंद को ज्ञान समझाया तथा विक्रमी संवत् 1575 (सन् 1518) तक 120 वर्ष संसार में रहे जिनमें से गुरू पद पर एक सौ पन्द्रह (115) वर्ष रहकर 64 लाख (चैंसठ लाख) भक्तों में भक्ति की प्रेरणा को फिर जागृत किया। उनमें पुनः भक्ति बीज बोया। फिर सबकी परीक्षा ली। वे असफल रहे, परंतु गुरू द्रोही नहीं हुए। उनका अब जन्म हो रहा है। सर्वप्रथम वे चैंसठ लाख मेरे (संत रामपाल दास) से जुड़ेंगे। उसके पश्चात् वे जन्मेंगे जिन्होंने एक हजार वर्ष के पश्चात् 2 लाख तथा 1 लाख 30 हजार वर्ष तक भक्ति में लगे रहे, परंतु पार नहीं हुए। जो चैंसठ लाख हैं, ये वे प्राणी हैं जो एक हजार वर्ष वाले समय में रह गए थे, परंतु धर्मराज के दरबार में अधिक विलाप किया कि हमने तो सतलोक जाना है। परमात्मा कबीर जी गुरू रूप में प्रकट होकर उनको धर्मराज से छुड़वाकर मीनी सतलोक में ले गए थे। उनका जन्म अपने आने के (कलयुग में वि.संवत् 1455 के) समय के आसपास दिया था जो अभी तक मानव जीवन प्राप्त करते आ रहे हैं।

कैसे होगा कलयुग में सत्ययुग?

वर्तमान में सन् 1997 से 3000 ईशवी तक पुनः सत्ययुग जैसा वातावरण, आपसी प्रेम का माहौल बनेगा। फिर से फलदार वृक्ष तथा छायादार वृक्ष लगाए जाएंगे। फैक्ट्रियां धुँआ रहित होंगी। फिर बंद हो जाएँगी। लोग हाथ से बने कपड़े पहनेंगे। मिट्टी या स्टील के बर्तन प्रयोग करेंगे जो छोटे कारखानों में मानव चालित यंत्रों से तैयार होंगे जो मानव संचालित अहरण की तरह चलेंगे। पशुधन बढ़ेगा। सब मानव मिलकर पूरी पृथ्वी को उपजाऊ बनाने में एकजुट होकर कार्य करेंगे। कोई धनी व्यक्ति अहंकारी नहीं होगा। वह अधिक धन दान में देगा। जो अधिक धन संग्रह करेगा, उसे मूर्ख कहा जाएगा। उसको ज्ञान समझाकर सामान्य जीवन जीने की प्रेरणा दी जाएगी जिसको वह स्वीकार करेगा। सामान्य जीवन जीने वाले और भक्ति, दान धर्म करने वालों की प्रशंसा हुआ करेगी। पश्चिमी देशों (अमेरिका, इंग्लैंड आदि-आदि) वाली सभ्यता समाप्त हो जाएगी। स्त्री-पुरूष पूरे वस्त्र पहना करेंगे। सुखमय जीवन जीएंगे। एक-दूसरे की सहायता अपने परिवार की तरह करेंगे। कलयुग में सतयुग एक हजार वर्ष तक चलेगा। इसका 50% प्रभाव 2 लाख वर्ष तक तथा 30% प्रभाव एक लाख तीस हजार वर्ष तक रहेगा।

अंत के 95495 (पचानवे हजार चार सौ पचानवे) वर्षों में 95% व्यक्ति कृतघ्नी, मर्यादाहीन, दुष्ट हो जाएँगे। कच्चा माँस खाने लगेंगे। आयु बहुत कम यानि 20 वर्ष रह जाएगी। मानव की लंबाई 2 से 3 फुट तक रह जाएगी। 5 वर्ष की लड़की को बच्चा पैदा होगा। 80% व्यक्ति 15 वर्ष की आयु में मर जाया करेंगे। फिर एकदम पृथ्वी पर बारिश से पानी-पानी हो जाएगा। जो अच्छे व्यक्ति 5% बचेंगे, शेष कुछ तो कल्कि (निःकलंक) अवतार मार देगा, कुछ बाढ़ में मर जाएँगे। बचे हुए व्यक्ति ऊँचे स्थानों पर निवास करेंगे। पृथ्वी पर सौ-सौ फुट तक पानी हो जाएगा। धीरे-धीरे पानी सूखेगा। पृथ्वी पर पेड़ (वन) उगेंगे। फिर जमीन उपजाऊ होगी। कलयुग के अंत में धरती का 3 फुट नीचे तक उपजाऊ अंश समाप्त हो जाएगा। पानी के कारण वह विष पृथ्वी से बाहर पानी के ऊपर आएगा। पृथ्वी फिर से उपजाऊ होगी और पुनः सत्ययुग की शुरूआत होगी।

अजामेल की शेष कथा

एक दिन नारद जी काशी में आए तथा किसी से पूछा कि मुझे अच्छे भक्त का घर बताओ। मैंने रात्रि में रूकना है। मेरा भजन बने, उसको सेवा का लाभ मिले। उस व्यक्ति ने मजाक सूझा और कहा कि आप सामने कच्चे रास्ते जंगल की ओर जाओ। वहाँ एक बहुत अच्छा भक्त रहता है। भक्त तो एकान्त में ही रहते हैं ना। आप कृपया जाओ। लगभग एक मील (आधा कोस) दूर उसकी कुटी है। गर्मी का मौसम था। सूर्य अस्त होने में 1) घंटा शेष था। नारद जी को द्वार पर देखकर मैनका अति प्रसन्न हुई क्योंकि प्रथम बार कोई मनुष्य उनके घर आया था, वह भी ऋषि। पूर्व जन्म के भक्ति-संस्कार अंदर जमा थे, उन पर जैसे बारिश का जल गिर गया हो, ऐसे एकदम अंकुरित हो गए। मैनका ने ऋषि जी का अत्यधिक सत्कार किया। कहा कि न जाने कौन-से जन्म के शुभ कर्म आगे आए हैं जो हम पापियों के घर भगवान स्वरूप ऋषि जी आए हैं। ऋषि जी के बैठने के लिए एक वृक्ष के नीचे चटाई बिछा दी। उसके ऊपर मृगछाला बिछाकर बैठने को कहा। नारद जी को पूर्ण विश्वास हो गया कि वास्तव में ये पक्के भक्त हैं। बहुत अच्छा समय बीतेगा। कुछ देर में अजामेल आया और जो तीतर-खरगोश मारकर लाया था, वह लाठी में टाँगकर आँगन में प्रवेश हुआ। अपनी पत्नी से कहा कि ले रसोई तैयार कर। सामने ऋषि जी को बैठे देखकर दण्डवत् प्रणाम किया और अपने भाग्य को सराहने लगा। कहा कि ऋषि जी! मैं स्नान करके आता हूँ, तब आपके चरण चम्पी करूँगा। यह कहकर अजामेल निकट के तालाब पर चला गया। नारद जी ने मैनका से पूछा कि देवी! यह कौन है? उत्तर मिला कि यह मेरा पति अजामेल है। नारद जी को विश्वास नहीं हो रहा था कि यह क्या चक्रव्यूह है? विचार तो भक्तों से भी ऊपर, परंतु कर्म कैसे? नारद जी ने कहा कि देवी! सच-सच बता, माजरा क्या है? शहर में मैंने पूछा था कि किसी अच्छे भक्त का घर बताओ तो आपका एकांत स्थान वाला घर बताया था। आपके व्यवहार से मुझे पूर्ण संतोष हुआ कि सच में भक्तों के घर आ गया हूँ। यह माँसाहारी आपका पति है तो आप भी माँसाहारी हैं। मेरे साथ मजाक हुआ है। ऋषि नारद उठकर चलने लगा। मैनका ने चरण पकड़ लिये। तब तक अजामेल भी आ गया। अजामेल भी समझ गया कि ऋषि जी गलती से आये हैं। अब जा रहे हैं। पूर्व के भक्ति संस्कार के कारण ऋषि जी के दोनों ने चरण पकड़ लिए और कहा कि हमारे घर से ऋषि भूखा जाएगा तो हमारा नरक में वास होगा। ऋषि जी! आपको हमें मारकर हमारे शव के ऊपर पैर रखकर जाना होगा। नारद जी ने कहा कि आप तो अपराधी हैं। तुम्हारा दर्शन भी अशुभ है। अजामेल ने कहा कि हे स्वामी जी! आप तो पतितों का उद्धार करने वाले हो। हम पतितों का उद्धार करें। हमें कुछ ज्ञान सुनाओ। हम आपको कुछ खाए बिना नहीं जाने देंगे। नारद जी ने सोचा कि कहीं ये मलेच्छ यहीं काम-तमाम न कर दें यानि मार न दें, ये तो बेरहम होते हैं, बड़ी संकट में जान आई। कुछ विचार करके नारद जी ने कहा कि यदि कुछ खिलाना चाहते हो तो प्रतिज्ञा लो कि कभी जीव हिंसा नहीं करेंगे। माँस-शराब का सेवन नहीं करेंगे। दोनों ने एक सुर में हाँ कर दी। सौगंद है गुरूदेव! कभी जीव हिंसा नहीं करेंगे, कभी शराब-माँस का सेवन नहीं करेंगे। नारद जी ने कहा कि पहले यह माँस दूर डालकर आओ और शाकाहारी भोजन पकाओ। तुरंत अजामेल ने वह माँस दूर जंगल में डाला। मैनका ने कुटी की सफाई की। फिर पानी छिड़का। चूल्हा लीपा। अजामेल बोला कि मैं शहर से आटा लाता हूँ। मैनका तुम सब्जी बनाओ। नारद जी की जान में जान आई। भोजन खाया। गर्मी का मौसम था। एक वृक्ष के नीचे नारद जी की चटाई बिछा दी। स्वयं दोनों बारी-बारी सारी रात पंखे से हवा चलाते रहे। नारद जी बैठकर भजन करने लगे। फिर कुछ समय पश्चात् आँखें खोली तो देखा कि दोनों अडिग सेवा कर रहे हैं। नारद जी ने कहा कि आप दोनों भक्ति करो। राम का नाम जाप करो। दोनों ने कहा कि ऋषि जी! भक्ति नहीं कर सकते। रूचि ही नहीं बनती। और सेवा बताओ।

परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि:-

कबीर, पिछले पाप से, हरि चर्चा ना सुहावै। कै ऊँघै कै उठ चलै, कै औरे बात चलावै।।
तुलसी, पिछले पाप से, हरि चर्चा ना भावै। जैसे ज्वर के वेग से, भूख विदा हो जावै।।

भावार्थ:– जैसे ज्वर यानि बुखार के कारण रोगी को भूख नहीं लगती। वैसे ही पापों के प्रभाव से व्यक्ति को परमात्मा की चर्चा में रूचि नहीं होती। या तो सत्संग में ऊँघने लगेगा या कोई अन्य चर्चा करने लगेगा। उसको श्रोता बोलने से मना करेगा तो उठकर चला जाएगा।

यही दशा अजामेल तथा मैनका की थी। नारद जी ने कहा कि हे अजामेल! एक आज्ञा का पालन अवश्य करना। आपकी पत्नी को लड़का उत्पन्न होगा। उसका नाम ‘नारायण’ रखना। ऋषि जी चले गए। अजामेल को पुत्र प्राप्त हुआ। उसका नाम नारायण रखा। इकलौते पुत्र में अत्यधिक मोह हो गया। जरा भी इधर-उधर हो जाए तो अजामेल अरे नारायण आजा बेटा करने लग जाता। ऋषि जी का उद्देश्य था कि यह कर्महीन दंपति इसी बहाने परमात्मा को याद कर लेगा तो कल्याण हो जाएगा। नारद जी ने कहा था कि अंत समय में यदि यम के दूत जीव को लेने आ जाएँ तो नारायण कहने से छोड़कर चले जाते हैं। भगवान के दूत आकर ले जाते हैं। एक दिन अचानक अजामेल की मृत्यु हो गई। यम के दूत आ गए। उनको देखकर कहा कि कहाँ गया नारायण बेटा, आजा।

{पौराणिक लोग कहते हैं कि ऐसा कहते ही भगवान विष्णु के दूत आए और यमदूतों से कहा कि इसकी आत्मा को हम लेकर जाएँगे। इसने नारायण को पुकारा है। यमदूतों ने कहा कि धर्मराज का हमारे को आदेश है पेश करने का। इसी बात पर दोनों का युद्ध हुआ। भगवान के दूत अजामेल को ले गए।}

वास्तव में यमदूत धर्मराज के पास लेकर गए। धर्मराज ने अजामेल का खाता खोला तो उसकी चार वर्ष की आयु शेष थी। फिर देखा कि इसी काशी शहर में दूसरा अजामेल है। उसके पिता का अन्य नाम है। उसको लाना था। उसे लाओ। इसको तुरंत छोड़कर आओ। अजामेल की मृत्यु के पश्चात् उसकी पत्नी रो-रोकर विलाप कर रही थी। विचार कर रही थी कि अब इस जंगल में कैसे रह पाऊँगी। बच्चे का पालन कैसे करूंगी? यह क्या बनी भगवान? वह रोती-रोती लकड़ियाँ इकट्ठी कर रही थी। कुटी के पास में शव को खींचकर ले गई। इतने में अजामेल उठकर बैठ गया। कुछ देर तो शरीर ने कार्य ही नहीं किया। कुछ समय के बाद अपनी पत्नी से कहा कि यह क्या कर रही हो? पत्नी की खुशी का ठिकाना नहीं था। कहा कि आपकी मृत्यु हो गई थी। अजामेल ने बताया कि यम के दूत मुझे धर्मराज के पास लेकर गए। मेरा खाता (।बबवनदज) देखा तो मेरी चार वर्ष आयु शेष थी। मुझे छोड़ दिया और काशी शहर से एक अन्य अजामेल को लेकर जाएँगे, उसकी मृत्यु होगी। अगले दिन अजामेल शहर गया तो अजामेल के शव को शमशान घाट ले जा रहे थे, तुरंत वापिस आया। अपनी पत्नी से बताया कि वह अजामेल मर गया है, उसका अंतिम संस्कार करने जा रहे हैं। अब अजामेल को भय हुआ कि भक्ति नहीं की तो ऊपर बुरी तरह पिटाई हो रही थी, नरक में हाहाकार मचा था। नारद जी आए तो अजामेल ने कहा कि गुरू जी! मेरे साथ ऐसा हुआ। मेरी आयु चार वर्ष की बताई थी। एक वर्ष कम हो चुका है। बच्चा छोटा है, मेरी आयु बढ़ा दो। नारद जी ने कहा कि नारायण-नारायण जपने से किसी की आयु नहीं बढ़ती। जो समय धर्मराज ने लिखा है, उससे एक श्वांस भी घट-बढ़ नहीं सकता।

कथा सुनाई कि:-

आयु वृद्धि होती है या नहीं

एक ऋषि था। उसको किसी ने हस्तरेखा देखकर बताया कि आपकी तीन दिन आयु शेष है। वह ऋषि चिंतित हुआ और बोला कि कोई उपाय बताओ जिससे मेरी आयु चार वर्ष बढ़ जाए, मैं भक्ति करना चाहता हूँ। ऋषि को उस ज्योतिष शास्त्री ने बताया कि आप तो अच्छे उद्देश्य के लिए आयु वृद्धि चाह रहे हो, चलो प्रजापति ब्रह्मा जी के पास चलते हैं। वे जीवों के उत्पत्तिकर्ता हैं। ब्रह्मा जी के पास गए और उद्देश्य बताया तो ब्रह्मा जी ने कहा कि मैं तो उत्पत्ति तो कर सकता हूँ। आयु की वृद्धि का अधिकार मेरे पास नहीं है। फिर सोचा कि विष्णु जी के पास चलते हैं। ऋषि जी का उद्देश्य अच्छा है। तीनों विमान में बैठकर विष्णु जी के पास गए। उद्देश्य बताया तो विष्णु जी ने कहा कि यह काम तो शंकर जी का है। वह संहार करते हैं, उन्हीं से प्रार्थना की जाए। ऋषि जी का जीवन वृद्धि का उद्देश्य भक्ति के लिए अच्छा है।

विष्णु जी, ब्रह्मा जी तथा वे दोनों सब शंकर जी के पास गए। उनको उद्देश्य बताया तो शंकर जी ने कहा कि ऋषि जी का उद्देश्य तो बहुत अच्छा है, परंतु मेरे को तो जो आदेश धर्मराज से आता है, उन्हीं की मृत्यु का आदेश यमदूतों-भूतों को करता हूँ। चलो! धर्मराज के पास चलते हैं। उस दिन उस ऋषि जी की मृत्यु का दिन था। तीनों (ब्रह्मा-विष्णु-शिव) देवता तथा ऋषि और ज्योतिष शास्त्री मिलकर धर्मराज के कार्यालय में गए तथा ऋषि की आयु वृद्धि के लिए कहा तथा उद्देश्य बताया कि यह केवल भक्ति के लिए आयु वृद्धि चाहता है। धर्मराज ने उस ऋषि का खाता (account) खोला तो उसमें उसी दिन उसी समय मृत्यु लिखी थी। उस ऋषि की तुरंत मृत्यु हो गई। तीनों देवता धर्मराज से नाराज हो गए। कहा कि आपने हमारी इज्जत नहीं रखी। आपने यह अच्छा नहीं किया। धर्मराज ने वह लेख दिखाया जो उस ऋषि की मृत्यु के विषय में था। उसमें लिखा था कि ऋषि जी की मृत्यु धर्मराज के कार्यालय में ब्रह्मा-विष्णु-शिव तथा ज्योतिष शास्त्री की उपस्थिति में दिन के इतने बीत जाने पर हो। आप जी ने तो मेरा कार्य सुगम कर दिया। यह लेख मैं नहीं लिखता। यह तो विधाता की ओर से अपने आप लिखे जाते हैं। यदि आप आयु बढ़वाना चाहते हैं तो अपनी आयु में से दान कर दो तो मैं इसकी आयु बढ़ा सकता हूँ। यह बात सुनकर सब चले गए। यह कथा सुनाकर नारद जी ने कहा कि इस बचे हुए समय में खूब नारायण-नारायण करले। नारद जी चले गए। अजामेल की चिंता ओर बढ़ गई कि भक्ति का लाभ क्या हुआ? दो वर्ष जीवन शेष था। परमेश्वर कबीर जी एक ऋषि वेश में अजामेल के घर प्रकट हुए। अजामेल ने श्रद्धा से ऋषि का सम्मान किया। अपनी समस्या बताई। ऋषि रूप में सतपुरूष जी ने कहा कि आप मेरे से दीक्षा लो। आपकी आयु बढ़ा दूँगा। लेकिन अजामेल ने नारद जी से कथा सुनी थी कि जो आयु लिखी है, वह बढ़-घट नहीं सकती। विचार किया कि दीक्षा लेकर देख लेते हैं। दोनों ने दीक्षा ली। नारायण नाम का जाप त्याग दिया। नए गुरू जी द्वारा दिया नाम जाप किया। मृत्यु वाले वर्ष का अंतिम महीना आया तो खाना कम हो गया, परंतु मंत्र का जाप निरंतर किया। अंतिम दिन भोजन भी नहीं खाया, मंत्र जाप दृढ़ता से करता रहा। वर्ष पूरा हो गया। एक महीना ऊपर हो गया, परंतु भय फिर भी बरकरार था। ऋषि वेश में परमेश्वर आए। दोनों पति-पत्नी देखते ही दौड़े-दौड़े आए। चरणों में गिर गए। गुरूदेव आपकी कृपा से जीवन मिला है। आप तो स्वयं परमेश्वर हैं।

परमेश्वर जी ने कहा कि:-

मासा घटे ना तिल बढ़े, विधना लिखे जो लेख। साच्चा सतगुरू मेट कर, ऊपर मारे मेख।।

अब आपकी आयु के लेख मिटाकर कील गाड़ दी है। जब मैं चाहूँगा, तब तेरी मृत्यु होगी। दोनों मिलकर भक्ति करो। अपने पुत्र को भी उपदेश दिलाओ। पुत्र को उपदेश दिलाया। भक्ति करके मोक्ष के अधिकारी हुए।

वाणी नं. 39 का सारांश यह है कि सदना ने बकरे के मुख से सुने उपदेश (प्रवचन) से गुरू बनाकर राम नाम का अमृत पीया, भक्ति की और अजामेल का मोक्ष भी तब हुआ, जब वह पूर्ण परमात्मा के प्रति समर्पित हुआ। (39)

सुमिरन का अंग (40-69)

वाणी नं. 40:-

गरीब, नाम जलंधर कूं लिया, पारा ऋषि प्रवान। धन सतगुरु दाता धनी, दई बंदगी दान।।40।।

भावार्थ:– जलन्धर नाथ तथा ऋषि पारासर ने भी भक्ति की। उनको स्वर्ग स्थान ही मिला। परंतु मुझे पूर्ण सतगुरू मिले हैं जिन्होंने भक्ति-बंदगी दान दी यानि अपनी कृपा से स्वयं मेरे पास प्रकट होकर दीक्षा दी।

वाणी नं. 41:-

गरीब, गगन मंडल में रहत है, अविनाशी आप अलेख। जुगन जुगन सतसंग है, धरि धरि खेले भेख।।41।।

भावार्थ:– जैसा कि ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सूक्त 86 मंत्र 26-27, मण्डल नं. 9 सूक्त 82 मंत्र 1.2, मण्डल नं. 9 सूक्त 54 मंत्र 3, मण्डल नं. 9 सूक्त 96 मंत्र 16.20, मण्डल नं. 9 सूक्त 94 मंत्र 2, मण्डल नं. 9 सूक्त 95 मंत्र 1, मण्डल नं. 9 सूक्त 20 मंत्र 1 में कहा है कि परमेश्वर आकाश में सर्व भुवनों (लोकों) के ऊपर के लोक में तीसरे भाग में विराजमान है। वहाँ से चलकर पृथ्वी पर आता है। अपने रूप को सरल करके यानि अन्य वेश में हल्के तेजयुक्त शरीर में पृथ्वी पर प्रकट होता है। अच्छी आत्माओं को यथार्थ आध्यात्म ज्ञान देने के लिए आता है। अपनी वाक (वाणी) द्वारा ज्ञान बताकर भक्ति करने की प्रेरणा करता है। कवियों की तरह आचरण करता हुआ विचरण करता है। अपनी महिमा के ज्ञान को कवित्व से यानि दोहों, शब्दों, चैपाईयों के माध्यम से बोलता है। जिस कारण से प्रसिद्ध कवि की उपाधि भी प्राप्त करता है। यही प्रमाण संत गरीबदास जी ने इस अमृतवाणी में दिया है कि परमेश्वर गगन मण्डल यानि आकाश खण्ड (सच्चखण्ड) में रहता है। वह अविनाशी है, अलेख जिसको सामान्य दृष्टि से नहीं देखा जा सकता। सामान्य व्यक्ति उनकी महिमा का उल्लेख नहीं कर सकता। वह वहाँ से चलकर आता है। प्रत्येक युग में प्रकट होता है। भिन्न-भिन्न वेश बनाकर सत्संग करता है यानि तत्त्वज्ञान के प्रवचन सुनाता है। कबीर जी ने बताया है कि:-

सतयुग में सत सुकृत कह टेरा, त्रेता नाम मुनीन्द्र मेरा।
द्वापर में करूणामय कहाया, कलयुग नाम कबीर धराया।।

गरीब, सतगुरू पुरूष कबीर हैं, चारों युग प्रवान। झूठे गुरूवा मर गए, हो गए भूत मसान।।

(राग बिलावल का शब्द नं. 25 पढ़ें, भक्ति की अजब प्रेरणा है।)

कर साहिब की भक्ति, बैरागर लै रे। समरथ सांई शीश पर, तो कूं क्या भै रै।।टेक।। शील संतोष बिबेक हैं, और ज्ञान दिवाना। दया धर्म चित चैंतरै, बांचो प्रवाना।।1।। धर्म ध्वजा जहां फरहरैं, होंहि जगि जौंनारा। कथा कीरतन होत हैं, साहिब दरबारा।।2।। समता माता मित्र हैं, रख अकल यकीनं। सत्तर पड़दे खुल्हत हैं, दिल में दुरबीनं।।3।। जा कै पिता बिबेक से, और भाव से भाई। या पटतर नहीं और है, कछु बयाह न सगाई।।4।। दृढ कै डूंगर चढ गये, जहां गुफा अनादं। लागी शब्द समाधि रे, धन्य सतगुरु साधं ।।5।। सहòमुखी जहां गंग है, तालव त्रिबैनी। जहां ध्यान असनान कर, परवी सुख चैनी।।6।। कोटि कर्म कुसमल कटैं, उस परबी न्हाये। वोह साहिब राजी नहीं, कछु नाचे गाये।।7।। अगर मूल महकंत हैं, जहां गंध सुगंधा। एक पलक के ध्यान सैं, कटि हैं सब फंदा।।8।। दो पुड़ की भाठी चवै, जहां सुष्मण पोता। इडा पिंगुला एक कर, सुख सागर गोता।।9।। अबल बली बरियाम है, निरगुण निरबानी। अनंत कोटि बाजे बजैं, बाजै सहदानी।।10।। तन मन निश्चल हो गया, निज पद सें लागे। एक पलक के ध्यान सैं, दूंदर सब भागे।।11।। प्रपटन के घाट में, एक पिंगुल पंथा। छूटैं फुहारे नूर के, जहां धार अनंता।।12।। झिलमिल झिलमिल होत है, उस पुरि में भाई। घाट बाट पावै नहीं, है द्वारा राई।।13।। तहां वहां संख सुरंग हैं, मघ औघट घाटा। सतगुरु मिलैं कबीर से, तब खुलैं कपाटा।।14।। संख कंवल जहां जगमगे, पीतांबर छाया। सूरज संख सुभान हैं, अबिनाशी राया।।15।। अगर डोर सें चढि गये, धरि अलल धियाना। दास गरीब कबीर का, पाया अस्थाना।।16।।25।।

वाणी नं. 42:-

गरीब, काया माया खंड है, खंड राज और पाठ। अमर नाम निज बंदगी, सतगुरु सें भइ साट।।42।।

सरलार्थ:– संत गरीबदास जी ने बताया है कि काया यानि शरीर तथा माया यानि धन, राजपाट यानि राज्य सब खण्ड (नाश) हो जाता है। केवल निज नाम (वास्तविक भक्ति मंत्र) के नाम की साधना सतगुरू से लेकर की गई कमाई (भक्ति धन) अमर है।

वाणी नं. 43:-

गरीब, अमर अनाहद नाम है, निरभय अपरंपार। रहता रमता राम है, सतगुरु चरण जुहार।।43।।

सरलार्थ:– परमात्मा रमता यानि विचरण करता हुआ चलता-फिरता है। वह सतगुरू रूप में मिलता है। उसके चरणों में प्रणाम करके भक्ति की भीख प्राप्त करें। उनके द्वारा दिया गया नाम अनाहद (सीमा रहित) अमर (अविनाशी) मोक्ष देने वाला है। वह नाम प्राप्त कर जो निर्भय बनाता है। उसकी महिमा का कोई वार-पार नहीं है अर्थात् वास्तविक मंत्र की महिमा असीम है।

वाणी नं. 44:-

गरीब, अविनासी निहचल सदा, करता कूं कुरबान। जाप अजपा जपत है, गगन मंडल धरि ध्यान।।44।।

सरलार्थ:– उस अविनाशी कर्ता (सृष्टि रचनहार) पर कुर्बान हो जा जो निश्चल (स्थाई) है। उसके नाम का अजपा यानि मन-मन में श्वांस द्वारा स्मरण कर (जाप कर) और गगन मण्डल में ध्यान रख कि परमेश्वर (सतपुरूष) ऊपर सतलोक में विराजमान है। मैंने भी वहीं जाना है। वह सुखदाई स्थान है। वहाँ जन्म-मरण नहीं है। कोई राग-द्वेष नहीं है। सब प्रेम से रहते हैं। युवा रहते हैं।

वाणी नं. 45:-

गरीब, बिन रसना ह्नै बदंगी, निज चसमों दीदार। निज श्रवण बानी सुनै, निरमल तत्त्व निहार।।45।।

सरलार्थ:– सतगुरू द्वारा दीक्षा में दिए वास्तविक नामों का जाप विधि अनुसार करने से यानि बिना रसना (जीभ) के बंदगी (नम्र भाव से स्मरण) यानि अजपा जाप करने से निज चिसमों के यानि दिव्य दृष्टि से परमेश्वर का दीदार (दर्शन) होता है। निज श्रवण यानि आत्मा के कानों से अमर लोक की वाणी सुनाई देती है। उस निर्मल तत्त्व यानि पवित्र परमेश्वर को निहार यानि एकटक देख।

वाणी नं. 46:-

गरीब, में सौदागर नाम का, टांडे पड्या बहीर। लदतें लदतें लादियां, बहुरिन फेरा बीर।।46।।

सरलार्थ:– साधक कहता है कि हे परमात्मा! मैं भी भक्ति के सौदागरों में से एक हूँ। मेरा भी टांडे यानि व्यापारियों के लश्कर (दल) में कुछ बैलों या गाड़ियों का बहिर (काफिला) पड़्या है यानि शामिल है (पड़या माने वैसे गिरा होता है, परंतु यहाँ उपमा अलंकार होने से शामिल अर्थ करना उचित है।) जैसे बैल पर बोरे (थैले) में या बैलगाड़ी में कुछ सामान जो एक मण्डी से दूसरी मण्डी में व्यापारी ले जाते हैं। चावल, शक्कर, दाल, गेहूँ आदि-आदि) भरने लगते हैं तो भरते-भरते (लादते-लादते) भर लिया। (लाद लिया) अर्थात् इसी प्रकार परमात्मा की भक्ति कर-करके बैलगाड़ी की तरह भक्ति धन लाद लिया जो सतलोक वाली मण्डी में ले जाकर कीमत लेनी है।

वाणी नं. 47:-

गरीब, नाम बिना क्या होत है, जप तप संयम ध्यान। बाहरि भरमै मानवी, अब अंतर में जान।।47।।

सरलार्थ:– संत गरीबदास जी ने कहा है कि वास्तविक नाम बिना अन्य नामों के जाप से, गीता अध्याय 18 श्लोक 42 में कहे तप यानि अपने धर्म के पालन में कष्ट सहना ही साधक का तप है। वह तप तथा संयम यानि अपनी इन्द्रियों को विषयों से रोकना तथा ध्यान करना। इनसे कुछ भक्ति लाभ नहीं होता। जैसे आम के स्थान पर बबूल (कीकर) आम समझकर बीजने से चाहे उसकी सिंचाई भी करो, रक्षा के लिए बाड़ भी लगाओ। ध्यान यानि विचार भी रखो कि आम लगेंगे तो व्यर्थ प्रयत्न है। भक्ति के अंदर नाम बीज है। हे मानव! बाहरी (तीर्थों पर जाना, मूर्ति पूजा करना आदि) दिखावा करना व्यर्थ है। अब तो सतगुरू जी से दीक्षा लेकर अन्तर्मुख होकर सत्य साधना कर।

वाणी नं. 48:-

गरीब, उजल हिरंबर भगति है, उजल हिरंबर सेव। उजल हिरंबर नाम है, उजल हिरंबर देव।।48।।

सरलार्थ:– सतपुरूष सब देवों (प्रभुओं) से उज्ज्वल यानि शोभामान है। उस परमेश्वर की प्राप्ति की सेव (पूजा) भी निराली है। हिरंबर माने स्वर्ण जैसी भक्ति है। कहते हैं कि हमारे देश की धरती सोना उगलती है यानि अच्छी उपजाऊ है। कणक अधिक पैदा होती है जो अधिक कीमत (मूल्य) दिलाती है। इसी प्रकार उस परमेश्वर की प्राप्ति का सत्यनाम यानि वास्तविक नाम का श्वांस से स्मरण करना बहुमूल्य बताया है।

कबीर, श्वांस-उश्वांस में नाम जप, व्यर्था श्वांस ना खोय। ना बेरा इस श्वांस का, आवन हो के ना होय।।
कबीर, कहता हूँ कही जात हूँ, कहूँ बजा के ढ़ोल। श्वांस जो खाली जात है, तीन लोक का मोल।।

मौखिक जाप एक हजार बार, मानसिक स्मरण एक बार। मानसिक जाप एक हजार बार, श्वांस से स्मरण एक बार। इस प्रकार सतगुरू श्वांस से स्मरण करने का मंत्र देता है जिससे भक्ति की कमाई अधिक होती है। इसलिए कहा है कि उस परमेश्वर जी की भक्ति हिरंबर यानि स्वर्ण जैसी बहुमूल्य है। उस परमात्मा का वास्तविक नाम भी कीमती है। स्वर्ण जैसा कीमती (बहुमूल्य) है।

वाणी नं. 49:-

गरीब, निजनाम बिना निपजै नहीं,जपतप करि हैं कोटि। लख चैरासी त्यार है, मूंड मुंडायां घोटि।।49।।

सरलार्थ:– परमात्मा की भक्ति के निज नाम (वास्तविक नाम) बिना साधना (भक्ति रूपी फल की उपज नहीं होती) नहीं उपजैगी यानि भक्ति का कोई फल नहीं मिलेगा चाहे करोड़ों गलत नामों का जाप करो, चाहे उस गलत धर्म कर्म के पालन में करोड़ों कष्ट सहन (तप) करो।

गलत साधना करने वाले साधु का दिखावा करने के लिए क्या दाढ़ी-मूँछ व सिर के बाल साफ कराकर फूला फिरता है। इस शास्त्रविरूद्ध भक्ति से तो लख चैरासी यानि चैरासी लाख प्रकार के प्राणियों के शरीर को प्राप्त होगा।

वाणी नं. 50:-

गरीब, नाम सिरोमनि सार है, सोहं सुरति लगाइ। ज्ञान गलीचे बैठिकरि, सुंनि सरोवर न्हाइ।।50।।

सरलार्थ:– संत गरीबदास जी ने बताया है कि:- सोहं नाम विशेष नाम है। यह नामों में शिरोमणि है। इसको अधिकारी गुरू से लेकर साधना सुरति-निरति यानि नाम में ध्यान लगाकर करनी चाहिए। जो तत्त्वज्ञान तेरे को मिला है, उस पर विश्वास रख। ज्ञान गलीचे पर बैठकर सुन्न सरोवर यानि तत्त्वज्ञान पर विश्वास करके भक्ति कर तथा आकाश में बने सरोवर में आत्मा को स्नान करा यानि भक्ति के अमृत सरोवर में गोते लगा। गलीचा का अर्थ है एक नर्म कपड़े का मोटा गद्दा।

वाणी नं. 51:-

गरीब, मान सरोवर न्हाइये, हंस परमहंस का मेल। बिना चुंच मोती चुगै, अगम अगोचर खेल।।51।।

सरलार्थ:– सतलोक वाले मान सरोवर में स्नान करने के पश्चात् हंस यानि निर्मल भक्त का मिलन परमहंस यानि परमेश्वर जी से होगा। जहाँ जाने के पश्चात् भक्त बिना चैंच मोती खाता है यानि नैष्कर्मय मुक्ति प्राप्त करता है। सतलोक में बिना कर्म किए सर्व सुख तथा भोजन प्राप्त होता है। (जिसको गीता अध्याय 3 श्लोक 4 तथा अध्याय 18 श्लोक 49 में नैष्कर्मय सिद्धि कहा है।) इसलिए कहा है कि बिना चैंच मोती यानि बिना कर्म किए सतलोक में सर्व सुख प्राप्त होता है।

यह अगम अगोचर यानि सबसे आगे का गुप्त खेल यानि जो किसी की दृष्टि में भक्ति मार्ग व उसका फल नहीं है, इसका ज्ञान स्वयं परमेश्वर ही पृथ्वी पर आकर कराते हैं।

वाणी नं. 52:-

गरीब, गगन मंडल में रमि रह्या गलताना महबूब। वार पार नहिं छेव है, अबिचल मूरति खूब।।52।।

सरलार्थ:– गलताना महबूब यानि मस्तमौला आत्मा का सच्चा प्रेमी परमात्मा गगन मंडल यानि आकाश में रमा है यानि स्थाई निवास करता है। उसका कोई वार-पार यानि भेद नहीं और ना ही कोई उसका छेव यानि मूल्य है। वह अविचल यानि अविनाशी मूर्ति खूब यानि सही साकार स्वरूप है। वास्तव में ऐसा ही है।

वाणी नं. 53:-

गरीब, ऐसा सतगुरु सेइये, जो नाम दृढ़ावैं। भरमी गुरुवा मति मिलौ, जो मूल गमावै।।53।।

सरलार्थ:– ऐसे सतगुरू की सेवा करो यानि ऐसा गुरू धारण करो जो नाम की भक्ति दृढ़ करे। जो शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण करने वाला भ्रमित करने वाला गुरू न मिले जो मूल गंवावै यानि मानव शरीर में श्वांस रूपी पँूजी जो मूल धन है, उसको गंवा दे यानि नष्ट करा देता है। जैसे सौदागर मूल धन का ठीक से प्रयोग करके दुगना-तिगुना, चार गुणा कर लेता है और जो कुसंगत में गिरकर शराब-जुआ खेलकर मूल धन का नाश कर लेता है, वह फिर पछताता है। इसी प्रकार भ्रमित गुरू का शिष्य अपने जीवन को नष्ट करके ऊपर भगवान के द्वार पर हाथ मलकर पछताता है।

वाणी नं. 54:-

गरीब, सोहं सुरति लगाईले, गुण इन्द्रिय सें बंच। नाम लिया तब जानिये, मिटै सकल प्रपंच।।54।।

सरलार्थ:– सोहं नाम का जाप सुरति-निरति से करो और इन्द्रियों को काबू में रखो। नाम दीक्षा लेकर स्मरण करने वाले को उस समय लाभ होगा यानि उस पर नाम के जाप का प्रभाव तब दिखेगा, जब उसके अंदर के सब परपंच समाप्त हो जाएँगे। जैसे नाचना, गाना, सिनेमा देखना, नशीली वस्तुओं का सेवन करना आदि-आदि बुराईयों से घृणा हो जाएगी। सादा जीवन जीएगा तो परपंच मिट गए।

वाणी नं. 55:-

गरीब, नाम निहचल निरमला, अनंत लोक में गाज। निरगुण सिरगुण क्या कहै, प्रगटा संतों काज।।55।।

सरलार्थ:– जो सारनाम है, वह पवित्र तथा अविनाशी है। उसकी सत्ता की धाक (गाज=आवाज की शक्ति) असँख्यों लोकों में है। उस परमात्मा को कोई निर्गुण कहता है, कोई सर्गुण। वह तो भक्तों को यथार्थ भक्ति ज्ञान बताकर मोक्ष करने के लिए प्रकट हुआ था।

वाणी नं. 56, 57, 58:-

गरीब, अविनासी के नाम में, कौन नाम निजमूल। सुरति निरति सें खोजिलै, बास बडी अक फूल।।56।।
गरीब, फूल सही सिरगुण कह्या, निरगुण गंध सुगंध। मन मालीके बागमें, भँवर रह्या कहां बंध।।57।।
गरीब, भँवर विलंब्या केतकी, सहस कमलदल मांहि। जहां नाम निजनूर है, मन माया तहां नांहि।।58।।

सरलार्थ:– अविनाशी परमात्मा का मूल नाम यानि वास्तविक मंत्र जाप का नाम कौन-सा है? उत्तर बताया है कि विचार करके (सुरति-निरति से) स्वयं खोजकर कि जैसे फूल से सुगंध निकलती है तो इनमें किसको मूल यानि वास्तविक कारण कहा जाए। मूल का अर्थ है मुख्य कारण। सुगंध फूल बिना नहीं हो सकती। विचार करें कि फूल और सुगंध कौन बड़ा है? तो उत्तर होगा कि फूल बिना सुगंध कहाँ से आएगी। जो व्यक्ति परमात्मा को निर्गुण रूप में मानते हैं, उसकी प्राप्ति का प्रयत्न भी करते हैं तथा यह भी कहते हैं कि परमात्मा मिलता नहीं क्योंकि वह निराकार है। जैसे फूल तो सर्गुण है, साकार है। उससे निकल रही सुगंध निर्गुण (निराकार) है। इसी प्रकार सतपुरूष सगुण है, उसकी शक्ति निर्गुण (निराकार) है। जो परमात्मा को निर्गुण यानि गुण रहित (निराकार) कहते हैं। यह ज्ञान काल ब्रह्म रूपी मन ने भ्रम फैलाया है। हे जीव! तू परमेश्वर कबीर जी का यथार्थ आध्यात्म ज्ञान समझ। तू इस मन रूपी काल ब्रह्म माली के इक्कीस ब्रह्माण्ड रूपी बबूल के बाग में (हे भंवर यानि जीव!) कहाँ बंध गया। इसका ब्रह्म लोक भी नाशवान है। यह स्वयं भी नाशवान है। तूने तो अविनाशी परमेश्वर को प्राप्त करके अमर होना चाहिए। जहाँ पर मन माया यानि काल का जाल नहीं है।

वाणी नं. 59-60:-

गरीब, पंडित कोटि अनंत है, ज्ञानी कोटि अनंत। श्रोता कोटि अनंत है, बिरले साधु संत।।59।।
गरीब, जिन मिलतें सुख ऊपजै, मेटें कोटि उपाध। भवन चतुर दस ढूंढिये, परम सनेही साध।।60।।

सरलार्थ:– संत गरीबदास जी ने बताया है कि करोड़ों तो पंडित यानि ब्राह्मण हैं जो आध्यात्म ज्ञान के विद्वान होने का दावा करते हैं और करोड़ों ज्ञानी भी हैं जो परमात्मा पर समर्पित हैं, परंतु यथार्थ भक्ति विधि का ज्ञान नहीं। उनके प्रचार के प्रवचन सुनने वाले श्रद्धालु श्रोता भी करोड़ों हैं, परंतु तत्त्वदर्शी संत तो बिरला ही मिलेगा। जैसे आगे झूमकरा के अंग में संत गरीबदास जी ने कहा है कि:-

तत्वभेद कोई ना कहे रै झूमकरा। पैसे ऊपर नाच सुनो रै झूमकरा।।
कोट्यों मध्य कोई नहीं रै झूमकरा। अरबों में कोई गरक सुनो रै झूमकरा।।

गीता अध्याय 7 श्लोक 19 में भी यही विवरण है कि बहुत-बहुत जन्मों के अंत के जन्म में कोई ज्ञानवान मेरी भक्ति करता है, अन्यथा अन्य देवताओं (ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदि-आदि) की भक्ति करते रहते हैं, परंतु यह बताने वाला महात्मा तो सुदुर्लभ है यानि बड़ी मुश्किल से मिलेगा कि वासुदेव यानि जिस परमेश्वर का सर्व लोकों में वास है, वह वासुदेव कहलाता है। उसकी सत्ता सब पर है। उसी की भक्ति करो। वही पापनाशक है। वही पूर्ण मोक्षदायक है। वही वास्तव में अविनाशी है। इसी प्रकार सुमरन के अंग की वाणी नं59 में कहा है कि साधु-संत तो कोई बिरला ही मिलेगा। साधु-संत की एक यह पहचान है कि उसके सानिध्य में जाने से सुख महसूस होता है। विचार सुनकर मन की करोड़ों उपाध यानि बकवास विचार समाप्त हो जाते हैं। ऐसा संत चाहे चैदह लोकों में कहीं भी मिले, उसकी खोज करनी चाहिए और उसके सत्संग विचार सुनने चाहिए।

वाणी नं. 61:-

गरीब, राम सरीखे साध है, साध सरीखे राम। सतगुरु कूं सिजदा करुं, जिन दीन्हा निजनाम।।61।।

सरलार्थ:– बहुत से साधु कुछ सिद्धि प्राप्त करके अपने आपको राम मान लेते हैं। जैसे हिरण्यकशिपु तथा कुछ राम जो त्रिलोकी प्रभु श्री रामचन्द्र जैसे। परंतु इनका किसी का भी जन्म-मरण समाप्त नहीं होता। संत गरीबदास जी ने कहा है कि उस सतगुरू को सिजदा यानि विशेष नम्रता से झुककर प्रणाम करो जिसने निजनाम की दीक्षा दी। जिससे वह परमपद तथा शाश्वत स्थान (अमर लोक) तथा परम शांति प्राप्त होगी जो गीता अध्याय 15 श्लोक 4 तथा अध्याय 18 श्लोक 62 में बताई है और अविनाशी परमात्मा मिलेगा।

वाणी नं. 62:-

गरीब, भगति बंदगी जोग सब, ज्ञान ध्यान प्रतीत। सुंन शिखरगढ में रहें, सतगुरु सबद अतीत।।62।।

सरलार्थ:– जिस सतगुरू जी ने निज नाम देकर भक्ति की विधि बंदगी यानि प्रणाम की विधि तथा योग यानि साधना करने का तरीका, तत्त्वज्ञान तथा किस तरह ध्यान (सहज समाधि) प्रदान की और यह विश्वास कराया कि यही मोक्ष का साधन है। वह सतगुरू सुन्न यानि ऊपर खाली स्थान आकाश खण्ड (गगन मण्डल) सत्यलोक में शब्द अतीत रूप में रहता है यानि उस अविनाशी परमेश्वर का जो स्वयं सतगुरू भी है, किसी को ज्ञान नहीं क्योंकि वह (सुन्न शिखर) आकाश की चोटी पर यानि सबसे ऊपर के लोक में रहता है।

वाणी नं. 63:-

गरीब, ऐसा सतगुरु सेइये, पार ऊतारे हंस। भगति मुकति की दातिसै, मिलि है सोहं बंस।।63।।

सरलार्थ:– हे हंस यानि निर्मल भक्त! ऐसे सतगुरू से दीक्षा लेना जो भव सागर से पार कर दे। परंतु पूर्व जन्म-जन्मांतर की भक्ति की (दाति से) कमाई से अर्थात् भक्ति संस्कार के प्रतिफल में मुक्ति के लिए सोहं वंश यानि पूर्व जन्म में जिनको सत्यनाम में सोहं मंत्र मिला था, सारनाम नहीं मिला था, वह समूह पुनः मानव जन्म प्राप्त करता है। उनको परमेश्वर अवश्य शरण में लेता है।

वाणी नं. 64:-

गरीब, सोहं बंस बखानिये, बिन दम देही जाप। सुरति निरतिसें अगम है, ले समाधि गरगाप।।64।।

सरलार्थ:– सोहं वंश का वर्णन करता हूँ। जो सोहं शब्द सतनाम में प्राप्त कर लेता है, सारनाम की प्राप्ति उसी को होती है जब साधक संसार छोड़कर जाता है तो अंत में सोहं की सीमा यानि अक्षर पुरूष के लोक में उसकी (सोहं की) साधना को उसे देने के पश्चात् आत्मा सतलोक को चलती है, तब श्वांस नहीं रहता। परंतु आत्मा सुरति-निरति यानि ध्यान से सार शब्द का जाप करती हुई चलती है। भंवर गुफा में प्रवेश करने के पश्चात् सारनाम की कमाई वहाँ जमा हो जाती है। फिर जाप तथा अजपा दोनों मर जाते हैं।(समाप्त हो जाते हैं।) सतलोक यानि वांछित अमर स्थान प्राप्त हो जाता है। जैसे नौकरी मिलने के पश्चात् पढ़ाई छूट जाती है।

ले समाधि गरगाप का तात्पर्य यह है कि यह विचार कर कि सतपुरूष ऊपर के सतलोक में है जो काल के सर्व ब्रह्माण्डों के पार दूर है। अपने ध्यान को वहाँ पहुँचा। ले समाधि गरगाप का अर्थ है अधिक प्रेरणा से ध्यान कर। हरियाणा प्रान्त की भाषा में कहते हैं कि वह पहलवान शक्ति में गरगाप है यानि बहुत शक्तिमान है। यह भी कहते हैं कि वह व्यक्ति धन में गरगाप है यानि बहुत धनवान है। इसी प्रकार गरगाप ध्यान लगा।

वाणी नं. 65:-

गरीब, सुरति निरति मन पवनपरि, सोहं सोहं होइ। शिबमंत्र गौरिज कह्या, अमर भई है सोइ।।65।।

सरलार्थ:– साधक को चाहिए कि वह सुरति-निरति यानि ध्यानपूर्वक मन तथा पवन (श्वांस) से सोहं मंत्र जाप करे। जिस प्रकार शिव जी से नाम प्राप्त करके पार्वती जी ने सच्ची लगन से नाम जाप किया तो वह उससे होने वाला अमरत्व प्राप्त किया। ऐसे सच्चे नाम की सच्ची लगन से रटना लगा।

वाणी नं. 66:-

गरीब, रंरकार तो धुनि लगै, सोहं सुरति समाइ। हद बे हद परि वास होइ, बहुरि न आवै जाइ।।66।।

सरलार्थ:– जैसे हाथी ने मगरमच्छ के साथ युद्ध में मरते समय राम का आधा ही नाम लिया था। वह पूरी कसक के साथ लिया था। उसे ररंकार धुन कहते हैं। ऐसे नाम का जाप करें और नाम सोहं हो तो हद-बेहद यानि सोहं का मंत्र काल के संतों से लेता है तो हद में रह जाएँगे यानि काल जाल में ही रह जाएगा। यदि सतलोक के अधिकारी गुरू से लेकर उसी लगन से साधना करेगा तो बेहद यानि काल की हद (सीमा) से पार सतलोक में निवास होगा। वहाँ जाने के पश्चात् पुनः जन्म-मरण में नहीं आता।

वाणी नं. 67:-

गरीब, गुझ गायत्री नाम है, बिन रसना धुनि ध्यान। महिमा सनकादिक लही, सिव संकर बलिजान।।67।।

सरलार्थ:– जो यथार्थ भक्ति का नाम सतगुरू देते हैं। वह गुझ (गुप्त) गायत्री (महिमा का गुणगान करने का) है यानि जैसे यजुर्वेद अध्याय 36 मंत्र 3 के आगे ओउम् (om) नाम जोड़कर गायत्री मंत्र बताते हैं जो केवल वेद का एक श्लोक है। वेद में 18 हजार श्लोक हैं। सब में परमात्मा की महिमा का वर्णन है। इस एक यजुर्वेद के अध्याय 36 के श्लोक 3 को गायत्री मंत्र बनाकर पढ़ने से परमेश्वर की महिमा का अधूरा गुणगान है, अंश मात्र की महिमा है जो पर्याप्त नहीं है। वेदों के श्लोकों से तो परमेश्वर का ज्ञान होता है कि परमात्मा इतना सुखदाई है। उसकी भक्ति करने से यह लाभ होता है। भक्ति न करने से यह हानि होती है। परंतु एक यजुर्वेद अध्याय 36 के श्लोक 3 में तो वह भी पूर्ण नहीं है। जैसे बिजली की महिमा लिखी है। उसकी एक-दो पंक्ति से तो वह भी पूर्ण ज्ञान नहीं होता। उसमें बिजली के लाभ के ज्ञान के पश्चात् यह भी लिखा होता है कि बिजली का कनैक्शन लो, उसकी यह विधि है। बिजली की महिमा की केवल एक-दो पंक्ति पढ़ने से पूर्ण ज्ञान नहीं होता। जब तक कनैक्शन नहीं लिया जाए तो बिजली के लाभ नहीं मिलेंगे। कनैक्शन लेने के पश्चात् वह लाभ मिलेगा जो उसकी महिमा में बताया गया है। इसी प्रकार परमात्मा की महिमा को पढ़ने से ज्ञान तो हो जाता है, लेकिन लाभ तब मिलेगा जब पूर्ण गुरू से दीक्षा ले ली जाएगी। वह भक्ति का मंत्र गुझ गायत्री यानि गुप्त लाभ प्राप्त कराने वाला है। फिर सत्य भक्ति से प्रतिदिन परमात्मा लाभ देने लगेगा। फिर नाम स्मरण करते-करते परमात्मा की महिमा अपने आप हृदय से होती रहेगी। जैसे एक व्यक्ति का इकलौता पुत्र रोगी था। सब उपचार, जंत्र-मंत्र, नकली गुरूओं-संतों से नाम ले भजन कर लिया, परंतु कोई लाभ नहीं हुआ। जब भगवान कबीर जी की शरण में बच्चे को लाए, दीक्षा ली। वह बच्चा शीघ्र स्वस्थ हो गया। फिर वह परिवार उस गुप्त नाम का जाप भी करता था और हृदय से परमात्मा के गुण भी याद करता था। हे परमात्मा! आपने मेरे बच्चे को जीवन दान दिया। आप समर्थ हैं। जीवन दाता हैं। आपकी महिमा अपरमपार है। यह महिमा हृदय में चलती है। उसे बोलकर तो कभी-कभी करते हैं जब अन्य को समझाना होता है। कहा है कि गुझ गायत्री यथार्थ नाम है जिससे आध्यात्मिक लाभ मिलता है। तब बिन रसना (जीभ) के परमात्मा की महिमा धुनि (लगन) से ध्यान (विशेष विचार) से होती है। परमात्मा की महिमा जो नाम दीक्षा के पश्चात् होती है। उसको ब्रह्मा जी के मानस पुत्रों सनकादिक (सनक, सनन्दन, सरत, संत कुमार) तथा शिव जी ने लहि यानि संकेत मात्र से समझ गए। ऐसे विवेकवानों पर मैं बलिहारी जाऊँ यानि ऐसे सब जीव हमारे तत्त्वज्ञान को शीघ्र समझ लें तो सर्व का काल के जाल से शीघ्र छुटकारा हो जाएगा।

वाणी नं. 68:-

गरीब, अजब महल बारीक है, अजब सुरति बारीक। अजब निरति बारीक है, महल धसे बिन बीक।।68।।

सरलार्थ:– परमात्मा का महल यानि सतलोक अजब (दिव्य) है। बारीक यानि झीना है। बारीक का भावार्थ है कि काल लोक से निकलने वाला द्वार बहुत छोटा है। तिल के समान है। सूई के धागा डालने वाले सुराख (भ्वसम) के समान है। सत्यभक्ति करने वाले साधक का शरीर ऐसा सूक्ष्म हो जाता है। वह उस बारीक द्वार से सरलता से निकल जाता है। साधक की सुरति तथा निरति भी सूक्ष्म हो जाती है। सुरति क्या है? निरति क्या है? जैसे हम कुछ दूरी पर कोई वस्तु देखते हैं। वह देखना सुरति है तथा वह वस्तु क्या है, यह निरीक्षण करना निरति कहलाती है। जब साधक सतलोक को चलता है तो सुरति दूर के स्थान को, द्वार को देखती है, निरति निरीक्षण करती है, आत्मा निर्णय करती है। उन द्वारों से बिन बीक (कदम रखे बिना यानि सिद्धि से अपने आप चलता है) के चलकर महल (सतलोक) में धँसता (प्रवेश करता) है।

वाणी नं. 69:-

गरीब, रामनाम के पटतरै, देवे कूं नहिं और। सो ऊदम तादिन भये, उभर गई जद गौर।।69।।

सरलार्थ:– गुरू जी जो मोक्ष करने वाला राम-नाम (सत्य भक्ति मंत्र) देते हैं, उसके पटतर (समान) अन्य तप करना, तीर्थों पर जाना, व्रत करना आदि-आदि नहीं है। वे व्यर्थ हैं। राम-नाम के जाप से परमात्मा मिलता है। गौर (गौरी) यानि पार्वती जी को उस समय नाम की महिमा का पता चला जिस दिन शिव जी ने उनको नाम की दीक्षा दी थी। फिर भक्ति लाभ मिलने लगा। उस स्तर का अमरत्व मिला।

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