पवित्र गीता जी का ज्ञान किसने कहा?
पवित्र गीता जी के ज्ञान को उस समय बोला गया था जब महाभारत का युद्ध होने जा रहा था। अर्जुन ने युद्ध करने से इन्कार कर दिया था। युद्ध क्यों हो रहा था? इस युद्ध को धर्मयुद्ध की संज्ञा भी नहीं दी जा सकती क्योंकि दो परिवारों का सम्पत्ति वितरण का विषय था। कौरवों तथा पाण्डवों का सम्पत्ति बंटवारा नहीं हो रहा था। कौरवों ने पाण्डवों को आधा राज्य भी देने से मना कर दिया था। दोनों पक्षों का बीच-बचाव करने के लिए प्रभु श्री कृष्ण जी तीन बार शान्ति दूत बन कर गए। परन्तु दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी जिद्द पर अटल थे। श्री कृष्ण जी ने युद्ध से होने वाली हानि से भी परिचित कराते हुए कहा कि न जाने कितनी बहन विधवा होंगी ? न जाने कितने बच्चे अनाथ होंगे ? महापाप के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलेगा। युद्ध में न जाने कौन मरे, कौन बचे ? तीसरी बार जब श्री कृष्ण जी समझौता करवाने गए तो दोनों पक्षों ने अपने-अपने पक्ष वाले राजाओं की सेना सहित सूची पत्रा दिखाया तथा कहा कि इतने राजा हमारे पक्ष में हैं तथा इतने हमारे पक्ष में। जब श्री कृष्ण जी ने देखा कि दोनों ही पक्ष टस से मस नहीं हो रहे हैं, युद्ध के लिए तैयार हो चुके हैं। तब श्री कृष्ण जी ने सोचा कि एक दाव और है वह भी आज लगा देता हूँ। श्री कृष्ण जी ने सोचा कि कहीं पाण्डव मेरे सम्बन्धी होने के कारण अपनी जिद्द इसलिए न छोड़ रहे हों कि श्री कृष्ण हमारे साथ हैं, विजय हमारी ही होगी (क्योंकि श्री कृष्ण जी की बहन सुभद्रा जी का विवाह श्री अर्जुन जी से हुआ था)। श्री कृष्ण जी ने कहा कि एक तरफ मेरी सर्व सेना होगी और दूसरी तरफ मैं होऊँगा और इसके साथ-साथ मैं वचन बद्ध भी होता हूँ कि मैं हथियार भी नहीं उठाऊँगा। इस घोषणा से पाण्डवों के पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई। उनको लगा कि अब हमारी पराजय निश्चित है। यह विचार कर पाँचों पाण्डव यह कह कर सभा से बाहर गए कि हम कुछ विचार कर लें। कुछ समय उपरान्त श्री कृष्ण जी को सभा से बाहर आने की प्रार्थना की। श्री कृष्ण जी के बाहर आने पर पाण्डवों ने कहा कि हे भगवन् ! हमें पाँच गाँव दिलवा दो। हम युद्ध नहीं चाहते हैं। हमारी इज्जत भी रह जाएगी और आप चाहते हैं कि युद्ध न हो, यह भी टल जाएगा।
पाण्डवों के इस फैसले से श्री कृष्ण जी बहुत प्रसन्न हुए तथा सोचा कि बुरा समय टल गया। सभा में केवल कौरव तथा उनके समर्थक शेष थे। श्री कृष्ण जी ने कहा दुर्योधन युद्ध टल गया है। मेरी भी यह हार्दिक इच्छा थी। आप पाण्डवों को पाँच गाँव दे दो, वे कह रहे हैं कि हम युद्ध नहीं चाहते। दुर्योधन ने कहा कि पाण्डवों के लिए सुई की नोक तुल्य भी जमीन नहीं है। यदि उन्हंे चाहिए तो युद्ध के लिए कुरुक्षेत्रा के मैदान में आ जाऐं। इस बात से श्री कृष्ण जी ने नाराज होकर कहा कि दुर्योधन तू इंसान नहीं शैतान है। कहाँ आधा राज्य और कहाँ पाँच गाँव? मेरी बात मान ले, पाँच गाँव दे दे। श्री कृष्ण से नाराज होकर दुर्योधन ने सभा में उपस्थित योद्धाओं को आज्ञा दी कि श्री कृष्ण को पकड़ो तथा कारागार में डाल दो। आज्ञा मिलते ही योद्धाओं ने श्री कृष्ण जी को चारों तरफ से घेर लिया। श्री कृष्ण जी ने अपना विराट रूप दिखाया। जिस कारण सर्व योद्धा और कौरव डर कर कुर्सियों के नीचे घुस गए तथा शरीर के तेज प्रकाश से आँखें बंद हो गई। श्री कृष्ण जी वहाँ से निकल गए।
आओ विचार करें:- उपरोक्त विराट रूप दिखाने का प्रमाण संक्षिप्त महाभारत गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित में प्रत्यक्ष है। जब कुरुक्षेत्रा के मैदान में पवित्रा गीता जी का ज्ञान सुनाते समय अध्याय 11 श्लोक 32 में पवित्रा गीता बोलने वाला प्रभु कह रहा है कि ‘अर्जुन मैं बढ़ा हुआ काल हूँ। अब सर्व लोकों को खाने के लिए प्रकट हुआ हूँ।‘ जरा सोचें कि श्री कृष्ण जी तो पहले से ही श्री अर्जुन जी के साथ थे। यदि पवित्रा गीता जी के ज्ञान को श्री कृष्ण जी बोल रहे होते तो यह नहीं कहते कि अब प्रवर्त्त हुआ हूँ। श्री कृष्ण जी काल नहीं थे, उनके दर्शन मात्रा से मनुष्य, पशु (गाय आदि) प्रसन्न होकर श्री कृष्ण जी के पास आकर प्यार पाते थे। जिनके दर्शन बिना गोपियों का खाना, पीना छूट जाता था। इसलिए काल कोई और शक्ति है। वह श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रेतवत प्रवेश करके पवित्रा श्रीमद्भगवत गीता जी के ज्ञान रूप में चारों पवित्रा वेदों का सार बोल गया। उसकी एक हजार भुजाऐं हैं। श्री कृष्ण जी श्री विष्णु जी के अवतार थे, जिनकी चार भुजाऐं हैं। फिर अध्याय 11 श्लोक 21 व 46 में अर्जुन कह रहा है कि भगवन् ! आप तो ऋषियों, देवताओं तथा सिद्धों को भी खा रहे हो, जो आप का ही गुणगान पवित्रा वेदों के मंत्रों द्वारा उच्चारण कर रहे हैं तथा अपने जीवन की रक्षा के लिए मंगल कामना कर रहे हैं। कुछ आपके दाढ़ों में लटक रहे हैं, कुछ आप के मुख में समा रहे हैं। हे सहस्त्राबाहु अर्थात् हजार भुजा वाले भगवान ! आप अपने उसी चतुर्भुज रूप में आईये। मैं आपके विकराल रूप को देखकर धीरज नहीं कर पा रहा हूँ।
अध्याय 11 श्लोक 47 में पवित्रा गीता जी को बोलने वाला प्रभु काल कह रहा है कि ‘हे अर्जुन यह मेरा वास्तविक काल रूप है, जिसे तेरे अतिरिक्त पहले किसी ने नहीं देखा था।‘
उपरोक्त विवरण से एक तथ्य तो यह सिद्ध हुआ कि कौरवों की सभा में विराट रूप श्री कृष्ण जी ने दिखाया था तथा यहाँ युद्ध के मैदान में विराट रूप काल (श्री कृष्ण जी के शरीर मंे प्रेतवत् प्रवेश करके अपना विराट रूप काल) ने दिखाया था। नहीं तो यह नहीं कहता कि यह विराट रूप तेरे अतिरिक्त पहले किसी ने नहीं देखा है। क्योंकि श्री कृष्ण जी अपना विराट रूप कौरवों की सभा में पहले ही दिखा चुके थे।
दूसरी यह बात सिद्ध हुई कि पवित्रा गीता जी को बोलने वाला काल (ब्रह्म-ज्योति निरंजन) है, न कि श्री कृष्ण जी। क्योंकि श्री कृष्ण जी ने पहले कभी नहीं कहा कि मैं काल हूँ तथा बाद में कभी नहीं कहा कि मैं काल हूँ। श्री कृष्ण जी काल नहीं हो सकते। उनके दर्शन मात्रा को तो दूर-दूर क्षेत्रा के स्त्राी तथा पुरुष तड़फा करते थे।
नोट:- विराट रूप क्या होता है ?
विराट रूप: आप दिन के समय या चाँदनी रात्राी में जब आप के शरीर की छाया छोटी लगभग शरीर जितनी लम्बी हो या कुछ बड़ी हो, उस छाया के सीने वाले स्थान पर दो मिनट तक एक टक देखें, चाहे आँखों से पानी भी क्यों न गिरें। फिर सामने आकाश की तरफ देखें। आपको अपना ही विराट रूप दिखाई देगा, जो सफेद रंग का आसमान को छू रहा होगा। इसी प्रकार प्रत्येक मानव अपना विराट रूप रखता है। परन्तु जिनकी भक्ति शक्ति ज्यादा होती है, उनका उतना ही तेज अधिक होता जाता है।
इसी प्रकार श्री कृष्ण जी भी पूर्व भक्ति शक्ति से सिद्धि युक्त थे, उन्होंने भी अपनी सिद्धि शक्ति से अपना विराट रूप प्रकट कर दिया, जो काल के तेजोमय शरीर (विराट) से कम तेजोमय था। तीसरी बात यह सिद्ध हुई कि पवित्रा गीता जी बोलने वाला प्रभु काल सहस्त्राबाहु अर्थात् हजार भुजा युक्त है तथा श्री कृष्ण जी तो श्री विष्णु जी के अवतार हैं जो चार भुजा युक्त हैं। श्री विष्णु जी सोलह कला युक्त हैं तथा श्री ज्योति निरंजन काल भगवान एक हजार कला युक्त है। जैसे एक बल्ब 60 वाट का होता है, एक बल्ब 100 वाट का होता है, एक बल्ब 1000 वाट का होता है, रोशनी सर्व बल्बों की होती है, परन्तु बहुत अन्तर होता है। ठीक इसी प्रकार दोनों प्रभुओं की शक्ति तथा विराट रूप का तेज भिन्न-भिन्न था।
इस तत्वज्ञान के प्राप्त होने से पूर्व जो गीता जी के ज्ञान को समझाने वाले महात्मा जी थे, उनसे यह दास (रामपाल दास) प्रश्न किया करता था कि पहले तो भगवान श्री कृष्ण जी तीन बार शान्ति दूत बनकर गए थे तथा कहा था कि युद्ध करना महापाप है। जब श्री अर्जुन जी ने स्वयं युद्ध करने से मना करते हुए कहा कि हे देवकी नन्दन मैं युद्ध नहीं करना चाहता हूँ। सामने खड़े स्वजनों व नातियों तथा सैनिकों का होने वाला विनाश देख कर मैंने अटल फैसला कर लिया है कि मुझे तीन लोक का राज्य भी प्राप्त हो तो भी मैं युद्ध नहीं करूँगा। मैं तो चाहता हूँ कि मुझ निहत्थे को दुर्योधन आदि तीर से मार डालें, ताकि मेरी मृत्यु से युद्ध में होने वाला विनाश बच जाए। हे श्री कृष्ण ! मैं युद्ध न करके भिक्षा का अन्न खाकर भी निर्वाह करना उचित समझता हूँ। हे कृष्ण ! स्वजनों को मारकर तो पाप को ही प्राप्त होंगे। मेरी बुद्धि काम करना बंद कर गई है। आप हमारे गुरु हो, मैं आपका शिष्य हूँ। आप जो हमारे हित में हो वही सलाह दीजिए। परन्तु मैं नहीं मानता हूँ कि आपकी कोई भी सलाह मुझे युद्ध के लिए राजी कर पायेगी अर्थात् मैं युद्ध नहीं करूँगा। (प्रमाण पवित्रा गीता जी अध्याय 1 श्लोक 31 से 39, 46 तथा अध्याय 2 श्लोक 5 से 8)
फिर श्री कृष्ण जी में प्रवेश काल बार-बार कह रहे हैं कि अर्जुन कायर मत बन, युद्ध कर। या तो युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा, या युद्ध जीत कर पृथ्वी के राज्य को भोगेगा, आदि-आदि कह कर ऐसा भयंकर विनाश करवा डाला जो आज तक के संत-महात्माओं तथा सभ्य लोगों के चरित्रा में ढूंढने से भी नहीं मिलता है। तब वे नादान गुरु जी (नीम-हकीम) कहा करते थे कि अर्जुन क्षत्रि धर्म को त्याग रहा था। इससे क्षत्रित्व को हानि तथा सुरवीरता का सदा के लिए विनाश हो जाता। अर्जुन को क्षत्रि धर्म पालन करवाने के लिए यह महाभारत का युद्ध श्री कृष्ण जी ने करवाया था। पहले तो मैं उनकी इस नादानों वाली कहानी से चुप हो जाता था, क्योंकि मुझे स्वयं ज्ञान नहीं था।
पुनर् विचार करें:- भगवान श्री कृष्ण जी स्वयं क्षत्रि थे। कंस के वध के उपरान्त श्री अग्रसैन जी ने मथुरा की बाग-डोर अपने दोहते श्री कृष्ण जी को संभलवा दी थी। एक दिन नारद जी ने श्री कृष्ण जी को बताया कि निकट ही एक गुफा में एक सिद्धि युक्त राक्षस राजा मुचकन्द सोया पड़ा है। वह छः महीने सोता है तथा छः महीने जागता है। जागने पर छः महीने युद्ध करता रहता है तथा छः महीने सोने के समय यदि कोई उसकी निन्द्रा भंग कर दे तो मुचकन्द की आँखों से अग्नि बाण छूटते हैं तथा सामने वाला तुरन्त मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, आप सावधान रहना। यह कह कर श्री नारद जी चले गए।
कुछ समय उपरान्त श्री कृष्ण जी को छोटी उम्र में मथुरा के सिंहासन पर बैठा देख कर एक काल्यवन नामक राजा ने अठारह करोड़ सेना लेकर मथुरा पर आक्रमण कर दिया। श्री कृष्ण जी ने देखा कि दुश्मन की सेना बहु संख्या में है तथा न जाने कितने सैनिक मृत्यु को प्राप्त होंगे, क्यों न काल्यवन का वध मुचकन्द से करवा दूं। यह विचार कर भगवान श्री कृष्ण जी ने काल्यवन को युद्ध के लिए ललकारा तथा युद्ध छोड़ कर (क्षत्रिय धर्म को भूलकर विनाश टालना आवश्यक जानकर) भाग लिये और उस गुफा में प्रवेश किया जिसमें मुचकन्द सोया हुआ था। मुचकन्द के शरीर पर अपना पीताम्बर (पीली चद्दर) डाल कर श्री कृष्ण जी गुफा में गहरे जाकर छुप गए। पीछे-पीछे काल्यवन भी उसी गुफा में प्रवेश कर गया। मुचकन्द को श्री कृष्ण समझ कर मुचकन्द का पैर पकड़ कर घुमा दिया तथा कहा कि कायर तुझे छुपे हुए को थोड़े ही छोडूंगा। पीड़ा के कारण मुचकन्द की निंद्रा भंग हुई, नेत्रों से अग्नि बाण निकलें तथा काल्यवन का वध हुआ। काल्यवन के सैनिक तथा मंत्राी अपने राजा के शव को लेकर वापिस चल पड़े। क्योंकि युद्ध में राजा की मृत्यु सेना की हार मानी जाती थी। जाते हुए कह गए कि हम नया राजा नियुक्त करके शीघ्र ही आयेंगे तथा श्री कृष्ण तुझे नहीं छोड़ेंगे।
श्री कृष्ण जी ने अपने मुख्य अभियन्ता (चीफ इन्जिनियर) श्री विश्वकर्मा जी को बुला कर कहा कि कोई ऐसा स्थान खोजो, जिसके तीन तरफ समुद्र हो तथा एक ही रास्ता (द्वार) हो। वहाँ पर अति शीर्घ एक द्वारिका (एक द्वार वाली) नगरी बना दो। हम शीर्घ ही यहाँ से प्रस्थान करेंगे। ये मूर्ख लोग यहाँ चैन से नहीं जीने देंगे। श्री कृष्ण जी इतने नेक आत्मा तथा युद्ध विपक्षी थे कि अपने क्षत्राीत्व को भी दाव पर रख कर युद्ध को टाला। क्या फिर वही श्री कृष्ण जी अपने प्यारे साथी व संबंधी को युद्ध करने की बुरी सलाह दे सकते हैं तथा स्वयं युद्ध न करने का वचन करने वाले दूसरे को युद्ध की प्रेरणा दे सकते हैं? अर्थात् कभी नहीं। भगवान श्री कृष्ण रूप में स्वयं श्री विष्णु जी ही अवतार धार कर आए थे।
एक समय श्री भृगु ऋषि ने आराम से बैठे भगवान श्री विष्णु जी (श्री कृष्ण जी) के सीने में लात घात किया। श्री विष्णु जी ने श्री भृगु ऋषि जी के पैर को सहलाते हुए कहा कि ‘हे ऋषिवर ! आपके कोमल पैर को कहीं चोट तो नहीं आई, क्योंकि मेरा सीना तो कठोर पत्थर जैसा है।‘ यदि श्री विष्णु जी (श्री कृष्ण जी) युद्ध प्रिय होते तो सुदर्शन चक्र से श्री भृगु जी के इतने टुकड़े कर सकते थे कि गिनती न होती।
वास्तविकता यह है कि काल भगवान जो इक्कीस ब्रह्मण्ड का प्रभु है, उसने प्रतिज्ञा की है कि मैं अपने शरीर में व्यक्त(मानव सदृश अपने वास्तविक) रूप में सबके सामने नहीं आऊँगा। उसी ने सूक्ष्म शरीर बना कर प्रेत की तरह श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश करके पवित्रा गीता जी का ज्ञान तो सही (वेदों का सार) कहा, परन्तु युद्ध करवाने के लिए अटकल बाजी में भी कसर नहीं छोड़ी। काल (ब्रह्म) कौन है? यह जानने के लिए पढ़िए सृष्टि रचना इसी पुस्तक ‘‘ज्ञान गंगा’’ के पृष्ठ 22 से 74 तक ।
जब तक महाभारत का युद्ध समाप्त नहीं हुआ तब तक ज्योति निरंजन (काल
- ब्रह्म - क्षर पुरुष) श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश रहा तथा युधिष्ठिर जी से झूठ बुलवाया कि कह दो कि अश्वत्थामा मर गया, भीम के पौते तथा घटोत्कछ के पुत्रा बबरु भान का शीश कटवाया तथा स्वयं रथ के पहिए को हथियार रूप में उठाया, यह सर्व काल ही का किया-कराया उपद्रव था, प्रभु श्री कृष्ण जी का नहीं।
महाभारत का युद्ध समाप्त होते ही काल भगवान श्री कृष्ण जी के शरीर से निकल गया। श्री कृष्ण जी ने श्री युधिष्ठिर जी को इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) की राजगद्दी पर बैठाकर स्वयं द्वारिका जाने को कहा। तब अर्जुन आदि ने प्रार्थना की कि हे श्री कृष्ण जी! आप हमारे पूज्य गुरुदेव हो, हमें एक सत्संग सुना कर जाना, ताकि हम आपके सद्वचनों पर चल कर अपना आत्म-कल्याण कर सकें।
यह प्रार्थना स्वीकार करके श्री कृष्ण जी ने तिथि, समय तथा स्थान निहित कर दिया। निश्चित तिथि को श्री अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण जी से कहा कि प्रभु आज वही पवित्रा गीता जी का ज्ञान ज्यों का त्यों सुनाना, क्योंकि मैं बुद्धि के दोष से भूल गया हूँ। तब श्री कृष्ण जी ने कहा कि हे अर्जुन तू निश्चय ही बड़ा श्रद्धाहीन है।
तेरी बुद्धि अच्छी नहीं है। ऐसे पवित्रा ज्ञान को तूं क्यों भूल गया ? फिर स्वयं कहा कि अब उस पूरे गीता ज्ञान को मैं नहीं कह सकता अर्थात् मुझे ज्ञान नहीं। कहा कि उस समय तो मैंने योग युक्त होकर बोला था। विचारणीय विषय है कि यदि भगवान श्री कृष्ण जी युद्ध के समय योग युक्त हुए होते तो शान्ति समय में योग युक्त होना कठिन नहीं था। जबकि श्री व्यास जी ने वही पवित्रा गीता जी का ज्ञान वर्षों उपरान्त ज्यों का त्यों लिपिबद्ध कर दिया। उस समय वह ब्रह्म (काल-ज्योति निरंजन) श्री व्यास जी के शरीर में प्रवेश कर गया तथा पवित्रा श्रीमद्भगवत गीता जी को लिपिबद्ध करवा दिया, जो अब आप के कर कमलों में है।
प्रमाण के लिए संक्षिप्त महाभारत पृष्ठ नं. 667 तथा पुराने के पृष्ठ नं. 1531 पर:-
न शक्यं तन्मया भूयस्तथा वक्तुमशेषतः।। परं हि ब्रह्म कथितं योगयुक्तेन तन्मया। (महाभारत, आश्रव 1612-13)
भगवान बोले - ‘वह सब-का-सब उसी रूपमें फिर दुहरा देना अब मेरे वशकी बात नहीं है। उस समय मैंने योगयुक्त होकर परमात्मतत्वका वर्णन किया था।‘
संक्षिप्त महाभारत द्वितीय भाग के पृष्ठ नं. 1531 से सहाभार:
(‘श्रीकृष्णका अर्जुनसे गीता का विषय पूछना सिद्ध महर्षि वैशम्पायन और काश्यपका संवाद‘) - पाण्डुनन्दन अर्जुन श्रीकृष्णके साथ रहकर बहुत प्रसन्न थे। उन्होंने एक बार उस रमणीय सभाकी ओर दृष्टि डालकर भगवान्से यह वचन कहा --‘देवकीनन्दन ! जब युद्धका अवसर उपस्थित था, उस समय मुझे आपके माहात्म्यका ज्ञान और ईश्वरीय स्वरूपका दर्शन हुआ था, किंतु केशव ! आपने स्नेहवश पहले मुझे जो ज्ञानका उपदेश किया था, वह सब इस समय बुद्धिके दोषसे भूल गया है। उन विषयोंको सुननेके लिये बारंबार मेरे मनमें उत्कण्ठा होती है, इधर, आप जल्दी ही द्वारका जानेवाले हैं। अतः पुनः वह सब विषय मुझे सुना दीजिये।
वैशम्पायनजी कहते हैं --अर्जुनके ऐसा कहनेपर वक्ताओं में श्रेष्ठ महातेजस्वी भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें गलेसे लगाकर इस प्रकार उत्तर दिया।
श्रीकृष्ण बोले --अर्जुन ! उस समय मैंने तुम्हें अत्यन्त गोपनीय विषयका श्रवण कराया था, अपने स्वरूपभूत धर्म सनातन पुरुषोत्तमतत्त्वका परिचय दिया था और (शुक्ल-कृष्ण गतिका निरूपण करते हुए) नित्य लोकोंका भी वर्णन किया था। किंतु तुमने जो अपनी नासमझीके कारण उस उपदेशको याद नहीं रखा यह जानकर मुझे बड़ा खेद हुआ है। उन बातोंका अब पूरा-पूरा स्मरण होना सम्भव नहीं जान पड़ता। पाण्डुनन्दन ! निश्चय ही तुम बड़े श्रद्धाहीन हो, तुम्हारी बुद्धि अच्छी नहीं जान पड़ती। अब मेरे लिये उस उपदेशको ज्यों-का-त्यों दुहरा देना कठिन है, क्योंकि उस समय योगयुक्त होकर मैंने परमात्मतत्त्वका वर्णन किया था। (अधिक जानकारी के लिए पढ़ें - ‘संक्षिप्त महाभारत द्वितीय भाग‘) “विचार करें:- उपरोक्त महाभारत के लेखों व श्री विष्णु पुराण के लेखों व श्रीमद् भगवद् गीता जी के लेखों के प्रमाणों से सिद्ध हुआ कि श्री कृष्ण जी ने श्रीमद् भगवद् गीता जी का ज्ञान नहीं बोला। यह तो काल रूपी ब्रह्म (ज्योति निरंजन) अर्थात् महाविष्णु जी ने प्रेतवश श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रविष्ट होकर बोला था।”
अन्य प्रमाण:--
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श्री विष्णु पुराण (गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित) चतुर्थ अंश अध्याय दूसरा श्लोक 26 में पृष्ठ 233 पर विष्णु जी (महाविष्णु अर्थात् काल रूपी ब्रह्म) ने देव तथा राक्षसों के युद्ध के समय देवताओं की प्रार्थना स्वीकार करके कहा है कि मैं राजऋषि शशाद के पुत्रा पुरन्ज्य के शरीर में अंश मात्रा अर्थात् कुछ समय के लिए प्रवेश करके राक्षसों का नाश कर दूंगा।
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श्री विष्णु पुराण (गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित) चतुर्थ अंश अध्याय तीसरा श्लोक 6 में पृष्ठ 242 पर श्री विष्ण जी ने गंधर्वाे व नागों के युद्ध में नागों का पक्ष लेते हुए कहा है कि “मैं (महाविष्णु अर्थात् काल रूपी ब्रह्म) मानधाता के पुत्रा पुरूकुत्स में प्रविष्ट होकर उन सम्पूर्ण दुष्ट गंधर्वो का नाश कर दूंगा”।
अन्य प्रमाण:- कुछ समय उपरान्त श्री युधिष्ठिर जी को भयंकर स्वपन आने लगे। श्री कृष्ण जी से कारण तथा समाधान पूछा तो बताया कि तुमने युद्ध में जो पाप किए हैं वह नर संहार का दोष तुम्हें दुःख दाई हो रहा है। इसके लिए एक यज्ञ करो। श्री कृष्ण जी के मुख कमल से यह वचन सुन कर श्री अर्जुन को बहुत दुःख हुआ तथा मन ही मन विचार करने लगा कि भगवान श्री कृष्ण जी पवित्रा गीता बोलते समय तो कह रहे थे कि अर्जुन तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा, तूं युद्ध कर ले (पवित्रा गीता अध्याय 2 श्लोक 37-38)। यदि युद्ध में मारा भी गया तो स्वर्ग का सुख भोगेगा, अन्यथा युद्ध में जीत कर पृथ्वी के राज्य का आनन्द लेगा। अर्जुन ने विचार किया कि जो समाधान दुःख निवार्ण का श्री कृष्ण जी ने बताया है इसमें करोड़ों रूपया व्यय होना है। जिससे बड़े भाई युधिष्ठिर का कष्ट निवार्ण होगा। यदि मैं श्री कृष्ण जी से वाद-विवाद करूंगा कि आप पवित्रा गीता जी का ज्ञान देते समय तो कह रहे थे कि तुम्हें पाप नहीं लगेगा। अब उसके विपरीत कह रहे हो। इससे मेरा बड़ा भाई यह न सोच बैठे कि करोड़ों रूपये के खर्च को देख कर अर्जुन बौखला गया है तथा मेरे कष्ट निवार्ण से प्रसन्न नहीं है। इसलिए मौन रहना उचित जान कर सहर्ष स्वीकृति दे दी कि जैसा आप कहोगे वैसा ही होगा। श्री कृष्ण जी ने उस यज्ञ की तिथि निर्धारित कर दी। वह यज्ञ भी श्री सुदर्शन स्वपच के भोजन खाने से सफल हुई।
कुछ समय उपरान्त ऋषि दुर्वासा जी के शापवश सर्व यादव कुल विनाश हो गया, श्री कृष्ण भगवान के पैर के तलुवे में एक शिकारी (जो त्रोतायुग में सुग्रीव के भाई बाली की ही आत्मा थी) ने विषाक्त तीर मार दिया। तब पाँचों पाण्डवों के घटना स्थल पर पहुँच जाने के उपरान्त श्री कृष्ण जी ने कहा कि आप मेरे शिष्य हो मैं आप का धार्मिक गुरु भी हूँ। इसलिए मेरी अन्तिम आज्ञा सुनो। एक तो यह है कि अर्जुन, द्वारिका की सर्व स्त्रिायों को इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) ले जाना, क्योंकि यहाँ कोई नर नहीं बचा है तथा दूसरे आप सर्व पाण्डव राज्य त्याग कर हिमालय में साधना करके शरीर को गला देना। क्योंकि तुमने महाभारत के युद्ध के दौरान जो हत्याऐं की थी, तुम्हारे शीश पर वह पाप बहुत भयंकर है। उस समय अर्जुन अपने आप को नहीं रोक सका तथा कहा प्रभु वैसे तो आप ऐसी स्थिति में हैं कि मुझे ऐसी बातें नहीं करनी चाहिऐं, परन्तु प्रभु यदि आज मेरी शंका का समाधान नहीं हुआ तो मैं चैन से मर भी नहीं पाऊँगा। पूरा जीवन रोता रहूँगा। श्री कृष्ण जी ने कहा अर्जुन पूछ ले जो कुछ पूछना है, मेरी अन्तिम घड़ियाँ हैं। श्री अर्जुन ने आँखों में आंसू भर कर कहा कि प्रभु बुरा न मानना। जब आपने पवित्रा गीता जी का ज्ञान कहा था उस समय मैं युद्ध करने से मना कर रहा था। आपने कहा था कि अर्जुन तेरे दोनों हाथों में लड्डू हैं। यदि युद्ध में मारा गया तो स्वर्ग को प्राप्त होगा और यदि विजयी हुआ तो पृथ्वी का राज्य भोगेगा तथा तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा। हमने आप ही की देख-रेख व आज्ञानुसार युद्ध किया (प्रमाण पवित्रा गीता अध्याय 2 श्लोक 37-38)। हे भगवन ! हमारे तो एक हाथ में भी लड्डू नहीं रहा। न तो युद्ध में मर कर स्वर्ग प्राप्ति हुई तथा अब राज्य त्यागने का आदेश आप दे रहे हैं, न ही पृथ्वी के राज्य का आनन्द ही भोग पाए। ऐसा छल युक्त व्यवहार करने में आपका क्या स्वार्थ था? अर्जुन के मुख से यह वचन सुन कर युधिष्ठिर जी ने कहा कि अर्जुन ऐसी स्थिति में जब कि भगवान अन्तिम स्वांस गिन रहे हैं आपका शिष्टाचार रहित व्यवहार शोभा नहीं देता। श्री कृष्ण जी ने कहा अर्जुन आज मैं अन्तिम स्थिति में हूँ, तुम मेरे अत्यन्त प्रिय हो, आज वास्तविकता बताता हूँ कि कोई खलनायक जैसी ओर शक्ति है जो अपने को यन्त्रा की तरह नचाती रही, मुझे कुछ मालूम नहीं मैंने गीता में क्या बोला था। परन्तु अब मैं जो कह रहा हूँ वह तुम्हारे हित में है। श्री कृष्ण जी यह वचन अश्रुयुक्त नेत्रों से कह कर प्राण त्याग गए। उपरोक्त विवरण से सिद्ध हुआ कि पवित्रा गीता जी का ज्ञान श्री कृष्ण जी ने नहीं कहा। यह तो ब्रह्म (ज्योति निरंजन-काल) ने बोला है, जो इक्कीस ब्रह्मण्ड का स्वामी है। काल (ब्रह्म) कौन है? यह जानने के लिए कृप्या पढ़ें इसी पुस्तक में पृष्ठ 22 से 74 तक।
श्री कृष्ण सहित सर्व यादवों का अन्तिम संस्कार कर अर्जुन को छोड़ कर चारों भाई इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) चले गए। पीछे से अर्जुन द्वारिका की स्त्रिायों को लिए आ रहा था। रास्ते में जंगली लोगों ने सर्व गोपियों को लूटा तथा कुछेक को भगा ले गए तथा अर्जुन को पकड़ कर पीटा। अर्जुन के हाथ में वही गांडीव धनुष था जिससे महाभारत के युद्ध में अनगिनत हत्याऐं कर डाली थी, वह भी नहीं चला। तब अर्जुन ने कहा कि यह श्री कृष्ण वास्तव में झूठा तथा कपटी था। जब युद्ध में पाप करवाना था तब तो मुझे शक्ति प्रदान कर दी, एक तीर से सैकड़ों योद्धाओं को मार गिराता था और आज वह शक्ति छीन ली, खड़ा-खड़ा पिट रहा हूँ। इसी विषय में पूर्ण ब्रह्म कबीर साहेब (कविर्देव) जी का कहना है कि श्री कृष्ण जी कपटी व झूठे नहीं थे। यह सर्व जुल्म काल (ज्योति निरंजन) कर रहा है। जब तक यह आत्मा कबीर परमेश्वर (सतपुरुष) की शरण में पूरे सन्त (तत्वदर्शी) के माध्यम से नहीं आ जाएगी, तब तक काल इसी तरह कष्ट पर कष्ट देता रहेगा। पूर्ण जानकारी तत्वज्ञान से होती है। इसीलिए काल कौन है ? यह जानने के लिए कृप्या पढ़ें इसी पुस्तक के पृष्ठ 22 से 74 तक।
विशेष विचार:- उपरोक्त प्रमाणों से सिद्ध हुआ कि श्रीमद्भगवत गीता का ज्ञान श्री कृष्ण ने नहीं बोला, यह तो श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रेतवत प्रवेश होकर ब्रह्म (काल अर्थात् ज्योति निरंजन) ने बोला था।