गीता में ब्रह्म काल की भक्ति भी अनुत्तम (घटिया) कही है
प्रश्न:- गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में अपनी साधना को गीता ज्ञान दाता ने अनुत्तम क्यों कहा है?
उत्तर:- गीता अध्याय 2 श्लोक 12, गीता अध्याय 4 श्लोक 5 तथा 9, गीता अध्याय 10 श्लोक 2 में गीता ज्ञान दाता (ब्रह्म) ने कहा है कि हे अर्जुन! मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं, तू नहीं जानता मैं जानता हूं। श्रीमद्भगवत् गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि तत्वदर्शी सन्त से तत्वज्ञान प्राप्त करके परमेश्वर के उस परमपद की खोज करनी चाहिए, जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर फिर संसार में कभी नहीं आते। जिस परमेश्वर से संसार रुपी वृक्ष की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई हो अर्थात् जिस परमेश्वर ने सर्व संसार की उत्पत्ति की है। उसी परमेश्वर की भक्ति कर। फिर गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में गीता ज्ञान दाता ने कहा कि हे अर्जुन! तू सर्वभाव से उस परमेश्वर की शरण में जा, उस परमेश्वर की कृपा से ही तू परमशांति तथा सनातन परमधाम को प्राप्त होगा। हे धर्मदास! जब तक जन्म-मरण रहेगा, तब तक परमशान्ति नहीं हो सकती और न ही सनातन परम धाम प्राप्त हो सकता। वास्तव में परमगति उसको कहते हैं जिसमें जन्म-मरण सदा के लिए समाप्त हो जाए जो ब्रह्म साधना से कभी नहीं हो सकती। इसलिए गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में गीता ज्ञान दाता ने बताया है कि जो ज्ञानी आत्मा हैं, मेरे विचार में सब नेक हैं। परन्तु वे सब मेरी अनुत्तम (घटिया) गति में ही लीन हैं क्योंकि वे मेरी (ब्रह्म की) भक्ति कर रहे हैं। ब्रह्म की साधना का ‘‘ऊँ‘‘ मन्त्र है। इससे ब्रह्म लोक प्राप्त होता है। गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में स्पष्ट है कि ब्रह्मलोक में गए हुए साधक भी पुनः लौटकर संसार में आते हैं। इसलिए उनको परमशान्ति नहीं हो सकती, सनातन परम धाम प्राप्त नहीं हो सकता। वेदों में वर्णित साधना से परमात्मा प्राप्ति नहीं होती। कुछ सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं जिनके द्वारा ऋषिजन चमत्कार करके किसी को हानि करके प्रसिद्ध हो जाते हैं। अंत में पाप के भागी होकर चैरासी लाख प्रकार के प्राणियों के शरीरों में कष्ट उठाते रहते हैं। इसलिए ब्रह्म साधना से होने वाली गति अर्थात् उपलब्धि अनुत्तम (inferior) कही है।