मृत गाय को जीवित करना, काजी-मुल्ला को उपदेश देना
पारख के अंग की वाणी नं. 568-619:-
काशी जोरा दीन का, काजी षिलस करंत। गरीबदास उस सरे में, झगरे आंनि परंत।।568।।
सुन काजी राजी नहीं, आपै अलह खुदाय। गरीबदास किस हुकम सैं, पकरि पछारी गाय।।569।।
गऊ हमारी मात है, पीवत जिसका दूध। गरीबदास काजी कुटिल, कतल किया औजूद।।570।।
गऊ आपनी अमां है, ता पर छुरी न बाहि। गरीबदास घृत दूध कूं, सबही आत्म खांहि।।571।।
ऐसा खाना खाईये, माता कै नहीं पीर। गरीबदास दरगह सरैं, गल में पडै़ जंजीर।।572।।
काजी पटकि कुरांन कूं, ऊठि गये शिर पीट। गरीबदास जुलहै कही, बानी अकल अदीठ।।573।।
जुलहे दीन बिगारिया, काजी आये फेर। गरीबदास मुल्ला मुरग, अपनी अपनी बेर।।574।।
मुरगे से मुल्लां भये, मुल्लां फेरि मुरग। गरीबदास दोजख धसैं, पाया नहीं सुरग।।575।।
काजी कलमा पढत है, बांचै फेरि कुरांन। गरीबदास इस जुल्म सैं, बूडैं दहूँ जिहांन।।576।।
दोनूं दीन दया करौ, मानौं बचन हमार। गरीबदास गऊ सूर में, एकै बोलन हार।।577।।
सूर गऊ में एक हैं, गाय खावौ न सूर। गरीबदास सूर गऊ, दोऊ का एकै नूर।।578।।
मुल्लां से पंडित भये, पंडित से भये मुल्ल। गरीबदास तजि बैर भाव, कीजै सुल्लम सुल्ल।।579।।
हिंदू झटकै मारहीं, मुस्लम करै हलाल। गरीबदास दोऊ दीन का, होसी हाल बिहाल।।580।।
बकरी कुकडी खा गये, गऊ गदहरा सूर। गरीबदास उस भिस्त में, तुम सें अलहा दूर।।581।।
घोड़े ऊंट अटक नहीं, तीतर क्या खरगोश। गरीबदास एैसे कुकर्मी सैं, अलहा है सौ कोस।।582।।
भिस्त भिस्त तुम क्या करौ, दोजख जरिहौ अंच। गरीबदास इस खून सैं, अलह नाहीं बंच।।583।।
रब की रूह मारते, खाते मोरै मोर। गरीबदास उस नरक में, नहीं खूनी कूं ठौर।।584।।
सुनि काजी बाजी लगी, जो जीतै सो जाय।गरीबदास उस नरक कूं, बिन खूनी को खाय।।585।।
सुनि काजी बाजी लगी, पासा सनमुख डारि। गरीबदास जुग बांधि ले, नहीं मरत हैं सारि।।586।।
सुनि काजी गदह गति, पान लदै खर पीठ। गरीबदास उस वस्तु बिन, खाय गदहरा बीठ।।587।।
मुल्लां कूकै बंग दे, सुनि काफर मुसकंड। गरीबदास मुरगे सरै, खात गोल गिर्द अंड।।588।।
सुनि मुल्ला उपदेश तूं, कुफर करै दिन रात। गरीबदास हक बोलता, मारै जीव अनाथ।।589।।
मुरगे शिर कलंगी हुती, चिसमें लाल चिलूल। गरीबदास उस कलंगी का, कहा गया वह फूल।।590।।
सुनि मुल्ला माली अलह, फूल रूप संसार। गरीबदास गति एक सब, पान फूल फल डार।।591।।
करौ नसीहत दूर लग, दरगह पड़िसी न्याव। गरीबदास काजी कहै, करबे नांन पुलाव।।592।।
काजी काढि कतेब कूं, जोरा बड़ा हजूम। गरीबदास गल काटहीं, फिर खाते देदे गूम।।593।।
मांस कटै घर घर बटै, रूह गई किस ठौर। गरीबदास उस दरबार में, होय काजी बड़ गौर।।594।।
सुनि काजी कलिया किया, जाड़ स्वादरे जिंद। गरीबदास दरगाह में, पडै़ गले बिच फंद।।595।।
बासमती चावल पकै, घृत खांड टुक डारि। गरीबदास कर बंदगी, कूडे़ काम निवारि।।596।।
फुलके धोवा डाल करि, हलवा रोटी खाय। गरीबदास काजी सुन, मिटि मांस न पकाय।।597।।
रोजे रखै और खूनि करे, फिर तसबी ले हाथ। गरीबदास दरगह सरै, बौहत करी तैं घात।।598।।
शाह सिकंदर के गये, काजी पटकि कुरांन। गरीबदास जुलहदी पर, हो हंै खैंचातान।।599।।
तोरा सरा उठा दिया, काजी बोले यौं। गरीबदास पगड़ी पटकि, अलख अलाह मैं हौं।।600।।
दश अहदी तलबां हुई, पकरि जुलहदी ल्याव। गरीबदास उस कुटिन कौ, मारत नांही संकाव।।601।।
अहदी ले गये बांधि करि, शाह सिकंदर पास। गरीबदास काजी मुल्लां, पगरी बहैं आकाश।।602।।
काजी पंच हजार हैं, मुल्लां पीटैं शीश। गरीबदास योह जुलहदी, काफर बिसवे बीस।।603।।
मिहर दया इस कै नहीं, मट्टी मांस न खाय। गरीबदास मांस पकाओ, मोमन ल्योह बुलाय।।604।।
मोमन बी पकरे गये, संग कबीरा माय। गरीबदास उस सरे में, पकरि पछारी गाय।।605।।
शाह सिकंदर बोलता, कहि कबीर तूं कौंन। गरीबदास गुजरै नहीं, कैसैं बैठ्या मौंन।।606।।
हमहीं अलख अल्लाह हैं, कुतब गोस अरू पीर। गरीबदास खालिक धनी, हमरा नाम कबीर।।607।।
मैं कबीर सरबंग हूँ, सकल हमारी जाति। गरीबदास पिंड प्राण में, जुगन जुगन संग साथ।।608।।
गऊ पकरि बिसमिल करी, दरगह खंड अजूद। गरीबदास उस गऊ का, पीवै जुलहा दूध।।609।।
चुटकी तारी थाप दे, गऊ जिवाई बेगि। गरीबदास दूझन लगी, दूध भरी है देग।।610।।
योह परचा प्रथम भया, शाह सिकंदर पास। गरीबदास काजी मुलां, हो गये बौहत उदास।।611।।
काशी उमटी सब खड़ी, मोमन करी सलाम। गरीबदास मुजरा करै, माता सिहर अलांम।।612।।
तांना बांना ना बुनैं, अधरि चिसम जोडंत। गरीबदास बौहुरूप धरि, मोर्या नहीं मुरंत।।613।।
शाह सिकंदर देखि करि, बौहत भये मुसकीन। गरीबदास गत शेरकी, थरकैं दोनूं दीन।।614।।
काजी मुल्लां उठि गये, शाह कदम जदि लीन। गरीबदास उस जुलहदी की, ना कोई शरबरि कीन।।615।।
खडे़ रहे ज्यूं खंभ गति, शाह सिकंदर लोटि। गरीबदास जुलहा कहै, ल्याहौ कित है गोठि।।616।।
अगरम मगरम छाड़ि दे, मान हमारी सीख। गरीबदास कहै शाह सैं, बंक डगर है लीक।।617।।
काजी मुल्लां भगि गये, घातन पोतन लादि। गरीबदास गति को लखै, जुलहा अगम अगाध।।618।।
चले कबीर अस्थान कूं, पालकीयों में बैठि। गरीबदास काशी तजी, काजी मुल्लां ऐंठि।।619।।
पारख के अंग की वाणी नं. 568-619 का सरलार्थ:– विश्व के सब प्राणी परमात्मा कबीर जी की आत्मा हैं। जिनको मानव (स्त्राी-पुरूष) का जन्म मिला हुआ है, वे भक्ति के अधिकारी हैं। काल ब्रह्म यानि ज्योति निरंजन ने सब मानव को काल जाल में रहने वाले कर्मों पर दृढ़ कर रखा है। गलत व अधूरा अध्यात्म ज्ञान अपने दूतों (काल ज्ञान संदेशवाहकों) द्वारा जनता में प्रचार करवा रखा है। पाप कर्म बढ़ें, धर्म के नाम पर ऐसे कर्म प्रारंभ करवा रखे हैं। जैसे हिन्दू श्रद्धालु भैरव, भूत, माता आदि की पूजा के नाम पर बकरे-मुर्गे, झोटे (भैंसे) आदि-आदि की बलि देते हैं जो पाप के अतिरिक्त कुछ नहीं है। इसी प्रकार मुसलमान अल्लाह के नाम पर बकरे, गाय, मुर्गे आदि-आदि की कुर्बानी देते हैं जो कोरा पाप है। हिन्दू तथा मुसलमान, सिख तथा इसाई व अन्य धर्म व पंथों के व्यक्ति कबीर परमात्मा (सत पुरूष) के बच्चे हैं जो काल द्वारा भ्रमित होकर पाप इकट्ठे कर रहे हैं। इन वाणियों में कबीर जी ने विशेषकर अपने मुसलमान बच्चों को काल का जाल समझाया है तथा यह पाप न करने की राय दी है। परंतु काल ब्रह्म द्वारा झूठे ज्ञान में रंगे होने के कारण मुसलमान अपने खालिक कबीर जी के शत्रु बन गए। काल ब्रह्म प्रेरित करके झगड़ा करवाता है। कबीर परमात्मा मुसलमान धर्म के मुख्य कार्यकर्ता काजियों तथा मुल्लाओं को पाप से बचाने के लिए समझाया करते थे। कहा करते थे कि काजी व मुल्ला! आप गाय को मारकर पाप के भागी बन रहे हो। आप बकरा, मुर्गा मारते हो, यह भी महापाप है। गाय के मारने से (अल्लाह) परमात्मा खुश नहीं होता, उल्टा नाराज होता है। आपने किसके आदेश से गाय को मारा है?
पारख के अंग की वाणी नं. 569-572:-
सुन काजी राजी नहीं, आपै अलह खुदाय। गरीबदास किस हुकम सैं, पकरि पछारी गाय।।569।।
गऊ हमारी मात है, पीवत जिसका दूध। गरीबदास काजी कुटिल, कतल किया औजूद।।570।।
गऊ आपनी अमां है, ता पर छुरी न बाहि। गरीबदास घृत दूध कूं, सबही आत्म खांहि।।571।।
ऐसा खाना खाईये, माता कै नहीं पीर। गरीबदास दरगह सरैं, गल में पडै़ जंजीर।।572।।
सरलार्थ:– परमेश्वर कबीर जी ने काजियों व मुल्लाओं से कहा कि गऊ हमारी माता है जिसका सब दूध पीते हैं। हे (कुटिल) दुष्ट काजी! तूने गाय को काट डाला।
गाय आपकी तथा अन्य सबकी (अमां) माता है क्योंकि जिसका दूध पीया, वह माता के समान आदरणीय है। इसको मत मार। इसके घी तथा दूध को सब धर्मों के व्यक्ति खाते-पीते हैं।
ऐसे खाना खाइए जिससे माता को (गाय को) दर्द न हो। ऐसा पाप करने वाले को परमात्मा के (दरगह) दरबार मंे जंजीरों से बाँधकर यातनाएँ दी जाएँगी।
परमात्मा कबीर जी के हितकारी वचन सुनकर काजी तथा मुल्ला कहते हैं कि हाय! हाय! कैसा अपराधी है? माँस खाने वालों को पापी बताता है। सिर पीटकर यानि नाराज होकर चले गए। फिर वाद-विवाद करने के लिए आए तो परमात्मा कबीर जी ने कहा कि हे काजी तथा मुल्ला! सुनो, आप मुर्गे को मारते हो तो पाप है। आगे किसी जन्म में मुर्गा तो काजी बनेगा, काजी मुर्गा बनेगा, तब वह मुर्गे वाली आत्मा मारेगी। स्वर्ग नहीं मिलेगा, नरक में जाओगे।
काजी कलमा पढ़त है यानि पशु-पक्षी को मारता है। फिर पवित्र पुस्तक कुरान को पढ़ता है। संत गरीबदास जी बता रहे हैं कि कबीर परमात्मा ने कहा कि इस (जुल्म) अपराध से दोनों जिहांन बूडे़ंगे यानि पृथ्वी लोक पर भी कर्म का कष्ट आएगा। ऊपर नरक में डाले जाओगे। (576)
कबीर परमात्मा ने कहा कि दोनों (हिन्दू तथा मुसलमान) धर्म, दया भाव रखो। मेरा वचन मानो कि सूअर तथा गाय में एक ही बोलनहार है यानि एक ही जीव है। न गाय खाओ, न सूअर खाओ।
आज कोई पंडित के घर जन्मा है तो अगले जन्म में मुल्ला के घर जन्म ले सकता है। इसलिए आपस में प्रेम से रहो। हिन्दू झटके से जीव हिंसा करते हैं। मुसलमान धीरे-धीरे जीव मारते हैं। उसे हलाल किया कहते हैं। यह पाप है। दोनों का बुरा हाल होगा।
बकरी, मुर्गी (कुकड़ी), गाय, गधा, सूअर को खाते हैं। भक्ति की (रीस) नकल भी करते हैं। ऐसे पाप करने वालों से परमात्मा (अल्लाह) दूर है यानि कभी परमात्मा नहीं मिलेगा। नरक के भागी हो जाओगे। पाप ना करो।
घोडे़, ऊँट, तीतर, खरगोश तक खा जाते हैं और भक्ति बंदगी भी करते हैं। ऐसे (कुकर्मी) पापी से (अल्लाह) परमात्मा सौ कोस (एक कोस तीन किलोमीटर का होता है) दूर है।
(भिस्त-भिस्त) स्वर्ग-स्वर्ग क्या कह रहे हो? (दोजख) नरक की आग में जलोगे।
माँस खाते हो, जीव हिंसा करते हो, फिर भक्ति भी करते हो। यह गलत कर रहे हो। परमात्मा के दरबार में गले में फंद पड़ेगा यानि दण्डित किए जाओगे। (586-595)
अच्छा शाकाहार करो। बासमती चावल पकाओ। उसमें घी तथा खांड (मीठा) डालकर खाओ और भक्ति करो। (कूड़े काम) बुरे (पाप) कर्म त्याग दो। (फुलके) पतली-पतली छोटी-छोटी रोटियों को फुल्के कहते हैं। ऐसे फुल्के बनाओ। धोई हुई दाल पकाओ। हलवा, रोटी आदि-आदि अच्छा निर्दोष भोजन खाओ। हे काजी! सुनो, माँस ना खाओ। परमात्मा की साधना करने के उद्देश्य से (रोजे) व्रत रखते हो, (तसबी) माला से जाप भी करते हो। फिर खून करते हो यानि गाय, मुर्गी-मुर्गा, बकरा-बकरी मारते हो। यह परमात्मा के साथ धोखा कर रहे हो। परमात्मा कबीर जी ने सद् उपदेश दिया। परंतु काजी तथा मुल्लाओं ने उसका दुःख माना। {कहते हैं कि कहैं भली माने बुरी, यही परिक्षा नीच। जितना धोवे कच्ची भींत को उतनी मांचे कीच। अर्थात् दुष्ट इंसान को अच्छी शिक्षा देने से भी वह उसे बुरी मानता है। जैसे कच्ची ईंटों से बनी दिवार को जितना धोया जाए, उसमें कीचड़ ही बनता जाता है।} (596-598)
उस दिन दिल्ली का सम्राट सिकंदर लोधी (बहलोल लोधी का पुत्र) काशी नगर में आया हुआ था। पाँच-दस हजार मुसलमान मिलकर सिकंदर लोधी के पास विश्रामगृह में गए। काजियों ने कहा कि हे जहांपनाह (जगत के आश्रय)! हमारे धर्म की तो बेइज्जती कर दी। हम तो कहीं के नहीं छोड़े। एक कबीर नाम का जुलाहा काफिर हमारे धर्म के धार्मिक कर्मों को नीच कर्म बताता है। अपने को (अलख अल्लाह) सातवें आसमान वाला अदृश्य परमात्मा कहता है।
परमात्मा कबीर जी के साथ खैंचातान (परेशानी) शुरू हुई।
सिकंदर राजा के आदेश से दस सिपाही परमात्मा कबीर जी को बाँधकर हथकड़ी लगाकर लाए। काजी-मुल्ला की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। गर्व से पगड़ी ऊँची कर ली। बोले कि हे राजन! यह जुलाहा पूर्ण रूप से काफिर (दुष्ट) है। यह माँस भी नहीं खाता। इसके हृदय में दया नाम की कोई वस्तु नहीं है। इसकी माता को तथा इसके पिता को भी पकड़कर लाया जाए। (604)
मोमिन (मुसलमान) नीरू को भी पकड़ लिया। माता नीमा को भी पकड़ लिया। उन दोनों को भी वहीं राजा के पास ले आए। एक गाय को काट दिया। (605)
राजा सिकंदर बोला कि हे काफिर! तू अपने को (अल्लाह) परमात्मा कहता है। यदि परमात्मा है तो इस दो टुकड़े हुई गाय को जीवित कर दे। हमारे नबी मुहम्मद ने मृत गाय को जीवित किया था। जीवित कर, नहीं तो तेरे टुकड़े कर दिए जाएँगे। अब चुपचाप क्यों बैठा है? दिखा अपनी शक्ति। (606)
पारख के अंग की वाणी नं. 607-610:-
हमहीं अलख अल्लाह हैं, कुतब गोस अरू पीर। गरीबदास खालिक धनी, हमरा नाम कबीर।।607।।
मैं कबीर सरबंग हूँ, सकल हमारी जाति। गरीबदास पिंड प्राण में, जुगन जुगन संग साथ।।608।।
गऊ पकरि बिसमिल करी, दरगह खंड अजूद। गरीबदास उस गऊ का, पीवै जुलहा दूध।।609।।
चुटकी तारी थाप दे, गऊ जिवाई बेगि। गरीबदास दूझन लगी, दूध भरी है देग।।610।।
सरलार्थ:– कबीर परमात्मा बोले कि मैं अदृश परमात्मा हूँ। मैं ही संत तथा सतगुरू हूँ। मेरा नाम कबीर (अल्लाह अकबर) है। मैं (खालिक) संसार का मालिक (धनी) हूँ। मैं कबीर सर्वव्यापक हूँ।
जो गाय मार रखी थी, उसके गर्भ का बच्चा व गाय के दो-दो टुकड़े हुए पड़े थे।
परमात्मा कबीर जी ने हाथ से थपकी मारकर दोनों माँ-बच्चे को जीवित कर दिया। दूध की बाल्टी भर दी। कबीर जी ने वह दूध पीया तथा कहा:-
पढ़ें राग बिलावल का शब्द नं. 12:-
दरदबंद दरबेश है,बे दरद कसाई। संत समागम किजिये तज लोक बड़ाई।।टेक।। डिंभी डिंभ न छाड़हीं, मरहट के भूता। घर घर द्वारै फिरत हैं, कलियुग के कूता।।1।। डिंभ करैं डूंगर चढैं, तप होम अंगीठी। पंच अग्नि पाखंड है, याह मुक्ति बसीठी।।2।। पाती तोरे क्या हुवा, बहु पान झरोरे। तुलसी बकरा खा गया, ठाकुर क्या बौरे।।3।। पीतल ही का थाल है, पीतल का लोटा। जड़ मूरत कूं पूजते, आवैगा टोटा।।4।। पीतल चमचा पूजिये, जो खान परोसै। जड़ मूरत किस काम की, मत रहा भरोसै।।5। काशी गया प्रयाग रे, हरि पैडी न्हाये। द्वारामती दर्शन किये, बौह दाग दगाये।।6।।इन्द्र दौंन अस्नान रे, कर पुष्कर परसे। द्वादस तिलक बनाय कर, बहु चंदन चरचे।।7।। अठसठ तीरथ सब किये, बिंद्राबन फेरी। नाम बिना खुल्हे नहीं, दिव्य दृष्टि अंधेरी।।8।। सतगुरु भेद लखाइया, निज नूर निशानी। कहता दास गरीब है, छूटै सो प्रानी।।9।।12।।
सिकंदर राजा को यह प्रथम (परिचय) चमत्कार दिखाया था यानि अपनी शक्ति का परिचय दिया था। काजी तथा मुल्ला उदास हो गए। उनकी नानी-सी मर गई। हजारों दर्शक शहर निवासी यह खड़े देख रहे थे। माता तथा पिता को धन्य-धन्य कहने लगे कि धन्य है तुम्हारा पुत्र कबीर।
पारख के अंग की वाणी नं. 613-619 का सरलार्थ:-
कबीर परमात्मा जुलाहे का कार्य करता था। परंतु उस दिन जनता को पता चला कि यह बहुत सिद्धि वाला है। परमात्मा कबीर जी विशेष मुद्रा बनाए खड़े थे। उनका चेहरा सिंह (शेर) की तरह दिखाई दे रहा था। यह देखकर राजा सिकंदर बहुत आधीन हो गया। कबीर परमात्मा के चरणों में गिर गया। कबीर परमात्मा बोले कि लाओ कहाँ है गाय का माँस? परमात्मा कबीर खम्बे की तरह अडिग खड़े रहे। सिकंदर बादशाह चरणों में लेट गया।
कबीर परमात्मा जी ने कहा कि हे राजन! अगर-मगर त्यागकर सीधे मार्ग चलो। अपना कल्याण करवाओ। पाप न करो। जब राजा सिकंदर ने परमात्मा कबीर जी के चरणों में लेटकर प्रणाम किया तो काजी-मुल्ला भाग गए। अहंकार में सड़ रहे थे। परमात्मा सामने था। उससे द्वेष कर रहे थे। राजा सिकंदर ने परमात्मा कबीर जी तथा उसके मुँहबोले माता-पिता (नीरू-नीमा) को पालकियों में बैठाकर सम्मान के साथ उनके घर भेजा। काजी-मुल्ला (एँठ) अकड़कर यानि नाराज होकर चले गए। फिर मौके की तलाश करने लगे कि किसी तरह सिकंदर राजा के समक्ष कबीर को नीचा दिखाया जाए।
पारख के अंग की वाणी नं. 620-648:-
तोरा सरा उठा दिया, सूने मंदर तास। गरीबदास उस शाह के, काजी आनें पास।।620।।
काजी मुल्लां यौं कहैं, कबले जहांपनाह। गरीबदास उस जुलहदी कूं, मारे मूंठि चलाय।।621।।
शहातकी एलम करै, मारै मूंठि अचांन। गरीबदास उस जुलहदीकै, आगै मरि गया श्वान।।622।।
श्वान मुवा करुणा करी, पाकरि कान उठाय। गरीबदास सुनि मूंठि तूं, शाहतकी कै जाय।।623।।
जो धारै सोई लहै, मूंठि लगी तिस शीश। गरीबदास शाहतकी तो, मरि गये बिसवेबीस।।624।।
काजी मुल्लां फिर गये,शाह सिकंदर पास। गरीबदास उस पीरकी, मजल धरौ नैं ल्हाश।।625।।
किन मार्या कैसैं मुवा, कहि समझावो मोहि। गरीबदास उस जुलहदी की, गरदन बाहौ लोह।।626।।
फिरि दूजै अहदी गये, पकरि मंगाया बेग। गरीबदास माँ यौं कहैं, दूध भरी क्यौं देग।।627।।
काजी मुल्लां सब कहैं, मारि मारि तूं मारि। गरीबदास उस जुलहदी की, गरदन परि तरवार।।628।।
शाह सिकंदर कोपियां, नयन भये बिकराल। गरीबदास शाहतकी का, योहि जुलहदी काल।।629।।
घोर खुदै पातिशाह जिदै, तैं मारी है मूंठि। गरीबदास कुछ कसर करि, चले जुलहदी ऊठ।।630।।
काजी मुल्लां बांह घति, लगी गर्दनी पांच। गरीबदास काजी पर्या, निकलि गई जहां कांच।।631।।
मार्या तुक्का मुगलकौं, लग्या जुलहदी हीक। गरीबदास वह मुगल उत, पर्या उलटि दो बीक।।632।।
शाह सिकंदर उठि खड़े, कदम पोस कुरबांन। गरीबदास मंजन महल, भकुटि में शशि भान।।633।।
बकसौ मोरे प्रान कौ, तुम अलह की जाति। गरीबदास शाहतकी कूं, उठते केतीक बात।।634।।
शाहतकी चूतड़ पग लग्या, बैठ्या हो गया बेग। गरीबदास उस मुगल कै, तुकेही का नेग।।635।।
काजी खिलस उठाय दे, तजि रोजे की रीत। गरीबदास अल्लह भजौ, समय जायगा बीत।।636।।
काजी राजी क्यौं हुवा, हती अलह की रूह। गरीबदास छूटै नहीं, लेखा दूहबर दूह।।637।।
सुनि मुल्लां तूं मिलहगा, उस दोजखकै मांहि। गरीबदास लख अरज करि, मुल्लां, छुटै नांहि।।638।।
लाख अरज मुल्लां करै, काजी करि है कोटि। गरीबदास कैसै बचै, जो खाते हैं गोठि।।639।।
लाख अरज मुल्लां करै, काजी करि है कोटि। गरीबदास दरम्यांन को, निकले सारे खोटि।।640।।
लाख अरज मुल्लां करै, काजी करि है कोड़ि। गरीबदास वहाँ कोसंगी, नहीं झोटे बकरे तोड़ि।।641।।
कोटि अरज मुल्लां करै, काजी करै अरब। गरीबदास ग्याभन कटी, निकलि परे गरब।।642।।
एक ममड़ी का खून है, एक बच्चे का ब्यांत। गरीबदास कैसै बचै, खाय गये स्यौं आंत।।643।।
काजी पढै कुरान क्या, मुझै अंदेशा और। गरीबदास उस भिस्त में, नहीं खूनी को ठौर।।644।।
भिस्त भिस्त तूं क्या करै, दोजख डुबोया दीन। गरीबदास काजी मुल्लां, और ब्राह्मण, दोषी हैं ये तीन।।645।।
ब्राह्मण हिन्दू देव है, मुल्लां मुसलका पीर। गरीबदास उस भिस्त में, दोयौं की तकसीर।।646।।
एक काजी एक पण्डिता, डोबि दिये दहूं दीन। गरीबदास बिधि भेद सुनि, खाते हिन्दू सीन।।647।।
मुसलमानकूं गाय भखी, हिन्दू खाया सूर। गरीबदास दहूं दीनसैं, राम रहीमा दूर।।648।।
पारख के अंग की वाणी नं. 620-635 का सरलार्थ:- इस घटना से अपनी अधिक बेइज्जती (प्देनसज) मानकर काजी-पंडित राजा से रूष्ट होकर शहर त्यागने की धमकी देकर चलने लगे और कहा कि यह जंत्र-मंत्र जानता है। अगले दिन जब राजा सिकंदर के गुरू शेखतकी को पता चला तो अपनी करामात दिखाने के लिए कबीर जी को आते देखकर शेखतकी ने जंत्र-मंत्र करके मूठ छोड़ी। (मूठ एक आध्यात्मिक शक्ति होती है जो तांत्रिक लोग प्रयोग करते हैं जो जान तक ले लेती है।) उस मूठ (जंत्र-मंत्र) ने कबीर जी पर तो कार्य किया नहीं क्योंकि वे तो परमात्मा हैं, सामने एक कुत्ते पर लगी। वह कुत्ता मर गया। परमेश्वर कबीर जी ने उस कुत्ते का कान पकड़ा और कहा कि चल उठ। कुत्ता उठकर दौड़ गया और उस मूठ से कहा कि तू जिसने छोड़ी थी, उसके पास जा। परमेश्वर कबीर जी के कहते ही वह शक्ति उल्टी शेखतकी को लगी। शेखतकी की मृत्यु हो गई। काजियों ने जाकर राजा सिकंदर लोधी को बताया कि आपके पीर शेखतकी को कबीर जी ने मार दिया है। उसका अंतिम संस्कार कराओ। यह बात सुनकर सिकंदर क्रोधित होकर बोला, ‘‘लाओ कबीर को पकड़कर।‘‘ कबीर जी को लाया गया। आँखें लाल करके सिकंदर लोधी ने राजा ने कहा कि तूने शेखतकी को मारा है। उपस्थित काजी व मुसलमान जनता ने कहा कि कबीर जुलाहे की तलवार से गर्दन काट दो। परमेश्वर कबीर जी उठकर चल पड़े तो काजी तथा मुल्ला ने परमेश्वर की बांह (बाजुओं) को पकड़ लिया। परमेश्वर कबीर जी ने काजी को पाँच गर्दनी (सिर से टक्कर) मारी। पाँच टक्कर लगने से काजी गिर गया तथा उसकी गुदा बाहर को निकल गई। (काँच्य निकल गयी) मुल्ला ने कबीर जी को तुक्का (लात से ठोकर = पैर से ठोकर) मारा तो वह स्वयं ही दो बीक (कदम = दस फुट) दूर जा गिरा। सिकंदर राजा को परमेश्वर कबीर जी के मस्तिक में दोनों सेलियों के बीच (भृकुटी) में सूर्य तथा चन्द्रमा चमकते दिखाई दिए। राजा ने उठकर परमात्मा कबीर जी के कदम छूए तथा कहा कि आप परमात्मा का स्वरूप (अल्लाह की जात) हो। कबीर जी ने मृत शेखतकी के चुतड़ों पर तुक्का (लात) मारा। उसी समय शेखतकी पीर जीवित हो गया। परमेश्वर कबीर जी ने उपस्थित मुसलमान तथा हिन्दू जनता को पुनः सत्य उपदेश दिया। बहुतों ने कबीर जी से दीक्षा ली, परंतु जो गुरू पद पर थे तथा जो अपनी रोजी-रोटी (निर्वाह) जनता को भ्रमित करके चला रहे थे, वे नहीं माने। कबीर जी की मुँह बोली माता श्रीमति नीमा ने कहा, हे बेटा कबीर! तूने गाय तो जीवित कर दी थी, परंतु दूध निकालने की क्या आवश्यकता थी। उसी समय उठकर क्यों नहीं चल पड़ा? माता समझा रही थी कि ऐसे राक्षस स्वभाव के व्यक्ति के पास अधिक समय नहीं लगाना चाहिए।
पारख के अंग की वाणी नं. 636-648 का सरलार्थ:– परमेश्वर कबीर जी का उद्देश्य था कि हिन्दू तथा मुसलमान सब मेरे बच्चे हैं। इनको काल ब्रह्म (ज्योति निरंजन) भ्रमित कर रहा है। मेरी ही आत्माओं को मेरे से भिड़ा रहा है। मेरा उद्देश्य इनको पाप से बचाना है। इसलिए बार-बार यही कहा है कि हे काजी! गलत साधना त्याग दो। रोजा ना रखो। परमात्मा की सच्ची साधना करो। मानव जन्म का समय हाथ से छूट जाएगा। फिर नरक में डाला जाएगा। हे काजी! आपने परमात्मा की (रूह) आत्मा (गाय या अन्य जीव) मार दी। वह आपसे (राजी) प्रसन्न कैसे होगा? परमात्मा के दरबार में लेखा होगा। वहाँ आपका पाप सामने आएगा। पाप ना कर। परमात्मा के दरबार में जब पाप करने वाले का हिसाब होगा, उस समय चाहे करोड़, अरब-खरब अर्ज क्षमा करने के लिए करना, क्षमा नहीं होगे। काजी तथा मुल्ला व जो अन्य पाप करते हैं, जीव हिंसा करते हैं, नरक में डाले जाएँगे। सब (खोट) कसूर सामने रखे जाएँगे। काजी, मुल्ला तथा पंडित जो दोनों धर्मों के प्रचारक हैं, ये तीनों महादोषी ठहराए जाएँगे। काजी-मुल्ला ने गर्भ वाली गाय मार दी। उसमें गर्भ मरा, वह गाय मरी। गाय बच्चा उत्पन्न करती है, उसे ब्यांत कहते हैं। एक ब्यांत में आठ-नौ महीने दूध देती है। एक बच्चा देती है। घी-दूध खाते। माँस खाकर पाप के भागी बन गए। कुछ तो विचार करो। पवित्र पुस्तक कुरान को पढ़ते हो। पाप साथ-साथ करते हो। यह भक्ति नहीं है। धोखा हो रहा है। (बहीसत) स्वर्ग-स्वर्ग क्या करते हो? नरक में जाओगे। स्वर्ग में खूनी को जगह नहीं है। ब्राह्मण तो हिन्दुओं का (देव) देवता है, मुल्ला मुसलमानों का (पीर) मार्गदर्शक है। परमात्मा के दरबार में दोनों का दोष साबित होगा। ब्राह्मण शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण करते व करवाते हैं जो गीता अध्याय 16 श्लोक 23 में मना किया है। इसलिए दोषी हैं। देवी को बलि के लिए बकरा, झोटा काटकर चढ़ाते हैं। इसलिए भी ब्राह्मण यानि गुरू दोषी है। एक काजी ने तथा एक पंडित (गुरू) ने दोनों धर्मों को डुबो दिया। हिन्दू सूअर का माँस खाते हैं, मुसलमान गाय का। दोनों से राम कहो चाहे रहीम, बहुत दूर है यानि परमात्मा तो ऐसे व्यक्तियों से सौ कोस (तीन सौ किलोमीटर) दूर है।
सब पंथों के हिन्दुओं को भक्ति-शक्ति में कबीर जी द्वारा पराजित करना
पारख के अंग की वाणी नं. 649-702:-
पंडित सिमटे पुरीके, काजी करी फिलादी। गरीबदास दहूँ दीन की, जुलहै खोई दादि।।649।।
च्यारि बेद षटशास्त्रा, काढे अठारा पुराण। गरीबदास चर्चा करैं, आ जुलहै सैतान।।650।।
तूं जुलहा सैतान है, मोमन ल्याया सीत। गरीबदास इस पुरी में, कौन तुम्हारा मीत।।651।।
तूं एकलखोर एकला रहै, दूजा नहीं सुहाय। गरीबदास काजी पंडित, मारैं तुझै हराय।652।।
सुनि ब्रह्मा के बेद, तूं नीच जाति कुल हीन। गरीबदास काजी पंडित, सिमटैं दोनौं दीन।।653।।
च्यारि बेद षटशास्त्रा, अठारा पुराण की प्रीति। गरीबदास पंडित कहैं, सुन जुलहे मेरे मीत।।654।।
ज्ञान ध्यान असनान करि, सेवौ सालिग्राम। गरीबदास पंडित कहैं, सुनि जुलहे बरियाम।।655।।
बोलै जुलहा अगम गति, सुन पंडित प्रबीन। गरीबदास पत्थर पटकि, हौंना पद ल्यौ लीन।।656।।
अनंत कोटि ब्रह्मा गये, अनंत कोटि गये बेद। गरीबदास गति अगम है, कोई न जानैं भेद।।657।।
अनंत कोटि सालिग गये, साथै सेवनहार। गरीबदास वह अगम पंथ, जुलहे कूं दीदार।।658।।
काजी पंडित सब गये, शाह सिकंदर पास। गरीबदास उस सरे में, सबकी बुद्धि का नाश।।659।।
कबीर और रैदास ने, भक्ति बिगारी समूल। गरीबदास द्वै नीच हैं, करते भक्ति अदूल।।660।।
हिंदूसैं नहीं राम राम, मुसलमान सलाम। गरीबदास दहूँ दीन बिच, ये दोनों बे काम।।661।।
उमटी काशी सब गई, षट दर्शन खलील। गरीबदास द्वै नीच हैं, इन मारत क्या ढील।।662।।
दंडी सन्यासी तहां, सिमटे हैं बैराग। गरीबदास तहां कनफटा, भई सबन सें लाग।।663।।
एक उदासी बनखंडी, फूल पान फल भोग। गरीबदास मारन चले, सब काशी के लोग।।664।।
बीतराग बहरूपीया, जटा मुकुट महिमंत। गरीबदास दश दश पुरुष, भेडौं के से जन्त।।665।।
भस्म रमायें भुस भरैं, भद्र मुंड कचकोल। गरीबदास ऐसे सजे, हाथौं मुगदर गोल।।666।।
छोटी गर्दन पेट बडे़, नाक मुख शिर ढाल। गरीबदास ऐसे सजे, काशी उमटी काल।।667।।
काले मुहडे जिनौं के, पग सांकल संकेत। गरीबदास गलरी बौहत, कूदैं जांनि प्रेत।।668।।
गाल बजावैं बंब बंब, मस्तक तिलक सिंदूर। गरीबदास कोई भंग भख, कोई उडावैं धूर।।669।।
रत्नाले माथे करैं, जैसैं रापति फील। गरीबदास अंधे बहुत, फेरैं चिसम्यौं लील।।670।।
लीले चिसम्यौं अंधले, मुख बांवै खंजूस। गरीबदास मारन चले, हाथौं कूंचैं फूस।।671।।
जुलहे और चमार परि, हुई चढाई जोर। गरीबदास पत्थर लिये, मारैं जुलहे तोर।।672।।
तिलक तिलंगी बैल जूं, सौ सौ सालिगराम। गरीबदास चैकी बौहत, उस काशी के धाम।।673।।
घर घर चैकी पथरपट, काली शिला सुपेद। गरीबदास उस सौंज पर, धरि दिये चारौं बेद।।674।।
ताल मंजीरे बजत हैं, कूदै दागड़ दुम। गरीबदास खर पीठ हैं, नाक जिन्हौं के सुम।।675।।
पंडित और बैराग सब, हुवा इकठा आंनि। गरीबदास एक गुल भया, चैकी धरी पषांन।।676।।
एक पत्थर भूरी शिला, एक काली कुलीन। गरीबदास एक गोल गिरद, एक लाम्बी लम्बीन।।677।।
एक पीतल की मूरती, एक चांदी का चैक। गरीबदास एक नाम बिन, सूना है त्रिलोक।।678।।
एक सौने का सालिगं, जरीबाब पहिरांन। गरीबदास इस मनुष्य सैं, अकल बडी अक श्वान।।679।।
काशीपुरी के सालिगं, सबै समटे आय। गरीबदास कुत्ता तहां, मूतैं टांग उठाय।।680।।
कुत्ता मुख में मूति है, कैसै सालिगराम। गरीबदास जुलहा कहै, गई अकल किस गाम।।681।।
धोय धाय नीके किये, फिरि आय मारी धार। गरीबदास उस पुरी में, हंसें जुलाहा और चमार।।682।।
तीन बार मुख मूतिया, सालिग भये अशुद्ध। गरीबदास चहूँ बेद में, ना मूर्ति की बुद्धि।।683।।
भृष्ट हुई काशी सबै, ठाकुर कुत्ता मूंति। गरीबदास पतथर चलैं, नागा मिसरी सूंति।।684।।
किलकारैं दुदकारहीं, कूदैं कुतक फिराय। गरीबदास दरगह तमाम, काशी उमटी आय।।685।।
होम धूप और दीप करि, भेख रह्या शिर पीटि। गरीबदास बिधि साधि करि, फूकैं बौहत अंगीठ।।686।।
काशीके पंडित लगे, कीना होम हजूंम। गरीबदास उस पुरी में, परी अधिकसी धूम।।687।।
चैकी सालिगराम की, मसकी एक न तिल। गरीबदास कहै पातशाह, षटदर्शन कि गल।।688।।
धूप दीप मंदे परे, होम सिराये भेख। दास गरीब कबीर ने, राखी भक्ति की टेक।।689।।
सत कबीर रैदासतूं, कहै सिकंदर शाह। गरीबदास तो भक्ति सच, लीजै सौंज बुलाय।।690।।
कहै कबीर सुनि पातशाह, सुनि हमरी अरदास। गरीबदास कुल नीचकै, क्यौं आवैं हरि पास।।691।।
दीन बचन आधीनवन्त, बोलत मधुरे बैन। गरीबदास कुण्डल हिरद, चढे गगन गिरद गैंन।।692।।
लीला की पुरूष कबीर ने, सत्यनाम उचार। गरीबदास गावन लगे, जुलहा और चमार।।693।।
दहनैं तौ रैदास है, बामी भुजा कबीर। गरीबदास सुर बांधि करि, मिल्या राग तसमीर।694।।
रागरंग साहिब गाया लीला कीन्ही ततकाल। गरीबदास काशीपुरी, सौंज पगौं बिन चाल।।695।।
सौंज चली बिन पगौंसैं, जुलहै लीन्ही गोद। गरीबदास पंडित पटकि, चले अठारा बोध।।696।।
जुलहे और चमारकै, भक्ति गई किस हेत। गरीबदास इन पंडितौंका, रहि गया खाली खेत।।697।।
खाली खेत कुहेतसैं, बीज बिना क्या होय। गरीबदास एक नाम बिन, पैज पिछौड़ी तोय।।698।।
तत्वज्ञान हीन श्वान ज्यों, ह्ना ह्ना करै हमेश। दासगरीब कबीर हरि का दुर्लभ है वह देश।।699।।
दुर्लभ देश कबीर का, राई ना ठहराय। गरीबदास पत्थर शिला, ब्राह्मण रहे उठाय।।700।।
पत्थर शिलासैं ना भला, मिसर कसर तुझ मांहि। गरीबदास निज नाम बिन, सब नरक कूं जांहि।।701।।
जटाजूट और भद्र भेख, पैज पिछौड़ी हीन। गरीबदास जुलहा सिरै, और रैदास कुलीन।।702।।
राग निहपाल से शब्द नं. 1:-
जालिम जुलहै जारति लाई, ऐसा नाद बजाया है।।टेक।। काजी पंडित पकरि पछारे, तिन कूं ज्वाब न आया है। षट्दर्शन सब खारज कीन्हें, दोन्यौं दीन चिताया है।।1।। सुर नर मुनिजन भेद पावैं, दहूं का पीर कहाया है। शेष महेश गणेश रु थाके, जिन कूं पार न पाया है।।2।। नौ औतार हेरि सब हारे, जुलहा नहीं हराया है। चरचा आंनि परी ब्रह्मा सैं, चार्यों बेद हराया है।।3।। मघर देश कूं किया पयांना, दोन्यौं दीन डुराया है। घोर कफन हम काठी दीजौ, चदरि फूल बिछाया है।।4।। गैबी मजलि मारफति औंड़ी, चादरि बीचि न पाया है। काशी बासी है अबिनाशी, नाद बिंद नहीं आया है।।5।। नां गाड्या ना जार्या जुलहा, शब्द अतीत समाया है।च्यारि दाग सें रहित सतगुरु, सौ हमरै मन भाया है।।6।। मुक्ति लोक के मिले प्रगनें, अटलि पटा लिखवाया है। फिरि तागीर करै ना कोई, धुर का चाकर लाया है।।7।। तखत हिजूरी चाकर लागे, सति का दाग दगाया है। सतलोक में सेज हमारी, अबिगत नगर बसाया है।।8।। चंपा नूर तूर बहु भांती, आंनि पदम झलकाया है। धन्य बंदी छोड़ कबीर गोसांई, दास गरीब बधाया है।।9।। 1।।
पारख के अंग की वाणी नं. 649-702 का सरलार्थ:– काजी तथा पंडितों ने विचार-विमर्श किया कि राजा सिकंदर को तो सिद्धि दिखाकर प्रभावित कर लिया। यह कुछ करने वाला नहीं है। तब उन्होंने कबीर परमेश्वर जी को शास्त्रार्थ की चुनौती दी।
शास्त्रार्थ में भी काजी-पंडितों की किरकिरी हो गई तो सिकंदर राजा के पास फिर गए और कहा कि आप अपने सामने हमारी तथा कबीर जी की सिद्धि-शक्ति का परीक्षण करो। हमारा मुकाबला (competition) कराओ। उस समय भिन्न-भिन्न प्रकार के साधक, कोई कनफटा नाथ परंपरा से, दण्डी स्वामी, सन्यासी, षटदर्शनी वाले बाबा सब इकट्ठे हुए थे जो संत कबीर जी से ईष्र्या करते थे। हाथों में पत्थर लेकर कबीर जी से कहने लगे कि तू हमारे देवताओं का अपमान करता है। हे जुलाहे! तुझे पत्थर मारेंगे। सिकंदर लोधी के पास जाकर पंडितों तथा मुल्ला-काजियों ने कहा कि कबीर जुलाहा पापी है। उसके दिल में दया नहीं है। वह सबके धर्मों में दोष देखता है। हिन्दुओं से राम-राम नहीं करता तथा मुसलमानों से सलाम भी नहीं करता। कुछ और ही बोलता है। सत साहेब।
संत गरीबदास जी ने तर्क दिया है कि उस काशी नगरी के सब ही नागरिकों की बुद्धि का नाश हो चुका था जो परमात्मा को तो नीच कह रहे थे तथा अपनी गलत साधना को उत्तम बता रहे थे और दयावान कबीर परमेश्वर जी को निर्दयी बता रहे थे। स्वयं जो सर्व व्यसन करते थे, लोगों को ठगते थे, अपने को श्रेष्ठ कह रहे थे।
राजा सिकंदर ने कहा कि आप तथा कबीर एक स्थान पर इकट्ठे होकर अपना एक ही बार फैसला कर लो। बार-बार के झगड़े अच्छे नहीं होते। पंडित तथा अन्य हिन्दू संत एक ओर तथा कबीर जी तथा रविदास जी एक ओर।
एक निश्चित स्थान पर आमने-सामने बैठ गए। मध्य में 20 फुट की दूरी रखी गई जहाँ पर पत्थर की सुंदर टुकड़ियों पर देवताओं की मूर्तियाँ रखी थी तथा शर्त रखी गई कि पत्थर की एक शिला (सुंदर चकोर टुकड़ी) पर चारों वेद रखे जाएंगे तथा अन्य शिलाओं पर चाँदी, सोने तथा पत्थर के सालिग्राम (विष्णु तथा लक्ष्मी व गणेश आदि देवताओं की मूर्तियाँ) रखी जाएंगी। जिनकी सत्य भक्ति होगी, उनकी ओर शिला ही चलकर जाएगी।
ऐसा ही किया गया। जब पत्थर की शिला पर देवताओं की मूर्ति रखी और पंडितजन वेद वाणी पढ़ने लगे। उसी समय कुत्ता आया और उन पत्थर के देवताओं के मुख में टाँग उठाकर मूतकर भाग गया। धो-मांजकर साफ करके फिर सजाए। फिर कुत्ता आया, मूत की धार मारकर दौड़ गया। परमेश्वर कबीर जी तथा संत रविदास जी बहुत हँसे। ऐसा तीन बार किया। फिर विशेष सुरक्षा में मूर्ति रखकर पहले पंडितों ने अपनी भक्ति प्रारम्भ की। हवन किए, वेदों के मंत्रों का उच्चारण किया, परंतु जिस चैकी (सुसज्जित पत्थर की शिला जिस पर देव मूर्तियाँ रखी थी) टस से मस नहीं हुई। राजा सिकंदर ने कहा कि हे कबीर जी! आप अपनी भक्ति-शक्ति से इन देवताओं को अपनी ओर बुलाओ। कबीर जी ने कहा कि राजन! जब उच्च जाति के स्वच्छ वस्त्रा धारण किए हुए स्नान किए हुए पंडितों से देवता अपनी ओर नहीं बुलाए गए तो मुझ शुद्र के पास इनके देवता कैसे आएँगे? सिकंदर लोधी बादशाह ने कहा कि हे कबीर जी! आपकी सच्ची भक्ति है। आप इन देवताओं को बुलाओ। कबीर जी ने सत्यनाम का श्वांस से जाप किया तथा रविदास के साथ अपनी महिमा के शब्द गाने लगे। उसी समय पत्थर की शिला तथा उन पर रखे पत्थर, पीतल के देवता अपने आप सरक कर (धीरे-धीरे चलकर) सब कबीर जी की गोद में बैठ गए। यह देखकर पंडित जी उन अठारह बोध वाली पुस्तकों (चारों वेद, पुरण, छः शास्त्र, उपनिषद आदि कुल अठारह बोध यानि ज्ञान की पुस्तकें मानी गई हैं, को) वहीं पटककर चले पड़े क्योंकि उनको कुत्ते के मूत की बूँदें (छींटें) लग गई थी।
सब उपस्थित नकली विद्वान विचार करने लगे कि कबीर जुलाहे यानि शुद्र जाति वाले के पास भक्ति कैसे गई? परंतु वे अभिमानी-बेईमान अज्ञानी पंडित तथा काजी-मुल्ला व अन्य संत फिर भी परमात्मा के चरणों में नहीं गिरे।