नौंवीं किस्त
राधा स्वामी पंथ की कहानी-उन्हीं की जुबानी: जगत गुरु
(धन-धन सतगुरु, सच्चा सौदा तथा जय गुरुदेव पंथ भी राधास्वामी की शाखाएं हैं)
(नौवीं किस्त)
(---- गतांक से आगे)
भक्त दया सिंह दास(राधास्वामी पंथी) की आत्मकथा
मैं दया सिंह गाँव छोटा सिंहपुरा जि. रोहतक का रहने वाला हूँ। मैंने राधास्वामी पंथ में श्री दर्शन सिंह जी महाराज(दिल्ली वाले) से सन् 1983 में पाँच नामों का उपदेश लिया। सन्त दर्शन सिंह जी के बताए अनुसार साधना की धुन सुनने के लिए कई-कई घण्टों कान-आँख बंद करके साधना करता रहा। कुछ धुने तो सुनी परन्तु कान खराब हो गये। बहुत कम सुनता है। मेरे रिश्तेदार ने सन्त रामपाल जी महाराज सतलोक आश्रम करौंथा से नाम उपदेश ले रखा था। वह मुझसे कहता था कि मौसा जी आप भी हमारे गुरू जी से नाम ले लो। आपकी साधना तथा नाम गलत हैं। मैं कहता था। वाह जी वाह! क्या बात करता है। हमारे(राधास्वामी) पंथ में लाखों की संख्या में संगत है। जिनमें कर्नल साहब, कमिश्नर साहब, तहसीलदार साहब, मजिस्ट्रेट साहब तथा वकील साहब भी उपदेश लिये हैं। क्या वे मूर्ख हैं ? मेरे से फिर मत कहना गुरू बदलने को। कुछ दिन बाद मेरा एक पुत्र ट्रैक्टर चला रहा था रेल की लाईन पार करने लगा उस सड़क पर रेल की फाटक नहीं लगी थी। रेलगाड़ी से टकराकर मृत्यु को प्राप्त हुआ। मेरे रिश्तेदार ने मुझे फिर समझाया मैं नही माना परन्तु मेरे अन्य परिवार के सर्व सदस्यों ने सन्त रामपाल जी महाराज से उपदेश ले लिया। मैं भी उनके साथ सतलोक आश्रम में जाने लगा। स्पीकर के साथ बैठकर कान लगा कर सत्संग सुनता था। जो त्रुटियाँ सन्त रामपाल जी महाराज हमारे राधास्वामी पंथ की पुस्तकों में बताते थे। उन पुस्तकों का नाम तथा पृष्ठ व वचन संख्या नोट कर लेता फिर घर जाकर मिलान करता तो सत्संग में बताया विवरण सत्य मिलता तथा ढेर सारी त्रुटियाँ राधास्वामी पंथ के मुखिया श्री शिवदयाल जी महाराज (राधास्वामी) जी के वचनों में मिली। जिनका कोई सिर-पैर नहीं है। पुस्तक सारवचन राधास्वामी वार्तिक पृष्ठ-3 वचन 4 में सतनाम के स्थान के विषय में लिखा है। उसी (सतनाम) को सतशब्द और सारशब्द और सतलोक और सच्चखण्ड और सतपुरूष और सतनाम भी कहते हैं। राधास्वामी के विषय में लिखा है कि राधास्वामी सबसे ऊँचा मुकाम (स्थान) है। यही नाम सच्चे मालिक का है। इसे स्थान भी नहीं कह सकते, इसे कहते है।
सन्त रामपाल जी के सत्संग वचनों के आधार से ‘‘जीवन चरित्र हजूर स्वामी जी महाराज’’ पुस्तक के वचन 31 में देखा श्री शिवदयाल जी महाराज (राधास्वामी पंथ के प्रर्वतक) का कोई गुरू नहीं था। वचन 65 में देखा वे हुक्का पीते थे। उन्होंने किसी को (जैमल सिंह जी महाराज या सालगराम जी आदि को) नामदान करने का आदेश नहीं दिया था। श्री सावन सिंह जी महाराज को श्री जैमल सिंह जी महाराज के बाद डेरा ब्यास पंजाब की गद्दी प्राप्त हुई। श्री सावन सिंह जी महाराज के शिष्य श्री कृपाल सिंह जी थे। श्री कृपाल सिंह को नाम दान का अधिकार नहीं था। इसी पुस्तक ‘‘जीवन चरित्र हजूर स्वामी जी महाराज’’ वचन 65 में देखा कि वे अपने शिष्या बुक्की में प्रवेश करके प्रेत बनकर बोलते थे। मृत्यु पश्चात भी बुक्की के द्वारा(बुक्की के मुख से) हुक्का पीते थे तथा भोजन भी खाते थे। बुक्की में उसके जीवन पर्यन्त प्रवेश रहे। इस तरह के प्रमाण देखकर मैंने(दया सिंह दास ने) भी सन्त रामपाल जी महाराज से नामदान ले लिया। मेरे शरीर में गलत साधना हठयोग द्वारा करने से कई रोग हो गये थे। जिनसे बहुत परेशान रहता था। सन्त रामपाल जी महाराज से उपदेश लेने के पश्चात् सर्व रोग भी समाप्त हो गये। हमारे को राधास्वामी पंथ में सतपुरूष निराकार बताया जाता था तथा प्रारब्ध कर्म का दुःख या सुख भोगना ही पड़ेगा, भक्ति करते रहो सतलोक पहुँच जाओगे। सन्तमत भाग-4 पृष्ठ 125ए126 पर श्री सावन सिंह महाराज ने स्पष्ट मना किया है कि सतगुरू का काम किसी की बिमारी हटाना अर्थात कष्ट दूर करना नहीं है। सन्त रामपाल जी ने प्रमाण दिखाए की सार वचन वार्तिक पुस्तक जो श्री शिवदयाल जी(राधास्वामी) द्वारा सत्संग वचनों को संग्रह है में भाग प्रथम वचन 12 लिखा है कि सतलोक में गए भक्त सतपुरूष का दर्शन करते हैं। निराकार का दर्शन कैसा? अपने विचारों को आप ही गलत सिद्ध किया है।
सन्त रामपाल जी महाराज ने बताया कि पूर्ण परमात्मा कबीर जी अपने साधक के प्रारब्ध के पाप कर्म से होने वाले कष्ट का निवारण कर देता है। यदि किसी के पैर में कांटा लगा हो। उसे कोई कहे कि कांटा तो निकल नहीं सकता आप जूते पहन लो भविष्य में कांटा नहीं लगेगा। कांटा लगे पैर में जूता पहना नहीं जा सकता। पहले कांटा निकले फिर जूता पहना जाएगा। फिर कभी जूते नहीं निकालेगा उसे डर रहेगा कहीं फिर कांटा न लग जाऐ। इसी प्रकार साधक का दुःख रूपी कांटा निकलेगा अर्थात कष्ट निवारण होगा तो वह फिर अधिक साधना करेगा। कष्ट निवारण नहीं हुआ तो भक्ति में रूचि ही नहीं बन सकती।
मैंने पूर्ण सन्त रामपाल जी महाराज से प्रश्न किया:-हे महाराज ! मैं जो आँखें बंद करके कुछ प्रकाश देखता था वह क्या है? जगत् गुरू रामपाल जी महाराज ने उत्तर दिया:- जैसे सर्दी के मौसम में धुंध गिरती है। सूर्य का प्रकाश नाम मात्र दिखाई देता है। परन्तु सूर्य दिखाई नहीं देता। सूर्य धुंध से ऊपर साकार चमक रहा होता है उसी का प्रकाश धुंध को पार करके नीचे आ रहा होता है कोई कहे कि मैंने सूर्य का प्रकाश देखा। परन्तु सूर्य निराकार है, क्या ये विचार समझदार व्यक्ति के हो सकते हैं? वास्तव में पूर्ण परमात्मा अर्थात् सतपुरूष मानव जैसे तेजोमय शरीर में साकार है तथा उसी पूर्ण परमात्मा के प्रकाश का प्रतिबिम्बित प्रकाश का अंश ही काल(ब्रह्म) के इक्कीस ब्रह्मण्डों में दिखाई देता है। इस ब्रह्मण्डिय प्रकाश को पिण्ड(शरीर) में देखना परमात्मा प्राप्ति नहीं है। अपितु काल(ब्रह्म) द्वारा फैलाया मिथ्या भ्रम जाल है। जैसे सूर्य का प्रकाश जल पर गिरा, जल से प्रतिबिम्ब दिवार पर पड़ा। दिवार पर सूर्य दिखाई नहीं देता केवल प्रकाश दिखाई देता है। इसी प्रकाश सतपुरूष का प्रकाश परब्रह्म तथा ब्रह्म के अन्य लोकों में ऐसे दिखाई देता है जैसे दिवार पर सूर्य के प्रकाश का जल से बना प्रतिबिम्ब होता है। उपरोक्त प्रमाणों से सिद्ध है कि जो परमात्मा को निराकार कहते हैं व कहते है कि केवल प्रकाश देखा जा सकता है तथा गुरू रूप में ही सत्यपुरूष के दर्शन घट(शरीर/पिण्ड में) करना परमात्मा प्राप्ति है तथा शरीर में धुन सुनना ही प्रभु प्राप्ति का प्रतीक है, वे मिथ्या भाषी हैं। उनका ज्ञान व साधना शास्त्र विरूद्ध व मनघड़ंत है। क्योंकि शरीर (पिण्ड) में सुनी जाने वाली धुन तो काल के लोक की हैं। सतलोक की वास्तविक धुन तो पिण्ड(अण्ड) के पार है जिसका प्रमाण शब्द ‘‘कर नैनों दीदार महल में प्यारा है’’ की 31-32 कली में है।
उपरोक्त प्रमाणों को देखकर तथा संत रामपाल जी से तत्व ज्ञान को सुनकर कलेजा मुंह को आने लगा। हे प्रभु ! कितने वर्ष खो दिए नादानों के चक्र में। सर्व शंकाओं का समाधान होने पर सन्त रामपाल जी महाराज का उपदेश प्राप्त करके आत्मिक शान्ति प्राप्त हुई तथा शरीर का सुख, धन लाभ तथा परिवार में सुख पूर्ण रूप से प्राप्त है।
मेरी सर्व प्रेमी पाठकों से विनम्र निवेदन है कि आप भी प्रमाणों को स्वयं देखो तथा सत्य को जानकर अपना जीवन सफल करें। अतिशीघ्र सन्त रामपाल जी महाराज से उपदेश ग्रहण करें।
सतगुरु चरणों का दास
भक्त दया सिंह दास
कुछेक श्रद्धालु कहते हैं कि गुरू बदलने में पाप तो नहीं लगेगा? उन श्रद्धालुओं से निवेदन है कि जैसे एक डाक्टर(वैद्य) से उपचार नहीं होता है तो दूसरा डाक्टर बदलने में लाभ होता है हानि नहीं होती। ठीक इसी प्रकार गुरू को जानो। इसलिए शास्त्रविधि विरूद्ध ज्ञान वाले गुरू को त्यागकर पूर्ण गुरू धारण करना हितकर है। पाप नहीं पूण्य है। कुछ श्रद्धालु संकोच करते हैं कि हम तीस वर्ष की साधना का क्या होगा? अब कैसे छोड़ें? उन श्रद्धालुओं से निवेदन हैं कि विचार करें कि आपको किसी शहर में जाना है, तीस किलोमीटर जाने के बाद पता चले कि आप गलत रास्ते पर जा रहे हैं, तो तुरंत मुड़ जाना चाहिए। नहीं तो मंजिल दूर होती जाएगी। फिर भी कोई कहे कि हम तो तीस किलोमीटर सफर तय कर चुके हैं, अब कैसे छोड़ें इस रास्ते को? यह विचार तो बालक के या शराबी के हो सकते हैं। समझदार तो तुरंत मुड़ जाएगा। इसलिए उस साधना को तुरंत त्यागकर वास्तविक शास्त्रविधि अनुसार साधना ग्रहण करें।
कबीर परमेश्वर कहते हैं किः-
झूठे गुरू को त्यागन में तनिक न लावे वार। द्वार न पावै शब्द का भटकै द्वार-द्वार।
कृप्या निशंकोच अधुरे गुरू को त्याग दें तथा पूर्ण सन्त की शरण ग्रहण करें।
सर्व ब्रह्मण्डों का वर्णन:-
शेष अगले अंक में ----------------
पुस्तक ‘‘परमात्मा का साक्षात्कार’’ पृष्ठ 1.2 से फोटो कापी। (I)
पुस्तक ‘‘जीवन चरित्र बाबा जैमल सिंह’’ पृष्ठ 102, 103 से फोटो कापी (II)
पुस्तक ‘‘जीवन चरित्र बाबा जैमल सिंह’’ पृष्ठ 20 से फोटो कापी। (III)
पुस्तक सन्तमत प्रकाश भाग-4 पृष्ठ - 264 से फोटो कापी। (IV)