चौथी किस्त
राधा स्वामी पंथ की कहानी-उन्हीं की जुबानी: जगत गुरु
(धन-धन सतगुरु, सच्चा सौदा तथा जय गुरुदेव पंथ भी राधास्वामी की शाखाएं हैं)
(चौथी किस्त)
(8 अप्रैल 2006 को पंजाब केसरी में प्रकाशित)
(---- गतांक से आगे)
प्रश्नः- पूर्ण सन्त की पहचान कैसे करें? जिस भी सन्त के विचार सुनते हैं वह पूर्ण लगता है।
राधास्वामी पंथ में तो हमें बताया है कि सतलोक अर्थात सतनाम में सतपुरूष निराकार है। केवल प्रकाश ही प्रकाश है। आत्मा का सतपुरूष में विलीन हो जाना ही मोक्ष है। धुन सुनना ही सतपुरूष प्राप्ति है। मैंने 4 से 8 घण्टे तक अभ्यास कर के देख लिया कोई मण्डल दिखाई नहीं दिए। जो प्रकाश व धुन कुछ दिन बाद दिखने तथा सुनने लगा था वही चल रहा है, कान भी खराब हो गए, पैरों में भी कमजोरी आ गई है। आप के द्वारा लिखी पुस्तकों ‘‘परमेश्वर का सार संदेश’’ तथा ‘‘गहरी नजर गीता में’’ ने तो आँखें खोल दी हैं। समाचार पत्रों में आप के लेख पढ़ने से लग रहा है कि शायद परमात्मा फिर से निकट आ रहा है। कृप्या पूर्ण सन्त की प्रमाणित पहचान बताऐं।
उत्तरः- पूर्ण सन्त की पहचान(1):- राधास्वामी पंथ के प्रथम सन्त माने जाने वाले श्री शिवदयाल जी उर्फ राधास्वामी जी को ज्ञान ही नहीं कि सतनाम क्या वस्तु है। श्री शिव दयाल जी तथा उनके अनुयाई मोक्ष प्राप्त ही नहीं कर सकते। वे सतनाम को स्थान भी कहते हैं कहीं पर कहा है सतनाम हमारी जाति है, कहीं पर सतपुरूष कहते हैं, कहीं पर सारनाम कहते हैं, कहीं पर सतलोक कहते हैं तथा पांच नाम सतनाम का जाप भी है। जब की सतनाम दो अक्षर का मन्त्र है। जिसमें एक ओम् तथा दूसरा तत्(जो सांकेतिक है केवल उपदेशी को ही बताया जाएगा) तथा इस दो अक्षर के सतनाम की कमाई करने के पश्चात् एक मन्त्र और दिया जाएगा जो सारनाम (सत शब्द) कहा जाता है।
कृप्या पढ़ें पूर्ण सन्त की पहचान:- जैसे राजा का संविधान है। ऐसे ही पवित्र शास्त्र परमात्मा का संविधान है जो किसी व्यक्ति विशेष का बनाया हुआ नहीं है। स्वयं प्रभु प्रदत्त है। पवित्र चारों वेद ब्रह्म सृष्टि के आदि ग्रन्थ हैं जो ब्रह्म(काल अर्थात ज्योति निरंजन) द्वारा बोले गए हैं। इन्हीं चारों वेदों का सारांश पवित्र श्रीमद्भगवत गीता जी है जो काल भगवान(ब्रह्म/क्षर पुरूष) द्वारा श्री कृष्ण जी में प्रवेश करके बोला गया अमृत ज्ञान है। जिसमें काल प्रभु की भक्ति तक का ज्ञान है तथा पूर्ण परमात्मा (सतपुरूष) का तथा सतलोक का भी ज्ञान है। परन्तु भक्ति विधि केवल काल ब्रह्म (क्षर पुरूष) तक की ही है परन्तु पूर्ण परमात्मा की साधना तथा तत्व ज्ञान को किसी तत्वदर्शी(पूर्ण) सन्त से जानने को कहा है (गीता अध्याय 4 श्लोक 34)। क्योंकि पवित्र चारों वेद तथा पवित्र श्री मद्भगवत गीता जी को ऐसा ज्ञान जानो जैसे दसवीं कक्षा तक का पाठ्यक्रम। पाँचवां वेद जिसे स्वसम वेद(सूक्ष्म वेद) कहते हैं जिसमें चारों वेद तथा गीता जी तथा इनसे ऊपर का भी ज्ञान है। वह पूर्ण परमात्मा अर्थात सत्पुरूष कविर्देव(कबीर परमेश्वर) ने स्वयं सतलोक से आकर काल लोक में अपनी अमृत वाणी(कबीर वाणी) द्वारा स्वयं प्रकट किया है। जो काल भगवान(क्षर पुरूष) ने समाप्त कर दिया था। जैसे किसी अपराध की धारा के विषय में पाँच वकील अपना-2 मत व्यक्त कर रहे हैं। एक कहता है इस अपराध पर संविधान की धारा 304 लगेगी, दूसरा कहता है 307 लगेगी, तीसरा कहता है 305 लगेगी, चैथा कहता है 376 लगेगी, पाँचवा कहता है 311-बी लगेगी। वे पाँचों वकील ठीक नहीं हो सकते। कौन सी धारा ठीक है यह निर्णय देश के संविधान से ही होगा। संविधान में लिखा विवरण अन्तिम तथा सत्य मान्य होता है।
ठीक इसी प्रकार परमात्मा के ज्ञान तथा भक्ति मार्ग की जांच के लिए पवित्र सद्ग्रन्थों को ही आधार माना जाएगा। पवित्र गीता जी में तथा पवित्र चारों वेदों में तथा(पांचवें वेद) कविर्देव (कबीर परमेश्वर) की अमृत वाणी में सर्व ज्ञान तथा भक्ति विधि स्पष्ट लिखी है। पहले पवित्र गीता जी को आधार मान कर ज्ञान ग्रहण करते हैं। पवित्र गीता जी में तीनों प्रभुओं {ब्रह्म (क्षर पुरूष/काल) तथा परब्रह्म (अक्षर पुरूष) तथा पूर्ण ब्रह्म (परम अक्षर पुरूष अर्थात सतपुरूष)} की भी जानकारी है।
गीता जी का ज्ञान ब्रह्म (क्षर पुरूष/काल) द्वारा दिया गया है। गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में कहा है कि पूर्ण परमात्मा (परम अक्षर ब्रह्म) की प्राप्ति के लिए ॐ-तत्-सत् इस तीन मन्त्र के जाप करने का निर्देश है। गीता अध्याय 8 श्लोक 13 में गीता ज्ञान दाता प्रभु ने कहा कि पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति का ॐ-तत्-सत् तीन मन्त्र का जाप है उस मन्त्र में मेरी भक्ति (साधना) का केवल एक ओम् (ॐ) अक्षर है जिसका उच्चारण करके स्मरण करना है। जो साधक अन्तिम स्वांस तक मेरा स्मरण करता हुआ प्राण त्याग जाता है उसे परमगति प्राप्त होती है। अकेला ॐ नाम का जाप काल ब्रह्म की साधना का है। तथा ब्रह्म साधना का प्रतिफल स्वर्ग- महास्वर्ग प्राप्ति, फिर पाप कर्म आधार से नरक का भोग तथा चैरासी लाख योनियों में जन्म-मृत्यु का कष्ट सदा बना रहेगा। केवल जैसा कर्म प्राणी (पाप-पुण्य) करता है वह दोनों का फल भोगता है। इसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता (केवल पूर्ण परमात्मा की साधना करने से पाप कर्म दण्ड समाप्त होता है)।
इसी का प्रमाण गीता ज्ञान दाता प्रभु गीता अध्याय 4 श्लोक 5 में कहता है कि अर्जुन तेरे तथा मेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं, तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। गीता अध्याय 2 श्लोक 12 में भी यही प्रमाण है तथा गीता अध्याय 2 श्लोक 17 तथा गीता अध्याय 18 श्लोक 62, गीता अध्याय 15 श्लोक 4, 17 में अपने से अन्य पूर्ण परमात्मा (परमेश्वर) के विषय में कहा है तथा वही वास्तव में अविनाशी परमात्मा है। वही सर्व ब्रह्मण्डों का रचनहार है। उसी की शरण में जाने से जन्म-मृत्यु का रोग पूर्ण रूप से समाप्त हो जाएगा अर्थात पूर्ण मोक्ष प्राप्त हो जाएगा।
उसे पूर्ण परमात्मा (सतपुरूष अर्थात अविनाशी परमेश्वर) के तत्वज्ञान तथा भक्ति विधि के विषय में गीता अध्याय 4 श्लोक 32 में कहा है कि परमेश्वर को प्राप्त करने के लिए बहुत विस्तृत साधनाओं का ज्ञान स्वयं परमेश्वर ने अपने मुख से मुख्य ज्ञान में अर्थात् तत्वज्ञान में कहा फिर गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में कहा कि उस तत्वज्ञान को समझ उसको समझने के लिए तत्वदर्शी सन्तों की खोज कर। फिर उन तत्वदर्शी सन्तों को विनम्र भाव से डण्डवत् प्रणाम करके प्रार्थना पूर्वक प्रश्न करने पर वे तत्व ज्ञान को जानने वाले तत्वदर्शी सन्त तुझे तत्वज्ञान सुनाऐंगे। उस पूर्ण परमात्मा के तत्व ज्ञान को समझ तथा जैसे वे साधना बतायें वैसे कर। (प्रमाण गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में है।)
गीता अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 में गीता ज्ञान दाता प्रभु ने कहा है कि यह संसार उल्टे लटके वृक्ष तुल्य जानो जिसकी मूल तो ऊपर को है तथा शाखाएं नीचे को हैं। ऊपर को जड़ें तो पूर्ण परमात्मा जानो तथा तीनों गुणों (रजगुण-ब्रह्माजी, सतगुण-विष्णुजी तथा तमगुण-शिवजी) रूपी शाखाऐं जानो। गीता ज्ञान दाता प्रभु ने कहा है कि मेरे तथा तेरे इस विचार काल में अर्थात् गीता ज्ञान में आपको मैं पूर्ण रूप से इस संसार रूपी वृक्ष (सृष्टि रचना) का ज्ञान नहीं बता सकता।
क्योंकि इसके आदि तथा अंत से मैं अपरीचित हूँ। इस उलझी हुई ज्ञान गुत्थी को तत्व ज्ञान रूपी शस्त्र द्वारा ही काटा जा सकता है अर्थात समझा जा सकता है। सृष्टि रचना के विषय में तत्वदर्शी (पूर्ण) सन्त ही बता सकता है। गीता अध्याय 15 श्लोक 1 में तत्वदर्शी (पूर्ण) सन्त की पहचान बताते हुए कहा है कि इस उल्टे लटके हुए संसार रूपी वृक्ष के भिन्न-2 भागों को जो सन्त बतावे (सः वेद वित्) वह वेद के तात्पर्य को जानने वाला है अर्थात तत्वदर्शी (पूर्ण) सन्त है। क्योंकि गीता ज्ञान दाता ने तो केवल इतना ही बताया है कि ऊपर को तो जड़ (मूल) है तथा नीचे को तीनों गुण रूपी शाखाएं हैं। फिर कहा है कि मुझे पूर्ण ज्ञान नहीं है। जो संसार रूपी वृक्ष के सर्व भागों जैसे मूल, तना, डार, शाखाऐं, पत्तों का ज्ञान भिन्न-2 बताए उसे तत्वदर्शी (पूर्ण) सन्त जानना।
परमेश्वर कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ने स्वयं अपने द्वारा रची सृष्टि का ज्ञान दिया।
‘‘कबीर, अक्षर पुरूष एक पेड़ है, निरंजन वाकी डार।
तीनों देवा शाखा हैं, पात रूप संसार।।’’
कृपा देखें उल्टा लटके हुए संसार रूपी वृक्ष का चित्र:-
इस उल्टे संसार रूपी वृक्ष की जड़ें तो पूर्ण परमात्मा (परम अक्षर ब्रह्म अर्थात पूर्ण ब्रह्म/सतपुरूष) है। जमीन से बाहर तुरन्त जो हिस्सा दृष्टिगोचर होता है जिसे तना कहते हैं वह अक्षर पुरूष (परब्रह्म) जानो तथा मोटी डार को क्षर पुरूष (ब्रह्म/काल) जानो तथा डार की तीनों शाखाओं को श्री ब्रह्माजी(रजगुण), श्री विष्णुजी(सतगुण) तथा श्री शिवजी (तमगुण) रूपी तीनों देव जानो तथा पात रूप में संसार समझें। अब समझें कि पूर्ण परमात्मा (जड़ों) से सर्व वृक्ष का पालन होता है। यही प्रमाण गीता अध्याय 15 श्लोक नं. 16 में लिखा है। दो प्रभु तो इस पृथ्वी लोक में हैं (ब्रह्म के इक्कीस ब्रह्मण्ड तथा परब्रह्म के सात संख ब्रह्मण्डों को पृथ्वी वाला लोक कहा जाता है। क्योंकि यह नाशवान है) एक क्षर पुरूष (ब्रह्म/काल) तथा दूसरा अक्षर पुरूष (परब्रह्म) तथा दोनों ही प्रभुओं (क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष) के लोकों में दोनों प्रभुओं के तथा इनके अन्तर्गत प्राणियों के स्थूल शरीर तो नाशवान हैं तथा जीवात्मा अविनाशी है। गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा है कि उत्तम पुरूष (वास्तव में श्रेष्ठ परमात्मा) तो इन (उपरोक्त) क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष से अन्य ही है। जो परमात्मा(परम अक्षर ब्रह्म) कहा जाता है वही तीनों लोकों में प्रवेश करके सर्व का धारण पोषण करता है। वह वास्तव में अविनाशी परमेश्वर है।
उदाहरणार्थः- जैसे एक मूर्ति तो मिट्टी की बनी हो जो स्पष्ट नाशवान दिखाई देती है। गिरते ही टुकड़े-2 हो जाएगी। ऐसी स्थिती तो क्षर पुरूष (ब्रह्म) की जानो तथा दूसरी मूर्ति स्टील(इस्पात) की बनी हो जो मिट्टी वाली मूर्ति की तुलना में अधिक टिकाऊ है। परन्तु स्टील (इस्पात) को भी जंग लगेगा। एक दिन नष्ट हो जाएगी। भले ही समय अधिक लगे। इसी प्रकार अक्षर पुरूष को भी अविनाशी कहा है परन्तु वास्तव में अविनाशी तो तीसरी धातु स्वर्ण की बनी मूर्ति होती है जिसका कभी विनाश नहीं होता। ऐसी स्थिति परम अक्षर ब्रह्म अर्थात पूर्ण ब्रह्म (सतपुरूष) की जानो। वही तीसरा पूर्ण परमात्मा जो संसार रूपी वृक्ष की जड़(मूल) है सर्व का पालन पोषण करने वाला है। उसी पूर्ण परमात्मा की साधना तत्वदर्शी सन्त बताएगा। इसलिए गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि पूर्ण सन्त(तत्वदर्शी) के मिल जाने के पश्चात् उस परमेश्वर(सतपुरूष) के उस स्थान की खोज करनी चाहिए जिस स्थान(सतलोक) में जाने के पश्चात् साधक पुनर् लौटकर संसार में नहीं आते अर्थात् जन्म-मृत्यु से पूर्ण रूप से मुक्त हो जाते हैं तथा जिस आदि पुरूष अर्थात पूर्ण परमात्मा(सतपुरूष) से संसार रूपी वृक्ष का विस्तार हुआ है अर्थात जिसने सर्व ब्रह्मण्डों की रचना की है। स्वयं गीता ज्ञान दाता प्रभु ने भी कहा है कि मैं भी उसी की शरण में हूँ। उसी परमात्मा की भक्ति विश्वास के साथ करनी चाहिए। यही प्रमाण गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में है कि गीता ज्ञान दाता प्रभु किसी अन्य पूर्ण परमात्मा की ओर संकेत कर रहा है। कहा है कि हे अर्जुन ! तू सर्व भाव से उस परमेश्वर की शरण में जा जिसकी कृपा से तू परम शान्ति तथा सतलोक(शाश्वत स्थान) को प्राप्त होगा। गीता अध्याय 18 श्लोक 64 में कहा है कि मेरा पूज्य देव भी यही पूर्ण परमात्मा है।
विशेषः- उपरोक्त विवरण से सिद्ध हुआ कि तत्वदर्शी अर्थात पूर्ण सन्त वह है जो संसार रूपी उल्टे वृक्ष के सर्वांगों का भिन्न-2 विवरण बताए। जिसे गीता ज्ञान दाता प्रभु भी नहीं जानता। वह विवरण आप जी ने ऊपर पढ़ा तथा उल्टे संसार रूपी वृक्ष का चित्र भी देखा। आगे पढ़े पूर्ण सन्त की अन्य पहचान तथा कैसे मिले वह पूर्ण परमात्मा जिस के विषय में गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में व अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है।
-दासन दास रामपाल दास ‘‘एक श्रद्वालु की आत्म कथा’’ शेष अगले अंक में -----------