कथा:- मार्कण्डेय ऋषि तथा अप्सरा का संवाद

एक समय बंगाल की खाड़ी में मार्कण्डेय ऋषि तप कर रहा था। इन्द्र के पद पर विराजमान को यह शर्त होती है कि तेरे शासनकाल में 72 चैकड़ी युग के दौरान यदि पृथ्वी पर कोई व्यक्ति इन्द्र पद प्राप्त करने योग्य तप या धर्मयज्ञ कर लेता है और उसकी क्रिया में कोई बाधा नहीं आती है तो उस साधक को इन्द्र का पद दे दिया जाता है और वर्तमान इन्द्र से वह पद छीन लिया जाता है। इसलिए जहाँ तक संभव होता है, इन्द्र अपने शासनकाल में किसी साधक का तप या धर्मयज्ञ पूर्ण नहीं होने देता। उसकी साधना भंग करा देता है, चाहे कुछ भी करना पड़े।

जब इन्द्र को उसके दूतों ने बताया कि बंगाल की खाड़ी में मार्कण्डेय नामक ऋषि तप कर रहे हैं। इन्द्र ने मार्कण्डेय ऋषि का तप भंग करने के लिए उर्वशी भेजी। सर्व श्रंगार करके देवपरी मार्कण्डेय ऋषि के सामने नाचने-गाने लगी। उर्वशी ने अपनी सिद्धि से उस स्थान पर बसंत ऋतु जैसा वातावरण बना दिया। मार्कण्डेय ऋषि ने कोई उत्सुकता नहीं दिखाई। उर्वशी ने कमर-नाड़ा तोड़ दिया, निःवस्त्र हो गई। तब मार्कण्डेय ऋषि बोले, हे बेटी!, हे बहन!, हे माई! आप यह क्या कर रही हो? आप यहाँ गहरे जंगल में अकेली किसलिए आई? उर्वशी ने कहा कि ऋषि जी मेरे रूप को देखकर इस आरण्य खण्ड (बन-खण्ड) के सर्व साधक अपना संतुलन खो गए परंतु आप डगमग नहीं हुए, न जाने आपकी समाधि कहाँ थी? कृप्या आप मेरे साथ इन्द्रलोक में चलो, नहीं तो मुझे सजा मिलेगी कि तू हार कर आ गई। मार्कण्डेय ऋषि ने कहा कि मेरी समाधि ब्रह्मलोक में गई थी, जहाँ पर मैं उन उर्वशियों का नाच देख रहा था जो इतनी सुंदर हैं कि तेरे जैसी तो उनकी 7-7 बांदियाँ अर्थात् नौकरानियाँ हैं। इसलिए मैं तेरे को क्या देखता, तेरे पर क्या आसक्त होता? यदि तेरे से कोई सुंदर हो तो उसे ले आ। तब देवपरी ने कहा कि इन्द्र की पटरानी अर्थात् मुख्य पत्नी मैं ही हूँ। मुझसे सुन्दर स्वर्ग में कोई औरत नहीं है।

तब मार्कण्डेय ऋषि ने पूछा कि इन्द्र की मृत्यु होगी, तब तू क्या करेगी? उर्वशी ने उत्तर दिया कि मैं 14 इन्द्र भोगूँगी। भावार्थ है कि श्री ब्रह्मा जी के एक दिन में 1008 चतुर्युग होते हैं जिसमें 72. 72 चतुर्युग का शासनकाल पूरा करके 14 इन्द्र मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इन्द्र की रानी वाली आत्मा ने किसी मानव जन्म में इतने अत्यधिक पुण्य किए थे। जिस कारण से वह 14 इन्द्रों की पटरानी बनकर स्वर्ग सुख तथा पुरूष सुख को भोगेगी।

मार्कण्डेय ऋषि ने कहा कि वे 14 इन्द्र भी मरेंगे, तब तू क्या करेगी? उर्वशी ने कहा कि फिर मैं मृत्यु लोक में गधी बनाई जाऊँगी और जितने इन्द्र मेरे पति होंगे, वे भी पृथ्वी पर गधे की योनि प्राप्त करेंगे।

मार्कण्डेय ऋषि बोले कि फिर मुझे ऐसे लोक में क्यों ले जा रही थी जिसका राजा गधा बनेगा और रानी गधी की योनि प्राप्त करेगी? उर्वशी बोली कि अपनी इज्जत रखने के लिए, नहीं तो वे कहेंगे कि तू हारकर आई है।

मार्कण्डेय ऋषि ने कहा कि गधियों की कैसी इज्जत? तू वर्तमान में भी गधी है क्योंकि तू चैदह खसम करेगी और मृत्यु उपरांत तू स्वयं स्वीकार रही है कि मैं गधी बनूंगी। विधानानुसार अपना इन्द्र का राज्य मार्कण्डेय ऋषि को देने के लिए वहीं पर इन्द्र आ गया और कहा कि ऋषि जी हम हारे और आप जीते। आप इन्द्र की पदवी स्वीकार करें। मार्कण्डेय ऋषि बोले अरे-अरे इन्द्र! इन्द्र की पदवी मेरे किसी काम की नहीं। मेरे लिए तो काग (कौवे) की बीट के समान है। मार्कण्डेय ऋषि ने इन्द्र से फिर कहा कि तू मेरे बताए अनुसार साधना कर, तेरे को ब्रह्मलोक ले चलूँगा। इस इन्द्र के राज्य को छोड़ दे। इन्द्र ने कहा कि हे ऋषि जी अब तो मुझे मौज-मस्ती करने दो। फिर कभी देखूंगा।

पाठकजनो! विचार करो:- इन्द्र को पता है कि मृत्यु के उपरांत गधे का जीवन मिलेगा, फिर भी उस क्षणिक सुख को त्यागना नहीं चाहता। कहा कि फिर कभी देखूंगा। फिर कब देखेगा? गधा बनने के पश्चात् तो कुम्हार देखेगा। कितना वजन गधे की कमर पर रखना है? कहाँ-सी डण्डा मारना है? ठीक इसी प्रकार इस पृथ्वी पर कोई छोटे-से टुकड़े का प्रधानमंत्री, मंत्री, मुख्यमंत्री या राज्य में मंत्री बना है या किसी पद पर सरकारी अधिकारी या कर्मचारी बना है या धनी है। उसको कहा जाता है कि आप भक्ति करो नहीं तो गधे बनोगे। वे या तो नाराज हो जाते हैं कि क्यों बनेंगे गधे? फिर से मत कहना। कुछ सभ्य होते हैं, वे कहते हैं कि किसने देखा है, गधे बनते हैं? फिर उनको बताया जाता है कि सब संत तथा ग्रन्थ बताते हैं। तो अधिकतर कहते हैं कि देखा जाएगा। उनसे निवेदन है कि मृत्यु के पश्चात् गधा बनने के बाद आप क्या देखोगे, फिर तो कुम्हार देखेगा कि आप जी के साथ कैसा बर्ताव करना है? देखना है तो वर्तमान में देख। बुराई छोड़कर शास्त्रानुकूल साधना करो जो वर्तमान में विश्व में केवल मेरे पास (लेखक रामपाल दास के पास) है। आओ ग्रहण करो और अपने जीव का कल्याण कराओ।

ऊपर लिखी वाणी नं. 3 में बताया है कि इन्द्र-कुबेर तथा ईश की पदवी प्राप्त करने वाले तथा ब्रह्मा जी का पद वरूण, धर्मराय का पद प्राप्त करके तथा विष्णु जी के लोक को प्राप्त कर देव पद प्राप्त भी वापिस जन्म-मरण के चक्र में रहता है।

स्वर्ग लोक में 33 करोड़ देव पद हैं। जैसे भारत वर्ष की संसद में 540 सांसदों के पद हैं। व्यक्ति बदलते रहते हैं। उन्हीं सांसदों में से प्रधानमंत्री तथा अन्य केंद्रीय मंत्री आदि बनते हैं। इसी प्रकार उन 33 करोड़ देवताओं में से ही कुबेर का पद अर्थात् धन के देवता का पद प्राप्त होता है जैसे वित्त मंत्री होता है। ईश की पदवी का अर्थ है प्रभु पद जो कुल तीन माने गए हैं:-

  1. श्री ब्रह्मा जी 2) श्री विष्णु जी तथा 3) श्री शिव जी।

वरूणदेव जल का देवता है। धर्मराय मुख्य न्यायधीश है जो सब जीवों को कर्मों का फल देता है, उसे धर्मराज भी कहते हैं। ये सर्व काल ब्रह्म की साधना करके पद प्राप्त करते हैं। पुण्य क्षीण होने के पश्चात् पद से मुक्त होकर पशु-पक्षियों आदि की 84 लाख प्रकार की योनियों में चले जाते हैं। फिर नए ब्रह्मा जी, नए विष्णु जी तथा नए शिव जी इन पदों पर विराजमान होते हैं।

उपरोक्त सर्व देवता जन्मते-मरते हैं। ये अविनाशी नहीं हैं। इनकी स्थिति आप जी को ‘‘सृष्टि रचना‘‘ अध्याय में इसी पुस्तक में स्पष्ट होगी कि ये कितने प्रभु हैं? किसके पुत्र हैं तथा कौन इनकी माता जी हैं?

अन्य प्रमाण:-

श्री देवी पुराण (सचित्र मोटा टाईप केवल हिन्दी, गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित) के तीसरे स्कंद में पृष्ठ 123 पर लिखा है कि तुम शुद्ध स्वरूपा हो, यह सारा संसार आप से ही उद्भाषित हो रहा है। मैं (विष्णु), ब्रह्मा और शंकर आपकी कृप्या से विद्यमान हैं। हमारा तो अविर्भाव अर्थात् जन्म तथा तिरोभाव अर्थात् मृत्यु हुआ करता है। आप प्रकृति देवी हैं।

शंकर भगवान बोले कि हे देवी! यदि विष्णु के पश्चात् उत्पन्न होने वाले ब्रह्मा आपसे उत्पन्न हुए हैं तो क्या मैं तमोगुणी लीला करने वाला शंकर क्या आपकी संतान नहीं हुआ अर्थात् मुझे भी उत्पन्न करने वाली तुम ही हो। हम तो केवल नियमित कार्य ही कर सकते हैं अर्थात् जिसके भाग्य में जो लिखा है, हम वही प्रदान कर सकते हैं। न अत्यधिक कर सकते, न कम कर सकते।

पाठकजनो! इस श्री देवी पुराण के उल्लेख से स्पष्ट हुआ कि श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शंकर जी नाशवान हैं। इनकी माता जी का नाम श्री देवी दुर्गा है। अधिक जानकारी आप ‘‘सृष्टि रचना‘‘ अध्याय से ग्रहण करेंगे जो इसी पुस्तक में लिखी है। ये प्रधान देवता हैं। अन्य इनसे निम्न स्तर के देव हैं। ये सर्व जन्मते-मरते हैं, अविनाशी राम यानि अविनाशी परमात्मा नहीं हैं।

  • श्रीमद् भगवत गीता अध्याय 10 श्लोक 2 में लिखा है कि गीता ज्ञान दाता काल ब्रह्म ने कहा है कि ‘‘मेरी उत्पत्ति को न तो देवता जानते और न महर्षिजन जानते क्योंकि इन सबका आदि कारण मैं ही हूँ अर्थात् ये सर्व मेरे से उत्पन्न हुए हैं।‘‘

  • गीता अध्याय 14 श्लोक 3 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि हे अर्जुन! मेरी प्रकृति अर्थात् दुर्गा तो गर्भ धारण करती है, मैं उसके गर्भ में बीज स्थापित करता हूँ जिससे सर्व प्राणियों की उत्पत्ति होती है।

  • गीता अध्याय 14 श्लोक 4 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि हे अर्जुन! नाना प्रकार की सब योनियों में जितने शरीरधारी मूर्तियाँ उत्पन्न होती हैं (महत्) प्रकृति तो उन सबकी गर्भ धारण करने वाली माता है। (अहम् ब्रह्म) मैं ब्रह्म बीज स्थापित करने वाला पिता हूँ।

  • गीता अध्याय 14 श्लोक 5:- गीता ज्ञान दाता ने स्पष्ट किया है कि हे अर्जुन! सत्वगुण श्री विष्णु जी, रजगुण श्री ब्रह्मा जी तथा तमगुण श्री शिव जी, ये प्रकृति अर्थात् दुर्गा देवी से उत्पन्न तीनों देवता अर्थात् तीनों गुण अविनाशी जीवात्मा को कर्मों के अनुसार शरीर में बाँधते हैं। उपरोक्त प्रमाणों से स्पष्ट हुआ कि उपरोक्त देवता नाशवान हैं तथा काल ब्रह्म के पुत्र हैं। प्रसंग चल रहा है कि वाणी सँख्या 3 का सरलार्थ:-

इन्द्र, कुबेर, ईश अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, शिव तक की पदवी को प्राप्त करके तथा वरूण, धर्मराय की पदवी तथा श्री विष्णुनाथ के लोक को प्राप्त करके भी जन्म-मरण के चक्र में रहते हैं।

मार्कण्डेय ऋषि जी ब्रह्म साधना कर रहे थे। उसी को सर्वोत्तम मान रहे थे। इसीलिए इन्द्र को कह रहे थे कि आ तेरे को ब्रह्म साधना का ज्ञान कराऊँ। ब्रह्म लोक की तुलना में स्वर्ग का राज्य लापसी (बिना देशी घी से बना भोजन जो हलवे जैसा दिखाई देता है) की तुलना में जैसे कौवे की बीट है।

पाठकजनो! सत्यलोक को हलवा जानों! आप जी ने ब्रह्म साधना करने वाले श्री चुणक ऋषि, श्री दुर्वासा ऋषि तथा कपिल मुनि की दशा जान ली, उनकी साधना को गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में अनुत्तम अर्थात् घटिया बताया है। उसी श्रेणी की साधना मार्कण्डेय ऋषि जी की थी। जिसको अति उत्तम मानकर कर रहे थे तथा इन्द्र जी को भी राय दे रहे थे कि ब्रह्म साधना कर ले।

सूक्ष्मवेद में कहा है कि:- औरों पंथ बतावहीं, आप न जाने राह।

भावार्थ:- अन्य को मार्गदर्शन करते हैं, स्वयं भक्ति मार्ग का ज्ञान नहीं। श्रीमद् भगवत गीता अध्याय 4 श्लोक 25 से 29 तक यही बताया है कि जो साधक जैसी भी साधना करता है, उसे उत्तम मानकर कर रहा होता है, सर्व साधक अपनी-अपनी भक्ति को पापनाशक जानते हैं।

  • गीता अध्याय 4 श्लोक 32 में स्पष्ट किया है कि यज्ञों अर्थात् धार्मिक अनुष्ठानों का ज्ञान स्वयं सच्चिदानन्द घन ब्रह्म ने अपने मुख कमल से बोली वाणी में विस्तार के साथ कहा है, वह तत्त्वज्ञान है। जिसे जानकर साधक सर्व पापों से मुक्त हो जाता है।

  • गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में स्पष्ट किया है कि उस तत्त्वज्ञान को तत्त्वदर्शी संत जानते हैं, उनको दण्डवत प्रणाम करने से, नम्रतापूर्वक प्रश्न करने से वे तत्त्वज्ञान को जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे।

वह तत्त्वज्ञान जिसे ऊपर की वाणी में निर्गुण रासा कहा है, नहीं मिलने से सर्व साधक जन्म-मरण के चक्र में रह गए।

मार्कण्डेय ऋषि ब्रह्म साधना कर रहा था। श्रीमद् भगवत गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में कहा है कि ब्रह्मलोक में गए साधक भी पुनरावर्ती अर्थात् बार-बार जन्म-मरण के चक्र में ही रहते हैं।

वाणी सँख्या 4:- असंख जन्म तोहे मरतां होगे, जीवित क्यों न मरै रे।
द्वादश मध्य महल मठ बोरे, बहुर न देह धरै रे।।

सरलार्थ:- हे मानव! तू अनन्त बार जन्म और मर चुका है। सत्य साधना कर तथा जीवित मर। जीवित मरने का तात्पर्य है कि भक्त को ज्ञान हो जाता है कि इस संसार की प्रत्येक वस्तु अस्थाई है। यह शरीर भी स्थाई नहीं है। जन्म-मृत्यु का बखेड़ा भी भयँकर है। इस संसार में दुख के अतिरिक्त कुछ नहीं है। मानव शरीर प्राप्त करके मोक्ष प्राप्त नहीं किया तो पशु जैसा जीवन जीया। जैसे गीता अध्याय 7 श्लोक 29 में कहा है कि जो साधक केवल जरा अर्थात् वृद्धावस्था के कष्ट तथा मरण के दुःख से ही मुक्ति के लिए जो साधनारत हैं, वे तत् ब्रह्म को तथा सम्पूर्ण अध्यात्म को तथा कर्मों को जानते हैं।

इसी प्रकार तत्त्वज्ञान होने के पश्चात् मानव को अनावश्यक वस्तुओं की इच्छा नहीं होती, तम्बाकू, शराब-माँस सेवन नहीं करता। नाच-गाना मूर्खों का काम लगता है। जैसा भोजन मिल जाए, उसी में संतुष्ट रहता है।

जीवित मरना:- आत्म कल्याण कराने के लिए साधक विचार करता है कि यदि मैं सत्संग में नहीं आऊँगा तो गुरू जी के दर्शन नहीं कर पाऊँगा। सत्संग विचार न सुनने से मन फिर से विकार करने लगेगा। वह साधक सर्व कार्य छोड़कर सत्संग सुनने के लिए चल पड़ता है। वह विचार करता है कि हम प्रतिदिन सुनते हैं तथा देखते हैं कि छोटे-छोटे बच्चों को छोड़कर पिता संसार से चला जाता है, मर जाता है। बड़े-बड़े पूंजीपति दुर्घटना में मर जाते हैं। सर्व सम्पत्ति जो सारे जीवन में जोड़ी थी, उसे छोड़कर चले जाते हैं, दोबारा उस सम्पत्ति को सँभालने नहीं आते। मृत्यु से पहले एक दिन भी कार्य छोड़ने का दिल नहीं करता था, अब स्थाई (च्ंतउंदमदज) कार्य छूट गया।

एक भक्त सत्संग में जाने लगा। दीक्षा ले ली, ज्ञान सुना और भक्ति करने लगा। अपने मित्र से भी सत्संग में चलने तथा भक्ति करने के लिए प्रार्थना की। परंतु दोस्त नहीं माना। कह देता कि कार्य से फुर्सत नहीं है। छोटे-छोटे बच्चे हैं। इनका पालन-पोषण भी करना है। काम छोड़कर सत्संग में जाने लगा तो सारा धँधा चैपट हो जाएगा।

वह सत्संग में जाने वाला भक्त जब भी सत्संग में चलने के लिए अपने मित्र से कहता तो वह यही कहता कि अभी काम से फुर्सत नहीं है। एक वर्ष पश्चात् उस मित्र की मृत्यु हो गई। उसकी अर्थी उठाकर नगरवासी चले, साथ-साथ सैंकड़ों नगर-मौहल्ले के व्यक्ति भी साथ-साथ चले। सब बोल रहे थे कि राम नाम सत् है, सत् बोले गत् है।

भक्त कह रहा था कि राम नाम तो सत् है परंतु आज भाई को फुर्सत है। नगरवासी कह रहे थे कि सत् बोले गत् है, भक्त कह रहा था कि आज भाई को फुर्सत है। अन्य व्यक्ति उस भक्त से कहने लगे कि ऐसे मत बोल, इसके घर वाले बुरा मानेंगे। भक्त ने कहा कि मैं तो ऐसे ही बोलूँगा। मैंने इस मूर्ख से हाथ जोड़कर प्रार्थना की थी कि सत्संग में चल, कुछ भक्ति कर ले। यह कहता था कि अभी फुर्सत अर्थात् समय नहीं है। आज इसको परमानैंट फुर्सत है। छोटे-छोटे बच्चे भी छोड़ चला जिनके पालन-पोषण का बहाना करके परमात्मा से दूर रहा। भक्ति करता तो खाली हाथ नहीं जाता। कुछ भक्ति धन लेकर जाता। बच्चों का पालन-पोषण परमात्मा करता है। भक्ति करने से साधक की आयु भी परमात्मा बढ़ा देता है। भक्तजन ऐसा विचार करके भक्ति करते हैं, कार्य त्यागकर सत्संग सुनने जाते हैं।

भक्त विचार करते हैं कि परमात्मा न करे, हमारी मृत्यु हो जाए। फिर हमारे कार्य कौन करेगा? हम यह मान लेते हैं कि हमारी मृत्यु हो गई। हम तीन दिन के लिए सत्संग में चलें, अपने को मृत मान लें और सत्संग में चले गए। वैसे तो परमात्मा के भक्तों का कार्य बिगड़ता नहीं, फिर भी हम मान लेते हैं कि हमारी गैर-हाजिरी में कुछ कार्य खराब हो गया तो तीन दिन बाद जाकर ठीक कर लेंगे। वास्तव में टिकट कट गई अर्थात् मृत्यु हो गई तो परमानैंट कार्य बिगड़ गया। फिर कभी ठीक करने नहीं आ सकते। इस स्थिति को जीवित मरना कहते हैं।

वाणी का शेष सरलार्थ:-

द्वादश मध्य महल मठ बौरे, बहुर न देहि धरै रे।

सरलार्थ:- श्रीमद् भगवत गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् परमेश्वर के उस परमपद की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर संसार में कभी नहीं आते अर्थात् उनका पुनर्जन्म नहीं होता। वे फिर देह धारण नहीं करते। सूक्ष्मवेद की यह वाणी यही स्पष्ट कर रही है कि वह परम धाम द्वादश अर्थात् 12वें द्वार को पार करके उस परम धाम में जाया जाता है। आज तक सर्व ऋषि-महर्षि, संत, मंडलेश्वर केवल 10 द्वार बताया करते। परंतु परमेश्वर कबीर जी ने अपने स्थान को प्राप्त कराने का सत्यमार्ग, सत्य स्थान स्वयं ही बताया है। उन्होंने 12वां द्वार बताया है। इससे भी स्पष्ट हुआ कि आज तक (सन् 2014 तक) पूर्व के सर्व ऋषियों, संतों, पंथों की भक्ति काल ब्रह्म तक की थी। जिस कारण से जन्म-मृत्यु का चक्र चलता रहा।

वाणी सँख्या 5:- दोजख बहिश्त सभी तै देखे, राजपाट के रसिया।
तीन लोक से तृप्त नाहीं, यह मन भोगी खसिया।।

सरलार्थ:- तत्त्वज्ञान के अभाव में पूर्णमोक्ष का मार्ग न मिलने के कारण कभी दोजख अर्थात् नरक में गए, कभी बहिश्त अर्थात् स्वर्ग में गए,कभी राजा बनकर आनन्द लिया। यदि इस मानव को तीन लोक का राज्य भी दे दंे तो भी तृप्ति नहीं होती।

उदाहरण:- यदि कोई गाँव का सरपंच बन जाता है तो वह इच्छा करता है कि विधायक बने तो मौज हो जाए। विधायक इच्छा करता है कि मन्त्राी बनूँ तो बात कुछ अलग हो जाएगी। मंत्री बनकर इच्छा करता है कि मुख्यमंत्री बनूँ तो पूरी चैधर (महिमा) हो। आनन्द ही न्यारा होगा। सारे प्रान्त पर कमांड चलेगी। मुख्यमंत्री बनने के पश्चात् प्रबल इच्छा होती है कि प्रधानमंत्री बनूँ तो जीवन की सफलता है। तब तक जीवन लीला समाप्त हो जाएगी। फिर गधा बनकर कुम्हार के लठ खा रहा होगा। इसलिए तत्त्वज्ञान में समझाया है कि काल ब्रह्म द्वारा बनाई स्वर्ग-नरक तथा राजपाट प्राप्ति की भूल-भुलईया में सारा जीवन व्यर्थ कर दिया।

एक अब्राहिम सुल्तान अधम नाम का बलख शहर का राजा था। वह पूर्व जन्म का बहुत अच्छा भक्त था। परंतु वर्तमान के ऐश्वर्य में मस्त होकर परमात्मा को भूल चुका था। राज के ठाठ में तथा महलों में आनंदमान बैठा था। एक दिन परमात्मा कबीर जी सत्यलोक से आकर एक यात्री का रूप बनाकर राजा के महल में गए तथा कहा कि सराय वाले! एक कमरा किराए पर दे, पैसे बता, रात्रि बितानी है। राजा ने कहा हे भोले यात्री! आपको यह सराय दिखाई देती है। मैं राजा हूँ और यह मेरा महल है। यात्री रूप में परमात्मा ने पूछा कि आपसे पहले इस महल में कौन रहते थे? राजा ने कहा कि मेरे पिता, दादा-परदादा रहते थे। यात्री रूप में परमेश्वर ने कहा कि आप कितने दिन रहोगे इस महल में? राजा ने कहा एक दिन मैं भी चला जाऊँगा इन्हें छोड़कर। परमेश्वर बोले कि यह सराय (धर्मशाला) नहीं तो क्या है? यह सराय है। जैसे तेरे बाप-दादा गए, ऐसे ही तू चला जाएगा, इसलिए मैंने महलों को धर्मशाला बताया है। राजा को वास्तविकता का ज्ञान हुआ। संसार की इच्छा त्यागकर आत्म-कल्याण करवाया। सदा रहने वाला सुख तथा अमर जीवन प्राप्त करने के लिए दीक्षा ली और आजीवन भक्ति की, अपना मानव जीवन सफल किया।

वाणी सँख्या 6:-सतगुरू मिलैं तो इच्छा मेटैं, पद मिल पदे समाना।
चल हंसा उस लोक पठाऊँ, जो आदि अमर अस्थाना।।

सरलार्थ:- यदि तत्त्वदर्शी संत (सतगुरू) मिलें तो उपरोक्त ज्ञान बताकर काल ब्रह्म के लोक की सर्व वस्तुओं से तथा पदों से इच्छा समाप्त करके ‘‘पद मिल पदे समाना‘‘ इसमें एक ‘पद‘ का अर्थ है पद्धति अर्थात् शास्त्रविधि अनुसार साधना। दूसरे पद का अर्थ है अमर लोक स्थान। सतगुरू साधना करवाकर परमेश्वर के उस परम पद की प्राप्ति करा देता है जहाँ जाने के पश्चात् फिर लौटकर संसार में कभी नहीं आते। हे भक्त! चल तुझे उस लोक में भेज दूँ जो आदि अमर अस्थान है अर्थात् गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में वर्णित सनातन परम धाम है जहाँ पर परम शांति है।

वाणी सँख्या 7:- चार मुक्ति जहाँ चम्पी करती, माया हो रही दासी।
दास गरीब अभय पद परसै, मिले राम अविनाशी।।

सरलार्थ:- उस सनातन परम धाम में परम शान्ति तथा अत्यधिक सुख है। काल ब्रह्म के लोक में चार मुक्ति मानी जाती है, जिनको प्राप्त करके साधक अपने को धन्य मानता है। परंतु वे स्थाई नहीं हैं। कुछ समय उपरांत पुण्य समाप्त होते ही फिर 84 लाख प्रकार की योनियों में कष्ट उठाता है। परंतु उस सत्यलोक में चारों मुक्ति वाला सुख सदा बना रहेगा। माया आपकी नौकरानी बनकर रहेगी।

संत गरीबदास जी ने बताया है कि अमर लोक में जाने के पश्चात् प्राणी निर्भय हो जाता है और उस सनातन परम धाम में वह अविनाशी राम अर्थात् परमेश्वर मिलेगा। इसलिए पूर्ण मोक्ष के लिए शास्त्रानुकूल भक्ति करनी चाहिए जिससे उस परमात्मा तक जाया जा सकता है।

उपरोक्त वाणी तथा पूर्वोक्त विवरण से स्पष्ट हुआ कि श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा शिव जी और इनके पिता काल ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरूष व अक्षर पुरूष सर्व राम अर्थात् प्रभु नाशवान हैं। केवल परम अक्षर ब्रह्म ही अविनाशी राम अर्थात् प्रभु है। उस परमेश्वर की भक्ति से ही परमशांति तथा सनातन परम धाम अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त होगा जहाँ पर चार मुक्ति का सुख सदा बना रहेगा। माया अर्थात् सर्व सुख-सुविधाऐं साधक के नौकर की तरह हाजिर रहती हैं।

सूक्ष्मवेद में कहा है कि:-

कबीर, माया दासी संत की, उभय दे आशीष।
विलसी और लातों छड़ी, सुमर-सुमर जगदीश।।

भावार्थ:- सर्व सुख-सुविधाऐं धन से होती हैं। वह धन शास्त्रविधि अनुसार भक्ति करने वाले संत-भक्त की भक्ति का अन् उदेशित उत्पाद (by product) होता है। जैसे जिसने गेहूँ की फसल बीजी तो उसका उद्देश्य गेहूँ का अन्न प्राप्त करना है। परंतु भूस अर्थात् चारा भी अवश्य प्राप्त होता है। चारा, तूड़ा गेहूँ के अन्न का अन् उदेशित उत्पाद (by product) है। इसी प्रकार सत्य साधना करने वाले को अपने आप धन माया मिलती है। साधक उसको भोगता है, वह चरणों में पड़ी रहती है अर्थात् धन का अभाव नहीं रहता अपितु आवश्यकता से अधिक प्राप्त रहती है। परमेश्वर की भक्ति करके माया का भी आनन्द भक्त, संत प्राप्त करते हैं। माया को धर्म के कार्यों में खर्चते हैं। तथा पूर्ण मोक्ष भी प्राप्त करते हैं।

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