संक्षिप्त महाभारत का लेख
अन्य प्रमाण:- ‘‘गीता का ज्ञान श्री कृष्ण जी ने नहीं कहा’’:-
जब तक महाभारत का युद्ध समाप्त नहीं हुआ तब तक ज्योति निरंजन (काल - ब्रह्म - क्षर पुरुष) श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश रहा तथा युधिष्ठिर जी से झूठ बुलवाया कि कह दो कि अश्वत्थामा मर गया, श्री बबरु भान(खाटू श्याम जी) का शीश कटवाया तथा रथ के पहिए को हथियार रूप में उठाया, यह सर्व काल ही का किया-कराया उपद्रव था, प्रभु श्री कृष्ण जी का नहीं। महाभारत का युद्ध समाप्त होते ही काल भगवान श्री कृष्ण जी के शरीर से निकल गया। श्री कृष्ण जी ने श्री युधिष्ठिर जी को इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) की राजगद्दी पर बैठाकर द्वारिका जाने को कहा। तब अर्जुन आदि ने प्रार्थना की कि हे श्री कृष्ण जी! आप हमारे पूज्य गुरुदेव हो, हमें एक सतसंग सुना कर जाना, ताकि हम आपके सद्वचनों पर चल कर अपना आत्म-कल्याण कर सकें।
यह प्रार्थना स्वीकार करके श्री कृष्ण जी ने तिथि, समय तथा स्थान निहित कर दिया। निश्चित तिथि को श्री अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण जी से कहा कि प्रभु आज वही पवित्र गीता जी का ज्ञान ज्यों का त्यों सुनाना, क्योंकि मैं बुद्धि के दोष से भूल गया हूँ। तब श्री कृष्ण जी ने कहा कि हे अर्जुन तू निश्चय ही बड़ा श्रद्धाहीन है। तेरी बुद्धि अच्छी नहीं है। ऐसे पवित्र ज्ञान को तूं क्यों भूल गया ? फिर स्वयं कहा कि अब उस पूरे गीता ज्ञान को मैं नहीं कह सकता अर्थात् मुझे ज्ञान नहीं। कहा कि उस समय तो मैंने योग युक्त होकर बोला था। विचारणीय विषय है कि यदि भगवान श्री कृष्ण जी युद्ध के समय योग युक्त हुए होते तो शान्ति समय में योग युक्त होना कठीन नहीं था। जबकि श्री व्यास जी ने वही पवित्र गीता जी का ज्ञान वर्षों उपरान्त ज्यों का त्यों लिपिबद्ध कर दिया। उस समय वह ब्रह्म(काल-ज्योति निरंजन) ने श्री व्यास जी के शरीर में प्रवेश कर के पवित्र श्रीमद्भगवत गीता जी को लिपिबद्ध कराया, जो वर्तमान में आप के कर कमलों में है।
प्रमाण के लिए संक्षिप्त महाभारत भाग-2 के पृष्ठ 667 तथा पुराने के पृष्ठ नं. 1531 परः-
न शक्यं तन्मया भूयस्तथा वक्तुमशेषतः।। परं हि ब्रह्म कथितं योगयुक्तेन तन्मया।
(महाभारत, आश्रवः 1612-13)
भगवान बोले - ‘वह सब-का-सब उसी रूपमें फिर दुहरा देना अब मेरे वशकी बात नहीं है। उस समय मैंने योगयुक्त होकर परमात्मतत्वका वर्णन किया था।‘
संक्षिप्त महाभारत द्वितीय भाग के पृष्ठ नं. 1531 से निम्न प्रकरण सहाभार:
(‘श्रीकृष्ण का अर्जुन से गीता का विषय पूछना सिद्ध महर्षि वैशम्पायन और काश्यप का संवाद‘):-
पाण्डुनन्दन अर्जुन श्रीकृष्ण के साथ रहकर बहुत प्रसन्न थे। उन्होंने एक बार उस रमणीय सभा की ओर दृष्टि डालकर भगवान् से यह वचन कहा ‘देवकीनन्दन! जब युद्ध का अवसर उपस्थित था, उस समय मुझे आपके माहात्म्य का ज्ञान और ईश्वरीय स्वरूप का दर्शन हुआ था, किंतु केशव ! आपने स्नेहवश पहले मुझे जो ज्ञान का उपदेश किया था, वह सब इस समय बुद्धि के दोष से भूल गया है। उन विषयों को सुनने के लिये बारंबार मेरे मन में उत्कण्ठा होती है, इधर, आप जल्दी ही द्वारका जाने वाले हैं। अतः पुनः वह सब विषय मुझे सुना दीजिये।
वैशम्पायन जी कहते हैं -- अर्जुनके ऐसा कहनेपर वक्ताओं में श्रेष्ठ महातेजस्वी भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें गलेसे लगाकर इस प्रकार उत्तर दिया।
श्रीकृष्ण बोले - अर्जुन ! उस समय मैंने तुम्हें अत्यन्त गोपनीय विषयका श्रवण कराया था, अपने स्वरूपभूत धर्म सनातन पुरुषोत्तमतत्त्वका परिचय दिया था और (शुक्ल-कृष्ण गतिका निरूपण करते हुए) नित्य लोकोंका भी वर्णन किया था। किंतु तुमने जो अपनी नासमझीके कारण उस उपदेशको याद नहीं रक्खा यह जानकर मुझे बड़ा खेद हुआ है। उन बातोंका अब पूरा-पूरा स्मरण होना सम्भव नहीं जान पड़ता। पाण्डुनन्दन ! निश्चय ही तुम बड़े श्रद्धाहीन हो, तुम्हारी बुद्धि अच्छी नहीं जान पड़ती। अब मेरे लिये उस उपदेशको ज्यों-का-त्यों दुहरा देना कठिन है, क्योंकि उस समय योगयुक्त होकर मैंने परमात्मतत्त्वका वर्णन किया था। (अधिक जानकारी के लिए पढ़ें - ‘संक्षिप्त महाभारत द्वितीय भाग‘)
विचार करें:- उपरोक्त विवरण से सिद्ध हुआ कि श्री कृष्ण जी ने श्रीमद्भगवत गीता का ज्ञान नहीं बोला, यह तो काल (ज्योति निरंजन अर्थात् ब्रह्म) ने बोला था।
- श्री कृष्ण जी ने अर्जुन को अपने स्तर की गीता सुनाई जो महाभारत ग्रन्थ में इस प्रकरण के तुरंत पश्चात् यानि लगातार लिखी है जो श्री कृष्ण जी ने अपने ज्ञान स्तर की गीता कही है जो एक ऋषि की कहानी है जिसमें जरा भी आध्यात्मिक ज्ञान इस श्रीमद्भगवत से मेल नहीं करता।
आश्चर्य की बात तो यह है कि वही गीता जो महाभारत के युद्ध के पूर्व काल ब्रह्म ने श्री कृष्ण में प्रवेश करके बोली थी, श्री वेद व्यास ऋषि ने वर्षों उपरांत शब्दाशब्द लिखी जो सात सौ (700) श्लोकों में अपने को उपलब्ध है। श्री कृष्ण जी को याद नहीं थी क्योंकि उनको पता ही नहीं कि क्या बोला था। काल ने वेदव्यास जी की दिव्य दृष्टि खोल दी जिस कारण से वेद व्यास जी ने गीता लिखी थी।
अन्य प्रमाण:-
- कुछ समय उपरान्त श्री युधिष्ठिर जी को भयंकर स्वपन आने लगे।
श्री कृष्ण जी से कारण तथा समाधान पूछा तो बताया कि तुमने युद्ध में जो पाप किए हैं वह
नर संहार का दोष तुम्हें दुःख दाई हो रहा है। इसके लिए एक यज्ञ करो। श्री कृष्ण जी के मुख
कमल से यह वचन सुन कर श्री अर्जुन को बहुत दुःख हुआ तथा मन ही मन विचार करने लगा
कि भगवान श्री कृष्ण जी पवित्र गीता बोलते समय तो कह रहे थे कि अर्जुन तुम्हें कोई पाप
नहीं लगेगा, तूं युद्ध कर ले (पवित्र गीता अध्याय 2 श्लोक 37-38)। यदि युद्ध में मारा भी गया
तो स्वर्ग का सुख भोगेगा, अन्यथा युद्ध में जीत कर पृथ्वी के राज्य का आनन्द लेगा। अर्जुन
ने विचार किया कि जो समाधान दुःख निवारण का श्री कृष्ण जी ने बताया है इसमें करोड़ों
रूपये व्यय होने हैं। जिससे बड़े भाई युधिष्ठिर का कष्ट निवारण होगा। यदि मैं श्री कृष्ण जी
से वाद-विवाद करूंगा कि आप पवित्र गीता जी का ज्ञान देते समय तो कह रहे थे कि तुम्हें
पाप नहीं लगेगा। अब उसके विपरित कह रहे हो। इससे मेरा बड़ा भाई यह न सोच बैठे कि
करोड़ों रूपये के खर्च को देख कर अर्जुन बौखला गया है तथा मेरे कष्ट निवार्ण से प्रसन्न नहीं
है। इसलिए मौन रहना उचित जान कर सहर्ष स्वीकृति दे दी कि जैसा आप कहोगे वैसा ही
होगा। श्री कृष्ण जी ने उस यज्ञ की तिथि निर्धारित कर दी। वह यज्ञ भी श्री सुदर्शन सुपच
के भोजन खाने से सफल हुई। (यज्ञ का प्रकरण देखें इसी पुस्तक के पृष्ठ नं. 264 पर।)
कुछ समय उपरान्त ऋषि दुर्वासा जी के शापवश सर्व यादव कुल विनाश हो गया, श्री
कृष्ण भगवान के पैर के तलुवे में एक शिकारी (जो त्रेतायुग में सुग्रीव के भाई बाली की ही
आत्मा थी) ने विषाक्त तीर मार दिया। तब पाँचों पाण्डवों के घटना स्थल पर पहुँच जाने के
उपरान्त श्री कृष्ण जी ने कहा कि आप मेरे शिष्य हो मैं आप का धार्मिक गुरु भी हूँ। इसलिए
मेरी अन्तिम आज्ञा सुनो। एक तो यह है कि अर्जुन, द्वारिका की सर्व स्त्रियों को इन्द्रप्रस्थ
(दिल्ली) ले जाना, क्योंकि यहाँ कोई नर नहीं बचा है तथा दूसरे आप सर्व पाण्डव राज्य त्याग
कर हिमालय में साधना करके शरीर को गला देना। क्योंकि तुमने महाभारत के युद्ध के दौरान
जो हत्याऐं की थी, तुम्हारे शीश पर वह पाप बहुत भयंकर है। उस समय अर्जुन अपने आप
को नहीं रोक सका तथा कहा प्रभु वैसे तो आप ऐसी स्थिति में हैं कि मुझे ऐसी बातें नहीं करनी
चाहिऐं, परन्तु प्रभु यदि आज मेरी शंका का समाधान नहीं हुआ तो मैं चैन से मर भी नहीं
पाऊँगा। पूरा जीवन रोता रहूँगा। श्री कृष्ण जी ने कहा अर्जुन पूछ ले जो कुछ पूछना है, मेरी
अन्तिम घड़ियाँ हैं। श्री अर्जुन ने आँखों में आंसू भर कर कहा कि प्रभु बुरा न मानना। जब आपने
पवित्र गीता जी का ज्ञान कहा था उस समय मैं युद्ध करने से मना कर रहा था। आपने कहा
था कि अर्जुन तेरे दोनों हाथों में लड्डू हैं। यदि युद्ध में मारा गया तो स्वर्ग को प्राप्त होगा और
यदि विजयी हुआ तो पृथ्वी का राज्य भोगेगा तथा तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा। हमने आप ही
की देख-रेख व आज्ञानुसार युद्ध किया (प्रमाण पवित्र गीता अध्याय 2 श्लोक 37-38)। हे भगवन
हमारे तो एक हाथ में भी लड्डू नहीं रहा। न तो युद्ध में मर कर स्वर्ग प्राप्ति हुई तथा अब
राज्य त्यागने का आदेश आप दे रहे हैं, न ही पृथ्वी के राज्य का आनन्द ही भोग पाए। ऐसा छल युक्त व्यवहार करने में आपका क्या हित था? अर्जुन के मुख से यह वचन सुन कर युधिष्ठिर जी ने कहा कि अर्जुन ऐसी स्थिति में जब कि भगवान अन्तिम श्वांस गिन रहे हैं आपका शिष्टाचार रहित व्यवहार शोभा नहीं देता। श्री कृष्ण जी ने कहा अर्जुन आज मैं अन्तिम स्थिति में हूँ, तुम मेरे अत्यन्त प्रिय हो, आज वास्तविकता बताता हूँ कि कोई खलनायक जैसी और शक्ति है जो अपने को यन्त्रा की तरह नचाती रही, मुझे कुछ मालूम नहीं मैंने गीता में क्या बोला था। परन्तु अब मैं जो कह रहा हूँ वह तुम्हारे हित में है। श्री कृष्ण जी यह वचन अश्रुयुक्त नेत्रों से कह कर प्राण त्याग गए। उपरोक्त विवरण से सिद्ध हुआ कि पवित्र गीता जी का ज्ञान श्री कृष्ण जी ने नहीं कहा। यह तो ब्रह्म(ज्योति निरंजन-काल) ने बोला है, जो इक्कीस ब्रह्मण्ड का स्वामी है। काल(ब्रह्म) कौन है? यह जानने के लिए सृष्टि रचना पढ़े।
श्री कृष्ण सहित सर्व यादवों का अन्तिम संस्कार कर अर्जुन को छोड़ कर चारों भाई इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) चले गए। पीछे से अर्जुन द्वारिका की स्त्रिायों को लिए आ रहा था। रास्ते में जंगली लोगों ने सर्व गोपियों को लूटा तथा कुछेक को भगा ले गए तथा अर्जुन को पकड़ कर पीटा। अर्जुन के हाथ में वही गांडीव धनुष था जिससे महाभारत के युद्ध में अनगिन हत्याऐं कर डाली थी, वह भी नहीं चला। तब अर्जुन ने कहा कि यह श्री कृष्ण वास्तव में झूठा तथा कपटी था। जब युद्ध में पाप करवाना था तब तो मुझे शक्ति प्रदान कर दी, एक तीर से सैकड़ों योद्धाओं को मार गिराता था और आज वह शक्ति छीन ली, खड़ा-खड़ा पिट रहा हूँ। इसी विषय में पूर्ण ब्रह्म कबीर साहेब (कविर्देव) जी का कहना है कि श्री कृष्ण जी कपटी व झूठे नहीं थे। यह सर्व जुल्म काल(ज्योति निरंजन) कर रहा है। जब तक यह आत्मा कबीर परमेश्वर(सतपुरुष) की शरण में पूरे सन्त(तत्वदर्शी) के माध्यम से नहीं आ जाएगी, तब तक काल इसी तरह कष्ट पर कष्ट देता रहेगा। पूर्ण जानकारी तत्वज्ञान से होती है। इसीलिए काल कौन है? यह जानने के लिए पढ़ें सृष्टि रचना।
अन्य प्रमाण:-
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गीता अध्याय 10 श्लोक 9 से 11 में गीता ज्ञान दाता प्रभु कह रहा है कि जो श्रद्धालु मुझ ब्रह्म का ही निरन्तर चिन्तन करते रहते हैं उनके अज्ञान को नष्ट करने के लिए मैं ही उनके अन्दर(आत्मभावस्थः) जीवात्मा की तरह बैठकर शास्त्रों का ज्ञान देता हूँ।
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श्री विष्णु पुराण(गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित) के चतुर्थ अंश अध्याय 2 श्लोक 21 से 26 में पृष्ठ 168 पर लिखा है कि देवताओं और राक्षसों के युद्ध में देवताओं की प्रार्थना पर भगवान विष्णु ने कहा है कि मैं राजर्षि शशाद के शरीर में कुछ समय प्रवेश करके असुरों का नाश करूँगा। ऐसा ही किया गया।
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श्री विष्णु पुराण (गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित) के चतुर्थ अंश अध्याय 3 श्लोक 4 से 6 में पृष्ठ 173 पर लिखा है कि ‘‘नागेश्वरों की प्रार्थना स्वीकार करके श्री विष्णु जी ने कहा कि मैं मान्धाता के पुत्र पुरूकुत्स के शरीर में प्रवेश करके गन्धर्वों का नाश करूंगा। वैसा ही किया गया। {यहाँ पर विष्णु रूप में काल(ब्रह्म) बोल रहा है}
विशेष विचार:- उपरोक्त प्रमाणों से सिद्ध हुआ कि इसी प्रकार श्रीमद्भगवत गीता का ज्ञान श्री कृष्ण ने नहीं बोला, श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रेतवत प्रवेश होकर ब्रह्म (काल अर्थात् ज्योति निरंजन) ने बोला था।
- श्री कृष्ण जी की बहन सुभद्रा का विवाह अर्जुन से हुआ था। श्री कृष्ण जी नाते में अर्जुन के साले लगते थे। गीता अध्याय 11 श्लोक 31 में अर्जुन ने पूछा कि हे उग्र रूप वाले! आप कौन हो? गीता अध्याय 11 के श्लोक 32 में गीता ज्ञान दाता ने उत्तर दिया कि मैं काल हूँ। सर्व सेना का नाश करने के लिए अब प्रवृत्त हुआ हूँ यानि आया हूँ।
विचारणीय विषय है कि क्या कोई अपने साले को नहीं जानता? अर्जुन को उस समय काल दिखाई दिया था जो श्री कृष्ण के शरीर से निकलकर अपने वास्तविक रूप में प्रकट था।
गीता अध्याय 11 श्लोक 47 में भी स्पष्ट किया है कि यह मेरा स्वरूप है जिसे तेरे अतिरिक्त न तो किसी ने पहले देखा था, न कोई भविष्य में देख सकेगा। इससे सिद्ध हुआ कि श्री कृष्ण के शरीर में काल ने प्रवेश करके गीता का ज्ञान कहा था।
क्योंकि वह उपरोक्त नियम से किसी भी योग्य व्यक्ति में प्रेतवत् प्रवेश करके अपना कार्य सिद्ध करता है। पश्चात् निकल जाता है जैसे अर्जुन में प्रवेश करके विरोधी सेना मार डाली पश्चात् निकल गया। फिर अर्जुन को जंगली व्यक्तियों ने मारा-पीटा। अर्जुन में पूर्व वाली शक्ति नहीं रही।