अथ पतिव्रता का अंग
अथ पतिव्रता का अंग का सरलार्थ | सारांश
सारांश:– पतिव्रता उस स्त्री को कहते हैं जो अपने पति के अतिरिक्त अन्य किसी पुरूष को पति भाव से न चाहे। यदि कोई सुंदर-सुडोल, धनी भी क्यों न हो, उसके प्रति मलीन विचार न आएँ। भले ही कोई देवता भी आ खड़ा हो। उसको देव रूप में देखे न कि पति भाव यानि प्रेमी भाव न बनाए। सत्कार सबका करें, परंतु व्याभिचार न करे, वह पतिव्रता स्त्री कही जाती है।
इस पतिव्रता के अंग में आत्मा का पति पारब्रह्म है यानि सब ब्रह्मों (प्रभुओं) से पार जो पूर्ण ब्रह्म है, वह संतों की भाषा में पारब्रह्म है जिसे गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में परम अक्षर ब्रह्म कहा है तथा अध्याय 8 के ही श्लोक 8, 9, 10 में जिसकी भक्ति करने को कहा है। गीता अध्याय 18 श्लोक 61-62 तथा 66 में जिसकी शरण में जाने को कहा है। उस परम अक्षर ब्रह्म में पतिव्रता की तरह भाव रखकर भक्ति करे। अन्य किसी भी प्रभु को ईष्ट रूप में न पूजे। सम्मान सबका करे तो वह भक्त आत्मा पतिव्रता कही जाती है। गीता अध्याय 13 श्लोक 10 में कहा है कि मेरी अव्यभिचारिणी भक्ति कर। इसी प्रकार सूक्ष्म वेद जो परमेश्वर कबीर जी द्वारा अपनी प्रिय आत्मा संत गरीबदास को दिया है, इसी सद्ग्रन्थ में इस पतिव्रता के अंग में स्पष्ट किया है कि:-
वाणी नं. 18:-
गरीब, पतिब्रता पीव के चरण की, सिर पर रज लै राख।
पतिब्रता का पति पारब्रह्म है,सतगुरु बोले साख।।18।।
भावार्थ:– पतिव्रता का पति पारब्रह्म है यानि भक्त आत्मा का स्वामी पारब्रह्म है। यह सतगुरू (संत गरीबदास जी के सतगुरू परमेश्वर कबीर जी हैं) ने साखी द्वारा समझाया है यानि सतगुरू साक्षी हैं। पतिव्रता अपने पीव (पति = परमेश्वर) के चरणों की रज (धूल) लेकर सिर पर रखें अर्थात् केवल सतपुरूष को अपना मानें। (18)
वाणी नं. 14:-
गरीब, पतिब्रता प्रसंग सुनि, जाका जासैं नेह। अपना पति छांड़ै नहीं, कोटि मिले जे देव।।14।।
भावार्थ:– पतिव्रता उसी की महिमा सुनती है जो उसका प्रिय पति है। वह अपने प्रभु को नहीं छोड़ती चाहे कोई देवता आकर खड़ा हो जाए। संत गरीबदास जी ने संसार के बर्ताव के साथ-साथ भक्ति में भक्त के बर्ताव को समझाया है। (14)
वाणी नं. 1:-
गरीब, पतिब्रता तिन जानिये, नाहीं आन उपाव। एके मन एके दिसा, छांडै़ भगति न भाव।।1।।
भावार्थ:– पतिव्रता उसे मानो जो अपने ईष्ट को छोड़कर किसी अन्य प्रभु की उपाव यानि उपासना ईष्ट रूप में न करे। उसका मन एक अपने ईष्ट की ओर रहे और भक्ति भाव न छोड़े। (1)
वाणी नं. 23:-
गरीब, पतिब्रता चूके नहीं, धर अंबर धसकंत। संत न छांड़े संतता, कोटिक मिलैं असंत।।23।।
भावार्थ:– चाहे धर (धरती) तथा अम्बर (आकाश) धसके यानि नष्ट हो जाएँ। इतनी आपत्ति में भी दृढ़ भक्त (पतिव्रता आत्मा) डगमग नहीं होता। इसी प्रकार संत (सत्य भाव से भगवान पर समर्पित साधक) अपनी सन्तता (साधु वाला स्वभाव) नहीं छोड़ता, चाहे उसको करोड़ों असन्त (नास्तिक व्यक्ति या अन्य देवों के उपासक) मिलो और वे कहें कि आप गलत ईष्ट की पूजा कर रहे हो या कहें कि क्या रखा है भक्ति में? आदि-आदि विचार अभक्तों (असन्तों) के सुनकर भक्त अपनी साधुता नहीं छोड़ता। (23)
वाणी नं. 24:-
गरीब, पतिब्रता चूके नहीं, साखी चंदर सूर। खेत चढे सें जानिये, को कायर को सूर।।24।।
भावार्थ:– यदि वास्तव में दृढ़ भक्त (पतिव्रता आत्मा) है तो वह कभी अपने धर्म-कर्म मर्यादा में चूक (त्रुटि) नहीं आने देगा। इसके साक्षी चंदर (चाँद=moon) तथा सूर (सूरज=sun) हैं। भावार्थ है कि जिस तरह सूर्य और चन्द्रमा अपनी गति को बदलते नहीं, दृढ़ भक्त भी ऐसे ही अटल आस्थावान होता है। उसकी परीक्षा उस समय होगी जब कोई आपत्ति आती है। जैसे कायर तथा शूरवीर की परीक्षा युद्ध के मैदान में होती है। (24)
वाणी नं. 10:-
गरीब, पतिब्रता सो जानिये, जाके दिल नहिं और। अपने पीव के चरण बिन, तीन लोक नहिं ठौर।।10।।
भावार्थ:– पतिव्रता यानि एक ईष्ट का उपासक उसे जानो जिसके दिल में अन्य के प्रति श्रद्धा न हो। उसकी आत्मा यह माने कि मेरे परमेश्वर पति के चरणों के अतिरिक्त मेरा तीन लोक में ठिकाना नहीं है। (10)
जो दृढ़ भक्त यानि पतिव्रता आत्मा हुए हैं, उनका वर्णन किया है:-
वाणी नं. 28:-
गरीब, पतिब्रता चूके नहीं, तन मन जावौं सीस। मोरध्वज अरपन किया, सिर साटे जगदीश।।28।।
भावार्थ:– राजा मोरध्वज पतिव्रता जैसा भक्त था। उसने अपने लड़के ताम्रध्वज का सिर साधु रूप में उपस्थित श्री कृष्ण जी के कहने पर काट दिया यानि आरे (करौंत) से शरीर चीर दिया। परमात्मा पति के लिए मोरध्वज आत्मा ने अपने पुत्र को भी काटकर समर्पित कर दिया। इस प्रकार पतिव्रता आत्मा का परमेश्वर के लिए यदि तन-मन-शीश भी जाए तो उस अवसर को चूकती नहीं यानि हाथ से जाने नहीं देती। ऐसे भक्त को अपने ईष्ट देव के लिए सर्वस्व न्योछावर कर देना होता है। वह सच्चा भक्त है। (28)