ब्रह्म (क्षर पुरूष) की साधना अनुत्तम (घटिया) है
गीता अध्याय 2 श्लोक 12 तथा अध्याय 4 श्लोक 5 तथा अध्याय 7 श्लोक 18 में कहा है कि मैं (गीता ज्ञान दाता) नाशवान हूँ। जन्म मृत्यु मेरी तथा तेरी सदा होती रहेगी। केवल किया हुआ कर्म ही प्राप्त होगा, मोक्ष नहीं होता। मेरी साधना करने वाले भले ही उद्धार साधक हैं परन्तु वे भी मेरी अति घटिया (अनुत्तमाम्) साधना में ही व्यस्त हैं। इसलिए गीता अध्याय 18 श्लोक 62, 64, 66 में कहा है कि उस परमेश्वर की शरण में जा तथा मेरा पूज्य देव भी वही है।
प्रार्थना:- उपरोक्त तीन मंत्र की साधना मुझ दासों के भी दास (रामपाल दास) के पास उपलब्ध है जो स्वयं पूर्ण परमात्मा कविर्देव ने अपनी आत्माओं पर रहम (दया) करके प्रदान की है। क्योंकि अब बिचली (मध्य वाली) पीढी चल रही है। क्योंकि कलयुग के प्रारम्भ में अपने पूर्वज अशिक्षित थे। उस समय परमेश्वर के तत्व ज्ञान को नकली संतों, गुरुओं, महंतों तथा आचार्यों ने ऊपर नहीं आने दिया तथा कलयुग के अंत में सर्व व्यक्ति भक्तिहीन तथा महाविकारी हो जाएंगे। अब यह वर्तमान का समय 20वीं सदी से शिक्षित समाज प्रारम्भ हुआ है। यह बिचली (मध्य वाली) पीढ़ी अर्थात् मनुष्य वंश चल रहा है।
वास्तविक ज्ञान अपने सद्ग्रन्थों में विद्यमान है, जिसे नकली संत, गुरु, आचार्य तथा महन्त नहीं समझ सके। जिस कारण से सर्व भक्त समाज शास्त्र विरुद्ध ज्ञान के आधार से दंत कथाओं (लोकवेद) पर आधारित होकर शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण (पूजा) करके अनमोल मानव जीवन व्यर्थ कर रहा है। शास्त्र विधि अनुसार साधना:-
- प्रथम चरण में ब्रह्म गायत्री मंत्र दिया जाता है, जो कमलों को खोलने का है। उपदेश प्राप्त करने वाला भक्तात्मा यह सोचेगा कि गुरु जी कह तो रहे थे कि तीनों गुणों (रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु, तमगुण-शिव) की पूजा नहीं करनी है। मन्त्र जाप उन्हीं के दिए हैं। उनके लिए निवेदन है कि यह पूजा नहीं है। हम काल के लोक में रह रहे हैं। यहाँ हमें जिस सुविधा की चाह होगी, वह ब्रह्मा-विष्णु-शिव आदि ही प्रदान करेंगे।
जैसे हमने बिजली का कनेक्शन (लाभ) ले रखा है। उसका बिल (खर्चा) भरना है। हम बिजली वाले मंत्री की या विभाग की पूजा नहीं कर रहे। हम उनका बिल भरेंगे तो बिजली का लाभ मिलता रहेगा। इसी प्रकार टेलीफोन (दूरभाष) का बिल व पानी का बिल आदि अदा करते रहेंगे तो हमें सुविधाएँ मिलती रहेंगी। आप शास्त्र विरुद्ध साधना करके भक्ति हीन हो गए हो अर्थात् आप पुण्य हीन हो गए हो। जिस कारण से आपको धन लाभ आदि नहीं हो रहा। यह दास (रामपाल दास) आप का गारन्टर (जिम्मेदार) बनकर इस काल लोक की एक ब्रह्मण्ड की शक्तियों (ब्रह्मा-विष्णु- शिव-गणेश-माता आदि) से आप को सर्व सुविधाएँ पुनः प्रारम्भ करवायेगा तथा आप ने इस मन्त्रा के जाप से इन का बिल भरते रहना है। जो मन्त्रा प्रथम (सत सुकृत अविगत कबीर) है यह आपकी पूजा है, यह पूर्ण परमात्मा है तथा सतम् लाभ (फल) प्राप्त होगा। सतम् का अर्थ अविनाशी अर्थात् हमें अविनाशी पद प्राप्त करना है। इस मन्त्रा के चार महीने के बाद आप को सतनाम (सच्चानाम) और मिलेगा, जो दो मंत्र का होगा। उसका एक मंत्र काल के इक्किस ब्रह्मण्ड का ऋण उतारने का है। उस की कमाई करके हमने ब्रह्म (क्षर पुरुष) अर्थात् काल का ऋण उतारना है। फिर यह काल हमें सर्व पापों से मुक्त कर देगा।
गीता अ. नं. 18 के श्लोक नं. 62-66 में वर्णन है:-
अध्याय नं. 18 का श्लोक नं. 62
तम्, एव, शरणम्, गच्छ, सर्वभावेन, भारत,
तत्प्रसादात्, पराम्, शान्तिम्, स्थानम्, प्राप्स्यसि, शाश्वतम्।।
अनुवाद: (भारत) हे भारत! तू (सर्वभावेन) सब प्रकारसे (तम्) उस अज्ञान अंधकार में छुपे हुए परमेश्वरकी (एव) ही (शरणम्) शरणमें (गच्छ) जा। (तत्प्रसादात्) उस परमात्माकी कृपा से ही तू (पराम्) परम (शान्तिम्) शान्ति को तथा (शाश्वतम्) सदा रहने वाला सत (स्थानम्) स्थान-धाम- लोक को (प्राप्स्यसि) प्राप्त होगा।
अनुवाद: हे भारत! तू सब प्रकारसे उस अज्ञान अंधकार में छुपे हुए परमेश्वरकी ही शरणमें जा। उस परमात्माकी कृपासे ही तू परम शांतिको तथा सदा रहने वाला सत स्थान-धाम-लोक को प्राप्त होगा।
अध्याय नं. 18 का श्लोक नं. 66
सर्वधर्मान्, परित्यज्य, माम्, एकम्, शरणम्, व्रज,
अहम्, त्वा, सर्वपापेभ्यः, मोक्षयिष्यामि, मा, शुचः।।
अनुवाद: (माम्) मेरी (सर्वधर्मान्) सम्पूर्ण पूजाओं को (परित्यज्य) त्यागकर तू केवल (एकम्) एक उस पूर्ण परमात्मा की (शरणम्) शरणमें (व्रज) जा। (अहम्) मैं (त्वा) तुझे (सर्वपापेभ्यः) सम्पूर्ण पापों से (मोक्षयिष्यामि) छुड़वा दूँगा तू (मा,शुचः) शोक मत कर। अनुवाद: मेरी सम्पूर्ण पूजाओंको त्यागकर तू केवल एक उस पूर्ण परमात्मा की शरणमें जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे छुड़वा दूँगा तू शोक मत कर।
उपरोक्त श्लोकों का भावार्थ है कि काल (ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरुष) कह रहा है कि अर्जुन तू मेरी शरण में रहना चाहता है तो जन्म तथा मृत्यु बनी रहेगी। यदि परमशान्ति तथा सतलोक जाना चाहता है तो उस पूर्ण परमात्मा की शरण में चला जा। उसके लिए मेरी सर्व धार्मिक पूजाएँ अर्थात् सतनाम के प्रथम मन्त्रा के जाप की कमाई मुझ में छोड़ कर फिर सर्वभाव से उस एक (सर्वशक्तिमान अर्थात् जिसके बराबर दूसरा न हो उस अद्वितीय परमेश्वर) की शरण में चला जा फिर मैं तुझे सर्व पापों (ऋणों) से मुक्त कर दूंगा, तू चिन्ता मत कर तथा सतनाम के दूसरे मन्त्रा की कमाई हम परब्रह्म अर्थात् अक्षर पुरुष को छोड़ देंगे, क्योंकि हमने अक्षर पुरुष के लोक से होकर सतलोक जाना है, उसका किराया देना है। फिर तीसरा मन्त्रा सतशब्द अर्थात् सारनाम मिलेगा जो सतलोक में स्थाईत्व प्राप्त करायेगा।
यदि कोई व्यक्ति विदेश गया हो। वहाँ उस पर सरकार का ऋण हो। फिर वापिस स्वदेश आना चाहेगा तो उसे पहले उस देश के ऋण से मुक्ति लेनी होगी। फिर (छव क्नम ब्मतजपपिबंजम) ऋण मुक्त प्रमाण-पत्र प्राप्त करना होगा, तब उस का वापिस आने का पासपोर्ट बनेगा, नहीं तो उसे वापिस नहीं आने दिया जायेगा।
इसी प्रकार आप इस काल के लोक में शास्त्रा विरुद्ध साधना करके भक्ति हीन होकर ऋणी हो गए हो। पहले आपको साहूकार बनाया जायेगा। उसके लिए कविर्देव (कबीर साहेब या कबिर् साहेब) ने मुझ दास (संत रामपाल दास) को अपना प्रतिनिधि (त्मचतमेमदजंजपअम) बनाकर भेजा है। उस परमेश्वर की तरफ से यह दास आपका (ळनंतंदजमत) जिम्मेवार बनेगा तथा ब्रह्मा-विष्णु-शिव आदि शक्तियों से आप के पुनः कनेक्शन (सम्पर्क का लाभ) को प्रारम्भ करवाएगा। जो आपने इनके मन्त्र की कमाई करके किश्तों में बिल भरना है। जब तक आप यहाँ से मुक्त नहीं होते तब तक आप को सर्व भौतिक सुविधाएँ जोर-शोर से मिलती रहेंगी तथा आप पुण्यदान आदि करके अधिक भक्ति धनी बन सकोगे। दूसरे शब्दों में जैसे हमारे शरीर में कमल बने हैं। जब हम शरीर त्याग कर परमात्मा के पास जायेंगे तो हमें इन कमलों में से होकर जाना है। जैसे 1. मूल कमल में गणेश जी 2. स्वाद कमल में सावित्री-ब्रह्मा जी 3. नाभि कमल में लक्ष्मी तथा विष्णु जी 4. हृदय कमल में पार्वती और शिव जी 5. कण्ठ कमल में दुर्गा (अष्टंगी) है। इन कमलों से हम तब ही जा सकंेगे जब हम इनका ऋण अदा कर देंगे। प्रथम उपदेश से आप के सर्व कमल खिल जायेंगे अर्थात् आप ऋण मुक्त हो जाओगे। जब आप अन्त समय में शरीर छोड़कर चलोगे तो आप का रास्ता साफ मिलेगा अर्थात् आप के सर्व ऋण मुक्त प्रमाण-पत्र तैयार मिलेगा।
परन्तु हमने पूजा अपने मूल मालिक कविर्देव (कबिर साहेब) की करनी है। जैसे पतिव्रता पत्नी पूजा तो अपने पति की करती है, परन्तु यथोचित आदर सब का करती है। जैसे देवर को पुत्रवत तथा जेठ को बड़े भाई की तरह तथा सास व ससुर को माता-पिता की तरह। परन्तु जो भाव अपने पति में होता है वह अन्य में नहीं हो सकता। ठीक इसी प्रकार कबीर परमेश्वर के भक्त को अपनी भक्ति सफल करनी है। इसलिए किसी अनजान के बहकावे में मत आना। पूर्ण विश्वास के साथ इस दास के द्वारा बताए भक्ति मार्ग पर लगे रहना। यह भक्ति सर्व शास्त्रों के आधार पर है।
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दूसरे चरण में सतनाम प्रदान किया जाता है। जो दो मंत्र का है। एक ॐ (ओ3म्) + दूसरा तत् जो सांकेतिक है, केवल साधक को ही बताया जाता है।
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तीसरे चरण में सार नाम दिया जाता है जो तीन मंत्र का है।
ओ3म्-तत्-सत् (तत्-सत् सांकेतिक हैं जो साधक को ही बताए जायेंगे)।
इस प्रकार सारनाम (जो तीन मंत्र का बन जाएगा) के स्मरण अभ्यास से साधक परम दिव्य पुरुष अर्थात् परमेश्वर कविर्देव को प्राप्त होगा तथा सतलोक में परम शान्ति अर्थात् पूर्णमोक्ष को प्राप्त हो जायेगा।
विशेष - वर्तमान में यह वास्तविक साधना मुझ दास के अतिरिक्त किसी के पास नहीं है। यदि कोई मुझ दास से चुराकर स्वयं गुरु बनकर नकली शिष्य बना रहा हो तो उस मनुष्य जीवन के दुश्मन से सावधान रहें। वह अनअधिकारी होने के कारण अपना जीवन भी नष्ट कर रहा है तथा नादान अनुयाइयों को भी नरक का भागी बना रहा है, उसे काल का भेजा दूत जानें।