काल की परिभाषा

पवित्र विष्णु पुराण (प्रथम अंश) अध्याय 2 श्लोक 15 में वर्णन है कि

भगवान विष्णु (महाविष्णु रूप में काल) का प्रथम रूप तो पुरुष (प्रभु जैसा) है परन्तु उसका परम रूप ‘काल‘ है। जब भगवान विष्णु (काल जो महाविष्णु रूप में ब्रह्मलोक में रहता है तथा प्रकृति अर्थात् दुर्गा को अपनी पत्नी महालक्ष्मी रूप में रखता है) अपनी प्रकृति (दुर्गा) से अलग हो जाता है तो काल रूप में प्रकट हो जाता है।
(यह प्रकरण विष्णु पुराण प्रथम अंश अध्याय 2 पृष्ठ 4-5 गीता प्रैस गोरख पुर से प्रकाशित है। अनुवादक हैं श्री मुनिलाल गुप्त।)

विशेष:- उपरोक्त विवरण का भावार्थ है कि यह महाविष्णु अर्थात् काल पुरुष प्रथम दृष्टा रूप तो लगता है कि यह दयावान भगवान है। जैसे खाने के लिए अन्न, मेवा व फल आदि कितने स्वादिष्ट प्रदान किए हैं तथा पीने के लिए दूध, जल कितने स्वादिष्ट तथा प्राण दायक प्रदान किए हैं। कितनी अच्छी वायु जीने के लिए चला रखी है, कितनी विस्तृत पृथ्वी रहने तथा घूमने के लिए प्रदान की है, फिर पति-पत्नी का योग, पुत्रों व पुत्रियों की प्राप्ति से लगता है कि यह तो बड़ा दयावान प्रभु है। जिसके लोक में हम रह रहे हैं।

महाविष्णु का वास्तविक रूप काल कैसे है:- किसी के पुत्र की मृत्यु, किसी की पुत्री की मृत्यु, किसी के दोनों पुत्रों की मृत्यु, किसी का पूरा परिवार दुर्घटना में मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। किसी क्षेत्र में बाढ़ आकर हजारों व्यक्तियों की परिवार सहित मृत्यु, किसी क्षेत्र में भूकंप से लाखों व्यक्ति सपरिवार मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। इस प्रकार इस विष्णु {(महाविष्णु रूप में ज्योति निरंजन) का वास्तविक रूप काल है। क्योंकि ज्योति निरंजन (काल ब्रह्म) शाप वश एक लाख मानव शरीरधारी प्राणियों का आहार करता है। इसलिए इसने अपने तीनों पुत्रों (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिव जी)} से उत्पत्ति, स्थिति व संहार करवाता है।

उदाहरण:- अपने प्रिय सेवक श्री धर्मदास जी द्वारा काल की स्थिति पूछने पर पूर्ण ब्रह्म कविर्देव ने बताया कि जैसे कसाई बकरे पालता है। उन प्राणियों के चारे की व्यवस्था करता है, पानी का प्रबन्ध करता है, गर्मी व सर्दी से बचने के लिए कुछ मकान आदि का भी प्रबन्ध करता है, जिससे वे अबोध बकरे समझते हैं कि हमारा स्वामी बहुत नेक है। हमारा कितना ध्यान रखता है। जब कसाई उनके पास आता है तो वे नर व मादा बकरे उसे अपना सुखदाई मालिक जान कर उसको प्यार जताने के लिए आगे वाले पैर उठाकर कसाई के शरीर को स्पर्श करते हैं, कुछ उसके पैरों को चाटते हैं। कुछ को वह स्वयं छूकर कमर पर हाथ लगा कर दबा दबा कर देखता है तो वे बकरे समझते हैं कि हमें प्यार दे रहा है। परन्तु कसाई देख रहा होता है कि इस बकरे में कितने किलोग्राम मास हो चुका है। जब मास लेने के लिए ग्राहक आता है तो उस समय कसाई नहीं देखता कि किसका बाप मर रहा है, किसकी बेटी या पुत्र या सर्व परिवार मर रहा है। उनको सुविधा देने का उसका यही उद्देश्य था। ठीक इसी प्रकार सर्व प्राणी काल (ब्रह्म) साधना करके काल आहार ही बने हैं। इससे छूटने की विधि आपको इसी पुस्तक में विस्तृत मिलेगी। एक बहन ने मुझ दास का सतसंग सुना तथा बाद में अपनी दुःख भरी कथा सुनाई जो निम्न है:-

प्रत्यक्ष प्रमाण:- उस बहन ने कहा महाराज जी मैं विधवा हूँ। एक पुत्र की प्राप्ति होते ही मेरे पति की मृत्यु हो गई। मैंने अपने पुत्र की परवरिश बहुत ही चाव तथा प्यार के साथ इस दृष्टि कोण से की कि कहीं पुत्र को पिता का अभाव महसूस न हो जाए। उसने जो सम्भव वस्तु की प्रार्थना की मैंने दुःखी सुखी होकर उपलब्ध करवाई। जब वह ग्यारहवीं कक्षा में काॅलेज में जाने लगा तो मोटर साईकिल की जिद कर ली। दुर्घटना के भय से मैंने बहुत मना किया, परन्तु पुत्र ने खाना नहीं खाया। तब मैंने उसके प्यारवश होकर मोटर साईकिल जैसे-तैसे करके मोल लेकर दे दी। मैंने दूसरी शादी भी इसी उद्देश्य से नहीं करवाई की कि कहीं मेरे पुत्र को कष्ट न हो जाए। मैंने अपने पुत्र को गर्म-गर्म खाना खिलाया। वह प्रतिदिन की तरह अपने एक दोस्त को उसके घर से मोटर साईकिल पर बैठाकर काॅलेज जाने के लिए चला गया।

मैंने शेष भोजन बनाया तथा स्वयं खाने के लिए भोजन डाल कर प्रथम ग्रास ही तोड़ा था इतने में मेरे पुत्र का दोस्त दौड़ा हुआ आया, उसको कुछ चोट लगी हुई थी। उसने कहा कि चाची भईया को दुर्घटना में बहुत ज्यादा चोट आई है। इतना सुनते ही हाथ का ग्रास थाली में गिर गया। नंगे पैरों उस बच्चे के साथ पागलों की तरह रोती हुई दौड़ कर उस स्थान पर गई जहाँ मेरे पुत्र की दुर्घटना हुई थी। वहाँ पर केवल क्षति ग्रस्त मोटर साईकिल पड़ी थी। उपस्थित व्यक्तियों ने बताया कि आपके पुत्र को हस्पताल लेकर गये हैं। मैं हस्पताल पहुँची तो डाक्टरों ने मृत घोषित कर दिया। मैंने हस्पताल की दीवार को टक्कर मारी, मेरा सिर फट गया, सात टांके लगे, बेहोश हो गई, लगभग दो घंटे में होश आया।

उस दिन के बाद सर्व भगवानों के चित्र घर से बाहर फैंक दिए तथा स्वपन में भी किसी भगवान को याद नहीं करती। क्योंकि मैंने अपने पुत्र की कुशलता के लिए लोकवेद अनुसार सर्व साधनाऐं की, परन्तु कुछ भी काम नहीं आई। आज आप का सत्संग जो सृष्टि रचना का प्रकरण आपने सुनाया तथा पवित्र गीता जी से भी बताया कि यह सर्व काल का जाल है, अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए कसाई की तरह सर्व प्राणियों को विवश किए हुए है। मेरी तो आज आंखें खुल गई। अब फिर मन करता है कि आपका उपदेश लेकर काल जाल से निकल जाऊं। उस बहन ने उपदेश लिया तथा अपना कल्याण करवाया।

मैंने उस बहन से पूछा कि आप क्या साधना करते थे?

उस बहन ने उत्तर दिया:- एक सुप्रसिद्ध संत का नाम लेकर कहा कि उस मूर्ख से दस वर्ष से उपदेश भी ले रखा था। उसके बताए अनुसार नाम जाप घण्टों किया करती थी। श्री विष्णु जी का सहòनामा का जाप भी करती थी। गीता जी का नित पाठ, पितर पूजा (श्राद्ध निकालना) करती थी। गांव में परम्परागत बाबा श्याम जी की पूजा भी करती थी। अष्टमी तथा सोमवार का व्रत भी करती थी। निकटतम मन्दिर में प्रतिदिन जाती थी। वर्ष में दो बार वैष्णों देवी के दर्शन करने जाती थी। गुड़गांव वाली माता की पूजा भी करती थी। नवरात्रों का व्रत भी किया करती थी। एक बहन ने कहा बाबा गरीबदास जी की पूजा करने तथा वहाँ छुड़ानी धाम(जिला झज्जर) पर जाने से कोई आपत्ति नहीं आ सकती। वहाँ भी छठे महीने मेला भरता है जाया करती थी तथा संत गरीबदास जी की अमृतवाणी का पाठ भी करवाती थी। और क्या बताऊँ? बाबा हरिदास जी झाड़ौदा वाले की भी पूजा करती थी। मुझे कोई लाभ नहीं हुआ। पहले तो लगता था कि मेरा परिवार सुखी है। जो उपरोक्त साधना का ही परिणाम है।

परन्तु अब आपके सत्संग से ज्ञान हुआ कि यह तो मेरा प्रारब्ध ही मिल रहा था। ये पूजायें पवित्र गीता जी में तथा पवित्र अमृत वाणी गरीबदास जी के सद्ग्रन्थ में वर्णित न होने से शास्त्रा विरुद्ध थी। जिस कारण से कोई लाभ होना ही नहीं था। हमारा क्या दोष है? जो गुरु जी ने साधना बताई मैं तो तन-मन-धन से कर रही थी। अब पता चला कि वे गुरु नहीं है, वे तो नीम हकीम हैं। मानव जीवन के सब से बड़े शत्रु हैं। यदि मुझे यह सत्य साधना मिल जाती तो मेरा पुत्र नहीं मरता। क्योंकि मैंने आपके सेवकों के सुखों को देखा है तथा उन पर आने वाली भयंकर आपत्तियों को टलते देखा है। तब मैं आपका सत्संग सुनने आई हूं तथा आप का लगातार चार दिन तक सत्संग सुनकर आज उपदेश लेने की इच्छा हुई है। मैंने उस बहन से कहा कि जिन साधनाओं को आप कर रही थी वे शास्त्रा विधि अनुसार नहीं थी, जिस कारण आपको परमेश्वर से लाभ प्राप्त नहीं हुआ। यह तो आप ने स्वयं ही निर्णय लेकर बता दिया। क्योंकि आज तक आपको सत्संग ही प्राप्त नहीं हुआ था। जिसे आप सत्संग जानकर श्रवण करती थी, वह सत्संग नहीं लोक वेद (सुना सुनाया शास्त्रा विरुद्ध ज्ञान) था। जो आप किसी धाम पर जाती थी तथा पाठ करवाती थी। आदरणीय गरीबदास जी की पूजा करती थी। जब कि आदरणीय गरीबदास जी तो कहते हैं कि:-

सब पदवी के मूल हैं, सकल सिद्ध हैं तीर। दास गरीब सतपुरुष भजो, अविगत कला कबीर।।
अलल पंख अनुराग है, सुन्न मण्डल रहे थीर। दास गरीब उधारिया,सतगुरु मिलें कबीर।।
पूजें देई धाम को, शीश हलावें जो। गरीबदास साची कहैं, हद काफिर हैं सो।

उपरोक्त अमृतवाणी में प्रमाण है कि आदरणीय गरीबदास साहेब जी कह रहे हैं कि मेरा उद्धार भी परमेश्वर कबीर(कविर्देव) ने किया तथा तुम भी उसी सर्वशक्तिमान (कविरमितौजा) अनन्त शक्तियुक्त कबीर परमेश्वर की ही भक्ति करो।

{वेदों में कबीर परमेश्वर जी को ‘‘कविरमितौजा’’ लिखा है जिसका अर्थ है कविर्देव अनन्त शक्तिमान है। संस्कृत भाषा के जानकार अपनी किताबी बुद्धि के अनुसार ‘‘कविरमितौजा’’ का अर्थ करते हैं कि कवि अनन्त शक्तिमान है। उसकी शक्ति का कोई वार-पार नहीं है। विचार करने की बात है कि कोई भी कवि अनन्त शक्तिमान नहीं हो सकता। वेदों के गूढ़ शब्दों को ठीक से न समझकर वेदों के अनुवादकों ने अर्थ ठीक नहीं किए हैं। वेदों में अनेकों स्थानों पर परमात्मा की महिमा की है। वहाँ पर ‘‘कविर्देव’’ लिखा है जिसका अर्थ अनुवादकों ने ‘‘कवि परमेश्वर’’ किया जबकि उसका अर्थ ‘‘कविर् परमेश्वर’’ बनता है। हम उसे कबीर (कबिर) साहेब कहते हैं। उन्हीं अनुवादकों ने यजुर्वेद में यजुः (यजुर्) का यजुर्वेद किया है क्योंकि उसमें प्रकरण यजुर्वेद का है और केवल ‘‘यजुः’’ शब्द लिखा है। इसी प्रकार प्रकरणवश कहीं पर ‘‘कविः’’ भी वेदों में लिखा है और महिमा परमात्मा की कही तो वहाँ पर ‘‘कविर्देव’’ लिखकर अनुवाद करना उचित है।

उदाहरण के लिए यजुर्वेद अध्याय 5 श्लोक 32 में लिखा है:-

’’उशिक् असि कविरंघारि असि बंभारि असि सम्राट असि स्वज्र्योति ऋतधामा असि‘‘

जिसका यथार्थ अनुवाद इस प्रकार है:-

(उशिक असि) जो परमशांतिदायक है, वह (कविर् अंघ अरि) कविर्देव है जो पापों का शत्रु यानि पापनाशक (असि) है। (बंभारि) बंधनों का शत्रु यानि बंधन का नाश करने वाला बन्दी छोड़ (असि) है। (सम्राट असि) सर्व ब्रह्मण्डों का महाराज मालिक है। वह (स्वज्र्योति) स्वप्रकाशित (ऋतधामा) सत्यलोक में रहने वाला (असि) है जबकि अन्य अनुवादकों ने इस वेद के मंत्र के अनुवाद में ‘‘कविर’’ का अर्थ सर्वज्ञ किया है जो अनर्थ है। कवि कोई सर्वज्ञ नहीं हो सकता। महिमा परमात्मा की है। मूल पाठ से स्पष्ट है कि ‘‘कविर’’ यानि कविर्देव ‘‘अंघ अरि’’ यानि पापों का शत्रु है। शब्द लिखा है कविरंघारि यानि कविर्देव की महिमा है, वह पापनाशक प्रभु है।}

उसके लिए कहा है कि पूर्ण संत जो कबीर परमेश्वर(कविर्देव) का कृपा पात्र हो, उससे उपदेश लेकर अपना कल्याण करवाओ। झूठे गुरुओं के आश्रित रहने से जीवन व्यर्थ होता है। उस शास्त्रा विरुद्ध साधना बताने वाले नकली गुरु को त्याग देना चाहिये। उसके तो दर्शन भी अशुभ होते हैं। आदरणीय गरीबदास जी अपनी अमृतवाणी में कहते हैं कि:-

झूठे गुरु को लीतर लावैं, उसको निश्चय पीटे। उसके पीटे पाप नहीं है, घर से काढ़ घसीटे।। उपरोक्त अमृतवाणी में आदरणीय गरीबदास साहेब जी शास्त्रा विधि रहित साधना बताकर अनमोल मानव जन्म को नष्ट करने वाले नकली (झूठे) मार्ग दर्शकों (गुरुओं) के विषय में कह रहे हैं कि वे आप का जीवन नष्ट करने वाले हैं। उनसे तुरंत छुटकारा लेना चाहिये। घर में घुसने नहीं देना चाहिए। वे तो परमेश्वर कबीर (कविर्देव) के द्रोही हैं तथा काल के भेजे दूत हैं।

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