कबीर चरित्र बोध

अध्याय कबीर चरित्र बोध का सारांश

कबीर सागर में 38वां अध्याय ‘‘कबीर चरित्र बोध‘‘ पृष्ठ 1789 पर है। कबीर सागर के यथार्थ ज्ञान को बिगाड़कर कहीं का नहीं छोड़ा। कबीर पंथ धर्मदास जी के द्वितीय पुत्रा श्री चूड़ामणी (जिसको मुक्तामणी भी कहते हैं) से चला है। इससे काल के 10 पंथ और निकले हैं। बारहवां (12वां) पंथ संत गरीबदास जी (गाँव-छुड़ानी, जिला-झज्जर, प्रान्त-हरियाणा) से चला है। संत गरीबदास जी को स्वयं कबीर परमेश्वर जी मिले थे। उनको संत धर्मदास जी की तरह सत्यलोक लेकर गए थे। फिर वापिस पृथ्वी पर शरीर में प्रवेश किया था। अपनी यथार्थ महिमा का परिचय दिया जो संत गरीबदास जी ने आँखों देखा, कानों सुना ज्ञान अपनी अमृतवाणी में बताया है जिसको हम ‘‘सद्ग्रन्थ‘‘ कहते हैं। संत गरीबदास जी ने कबीर सतगुरू के विषय में बताया हैः-

गरीब, गुरू ज्ञान अमान अडोल अबोल है, सतगुरू शब्द सेरी पिछानी।
दास गरीब कबीर सतगुरू मिले, आन अस्थान रोप्या छुड़ानी।।

स्पष्ट हुआ कि संत गरीबदास जी को सन् 1727 (वि.सं. 1784 में) कबीर परमेश्वर जी सतगुरू रूप में मिले थे। कौन से कबीर मिले थे?

गरीब, हम सुल्तानी नानक तारे, दादू कूं उपदेश दिया। जाति जुलाहा भेद न पाया, काशी मांही कबीर हुआ।

स्पष्ट हुआ कि संत गरीबदास जी को काशी वाला जुलाहा कबीर सतगुरू मिले थे। वही कबीर जी श्री नानक देव जी (सिक्ख धर्म के प्रवर्तक) को मिले थे।

उस समय परमेश्वर कबीर बन्दी छोड़ जी काशी शहर में जुलाहे की लीला कर रहे थे। सुल्तानपुर शहर के पास बह रही बेई नदी के किनारे श्री नानक देव जी को मिले थे। उस समय श्री नानक देव जी नदी पर सुबह स्नान करने के लिए गए हुए थे। कुछ देर ज्ञान चर्चा हुई। फिर तीन दिन तक उनको संत धर्मदास जी तथा संत गरीबदास जी की तरह सत्यलोक (सच्चखण्ड) में लेकर गए थे। फिर श्री नानक देव जी को वापिस पृथ्वी पर छोड़ा। उन्होंने भी आँखों देखा तथा कानों सुना परमेश्वर की महिमा का ज्ञान अपनी अमृतवाणी में बताया। वही परमेश्वर कबीर जी श्री संत दादू दास साहेब जी को मिले थे। उनको भी तीन दिन तक ऊपर सत्यलोक में लेकर गए थे। वह सतगुरू कबीर जी माघ (माह) महीने की शुक्ल पक्ष की एकादशी (ग्यास) को विक्रमी संवत् 1575 (सन् 1518) को मगहर नगर से सशरीर सत्यलोक में अपने निज घर में चले गए थे। उस समय कई हजार दर्शक उपस्थित थे तथा मगहर नगर का नवाब बिजली खान पठान तथा काशी शहर का नरेश बीर देव सिंह बघेल भी अपनी-अपनी सेना सहित मगहर नगर में उपस्थित थे। उन सबके देखते-देखते आकाश में परमात्मा सशरीर गए थे। जब शव के ऊपर की चादर को उठाकर देखा तो शव के आकार में सुगन्धित फूल मिले थे। उसके पश्चात् विक्रमी संवत् 1784 (सन् 1727) में संत गरीबदास जी को सतलोक से आकर छुड़ानी गाँव के जंगल (खेतों) में मिले थे। उस समय संत गरीबदास जी की आयु 10 वर्ष की थी। संत गरीबदास जी ने कहा है कि:-

गरीब, अजब नगर में ले गए, मुझको सतगुरू आन।(आकर) झिलके बिम्ब अगाध गति, सूते चादर तान।।
गरीब, अलल पंख अनुराग है, सुन्न मण्डल रहे थीर। दास गरीब उधारिया, सतगुरू मिले कबीर।।
गरीब, सोलह शंख पर सतगुरू का तकिया, गगन मण्डल के जिंदा। हुकम हिसाबी हम चलि आए, काटन यम का फंदा।।

भावार्थ:- संत गरीबदास जी ने बताया है कि सतगुरू कबीर जी मुझे सतलोक से आकर अजब नगर यानि अद्भुत नगर (सत्यलोक) में ले गए। वहाँ हम निश्चिंत होकर सोए यानि उस परमात्मा तथा उस अमर लोक की महिमा सुनकर मैं निश्चिंत हो गया कि जो सत्य साधना परमेश्वर कबीर जी ने बताई है, उससे उस सत्यलोक में चला जाऊँगा जहाँ जाकर साधक फिर लौटकर संसार में नहीं आते। वहाँ पर जीव को वृद्ध अवस्था नहीं होती। वहाँ जीव की कभी मृत्यु नहीं होती। इसी कबीर परमेश्वर ने धनी धर्मदास जी बाँधवगढ़ वाले का उद्धार किया था।

गरीब, जिन्दा जोगी जगत गुरू, मालिक मुरशद पीर। दोहूं दीन झगड़ा मंड्या, पाया नहीं शरीर।।
गरीब, जम जौरा जासे डरें, मिटैं कर्म के लेख। अदली असल कबीर हैं, कुल के सतगुरू एक।।
गरीब, ऐसा सतगुरू हम मिल्या, है जिंदा जगदीश। सुन्न विदेशी मिल गया, छत्रा मुकुट है शीश।।
गरीब, सब पदवी के मूल हैं, सकल सिद्धि हैं तीर। दास गरीब सतपुरूष भजो, अवगत कला कबीर।।
गरीब, अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड का, एक रति नहीं भार। सतगुरू पुरूष कबीर हैं, कुल के सिरजनहार।।

भावार्थ:- संत गरीबदास जी ने स्पष्ट कर दिया है कि मुझे सतगुरू रूप में स्वयं सृजनहार मिले थे जिन्होंने सर्व ब्रह्माण्डों की रचना की है। वह परमेश्वर कबीर जी हैं जो काशी शहर (भारतवर्ष) में जुलाहे की लीला करके गए थे। वे सब पदवी के मूल हैं यानि पूर्ण सतगुरू की पदवी भी उन्हीं के पास है। पूर्ण कवि की पदवी भी उन्हीं के पास है। पूर्ण परमात्मा का पद यानि पद्वी भी उन्हीं के पास है। सर्व सिद्धियां भी उन्हीं के पास है। वे स्वयं सत्यपुरूष कबीर जी हैं, उसकी भक्ति करो।

श्री नानक देव जी ने भी कहा है कि:-

फाई सूरत मलूकि भेष, इह ठगवाड़ा ठगी देश। खरा सियाणा बहुते भार, धाणक रूप रहा करतार।।

(गुरू ग्रन्थ साहेब पृष्ठ 24 पर)

गुरू ग्रन्थ साहेब पृष्ठ 721 पर कहा है कि:-

एक अर्ज गुफतम पेश तो दर कून करतार। हक्का कबीर करीम तू बेअब परवरदिगार।।
नानक बुगोयद जन तुरा तेरे चाकरां पाखाक।।

गुरू ग्रन्थ साहेब पृष्ठ 731 पर कहा है कि:-

नीच जाति प्रदेशी मेरा, खिन्न आवै तिल जावै। जाकि संगत नानक रहंदा, क्यूकर मौड़ा पावै।।

भावार्थ:- श्री नानक देव जी ने स्पष्ट कर दिया है कि जो धाणक यानि जुलाहा कबीर है, वह ही करतार यानि सृष्टि का रचनहार परवरदिगार यानि पालनकर्ता है। वह नीच जाति वाला कभी तो ऊपर सतलोक में चला जाता है, कभी यहाँ पृथ्वी पर विचर रहा होता है। वह बहुत बुद्धिमान है। उसका बहुत भार है यानि वह समर्थ है। इस कारण से सबसे गुरू (भारी) है। गुरू माने वजनी=भारी भी होता है। गुरू माने बड़ा भी तथा मार्गदर्शक अर्थ भी होता है।

श्री संत दादू दास जी को भी परमेश्वर कबीर जी मिले थे। उन्होंने भी कहा है कि जिसने मुझे निजनाम (वास्तविक भक्ति मंत्रा) दिया है, वह मेरा गुरू है, वही सृजनहार है, अन्य कोई नहीं है। जिन मोकूं निज नाम दिया, सोई सतगुरू हमार। दादू दूसरा कोई नहीं, कबीर सृजनहार।। संत धर्मदास जी बांधवगढ़ वाले ने भी कहा है। ज्ञान प्रकाश बोध पृष्ठ 57(481) से 59(483) पर प्रमाण है।

धर्मदास जी ने बहुत हठ किया कि हे सतगुरू! मुझे वह सतलोक दिखा दो जिसकी महिमा आपने बताई है तथा मुझे उस सतपुरूष के दर्शन करा दो जिसने आपको नीचे भेजा है। जो सर्व का उत्पत्तिकर्ता है। परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी को बहुत समझाया कि आप यह हठ क्यों कर रहे हो? मैं जैसी साधना बताऊँ, करते रहो, जब शरीर त्यागकर जाओगे तो उस लोक तथा सतपुरूष को देख लेना। लेकिन धर्मदास जी ने बहुत अधिक विनय की कि हे प्रभु! मैं आपके निहोरे निकालता हूँ यानि आपसे बार-बार विनय कर रहा हूँ, मुझे पुरूष के दर्शन कराओ।

हो प्रभु चिन्तागण करू मोरा। पुरूष दरश कराओ करों निहोरा।।

परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि:-

धर्मदास यह हठ का करहू। मानहू शब्द शीश पर धरहू।।
हमरा नाम गहें पुरूष पर जैह। बिना नाम उहां जान न पंहै।।

परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि हे धर्मदास! यह हठ क्यों कर रहे हो, आप हमारे से दीक्षा लो। दीक्षा मंत्रा लिए बिना वहाँ जाया नहीं जा सकता। धर्मदास जी ने कहा कि हे प्रभु! आपके ज्ञान के आप ही साक्षी हैं। किसी अन्य ने यह भेद बताया नहीं। इसलिए परमेश्वर का दर्शन करने से सब संशय समाप्त हो जाएंगे अन्यथा दिल में रेख यानि शंका बनी रहेगी।

धर्मदास चित बहुत सकाने। चरण टेकि बहुत बिनती ठाने।।
हो प्रभु! सत्य कहौं तोहि पाहीं। तुम्हते कछु दुचिताई नाहीं।।
हो प्रभु! बरणेऊ जो लोक की शोभा। ताते आही मोर मन लोभा।।
तव लीला बहुतै हम देखा। पुरूष दरश बिनु रहै हिय रेखा।।

धर्मदास जी के बार-बार विनती करने पर परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी को प्रथम मंत्रा जो पाँच नाम का ब्रह्म गायत्राी मंत्रा है, उसकी दीक्षा दी। यह भूर्भवः स्वः वाला नहीं, अन्य मंत्रा है। फिर धर्मदास का शरीर पृथ्वी पर छोड़कर आत्मा को ऊपर सत्यलोक में लेकर गए। तीन दिन-रात ऊपर रखे। वहाँ कबीर जी ही परमेश्वर के सिहांसन पर विराजमान थे। उनके शरीर के बाल (रोम) का प्रकाश करोड़ सूर्यों तथा करोड़ चन्द्रमाओं के मिले-जुले प्रकाश से भी अधिक था। वहाँ पर स्त्राी-पुरूष रूप में मानव रहते हैं। उनके शरीर का प्रकाश पुरूष का 16 सूर्यों जितना है। वहाँ पर सब एक-दूसरे से प्रेम से मिलते हैं। बहुत से सतलोकवासी नर-नारी मिलकर नाचते-गाते हुए धर्मदास जी को उस स्थान पर ले गए जहाँ पर स्वयं कबीर जी ही तेजोमय शरीर में तख्त यानि सिहांसन पर बैठे थे। सर्व लोक तथा सतपुरूष के दर्शन करके एक स्थान पर धर्मदास जी को आदर के साथ वहाँ के निवासियों ने बैठाया। फिर परमेश्वर कबीर जी तेजोमय शरीर में सिंहासन छोड़कर वहाँ पर आए। धर्मदास जी शर्मिन्दा हो गए। लज्जावश होकर कहने लगे कि:-

पुरूष अरू कबीर देखा एक भाई। धर्मदास पुनि रहे लज्जाई।।
पुरूष दरश करि आये तहवां। प्रथम कबीर बैठाये जवहाँ।।
इहाँ कबीर बैठे पुनि देखा। कला पुरूष तन अचरज पेखा।।
का अजगुत किन्हेऊ भाई। वहाँ (पृथ्वी पर) मोहे प्रतीत (विश्वास) न आई।।
धाये चरण अति सकुचाई। हे प्रभु! तव परिचय अब हम पाई।।
यह शोभा कस वहाँ (पृथ्वी पर) छुपावा। कैसे नहीं जग महँ प्रकट दिखावा।।

भावार्थ:- जब धर्मदास जी ने परमेश्वर को सत्यलोक अपने वास्तविक सत्यपुरूष रूप में देखा तो कहा कि मेरे को अब आपका वास्तविक परिचय हुआ है। आप सत्य पुरूष स्वयं ही संसार में कबीर दास कहलाते हो। आपने यह वास्तविक शोभा नीचे पृथ्वी पर क्यों छुपा रखी है? तब परमेश्वर ने कहा कि यदि मैं इसी प्रकाश युक्त शरीर से संसार में चला जाऊँ तो काल निरंजन विकल यानि परेशान हो जाएगा। सब जीव मेरे से लग्न लगाएंगे। यह मैं नहीं करूँगा क्योंकि जब तक जीव को ज्ञान नहीं होगा और उसकी भक्ति की शक्ति पूरी नहीं होगी, तब तक सत्य लोक में स्थाई स्थान नहीं मिल सकता। इसलिए मैं वास्तविक यानि तत्त्वज्ञान तथा सत्य भक्ति मंत्रा बताने संसार में जाता हूँ। जो मुझ पर विश्वास करके मंत्रा जाप करेगा तो वह निश्चय मुक्ति प्राप्त करके इस लोक में आएगा।

धर्मदास जी ने भी यह प्रार्थना की थी कि मुझको यहीं रख लो, उस काल के लोक में ना भेजो भगवान।

हे साहेब अब वहाँ न जांही। यह सुख तज कहाँ झुराही।।
वह तो यमदेश अपरबल काला। नहीं जानों वहाँ होत बेहाला।।

परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी को समझाया कि आप पृथ्वी पर जाओ, मैं सदा तुम्हारे साथ रहूँगा। आपने जो आँखों सतलोक की शोभा-सुख तथा परमेश्वर देखा है, यह संसार के जीवों को बताओ, अपना साक्ष्य देकर उनको विश्वास दिलाओ। सत्य भक्ति करके भक्ति धन संचित करके यहाँ आओ।

धर्मदास तोहे चिन्ता नाहीं। तुमरे संग हम सदा रहाहीं।।
तुम देख सत्यलोक प्रभावो। हंसन सतपुरूष संदेश सुनावो।।_

धर्मदास जी ने परमेश्वर कबीर जी के आदेश का पालन करके पृथ्वी पर शरीर में प्रवेश किया तथा परिजन मृत जानकर रो रहे थे, उनको शांति हुई। धर्मदास जी को विश्वास हुआ कि मैंने कोई स्वपन नहीं देखा है? वास्तव में शरीर त्यागकर सूक्ष्म शरीर से परमेश्वर तथा सत्यलोक के दर्शन करके लौटा हूँ।

छिन एक महं जग में चलि आए। पैंठि देह में धर्मनि अकुलाये।।
कई दिवस इहाँ मन नहीं लागा। जैसे गहरी नींद जन जागा।।
धर्मदास गए सतगुरू शरणा। बैठे काशी तारण तरना।।
परेऊ चरण गहि साहब केरा। करी बिनती सुख घनेरा।।
धन्य साहेब तुम सतगुरू अरू सत्य पुरूष आप हो।।
तव लीला को लखै तुम्हरो अनन्त प्रताप हो।।
त्रिदेव-मुनि नारद कोई ना पार तुम्हारा पाये हो।।
ता हंस के भाग सराहिए जो शरण तुम्हारी आये हो।।
निर्गुण-सरगुण अनादि तुम हो। अविगत अगम अथाह।।
गुप्त भये जग में फिरो को पावै तुम्हरो थाह।।

इस प्रकार उपरोक्त सर्व प्रत्यक्ष दृष्टा महापुरूषों ने स्पष्ट किया कि जो काशी में धाणक यानि जुलाहे की भूमिका भी किया करता था। वह स्वयं सत्य पुरूष है। परमेश्वर कबीर जी ने भी स्वामी रामानंद जी आचार्य को अपना परिचय दिया था। कहा था कि:-

हम ही अलख अल्लाह हैं, कुतुब गोस अरू पीर। गरीब दास खालिक धनी, हमरा नाम कबीर।।
ऐ स्वामी सृष्टा मैं, सृष्टि हमारे तीर। दास गरीब अधर बसूं, अविगत सत्य कबीर।।

स्वामी रामानंद काशी वाले आचार्य को भी परमेश्वर कबीर जी संत धर्मदास जी, संत गरीबदास जी, संत दादू जी तथा संत नानक देव जी की तरह सत्यलोक में ले जाकर अपना परिचय करवाकर पृथ्वी पर शरीर में छोड़ा था। स्वामी रामानन्द जी ने भी कहा था कि:-

तहां वहां चित चक्रित भया, देख फजल दरबार। दास गरीब सिजदा किया, हम पाये दीदार।।
बोलत रामानंद जी, सुनो कबीर करतार। गरीबदास सब रूप में तुम ही बोलनहार।।
तुम साहेब तुम संत हो, तुम सतगुरू तुम हंस। गरीबदास तुम रूप बिना, और न दूजा अंश।।
मैं भक्ता मुक्ता भया, किया कर्म कुल नाश। गरीबदास अविगत मिले, मेटी मन की प्यास।।
दोनों ठौर है एक तू, भया एक से दोय। गरीबदास हम कारणें, आये हो मग जोय।।
बोले रामानंद जी, सुनो कबीर शुभान। गरीबदास मुक्त भये, उधरे पिंड और प्रान।।
गोष्टि रामानंद से काशी नगर मंझार। गरीबदास जिन्द पीर के, हम पाये दीदार।।

उपरोक्त प्रमाणों से स्पष्ट हुआ कि काशी में कपड़ा बुनने वाला जुलाहा कबीर ही पूर्ण परमात्मा है। सर्व का रचनहार है।

बड़ी विडम्बना है कि मुझ दास (रामपाल दास) के अतिरिक्त सब कबीर पंथी कहते हैं कि सत्य पुरूष तो निराकार है, सत्यलोक में केवल प्रकाश है। कबीर जी उस सत्य पुरूष द्वारा भेजे गए ज्ञानी पुरूष थे यानि सतगुरू थे। वे सत्य पुरूष नहीं थे। इससे स्पष्ट हो जाता है कि जो कबीर पंथ चला रहे हैं, वे वास्तविकता से परिचित नहीं हैं। केवल ऊवाबाई का ज्ञान बताते हैं। कबीर सागर में पृष्ठ 1790 पर ‘‘कबीर चरित्रा बोध‘‘ में गलत लिखा है किः-

‘‘सत्य पुरूष की आज्ञा‘‘

सत्य पुरूष ने ज्ञानी जी से कहा कि हे ज्ञानी जी! काल पुरूष ने समस्त जीवों को फँसाकर मार लिया है। जीव मेरे लोक में नहीं आता। मैंने सुकृत जी (धर्मदास) को सत्य पंथ के प्रचार के लिए पृथ्वी पर भेजा था। उसको काल पुरूष ने धोखा देकर लोकवेद में फँसा लिया है। आप पृथ्वी पर जाओ और सुकृत जी को चेताकर मुक्ति पंथ प्रकट करो। तब ज्ञानी जी (कबीर जी) सत्य पुरूष की आज्ञा शिरोधार्य कर दण्डवत् प्रणाम करके सत्यलोक से विदा हुए।

कबीर साहेब का काशी में प्रकट होना भी गलत लिखा है:-

इसमें लिखा है कि विक्रमी संवत् चैदह सौ पचपन ज्येष्ठ पूर्णिमा सोमवार के दिन सत्य पुरूष का तेज काशी में लहर तालाब में उतरा। उस समय पृथ्वी और आकाश प्रकाशित हो गए। उस समय अष्टानन्द वैष्णव तालाब पर बैठे थे। वृष्टि (वर्षा) हो रही थी। बिजली चमक रही थी। उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि लेखक महोदय की बुद्धि कितना कार्य कर रही है। कहा है कि वर्षा हो रही थी। वैष्णव अष्टानन्द जी तालाब पर बैठे थे।

विचार करें:- वर्षा में ऋषि अष्टानंद तालाब पर बैठकर क्या कर रहे थे? वर्षा में मूर्ख भी नहीं बैठे, वह भी इधर-उधर कोई मकान या झोंपड़ी खोजता है। वास्तविकता यह है कि अष्टानन्द साधक थे। प्रतिदिन स्नान करने जाते थे। सरोवर के पास बैठकर साधना किया करते थे। प्रतिदिन की तरह उस दिन भी स्नान करके अपनी साधना कर रहे थे। उस दिन ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा थी। मौसम साफ था।

फिर लिखा है कि नीरू अपनी पत्नी को ससुराल से प्रथम बार लिए चला आ रहा था। नीमा को प्यास लगी। वह पानी पीने तालाब पर गई, वहाँ से बालक उठा लाई। फिर नीरू-नीमा को जन्मजात मुसलमान बताया है। जैसा कि आप जी ने कबीर चरित्रा बोध पृष्ठ 1790 पर लिखा विवरण पढ़ा कि लेखक ने सत्य पुरूष की आज्ञा से यानि कबीर जी का पृथ्वी पर आना लिखा है। इससे स्पष्ट है कि ये पुराने कबीर पंथी श्रद्धालु वास्तविकता से अपरिचित होने से कबीर जी का गलत प्रचार कर रहे थे। यथार्थ कबीर चरित्रा बोध कृप्या निम्न पढ़ें:-

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