फुरकान (सत्य-असत्य) का निर्णय
फुरकान (सत्य-असत्य) का निर्णय:- प्रथम नबी बाबा आदम से लेकर अंतिम नबी मुहम्मद तक एक लाख अस्सी हजार पैगम्बर (नबी) हुए हैं जो सब के सब काल (ज्योति निरंजन) की ओर से भेजे गए थे। हजरत मुहम्मद अंतिम नबी हुए हैं। इनके बाद नबी परम्परा समाप्त हो गई।
{कुरआन ज्ञान दाता ने भी कुरआन मजीद में सूरः अहजाब-33 आयत नं. 40 में बताया है:-
(लोगों) मुहम्मद तुम्हारे (मर्दों) में से किसी के बाप नहीं हैं। मगर ये अल्लाह के रसूल और नबियों के समापक (आखरी नबी) हैं और अल्लाह हर चीज का ज्ञान रखने वाला है।}
अल्लाह ताला (कादर अल्लाह) स्वयं ही अपना नबी स्वयं बनकर भी धरती पर तथा सब आसमानों पर आता-जाता है यानि भ्रमण करके अपनी जानकारी बताता है। यथार्थ ज्ञान देता है। अल्लाह ताला कबीर जी अपने नबी तथा रसूल भी धरती पर भेजता है जो अल्लाह ताला की महिमा का ज्ञान बताते हैं। उनमें से कुछ काल ज्योति निरंजन द्वारा भ्रमित होकर काल का प्रचार व भक्ति करने लगते हैं। उनको सही दिशा देने स्वयं समर्थ परमात्मा (कादर अल्लाह) धरती पर आता है। उनको साधु वेश में मिलता है। अध्यात्म ज्ञान चर्चा करके उनके ज्ञान को गलत सिद्ध करता है। फिर उनको अपना यथार्थ ज्ञान बताता है। भारत देश के काशी नगर (बनारस) में सन् 1398 से सन् 1518 तक जुलाहे की भूमिका करते हुए लाखों हिन्दू तथा मुसलमानों को इबादत की सही विधि बताई। दोनों धर्मों के चौंसठ लाख व्यक्तियों को शरण में लिया। भक्ति की यथार्थ विधि बताई। उनको मोक्ष मार्ग पर लगाया। काशी में लीला करने के बाद दास (संत रामपाल) से पहले बारह पंथ कबीर नाम से चलाने के लिए नबी आए। परंतु उनको काल (शैतान) ने भ्रमित करके अपना ज्ञान ही उनके द्वारा फैलाया। उसी श्रृंखला में बारहवां पंथ संत गरीबदास जी का है। संत गरीबदास जी को संपूर्ण ज्ञान मिला, संपूर्ण भक्ति की विधि मिली। परंतु उनके द्वारा बताए ज्ञान को उस समय के व्यक्तियों ने अनसुना किया। उनके द्वारा बोली-लिखवाई वाणी का गलत अर्थ करके अनुयाई साधना व प्रचार करने लगे। परमेश्वर कबीर जी अपने प्यारे नबी गरीबदास जी के संपर्क में रहते थे। समय-समय पर दिशा-निर्देश देते रहते थे। संत गरीबदास जी मुक्ति पाकर सतलोक चले गए। उसी बारहवें पंथ में मुझ दास का आगमन हुआ। अब तेहरवां यानि अंतिम नबी व रसूल दास (संत रामपाल दास) भेजा है। दास ने कादर अल्लाह के द्वारा दिया ज्ञान (सूक्ष्म वेद वाला) यथार्थ रूप से बताया है।
काल ज्योति निरंजन ने सनातन धर्म (वर्तमान में हिन्दू धर्म) में भी अपने नबी (संदेश वाहक) भेजे हैं जिनकी जानकारी पढ़ें:-
आदि शंकराचार्य:- आदि शंकराचार्य जी का जन्म ईसा मसीह से पाँच सौ आठ (508) वर्ष पूर्व हुआ था।(उस समय कलयुग तीन हजार वर्ष बीत चुका था।) वे शंकर देवता (तमगुण शिव) के द्वीप (लोक) से काल की प्रेरणा से पृथ्वी के ऊपर जन्में थे। वे कुल बत्तीस (32) वर्ष जीवित रहे। असाध्य रोग से ग्रस्त होकर मृत्यु को प्राप्त हुए। आठ वर्ष की आयु से ही प्रवचन करने लगे थे। थोड़े से जीवन काल में अद्भुत कार्य कर गए। भारत में चारों दिशाओं में चार शंकर मठों (मंदिरों) का निर्माण करवाया। श्री राम चन्द्र, श्री कृष्ण चन्द्र यानि श्री विष्णु जी तथा श्री शिव जी की भक्ति करने को कहा। पाँच देवताओं (पंच देव) की पूजा पर दृढ़ किया। विशेषकर शंकर देवता व देवी पार्वती को अधिक महत्व दिया। परंतु हिन्दू धर्म में सर्व देवी-देवताओं की पूजा का प्रचलन व मंदिरों को महत्व, मूर्ति पूजा करना आदि शंकराचार्य जी की देन है।
आदि शंकराचार्य जी से पहले यह सनातन धर्म था। वेदों व गीता को अधिक महत्व दिया जाता था। आदि शंकराचार्य के पश्चात् अठारह पुराणों व गीता को ही जन-साधारण (सामान्य हिन्दू) अधिक पढ़ने लगा। इनका हिन्दी टीका (अनुवाद) होने के पश्चात् प्रत्येक शिक्षित हिन्दू भक्त आत्मा ने पुराणों को पढ़कर श्री ब्रह्मा जी (रजगुण), श्री विष्णु जी (सतगुण) तथा श्री शिव जी (तमगुण) तथा देवी दुर्गा, लक्ष्मी व पार्वती देवियों तथा अन्य काली, वैष्णों देवी, ज्वाला देवी जी आदि की महिमा को जाना। इस कारण से इनकी पूजा का प्रचलन शीघ्रता से बढ़ा है।
हजरत मुहम्मद:- नबी मुहम्मद जी का जन्म ईसा मसीह के जन्म से 571 वर्ष पश्चात् 20 अप्रैल 571 ईसवी को यहूदी समुदाय में अरब के कुरैश घराने में हुआ। ये भी श्री शंकर (शिव तमगुण) देवता के द्वीप (लोक) से काल प्रेरणा से धरती के ऊपर जन्में थे। श्री शंकर जी के लोक से इनकी मदद के लिए बारह हजार आत्मा आई थी जो उसी क्षेत्र में जन्मी थी। उन्होंने सबसे पहले इस्लाम धर्म कबूल किया था। उनको देखकर अन्य व्यक्तियों ने भी मुसलमान बनना शुरू किया था। मुहम्मद जी पूर्व जन्म की भक्तियुक्त आत्मा थे। उन्हीं संस्कारों के कारण उनमें अल्लाह की भक्ति करने की प्रबल प्रेरणा थी। जिस कारण से वे घर-गाँव से दूर एक पहाड़ में बनी हीरे की गुफा (गार) में एकान्त स्थान पर परमात्मा का चिंतन किया करते थे। सुनियोजित योजना के तहत काल ब्रह्म (ज्योति निरंजन) ने अपना देवता (फरिश्ता) जबरील भेजकर अपने स्तर का ज्ञान हजरत मुहम्मद जी को डरा-धमका कर दिया जो कुरआन मजीद (शरीफ) के रूप में लिखा गया है। जिस ज्ञान में पुण्य करने की विधि नाममात्र है। पाप करने का प्रावधान भरा है। नेक काम करने की राय अच्छी है, परंतु पाप करने (जब्ह करना, कुर्बानी देना आदि) की राय गलत है। धर्म करने के लिए केवल (जकात) दान करना है, वह भी निर्धन मुसलमानों को। यह साधना तथा धार्मिक क्रिया अधूरी है।
सूक्ष्मवेद में धर्म-कर्म करने की संपूर्ण तथा श्रेष्ठ विधि बताई है। पाँच यज्ञ करना, भूखों को भोजन खिलाना, असहायों की मदद करना। खुदा के नाम का जाप करना। इसी विधि से पूर्ण मोक्ष व श्रेष्ठतम् जन्नत यानि सतलोक मिलेगा। सतलोक प्राप्त करना ही मानव जीवन का मूल मकसद है।
सूक्ष्मवेद में अल्लाह ताला कबीर जी ने बताया है कि यदि मानव (स्त्री-पुरूष) बिना गुरू के कोई धार्मिक अनुष्ठान करता है, वह व्यर्थ है। उससे पूर्ण लाभ नहीं मिलता। बिना गुरू बनाए या गलत गुरू के निर्देश से किसी व्यक्ति को रूपया या अन्य वस्तु सहायता रूप में देता है तो अगले जन्म में जब कभी मानव होगा, तब वह सहयोग लेने वाला उस सहयोग देने वाले को लौटाएगा। यदि मानव जन्म (सहयोग लेने वाले को) नहीं मिला तो पशु बनकर उस सहयोग की राशि (धन) को लौटाएगा। जैसे बैल, ऊँट, गाय, भैंस आदि जो मानव के काम आने वाले पशु बनकर पूरे करेगा यानि कर्ज उतारेगा।
मुसलमान धर्म के किए जाने वाले जकात (दान) का यह फल है। नबी मुहम्मद को जकात के लिए दिया रूपया या अन्य भोजन सामग्री या कपड़ा आदि का फल पृथ्वी पर ही अगले जन्म में लाभ मिलता है। जन्नत में नहीं जाया जा सकता है। कर्मों के संस्कार से पितर योनि मिलती है तथा पितर लोक में स्थान मिलता है जिसे वहाँ रहने वाले जन्नत मानते हैं। बाबा आदम से नबी ईसा मसीह तक सब ऊपर पितर लोक में गए हुए थे जिनको नबी मुहम्मद जी ने ऊपर के लोकों में देखा था। पितरों के लिए प्रत्येक देवता के लोक में पितर लोक बना है। प्रत्येक लोक में जन्नत (स्वर्ग) यानि होटल बने हैं। जो साधना तथा इबादत हजरत आदम से हजरत मुहम्मद तक के अनुयाई (followers) कर रहे हैं, उससे जन्नत प्राप्त नहीं होता। पितर लोक में कुछ समय ही रहने का बनता है। पाप अधिक होने से जहन्नम का समय अधिक बनता है। नमाज यानि आरती (स्तुति) करना ज्ञान यज्ञ कहा जाता है। इससे भी पितर लोक में स्थान मिलता है। रोजा (व्रत) करने से कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं है। यह स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छा है। इसमें सूर्योदय (sunrise) से पहले खाना होता है। फिर सूर्यास्त (sunset) तक कुछ नहीं खाना होता है। सूरज छिपने के बाद खाना खा सकते हैं। परंतु शाम को मुर्गी, बकरा, गाय, भैंस आदि को मारना, उसका माँस खाना महापाप है। रोजे से अध्यात्म लाभ कुछ नहीं है। जब्ह करने का महापाप भी अवश्य लगता है।
विशेष:- जब हजरत मुहम्मद जी आसमानों की यात्रा पर गए, तब पर्दे के पीछे से ज्योति निरंजन खुदा ने पाँच वक्त नमाज, रोजे (व्रत) रखना तथा अजान लगाना (बंग देना) कहा था। नमाज की सँख्या तो बताई थी। रोजों की सँख्या नहीं बताई थी। हजरत मुहम्मद जी ने अपनी सूझ-बूझ (नेक बुद्धि) से रोजों की सँख्या प्रत्येक महीने में तीन (three) रोजे रखने को कहा था जो बहुत ही उत्तम विचार था। एक वर्ष में छत्तीस (thirty six) रोजे हो जाते हैं। रोजे (व्रत) रखने वाले को न तो दैनिक कार्य में बाधा आती थी, न सेहत पर बुरा असर पड़ता था। बाद में काल ब्रह्म ने लगातार तीस दिन रोजे करने का आदेश दे दिया। भक्त तो भक्त ही होता है। वह तो खुदा के लिए कठिन से कठिन साधना करने से भी पीछे नहीं रहता। मुसलमानों ने वह भी शुरू कर दिए। वर्तमान में कर रहे हैं।
नाम का जाप:- मुसलमान अल्लाह अकबर नाम पुकारते हैं जो कबीर जी का नाम है। अल्लाह माने परमेश्वर तथा अकबर नाम कबीर है। केवल बोलने का अंतर है। जैसे अरबी भाषा में स्कूल को अस्कूल तथा स्थान को अस्थान बोलते हैं। इसी प्रकार कबीर को अकबीर बोलते हैं। फिर स्थान-स्थान की भाषा में अंतर होता है। जिस कारण से अल्लाह कबीर को अल्लाह अकबर बोला जाता है। मुसलमान अल्लाह अकबर पुकारते समय चिंतन करते हैं कि हम बड़े खुदा (अल्लाह अकबर) को पुकार रहे हैं। कबीर का अर्थ अरबी भाषा में बड़ा है। कबीर उसी बड़े (कादर) अल्लाह के शरीर का नाम है। कबीर का अर्थ बड़ा भी है। जैसे ‘‘मंशूर’’ का अर्थ ‘‘प्रकाश’’ (light) है। ‘‘मंशूर’’ आदमी का नाम भी रखा जाता है। इसीलिए कुरआन मजीद में जहाँ परमेश्वर के विषय में प्रकरण है, वहाँ कबीर का अर्थ बड़ा न करके ‘‘कबीर’’ ही करना उचित है। कबीर परमेश्वर की शरण में गुरू जी से दीक्षा लेकर जाप करने से इस नाम का जाप करने वाले को लाभ मिलता है। परंतु अकेले कबीर (अकबीर) बोलने से मोक्ष लाभ नहीं मिलता। संसार में कुछ कार्य सिद्ध हो जाते हैं। जैसे युद्ध में विजय, मुकदमों में न्याय आदि-आदि। इसके साथ-साथ सतनाम का (जो दो अक्षर का होता है, उसका) जाप करने से पूर्ण लाभ मिलता है।
सूरः अश् शूरा-42 की आयत नं. 2 में अरबी भाषा की वर्णमाला के तीन अक्षर हैं:- ‘‘अैन, सीन, काफ‘‘ जिनको हिन्दी में अ, स, क, लिखा जाता है। सतनाम के दो अक्षरों का संकेत अैन (अ) तथा सीन (स) से है। ‘‘अ’’ सतनाम के प्रथम नाम का पहला (हरफ) अक्षर है। ‘‘स’’ सतनाम के दूसरे नाम का पहला अक्षर (हरफ) है। जिन अैन, सीन, काफ का अर्थ किसी मुसलमान को ज्ञात नहीं है। यह सतनाम सूक्ष्मवेद में लिखा है यानि ये दो नाम पूरे लिखे हैं तथा परमेश्वर कबीर जी ने स्वयं नबी रूप में प्रकट होकर अच्छी आत्माओं को (जिन्होंने उनके ज्ञान पर विश्वास किया यानि इमान लाए, उनको) दीक्षा में दिया है। वही नाम दास (रामपाल दास) को मेरे गुरूदेव जी ने दिया है जिसको दीक्षा में दास अपने अनुयाईयों को देता है। सारनाम इनसे भिन्न है। वह भी स्मरण करना होता है जो दीक्षा में दिया जाता है।
अठासी हजार ऋषि तथा तेतीस करोड़ देवता:- अठासी हजार ऋषि तथा तेतीस करोड़ देवता भी काल (ज्योति निरंजन) के नबी (संदेशवाहक) रहे हैं। इन्होंने भी वेदों व गीता को ठीक से न समझकर इनके विपरित अपना अनुभव बताया है। उसकी अठारह पुराण बनाई हैं तथा ग्यारह उपनिषद बनाए हैं जिनमें कुछ ठीक कुछ गलत ज्ञान भरा है।
श्री कृष्ण जी व श्री रामचन्द्र जी:- श्री विष्णु (सतगुण) ही श्री रामचन्द्र तथा श्री कृष्ण चन्द्र जी के रूप में जन्मा था जो काल ब्रह्म का पुत्र है। जिस प्रकार नबी मुहम्मद जी को प्रेरित करके दुष्ट लोगों को ठीक करने के लिए लड़ाईयाँ करवाई, इसी प्रकार श्री विष्णु जी को प्रेरित करके कंस, केशी, चाणूर व हिरण्यकशिपु आदि-आदि दुष्ट व्यक्तियों का अंत करवाया। श्री विष्णु जी के कुल नौ (nine) तथा चैबीस (twenty four) अवतार काल ब्रह्म (ज्योति निरंजन) के भेजे पृथ्वी पर जन्में माने गए हैं। एक अवतार अभी पृथ्वी पर आना शेष है। इनमें मुख्य श्री रामचन्द्र व श्री कृष्ण को माना जाता है। इन सब उपरोक्त काल के नबियों ने काल का साम्राज्य स्थापित किया है। रावण, कंस, केशी, चाणूर, शिशुपाल आदि को मारा जो जनता के लिए दुःखदाई थे। जिस कारण से सब जनता इन्हीं (श्री रामचन्द्र तथा श्री कृष्ण चन्द्र) को पूर्ण परमात्मा मानकर पूजने लगी। ये पूर्ण परमात्मा (कादर अल्लाह) नहीं हैं। यह काल ब्रह्म (ज्योति निरंजन) का फैलाया जाल है। जब तक ऊपर बताए तीनों नामों (कुरआन की सूरः अश् शूरा-42 आयत नं. 2 वाले अैन. सीन. काफ. जो गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में ‘‘ॐ तत् सत’’ कहे हैं) का जाप मुझ (रामपाल दास) से दीक्षा लेकर नहीं किया जाएगा, तब तक जीव सतलोक वाली जन्नत (स्वर्ग) में सदा नहीं रह सकता। जन्म-मृत्यु व अन्य प्राणियों के शरीरों में कष्ट सदा बना रहेगा। नरक में भी कष्ट भोगना पड़ेगा।
ऊपर मुसलमान धर्म की पूजा का वर्णन किया है। {रोजा, जकात, नमाज, अजान (बंग)} इनसे जन्नत के साथ बने पितर लोक में स्थान मिलता है। जन्म-मृत्यु का चक्र भी सदा बना रहेगा।
हिन्दू धर्म में शास्त्रों में बताई साधना:- जैसा कि इस ‘‘मुसलमान नहीं समझे ज्ञान कुरआन’’ पुस्तक के प्रारंभ में बताया है कि जिस अल्लाह ने कुरआन का ज्ञान हजरत मुहम्मद जी को दिया, उसी ने ‘‘जबूर’’ का ज्ञान हजरत दाऊद जी को दिया। ‘‘तौरेत’’ का ज्ञान हजरत मूसा जी को तथा ‘‘इंजिल’’ का ज्ञान हजरत ईशा जी को दिया। उसी अल्लाह (काल ब्रह्म) ने इनसे पहले चारों वेदों का ज्ञान देवता ब्रह्मा जी को दिया। देवता ब्रह्मा जी ने अपनी संतान ऋषियों को दिया। चारों वेदों का ज्ञान सूक्ष्मवेद से चुना हुआ है। इनमें जितना ज्ञान है, वह सूक्ष्मवेद वाला है, परंतु अधूरा है। ऋषियों ने वेदों को पढ़ा, परंतु अर्थ ठीक से न समझ सके। जिस कारण से अपने आप अपनी बुद्धि अनुसार अर्थ करके साधना करने लगे तथा जनता को वही भ्रमित ज्ञान बताया। गलत अर्थ करके ऋषियों, देवताओं ने जो साधना की। उससे जो उपलब्धि हुई, उसके अठारह पुराण बना दिए। जब महाभारत का युद्ध होने जा रहा था, उस समय अर्जुन नामक योद्धा (पांडवों में से एक) युद्ध करने से मना कर देता है। यदि अर्जुन युद्ध करने से मना कर देता तो वह युद्ध नहीं होता। परंतु काल ब्रह्म (ज्योति निरंजन) यह युद्ध करवाना चाहता था। इस कारण से अर्जुन को अध्यात्म ज्ञान के द्वारा युद्ध के लिए तैयार करने लगा। परमेश्वर कबीर जी की शक्ति रूपी रिमोट (remote) से अर्जुन प्रश्न पर प्रश्न करता गया। काल श्री कृष्ण में प्रवेश करके वेदों वाले ज्ञान से संक्षिप्त में उत्तर देता रहा। काल ने विचार किया कि अर्जुन को कुछ याद तो रहना नहीं। इसलिए वेदों वाला ज्ञान उसे बताया। जिस कारण से चारों वेदों वाला ज्ञान जो अठारह हजार श्लोकों में है, वह केवल सात सौ श्लोकों में सारांश रूप में बता दिया जिसको श्रीमद्भगवत गीता कहा जाता है। {परंतु शब्द आकाश का गुण है जो नष्ट नहीं होता। जिस कारण से वेद व्यास ऋषि (कृष्ण द्वैपायन) द्वारा दिव्य दृष्टि से जानकर महाभारत ग्रंथ में लिखा गया जो श्रीमद्भगवत गीता के नाम से जाना जाता है। इसी प्रकार कुरआन मजीद का ज्ञान हजरत मुहम्मद के माध्यम से काल ब्रह्म ने बोला। उसको अन्य मुसलमानों ने सुना और याद रखा। मुहम्मद जी की मृत्यु के कई वर्ष पश्चात् उन मुसलमानों से सुनकर लिखा गया था। कुछ आयतें पत्थरों के ऊपर खोदकर लिखी गई थी। सबको इकट्ठा करके पवित्र कुरआन मजीद बनाई गई।}
पूर्ण ब्रह्म (कादिर अल्लाह) कबीर जी ने अपनी शक्ति से काल ब्रह्म से वेद ज्ञान का सार बुलवाया। समर्थ उसी का नाम है जिसके समक्ष सब विवश हों। जो वह चाहे, वह करवा सके। श्रीमद्भगवत गीता वाला ज्ञान मानव (स्त्री-पुरूष) के लिए वरदान है। भले ही यह अधूरा है। इसमें माँस खाने व अन्य व्यसन (तम्बाकू सेवन) करना, शराब आदि नशीले पदार्थ सेवन करने का प्रावधान नहीं है। काल ब्रह्म ने जैसे कुरआन में अपनी भक्ति (इबादत) करने को भी कहा है तथा अपने से अन्य सारी कायनात (सृष्टि) के पैदा करने वाले कबीर अल्लाह की भक्ति (इबादत) करने को कहा है। उस समर्थ की जानकारी किसी बाखबर (तत्त्वदर्शी) संत से जानने के लिए कहा है। कादर अल्लाह कबीर जी ने कुरआन ज्ञान देने वाले से भी यही बुलावाया है। इसी प्रकार गीता में भी उस परम अक्षर ब्रह्म (कादर अल्लाह) के विषय में ज्ञान तत्त्वदर्शी संत (बाखबर) से जानने के लिए कहा है।
{जो भक्ति की पूजा की विधि बाईबल (जिसमें जबूर, तौरेत तथा इंजिल को इकठ्ठा जिल्द किया है, उस) में तथा कुरआन में काल ब्रह्म ने अपनी ओर से बताई है। वेदों और गीता वाले ज्ञान को दोहराना उचित नहीं समझा क्योंकि वह पहले बताया जा चुका था।}
हिन्दू धर्म की पूजा:- हिन्दू धर्म (सनातन धर्म) के सद्ग्रन्थों में, वेदों तथा गीता में भक्ति विधि स्वर्ग (स्वर्ग), महास्वर्ग (बड़ी जन्नत) में जाने की सही है, परंतु पूर्ण मोक्ष प्राप्ति की नहीं है। जिस कारण से जन्म-मृत्यु का चक्र साधक का बना रहता है। वेदों व गीता वाली साधना एक ही है क्योंकि श्रीमद्भगवत गीता में वेदों वाला ही ज्ञान संक्षेप में कहा है। अधिकतर हिन्दू पितर पूजा, भूत पूजा आदि की करते हैं। देवताओं (शिव जी तथा विष्णु जी) की पूजा भी करते हैं। गीता अध्याय 9 श्लोक 25 में गीता ज्ञान देने वाले प्रभु ने स्पष्ट किया है कि जो पितर पूजा करते हैं, वे पितर योनि प्राप्त करके पितर लोक में चले जाते हैं। भूत (प्रेत) पूजा करने वाले भूत बनकर भूतों में रहते हैं। कुछ शिव लोक में रहते हैं जो शिव जी के उपासक होते हैं। प्रत्येक देवता के लोक में पितर लोक है। उसी में भूत व गण तथा पितर रहते हैं। फिर इसी गीता के श्लोक (9: 25) में बताया है कि जो देवताओं की पूजा करते हैं, वे उसी देवता के लोक में चले जाते हैं। वहाँ भी पितर लोक में रहते हैं। पितर लोक ऐसा है जैसे अधिकारियों (officers) की कोठियों से दूर नौकरों के निवास होते हैं। जो सुख-सुविधा अधिकारियों को होती है, वह नौकरों को नहीं होती। इसी प्रकार जन्नत में जो सुविधा मुख्य देवता की होती है, वह पितरों को नहीं होती। गीता ज्ञान दाता ने आगे इसी गीता के श्लोक (9:25) में बताया है कि जो मेरी पूजा (काल ब्रह्म की पूजा) करते हैं, वे मुझे प्राप्त होते हैं यानि ब्रह्मलोक में चले जाते हैं। गीता के अध्याय 8 श्लोक 16 में स्पष्ट किया है कि जो ब्रह्मलोक (काल की बड़ी जन्नत) में चले जाते हैं। उनको वहाँ से पृथ्वी पर आना पड़ता है। उनका भी जन्म-मृत्यु का चक्र कभी समाप्त नहीं होता।
गीता तथा वेदों में पूजा का वर्णन:- गीता अध्याय 3 श्लोक 10-15 में यज्ञ करने को कहा है। यज्ञ का अर्थ धार्मिक अनुष्ठान है। मुख्य यज्ञ पाँच हैं:- 1) धर्म यज्ञ, 2) ध्यान यज्ञ, 3) हवन यज्ञ, 4) प्रणाम यज्ञ, 5) ज्ञान यज्ञ। यज्ञों के करने का शास्त्रों में इस प्रकार वर्णन है:-
सर्व प्रथम गुरू से दीक्षा ली जाती है। फिर उस गुरू जी की आज्ञा से उनके दिशा-निर्देशानुसार यज्ञ करना लाभदायक है।
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धर्म यज्ञ:- धार्मिक अनुष्ठान करके साधु, भक्तों को भोजन करवाना तथा यात्री जो दूर से आए हों और उनको कहीं खाने की व्यवस्था न मिले, उनको तथा जो निर्धन हैं, भूखे हैं, उनको मुफ्त भोजन खिलाना। जरूरतमंदों को मौसम अनुसार वस्त्रा मुफ्त देना, प्राकृतिक आपदा में पीड़ितों को भोजन, वस्त्रा, औषधि (डमकपबपदम) आदि-आदि मुफ्त बाँटना। जहाँ पर पानी पीने की व्यवस्था नहीं, गुरू जी की आज्ञा से पानी पीने के लिए व्यवस्था करना यानि प्याऊ बनवाना आदि-आदि धर्म यज्ञ हैं।
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ध्यान यज्ञ:- परमात्मा की याद पूरी कसक के साथ दिन-रात हृदय में बनी रहे जिससे मानव पाप कर्म करने से बचा रहेगा। सनातन धर्म (वर्तमान में हिन्दू धर्म) के ऋषिजन हठ योग करके ध्यान लगाते थे। परंतु वेद तथा गीता में हठ योग करके घोर तप करना गलत कहा है। सूक्ष्मवेद में ध्यान दैनिक कार्य करते हुए करने को कहा है। गीता व वेद भी यही बताते हैं। गीता अध्याय 8 श्लोक 7 में कहा है कि हे अर्जुन! तू युद्ध भी कर तथा मेरा स्मरण भी कर।
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हवन यज्ञ:- रूई की बाती बनाकर उसे कटोरे में रखकर गाय या भैंस का घी डालकर प्रज्वलित करना हवन यज्ञ कहलाता है। सूक्ष्मवेद तथा चारों वेदों में ज्योति जलाकर हवन यज्ञ करने को कहा है।
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प्रणाम यज्ञ:- हाथ जोड़कर सिर झुकाकर नमस्कार (सलाम) करना तथा सजदा करना अर्ध (half) प्रणाम यज्ञ है। दण्डवत् प्रणाम जो पृथ्वी पर लंबा लेटकर की जाती है, यह सम्पूर्ण प्रणाम यज्ञ है। सतगुरू को तथा कादर अल्लाह (समर्थ परमेश्वर) को दण्डवत् प्रणाम करना चाहिए जिसका पूर्ण लाभ मिलता है।
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ज्ञान यज्ञ:- धर्म ग्रंथों को पढ़ना, आरती यानि नमाज करना, सत्संग सुनना व सत्संग सुनाना, खुदा की चर्चा करना ज्ञान यज्ञ कही जाती है।