खूनी हाथी से कबीर परमेश्वर को मरवाने की कुचेष्टा

खूनी हाथी मस्त है, पग बंधे जंजीर। गरीबदास जहां डारिया, मसक बांधि कबीर।।767।।
सिंह रूप साहिब धर्या, भागे उलटे फील। गरीबदास नहीं समझती, याह दुनिया खलील।।768।।
बने केहरी सिंह जित, चैंर शिखर असमांन। गरीबदास हस्ती लख्या, दीखै नहीं जिहांन।।769।।
कूटै शीश महावतं, अंकुश शीर गरगाप। गरीबदास उलटा भगै, तारी दीजैं थाप।।770।।
भाले कोखौं मारिये, चरखी छूटैं पाख। गरीबदास नहीं निकट जाय, किलकी देवैं लाख।।771।।
जैसी भक्ति कबीर की, ऐसी करै न कोय। गरीबदास कुंजर थके, उलटे भागे रोय।।772।।
दुंम गोवैं मूंडी धुनैं, सैंन न समझै एक। गरीबदास दीखै नहीं, आगै खड़ा अलेख।।773।।
पीलवान देख्या तबै, खड़ा केहरी सिंघ। गरीबदास आये तहां, धरि मौला बहु रंग।।774।।
उतरे मौला अरस तैं, भाव भक्ति कै हेत। गरीबदास तब शाह लखे, कबीर पुरूष सहेत।।775।।
लीला की कबीर ने, दो रूप में रहे दीस। दासगरीब कबीर कै, पास खडे़ जगदीश।।776।।
जंभाई अंगडाईयां, लंबे भये दयाल। गरीबदास उस शाह कूं, मानौं दश्र्या काल।।777।।
कोटि चन्द्र शशि भान मुख, गिरद कुंड दुम लील। गरीबदास तहां ना टिके, भागि गये रनफील।।778।।
नयन लाल भौंह पीत हैं, डूंगर नक पहार। गरीबदास उस शाह कूं, सिंह रूप दीदार।।779।।
मस्तक शिखर स्वर्ग लग, दीरघ देह बिलंद। गरीबदास हरि ऊतरे, काटन जम के फंद।।780।
गिरद नाभि निरभै कला, दुदकारै नहीं कोय। गरीबदास त्रिलोकि में, गाज तास की होय।।781।।
ज्यूं नरसिंह प्रहलादकै, यूं वह नरसिंह एक। गरीबदास हरि आईया, राखन जनकी टेक।।782।।
बार-बार सताय कर, मस्तक लीना भार। गरीबदास शाह यौं कहै, बकसौ इबकी बार।।783।।
तहां सिंह ल्यौलीन हुआ, परचा इबकी बार। गरीबदास शाह यौं कहै, अल्लह दिया दीदार।।784।।
सुन काशी के पण्डितौ, काजी मुल्लां पीर। गरीबदास इसके चरण ल्यौह, अलह अलेख कबीर।।785।।
यौह कबीर अल्लाह है, उतरे काशी धाम। गरीबदास शाह यौं कहैं, झगर मूंये बे काम।।786।।
काजी पंडित रूठिया, हम त्याग्या योह देश। गरीबदास षटदल कहैं, जादू सिहर हमेश।।787।।
इन जादू जंतर किया, हस्ती दिया भगाय। गरीबदास इत ना रहैं, काशी बिडरी जाय।।788।।
काशी बिडरी चहौं दिशा, थांभन हारा एक। गरीबदास कैसे थंभै, बिडरे बौहत अनेक।।789।।

शब्दार्थ:- वाणी नं. 767-789:- परमात्मा कबीर जी के हाथ-पैर बाँधकर एक मैदान के अंदर डाल दिया जहाँ पर घोर अपराधियों को कठोर दंड दिया जाता था। वर्तमान के स्टेडियम जैसा वह मैदान होता था। राजा तथा पदाधिकारी स्टेज पर बैठते थे। दर्शक चारों ओर खड़े होते थे। मनुष्यों को मारने के लिए हाथी को प्रशिक्षित किया जाता था। उसे शराब तथा रक्त पीने का चस्का लगाया जाता था। उसे खूनी हाथी कहते थे। राजा सिकंदर तथा अन्य मंत्रीगण बैठे थे। प्रजा चारों ओर खड़ी थी। खूनी हाथी को महावत (हाथी को वश करके चलाने वाला व्यक्ति) कबीर जी की ओर मारने के लिए लाया तो परमेश्वर कबीर जी ने एक सिंह का रूप दिखाया जो केवल हाथी को दिखाई दे रहा था। हाथी ने शराब पी रखी थी। सिंह को देखकर भय के कारण उल्टा भाग लिया। महावत ने हाथी को भालों से मारा, परंतु कबीर जी की ओर हाथी नहीं गया। परमात्मा कबीर जी ने महावत को भी सिंह खड़ा दिखा दिया। महावत भी डरकर हाथी से गिर गया। हाथी भाग गया। परमात्मा कबीर जी के बँधन टूट गए और खड़े हुए। खड़ा होकर अंगड़ाई ली और जम्भाई (ऊबासी) ली। बहुत लंबे हो गए। सिर आकाश को छू रहा था। शरीर से असँख्यों सूर्यों का प्रकाश निकल रहा था। यह केवल राजा सिकंदर को दिखाई दिया। राजा भयभीत होकर खड़ा होकर मैदान में आया और कहा कि मेरी जान बख्श दो, मेरे से बड़ी गलती हुई है। मेरे को परमात्मा का दर्शन हो गया है। जनता से राजा ने कहा कि यह अल्लाहु अकबर है, कबीर रूप में पृथ्वी पर आया है। इसके चरण छूकर अपना कल्याण करवा लो। परंतु कर्महीन काजी-मुल्ला व पंडित कहने लगे कि कबीर ने जादू-जंत्र करके हाथी को भगा दिया। हम जा रहे हैं। यह कहकर वे पाप आत्मा सब चले गए। परमात्मा ने अपना शरीर सामान्य किया और सिंह को अदृश्य कर दिया। अपनी कुटी में चले गए।

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