शब्द - ‘सतलोक में चल मेरी सुरता
-ः शब्द:-
सतलोक में चल मेरी सुरतां, मत न लावै देरी। साच कहूँ न झूठ रति भर, तू बात मान ले मेरी।।टेक।।
प्रथम जाना सतसंग के में चर्चा सुनिए आत्म ज्ञान की, सुनकै सतसंग जागी नहीं तो पूछ श्वान की।
तीर्थ व्रत ये पित्रा पूजा कोन्या किसे काम की, लै कै नाम गुरु से भक्ति करिए कबीर भगवान की।।
मत सुनना मन सैतान की, ये चैकस घालै घेरी।।1।।
काल लोक में कष्ट उठावै यह कोन्या तेरा ठिकाना, मात पिता संतान सम्पति का झूठा बुन रही ताना।
जाप अजपा मिल जावै जब सुमरण में मन लाना, सार शब्द तेरे काटे बंधन आकाशै उड जाना।।
त्रिकुटी में आना हे सुरतां, मतना भटकै बेरी।।2।।
त्रिकुटी में पहुँच कै सुरतां चारों ओर लखावै, शब्द गुरु फिर प्रकट होवे उसते ब्याह करवावै।
नूरी रूप गुरु का होकै तेरै आगे-आगे जावै, सतलोक में सेज बिछी तेरे चैकस लाड लडावै।।
जन्म मरन मिट जावै हे सुरतां, हो आनन्द काया तेरी।।3।।
सतलोक में जा कै हे सुरतां संकट कट जां सारे, अलख लोक और अगम लोक के दिखैं सभी नजारे।
लोक अनामी जावैगी वहां कोन्या मिलैं चैबारे, आत्मा और परमात्मा वहां भी रहते न्यारे-न्यारे।।
रामपाल प्रीतम प्यारे की आत्मा, अब पूर्ण आनन्द लेरी।।4।।
भावार्थ:- भक्त/भक्तमति को समझाने के लिए अपनी सुरति जो आत्मा की आँख है, दूसरे शब्दों में अप्रत्यक्ष रूप से आत्मा को सुरतां नाम से संबोधित करके पूर्णमोक्ष यानि पाँचवीं मुक्ति को प्राप्त करने की प्रेरणा लेखक ने की है और पाँचवीं मुक्ति कैसे मिलेगी, उसकी प्राप्ति में क्या बाधा आती है, सब बताया है। कहा है कि मेरी सुरति यानि ध्यान सतलोक वाले सुख को प्राप्त करने के लिए उस ओर चल यानि लगन लगा। भक्त/भक्तमति अपनी आस्था पूर्ण मोक्ष प्राप्ति के लिए दृढ़ कर। विलम्ब न कर। मैं सत्य कह रहा हूँ कि सत्यलोक में सर्व सुख हैं। इसी को गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में शाश्वतं स्थानम् यानि सनातन परम धाम कहा है। वहाँ परमशांति बताई है। जिज्ञासु को सर्वप्रथम संत का सत्संग सुनना चाहिए जो पूर्ण आत्मज्ञान करवाता है। बताता है कि आत्मा क्या है? मानव जीवन प्राप्त आत्मा का क्या लक्ष्य है? जीव को जन्म-मरण का चक्र किस कारण से है? इस कष्ट से कैसे छुटकारा मिल सकता है? यह आत्मज्ञान है। परमात्मा ज्ञान (परमात्म ज्ञान) वह है जिसमें परमेश्वर जी की महिमा, गुण तथा पहचान बताई जाती है। उसकी प्राप्ति का मार्ग शास्त्रोक्त बताया जाता है। यह सर्व ज्ञान पूर्ण संत ही बताता है। पूर्ण संत जो यह ज्ञान बताता है, वह सुदुर्लभ है। गीता अध्याय 7 श्लोक 19 में यही बताया है कि जो संत यह ज्ञान करवाता है कि वासुदेव का अर्थ है कि जिसका वास सब स्थानों पर है यानि सर्व का स्वामी जो सर्व ब्रह्माण्डों में अपनी सत्ता जमाए है। वह ही सब कुछ है यानि वही विश्व का उत्पत्तिकर्ता, पालनकर्ता, मोक्षदाता है। वह संत बहुत दुर्लभ है। {सूक्ष्मवेद में कहा है कि ऐसे संत करोड़ों में नहीं मिलेगा, अरबों व्यक्तियों में एक मिलता है। वर्तमान में यानि सन् 2012 में मेरे (रामपाल दास के) अतिरिक्त सात अरब मनुष्यों में कोई भी वह संत नहीं है।} उस संत का सत्संग सुनो। यदि उसका सत्संग सुनकर भी भक्ति की प्रेरणा नहीं बनती है तो वह जीव कुत्ते की दुम के समान है जो बारह वर्ष तक बाँस की नली में डालकर रखने के पश्चात् भी सीधी नहीं होती। बाहर निकालते हैं तो उसी स्थिति में हो जाती है। वह संत शास्त्रा प्रमाणित ज्ञान बताता है कि जो लोक वेद यानि दंत कथाओं के आधार से तीर्थ, भ्रमण, व्रत रखना, पितर पूजा यानि श्राद्ध कर्म करना आदि-आदि साधना का साधक को लाभ के स्थान पर हानि मिलती है, यह नहीं करनी चाहिए। गीता अध्याय 9 श्लोक 25 में भी यह बताया है कि भूत पूजने वाले भूत बनते हैं। पितर पूजने वाले पितर बनते हैं। इसलिए पितर पूजा (श्राद्ध करना), भूत पूजा (तेरहवीं, सतरहवीं, वर्षी आदि-आदि कर्मकाण्ड क्रियाऐं) नहीं करनी चाहिऐं। ये सब अध्यात्म में बाधक हैं। पूर्ण संत यानि सतगुरू से दीक्षा लेकर कबीर परमेश्वर जी को ईष्ट मानकर साधना करने से पूर्ण मोक्ष होगा। सत्य मार्ग पर चलने के पश्चात् मन जो काल ब्रह्म का एजेंट है, यह भ्रमित करेगा। भय भी उत्पन्न करेगा कि वर्षों से करते आ रहे थे, उस साधना को त्यागने से हानि हो सकती है। अन्य गलतियाँ करने को प्रेरित करेगा जो भक्ति खंडित करती हैं। इसलिए मन शैतान की मिथ्या कल्पनाओं की ओर ध्यान नहीं देना है। गुरू जी के बताए मार्ग पर निर्भय होकर चलते रहना है।
काल के इक्कीस ब्रह्माण्डों में सर्व प्राणी जन्म-मरण तथा कर्मों का कष्ट झेल रहे हैं। यह जीव का वास्तविक निवास नहीं है। देवताओं तक की भी मृत्यु होती है और जन्म होता है। नरक में भी गिरना होता है। अन्य प्राणियों के शरीरों में कर्मानुसार कष्ट भोगना पड़ता है। आज हम जिस परिवार व संपत्ति को अपना मानते हैं, यह अपना नहीं है। यह भारी धोखा काल ने किया है। अपनी मृत्यु हो जाएगी। परिवार व संपत्ति व निवास छूट जाएगा। यह अपना निज ठिकाना नहीं है। केवल सतलोक (सनातन परम धाम) प्रत्येक जीव का ठिकाना है जहाँ कभी मृत्यु-वृद्धावस्था तथा कष्ट नहीं होता। उस सतलोक को प्राप्त करने के लिए प्रथम उपदेश जो सात नामों का है, उसका सुमरण उच्चारण करके या मानसिक करना होता है। दूसरा उपदेश श्वासों से करना होता है। इसलिए अजप्पा जाप (स्मरण) कहा जाता है। तीसरी बार में सारनाम प्रदान गुरू जी करते हैं। तीनों उपदेशों का स्मरण करना है। सारनाम से जन्म-मरण का कष्ट समाप्त होता है। मृत्यु के पश्चात् मर्यादा में रहकर भक्ति करने वाली आत्मा कर्म बन्धन से मुक्त होकर आकाश में उड़ जाती है। जैसे तोते को पिंजरे से निकाल दिया जाता है तो वह तीव्र गति से आकाश में उड़ जाता है। वह सावधानी नहीं करेगा तो फिर से बंदी बन सकता है। इसीलिए कहा है कि हे आत्मा! आप यदि सावधानी नहीं करोगी तो फिर से बंधन में फँस जाओगी। इसलिए आन-उपासना न करना। फिर से अपनी परंपरागत साधना करने बेरी वाली माता पर न चली जाना। न पिण्ड-दान करने गंगासागर वाली बेरी पर भी न जाना। शरीर में बने कमलों का मार्ग प्रथम मंत्रा खोल देता है। फिर दूसरे मंत्रा यानि सतनाम की भक्ति की शक्ति (सिद्धि) के कारण जीव त्रिकुटी कमल में जाता है। वहाँ जाने को कहा है।
त्रिकुटी ऐसा स्थान है जैसे अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा होता है जहाँ से जिस देश में जाने की टिकट है, वहाँ से हवाई जहाज मिलता है। जिस साधक ने जिस भी ईष्ट की भक्ति की है, वह सर्वप्रथम त्रिकुटी स्थान पर जाता है। वहाँ से उसको गुरू के रूप में उसका ईष्ट देव मिलता है। अपने गुरू को पहचानकर साधक उसके साथ ईष्ट धाम में चला जाता है। जो परमेश्वर कबीर जी के भक्त होते हैं, उनके साथ काल ब्रह्म (ज्योति निरंजन) छल करता है। काल ब्रह्म कबीर भक्त के गुरू जी का रूप बना लेता है। जिनको विवेक नहीं होता, वे बिना परीक्षा किए उसके साथ चल पड़ता है जिसे नकली सतलोक में छोड़ा जाता है। वह काल का ब्रह्मलोक यानि महास्वर्ग है। जिस कारण से वह साधक काल जाल में ही रह जाता है।
परीक्षा कैसे करनी है?
परिक्षा विधि:- भक्त को चाहिए कि गुरू जी के दर्शन करते वक्त सत्यनाम व सारनाम का स्मरण करेेेेेेेे। यदि नकली गुरू यानि काल होगा तो उसका स्वांग समाप्त हो जाएगा यानि गुरू का रूप नहीं रहेगा। उसका असली स्वरूप प्रत्यक्ष हो जाएगा। यदि असली गुरू जी होगा तो वास्तविक स्वरूप (चेहरा) बना रहेगा। त्रिकुटी स्थान पर जाकर चारों ओर दृष्टि घुमाकर अपने गुरूदेव को खोजे। जब जीवात्मा को शब्द गुरू यानि दीक्षा देने वाला अविनाशी गुरू दिखाई दे तो उससे विवाह करावे यानि उसका पल्ला पकड़े। भावार्थ है कि जैसे लड़की का विवाह जिस लड़के से कर दिया जाता है तो वह उसकी पहचान कर लेती है। सबको त्यागकर उसके साथ चल पड़ती है। रास्ते में किसी अन्य से नाता नहीं जोड़ती। वह पति के घर चली जाती है। इसी प्रकार आत्मा अपने गुरू जी के साथ-साथ रहे, गुरू जी के रूप में परमेश्वर कबीर जी आगे-आगे चलेंगे। आत्मा दुल्हन की भांति पीछे-पीछे चले। वह आत्मा अपने पति परमेश्वर के घर यानि सतलोक में सर्व सुख प्राप्त करेगी। परमात्मा मोक्ष प्राप्त आत्मा को बहुत लाड़-प्यार देता है। प्रशंसा करता है। सतलोक में जाने के पश्चात् सर्व संकट समाप्त हो जाते हैं। सत्यलोक में जीव को हंस कहते हैं। हंसात्मा स्त्राी-पुरूष रूप में रहते हैं। स्त्राी को हंसनी तथा पुरूष को हंस कहते हैं। जैसे यहाँ भक्त तथा भगतनी या भक्तमति कहते हैं। सतलोक में हंसात्माओं को दिव्य दृष्टि प्राप्त हो जाती है। जिसके द्वारा ऊपर के दोनों लोक (अलख लोक और अगम लोक) देखे जा सकते हैं। परंतु अकह लोक यानि अनामी लोक को तो वहीं जाकर देखा जाता है। वहाँ पर भी परमात्मा तथा आत्मा भिन्न-भिन्न निवास करते हैं। सत्यलोक में हंसात्मा अपने पति परमेश्वर यानि परमहंस के लोक में सर्व सुख प्राप्त कर रही होती है। अनामी लोक में कोई मकान नहीं है। अन्य तीनों लोकों में सुंदर महल प्रत्येक परिवार को प्राप्त हैं।
गीता अध्याय 2 श्लोक 46-53 का अनुवाद:-
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गीता अध्याय 2 श्लोक 46 का अनुवाद:- सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त होने पर छोटे तालाब में मनुष्य का जितना प्रयोजन रह जाता है, विद्वान पुरूष का उतना ही प्रयोजन तत्वज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् अन्य (सर्वेषु वेदेषु) सब ज्ञानों में उतना ही प्रयोजन रह जाता है।(2:46)
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गीता अध्याय 2 श्लोक 47:- तेरा कर्म करना अधिकार है, फल की इच्छा मत कर। इसलिए कर्तव्य कर्म बिना आसक्ति के कर।(2:47)
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गीता अध्याय 2 श्लोक 48:- हे धनंजय! तू आसक्ति को त्यागकर सिद्धि यानि जय तथा असिद्धि यानि पराजय में समबुद्धि होकर योग यानि सत्य साधना में लगा हुआ भक्ति कर्म कर। यही (समत्वम् योगः उच्यते) निःइच्छा साधना कहते हैं। समत्व का भावार्थ है परमात्मा की इच्छा पर आश्रित रहकर फल की इच्छा न करे।(2:48)
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गीता अध्याय 2 श्लोक 49:- तत्वज्ञान से प्राप्त बुद्धि से समझ ले कि इच्छा रखकर किए गए भक्ति कर्म अत्यंत निम्न श्रेणी के हैं। हे धनंजय! इसलिए बुद्धिमता से काम ले। तत्वदर्शी संत की शरण में जाने का मार्ग खोज क्योंकि फल की इच्छा रखने वाला तो कृपण यानि कंजूस जैसा है जो धन का यथार्थ प्रयोग न करके धन जोड़कर छोड़कर चला जाता है जो उसके कुछ काम नहीं आता।(2:49)
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गीता अध्याय 2 श्लोक 50:- तत्वज्ञान प्राप्त साधक पाप तथा पुण्य की कामना न करके केवल मोक्ष उद्देश्य से भक्ति करता है तथा पाप-पुण्य को यहीं त्याग देता है। इसलिए तू भी ऐसी साधना को अपना। भक्ति करने में ही कुशलता है, यही समझदारी है।(2ध्50)
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गीता अध्याय 2 श्लोक 51:- (हि) क्योंकि (बुद्धियुक्ता) तत्वज्ञान प्राप्त (मनीषिणः) ज्ञानी महात्मा (कर्मजम्) कर्मों से उत्पन्न (फलम्) फल को (त्यक्त्वा) त्यागकर (जन्म बन्ध विनिर्मुक्ता) जन्म व मृत्यु रूप बंधन से पूर्ण रूप मुक्त होकर (अनामयम्) जन्म-मरण के रोग रहित अनामी (पदम्) परम पद को (गच्छन्ति) प्राप्त हो जाते हैं यानि उस सनातन परम धाम में चले जाते हैं जहाँ पर परम शांति है तथा उस स्थान पर गए साधक फिर लौटकर संसार में नहीं आते।(2:51)
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गीता अध्याय 2 श्लोक 52:- काल ब्रह्म ने कहा है कि (यदा) जब (ते बुद्धि) तेरी बुद्धि (मोहमलिलम्) मोह रूप दलदल से (व्यतितरिष्यति) भली-भांति पार कर जाएगी। (तदा) तब तेरे सामने एक समस्या आएगी कि यथार्थ अध्यात्म ज्ञान न मिलने के कारण (श्रुतस्य) सुने हुए (च) और (श्रोतव्यस्य) सुनने में आने वाले यानि सुने-सुनाए शास्त्राविरूद्ध (निर्वेदम्) अज्ञान को प्राप्त हो जाएगा। वेद का अर्थ है ज्ञान और निर्वेद यानि जो यथार्थ ज्ञान नहीं यानि अज्ञान। भावार्थ है कि लोकवेद से यह तो प्रेरणा मिल जाती है कि यह संसार स्वार्थी है। कोई सदा नहीं रहेगा। मानव शरीर केवल परमात्मा की भक्ति करके अपना जीव का कल्याण करवाने हेतु प्राप्त है। जो भक्ति नहीं करता, उसका मानव जीवन व्यर्थ है। इस प्रकार के ज्ञान से पूर्व संस्कारी जीव का मोह तो संसार से हट जाता है, परंतु यथार्थ भक्ति ज्ञान यानि तत्वज्ञान के अभाव से साधक अज्ञानी संतों के सुने-सुनाए ज्ञान के कारण अज्ञान को ज्ञान मानकर ग्रहण कर लेता है।(2:52)
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गीता अध्याय 2 श्लोक 53:- तत्वज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् भाँति-भाँति के वचनों यानि अज्ञान से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मा के ध्यान में पूर्ण रूप से निश्चल रूप से स्थाई स्थिर हो जाएगी, तब तू (योगम्) योग को यानि यथार्थ भक्ति को (अवाप्स्यसि) प्राप्त हो जाएगा यानि तब तू भक्त बनेगा।(2:53)
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अध्याय 2 के श्लोक 46 से 53 का सारांश:- इन श्लोकों का भावार्थ है कि वास्तव में पाप-पुण्य को भूल कर अर्थात् पाप-पुण्य का फल इसी लोक में त्याग कर पूर्ण परमात्मा की साधना में लग जा। यही प्रमाण गीता अध्याय 18 श्लोक 66 में काल ब्रह्म ने कहा है कि मेरे स्तर की मेरी सर्व धार्मिक पूजा को मेरे में त्याग कर उस एक सर्वशक्तिमान परमात्मा की शरण में जा फिर मैं तुझे सर्व पापों से मुक्त कर दूंगा। यही भाव यहाँ पर है। कहा है कि कर्मों में योग (भक्ति) करना कुशलता है। इसलिए योग (पूर्ण परमात्मा की भक्ति) में लगजा। समझदार साधक कर्मों से होने वाले फल को भी त्याग कर जन्म-मरण रूपी कर्मबन्धन से मुक्त हो जाते हैं। हे अर्जुन! जब तू मोह रहित हो जाएगा, उसी वैराग्य को प्राप्त हो जाएगा। जब तेरी बुद्धि नाना प्रकार के मत भेदी शास्त्रों के ज्ञान से विचलित न रह कर एक तत्वज्ञान पर आधारित हो जाएगी, फिर तू योगी (भक्त) बनेगा जैसे छोटे तालाब (तलईया) के प्रति मनुष्य का मन अपने आप हट जाता है जब उसे बड़े तालाब (जलाशय) की प्राप्ति हो जाती है। इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा का ज्ञान हो जाने के बाद छोटे भगवानों ब्रह्मा, विष्णु, महेश, देवी-देवताओं, माता तथा काल (ब्रह्म) तथा परब्रह्म आदि से मन हट कर पूर्ण परमात्मा की भक्ति करके उसके अनामी (अनामय) परम पद को अर्थात् सतलोक से भी आगे अनामी लोक में चला जाता है। जन्म-मरण से पूर्ण रूप से छूट जाता है। इसलिए तू पूर्ण परमात्मा का भक्त (योगी) हो जा। तब तू योगी अर्थात् सही भक्त होगा।
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अध्याय 2 के श्लोक 54 में अर्जुन ने प्रश्न किया है कि पूर्ण रूप से एक पूर्ण परमात्मा में आश्रित अर्थात् पूर्ण परमात्मा में स्थिर बुद्धि रखने वाले भक्त के क्या लक्षण होते हैं? उसका बोलना-चलना बैठना आदि कैसा होता है?
गरीबदास जी महाराज ने इसका उत्तर भी यही बताया है कि:-
गरीब, राजिक रमता राम की, रजा धरै जो शीश। दास गरीब दर्श पर्श, तिस भेंटै जगदीश।।
भावार्थ:- 1. वह भक्त परमात्मा पर पूर्ण विश्वास करता है कि भक्त के लिए परमात्मा जो करता है, वह सही करता है। उसकी रजा में प्रसन्न रहता है। ऐसे साधक को परमात्मा मिलता है। 2. साधक सामाजिक कुरीतियों से बचता है। 3. नशीले पदार्थों का सेवन नहीं करता। 4. माँस नहीं खाता। 5ण् कोई बुराई जैसे व्याभीचार, चोरी-रिश्वतखोरी, डाके आदि नहीं करता।
गीता अध्याय 2 श्लोक 55-68 का अनुवाद:-
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गीता अध्याय 2 श्लोक 55:- अर्जुन ने श्लोक 54 में प्रश्न किया है कि जो साधक परमात्मा पर पूर्ण रूप से समर्पित हो चुका है, उसका ध्यान केवल परमात्मा प्राप्ति पर स्थाई रूप से स्थिर है, उसकी पहचान (लक्षण) क्या है? उसका कैसे पता चलता है? इसका उत्तर इस प्रकार दिया है कि हे अर्जुन! जब साधक मन की उपज कामनाओं को भली-भांति त्याग देता है, स्वयं संतुष्ट रहता है, तब वह स्थित प्रज्ञ यानि निश्चल बुद्धि कहा जाता है।
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गीता अध्याय 2 श्लोक 56:- इसके अतिरिक्त सुख-दुःख में विचलित नहीं है, जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं। वह मुनि यानि भक्त स्थिर बुद्धि कहा जाता है।
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गीता अध्याय 2 श्लोक 57-58:- इन श्लोकों में भी स्थिर बुद्धि वाले साधक के लक्षण बताए हैं। कहा है कि शुभ-अशुभ परमात्मा की देन मानकर विचलित नहीं होता। भौतिक जगत से प्रेम न रखकर परमात्मा में रूचि रहता है। राग-द्वेष रहित होता है। जैसे कछुआ अपने सर्व अंगों को समेटकर छुपा लेता है, उसी प्रकार भक्त अपनी इन्द्रियों को शांत कर लेता है।
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गीता अध्याय 2 श्लोक 59-60:- इन श्लोकों में कहा है कि जो व्यक्ति हठपूर्वक इन्द्रियों को विषयों से दूर रखता है। उसकी स्थिति ऐसी होती है जैसे कोई व्यक्ति निराहार यानि भोजन के बिना रहता है। उसने पदार्थों के खाने से संयम कर लिया, परंतु उन पदार्थों के स्वाद में आसक्ति बनी रहती है। इसी प्रकार इन्द्रियों को हठपूर्वक विषयों से रोकने से संयम तो कर लिया, आसक्ति समाप्त नहीं हुई। साधक की विषयों का रस यानि आनंद लेने वाली आसक्ति काल ब्रह्म से (परम्) पर यानि अन्य परमात्मा को (दृष्टवा) देखकर यानि सत्य साधना से परमात्मा का साक्षात्कार हो जाता है जिससे वह आसक्ति (निवर्तते) निवृत हो जाती है।
हे अर्जुन! जिनको तत्वज्ञान प्राप्त नहीं हुआ, उन्होंने यदि हठ करके इन्द्रियों की विषयों भोगों से रोक भी ली तो भी इन्द्रियाँ बुद्धिमान पुरूष के मन को हर लेती हैं। उदाहरण:- श्रृंगी ऋषि ने अपनी इन्द्रियों को हठयोग से रोका था। उसके लिए वर्षों हठ करके निराहार रहा। एकांतवास वन में किया। परंतु पूर्ण परमात्मा के सत्य मंत्रों की साधना के अभाव के कारण राजा दशरथ की बेटी शांता के रूप पर आसक्त होकर सर्व रसों के भोग का आनंद लिया, विवाह किया। इन श्लोकों में यही बताया है कि गीता ज्ञान दाता यानि काल ब्रह्म तक की साधना से साधक के विकार समाप्त नहीं होते। कुछ दिन दबे रहते हैं। अवसर मिलते ही पहले से भी प्रबल वेग से सक्रिय हो जाते हैं। जैसे अग्नि को राख में दबा दिया जाता है। ऊपर हाथ रखकर जाँच करने से भी गर्म नहीं लगती। परंतु कुछ समय उपरांत भी राख ऊपर से हटाने के पश्चात् पहले से अधिक गर्म होती है। यही दशा काल ब्रह्म से अन्य परमात्मा की साधना न करने वालों की है। अगले श्लोक 61 में स्पष्ट किया है:-
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गीता अध्याय 2 श्लोक 61:- सब इन्द्रियों को वश में करके (मत्परः) मेरे से दूसरे परमात्मा (आसीत युक्तः) की साधना में साधक लगे क्योंकि उसी की सत्य मंत्रों की साधना से मन वश होता है। मन के आधीन इन्द्रियाँ हैं। जिस साधक की इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसकी (प्रज्ञा) बुद्धि (प्रतिष्ठिता) पूर्ण रूप से स्थिर हो जाती हैं।
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गीता अध्याय 2 श्लोक 62-63:- इन श्लोकों में बताया है कि विषयों यानि विकारों का चिंतन करने वाले व्यक्ति की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है। आसक्ति से उनको प्राप्त करने की कामना उत्पन्न होती है। कामना पूर्ण न होने से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से मूर्खता उत्पन्न होती है। मूढ़भाव से स्मरण शक्ति में भ्रम हो जाता है। स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि यानि विवेक का नाश हो जाता है। बुद्धि का नाश होने से व्यक्ति मानवता से गिर जाता है।
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गीता अध्याय 2 श्लोक 64-65:- इन श्लोकों में कहा है = परंतु (विधेय आत्मा = विधेयात्मा) शास्त्राविधि अनुसार पूर्ण परमात्मा की साधना करने वाला साधक सत्य साधना से अपने वश में की हुई राग-द्वेष रहित की हुई इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ यानि संसार में रहकर कर्म करता हुआ परिवार पोषण करता हुआ भी (प्रसादम्) परमात्मा प्राप्ति रूपी कृपा प्रसाद को यानि पूर्ण सुखदायी मोक्ष को (अधिगच्छति) प्राप्त हो जाता है।
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(प्रसादे) परमात्मा की कृपा से परमात्मा की प्राप्ति होने पर इस साधक (सर्वदुःखानाम्) सब दुःखों की हानि हो जाती है। वह सदा प्रसन्न चित्त रहता है। प्रसन्न चित्त वाले साधक की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर परमात्मा के स्मरण में पूर्ण रूप से स्थिर हो जाती है।
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गीता अध्याय 2 श्लोक 66-68:- जिसको तत्वदर्शी संत नहीं मिला, वह परमात्मा के स्मरण में स्थिर नहीं हो सकता क्योंकि उसका मन वश नहीं है। उस अयुक्त यानि परमात्मा पर न टिके मन वाले पुरूष में बुद्धि स्थिर नहीं होती और उस अयुक्त यानि परमात्मा में दृढ़ता से न लगे अभक्त के अंदर भक्ति भाव नहीं होता और बिना भाव के व्यक्ति को परमात्मा के स्मरण से मिलने वाली शांति नहीं मिलती। अशांत मनुष्य को सुख कैसे हो सकता है? अर्थात् वह कभी सुखी नहीं हो सकता।
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क्योंकि पूर्ण संत रूपी खेवट नाव के साथ नहीं है तो उस नाव को जल में वायु हर लेती है यानि अपनी इच्छा अनुसार भटकाती है। वैसे ही पूर्ण संत के अभाव से तत्वज्ञान न होने से जल में नाव की भाँति विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से मन जिस इन्द्री के साथ लगा है, वह एक ही इन्द्रिय उस अभक्त की बुद्धि को हर लेती है।
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इसलिए हे महाबाहो! जिस व्यक्ति की इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषयों यानि विकारों (काम, क्रोध, मोह, लोभ) से सब प्रकार से निग्रह की हुई है यानि पूर्ण से संयमित है। उसी की बुद्धि स्थिर है।
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अध्याय 2 के श्लोक 55 से 68 में कहा है कि जब भक्त (योगी) इच्छाओं से रहित हो कर भाग्य पर संतुष्ट हैं, उस समय वह स्थिर बुद्धि वाला है। दुःख-सुख को बराबर समझता है व राग-द्वेष से रहित होता है। जिसने इन्द्रियों का दमन कर लिया है। क्योंकि बुरे विचारों से इच्छाऐं (कामना) उत्पन्न होती हैं फिर क्रोध से अज्ञान और अज्ञान से अहंकार, फिर ज्ञान नष्ट हो जाने से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है इसके बाद पतन निश्चित है। जो तत्वज्ञानी योग युक्त है वह शास्त्रा अनुकूल भक्ति कर्म करता हुआ भी इन्द्रियों के वश नहीं होता। जल्दी ही स्थिर बुद्धि हो जाती है और उसके सर्व दुःखों का अंत हो जाता है। जब तक प्राणी निःइच्छा नहीं होता तब तक सुख कैसा? इन्द्रियाँ मन को ऐसे विवश कर लेती हैं जैसे पानी में नौका वायु के वश हो जाती है अर्थात् जिसकी इन्द्रियाँ वश हैं उनकी बुद्धि स्थिर जान।
पाठकजनों! उपरोक्त स्थिति तत्वदर्शी संत से दीक्षा लेकर ही प्राप्त हो सकती है। तत्वदर्शी संत तत्वज्ञान यानि सूक्ष्मवेद से सम्पूर्ण ज्ञान तथा सम्पूर्ण भक्ति विधि बताता है। उसके अभाव से चारों वेदों में वर्णित ज्ञान व साधना से उपरोक्त स्थिति यानि स्थिर बुद्धि नहीं हो सकती, विकार नहीं मरते। यही कारण रहा कि ऋषि वेदों अनुसार साधना करके भी काम, क्रोध, अहंकार आदि के वश ही रहे। उदाहरण रूप में निम्न कथाऐं:-